“शुरु में झूठ बोलने की कोशिश क्यों कर रहे थे ?”


“ अगर चांदनी दुनिया में होती, यानी कल वाला हादसा न हुआ होता तो उस रात के उसके गायब होने की सच्चाई को मैं किसी के भी सामने मरते दम तक लाने वाला नहीं था ।” सपाट लहजे में वह कहता चला गया ---- “लेकिन अब... जबकि वह रही ही नहीं तो मेरे कुछ भी कहने से कानून उसका क्या बिगाड़ लेगा?”


“ पर यह क्या जरूरी है कि वह रही ही न हो ?” कहने के साथ विभा ने उसे ध्यान से देखा- -“मरते हुए तो किसी ने नहीं देखा उसे । यमुना में कूदते हुए ही तो देखा है ! हो सकता है बच गई हो। कहीं हो। हमने तो यह भी सुना है कि वह एक कुशल तैराक थी!”


“मुझे मालूम है लेकिन..


“लेकिन ?”


“बचेगी तो तभी जब खुद को बचाने का प्रयास करेगी! कोशिश करेगी तैरने की ! मुझे नहीं लगता कि उसने ऐसा कुछ किया होगा।”


“क्यों? ऐसा तुम कैसे कह सकते हो ?”


“वे निराशाजनक बातें अब याद आ रहीं हैं न, बल्कि उसी क्षण जेहन में कौंध गई थीं जब उसने यमुना में छलांग लगाई, जो मुझसे गाड़ी में और पुल के रेलिंग की तरफ बढ़ती कर रही थी और छलांग लगाते वक्त तो उसने साफ ही कहा था - - - - 'मुझे माफ कर देना अशोक ।' वह क्षण ऐसा था जब मैं कुछ भी नहीं कर सकता था। वह हवा में जम्प मार चुकी थी और यमुना की तरफ जा रही थी।”


विभा जिंदल का अगला सवाल- “किस किस्म की निराशाजनक बातें कर रह थी वह और क्यों ? " 


“ कल शाम ही से वह बहुत उदास नजर आ रही थी | दुखी - सी और निराश-सी भी। मैंने बहुत प्यार से कारण पूछा तो कंधे पर सिर रखकर रोने लगी । बार-बार पूछने पर भी केवल यही कहा कि मेरा मन बहुत उचाट हो रहा है। किस्मत के मारे मैंने ही कहा कि आओ, कहीं घूमकर आते हैं। मन बहल जाएगा। गाड़ी लेकर निकल पड़े।


रास्ते में उसने कहा कि ---- 'अशोक, जिस तरह से हमने शादी की, उस तरह से करके शायद ठीक नहीं किया ।' इस बात से मुझे उसकी निराशा और दुख का कुछ एहसास हुआ और फिर मैं समझाने लगा कि चांदनी, गिल्टी होने की जरूरत नहीं है। हमने कुछ भी गलत नहीं किया । थोड़ा वक्त गुजरने दो, सब ठीक हो जाएगा। तुम्हारे पापा भी मान जाएंगे। बातों ही बातों में उसने निजामुद्दीन पुल की तरफ चलने को कहा। मैंने उसी तरफ गाड़ी मोड़ दी। उन्हीं बातों के चलते पुल पर रुकने को कहा। यह ख्याल तो तब भी मुझ कूढ़ मगज के दिमाग में नहीं आया कि वह ऐसा भी कुछ कर सकती है और रेलिंग के करीब पहुंचकर उसने जिस तेजी से जो किया उसने तो मुझे किंकर्त्तव्यविमूढ़ ही कर डाला। बार-बार यही अफसोस हो रहा है कि मैंने पहले ही उसके इरादे को क्यों नहीं भांप लिया था ? ”


इस बार विभा ने तुरंत कोई सवाल नहीं किया । ध्यान से अशोक को देखती रही, फिर एकाएक कहा---- “अच्छा ये बताओ, जब तुम्हारे मोबाइल पर मैसेज आया कि ---- 'छंगा - भूरा की खोली पर जाओ।'


तुम वहां गए और उनकी लाशें देखीं तो दिमाग में क्या आया?”


“मैं समझा नहीं आप क्या पूछ रही हैं?”


