करीब बीस मिनट बाद वह अपने कमरे में कुर्सी में धंसा सोच रहा था।

फोन पर पुलिस आगमन की सूचना देने वाला कौन हो सकता है? हालांकि उस वक्त उसे फोनकर्ता का स्वर परिचित प्रतीत हुआ था। मगर वह यकीनी तौर पर नहीं कह सकता था स्वर के स्वामी को जानता ही था।

फिर उसने पुनः उसके बारे में सोचने की कोशिश की जिसने उसे कार द्वारा कुचलना चाहा था मगर किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका।

अन्त में उसने रंजना के हत्यारे के बारे में सोचना आरम्भ किया। अनुमानतः रंजना की हत्या अविनाश, हरीश, सुमेरचन्द और लीना में से किसी एक ने की हो सकती थी। लेकिन ऐसा कोई सबूत तो दूर मामूली सा क्लू भी उसके सामने नहीं था, जिसके आधार पर हत्यारे का सुराग भी मिल सके। अलबत्ता ऐसे किसी भी सबूत को जुटाने की खातिर बड़े से बड़ा रिस्क लेने का भी फैसला वह कर चुका था।

सहसा उसके दिमाग में एक अन्य प्रश्न उभरा। इंस्पैक्टर अजीत सिंह को कैसे पता चला वह होटल सूर्या में मौजूद था।

खास तौर पर उस सूरत में जबकि वह पूरे यकीन के साथ है कह सकता था जबसे वह विशालगढ़ आया था, उसका पीछा नहीं किया गया था।

उसे इस बात का भी पक्का विश्वास था होटल सूर्या जाते वक्त भी, जब उसे कार से कुचलने की कोशिश की गई थी, उसका पीछा नहीं किया गया था।

वह होटल सूर्या में छुपा हुआ था, इस बात की जानकारी नीलम और दिलीप के अलावा अज्ञात फोनकर्ता को ही थी।

जाहिर था पुलिस को जानकारी देने वाला उन्हीं तीनों में से कोई एक था।

कौन?

अजय ने हर पहलू से सोचा और अन्त में जिस नतीजे पर पहुंचा वो इस कदर चौंकाने वाला था कि अविश्वसनीय प्रतीत होता था। फिर भी उसकी सच्चाई परखने में देर करना उसने मुनासिब नहीं समझा।

वह कमरे से निकला, दरवाजा लॉक करके सीढ़ियों द्वारा नीचे। पहुंचा और होटल से बाहर निकल गया।

एक खाली जाती टैक्सी रोककर उसमें सवार हुआ और होटल अलंकार की ओर रवाना हो गया।

* * * * * *

ह जानता था होटल अलंकार में पुलिस द्वारा निगरानी की जा रही होगी और अब तक पुलिस को उसके सिख वेष वाले हुलिए की जानकारी भी हो चुकी होगी। वहां जाना उसके लिए बेहद खतरनाक था। लेकिन वहां जाना भी उतना ही जरूरी था। साथ ही वह जानता था पुलिस एहतियातन होटल की निगरानी तो जरूर कर रही होगी मगर इस बात की जरा भी उम्मीद उन्हें नहीं होगी कि वह वहां आने का खतरा मोल लेने की बेवकूफी करेगा।

वह जानबूझकर होटल के सामने वाले भाग की बजाय पिछवाड़े से गुजरने वाली सड़क पर टैक्सी से उतरा।

उसने मीटर देखकर भाड़ा चुकाया और जब ड्राइवर टैक्सी को लेकर चला गया तो होटल की ओर बढ़ गया।

वह उस दरवाजे पर पहुंचा जो उस तरफ ही खुलता था और जिसे किचन के स्टाफ के आने–जाने तथा अन्य वस्तुओं की सप्लाई के लिए प्रयोग किया जाता था।

संयोगवश, उस वक्त इंडियन आयल गैस कम्पनी का एक ट्रक वहां मौजूद था और किचन में गैस सिलेंडर पहुंचाए जा रहे थे।

