सोफ़िया आँखें फाड़-फाड़ कर चारों तरफ़ देख रही थी, लेकिन उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह कहाँ है। कमरा आलीशान ढंग से सजा था और वह एक आरामदेह बिस्तर पर पड़ी हुई थी। उसने उठना चाहा, मगर उठ न सथी उसे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे उसके जिस्म में जान ही न रह गयी हो। ज़ेहन काम नहीं कर रहा था। उस पर दोबारा बेहोशी छा गयी और फिर दूसरी बार जब उसकी आँख खुली तो दीवार पर लगी घड़ी में आठ बज रहे थे। सिरहाने रखा हुआ टेबल लैम्प रौशन था।
इस बार वह पहली ही कोशिश में उठ बैठी। थोड़ी देर सिर पकड़े बैठी रही। फिर खड़ी हो गयी। लेकिन इस शिद्दत से चक्कर आया कि उसे सँभलने के लिए मेज़ का कोना पकड़ना पड़ा...सामने का दरवाज़ा खुला हुआ था। वह बाहर जाने का इरादा कर ही रही थी कि एक आदमी कमरे में दाख़िल हुआ।
‘आप को कर्नल साहब याद फ़रमा रहे हैं।’ उसने बड़े अदब से कहा।
‘क्या? डैडी!’ सोफ़िया ने हैरान हो कर पूछा।
‘जी हाँ!’
कमज़ोरी के बावजूद सोफ़िया की रफ़्तार काफ़ी तेज़ थी और उस आदमी के अन्दाज़ से ऐसा मालूम हो रहा था जैसे वह उसी की वजह से जल्दी-जल्दी क़दम उठा रहा है।
वे कई बरामदों से गुज़रते हुए एक बड़े कमरे में आये और फिर वहाँ सोफ़िया ने जो कुछ देखा वह उसे अधमरा कर देने के लिए पर्याप्त था।
उसने कर्नल ज़रग़ाम को देखा जो एक कुर्सी से बँधा हुआ था और उसके गिर्द चार आदमी खड़े उसे खा जाने वाली नज़रों से घूर रहे थे।
‘तुम,’ अचानक कर्नल चीख़ पड़ा। उसने उठने की कोशिश की, लेकिन हिल न सका। उसे मज़बूती से बाँधा गया था।
वे दोनों ख़ामोशी से एक-दूसरे की तरफ़ देखते रहे।
अचानक भारी जबड़ों वाला एक आदमी बोला, ‘कर्नल तुम ली यूका से टकराने की कोशिश कर रहे हो। ली यूका...जिसे आज तक किसी ने भी नहीं देखा...!’
कर्नल कुछ न बोला। उसकी आँखें सोफ़िया के चेहरे से हट कर झुक गयी थीं। भारी जबड़ों वाला फिर बोला, ‘अगर तुमने काग़ज़ात वापस न किये तो तुम्हारी आँखों के सामने इस लड़की की बोटियाँ काट दी जायेंगी। एक-एक बोटी...क्या तुम इसके तड़पने का मंज़र देख सकोगे!’