“क्या उसके बाद भी तुम्हें रतन की हत्यारी चांदनी ही लगी ? ”


“हां । आपने बिल्कुल ठीक सवाल किया । उस घटना ने मेरे दिमाग को हिलाकर रख दिया था। उसके बाद जब वकील के पास पहुंचे और उसने यह कहा कि अब कोर्ट में चांदनी को बेगुनाह साबित करना मुश्किल है तो मुझे लगा कि कहीं मैं चांदनी पर शक करके उस पर जुल्म ही तो नहीं कर रहा हूं? कहीं चांदनी ठीक ही तो नहीं कह रही है कि उसे किसी ने षड़यंत्र में फंसाया है ? छंगा- भूरा को जलाकर मार देने का काम तो चांदनी कर नहीं सकती। उनके मरने से तो उसे ही नुकसान हुआ है। उसे नुकसान पहुंचाने वाला यह काम कहीं उसी ने तो नहीं किया है जो चांदनी को फंसाना चाहता है? उस घटना से मैं डबल माइंड हो गया । पर किसी एक नतीजे पर नहीं पहुंच सका। "


“लेकिन उस वक्त तो एक नतीजे पर पहुंच गए होगे जब तुम मुंबई में थे और किसी ने तुम्हारी अगूंठी चांदनी को भेजी?”


“मेरी अंगूठी चांदनी को भेजी ?” अशोक साफ-साफ बुरी तरह चौंकता नजर आया----“किसने? कब?”


अब बारी हमारे चौंकने की थी ।


विभा ने उसी चौंके हुए स्वर में कहा----- “तुम मुंबई में थे। अपनी अंगूठी होटल के कमरे में सेंटर टेबल पर रखकर नहाने के लिए बाथरूम में चले गए। वापस निकले तो अंगूठी वहां नहीं थी । तुमने होटल में खूब हंगामा किया। अगले दिन वह कोरियर से चांदनी को मिली। उसने तुम्हें फोन किया कि..


“अरे... अरे... !” बुरी तरह हैरान अशोक ने उसकी बात काटकर कहा ---- “क्या कहे चली जा रही हैं आप? कब हुआ ऐसा ?”


“नहीं हुआ ?”


“बिल्कुल नहीं हुआ। आप कहां से चंडूखाने की उड़ा रही हैं?”


हमने हैरत से एक-दूसरे की तरफ देखा |


कुछ देर के लिए वहां खामोशी छा गई थी ।


फिर विभा ने ही उस खामोशी को तोड़ा ---- “अच्छा ये बताओ, तुम्हारे ख्याल से रतन ने क्या वास्तव में चांदनी से रेप किया था?”


“ये क्या सवाल हुआ ? ” कहने के साथ उसने अपने पिता की तरफ देखा- -“कोई भी लड़की अपने बारे में ऐसा झूठ क्यों बोलेगी?”


“वह सब सुनकर तुम पर क्या प्रतिक्रिया हुई ? ”


“प्लीज । व्यर्थ के सवाल करके मुझे परेशान मत कीजिए।”


“ मैं कोई भी सवाल व्यर्थ का नहीं करती हूं मिस्टर अशोक। यह अलग बात है कि जब वह किया जाता है तो सामने वाले की समझ में उसका मतलब नहीं आ रहा होता । "


“भला इस सवाल का क्या मतलब हो सकता है?” उसके लहजे में अब भी रोष था----“एक पति को अपनी पत्नी के मुंह से यह सुनने के बाद कैसा लगेगा कि उसके दोस्त ने उससे रेप किया है!"


“हमारे ख्याल से तो अलग-अलग पतियों पर अलग-अलग रियेक्शन होगा, हम तुम्हारा रियेक्शन जानना चाहते हैं । "


“ मेरे ख्याल से तो हर पति पर एक ही रियेक्शन होगा । यह कि उसका खून खौल उठेगा । जी चाहेगा कि अभी जाकर ऐसी नीच हरकत करने वाले हरामजादे को गोली से उड़ा दूं ।”


“पर तुमने ऐसा किया तो नहीं !”


“चांदनी ने रोक लिया था वरना मैं उसी समय रतन को..


“हमें तो यह पता लगा है कि चांदनी ने तुम्हें नहीं रोका था। "


“म... मतलब?”


“सुनने के बाद तुम गुस्से में जरूर आए थे लेकिन फिर खुद ही शांत हो गए । समझदारी-भरी बातें करने लगे। कहने लगे कि इस तरह रियेक्ट किया गया तो समाज में बहुत बदनामी होगी लेकिन रतन की इस जलील हरकत का बदला लेकर रहोगे !”


