“कहां हो इस वक्त ?” विचित्रा ने पूछा ।


कान से मोबाइल लगाये देवांश ने मस्ती के मूड में कहा ---- “ अपनी गाड़ी में ।”


“देव !” विचित्रा के स्वर में बेचैनी थी- “मजाक मत करो।”


“मजाक कहां कर रहा हूं डार्लिंग ।" एक हाथ से 'जेन' ड्राइव करते देवांश ने उसकी बेचैनी का मजा लेते हुए कहा- -"मैं सचमुच गाड़ी में हूं।”


“नौ बज रहे हैं। तुमने बताया था साढ़े नौ के बाद दिव्या नहाने के लिए बाथरूम में घुस जाती है।"


“तो ?”


“तो क्या?” झुंझलाया हुआ स्वर ---- "अभी तक गाड़ी में हो तो सही समय पर बाथरूम में कैसे पहुंचोगे ?”


“तुमने यह तो पूछा ही नहीं गाड़ी कहां है इस वक्त ?”


“कहां है ?”


“ऐ... ये लो।” कहने के साथ उसने गाड़ी चाणक्य नाम के

एक थ्री स्टार होटल के पार्किंग में रोकते हुए कहा---- “चाणक्य के पार्किंग में पहुंच चुकी है। प्लान के मुताबिक मुझे यहां से पैदल उसके बाथरूम में पहुंचना है। और तुम जानती हो, यह रास्ता पन्द्रह मिनट से ज्यादा का नहीं है। बाथरूम की खिड़की को मैं अंदर से दिन में ही खोल आया था ।”


“थैंक्स गॉड ।” दूसरी तरफ से विचित्रा की राहतभरी आवाज सुनाई दी---- “इसका मतलब तुम प्लान को आज ही रात अंजाम देने वाले हो ।”


“ऐसा हो सकता है भला कि आपके हुक्म की तामील न हो ।”


“बड़े अच्छे मूड में नजर आ रहे हो, यानी अब तक का काम काफी सफलतापूर्वक निपटा है ।”


“समझदार हो। तुम्हारी इस अदा पर तो कुरबान हैं हम ।”


“शुरू से बताओ ।.... आफताब को निकाल दिया?”


“उसी वक्त निकाल दिया था जब मां- बदौलत का हुक्म हुआ था।"


“कैसे निकाला ?”


“गैरजरूरी बातें पूछकर तुम बेवजह कीमती वक्त बरबाद कर रही हो डार्लिंग ।”


“विला की तरफ पैदल जाते हुए भी बात कर सकते हो तुम। कोई ध्यान नहीं देगा। आजकल ऐसा सीन आम है। टाइम भी बरबाद नहीं होगा, मुझे रिपोर्ट भी मिल जायेगी।”


“वही कर रहा हूं ।” गाड़ी से बाहर निकलने के बाद उसे 'लॉक' करते देवांश ने कहा ।


“तो बोलो - - आफताब को निकालते वक्त कोई दिक्कत तो पेश नहीं आई?”


“दिक्कत क्या पेश आनी थी हुजूरे आला? हम मालिक हैं, वह नौकर था । भला नौकर को चाहे जब निकाल देने के मालिक के अधिकार को कौन चुनौती दे सकता है ?”


“गुड ! ... जहर मिला ?”


उसने दूसरे हाथ से अपनी जींस की पैन्ट थपथपाते हुए कहा ---- “जेब में है।”


“कहां से लिया ?”


“एक सपेरे से । ”


"वैरी गुड | ... . और विषकन्या ?”


“समरपाल के बैडरूम में पहुंच चुकी है। बैड के गद्दे के नीचे।”


“इसका मतलब, बस एक ही काम बचा है अब---


“उसी को करने विला की पिछली गली में पहुंच चुका हूं।"


“वादा याद है न ?”


"कौन-सा वादा ? ”


“बाथरूम में जा रहे हो तुम । वहां, जहां दिव्या को नहाना है। मुमकिन है पूरी नंगी हो । कपड़े चेंज करने हैं । कुरबान मत हो जाना उस पर । उसके निप्पल्स...


“ अब बंद करो विनीता।" देवांश ने उसकी बात काटी ---- “मैं उस पेड़ के नजदीक पहुंच चुका हूं जिस पर चढ़कर विला में कूदना है।”


“ओ. के. देव !” वह हंसी ---- "बैस्ट ऑफ लक !”


कहने के साथ दूसरी तरफ से सम्बन्ध विच्छेद कर दिया गया ।


देवांश ने मोबाइल ऑफ किया । गली में दायें - बायें नजर डाली। उम्मीद के अनुरूप दोनों तरफ अंधेरा और सन्नाटा था जैसा कि उस गली में हमेशा रहता था। मोबाइल जेब में डालकर उसने विला की दीवार से सटे उस पेड़ पर चढ़ना शुरू कर दिया जिसकी एक मोटी शाख विला की ऊंची चारदीवारी के ऊपर से होती हुई उसके पार तक चली गई थी । अभी वह उस शाख की तरफ बढ़ ही रहा था कि मोबाइल फिर बज उठा । यह सोचकर झुंझला उठा वह विचित्रा बार-बार फोन कर रही है। खुद को पेड़ की शाख पर जमाकर जेब से मोबाइल निकाला। स्क्रीन पर नजर आ रहा नम्बर पढ़कर ही सकपका-सा गया वह| नम्बर राजदान के मोबाइल का था। उसने जल्दी से ऑन किया। कान से लगाता बोला-- “हां भैया ।”


“भैया के बच्चे !” राजदान की आवाज उभरी ---- “इतनी देर हो गई ट्राई करते-करते । किससे कर रहा था इतनी लम्बी बातें?”


