दालूबाबा ने युद्धवीर और उसके साथ आए आदमी को देखा फिर पास खड़े केसर सिंह से बोला।


"केसरे।"


"हां दालूबाबा ।" केसर सिंह आदर भरे स्वर में कह उठा। 


"पेशीराम ने भेजा है इन दोनों को । उसकी मैं इज्जत करता हूं । जा कैदियों के चेहरे दिखा दे इन्हे ।"


"जैसा आप कहें दालूबाबा ।"


"और अब उन तीनों का मुंह खुलवा कि उन्हें हमारी नगरी में कौन लेकर आया । मैं उस गद्दार को ऐसी मौत दूंगा कि मरकर भी वो जिंदा रहेगा और हमेशा पूर्ण मौत के लिए तड़पता रहेगा।"


"जी। मैं उनके मुंह खुलवा लूंगा ।"


"केसर सिंह, युद्धवीर और उसके साथी को लेकर वहां से निकला और कई रास्तों को पार करता हुआ, एक घंटे एक बंद दरवाजे को खोलकर उन्हें लिए भीतर प्रवेश कर गया ।


भीतर कुर्सियों पर जगमोहन, महाजन और बांकेलाल राठौर बैठे थे ।


युद्धवीर और उनका साथी उन्हें देखकर ही चौंके ।


"जग्गू, नीलसिंह भंवर सिंह ।" उन दोनों के होठों से निकला ।


"म्हारी फोटू खींचो हो ।" बांकेलाल राठौर कड़वे स्वर में कह उठा ।


"तो हमने की खबर सुनी थी कि ये तीनों पुनः जन्म लेकर वापस आ गए हैं ।" युद्धवीर हैरान सा बोला ।


"हां । उसका साथी उन तीनों से बोला--- "तुम लोग मनुष्य हो । तुम्हारे शरीरों की महक से मालूम हो रहा है। ऐसे में तुम लोग पृथ्वी से यहां कैसे आ पहुंचे ? कौन लाया तुम्हें यहां ?" 


केसर सिंह की निगाह भी उन तीनों पर थी ।


युद्धवीर ने मौका पाकर होठों ही होठों में कुछ बुदबुदाना शुरू किया । 


"म्हारो पासो एको उड़न खटौला हौवे । उसो पर बैठकर आयो ।" बांकेलाल राठौर का स्वर कड़वा था ।


"हमारी नगरी का कोई आदमी तुम लोगों को यहां लाया है ।" वो पुनः बोला--- "उसका नाम तुम्हें बताना होगा।"


"तेरे बाप का राज है जो बताना होगा।" महाजन ने मुंह बनाकर कहा और हाथ में पकड़ी बोतल से घूंट भरा ।


तभी युद्धवीर के होंठ रुके और तीनों के देखते हुए उसने होठों से हल्की सी फूंक मारी।


इसके साथ ही उन तीनों ने अपने शरीर पर हल्का-सा झटका महसूस किया। उसके बाद वे पहले की ही तरहू खुद को सामान्य महसूस करने लगे। किसी की निगाहों में युद्धवीर की हरकत न आ सकी । अब उन तीनों के शरीरों को ऐसी जादुई हवा ने ढांप लिया था कि जिसे देखना और पहचान पाना नामुमकिन था । उसी ऊपरी हवा के कवच की वजह से अब उन पर किसी भी प्रकार की यादना, पीड़ा का असर नहीं हो सकता था । वे हर तरह के दर्द और मार व यातना से दूर हो चुके थे ।


"तुम लोग हमारे मुंह नहीं खुलवा सकते | हमसे कभी भी ये नहीं जान पाओगे कि हमें यहां कौन लाया ?" जगमोहन ने दांत भींच कर सख्त स्वर में कहा।


केसर सिंह का चेहरा गुस्से धधक उठा । वो आगे बढ़ा और जगमोहन के सिर के बाल पकड़कर जोरदार घूंसा उसके चेहरे पर मारा कि वो कुर्सी सहित नीचे जा गिरा। ये देखकर महाजन और बांकेलाल राठौर कुर्सियों से उठकर केसर पर झपटे ।


परंतु युद्धवीर और उसके साथी ने उन पर सख्ती से कब्जा पा लिया।


नीचे गिरा जगमोहन जल्दी से उठा । परंतु इसके साथ ही उसके चेहरे पर अजीब से भाव आ गए थे । न तो उसे बालों के खिंचाव से दर्द महसूस हुआ और न ही घूंसा लगने का कोई एहसास । उसे लगा ही नहीं कि किसी ने उसे मारा है। यहां तक कि नीचे गिरने से भी कोई पीड़ा नहीं हुई ।


"तुम लोग बहुत जल्द इसका नाम बताओगे, जो तुम लोगों को यहां लाया है।" केसर सिंह गर्ज उठा--- "मैं अभी सलाखें गर्म करके तुम तीनों के शरीर पर दगवाता हूं। "


तभी जगमोहन फुर्ती से आगे बढ़ा और जोरदार घूंसा केसर सिंह के चेहरे पर ठोक दिया ।


केसर सिंह हल्की सी आह के साथ पीछे हटा । वो सिर से पांव तक गुस्से से भर उठा था । दूसरे ही पल वो दांत किटकिटाकर आगे बढ़ा और दो-तीन घूंसे से एक साथ उसके चेहरे और पेट पर मारे ।