“पता नहीं आपने कहां से क्या-क्या सुन लिया ? यह झूठ है । यह सब तो चांदनी ने कहा था । उसने यहीं सब कहकर रोका था मुझे ।”


“चलो, उस वक्त उसने तुम्हें रोक दिया और तुमने यह फैसला भी किया कि रतन की जलील हरकत का बदला जरूर लोगे लेकिन एक महीने से ज्यादा गुजर जाने के बावजूद तुमने कुछ नहीं किया। क्या मैं जान सकती हूं ---- क्यों?”


“ एक महीने का वाक्फा ऐसा नहीं था जिसमें अगर मैंने कुछ नहीं किया तो आगे भी कुछ नहीं करने वाला था । ”


“मतलब कुछ करने का इरादा रखते थे ?”


“पक्का ।"


“किस तरह उसकी जलील हरकत का बदला लेना चाहते थे ?”


“यही तो!” अशोक के दांत भिंच गए ---- “यही तो निश्चय नहीं कर पाया था मैं । यदि एक बार यह सूझ जाता कि मुझे इस तरह बदला लेना है तो देर नहीं करता । वहीं कर डालता ।"


“कमाल की बात है, एक महीने से ज्यादा टाइम में तुम यही निश्चय नहीं कर पाए कि अपनी पत्नी पर इतना बड़ा जुल्म करने वाले जालिम के साथ करना क्या है !”


“इसमें कमाल की क्या बात है, नहीं सूझा तो नहीं सूझा।"


विभा ने उसे ध्यान से देखते हुए कहा ---- “कहीं ऐसा तो नहीं कि बदला लेने का कोई ख्याल तुम्हारे दिमाग में था ही नहीं ?”


“कैसी बात कर रही हैं आप? क्या ऐसा पति भी कोई हो सकता है जिसके दिमाग में ऐसी घटना का बदला लेने की भावना न हो ?”


“पति के दिमाग में यह बात तो आ सकती है कि पत्नी असल में पूरा सच नहीं बता रही ! और वह पूरा सच यह है कि व्हिस्की पीकर वह भी बहक गई थी । बहके हुए उन्हीं लम्हों के कारण उसके और सामने वाले के बीच वह सब हो गया जिसे पत्नी अब अपने बचाव हेतु रेप का नाम दे रही है ।” विभा बगैर रुके कहती चली गई ----“ऐसी अवस्था में पति सिर्फ मर्द से बदला लेने के बारे में नहीं सोचेगा बल्कि ऐसा कुछ करेगा जिससे एकसाथ दोनों का पत्ता साफ हो जाए।"


“अरे ! आप तो मुझी को.. 


“विभा जी ।” एकाएक मणीशंकर बजाज ने हस्तक्षेप किया । लहजा थोड़ा सख्त था ---- “कमीश्नर साहब हमें आपके बारे में सबकुछ बता चुके हैं। इसलिए, हमारी नजर में आप बेहद सम्मानित हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आप हमारे सामने ही हमारे बेटे को हत्यारा कहेंगी और हम खामोश रहेंगे।”


“ अभी ऐसा तो कुछ नहीं कहा मैंने ।”


“आप क्या हमें इतना नादान समझ रही हैं कि जो आप कहना चाह रही हैं उसे समझ न रहे हों !” वे अब भी नाराज नजर आ रहे थे ---- “आप सीधा-सीधा आरोप लगा रही हैं कि अशोक को यह शक हो गया था कि चांदनी नशे की झोंक में रतन से संबंध बना बैठी थी जिसे बाद में उसने रेप का नाम दिया । इसलिए, इसने ऐसे ढंग से रतन की हत्या कर दी कि चांदनी उसमें फंस जाए।"


“नहीं, ऐसी कोई भावना नहीं थी मेरी ।” कहने के साथ विभा बड़े ही विचित्र ढंग से हंसी थी ----“मैंने तो एक कॉमन बात कही थी । यदि आपको ऐसा लगा तो माफी चाहती हूं।"


एक बार फिर कमरे में खामोशी छा गई और एक बार फिर उसे विभा ने अशोक की तरफ देखते हुए यह कहकर तोड़ा ---- “अगर मैं तुम्हारे बैडरूम की तलाशी लेना चाहूं तो क्या तुम्हें कोई आपत्ति है?”


