होटल अलास्का में एक हफ़्ता पहले बुकिंग कराये बग़ैर कमरा हासिल कर लेना आसान काम नहीं था, लेकिन इमरान को उसके क़रीबी दोस्त भूत भी कहते थे, इसलिए वह भूत ही ठहरा। उसने एक छोड़, दो कमरे हासिल किये। एक अपने लिए और एक रूशी के लिए। और उसी माले पर हासिल किये जिसमें मोरीना सलानियो और उसके साथियों के कमरे थे।

रूशी अब स्कर्ट की बजाय कमीज़ और शलवार में रहती थी। कभी-कभी जम्पर और ग़रारे में भी दिख जाती थी। उसे पूरबी लिबास बहुत पसन्द थे और सिर्फ़ पूरब और पश्चिम के त़र्ज की वजह से मोरीना की पार्टी के मर्द उसमें ज़्यादा दिलचस्पी लेने लगे थे। जब रूशी उनमें घुल-मिल गयी थी तो इमरान कैसे न घुलता-मिलता....! उसने बहुत जल्द उन पर अपनी बेवक़ूफ़ी का सिक्का जमा लिया। ख़ास तौर पर मोरीना के लिए तो वह एक ऐसा लतीफ़ा था जिसके बग़ैर खाने की मेज़ पर उसे मज़ा नहीं आता था।

दूसरी तरफ़ उसकी पार्टी के मर्दों का ख़याल था कि अगर उन्हें ऐसे ही दो-चार बेवक़ूफ़ क़िस्म के लोग और मिल गये तो उनका वक़्त काफ़ी दिलचस्पियों में बीतेगा।

बहरहाल, इमरान उन लोगों को बहुत क़रीब से देख रहा था.... मोरीना अपने साथियों पर हुक्म चलाती थी। बिलकुल उसी अन्दाज़ में जैसे वे उसके नौकर हों और उनसे हमेशा अंग्रेज़ी में बातचीत करती थी जिसका मतलब यह था कि वे सब अंग्रेज़ी के अलावा और कोई ज़बान नहीं समझ सकते थे। आर्टामोनॉफ़ पर इमरान ने ख़ास तौर पर नज़र रखी थी। वह बिलकुल बेडौल क़िस्म का आदमी था। उसका चेहरा भी बेडौल-सा मालूम होता था। चलने का अन्दाज़ कुछ ऐसा था कि हल्की-सी लँगड़ाहट का पता चलता था। हालाँकि वह हक़ीक़त में लँगड़ी नहीं थी।

आज इमरान फिर मोरीना का पीछा कर रहा था। वह अपने सारे साथियों समेत एक बड़ी-सी स्टेशन वैगन में सफ़र कर रही थी और एक स्थानीय आदमी भी उनके साथ था। रात के दस बजे थे और वह प्लाज़ा का प्रोग्राम ख़त्म करके वापस हुई थी। मगर स्टेशन वैगन उन रास्तों पर नहीं चल रही थी जो होटल अलास्का की तरफ़ जाते थे।

इमरान की टू-सीटर पीछा करती रही। इमरान अकेला ही था....

फिर स्टेशन वैगन एक ऐसी बस्ती में दाख़िल हुई जहाँ ऊँचे घराने के लोग आबाद थे....और यहाँ दूर-दूर तक शानदार इमारतें नज़र आ रही थीं। लेकिन आबादी घनी नहीं थी। हर इमारत अलग हैसियत रखती थी और एक से दूसरी के बीच में कुछ-न-कुछ दूरी ज़रूर थी। बस्ती के बाहर दोनों तरफ़ जंगलों और खेतों की क़तारें थीं।

स्टेशन वैगन एक इमारत के सामने रुक गयी। इमरान बहुत ज़्यादा एहतियात बरत रहा था। उसने अपनी कार की हेडलाइटें पहले ही से बुझा रखी थीं।

दो-तीन आदमी स्टेशन वैगन से उतरे और फिर सब-के-सब नीचे आ गये। वे गाड़ी से कोई बहुत भारी चीज़ उतारने की कोशिश कर रहे थे और उसे नीचे उतारने में देरी का सबब इमरान की समझ में न आ सका जबकि एक साथ कई आदमी कोशिश कर रहे थे। आख़िर थोड़ी ही देर बाद हक़ीक़त सामने आ गयी। उन्होंने एक बहुत बड़ा गट्ठर उतारा....लेकिन उसे फिर ज़मीन पर डाल देना पड़ा और दो-तीन आदमी उसे दबाये रहे। बिलकुल ऐसा लग रहा था जैसे वह कोई जानवर हो और उन्हें इस बात का डर हो कि अगर वे उसे दबाये न रहे तो वह उनके क़ब्ज़े से निकल जायेगा।

बहुत मुश्किल से वे उसे उठा कर सामने वाली इमारत में चले गये।

इमरान ने ग़ुस्से के अन्दाज़ में अपने कन्धों को हिलाया, वह कुछ पल उसी जगह खड़ा रहा। फिर बड़ी तेज़ी से एक तरफ़ चलने लगा। उसे याद आ गया था कि इस बस्ती में एक सरकारी हस्पताल था, जहाँ पब्लिक के इस्तेमाल के लिए टेलीफ़ोन बूथ भी बना हुआ है।

उसने बूथ में दाख़िल हो कर बड़ी तेज़ी से कैप्टन फ़ैयाज़ का नम्बर डायल किया....उसे यक़ीन था कि वह इस वक़्त घर ही पर होगा, क्योंकि उसकी बीवी इन दिनों बीमार थी।

‘‘हैलो! फ़ैयाज़....! मैं इमरान बोल रहा हूँ....रूपनगर से....हाँ....और मैं सुरैया लॉज मैं ग़ैरक़ानूनी तौर पर घुसने जा रहा हूँ। अगर तुम चाहो तो तुम्हें एक घण्टे बाद वहाँ मेरी लाश तैयार मिलेगी....हिप। अगर इससे पहले पहुँच गये तो हो सकता है कि ग़ज़ाली के क़ातिलों का दीदार कर सको। समझ गये न....हाँ....बस....खत्म....!’’

इमरान रिसीवर हुक से लगा कर फिर बाहर आ गया और बहुत तेज़ी से अपनी कार की तरफ़ वापस जा रहा था।

कार के क़रीब पहुँच कर उसने उसकी डिकी खोली और अन्दर हाथ डाल कर कुछ टटोलने लगा....इस डिकी में दुनिया भर की बलाएँ भरी रहती थीं और इमरान उसे हमेशा ताला लगाये रखता था....