बलदेव मनोचा भी गहन मानसिक विषाद में घिरा था ।



थकान और बेचैनी के साथ–साथ वह साफ महसूस कर रहा था कि उसका आत्मविश्वास साथ छोड़ चुका था । इसकी बड़ी वजह थी–डर ! उन पुलिस अफसरों का जिन्होंने अभी–अभी उससे पूछताछ खत्म की थी और दूसरा और उनसे कहीं ज्यादा बड़ा खौफ सता रहा था फारूख और अनवर हसन का ।



उससे बहुत लम्बा इंतजार कराया गया था हैडक्वार्टर्स में । कमरा साफ–सुथरा था । दीवारें, छत, फर्श वगैरा और फर्नीचर के नाम पर मौजूद एक मेज और दो कुर्सियां इतने ज्यादा साफ थे कि कहीं एक निशान तक नहीं था । ऐसा लगता था वहां कभी कोई आया ही नहीं था । इसके बावजूद मनोचा स्वयं को शांत और अविचलित दर्शाने का बाहरी आवरण ओढ़े रहने में कामयाब रहा था । उस वक्त तक भी जब कमल किशोर नाम का इंसपेक्टर जिसने क्लब के जले हुये ऑफिस में उसे सेफ खोलने पर मजबूर किया था, अपने दो साथियों के साथ वहां पहुंचा । उन दोनों की आँखें उनके आर्थिक मामलों के घोटालों को पहचानने में माहिर होने की चुगली कर रही थी ।



उन दोनों के आगमन ने मनोचा को विचलित कर दिया था । जहां तक कमल किशोर का सवाल था, उस जैसे लोगों की अधिकार सीमा और ताकत को वह अच्छी तरह जानता और समझता था । लेकिन दूसरे दोनों बिल्कुल अलग थे–जब वे सामने वाले को देखते तो ऐसा लगता था उनकी पैनी निगाहें उसके दिमाग में चल रहे जोड़–तोड़ और वहां जमा किये गये उन आंकड़ों तक को साफ पढ़ रही थीं । जिन्हें मनोचा जैसे लोग अपने दिमाग में पूरी हिफाज़त से लॉक करके रखते हैं । वे दोनों उस लॉक को खोलकर उन विशेष सूचनाओं तक पहुँचना जानते थे । उनकी इस खास काबलियत का अहसास होते ही मनोचा के अंदर दहशत के कीड़े रेंगने शुरू हो गये थे ।



उस कमरे में पहुँचने के बाद मनोचा समझ गया था । किसी से बातें करने तक की इजाज़त उसे नहीं दी जायेगी । उसके दोनों सूटकेस सामने मेज पर रखे थे । दरवाजे पर एक वर्दीधारी कांस्टेबल मौजूद था । सुबह की चाय फिर नाश्ता और फिर लंच सब सही समय पर मुहैया करा दिये गये थे ।



मनोचा वक्त की नज़ाकत को अच्छी तरह समझता था, इसलिये उसने किसी से पूछा तक नहीं कि क्या वह अपने वकील को बुला सकता है । इसकी कोई तुक भी नहीं थी । वे साफ कह चुके थे उस पर कोई आरोप नहीं लगाया जायेगा । उनकी दिलचस्पी यह पता लगाने में थी कि क्लब में आग किसने लगायी हो सकती थी ।



इस खेल से वाक़िफ़ मनोचा को उनके शांत स्वभाव और धैर्य पर जरा भी ताज्जुब तो नहीं हुआ, मगर बेचैनी जरूर महसूस हुई । हर एक बड़ी खुशमिजाजी से पेश आया था । क्लब की तबाही पर हमदर्दी तक जतायी थी । मनोचा का मेंटल सेफ्टी कैच ऑन था । लेकिन तीनों पुलिस वालों के बाहरी दोस्ताना व्यवहार ने उसके हर तरह के डर पर हावी होकर उसे क्षणिक झूठी सुरक्षा का अहसास भी करा दिया था ।



वह जानता था यह सब दिखावा था । अंदर से तीनों पूरी तरह सख्त थे । उसके अचेतन मन में यह सवाल भी उठ रहा था–आग लगने की खबर पाकर फौरन उसने फायर ब्रिगेड को क्यों इत्तिला नहीं दी ? हालांकि हसन भाइयों को फोन करने की बात को उसके खिलाफ इस्तेमाल नहीं किया जा सकता था । लेकिन हैडक्वार्टर्स से दोबारा उन्हें फोन वह नहीं कर सका था क्योंकि पहले ही बड़ी भारी मुसीबत में फंसा था और इससे मुसीबत और ज्यादा बढ़ जानी थी ।