जगमोहन लड़खड़ाकर पीछे हटता हुआ दीवार से जा टकराया ।


इस बार उसके चेहरे पर हैरानी स्पष्ट दिखाई दी। क्योंकि उसे कोई पीड़ा नहीं हुई थी और इस बात का एहसास नहीं हुआ कि किसी ने उसे मारा भी है।


"केसर । ये इस तरह नहीं रास्ते पर आने वाले । इन्हें सलाखों से दागो । कठोर से कठोर यातना दो । अपने आप सब कुछ बोलने लगेंगे।"


तभी युद्धवीर कह उठा ।


"ऐसा ही करना होगा अब।" केसर सिंह ने जलते स्वर में कहा ।


केसर सिंह, उन दोनों को लेकर बाहर निकल गया । दरवाजा बंद करता चला गया। जगमोहन ने अजीब सी नजरों से बांकेलाल राठौर और महाजन को देखा ।


"क्या हुआ ?" उसके चेहरे के भाव देखकर महाजन कह उठा ।


"उसने मुझे मारा, लेकिन मुझे महसूस ही नहीं हुआ किसी ने मुझे मारा है । कोई दर्द नहीं । पीड़ा नहीं । "


"ये कैसे हो सकता है।" महाजन ने मुंह बिगाड़ा।


"इसो का दिमाग फिरो हो ।" बांकेलाल राठौर ने व्यंग से कहा।


दो क्षणों की सोच के पश्चात जगमोहन आगे बढ़ा और जोरदार घूंसा बांकेलाल राठौर के चेहरे पर चेहरे पर जड़ दिया। बांकेलाल राठौर लड़खड़ा कर पीछे हटा । साथ ही उसके अजीब से भाव उभरे । 


"यो ठीको बोलो हो । " 


"क्या ?" महाजन ने उसे देखा। 


बांकेलाल राठौर ने घुमाकर थप्पड़ महाजन के गाल पर मारा । 


"ईब समझो हो का ?" 


महाजन ने अजीब सी निगाहों से दोनों को देखा।


"मुझे थप्पड़ लगने से दर्द नहीं हुआ ?" महाजन ने अजीब से स्वर में कहा । 


जगमोहन के चेहरे पर सोच भरी गंभीरता के भाव नजर आ रहे थे । 


"ये सब फकीर बाबा ने किया है ।" जगमोहन बोला ।


"क्या मतलब ?"


"फकीर बाबा को मालूम हो गया था कि गुलाबलाल हमें, दालूबाबा की कैद में इसलिए भेज रहा है कि हमारे मुंह से निकलवाया जा सके कि हमें कौन यहां लाया ?" जगमोहन का स्वर गंभीर था--- "फकीर बाबा को इस बात का अवश्य एहसास रहा होगा कि दालूबाबा की यातनाओं के सामने हम नहीं ठहर सकते । इसलिए बाबा नहीं ऐसा कुछ किया है कि, यातना के दौरान हमें दर्द का एहसास न हो और हम उसके बारे में न बताएं।"


महाजन ने सिर हिलाया ।


"तुम्हारी बात सही हो सकती है ।" महाजन बोला--- "लेकिन यही सच होगा, पक्का नहीं कहा जा सकता।"


"महाजन । यही सच है ।" जगमोहन ने पक्के स्वर में कहा--- "अगर सच नहीं तो फिर हमें मार का एह्सास क्यों नहीं हुआ। यहां और है ही कौन जो हमारे साथ भला करेगा और हमें बचाना चाहेगा । यहां जो हमसे पूछा जाएगा उसका संबंध फकीर बाबा से हैं और फकीर बाबा नही चाहते कि हम उनका नाम लें। गुलाब लाल ने फकीर बाबा को पेशीराम कहकर पुकारा था । यानी कि हम हर तरफ से फकीर बाबा की असलियत जान चुके हैं।"


'यो ही बातों हौवे ।" बांकेलाल राठौर ने गंभीर स्वर में कहा ।


"शायद ।" महाजन ने सोच भरे सेर स्वर में कहा--- "यही सच है।"


"और किसी भी हालत में दालूबाबा के सामने, ये नहीं निकलना चाहिए कि हमें इस नगरी में कौन लाया ?" जगमोहन बोला ।


"हमारा मुंह नहीं खुलेगा ।" महाजन मुस्कुराकर दृढ़ता भरे स्वर में कह उठा। 

"वड के रख दांगे।"


करीब घंटे भर बाद दरवाजा खुला और दालूबाबा ने केसर सिंह के साथ भीतर प्रवेश किया । ये उन लोगों की दालूबाबा के साथ पहली मुलाकात थी।


तीनों की निगाह दालूबाबा पर गई ।


दालूबाबा ने लंबा सा चोगा पहन रखा था। जो कि पीछे से फर्श पर लग रहा था । सिर के छोटे-छोटे बाल और माथे पर तिलक । गले में मालाएं । पृथ्वी के हिसाब से उसका हुलिया अजीब-सा था ।


"दालूबाबा, ये हैं तीनों।" केसर ने कहा ।


दालूबाबा ने अजीब सी निगाहों से तीनों को देखा ।


"ऊपर वाले के करिश्मे का मैं तो कायल हो गया केसरे ।" दालूबाबा अजीब से स्वर में कह उठा--- "दोबारा जन्म लेकर वो ही चेहरे ही नही, कद-काठी भी वही है । "


"जी हां। मैं खुद हैरान हूं।"


"युद्धवीर ने इन्हें देखा ?"


