विक्रम जब सोकर उठा, बारिश हो रही थी ।



उसने अपनी रिस्टवाच पर दृष्टिपात किया ।



पांच बज कर दस मिनट हुए थे ।



आकाश में छाए बादलों के कारण वातावरण में समय से पहले ही अन्धेरा छाने लगा था । मौसम की खराबी की वजह से, हर किसी को अपने ठिकाने पर पहुंचने की जल्दी होने के कारण एक तरफ जहां सड़कों पर अफरातफरी का-सा माहौल था । वहीं दूसरी ओर, मौसम की यही खराबी विक्रम के लिए काफी हद तक वरदान सिद्ध होनी थी । क्योंकि पुलिस, आफताब आलम के आदमियों, करीम खान वगैरा से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती थी कि बारिश और सर्दी में भी वे उसकी तलाश उतनी ही सतर्कता से कर रहे होंगे ।



स्नानादि से निवृत होने के बाद वह होटल से निकला ।



वह निकटतम जनरल स्टोर पर पहुंचा और एक रेनकोट तथा रेनकैप खरीदकर पहन लिए । पीक कैप टाइप रेनकैप को उसने माथे पर जरूरत से ज्यादा झुका रखा था और रेनकोट के कालर खड़े कर लिए । इस तरह, वह अपेक्षाकृत निश्चिन्त था, एकाएक उसे नहीं पहचाना जा सकेगा ।



उसने एक हॉकर से उसी रोज का सायंकालीन समाचारपत्र खरीदा । फिर शुरू से आखिर सारा अखबार छान मारा । मगर जीवन की लाश बरामद होने सम्बन्धी कोई खबर उसमें नहीं छपी थी ।



विक्रम यकीनी तौर पर कह सकता था कि जीवन की लाश अब तक बरामद नहीं हुई थी । और अगर अखबार में खबर न छपने को इस दिशा ने संकेत माना जाए तो जाहिर था कि उसका अनुमान सही था ।



वह कुछ देर खड़ा सोचता रहा । फिर टैक्सी द्वारा रेलवे स्टेशन पहुंचा ।



जगतार की जो टैक्सी वह सुवह वहां छोड़ आया था वो तब नजर नहीं आई । गलत जगह पार्क थी इसलिए या तो उसे ट्रैफिक पुलिस वाले टो करके ले गए थे या फिर जगतार को एक खास वक्त तक वापस न लौटा पाकर आफताब आलम को उसकी फिक्र पड़ी थी और उसने अपने आदमी हर तरफ दौड़ा दिए थे । उन्हीं में से कोई टैक्सी को पहचानकर वहां से ले गया था । बहरहाल जो भी हुआ टैक्सी वहां से ले जायी जा चुकी थी ।



विक्रम क्लॉक-रूम में पहुंचा । वह पूरी तरह चौकस रहा था । मगर ऐसा कोई व्यवित कम-से-कम उसे तो दिखाई नहीं दिया जिस पर इस बात का शक भी कर सके कि वह उसकी तलाश में वहां मौजूद था ।



वह ब्रीफकेस लेकर क्लॉक-रूम से निकला ।



रेलवे स्टेशन से बाहर आकर टैक्सी पकड़ी और वापस लौट पड़ा ।



रास्ते में एक स्थान पर रुककर उसने, अपना परिचय दिए बगैर, फोन द्वारा एस. आई. चमनलाल के बारे में पता लगाया । वह पुलिस स्टेशन में ही था ।



पुनः टैक्सी में सवार होकर वह चमनलाल के निवासस्थान की ओर रवाना हो गया ।



चमनलाल शादीशुदा था । उसकी पत्नी भी विक्रम को अच्छी तरह जानती थी ।



विक्रम उसके निवास-स्थात पर ब्रीफकेस सहित टैक्सी से उतरा । ड्राइवर से वेट करने के लिए कहकर वह चमनलाल के फ्लैट में पहुंचा । बिना किसी औपचारिकता के उसने ब्रीफकेस चमनलाल की पत्नी को यह कहते हुए दे दिया कि उसे अपने पति को सौंप दे । साथ ही बता दे कि वो मिलन रेस्टोरेंट से मिला था । और फिर बहुत ही ज्यादा जल्दी में होने की दुहाई देता हुआ उल्टे पैरों वापस लौट आया ।