अजय बेहिचक दरवाजे से भीतर दाखिल हो गया।

डिनर का वक्त करीब होने की वजह से किचन का तमाम स्टाफ इस कदर मसरूफ था किसी को दम लेने की फुरसत नहीं थी। फलस्वरूप या तो वे देखकर भी अजय को अनदेखा कर गए या फिर उन्होंने सोचा किचन स्टाफ के किसी मेम्बर से मिलने आया होगा। वजह जो भी रही उसे किसी ने नहीं टोका।

वह किचन से निकला। सर्विस लिफ्ट द्वारा चौथे खंड पर पहुंच गया।

कारीडोर लगभग सुनसान था।

अजय अपने सुइट के बगल वाले सुइट के सम्मुख पहुंचा। तीन बार दस्तक के जवाब में भी जब दरवाजा नहीं खुला और न ही अन्दर से कोई आहट सुनाई दी तो वह निश्चिन्त हो गया अन्दर कोई नहीं था।

उसने अपने गुच्छे की मदद से ताला खोलकर दरवाजा खोला। भीतर दाखिल होकर दरवाजा बन्द करके लॉक कर दिया।

अन्दर अंधेरा था। अजय ने भली–भांति तसल्ली करने के बाद कि प्रत्येक खिड़की बन्द थी और उस पर पर्दा सजबूती से खिंचा हुआ था, लाइट ऑन कर दी।

फिर उसने सुइट की सिलसिलेवार बारीकी से तलाशी लेनी आरम्भ कर दी, लेकिन जिस चीज की तलाश उसे थी वो कहीं नजर नहीं आई।

उसने निराश मन से सोचा, बेकार ही यहां आने का रिस्क लिया और कीमती वक्त बरबाद किया।

वह अपने अगले कदम के बारे में सोच ही रहा था कारीडोर में प्रवेश द्वार के बाहर आकर कदमों की आहट रुकती सुनाई दी।

अजय ने तुरन्त लाइट ऑफ कर दी।

बाहर से दरवाजे पर दो बार यूं दस्तक दी गई मानो दस्तक देने वाला काफी अहतियात बरत रहा था।

तीसरी दफा दस्तक के बाद दरवाजे के लॉक में चाबी घुमाने की आवाज सुनाई दी।

अजय ने बैडरूम की बालकनी में खुलने वाला दरवाजा खोला, बाहर रेंग गया और दरवाजा पुनः इस ढंग से बन्द कर दिया कि वो छोटी–सी दरार के रूप में खुला रहा।

उसने प्रवेश द्वार खुलने फिर बन्द होने की आवाजें सुनीं। फिर बैडरूम में आ पहुंची कदमों की आहट के साथ गहरी सांस लेने के बाद परिचित स्वर में कहा गया।

–"अब आराम से इन्तजार करूंगा।"

अजय ने साफ पहचाना स्वर अविनाश दीवान का था।

उसकी समझ में यह पहेली नहीं आई कि अविनाश चोरों की भांति क्यों भीतर दाखिल हुआ और अब क्यों अंधेरे में इन्तजार कर रहा है।

अजय की उत्सुकता निरन्तर बढ़ती जा रही थी। वह बालकनी में अन्धेरे में दीवार के साथ सिमटा खड़ा इन्तजार करता रहा।

धीरे–धीरे समय गुजरने लगा।

करीब आधा घन्टा बाद पुनः प्रवेश द्वार खुलने और फिर बन्द होने की आहटें सुनाई दीं। फिर बालकनी के दरवाजे की दरार से हल्की–सी रोशनी का आभास हुआ, जो इस बात का सबूत था सुइट के बाहरी भाग में लाइट स्विच ऑन कर दिया गया था।

फिर अजय को गहरी सांस लेने के बाद एक अन्य चौंकता सा परिचित स्वर सुनाई दिया।

–"त...तुम...तुम यहां क्या कर रहे हो? मेरी ओर यह पिस्तौल सा क्यों तानी हुई है? इ...इसे परे कर लो।"