उसने तुरंत कहा---- “मुझे भला क्या आपत्ति हो सकती है?”


दस मिनट बाद हम अशोक और चांदनी के बैडरूम में थे । मणीशंकर बजाज ने विभा से पूछा जरूर था कि उसने किस आशा से बैडरूम की तलाशी लेने का फैसला किया है ? विभा बस इतना कहकर रह गई थी कि जो शख्स सुसाइड करता है वह आमतौर पर कुछ लिखकर छोड़ जाता है। विभा का यह अनुमान भी सेंट- परसेंट खरा उतरा था। चांदनी कुछ ही नहीं, बल्कि... बहुत कुछ लिखकर छोड़ गई थी । इतना सबकुछ कि मेरे और शगुन के दिमाग भन्नाकर रह गए । बैडरूम की तलाशी लेने में विभा ने अपने साथ-साथ हमें भी लगा लिया था और... पोलीथीन में लिपटी वह डायरी, बाथरूम में मौजूद फ्लश की टंकी से शगुन के हाथ लगी थी।


पोलीथीन के ऊपर रबरबेंड चढ़े हुए थे जो इस बात का द्योतक थे कि जिसने भी उसे रखा था, उसकी मंशा यह थी कि पानी की एक बूंद भी पोलीथीन को पार करके डायरी तक न पहुंच सके।


रबरबेंड और पोलीथीन हटाई गई । मैं, विभा, अशोक और मणीशंकर शगुन के इर्दगिर्द इकट्ठे होकर उत्सुकतापूर्वक नीले कवर वाली उस छोटी-सी डायरी को देखने लगे। पहले पेज पर मोटे हफों में लिखा था- - - - ‘इकरारनामा ।' उसके नीचे अपेक्षाकृत छोटे शब्दों में, साइन करने वाले अंदाज में 'चांदनी बजाज' लिखा था । “ये तो चांदनी की राइटिंग और उसके साइन हैं।” कहने के साथ अशोक ने शगुन के हाथ से उसे लगभग छीन लिया था ।


उसकी हरकत पर शगुन ताव खा गया । डायरी वापस छीनने की कोशिश करता बोला----“ये क्या हरकत है?"


“इस पर मेरा हक है ।" अशोक डायरी सहित अपना हाथ ऊपर करके बोला----“चांदनी मेरी पत्नी थी ।”


“पत्नी की चीज पर पति का हक केवल तभी तक रहता है मिस्टर अशोक जब तक पत्नी जिंदा रहे।” विभा ने कहा----“अगर वह न रहे तो ऐसी चीजों पर इन्वेस्टीगेटर्स का हक होता है।”


“पर पता नहीं उसने क्या लिख रखा हो ! मुमकिन है मेरी और अपनी कोई प्राईवेट बात या सिर्फ मेरे लिए कोई मैसेज । "


विभा यूं मुस्कराई जैसे अशोक के द्वारा कोई बचकानी हरकत होते देख रही हो । बोली- --- “अगर कोई शख्स अप्राकृतिक मौत मर जाए तो फिर उसकी कोई भी बात किसी के लिए प्राईवेट नहीं रह जाती, हां----इतना किया जा सकता है कि डायरी तुम्हारे सामने ही पढ़ी जाएगी। अगर इसमें हमारे काम का कुछ नहीं हुआ, केवल तुम्हारे ही लिए कोई मैसेज हुआ तो तुम्हें दे दी जाएगी।”


अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि अशोक बड़ी मुश्किल से इस बात पर सहमत हुआ जबकि विभा उसके अड़ियलपन पर बराबर मुस्कराए जा रही थी ।


उसी के आदेश पर शगुन ने डायरी पढ़नी शुरू की और जोर-जोर से पढ़नी शुरू की । लिखा था----


मैं, अर्थात् चांदनी बजाज अपने पूरे होशो-हवाश में यह डायरी लिख रही हूं और इसलिए लिख रही हूं कि मेरी मौत के बाद किसी के दिमाग में कोई सवाल न रह जाए।