"हां, वो भी इसी तरह हैरान हो उठा । मरे हुए इंसान, दोबारा जन्म लेकर, वो ही चेहरा लेकर फिर सामने आ जाए तो हैरानी होती है । "


दालूबाबा मुस्कुराया ।


"इस करिश्मे को शायद कोई भी न देख पाता, अगर मैंने नगरी का समय चक्र रोक न दिया होता । समय चक्र चलता रहता तो हम कब के मृत्यु को प्राप्त हो गए होते।"


"आप तो महान हैं, दालूबाबा ।" केसर सिंह कह उठा ।


तभी उन दोनों की निगाह महाजन पर जा टिकी थी । जिसका चेहरा गुस्से से तपकर सुर्ख रंग अख्तियार करता जा रहा था ।


"इसमें क्या हुआ ?"


जगमोहन और बांकेलाल राठौर ने महाजन को देखा तो वे भी चौंके। देखते ही देखते महाजन के हाथ से बोतल निकलकर, फर्श पर गिरकर टूट गई । उसके दोनों हाथों की मुट्ठियां भिंच चुकी थी । वो दांत किटकिटाकर कह उठा।


"हरामजादे । साले दालू ?" महाजन के होठों से दरिंदगी से भरा स्वर निकला--- "दुम हिलाने वाले कुत्ते, तू अपने आप को महान कहता है । नीलसिंह के सामने।"


दालूबाबा चौंका । फिर उसकी आंखें सिकुड़ गई । केसर सिंह के चेहरे पर अजीब से भाव छा गए ।


जगमोहन और बांकेलाल राठौर कुछ नहीं समझे । हक्के-बक्के खड़े रहे ।


महाजन अपने मस्तिष्क में बिजली कौंधती महसूस कर रहा था । जाने वो कैसी तरंगे थी जो दिमाग में सनसनाहट फैलाए जा रही थी और यह सब तब हुआ जब दालूबाबा की आंखों से उसकी आंखें टकराई थी, ऐसा होते ही जैसे कोई और शख्स उसके भीतर प्रवेश कर गया हो ।


"केसरे ।" दालूबाबा ने हैरत भरे स्वर में कहा--- "इसे क्या हो गया ?"


"मेरे से बात कर दालू, तेरे में इतनी हिम्मत कब से आ गई कि खुद को महान कहने लगे । साले दो टके के मुझे नमस्कार करना भी भूल गया। उस दिन की ठुकाई भूल गया । वो तेरी देवी, मिन्नो ने मेरे हाथ रोक लिए थे, वरना आज तू जिंदा मेरे सामने खड़ा न होता ।" महाजन की आवाज में भरपूर गुस्सा था । 

दालूबाबा और केसर सिंह की आंखें मिली।


जगमोहन और बांकेलाल राठौर, महाजन को देखे जा रहे थे


"नीलसिंह।" दालूबाबा के होठों से निकला ।


"हां, नीलसिंह।" महाजन ने दांत पीसकर कहा--- "और अब तेरे में इतनी हिम्मत आ गई कि मेरा नाम लेने लगे । नाम से मुझे पुकारे । अपनी औकात से बहुत बाहर आ गया है तू।" 


दालूबाबा की आंखें भी सुलग उठी ।


"इसो पर तो कोई भूतों-वूतों का साया पड़ो लगो हो ।" बांकेलाल राठौर कह उठा।


"चुप रह भंवर सिंह । बीच में मत बोल ।"


"लो, यो भी म्हारो को भंवरो सिंह कहो ।" बांकेलाल राठौर ने जगमोहन को देखा। 


जबकि जगमोहन की आंखें सिकुड़ चुकी थी । चेहरे पर अजीब से भाव थे। 


"मिन्नो कहां है ?" नीलसिंह की आवाज में अधिकार के भाव थे । 


"कौन मिन्नो।" दालूबाबा के चेहरे पर कठोरता नाचने लगी थी । 


"तेरी देवी । नगरी की कुलदेवी । तो अब तू मिन्नो को भूल गया । मैं तो पहले ही कहता था कि तू महाकुत्ता है, लेकिन मिन्नो ने मेरी बात को कभी गंभीरता से नहीं लिया । तू...।"


"इसका मतलब तेरे को पहले जन्म की बातें याद आ गई ।" दालूबाबा जहरीले स्वर में कह उठा--- "सब कुछ ध्यान में आ गया तेरे को।"


"हां। मैंने पूछा है, मिन्नो कहां है ?"


"तुम्हारी मौत के बाद, वो भी मर गई थी ।" दालूबाबा एकाएक मुस्कुराया। 


"किसने मारा उसे ?" 


"देवा ने ।"


"देवा के हाथों वो अगर मरी भी तो चालबाजी खेलकर मिन्नो के दिल में तूने आग लगाई थी । तब मैंने तेरे को आगाह भी किया था कि अपनी हरकतों से बाज आ-जा वरना...।"


"बहुत हो गया ।" दालूबाबा के चेहरे पर ख़तरनाक भाव नाच उठे--- "अब अपनी जुबान को बंद कर ले नील सिंह । वक्त बदल चुका है । डेढ़ सौ बरस से ये नगरी मेरे इशारे पर नाच रही...।"


"तू इस नगरी का बड़ा कैसे बन गया । मिन्नो का पिता मुद्रानाथ और बहन बेला को, मिन्नो के बाद नगरी का बड़ा बनना चाहिए।" नीलसिंह ने खा जाने वाले स्वर में कहा--- "तू कैसे मालिक बन गया । मुद्रानाथ और बेला कहां हैं?"