वो आवाज दिलीप केसवानी की थी।

–"नहीं दोस्त!'' अविनाश ने नर्म स्वर में कहा–"अगर तुम भागने, चालाकी करने या झूठ बोलने की कोशिश करोगे तो मैं तुम्हें बेहिचक शूट कर दूंगा। हाथ ऊपर करके सामने दीवार से पीठ सटाकर खड़े हो जाओ।"

–"लेकिन क्यों?" दिलीप आदेश का पालन करता हुआ बोला–"आखिर मैंने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है?"

–"तुम अच्छी तरह जानते हो किसका तुमने क्या बिगाड़ा है।" अविनाश बोला–"लेकिन मैं तुमसे चन्द सवाल पूछना चाहता हूं। पहले यह बताओ तुम कब से मेरे अंकल के साथ मिलकर काम कर रहे हो? यानी तुम कब से जवाहरात चुराकर उसे बेचते रहे हो?"

–"तुम्हारा दिमाग तो खराब नहीं हो गया है? पता नहीं क्या अंटशंट बके जा रहे हो।"

–"मैं असलियत बयान कर रहा हूं। मैं जानता हूं, 'कनकपुर कलैक्शन' तुमने चुराया था। काशीनाथ की हत्या भी तुमने ही की. थी और हत्या के अपराध में फंसा दिया अपने दोस्त मदन मोहन सेठी को। तुमने यह सब बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से किया था। तुम तो 'कनकपुर कलैक्शन' की एवज में मेरे अंकल से हासिल रकम के बलबूते पर ऐश कर रहे हो और बेचारा बेगुनाह सेठी अनकिए जुर्म के चक्कर में फांसी के फंदे तक जा पहुंचा है। मैं यह भी जानता हूं काशीनाथ की हत्या के बाद जब तुम 'कनकपुर कलैक्शन' लेकर मेरे अंकल के पास आए तो वह तुम पर बिगड़ा था कि इतनी जल्दी क्यों कलैक्शन ले आए। लेकिन तुम जल्दबाजी के लिए मजबूर थे क्योंकि पुलिस के साथ–साथ अजय को भी उस कलैक्शन की तलाश थी।"

–"अजय? उसे तो...।"

–"झूठ मत बोलो।" अविनाश उसकी बात काटकर बोला–"इन तमाम बातों की जानकारी मुझे है, क्योंकि मुश्किल से डेढ़ घन्टा पहले दीवान पैलेस में तुम्हारी और अपने अंकल की बातें सुन चुका हूं। तुम दोनों जिस कमरे में बातें कर रहे थे संयोगवश मैं उसकी खिड़की के बाहर खड़ा था और खिड़की पूरी तरह बन्द थी, क्योंकि मैं तुमसे इत्मीनान से बातें करके तुम्हारे ही मुंह से असलियत कबूलवाना चाहता था इसलिए चुपचाप यहां आकर तुम्हारा इन्तजार करने लगा।

जवाब में दिलीप की आवाज सुनाई नहीं दी।

–"अब तुम यह बताओ रंजना की हत्या किसने की थी?" अविनाश ने पूछा–"तुमने या मेरे अंकल ने?"

–"म...मैंने उसकी हत्या नहीं की। मैंने भला ऐसा क्यों करना था? आखिरकार वह मेरी सगी बहन थी। यह काम तुम्हारे अंकल का ही होना चाहिए। वही विराटनगर से चुपचाप प्लेन द्वारा यहां आ पहुंचा और...।"