दो और तीन नवंबर की मनहूस रात मेरे जीवन में एक ऐसा मोड़ लेकर आई थी जो सीधा मौत के आगोश में जाकर समाता था । रतन ने मेरे साथ रेप किया। अगली सुबह, भवावेश में उसके बारे में अशोक को बता तो बैठी लेकिन उसके तुरंत बाद बहुत पछताई । वह पछतावा मुझे अशोक की प्रतिक्रिया देखकर हुआ था। उनकी हालत ऐसी हो गई कि अभी जाकर रतन का खून कर देंगे। मैं यह सोचकर डर गई कि अगर अशोक ऐसा कुछ कर बैठे तो क्या होगा, इसलिए मैंने ही उन्हें संभाला, इज्जत और बदनामी के जाने कैसे-कैसे वास्ते देकर रोका ।


मगर, रतन ने जो कुछ किया उसे भूल भी नहीं पा रही थी। मेरे दिल में इंतकाम की आग भड़क रही थी । यह भी नहीं चाहती थी कि अशोक ऐसा कुछ करें जबकि मुझे लग

रहा था कि वे ऐसा ही करेंगे। अजीब दुविधा में फंस गई थी मैं । उस दुविधा से निकलने का एक ही रास्ता सूझा | यह कि अशोक के ऐसा कुछ करने से पहले मैं ही कर डालूं । वही किया । मैंने उस जालिम को मार डाला, अपने साथ रेप करने वाले को अपने हाथों से मौत की नींद सुलाया था मैंने । छंगा-भूरा या किसी और को उसकी फिरौती नहीं दी थी। हो सकता है इस डायरी को पढ़ने वाले मेरे इस रहस्योद्घटन पर चौंक पड़ें लेकिन सच यही है। रतन की हत्या की योजना मैं उसी दिन बना चुकी थी जिस दिन चार दिसंबर को डिनर हेतु धीरज के यहां जाना तय हुआ था । सबसे पहले जहर का इंतजाम किया। यह इंताजम कहां से किया, इस बारे में इसलिए नहीं लिखूंगी

क्योंकि अपने साथ किसी और को नहीं फंसाना चाहती। उसके बाद छंगा - भूरा से मिली । उन्हें सबसे पहले मैंने एक न्यूज चैनल पर देखा था । किसी बच्चे के किडनेप के सिलसिले में । बाद में पुलिस ने उनकी खोली से बच्चे को बरामद किया था। चेनल पर बच्चे को भी दिखाया गया था, छंगा - भूरा को भी और उनकी खोली को भी खूब हाई- लाइट किया गया था। मगर, बच्चे के असली अपहरणकर्ता वे नहीं थे। उन्होंने तो उसे सिर्फ अपनी खोली में रखने का जुर्म किया था । असली अपहरणकर्ता बच्चे का कोई करीबी रिश्तेदार ही निकला था जिसने उसे किडनेप करके उनके पास रखा था। बच्चे की फिरौती से मिलने वाली रकम में उनका कमीशन था ।


बाद में मीडिया ने इस इस बात को भी खूब उछाला था कि दो दिन बाद ही छंगा - भूरा को अदालत से जमानत मिल गई थी ।


किसी ऐसे ही आदमी की तलाश थी ।


सो, उनसे मिली ।


कहा कि चार दिसंबर की रात को एक आदमी उनके पास किसी गाड़ी में एक लाश लेकर आएगा। उन्हें सिर्फ उस गाड़ी को दिल्ली के किसी दूर-दराज इलाके में छोड़कर आना है।


पचास हजार में सौदा तय हो गया ।


सारी तैयारियां करने के बाद मैंने रतन को फोन किया ।


उससे कहा कि दो और तीन नवंबर की रात को जो कुछ तुमने किया, भले ही जबरदस्ती किया हो लेकिन हकीकत ये है कि मुझे जैसा लुत्फ उस रात आया वैसा पहले कभी नहीं आया था। विश्वास करो रतन----हर रात, वही रात याद आती है। साथ अशोक के होती हूं लेकिन दिल में कामना तुम्हारी रहती है। क्या हम एक बार फिर नहीं मिल सकते ? पिछली बार जो कुछ हुआ, सिर्फ तुम्हारी मर्जी से हुआ था। इस बार उसमें मेरी मर्जी और इच्छा भी शामिल होगी।


रतन तैयार हो गया बल्कि अगर यह लिखूं तो ज्यादा मुनासिब होगा कि उसकी तो बांछें खिल गईं ।