"वो।" दालूबाबा हंस पड़ा--- "तब से ही वो भी जान बचाकर भागे फिर रहे हैं। मैंने उनसे सब कुछ छीन लिया । उनकी जिंदगी भी छीन चुका होता, अगर मेरे हाथों में आ---।"


"कुत्ते ।" महाजन किसी शेर की तरह झपट पड़ा। चेहरे पर पागलपन नाच रहा था ।


इससे पहले कि वो दालूबाबा को किसी तरह से नुकसान पहुंचा पाता। केसर सिंह ने उसे थामा और दूर धक्का दे दिया।


जगमोहन और बांकेलाल राठौर अवाक से खड़े थे


महाजन के नीचे गिरते ही, दालूबाबा ने कुछ बड़बड़ाकर हाथ झटका तो एकाएक जाने कहां से लोहे का, सलाखों वाला पिंजरा महाजन पर आ गया । महाजन पिंजरे में कैद होकर रह गया । इसके साथ ही दालूबाबा ठहाका लगाकर हंस पड़ा।


"महाजन ।" जगमोहन जल्दी से पिंजरे की तरफ बढ़ा और उसे पकड़कर हिलाने-हटाने की चेष्टा की ।


परंतु जगमोहन सलाखों वाले पिंजरे को हिला भी न सका । महाजन तो जैसे सलाखों वाले पिंजरे में खुद को कैद पाकर पागलों की तरह भड़क उठा था।


"दालू । मैं तेरे को जिंदा नहीं छोडूंगा । कुत्ते की मौत मारूंगा तुझे । भूल गया मेरी ताकत को । नीलसिंह हूं मैं नील सिंह । जिसकी ताकत से तू भी वाकिफ है । बचेगा नहीं-मैं...।"


दालूबाबा ठहाका रोककर कह उठा ।


"अब तू नीलसिंह नही, पृथ्वी का साधारण मनुष्य हैं । लड़ाई के दांव-पेंच जो तूने कभी न गुरुवर से सीखे थे । उन्हें तो भूल चुका है और मैं अब वो दालू नहीं, बल्कि असाधारण शक्तियों का मालिक दालू हूं । तू मेरा सपने में भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता नहीं नीलसिंह। "


"तू मुझे इस पिंजरे से बाहर निकाल दे । फिर देख मैं क्या कर...।"


"ऐसा भी हो जाएगा । पहले इस कैद का मजा तो ले ले और इस बात का एहसास कर ले कि तेरे को दालू ने कैद किया है, जिसे तू कभी कुत्ता समझता था ।" दालूबाबा पुनः हंसा । तू


"कुत्ते को कुत्ता ही समझा जाता है कुत्ते ।" महाजन गुर्रा उठा ।


दालूबाबा ने उसकी बात पर ध्यान न देकर जगमोहन और बांकेलाल राठौर को देखा।


"तुम दोनों मेरी ताकत को नहीं जानते ।" दालूबाबा ने होंठ भींचकर कहा--- "क्योंकि तुम यहां के न होकर पृथ्वी के वासी हो । मेरे बारे में सिर्फ इतना जान लो कि नगरी में वही होता है जो दालूबाबा चाहता है । चांद-सूरज के अलावा, हर ताकत मेरी मुट्ठी में है। मेरी तुम लोगों से कोई दुश्मनी नहीं । जो हुआ, वो पहले जन्म की बातें थी। इस वक्त मेरा सवाल है तुमसे । बता दिया तो ठीक, वरना तुम लोगों का जो हाल होगा, उसकी जिम्मेवारी तुम ही पर होगी ।"    


जगमोहन और बांकेलाल राठौर की निगाहें दालूबाबा पर थी ।


"कुछ मत बताना इस कुत्ते को। यह बहुत बड़ा हरामजादा है ।" पिंजरे में बंद महाजन चीख उठा।


"दालूबाबा । म्हारे को ईक बात तो बतायो ।" बांकेलाल राठौर ने अपनी मूंछ पर हाथ फेरा । 


"क्या ?"


"यो थारे को कुत्ता-हरामजादो क्यों कहो ?"


"इसका दिमाग खराब हो गया है ये...।" 


"नेई । इसो का दिमाग तो फिट रयो हो । म्हारे को पूरा विश्वासो हौवे कि यो ठिको बोले ?"


"क्या मतलब ?"