–"बको मत! तुम्हारी निगाहों में किसी इंसानी रिश्ते की कोई कीमत नहीं है। तुम्हें सिर्फ पैसे से प्यार है। तुम्हारा ईमान बस पैसा है। उसकी खातिर तुम हर गलत और गिरी हुई हरकत बेहिचक कर सकते हो।" अविनाश का लहजा हिकारत भरा था–"तुम अपना दोष मेरे अंकल के सिर मढ़ना चाहते हो। जबकि ऐसा हो पाना नामुमकिन है। प्लेन द्वारा तुम यहां पहुंचे थे, मैं यकीनी तौर पर कह सकता हूं और तुम्हीं ने चाकू से गला काटकर रंजना की हत्या की थी। यह बात अलग है तुम्हारे साथ इस साजिश में मेरा अंकल भी शामिल हो सकता है।"

–"तुम बेकार ऊट पटांग अनुमान लगा रहे हो।" दिलीप फंसी सी आवाज में बोला–"मैंने...।"

–"इस तरह खुद को अनजान जाहिर करने से तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा–"अविनाश के स्वर में व्यंग का गहरा पुट था–"यह सच्चाई कबूल कर लो कि रंजना की हत्या तुम्हीं ने की थी। रंजना के बाद अगला प्लेन पकड़कर ही तुम यहां आ पहुंचे थे। मेरे अंकल के अलावा भी इस शहर में तुम्हारे परिचित हैं। उनमें से कई ऐसे हैं जो पैसे की खातिर तुम्हारी तरह सब–कुछ कर सकते हैं। उन्हीं में से एक ने अजय नाम से रंजना को होटल कोहेनूर, विराटनगर के पते पर अर्जेंट टेलीग्राम भेजी थी कि रंजना फौरन दीवान पैलेस आ जाए। पुलिस को वही टेलीग्राम रंजना के हैंडबैग से मिला था, जिसने अजय को शक के दायरे में ला दिया–"वह तनिक रुका, फिर बोला–"पुलिस विभाग में अपने एक कांटेक्ट से मुझे यह जानकारी मिली थी। फिर उसी टेलीग्राम के बारे में मैंने अपने अंकल से तुम्हें बातें करते सुना कि वो टेलीग्राम अजय को पुलिस की निगाहों में सस्पैक्ट नम्बर वन बना देगा। एक मायने में ऐसा हुआ भी। टेलीग्राम मिलते ही रंजना यहां आ पहुंची। ऊपर से तुमने आकर उसकी हत्या कर दी। फिर तुम अपने दोस्त अजय को इस बखेड़े में ज्यादा से ज्यादा फंसाने की कोशिश में जुट गए, क्योंकि तुम्हें डर था अजय को सही ढंग से सोच समझ कर फ्रीली काम करने का मौका मिला तो वह असलियत का पता लगा ही लेगा। अजय और उसकी गतिविधियों के बारे में जो जानकारी मुझे अब है वो पहले नहीं थी। इसलिए तब मैं भी उसी पर चढ़ दौड़ा था। लेकिन अब सच्चाई सामने आ गई है–वह पुनः रुका फिर बोला–"कल जब मैंने अपने अंकल के साथ तुम्हें पहली बार देखा तो शक तो मुझे तभी हो गया था। फिर तुम दोनों की बातें सुनकर शक यकीन में बदलने लगा। तुम्हारी मजबूरी थी कि तुम्हारे लिए मेरे अंकल से सलाह–मशवरा जरूरी था। तुम्हें डर था कहीं वह इंस्पैक्टर अजीत सिंह की बातों में आकर सच्चाई न उगल दे।"

–"यह सब तुम्हारा ख्याली पुलाव है। तुम...।"

–"नहीं! मैं उस आदमी का पता लगा चुका हूं जिसने तुम्हारे कहने पर यहां से अजय के नाम से रंजना को टेलीग्राम भेजा था। उसने यह भी कबूल किया तार घर में अपनी तगड़ी वाकफियत के जरिए उसने ऐसा इन्तजाम भी किया था कि तार विराट नगर पहुंचने के बाद तुरन्त डिलीवर कर दिया जाए। पुलिस विभाग में अपने कांटेक्ट के जरिए यह पता भी मैं लगा चुका हूं कि पुलिस को इस बात की सूचना भी देने वाले तुम हो कि हरनाम सिंह कालरा के नाम से अजय होटल सूर्या में ठहरा हुआ था। तुम इतने कमीने हो कि आंख मींचकर तुम पर विश्वास करने वाले अपने दोस्त के साथ विश्वासघात करने में जरा भी शर्म तुम्हें नहीं आई। गनीमत थी मैंने फोन द्वारा उसे पुलिस आगमन की पूर्व सूचना दे दी थी वरना वह बेचारा तुम्हारे जाल में फंस ही गया था।