इंसपेक्टर कमल किशोर ने अपना खेल बढ़िया तरीके से खेला था । उसकी महारत मनोचा की अपनी महारत से कम नहीं थी । उसने तमाम संभावित पहलुओं, जानी दुश्मनी, बिज़नेस राइवलरी वगैरा को कवर करते हुये बड़े ही शिष्ट ढंग से पूछताछ की थी ।



–"मिस्टर मनोचा, हम सब तजुर्बेकार और सुलझे हुये लोग हैं ।" उसने पूछा था–"अगर तुम किसी को प्रोटेक्शन मनी देते रहे हो और फिर देना बंद कर दिया हो तो बेहतर होगा अब हमें बता दो । हम अच्छी तरह जानते हैं उस क्लब में क्या क्या होता था ।" और इस ढंग से मुस्कराया था कि कोई भी आश्वस्त होकर अपना रिकार्ड चालू कर सकता था ।



लेकिन मनोचा ने किसी तरह की प्रोटेक्शन या जबरन वसूली की जानकारी तक से साफ इंकार कर दिया था ।



–"मेरा ऐसा कोई बिज़नेस राइवल नहीं है जो ऐसी घटिया हरकत कर सके ।" उसने स्पष्ट स्वर में कहा था–"हर एक धंधे की तरह हमारे बिज़नेस में भी राइवलरी है लेकिन दोस्ताना है । किसी को नुकसान पहुंचाने की नीयत से नहीं ।"



–"किसी पर तुम्हारा मोटा कर्ज है–जुए वगैरा का ?"



–"नहीं, इंसपेक्टर ! क्रेडिट के मामले में हम बहुत अहतियात बरतते हैं । हम अपने कस्टमरों को जानते हैं और अनजान को उधार देना हमारी पॉलिसी नहीं है ।"



सवाल–जवाब की तकनीक करीब घण्टे भर तक चलती रही । पूछताछ बड़ी शान्ति और शिष्टता के साथ की गयी । आखिरी दौर में एक और सादा लिबास वाला आ पहुंचा था । ऊंचा कद, इकहरा मजबूत जिस्म, चौड़े कंधों और सख्त चेहरे वाले उस आदमी का पहनावा स्टाइलिश था । उसके बैठकर सुनने का भी अपना अलग अंदाज़ था ।



कमल किशोर के साथ आये दोनों आदमी लम्बी बातचीत के दौरान खामोश रहे थे । जब उन्हें यकीन हो गया मनोचा ने कुछ नहीं उगलना था तो उन दोनों में अपेक्षाकृत ज्यादा उम्र वाला उससे मुखातिब हुआ ।



–"मिस्टर मनोचा !" दोस्ताना लहजे में बोला–"हमारी एक समस्या है ।"



सिचुएशन के बावजूद सामान्य बना मनोचा मुस्कराया ।



–"समस्या ?"



–"बड़ी ही पेचीदा समस्या है ।"



मनोचा ने यूं आँखें सिकोड़ी मानों यकीन नहीं कर पाया था ।



–"क्या ?"



उसके अट्ठाईस वर्षीय और कम उम्र वाले साथी ने दोनों ब्रीफ़केसों की ओर सर हिलाया–"ये...?"



मनोचा कुछ नहीं बोला ।



–"मिस्टर मनोचा, इंसपेक्टर कमल किशोर ने हमें बताया है कि तुमने इन्हें लालच देने की कोशिश की थी ।"



–"यह क्या कह रहे हो ?"



–"जो इंसपेक्टर ने हमें बताया है ।"



–"मेरी समझ में नहीं आ रहा है...!"



"तुम अच्छी तरह समझ रहे हो । तुमने पैराडाइज क्लब के ऑफिस में इंसपेक्टर को पन्द्रह लाख रुपये ऑफर किये थे ।"



–"मैंने ? नहीं ।"



–"इंसपेक्टर ने अदालत में भी यही कहना है और एक गवाह इसकी पुष्टि करेगा ।"



–"बकवास है । मैंने इंसपेक्टर को इतनी मोटी रकम किसलिये ऑफर करनी थी ?"