"तुम कुत्तो हौवे । हरामजादो हौवे कि नेई, ये तो थारी मां ही जानो।"


दालूबाबा का शरीर गुस्से से कांप उठा।


"तूम अपनी औकात से बाहर जा रहे हो भंवर सिंह "


"अंम पृथ्वी से आयो हो और म्हारा नाम बांकेलाल राठौर हौवे ।" बांकेलाल राठौर के चेहरे पर गुस्सा स्पष्ट नजर आ रहा था--- " म्हारी औकात कां तक हौवो, इसो की थां तो मन्ने भी कभी नोट न करो । तन्ने म्हारी औकात की लिमिटो, कैसे पता लगो।"


महाजन पागल सांड की तरह पिंजरे में विफल रहा था । जो कि छः फीट के दायरे में और आठ फीठ की ऊंचाई में था ।


दालूबाबा ने जगमोहन देखा ।


"जग्गू, तुम लोगों को पृथ्वी से यहां कौन लाया ?" दालूबाबा ने कठोर स्वर में पूछा । 


"मैं जानता हूं, लेकिन बताऊंगा नहीं।"


"बताना तो तुम्हें पड़ेगा ।" दालूबाबा ने दरिंदगी से कहा--- "तुम नहीं जानते कि तुम्हारा इंकार, तुम लोगों को कैसी-कैसी खौफनाक यातना तक पहुंचा देगा।"


"तुम जो करना चाहते हो कर लो ।" जगमोहन इस सपाट स्वर में कहा ।


"दालू ।" बांकेलाल राठौर जहरीले स्वर में कह उठा--- "पैले जन्म में का हौवो। म्हारे को तो महाजन की तरहो याद न आयो । पर ईब के थारो को ठप्पा मार के बोलयो कि थारी दाल न गलयो।"


"केसरे ।" दालूबाबा मौत भरे स्वर में कह उठा--- "इनके मुंह से, मेरे सवाल का जवाब निकलवा।"


केसर सिंह कुछ कहने के लिए मुंह खोलने ही वाला था कि दरवाजे पर आहट उभरी और खतरनाक से नजर आने वाले आदमी ने भीतर प्रवेश किया । उसके हाथ में लोहे की मोटी परत वाली ट्रे थी जिसमें आठ सुलगती सलाखें पड़ी, सुर्ख सी नजर आ रही थी । जिनमें से धुंआ निकल रहा था।


दालूबाबा ने पलटकर केसर सिंह से कहा ।


"जब हमारे सवाल का जवाब मिल जाए तो तभी इन्हें छोड़ना, वरना तब तक यातनाओं का दौर चलते रहना चाहिए। मैं हर हाल में जानना चाहता हूं, की नगरी में गद्दार कौन है ।" इसके साथ ही दालूबाबा वहां से बाहर निकलता चला गया ।


केसर सिंह के चेहरे पर वहशी मुस्कान नाच रही थी । वो आगे बढ़ा और ट्रे में रखी सुलगती सलाख उठा ली, जिसका हत्था लकड़ी का था । वह पलटा ।


"अब बोलो, देते हो जवाब ?" स्वर में वहशी भाव थे ।


"तम सबों को एको ही बात बारो-बारो पूछनो की बीमारी हौवे का ?" 


केसर सिंह आगे बढ़ा और बेहिचक लोहे की सुलगती सलाख बांकेलाल राठौर की बाहों में लगा दी । कमीज जली, मांस जला, मांस जलने की दुर्गंध सांसो के साथ महसूस होने लगी । हल्का-सा धुआं उठने लगा ।


परंतु केसर सिंह के चेहरे पर उभरे वहशी भाव, हैरत में बदलने लगे ।


बांकेलाल राठौर वैसे ही शांत मुद्रा में खड़ा रहा । उसे पीड़ा का एहसास नहीं हुआ कि वह किसी प्रकार की यातना के दौर से गुजर रहा है । उसे कुछ न होता पाकर, केसर सिंह का आवाक रह जाना लाजमी था । उसने सलाख फेंकी और बांकेलाल राठौर की बांह पकड़ कर देखा । वो बुरी तरह जली हुई थी । जख्म पर लाल सुर्ख, गहरा निशान था । अब तो उसमें से खून भी रिसने लगा था।


केसर सिंह ने अजीब सी निगाहों से बांकेलाल राठौर को देखा ।


"म्हारे को का देखो हो । म्हारे जैसों मूछों के पैले नेई देखो हो का ?"


उलझन में फंसा केसर सिंह पलटा और लोहे की दूसरी सुलगती सलाख उठाकर, पास आया और जगमोहन की टांग पर लगा दी ।


पैंट को सुलगाती हुई सलाख, टांग के मांस को जलाती हुई, भीतर धंस गई। मांस जलने की दुर्गंध वहां फैली, परंतु जगमोहन के चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं उभरी । कोई तकलीफ नहीं हुई । वो उसी तरह शांत खड़ा, मुस्कुराता केसर सिंह को देखता रहा।


पिंजरे में कैद महाजन जोरों से हंस पड़ा ।


"आ-जा ।" महाजन बोला--- "अपनी गर्म सलाख मुझ पर भी दाग कर देख ले। तब देखना, मैं पीड़ा से कितना तड़पता हूं । चीखता-चिल्लाता हूं।"


दांत भींचे केसर सिंह ने गर्म सलाख नीचे फेंकी और पलट कर अपने आदमी से बोला।


"चलो।"


दोनों बाहर निकले ।


केसर सिंह ने दरवाजा बंद करके, बाहर से सिटकनी लगा दी ।


"क्या कह रहा है केसरे ?" दालूबाबा ने अपने सामने खड़े केसर सिंह को देखा ।


"मैं ठीक कह रहा हूं दालूबाबा ।" केसर सिंह विश्वास दिलाने वाले स्वर में कह उठा--- "मैंने उन दोनों को गर्म सलाखों से दागा, परंतु उन पर कोई असर नहीं हुआ, कोई पीड़ा नहीं हुई । जबकि सलाखों से दागने के गहरे निशान थे । मांस जल गया था । खून रिस रहा था ।"