दिलीप कुछ नहीं बोला।

–"मुझे यह भी पता चला है कि कोई दो घंटे पहले तुम्हारे एक आदमी ने अजय को कार से कुचलकर मारने की कोशिश की थी, लेकिन वह कामयाब नहीं हो सका।" अविनाश ने कहा–"तुम्हारी जानकारी के लिए बता देना चाहता हूं कि पुलिस का थोड़ा सा दबाव पड़ते ही वह आदमी अपनी जान बचाने की खातिर असलियत बता देगा। लीना उस आदमी को जानती है और इस वक्त उसी के साथ चिपकी हुई है।

कमरे में देर तक खामोशी छायी रही।

–"सुनो, अविनाश।" अन्त में दिलीप फंसी–सी आवाज में बोला–"तुम्हारा अंकल बेहिसाब दौलतमन्द और ऊंची पहुंच वाला आदमी है। उसे सारी असलियत मालूम है। मगर उस असलियत को किसी के सामने दोहराने का हौसला उसमें नहीं है, क्योंकि स्ट्रांग रूम में करोड़ों की कीमत की चोरी के जवाहरात, पुरानी कलाकृतियां वगैरा मौजूद हैं। हम इस पर खाक डालकर फिर से मिलकर काम करते रह सकते हैं। हरीश भी कुछ दिन में अपनी पत्नी की मौत के सदमे को भूल जाएगा। वह...।"

–"बको मत! तुम्हारे लिए अपनी सगी बहन की कोई कीमत नहीं हो सकती, लेकिन हरीश रंजना को दिलोजान से प्यार करता था। उसकी मौत के सदमे को वह आसानी से नहीं भुला सकेगा। वह हमेशा से सच्चा और ईमानदार आदमी रहा है। चोरी के जवाहरात के धंधे में उसे तुम्हारी और अंकल की मिलीभगत की कोई जानकारी नहीं थी। चोरी और बेईमानी से उसे दिली नफरत है। अभी वह सिर्फ इसलिए खामोश है कि उसके विचार से रंजना के हत्यारे का इसी तरह आसानी से पता लगाया जा सकता है। अब जैसे ही उसे पता लगेगा हत्या तुमने की है वह अंकल के बारे में सारी सच्चाई बता देगा। यह ठीक है मेरा अंकल अपनी अन्तरात्मा पर पड़े बोझ को हल्का करने के लिए गरीबों को छोटा–मोटा दान देकर वर्षों से दानी होने का दिखावा करता आ रहा है और मैंने दिखाने की बजाय सही मायने में गरीबों की मदद करने की कोशिश की है। लेकिन हरीश पर इन बातों का कोई फर्क नहीं पड़ता।" कहकर अविनाश रुका, फिर बोला–"तुम यह बताओ रंजना को कैसे पता चला काशीनाथ की हत्या तुमने की थी? आखिर वह इस बात को इस हद तक यकीनी तौर पर कैसे जानती थी कि तुम्हारे लिए उसकी भी हत्या करना जरूरी हो गया था?"