वह जानता था, हेरोइन के वे पैकेट स्थानीय पुलिस विभाग में खासी हलचल मचा देंगे ।



प्रतीक्षारत टैक्सी की ओर जाते समय उसने अपनी रिस्टवाच पर निगाह डाली तो उसे याद आ गया कि सुलेमान से मिलने का वक्त होने वाला था ।



वह टैक्सी में जा बैठा ।



ड्राइवर, उसके द्वारा बताए गए, पते की ओर ड्राइव करने लगा ।



******



सुलेमान उसी बार के एक केबिन में बैठा मिला, जहां विक्रम ने उससे मिलने के लिए कहा था । वह व्हिस्की की चुस्कियों में वक्त गुजार रहा प्रतीत होता था ।



विक्रम उसके सामने जा बैठा ।



सुलेमान ने दिखावे के तौर पर उसके लिए भी एक ड्रिंक का ऑर्डर दे दिया ।



बेयरा ट्रिक सर्व करके जाने लगा तो विक्रम के संकेत पर सुलेमान ने डिनर का ऑर्डर भी दे दिया ।



विक्रम ने सामने रखे ड्रिंक को उठाने का कोई उपक्रम नहीं किया ।



"क्या समाचार है ?" उसने पूछा ।



सुलेमान मुस्कराया ।



"बहुत बढ़िया !" वह बोला-"सुनकर फड़क उठोगे ।"



तो फिर सुनाते क्यों नहीं ?"



"मीना सरकार को जानते हो, न ?"



विक्रम की जानकारी में इस नाम की एक कॉलगर्ल हुआ करती थी ।



"वही जो पेशा करती है ?"



"हां, उसी से, मालूमांत हासिल हुई है ।" सुलेमान ने जवाब दिया-"दरअसल, जिस जगह खाली एम्बूलेंस छोड़ी गई थी, उसी के पास एक कोठी में मीना अपने एक क्लायंट के पास गई हुई थी । उस वक्त, वह वापस लौट रही थी और कोठी के मेनगेट के पास थी जब एम्बूलेंस से उतारकर स्टेचर को नीली स्टेशन स्टेशन वैगन में लादा जा रहा था । मीना समझ गई जरूर कोई लफड़ा था इसलिए वह गेट की आड़ में चुपचाप खड़ी रही । उन लोगों के जाने के बाद ही वह वहां से निकली, स्टैंड से टैक्सी ली और अपने घर लौट गयी ।"



"मीना ने स्टेशन वैगन का नम्बर बताया है ?"



"नहीं, उसका कहना है कि उस तरफ घबराहट में ध्यान नहीं दे सकी थी ।"



"आई सी । स्ट्रेचर ट्रांसफर करने वालों की बातें सुनी थीं उसने ?"



"खास बातें तो नहीं सुनी । अलबत्ता उन्हें मुगल रेस्टोरेंट और मदनलाल का नाम लेते जरूर सुना था ।"



"मीना ने कितने आदमी देखे थे ?"



"चार । उनमें से दो आदमी स्ट्रेचर उठाए हुए थे । जिन्हें वह ठीक तरह से नहीं देख पायी । बाकी दो तनिक अलग खड़े बातें कर रहे थे ।"



"उन्हें मीना ने अच्छी तरह देखा था ?"



"हां । मगर इतनी अच्छी तरह नहीं कि बारीकी से उनके हुलिये बता सके ।"



"फिर भी कुछ तो बताया ही होगा ।"



"उनमें से एक औसत कद-बुत वाला था और उसके बायें कान का निचला हिस्सा गायब है । दूसरा, काले घुंघराले बालों, सांवली रंगत और लम्बी लेकिन कुबड़ी नाक वाला था ।"



विक्रम समझ गया, दूसरा आदमी निश्चित रूप से करीम खान ही रहा था ।



"और कुछ ?" उससे पूछा ।



"हां, ऐसा लगता है, आफताब आलम का रुख कुछ नर्म हो गया है ।"



विक्रम ने असमंजसतापूर्वक उसे घूरा ।



"क्या मतलब ?"