"ये कैसे संभव है ?" दालूबाबा के माथे पर बल नजर आने लगे । 


"उससे पहले मैंने जग्गू पर घूंसे लगाए थे, परंतु तब भी उसे पूरा नहीं हुई थी।" 


दालूबाबा के चेहरे पर जलजले के भाव आए। 


"इसका मतलब इन लोगों को नगरी में लाने वाला शक्तियों का खासा मालिक है । ये सब इंतजाम उसने पहले ही कर रखे हैं कि ये लोग उसके बारे में कुछ भी न बता सकें ।" दालूबाबा गुर्रा उठा ।


"यही बात होगी। मैं खुद हैरान था कि...।"


तभी घंटा बजने की आवाज आई।


केसर सिंह के शब्द मुंह में रह गए ।


"मालूम करो क्या बात है ?" दालूबाबा ने कहा ।


केसर सिंह बाहर निकल गया ।


दालूबाबा चेहरे पर सख्ती समेटे, सोचों में डूब गया । मिनट भर भी नहीं बीता होगा केसर सिंह, डोरीलाल के साथ भीतर आया ।


"दालूबाबा को मेरा नमस्कार ।" डोरीलाल ने कहा--- "मालिक ने भेजा है।" 


"कहो।" दालूबाबा की कठोर निगाह, डोरीलाल पर जा टिकी। 


"मालिक ने खबर देने भेजा है कि चार और मनुष्य उनके पास हैं।" डोरीलाल ने कहा । 


"ओह ।" दालूबाबा के होंठ भिंच गए--- "लगता है बहुत सारे मनुष्यों ने सोच-समझकर नगरी में प्रवेश किया है। यह बात हमें नुकसान पहुंचा सकती है। केसरे।" 


"जी।"


"गुलाबलाल उन चारों मनुष्य को लेकर आ । शायद उनसे कुछ मालूम हो सके।


"मैं, डोरीलाल के साथ ही चला जाता हूं।" केसर सिंह बोला ।


"गुलाबलाल से तिलस्म का हाल भी पूछना कि देवा-मिन्नो अभी तक जिंदा हैं या खत्म हो गए ?"


"जी ।" केसर सिंह सोच भरे स्वर में कह उठा--- "मैं एक बात कहना चाहता हूं दालूबाबा ?"


"क्या?"


"पेशीराम के आदमी आए थे मनुष्यों को देखने । युद्धवीर और उसका साथी। युद्धवीर के पास भी शक्ति है । कहीं उसने ही चारों मनुष्यों पर कोई सुरक्षा कवच तो नहीं फेंक दिया कि उन्हें यातना दिए जाने की पीड़ा महसूस न हो।"


"नहीं । ये संभव नहीं ।" दालूबाबा ने इनकार में सिर हिलाया--- "पेशीराम ऐसा काम नहीं कर सकता । हमारे खिलाफ नहीं जा सकता। क्योंकि वो जानता है कि मेरे से दुश्मनी लेने का अंजाम क्या होगा । वैसे भी पेशीराम से हमारी कोई ऐसी बात नहीं हुई कि वो हमारे खिलाफ कदम उठाने की सोचे।"


"जी।"


"जाओ । उन चारों मनुष्यों को लेकर आओ ।"


केसर सिंह, डोरीलाल के साथ बाहर निकल गया।

******

पारसनाथ, बंगाली, कर्मपाल सिंह और सोहनलाल को डोरीलाल तलाश कर के लाया था जो कि अन्य जगह, सेवकों के रूप में काम कर रहे थे । गुलाबलाल उन्हें देखकर बहुत खुश हुआ और हाथों-हाथ डोरीलाल को, दालूबाबा की तरफ रवाना कर दिया कि उसके आदमी चार और मनुष्य को ले जाएं ।


डोरीलाल चला गया तो वे उस कमरे में पहुंचा जहां वे चारों थे।


उन पर निगाह पड़ते ही गुलाबलाल चौंका ।


"परसू तू और गुलचंद ।" गुलचंद उसने सोहनलाल को कहकर पुकारा था ।


परसू शब्द का पार्सनाथ खासतौर से चौंका । क्योंकि फकीर बाबा उसे परसू कहकर ही पुकारता था । उसने गुलाबलाल के हैरानी भरे चेहरे को गहरी निगाहों से देखा।


"कौन हो तुम ?" पारसनाथ के होठों से सपाट स्वर निकला ।


"पहचाना नहीं परसू । मैं गुलाबलाल, ओह, तू कैसे पहचानेगा । तू तो मर गया था । अब दूसरा जन्म लेकर आया है ।" कहने के साथ ही गुलाबलाल ने खुद को संभालने वाले ढंग में सिर हिलाया।


सोहनलाल के गोली वाली सिगरेट सुलगाई और कश लिया ।


"वाह गुलचंद । पहले तो हुक्का गुड़गुड़ाया करता था । तंबाकू में चरस मिलाकर और अब से थूथनी से क्या मुंह को लगा रखी है। ये छोटा हुक्का है क्या। "


"मेरा नाम गुलचंद नहीं । सोहनलाल है ।" सोहनलाल कश लेकर गंभीर स्वर में बोला । 


"मेरे लिए तू गुलचंद ही है । बेशक दस जन्म ले ले। गुलचंद ही रहेगा तू । जरा भी चेहरों में फर्क नहीं ।"


"तू कब की बात कर रहा है ?" सोहनलाल ने उसे घूरा । 


"तेरे पहले जन्म की बात कर रहा हूं । कुछ याद नहीं आया तेरे को ?" 