मैंने उसे चार दिसंबर की रात को अपने फार्म हाऊस पर बुला लिया। कहा कि मैं भी अशोक को किसी बहाने से चकमा देकर पहुंच जाऊंगी। फार्म हाऊस की देख-भाल के लिए केवल एक चौकीदार रहता है जिसे नाइट शो देखने भेज दूंगी।


यही किया भी ।


रतन वहां पहुंचा, लेकिन बगैर कार के ।


ऐसा देखकर मैं थोड़ी हड़बड़ाई क्योंकि मेरा प्लान उसकी लाश को उसी की कार में डालकर छंगा - भूरा के पास पहुंचाना था ।


वह टैक्सी से आया था । कहने लगा ---- 'गाड़ी से इसलिए नहीं आया क्योंकि लोग गाड़ी देखकर ही पता लगा लेते हैं कि बंदा वहां है ।'


उसकी ये एक्सट्रा-आर्डेनरी सावधानी मेरे दिमाग में यह सवाल बनकर कौंधने लगी कि इसकी मौत के बाद क्या करूंगी?


मगर यह सवाल मुझे मेरे इरादे से नहीं डिगा सका ।


सच कहूं तो अपने इरादे से डिगने का अब मेरे पास कोई चांस भी नहीं था । ऐसा तो हो नहीं सकता था कि जो कहकर उसे बुलाया था वह करके वापस जाने देती ।


और वह तो आया ही उस मूड में था ।


आते ही मेरे जिस्म से छेड़छाड़ करने लगा।


मेरा समूचा अस्तित्व उसके प्रति घृणा से भर गया लेकिन ऊपर से प्यार जताती रही जो कि उस वक्त जरूरी था ।


मैंने कहा कि आज की रात को हम इस तरीके से सेलीब्रेट करेंगे कि हमेशा के लिए यादगार बन जाए |


उसे भला क्या दिक्कत हो सकती थी ?


मैंने जाम बनाने शुरु किए।


उसे पिलाई।


दिखाने के लिए खुद भी पी लेकिन असल में मैं नहीं पी रही थी ।


वह दूसरा पैग था जिसमें उसकी नजर बचाकर जहर मिलाया और उसे पीने के बाद वह कमीना मेरे कदमों में लाश बना पड़ा था ।


उसे उस अवस्था में देखकर जाने क्या हुआ मुझे... जाने क्या हुआ कि मुझ पर जुनून-सा सवार होता चला गया ।


जैसे सिर्फ उसे मारकर ही चैन नहीं मिला था ।


मैंने उसकी बॉडी पर थूक दिया।


सारे कपड़े उतार डाले।


उसी समय ड्रेसिंग टेबल के टॉप पर पड़ा एक स्केच पेन नजर आया । जाने कहां से मेरे दिमाग में यह बात आई कि उसके नंगे जिस्म पर कुछ लिखूं । कुछ ऐसा, जिसे पढ़ने के बाद लोग यह सोचने पर मजबूर हो जाएं कि यह हत्या क्यों हुई है?


क्यों?


लगा---- सिर्फ 'क्यों' ही लिख दूं तो लोग शायद समझ जाएंगे ।


-'क्यों' । नंगी लाश और उस पर लिखा हुआ --


लोग समझ जाएंगे कि इसने किसी लड़की के साथ घृणित काम किया होगा जिसकी वजह से ये हालत हुई ।


और फिर उसके पेट पर 'क्यों' लिख दिया।


मुझे सकून मिला ।


वह सकून जो उसकी लाश को देखकर भी नहीं मिला था।


सकून मिला तो दिमाग में यह सवाल उठा कि इसे किस तरह लेकर छंगा-भूरा के पास पहुंचूं? अपनी गाड़ी का इस्तेमाल तो कर नहीं सकती थी। सोचते सोचते एक ही बात दिमाग में आई--- ---- यह काम किसी और की गाड़ी से करना होगा। किसकी ? गाड़ी चुराई जा सकती है । यह सोचकर दिल कांप गया कि क्या मैं ऐसा कर सकूंगी? लेकिन अब... जबकि वह सबकुछ कर हूं---- लग रहा है कि वाकई आवश्यकता आविष्कार की जननी "