–"सवाल तो यही है ।"



–"लेकिन मैंने कभी...!"



–"तुम झूठ बोलने में माहिर हो, दोस्त !" कमल किशोर धीरे–धीरे कुर्सी से उठता हुआ बोला–"लेकिन अदालत में जज किसका यकीन करेगा ? तुम्हारा या मेरा और मेरे एस० आई० का ?"



मनोचा ने चारों आदमियों पर निगाहें घुमायी ।



–"जज और कानून ! आप लोग मुझे फंसा रहे हैं । जज को भी अपने साथ मिला लोगे ।"



–"हम ऐसा कुछ नहीं करते ।" कम उम्र वाला शान्त स्वर में बोला–"असलियत यह है इन ब्रीफकेसों में जो भी है, वो एक मौकाये वारदात से मिला है । वारदात थी–विस्फोटकों से आगजनी । इसलिये इन ब्रीफकेसों को सीज करने का पूरा कानूनी हक हमें है ।'



–"लेकिन यह मेरी मिल्कियत है ।" मनोचा ने यूं ब्रीफकेसों की ओर बांहें फैलायीं मानों उन्हें छाती से लगाना चाहता था जैसे कोई मां अपने बच्चे को बचा रही थी ।



कमल किशोर नाखुशी भरे अंदाज़ में मुस्कराया ।



–"इसका फैसला अदालत करेगी ।"



–"हम बाक़ायदा रसीद देंगे तुम्हें ।" कम उम्र वाला जेब से प्रिंटेड फार्मों का पैड निकालता हुआ बोला ।



–"लेकिन मैं इसका मालिक हूं ।"



–"और हम समझते हैं इसका असली मालिक कोई और है ।" सबसे बाद में आने वाले ने पहली बार अपना मौन भंग किया । सबकी गरदनें उसकी ओर घूम गयीं ।



मनोचा को लगा वह सख्त मिज़ाज था ।



–"ताकि तुम भूल न जाओ, मिस्टर मनोचा, इसलिये बताता हूं ।" उसका कथन जारी था–"मैं क्राइम ब्रांच का इंसपेक्टर रंजीत मलिक हूं और मुझे जरा भी यकीन नहीं है कि इन ब्रीफकेसों का सामान तुम्हारा अपना है । मेरे विचार से इसके मालिक वे दो आदमी हैं, जिनका ज्यादातर वक्त उस क्लब में गुजरता है जिसके तुम मालिक और मैनेजर हो–सिर्फ कागज़ात पर । ये सामान फारूख और अनवर हसन का है और तुम्हारे सामने दो ही रास्ते हैं या तो इन ब्रीफकेसों और इनमें बंद सामान को हम रख लेते हैं और तुम्हें जाने दें या फिर इन कागज़ात की फोटो कापियां करा लें फिर लेजर से कैश का मिलान करके तुमसे बातें की जायें और तुम्हारा रिकार्ड सुनने के बाद तुम्हें ब्रीफ़केस लेकर चला जाने दिया जाये ।"



मनोचा को पसीने छूटने लगे ।



–"अगर ये सामान हमने रख लिया तो तुम बाहर जाते ही भारी मुसीबत में फंस जाओगे ।" रंजीत कहता गया–"दूसरे तरीके पर अमल करने का मतलब होगा–हसन भाइयों को अपना पैसा और कागज़ात मिल जायेंगे । हमारे पास एवीडेंस रहेगा और तुम्हें तब तक डरने की कोई जरूरत नहीं जब तक कि हम सारे मामले को समेटकर सीलबंद नहीं कर देते । उस वक्त तुम्हें पूरी पुलिस प्रोटेक्शन दी जायेगी । तुम्हें अदालत में खड़े होकर सच्चाई भी बतानी होगी ।" उसने अपनी रिस्टवाच पर दृष्टिपात किया–"इस ऑफर को कबूलने या नकारने के लिये तुम्हें सिर्फ एक मिनट दिया जाता है–पूरे साठ सैकेंड !"

मनोचा के दिमाग में बवंडर–सा मच गया । सच्चाई सामने आ खड़ी हुई ।



निर्णय की घड़ी !