‘नहीं!’ कर्नल बेसाख़्ता चीख़ पड़ा। उसके चेहरे पर पसीने की बूँदें फूट आयी थीं।
सोफ़िया खड़ी काँपती रही। उसका सिर दोबारा चकराने लगा था। ऐसा मालूम हो रहा था जैसे कमरे की रोशनी पर गर्द की तहें चढ़ती जा रही हों। और फिर उस आदमी ने, जो उसके साथ आया था, आगे बढ़ कर उसे सँभाल लिया। वह बेहोश हो चुकी थी।
‘उसे आराम-कुर्सी में डाल दो।’ भारी जबड़ों वाले ने कहा। फिर कर्नल से बोला, ‘अगर तुम्हें अब भी होश न आये तो इसे तुम्हारी बदक़िस्मती समझना चाहिए।’
कर्नल उसे चन्द लम्हे घूरता रहा। फिर अपना ऊपरी होंट भींच कर बोला, ‘उड़ा दो उसकी बोटियाँ! मैं कर्नल ज़रग़ाम हूँ...समझे!...तुम्हें काग़ज़ात का साया तक नसीब नहीं होगा।’
भारी जबड़ों वाले ने क़हक़हा लगाया।
‘कर्नल! तुम ली यूका की ताक़त से वाक़िफ़ होने के बावजूद बच्चों की-सी बातें कर रहे हो।’ उसने कहा, ‘ली यूका ने तुम्हें कहाँ से खोद निकाला है। वैसे तुम ऐसी जगह पर छुपे थे जहाँ फ़रिश्ते भी पर नहीं मार सकते थे...वह ली यूका ही की ताक़त थी जो दिन-दहाड़े तुम्हारी लड़की को यहाँ उठा लायी...मैं कहता हूँ, आख़िर वह काग़ज़ात तुम्हारे किस काम के हैं?...यक़ीन जानो तुम उनसे कोई फ़ायदा नहीं उठा सकते। वैसे तुम अक़्लमन्द ज़रूर हो कि तुमने अभी तक वे काग़ज़ात पुलिस के हवाले नहीं किये...मुझे बताओ तुम चाहते क्या हो!’
‘मैं तुम्हारे किसी सवाल का जवाब नहीं देना चाहता। तुम्हारा जो दिल चाहे कर लो!’ कर्नल ग़ुर्राया।
‘अच्छा।’ भारी जबड़े वाले ने अपने एक आदमी को इशारा करते हुए कहा, ‘उस लड़की के पैर का अँगूठा काट दो!’
उस आदमी ने मेज़ पर से एक चमकदार कुल्हाड़ी उठायी और बेहोश सोफ़िया की तरफ़ बढ़ा।
‘ठहरो!’ अचानक एक गरजदार आवाज़ सुनाई दी। ‘ली यूका आ गया।’
साथ ही एक ज़ोरदार धमाका भी हुआ और सामने वाली दीवार पर आँखों को चुँधिया देने वाली चमक दिखाई दी। सारा कमरा धुएँ से भर गया। सफ़ेद रंग का गहरा धुआँ जिसमें एक बालिश्त के फ़ासले की चीज़ भी नज़र नहीं आ रही थी।
धड़ाधड़ फ़र्नीचर उलटने लगा। कर्नल ज़रग़ाम की भी कुर्सी उलट गयी। लेकिन उसे इतना होश था कि उसने अपना सिर फ़र्श से न लगने दिया। कमरे के दूसरे लोग नींद से चौंकते हुए कुत्तों की तरह शोर मचा रहे थे। अचानक कर्नल कुर्सी छोड़ कर खड़ा हो गया। कोई उसका हाथ पकड़े हुए उसे एक तरफ़ खींच रहा था। कर्नल धुएँ की घुटन की वजह से इतना बदहवास हो रहा था कि उस अज्ञात आदमी के साथ खिंचता चला गया।
और फिर थोड़ी देर बाद उसने ख़ुद को ताज़ा हवा में महसूस किया। उसके सिर पर खुला हुआ और तारों-भरा आसमान था। उसने अँधेरे में उस आदमी को पहचानने की कोशिश की जो उसका हाथ पकड़े हुए तेज़ी से ढलान में उतर रहा था। उसने अपने कन्धे पर किसी को लाद रखा था। इसके बावजूद उसके क़दम बड़ी तेज़ी से उठ रहे थे।
‘तुम कौन हो?’ कर्नल ने भर्रायी हुई आवाज़ में पूछा।
‘अली इमरान, एम.एस.सी, पी-एच.डी.,’ जवाब मिला।
‘इमरान...!’
‘शश...चुपचाप चले आइए!’
वे जल्दी ही चट्टानों में एक सुरक्षित जगह पर पहुँच गये। ये चट्टानें कुछ इस क़िस्म की थीं कि उनमें घण्टों तलाश करने वालों को चक्कर दिया जा सकता था।
इमरान ने बेहोश सोफ़िया को कन्धे से उतार कर एक पत्थर पर लिटा दिया।
‘क्यों!...क्या है?’ कर्नल ने पूछा।
‘ज़रा एक च्यूइंगम खाऊँगा।’ इमरान ने अपनी जेबें टटोलते हुए कहा!...