–"जब मैं विराट नगर में तुम्हारे अंकल से होटल में मिलने गया था तो रंजना ने इस बारे में हमें बातें करते सुन लिया था। दिलीप बड़े ही हिंसक स्वर में बोला–"क्योंकि रंजना को भी इस किस्म की बातों से नफरत थी, इसलिए मैं जानता था वह बिना किसी लिहाज के असलियत का पता लगाने या लगवाने की कोशिश करेगी। मेरा शक यकीन में उस वक्त बदला जब तुम्हारे अंकल ने उसे अजय द्वारा होटल के बाहर ड्राप की जाती देखा और तुम्हारे अंकल द्वारा दबाव डाले जाने पर उसने अजय से हुई बातचीत के बारे में बताया। वैसे जहां तक मेरा सवाल है मुझे तो बेवकूफ अजय ने भी बता दिया था वह विशालगढ़ आने वाला है। इसलिए मैंने एक तीर से दो निशाने लगाने का फैसला कर दिया, दूसरे अजय को भी उसकी हत्या के अपराध में फंसाने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी...।

बालकनी में खामोश खड़े अजय का रोम–रोम गुस्से से कांप उठा। उसके जी में आया फौरन अन्दर जाए और मार–मारकर दिलीप का भुरकस निकाल दे। लेकिन वह खुद को जब्त कर गया।

–"हम आपस में समझौता कर सकते हैं, अविनाश।" दिलीप कह रहा था–"जवाहरात कहां हैं? अजय के पास या किसी और के पास?"

–"वे किसी और के पास ही होने चाहिए। अविनाश ने जवाब दिया–"मैं पुलिस को कभी नहीं बता सकता कि मुझे अजय के पास 'कनकपुर कलैक्शन' होने का शक है, क्योंकि इस मामले में उसका निजी स्वार्थ कोई नहीं है। वह तो बस एक बेगुनाह को फांसी के फंदे से बचाने की कोशिश कर रहा है। मैं इस बारे में उससे खुलकर बातें करूंगा...।"

अचानक वह खामोश हो गया।"

अगले ही क्षण अन्दर फायर की आवाज़ गूंजी। फिर बालकनी का दरवाजा भड़ाक से खुला और दिलीप लड़खड़ाता–सा बाहर निकला।

उसके ठीक पीछे पिस्तौल ताने अविनाश था।

–"ठहरो!'' अजय चिल्लाया–"फायर मत करना!"

उसने आगे बढ़ते दिलीप की कनपटी पर एक वजनी घूँसा जमा दिया।

दिलीप तुरन्त रुका फिर त्यौराकर नीचे जा गिरा।

उसकी चेतना लुप्त हो गई थी।

अविनाश हाथ में पिस्तौल लिए आंखें फाड़े घोर आश्चर्य एवं अविश्वासपूर्वक अजय को ताक रहा था।

–"तुम...और आवाज अजय की। यानी तुम अजय ही हो! खूब बेवकूफ बनाया। खैर, अब तुम जल्दी करो। नीचे लॉबी में पुलिस मौजूद है। फायर की आवाज सुनकर जरूर कोई उन्हें सूचित कर देगा। पुलिस को दिलीप के बारे में सब–कुछ बता दूंगा। सब ठीक हो जाएगा। तुम अपने असली रूप में आ जाओ। जल्दी करो।"

अजय ने सहमति सूचक सिर हिला दिया।

* * * * * *

अगली सुबह।

दिलीप केसवानी ने काशीनाथ और रंजना की हत्याएं करने के साथ–साथ अजय को कार से कुचलवाने की कोशिश करवाने के जुर्म का भी इकबाल कर लिया।

अजय ने फोन पर इंस्पैक्टर रविशंकर को संक्षेप में रिपोर्ट देने के बाद कहा वह मदन मोहन सेठी को बाइज्जत बरी कराने की दिशा में तुरन्त कार्यवाही आरम्भ कर दे, क्योंकि असली हत्यारा पकड़ा जा चुकने के बाद मदन मोहन को रिहा कराना पुलिस का नैतिक कर्तव्य एवं कानूनी दायित्व है।

इंस्पैक्टर अजीत सिंह ने भी फोन पर अजय की बातों की पुष्टि कर दी थी।

लेकिन सारे बखेड़े की जड़ 'कनकपुर कलैक्शन' का अपनी तमाम कोशिशों के बावजूद पुलिस कोई सुराग नहीं पा सकी।