इससे पहले कि सुलेमान जवाब देता, बेयरा दोनों हाथों में बड़ी-सी ट्रे थामे केबिन में दाखिल हुआ और डिनर सर्व करने लगा ।



अब तक सुलेमान अपना और विक्रम के लिए मंगवाया गया दोनों ड्रिंक खत्म कर चुका था ।



बेयरे के बाहर जाते ही खाने के साथ-साथ वार्तालाप भी पुनः आरम्भ हो गया ।



"लगता है ।" सुलेमान बोला-"आफताब आलम को जीवन में अब कोई दिलचस्पी नहीं रह गई है ।"



विक्रम ने उसे घूरा ।



"यह तुम कैसे कह सकते हो ?"



"आफताब आलम का जो आदमी जीवन के निवासस्थान की निगरानी कर रहा था, उसे वहां से हटा लिया गया है ।" सुलेमान ने जवाब दिया-"उसका नाम प्रेमनाथ है । तुम भी उसे जानते हो ।"



विक्रम कुछ नहीं बोला । उसने तथ्यों के आधार पर प्राप्त जानकारी के संदर्भ में सोचना आरम्भ कर दिया । अनुमानतः प्रेमनाथ के हटाए जाने की वजह आफताब आलम का रुख नर्म होना नहीं बल्कि जीवन की लाश बरामद होनी थी ।



उसने इधर-उधर बिखरी कड़ियों को जोड़ना शुरू किया तो वे एक-दूसरी के साथ फिट बैठती नजर आने लगीं ।



सुबह रेस्टोरेंट के ऑफिस में जीवन की लाश पड़ी पाई जाने के बाद सरदारीलाल ने फौरन जसपाल से सम्पर्क किया था और हेरोइन के पैकेट गायब पाकर उनके होश उड़ गए । उनके लिए वो झमेला इतना भारी था कि उससे अकेले निपटना उनके बस की बात नहीं थी । लिहाजा उन्होंने आफताब आलम की मदद ली और जीवन की लाश को वहां से हटवाकर, सम्भवतया उसके निवास स्थान पर ही पहुंचा दिया गया था ताकि वो वहीं से बरामद हो । दिन में ऐसा करना खतरनाक तो था मगर सही साधन उपलब्ध होने पर ज्यादा मुश्किल इसे नहीं कहा जा सकता था । और यह सब करने के पीछे, सबसे बड़ी वजह थी-पुलिस को मिलन रेस्टोरेंट से दूर रखना ताकि जसपाल उसे बराबर स्टोर हाउस के तौर पर इस्तेमाल करता रह सके ।



विक्रम यह सोचकर मन-ही-मन मुस्कराया कि हेरोइन के पैकेटों को गायब पाकर जसपाल बड़ी भारी हाय-तोबा मचा रहा होगा ।



सहसा उसने गहरी सांस ली ।



काश ! रेस्टोरेंट के ऑफिस की पूरी तरह तलाशी लेने का समय मिल जाता तो बहुत मुमकिन था कोई सॉलिड जानकारी हासिल हो गई होती ।



विक्रम खाना खत्म करके खड़ा हो गया ।



"तुम गलत सोच रहे हो ।" वह बोला-"आफताब आलम ने नर्म रुख इख्तियार नहीं किया है ।"



सुलेमान ने प्रश्नात्मक दृष्टि से उसे देखा ।



"फिर ?" विक्रम मुकराया ।



"लम्बा किस्सा है । बाद में बताऊंगा ।" वह बोला-"बिल चुका देना । मैं चलता हूं ।"



केबिन से निकलकर वह बार से बाहर आ गया ।



तब तक रात्रि का अंधकार पूरी तरह फैल चुका था । आसमान में काले घने बादल छाए हुए थे मगर बारिश ने हल्की बूंदा-बांदी का रुख ले लिया था । लेकिन हवा थोड़ी तेज थी, इसलिए सर्दी में इजाफा हो गया था ।



ये तमाम बातें विक्रम के हक में फायदेमंद थीं । क्योंकि इन सब ने मिलकर सड़कों पर आमद-रफ्त बहुत ही कम कर दी थी ।



बड़ी मुश्किल से, एक खाली ऑटोरिक्शा वाला उसे मुगल रेस्टोरेंट ले जाने के लिए तैयार हुआ ।