"मेरे पहले जन्म की बात कर रहा है। खूब, तो क्या तब से तू जिंदा है । मरा नहीं । " 


"नहीं मरा तभी तो कह रहा हूं ।" गुलचंद मुस्कुराया--- "दालूबाबा ने सारी नगरी और तिलस्म पर अपना अधिकार कर रखा है। ताज भी उसी के पास है। उसी ताज की ताकत के दम पर उसने नगरी के समय चक्र को रोक रखा है। नगरी के लोगों की उम्र तक रोक रखी है । हम सब वैसे के वैसे ही हैं और हमेशा ऐसे ही रहेंगे । हम मर नहीं सकते। " 


"ज्यादा लंबी जिंदगी भी अच्छी नहीं होती ।" सोहनलाल ने तीखे स्वर में कहा। 

"ताज कहां है ?" पारसनाथ ने पूछा ।


"दालूबाबा के पास।" गुलाबचंद ने कहा ।


"दालूबाबा कहां रहता है ? "


"नीले पहाड़ पर ।"


"ताज को दालूबाबा ने कहां रखा है ?" पारसनाथ ने पूछा ।


"मालूम नहीं। मेरे ख्याल में इस बात को दालूबाबा के अलावा कोई नहीं जानता । क्योंकि उसी ताज की शक्ति के सहारे तो दालूबाबा ने नगरी को अपने कब्जे में करके, समय चक्र रोक रखा है।"


सोहनलाल ने पारसनाथ को देखा ।


"यहां तो अजीब-अजीब बातें सुनने को मिल रही है ।" सोहनलाल ने कहा ।


"तुम्हारा पांचवा साथी कहां है ? "


"पांचवा ?"


"हां । तुम चार हो, जबकि मेरे हिसाब से पांच मनुष्य और होने चाहिये।" 


"होगा कहीं।" सोहनलाल ने लापरवाही से कहा । 


"एक बात और बताओ गुलचंद।" गुलाबलाल बोला--- "पृथ्वी से तुम लोग यहां कैसे पहुंच गए ?"


"फकीर बाबा ले आया ।" सोहनलाल ने लापरवाही से कहा ।


"फकीर बाबा ?" गुलाबलाल के माथे पर बल पड़े --- "यह कौन है ?"


"फकीर बाबा कहते हैं हम उसे । "


"यह नाम है उसका ?"


"नहीं । लेकिन हम लोग उसे फकीर बाबा के नाम से ही जानते हैं ।" सोहनलाल ने कश लिया।


पारसनाथ की सोच भरी निगाह, गुलाबलाल पर टिकी थी ।


"क्या वो हमारी ही नगरी का है ?" गुलाबलाल ने पूछा । 


"हो भी सकता है और नहीं भी। मुझे क्या मालूम ।" 


गुलाबलाल के चेहरे पर सोच के भाव तेजी से दौड़ रहे थे । 


"वो फकीर बाबा देखने में कैसा लगता है ?"


सोहनलाल ने फकीर बाबा का हुलिया बता दिया। परंतु उस हुलिए से भी गुलाबलाल न समझ पाया कि वो हुलिया पेशीराम का हो सकता है। क्योंकि फकीर बाबा जब-जब भी इनसे मिला, उसके शरीर पर पृथ्वी के लोगों की तरह का ही लिबास था । जैसे ही सिरदाढ़ी के बाल और नगरी में रहन-सहन जुदा था।


"इस तरह का तो कोई भी हमारी नगरी में नहीं है, आश्चर्य है जबकि तुम लोगों को लाने वाला हमारी ही नगरी का है। इससे तो यही स्पष्ट होता है कि तुम लोगों को यहां लाने वाले ने यह काम वेष बदलकर किया है। बहुत ही चतुराई से उस शख्स ने ये काम किया है ।"


"क्या मतलब ?" सोहनलाल ने उसे देखा ।


"छोड़ो।" गुलाबलाल ने और कुरेदा--- "देवा और मिन्नो से उसका क्या संबंध है ? " 


तभी पारसनाथ ने सोहनलाल को देखा।


"इसके किसी भी सवाल का जवाब देने की जरूरत नहीं है ।" कहकर पारसनाथ से अपने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरा ।


गुलाबलाल तीखी निगाहों से पारसनाथ को देखा ।


"परसू, तेरे को बीच में दखल नहीं देना चाहिए । बीते जन्म में ये तेरा दुश्मन था । देवा का साथी था और...।"


"बीते जन्म में ये क्या था और इस जन्म में क्या है, ये इसका और मेरा मामला है ।" पारसनाथ ने एक-एक शब्द चबाकर कहा--- तेरे से बात तो तब की जाए, जब हमें मालूम हो कि तू कौन है ? "


"मैं भूल गया ---मैं गुलाबलाल।"


"तू कौन-सा गुलाबलाल है ।" पारसनाथ ने सपाट स्वर में कहा--- "तुझसे पहले हमें दस गुलाबलाल मिल चुके हैं।"


"दस ?" गुलाबलाल ने हैरानी से सोहनलाल को देखा ।


"हां-हां ।" सोहनलाल व्यंग से कह उठा--- "और अभी दस की और मिलने की संभावना है ।"


गुलाबलाल का चेहरा कठोर होने लगा ।


"यह मजाक् तुम लोगों को बहुत भारी पड़ सकता है ।" गुलाबलाल ने कठोर स्वर में कहा-- "जानते हो, तुम लोगों के बाकी साथी कहां हैं और किस दिशा में हैं।" 


"बताओ ?"