लेकिन फौरन फैसला करने की स्थिति में वह नहीं था । उसकी हालत उस बॉक्सर जैसी थी जो घूंसों की मार से बेहाल और बचाव तक न कर पाने की निराशा में जकड़ा रस्सों का सहारा लिये खड़ा नॉक आउट किया जाने के लिये विपक्षी के अंतिम मुक्के का इंतजार कर रहा था ।



धीरे–धीरे उसके मस्तिष्क का जोड़–तोड़ बैठाने वाला कोना सजग होना शुरू हुआ ।



अगर वह ब्रीफकेसों को लिये बगैर वहां से गया तो कुछेक घण्टों में ही मार डाला जायेगा या जिंदगी भर को अपाहिज बनाकर व्हील चेयर के हवाले कर दिया जायेगा । अगर पुलिस वालों की बात मानकर उस पर अमल किया तो भी हालात बदतर ही रहेंगे । हसन भाइयों के सामने कोई नाटक नहीं चल पायेगा । उनके आदमी पुलिस विभाग में भी मौजूद थे, जो हर एक जानकारी उन तक पहुंचा देते थे । यह जानकारी भी उन तक पहुंचा दी जायेगी । इसमें दिन या हफ्ता या महीना भी लग सकता था । लेकिन आखिर असलियत उन पर खुल ही जायेगी ।



कुआं और खाई के बीच की स्थिति थी ।



एक ओर हसन भाइयों का क्रोध और दूसरी ओर कानून का शिकंजा ।



पुलिस वालों की बात मान लेने से थोड़ा वक्त जरूर मिल सकता था । अगर तकदीर ने साथ दिया तो उस वक्त को शहर से गायब हो जाने के लिये भी इस्तेमाल किया जा सकता था ।



उसने ऐसा ही करने का फैसला कर लिया था । सर उठाकर, उन चारों की ओर देखा ।



–"ओर कोई रास्ता नहीं है ?"



–"नहीं ।" रंजीत ने जवाब दिया ।



–"ठीक है ! मैं तुम्हारी बात मानने को तैयार हूं ।"



–"तुम वाकई बहुत समझदार हो ।"



तभी एक अन्य विचार मनोचा के दिमाग में कौंधा । सर से पांव तक दहशत की सर्द लहर गुजर गयी । उसे यहां आये पहले ही कई घण्टे हो चुके थे । हसन भाइयों की आदत और मिज़ाज से वाक़िफ़ वह जानता था उन्होंने किसी को जरूर इधर भेज दिया होगा और उनका वो आदमी आसपास ही कहीं इंतजार कर रहा होगा–उसे वाच करने के लिये । पुलिस वालों की औपचारिकताओं में और भी वक्त लगेगा । जितनी ज्यादा उसे यहां देर होगी, उतनी ही सलामती की उम्मीद कम होती चली जायेगी ।



–"मुझे कितनी देर में फारिग कर दिया जायेगा ?" फंसी–सी आवाज़ में पूछा ।



–"यह दो बातों पर निर्भर करता है ।" रंजीत बोला–"इन ब्रीफकेसों में क्या है और तुम हमें कितना कुछ बताते हो ?"



काम शुरू हो गया ।



खत्म होने में पूरे दो घण्टे लग गये ।



पुलिस वाले खुश एवं संतुष्ट थे ।



मनोचा को इमारत से बाहर पहुंचा दिया गया ।



दोनों ब्रीफ़केस हाथों में लटकाये विभिन्न आशंकाओं में घिरा वह पैदल चल दिया । उसे किसी खाली टैक्सी की तलाश थी, जो दूर–दूर तक कहीं नजर नहीं आ रही थी । ब्रीफकेसों के भार की वजह से ज्यादा तेज नहीं चल पा रहा था ।



करीब बीस मिनट बाद एक लाल कंटेसा उसकी बगल में आ पहुंची । खिड़की का शीशा नीचे गिराकर कहा गया ।



–"बलदेव, अंदर बैठो । हसन भाइयों ने बुलाया है ।"



परिचित स्वर सुनकर अपने विचारों में खोया मनोचा चौंका । गरदन घुमाकर देखा ।



ड्राइविंग सीट पर बैठा कालका प्रसाद मुस्करा रहा था ।



बुरी तरह सिहर गये मनोचा के हाथों से ब्रीफ़केस छूटते–छूटते बचे ।