‘अजीब आदमी हो...अरे, वह इमारत यहाँ से ज़्यादा दूर नहीं है।’ कर्नल घबराये हुए लहजे में बोला।
‘इसीलिए तो मैं रुक गया हूँ। लगे हाथों ये तमाशा भी देख लूँ! क्या यहाँ से फ़ायर स्टेशन नज़दीक है।’
‘क्या वहाँ आग लग गयी है?’ कर्नल ने पूछा।
‘जी नहीं! ख़ामख़ा बात का बतंगड़ बनेगा। वह तो सिर्फ़ धुएँ का एक मामूली-सा बम था। ज़रा देखिएगा धुएँ का बादल...’
कर्नल ने इमारत की तरफ़ नज़र डाली। उसके ऊपरी हिस्से पर धुएँ का घना बादल मँडरा रहा था।
‘क्या वह बम तुमने...?’
‘अरे तौबा...लाहौल विला...’ इमरान अपना मुँह पीटता हुआ बोला, ‘मैं तो उसे टूथपेस्ट का टयूब समझे हुए था...मगर मुझे उन बेचारों पर तरस आता है, क्योंकि इमारत से बाहर निकलने के सारे रास्ते बन्द हैं। मैंने पिछली रात ख़्वाब में देखा था कि क़यामत के क़रीब ऐसा ज़रूर होगा। वग़ैरा, वग़ैरा।’
‘इमरान! ख़ुदा की क़सम तुम हीरे हो!’ कर्नल दबे हुए जोश के साथ बोला।
‘ओह, ऐसा न कहिए! वरना कस्टम वाले ड्यूटी वसूल कर लेंगे।’ इमरान ने कहा। ‘लेकिन आप यहाँ कैसे आ फँसे?’
‘मैं ऐसी जगह छुपा था इमरान, कि वहाँ परिन्दा भी पर नहीं मार सकता था। लेकिन उन्होंने मुझे प्लेग के चूहे की तरह बाहर निकाल लिया।’
‘गैस?’ इमरान ने पूछा।
‘हाँ! मैं एक गुफा में था। उन्होंने बाहर से गैस डाल कर मुझे निकलने पर मजबूर कर दिया। लेकिन सोफ़िया यहाँ कैसे पहुँची?’
‘ठहरिए!’ इमरान हाथ उठा कर बोला और शायद दूर की कोई आवाज़ सुनने लगा...फिर उसने जल्दी से कहा ‘इस बारे में फिर कभी बताऊँगा...उठिए...गाड़ियाँ आ गयी हैं।’
उसने फिर सोफ़िया को उठाना चाहा। लेकिन कर्नल ने रोक दिया। वह उसे गोद में उठा कर इमरान के पीछे चलने लगा। उतराई बहुत तेज़ थी। लेकिन फिर भी वे सँभल-सँभल कर नीचे उतरते रहे। फिर उन्हें पतली-सी बल खाती हुई सड़क नज़र आयी। तारों की छाँव में सड़क साफ़ दिखाई दे रही थी। अचानक नीचे से लाल रंग की रोशनी की एक किरन आ कर चट्टानों पर फैल गयी। कर्नल के मुँह से अजीब-सी आवाज़ निकली।
‘ओह...फ़िक्र न कीजिए...पुलिस है!’ इमरान ने कहा।
फिर जल्द ही पाँच-छ: आदमी उनकी मदद के लिए ऊपर चढ़ आये। उनमें इन्स्पेक्टर ख़ालिद भी था।
‘उस इमारत में तो आग लग गयी है।’ उसने इमरान से कहा।
‘उन लोगों को भिजवाने का इन्तज़ाम करो।’ इमरान बोला, ‘और तुम मेरे साथ आओ। सिर्फ़ दस आदमी काफ़ी होंगे।’
फिर उसने कर्नल से कहा, ‘आप बहुत कमज़ोर हो गये हैं, इसलिए इस वक़्त पुलिस को कोई बयान न दीजिएगा।
‘क्या मतलब।’ ख़ालिद भन्ना कर बोला।
‘कुछ नहीं प्यारे! तुम मेरे साथ आओ। आदमियों को भी लाओ।’