"देवा और मिन्नो तिलस्म में फंसे, अपनी मौत ढूंढ रहे हैं ।" गुलाबलाल एक्-एक शब्द चबाकर कर कह उठा--- "त्रिवेणी ने पहले जन्म में पेशीराम के बेटे कालूराम को मारा था, इसलिए त्रिवेणी को पेशीराम के हवाले कर दिया गया है, ताकि त्रिवेणी को भयानक से भयानक सजा देकर, अपने बेटे की मौत का बदला ले सके।"


"कौन त्रिवेणी ?" सोहनलाल बोला ।


"छोटा सा लड़का है । सोलह बरस का होगा।"


"रुस्तम राव ?" सोहनलाल के होठों से निकला ।


"हां । इस जन्म का वो यही नाम बताया था और अपना । अब त्रिवेणी पेशीराम से सजा पा रहा होगा।"


परंतु ये सुनकर पारसनाथ की आंखे सिकुड़ चुकी थी । उसे याद आया कि एक बार फकीर बाबा ने कहा था रुस्तम राव से कि कालूराम को पिछले जन्म में तूने मारा था और तब वो मेरा बेटा था । इसका मतलब फकीर बाबा ही यहां का पेशीराम है ? पारसनाथ मन ही मन सतर्क हो उठा । ये जानने के लिए अनिल मोहन के पूर्व प्रकाशित दो उपन्यास (1) (2) जालिम पढ़ें । रूस्तम राव के बारे में सुनकर, सोहनलाल के चेहरे पर गुस्सा झलका । 


" और तुम्हारे बाकी के तीन साथी जग्गू, भंवर सिंह और नीलसिंह को दालूबाबा के पास पहुंचा दिया है । उन्हें कठोर से कठोर यातना दी जा रही होगी, यह जानने के लिए उन्हें पाताल नगरी में कौन लाया । "


पारसनाथ और सोहनलाल की नजरें मिलीं ।


"जग्गू का मतलब, जगमोहन है ।" सोहनलाल बोला--- "फकीर बाबा उसे इसी नाम से बुलाते थे।"


और फकीर बाबा महाजन को नीलसिंह कहते थे । ये भंवर सिंह कौन है ?" पारसनाथ कह उठा।


जवाब दिया गुलाबलाल ने ।


"उसकी इस जनम में बड़ी-बड़ी मूंछें हैं। लंबा-चौड़ा शरीर है और... " 


"बांकेलाल राठौर ।" सोहनलाल के होंठ भिंच गए ।


"हां । इस जन्म का यही नाम बताया था उसने।" गुलाबलाल बोला--- "यानी कि पृथ्वी से आने वाले मनुष्य एक-एक करके अपने ठिकाने पर पहुंचते जा रहे हैं । अगर तुम लोग, सलामती चाहते हो तो फकीर बाबा के बारे में स्पष्ट बताओ कि वो कौन है । साफ-साफ बता देने पर तुम लोगों के साथ अच्छा सलूक किया जाएगा और वापस पृथ्वी पर भेज दिया जाएगा ।"


"भाई जी ।" बंगाली जल्दी से कह उठा--- "मैं पृथ्वी पर वापस जाना चाहता हूं।"


"हम तो यूं ही इन लोगों के चक्कर में फंस गए।" कर्मपाल सिंह कह उठा--- "मुंबई में हमारा अच्छा-खासा धंधा है । हमें क्या मालूम था कि ये झंझट तो जन्मों-जन्मों का है। हमारा इन बातों से क्या वास्ता ।"


"कर्मा ठीक कह रहा है भाई जी | "


गुलाबलाल ने मुस्कुराकर दोनों को देखा ।


"अवश्य । तुम दोनों को अभी पृथ्वी पर भेज दिया जाएगा । बताओ फकीर बाबा की हमारी नगरी में असलियत क्या है ?"


"असलियत क्या--- - वो फकीर बाबा है ।"


"इसके अलावा हम कुछ नहीं जानते । सच कसम से कहते हैं।"


"हमने तो पहली बार देखा था और... |"


"तुम लोग दालूबाबा के पास पहुंचकर ही सीधे होगे।" गुलाबलाल ने खा जाने वाली नजरों से बारी-बारी चारों को देखा--- "वैसे तो अब तक दालूबाबा, तुम्हारे साथियों से उस फकीर बाबा की असलियत जान चुका होगा और अब आगे का फैसला दालूबाबा ही करेगा कि तुम लोगों के साथ क्या सलूक करना है । खबर पहुंच चुकी होगी । दालूबाबा के आदमी तुम लोगों को लेने आते ही होंगे।" कहने के साथ ही गुलाबलाल कमरे से बाहर निकला और बाहर खड़े पहरेदार को दरवाजा बंद करने को कहा । 


दरवाजा बंद हो गया तो गुलाबलाल आगे बढ़ा।

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