होती है। आदमी के जब सिर पर पड़ती है तो सबकुछ कर गुजरता है। बाहर से उस कमरे का ताला बंद किया जिसमें लाश थी और पैदल ही फार्म हाऊस से बाहर निकली। टैक्सी पकड़ी। टैक्सी फार्म हाऊस से ज्यादा दूर नहीं जा पाई थी कि गुलमोहर होटल की बिल्डिंग पर नजर पड़ी। दिमाग में आया ---- इसकी पार्किंग में बहुत-सी गाड़ियां होंगी। कोई भी चुराई जा सकती है । टैक्सी वहीं छोड़ दी । पार्किंग में पहुंची। एक-एक गाड़ी के लॉक में अपनी गाड़ी की चाबी लगाकर देखने


लगी । उस क्षण मुझे एहसास हुआ था कि जिन बातों को हम किताबों में यूं ही पढ़ जाते हैं, असल में उन्हें करना कितना मुश्किल होता है ! मेरे होश उड़े हुए थे । जबरदस्त सर्दी के बावजूद पसीने-पसीने हो गई थी। हकीकत ये है कि मेरे लिए रतन का मर्डर करना आसान साबित हुआ था लेकिन गाड़ी चुराना बेहद कठिन । बस इतना ही कहूंगी कि 'मरता सबकुछ करता' है । ले-देकर चाबी ने सफेद रंग की एक इनोवा का लॉक खोल दिया और फिर उसी से वह स्टार्ट भी हो गई। पार्किंग के चौकीदार की नजरों से उसे किस तरह बचाकर बाहर लाई, यह बस मैं ही जानती हूं। उसे हवा की तरह उड़ाती फार्म हाऊस पहुंची।


हालांकि मुझ अकेली के लिए उस कमीने की लाश को डिक्की में डालना बेहद मुश्किल काम था लेकिन करना था, सो किया।


गाड़ी लेकर फार्म हाऊस से बाहर निकली।


ए.टी.एम. पहुंची।


रिस्टवॉच पर नजर डाली ।


दूसरी बातों की तरह यह बात भी पहले ही सोच चुकी थी कि पच्चीस हजार बारह बजने से पहले निकालूंगी, पच्चीस बारह के बाद ।


ग्यारह पचपन पर पहले पच्चीस हजार निकाले ।


उसके बाद वहां दस मिनट गुजारने भारी हो गए थे ।


खासतौर पर इसलिए कि मेरे पास चोरी की गाड़ी थी और गाड़ी में थी रतन की लाश | एक बार तो पुलिस की गश्ती जीप भी गुजरी।


उस वक्त तो मेरी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे ही रुक गई थी । खुद को ए. टी. एम. केबिन में व्यस्त दर्शाया था मैंने।


पुनः सांसे तभी चालू हुईं जब जीप गुजर गई ।


राम-राम करके दस मिनट गुजरे।


बाकी पच्चीस निकाले 1


छंगा - भूरा की खोली पर पहुंची।


वे इंतजार कर रहे थे।


मुझे देखकर यह जरूर कहा कि तुमने तो कहा था कि पैसे और गाड़ी लेकर कोई और आएगा !


मैंने पचास हजार उनके हाथ पर रखते हुए कहा कि तुम्हें इससे कोई मतलब नहीं होना चाहिए । गाड़ी बाहर खड़ी है। तुम्हारा काम उसे यहां से कम से कम पच्चीस किलोमीटर दूर छोड़कर आना है।


वे तो इस काम के लिए तैयार थे ही ।


उस वक्त जरूर थोड़े घबराए जब मैंने कहा कि गाड़ी चोरी की है इसलिए पुलिस से बचकर जाना ।


छंगा ज्यादा हिम्मतवाला था ।


उसने कहा----‘फिक्र मत करो मैडम, अच्छा हुआ बता दिया । सतर्क रहेंगे। आगे भी ऐसा कोई काम निकले तो जरूर याद करना।'


मैं बगैर समय गंवाए वहां से निकल ली ।


मेनरोड से फार्म हाऊस के लिए टैक्सी ली।


अब मैं संतुष्ट और तनावमुक्त थी | मेरे ख्याल से अब दुनिया की कोई ताकत मुझे रतन का हत्यारा साबित नहीं कर सकती थी।


छंगा - भूरा अगर लाश के साथ पकड़े भी जाते तब भी नहीं क्योंकि मेरी जानकारी के मुताबिक वे मुझे नहीं जानते थे ।


यह बात तो आगे जाकर पता लगी कि यह मेरी भूल थी।


फार्म हाऊस के बाहर टैक्सी छोड़ते ही मैंने धीरज सिंहानिया के यहां डिनर पर गए अशोक को फोन करके आश्रम चौक पहुंचने को कहा और फिर अपनी गाड़ी लेकर वहां पहुंच गई ।


वे मुझे इंतजार करते मिले। उनके पूछने पर कह दिया कि पापा, पुरानी बातों को भूलने को तैयार नहीं हैं ।


वे सारे रास्ते मुझे सांत्वना देते रहे ।


उसके बाद हम अपने बैडरूम में आकर सो गए।


सो तो असल में अशोक गए थे।


मेरी आंखों में नींद कहां?