मुगल रेस्टोरेंट, शहर के लगभग बाहरी भाग में, वास्तव में एक बढ़िया किस्म का ढाबा था । उसका मालिक मदनलाल यू तो घाघ किस्म का आदमी था । मगर भूतपूर्व फौजी होने की वजह से उसके दिल में वतन के लिए मुहब्बत थी और उसकी कोशिश रहा करती थी कि उसके ढाबे को गैरकानूनी गतिविधियों का केन्द्र न बनाया जा सके । जहां तक ढाबे का नाम मुगल रेस्टोरेंट होने का सवाल था । वहां सिर्फ नानवेजीटेरेनियन भोजन मिलने की वजह से ही उसे शायद यह नाम दिया गया था । उसकी सबसे बड़ी तारीफ थी-वहां मिलने वाली चीजें लजीज होने के साथ-साथ उस जैसे किसी भी ढाबे के मुकाबले में सस्ती थीं । इसलिए दोपहर और रात के खाने के वक्त वहां काफी रश रहता था ।



रेस्टोरेंट के एकदम पास अन्य कोई इमारत नहीं थी । लेकिन करीब दो सौ गज के फासले पर एक इमारत में एक प्रिटिंग प्रेस और साप्ताहिक समाचार-पत्र 'अमन' का दफ्तर था । फिर आगे जाकर कोई दो दर्जन फैक्टरियां थीं । वहां काम करने वाले अधिकांश कर्मचारी उसी ढाबे में खाना खाने आते थे ।



विक्रम मुगल रेस्टोरेंट के सामने ऑटोरिक्शा से उतरा ओर भाड़ा चुकाकर अंदर प्रवेश कर गया ।



वह और मदनलाल दोनों एक-दूसरे से भली-भांति -परिचित थे । इसलिए उसे पूरा सहयोग मिलने की उम्मीद थी ।



अंदर काफी रश था ।



विक्रम ने चारों ओर निगाहें दौड़ाईं । मदनलाल उसे दिखाई नहीं दिया । कैश-बाक्स पर भी कोई और ही बैठा था ।



विक्रम समझ गया कि मदनलाल पार्टीशन के पीछे अपने के बिननुमा स्टोर-कम-ऑफिस में बैठा दारू पी रहा होगा ।



वह पलटकर सीधा वहीं जा पहुंचा ।



उसका अनुमान सही निकला ।



मदनलाल सचमुच वहीं मौजूद था और दारू पी रहा था । वह पचास के पेटे में पहुंचा एक भारी बदन का आदमी था । विक्रम को देखकर पहले तो वह चौंका फिर मुस्करा दिया-



"ओह, तो तुम हो !" वह बेतकुल्लफी से बोला-"आओ ।"



विक्रम उसके सामने जा बैठा ।



"कैसे हो, मदनलाल ?"



"मजे कर रहा हूं । अपनी सुनाओ ।" मदनलाल अपना गिलास खाली करके नीचे रखने के बाद बोला-"आजकल तो शहर भर में तुम्हारी ही चर्चा है ।"



विक्रम मुस्कराया ।



"तुम भी अपना ऐसा ही चर्चा कराना चाहते हो ?"



"नहीं, यह सब तुम्हें ही मुबारक हो ।" मदनलाल अपने गिलास में बोतल से दारू डालता हुआ बोला-"इससे पहले कि तुम्हारे यहां आने की वजह के बारे में बातें की जाएं, यह बताओ कि क्या पियोगे ?"



कुछ नहीं ।" कहकर विक्रम ने उन दोनों आदमियों के बारे में पूछा, जिनका हुलिया सुलेमान ने बताया था ।



मदनलाल ने गिलास से तगड़ा घूंट लेने के बाद चार्म्स का एक सिगरेट सुलगा लिया ।



"ऐसे हुलिए वाले आदमियों को यहां आते मैंने तो नहीं, देखा ।" वह बोला-"अलबत्ता एक कनकटे को मनमोहन के साथ आते जरूर देखा है ।"



"उसका हुलिया बता सकते हो ?"



"कनकटे का ?"



"हा !"



"औसत कद-बुत, गेहुंआ रंग और बायें कान का निचला हिस्सा गायब है ।"



"उसका नाम-पता ?"



"यह मुझे नहीं मालूम ।"



"मनमोहन को तो जानते हो ?"



मदनलाल ने ताज्जुब से उसे देखा ।



"हां, तुम नहीं जानते उसे ?"



"नहीं । कौन है वह ?"



" 'अमन' का मालिक और एडीटर ।" मदनलाल हिकारत भरे लहजे में बोला-"वह हरामजादा निहायत कमीना और लालची है । पैसे की खातिर अपनी मां-बहन को बीच बाजार में बोली लगाकर बेच सकता है । अब तो जान गए ?"