‘सब वहीं मौजूद हैं।’ ख़ालिद बोला।
कर्नल और सोफ़िया नीचे पहुँचाये जा चुके थे। इमरान ख़ालिद के साथ फिर उस इमारत की तरफ़ बढ़ा। जिसकी खिड़कियों से गहरा धुआँ निकल कर आकाश में बल खा रहा था। इमारत के गिर्द काफ़ी भीड़ इकट्ठा हो गयी थी। ख़ालिद के आदमी जल्द ही आ मिले और इमरान उन्हें साथ ले कर अन्दर घुसता हुआ चला गया। बाहर के सारे दरवाज़े उसने पहले ही बन्द कर दिये थे, इसलिए इमारत के लोग बाहर नहीं निकल सकते थे। और बाहर वालों की अभी तक हिम्मत नहीं पड़ी थी कि इमारत में क़दम रख सकते।
इमारत में कुछ कमरे ऐसे भी थे जहाँ अभी तक धुआँ गहरा नहीं हुआ था। ऐसे कमरों में से एक में उन्हें पाँचों आदमी मिल गये थे। वे सब पसीने में नहाये हुए बुरी तरह हाँफ रहे थे।
‘क्या बात है?’ इमरान ने पहुँचते ही ललकारा।
उसे देख कर उन सबकी हालत और ज़्यादा ख़राब हो यी।
‘बोलते क्यों नहीं?’ इमरान फिर गरजा। उनमें से कोई कुछ न बोला। इमरान ने ख़ालिद से कहा, ‘ये शिफ़्टेन के आदमी हैं...धुएँ के बम बना रहे थे। एक बम फट गया।’
‘बकवास है।’ भारी जबड़ों वाले ने चीख़ कर कहा।
‘ख़ैर, परवाह नहीं!’ ख़ालिद गर्दन झटक कर बोला, ‘मैं तुम्हें अपहरण के इल्ज़ाम में हिरासत में लेता हूँ।’
‘यह भी एक फ़िजूल-सी बात होगी।’ भारी जबड़ों वाला मुस्कुरा कर बोला, ‘हमने किसी को भी छुपा कर नहीं रखा।’
‘हाँ! ख़ालिद साहब!’ इमरान ने मूर्खतापूर्ण अन्दाज़ में आँखें फिरा कर कहा, ‘इससे काम नहीं चलेगा। ज़ोर-ज़बरदस्ती का सबूत तो शायद यहाँ से उड़ चुका है, नहीं...ये लोग बम बना रहे थे।’
‘हथकड़ियाँ लगा दो!’ ख़ालिद ने अपने आदमियों की तरफ़ मुड़ कर कहा।
‘देखो, मुसीबत में फँस जाओगे तुम लोग!’ भारी जबड़े वाला झल्ला कर बोला।
‘फ़िक्र न करो।’ ख़ालिद ने जेब से रिवॉल्वर निकालते हुए कहा, ‘चुपचाप हथकड़ियाँ लगवा लो, वरना अंजाम बहुत बुरा होगा...मैं ज़रा फ़ौजी क़िस्म का आदमी हूँ।’
उन सबके हथकड़ियाँ लग गयीं। जब वे पुलिस की गाड़ी में बैठाये जा चुके तो ख़ालिद ने इमरान से कहा, ‘अब बताइए, क्या चार्ज लगाया जाये उनके ख़िलाफ़?
बमसाज़ी!...आस-पास के लोगों ने धमाका ज़रूर सुना होगा...दस बारह सेर गन्धक और दो-एक जार तेज़ाब के इमारत से बरामद कर लो, समझे! बस इतना ही काफ़ी है।’
‘और वो शिफ़्टेन वाला मामला?’ ख़ालिद ने पूछा।
‘फ़िलहाल तुम्हारे फ़रिश्ते भी उसके लिए सबूत जुटा नहीं सकते....अच्छा, मैं चला...कम-से-कम उनकी ज़मानत तो होने ही न देना!’
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