सुबह के साढ़े पांच बजे, उस वक्त मैं ऊंघ ही रही थी कि दस्तक की आवाज सुनकर उछल पड़ी।


जेहन में सैंकड़ों सवाल जहरीले सर्प बनकर रेंगने लगे ।


दरवाजा खोला तो सास-ससुर को खड़े पाया ।


अंदर ही अंदर मेरे तिरपन कांप गए थे लेकिन ऊपर से समान्य  दर्शाती रही और उस वक्त तो छक्के ही छूट गए जब उन्होंने ए. टीएम कार्ड लेकर नीचे आने को कहा।


लगा----छंगा- भूरा लाश सहित पकड़े गए हैं ।


मगर तब भी, मेरी समझ में यह बात आकर नहीं दे रही थी कि नौबत किसी के यहां तक पहुंचने की कैसे बन सकती है?


दिमाग में सैंकड़ों सवाल लिए ड्राईंगरूम में पहुंची।


वहां पुलिस को देखते ही पैरों तले से धरती सरक गई मगर सबके सामने खुद को सामान्य और अंजान दर्शाए रहना मजबूरी थी।


जमील अंजुम जब मुझे जीप में बैठाए थाने की तरफ ले जा रहा था तब तक भी यह सोच रही थी कि छंगा-भूरा पकड़े गए होंगे।


किसी सूत्र से पुलिस ने यह पता लगा लिया होगा कि उन्हें पैसे देने वाली मैं थी लेकिन थाने पहुंचकर छंगा- भूरा का बयान सुना तो दिमाग के धुर्रे उड़ गए।


समझ ही न सकी कि छंगा-भूरा ने पुलिस से हकीकत छुपाकर इतना बड़ा झूठ क्यों बोला था ?


झूठ भी ऐसा जिसमें खुद उन्हीं का गुनाह 'बड़ा' हो रहा था ।


खुद को हत्यारा कह रहे थे वे जबकि हकीकत बताने पर सिर्फ लाश को ठिकाने लगाने की कोशिश करने के अपराधी थे।


तभी इंस्पेक्टर के जरिए मेरे सामने अवंतिका का बयान आया ।


उसे सुनकर तो दिमाग चकरघिन्नी ही बन गया ।


भला मुझसे बेहतर कौन जान सकता था कि अवंतिका सरासर झूठ बोल रही थी! उस रात रतन उसके साथ था ही नहीं।


वह तो मेरे साथ था और मैं ग्यारह बजे ही उसे खत्म कर चुकी थी फिर अवंतिका ऐसा क्यों कह रही है कि वह डेढ़ बजे उसके साथ पैराडाइज होटल से लौट रहा था और उसकी आंखों के सामने छंगा भूरा ने उसे किडनेप किया? 


इन दोनों बातों ने मेरा दिमाग बुरी तरह हिला रखा था मगर उस वक्त हालात ऐसे थे कि इस संबंध में इसके अलावा किसी से भी कुछ नहीं कह सकती थी कि छंगा - भूरा झूठ बोल रहे हैं 1


वही कह रही थी ।


हमें कोर्ट में पेश किया गया। जमानत भी हो गई ।


बाद में जब महसूस किया कि छंगा- भूरा और अवंतिका के बयान एक-दूसरे की पुष्टि कर रहे हैं तो किसी षड़यंत्र की बू आई ।


यह कि छंगा-भूरा और अवंतिका मिलकर एक झूठ को सच बना रहे हैं अर्थात् कोई खेल खेल रहे हैं लेकिन यह बात समझ में आकर नहीं दे रही थी कि खेल आखिर है क्या ?


अंततः अपने दिमाग में घुमड़ रहे सवालों का जवाब पाने की लालसा में बुद्धवार की रात छंगा- भूरा की खोली पर पहुंच गई । उस वक्त वे शराब पी रहे थे ।