अजय और नीलम पूर्णतया संतुष्ट थे कि मदन मोहन सेठी को बेगुनाह साबित करने के अपने काम को वे सही ढंग से अंजाम दे चुके थे।

अजय ने दीवान सुमेरचन्द के स्ट्रांग रूम की जानकारी गुमनाम फोन काल द्वारा इंस्पैक्टर अजीत सिंह को दे दी थी।

जब इंस्पैक्टर जांच करने पहुंचा तो हरीश ने उस बारे में सब–कुछ बता दिया।

दीवान सुमेरचन्द अपनी इज्जत का यूं जनाज़ा निकाले जाते देखना बर्दाश्त नहीं कर सका। उसे जबरदस्त हार्ट अटैक हुआ और उसने दम तोड़ दिया।

जब स्ट्रांग रूम को खोला गया तो प्रेस रिपोर्टर के रूप में अजय और नीलम भी वहीं मौजूद थे।

अजय पहली ही निगाह में भांप गया स्ट्रांग रूम से आधे से ज्यादा जवाहरात गायब थे। उस समय जब उसने वहां सेंध लगाई थी तो और भी कई ज्वैल बाक्सेज वहां देखे थे जो अब नजर नहीं आ रहे थे।

उसने वहीं मौजूद अविनाश की ओर खोजपूर्ण निगाहों से देखा तो जवाब में अविनाश ने अपनी एक आंख दबाई और रहस्यपूर्ण ढंग से मुस्करा दिया।

अजय समझ गया मौका पाकर वह हाथ की सफाई दिखा चुका था।

अजय ने किराए की स्टैंडर्ड और एम्बेसेंडर कारें रैंटल एजेंसीज को वापस लौटा दीं।

* * * * * *

अगले रोज।

वह और नीलम वापस विराट नगर पहुंचे।

इस बीच रविशंकर के प्रयत्न से मदन मोहन सेठी को। बाइज्जत रिहा कर दिया गया था।

अजय नीलम सहित सीधा पहले उसी के घर पहुंचा।

पति–पत्नी ने बड़ी ही गर्मजोशी से उनका स्वागत किया और उनकी मदद तथा सहयोग के लिए बार–बार तहे–दिल से शुक्रिया अदा किया।

अन्त में अजय सेठी को अलग कमरे में ले गया और अपने एयरबैग से निकालकर एक पैकेट उसे थमा दिया।

–"यह क्या है?" सेठी ने असमंजसतापूर्वक पूछा।

अजय मुस्कराया।

–"खोलकर देख लो।"

मदन मोहन ने पैकेट खोला।

वो 'कनकपुर कलैक्शन' का खूबसूरत ज्वैल केस था।

–"य...यह तुम मुझे क्यों दे रहे हो?" सेठी ने पूछा।

–"तुम पर इसी की वजह से मुसीबत का पहाड़ टूट पड़ा था। इसलिए इसे पाने के सही हकदार तुम ही हो।"

–"नहीं अजय! मैं मेहनत और ईमानदारी की कमाई में विश्वास करता हूँ।" सेठी गंभीर स्वर में बोला–"चोरी का माल मुझे नहीं चाहिए। इसे तुम अपने पास ही रखो।"

–"नहीं, जब तुम जौहरी होकर भी इसे कबूल नहीं कर पा रहे हो तो मुझ जैसा गरीब प्रेस रिपोर्टर भला इसका क्या करेगा?"

–"मैं कुछ नहीं बता सकता।"

–"मैं बताता हूं।" अजय विचारपूर्वक बोला–"इसे गुप्त रूप से नेशनल डिफेंस फण्ड या प्राइम मिनिस्टर रिलीफ फण्ड में दान कर देते हैं।"

इस तरह 'कनकपुर कलैक्शन' गुप्त दान के रूप में नेशनल डिफेंस फण्ड में डोनेट कर दिया गया।

समाप्त