“व- वो भैया ! एक दोस्त का फोन था । "


“ दोस्त का - - - - या दोस्तनी का ?” ————


“भैया ! कैसी बातें कर रहे हैं आप?”


"बेवकूफ समझता है मुझे ?”


“प्लीज भैया ।”


“विचित्रा से बात नहीं कर रहा था तू ?”


“धड़ाम ।”


एक ऐसा विस्फोट हुआ जिसने देवांश के दिमाग के परखच्चे उड़ा दिए ।


जिस्म सुन्न पड़ गया।


पेड़ के नीचे टपक पड़ने से खुद को बड़ी मुश्किल से रोका उसने। सचमुच राजदान के शब्द उसके लिए 'अणुबम' से ज्यादा धमाकेदार थे । मुंह से बोल न फूट सका । दूसरी तरफ से राजदान ने कहा-- -“बोल, उसी से बात कर रहा था न?”


“अ - आप उसके बारे में कैसे जानते हैं?” बड़ी मुश्किल से पूछ सका वह ।


“गधा है तू! पूछ रहा है मैं उसे कैसे जानता हूं । हकीकत ये है तू कुछ नहीं नहीं जानता उसके बारे में मगर, ये बातें फोन पर नहीं हो सकतीं। इस वक्त तू है कहां?”


देवांश समझ चुका था राजदान उसे 'विला' पहुंचने के लिए कहेगा, अतः बोला----“अभी तो 'गोरेगांव' हूं।”


“इतनी दूर ? वहां क्या कर रहा है ?"


“एक काम से इधर आया था।”


“फौरन निकल पड़ ! विला पहुंच। मुझे तुझसे जरूरी बातें करनी हैं।”


“निकल रहा हूं भैया। फिर भी एक घण्टा तो लग ही जायेगा यहां से विला पहुंचने में।”


“जितनी जल्दी आ सकता है, आ जा ।” कहने के बाद दूसरी तरफ से कनेक्शन काट दिया गया । राहत की सांस लेते हुए देवांश ने भी मोबाइल ऑफ किया। इस बार स्विच ही ‘ऑफ' कर दिया उसने अर्थात् अब कोई फोन उस पर नहीं आ सकता था ।


फोन जेब में रखते वक्त उसने सोचा---- 'तो ठकरियाल ने राजदान को 'विचित्रा' के बारे में बता ही दिया ।' ... अब हालात को 'फेस' करने के अलावा चारा ही क्या था ? .... और करना ही क्या था हालात को फेस ? कल सुबह तक राजदान को लाश में तब्दील हो जाना था । उसने जींस की जेब से रबर के 'ग्लब्ज' निकाले और पहन लिए ।


उस शाख पर आगे बढ़ा जो चारदीवारी के ऊपर से होती हुई विला के फ्रंट लॉन के ऊपर तक पहुंच गयी थी । सिरे पर पहुंचकर विला पर नजर डाली । अंदर की ज्यादातर लाइटें ऑन थीं। किचन लॉन यहां से नहीं चमक रहा था । ब्रास वाले 'गेट' के नजदीक अपने केबिन में बैठे चौकीदार को देवांश साफ देख सकता था। मगर उसकी नजर देवांश पर पड़ने वाली नहीं थी। वह पूरी तरह अंधेरे में था बल्कि... वह सारा ही रास्ता अंधेरे में डूबा रहता था जिससे गुजरकर उसे बाथरूम में पहुंचना था । सब परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही प्लान बनाया था उसने ।


संतुष्ट होने के बाद पेड़ की शाख से विला के लॉन में कूदा।


जानबूझकर, सुबह ही स्पोर्ट्स शूज़ पहने थे उसने ।


‘धप्प' की एक हल्की सी आवाज हुई | अपने स्थान पर ही पंजों के बल बैठे देवांश ने केबिन की तरफ देखा । आशा के अनुरूप आवाज चौकीदार तक नहीं पहुंची थी, वरना वह पूरी तल्लीनता के साथ उपन्यास न पढ़ रहा होता । अब उसे बाथरूम तक पहुंचने से कोई नहीं रोक सकता था।


***


बाथरूम में पहुंचते ही देवांश ने खिड़की बंद करके अंदर से चटकनी चढ़ा ली ।


जेब से पेंसिल टार्च निकालकर ऑन की। ड्रेसिंग में पहुंचा। कान उस बंद दरवाजे पर लगाया जो बैडरूम में खुलता था। आवाजें स्पष्ट नहीं थीं। परन्तु यह जरूर पता लग गया इस वक्त वहां दिव्या और राजदान के अलावा बबलू भी है।


रिस्टवॉच में टाइम देखा- - नौ बीस हो रहे थे 1


वह फौरन उस अलमारी के अंदर जाकर खड़ा हो गया जिसमें राजदान के कपड़े थे।


टार्च ऑफ करके जेब में डाल ली ।


अब उसे दिव्या के आगमन का इंतजार था ।


साढ़े नौ बजे के बाद वह किसी भी समय बाथरूम में आ सकती थी ।


नहाने के लिए ।


यह उसका रोज का नियम था ।


हर बात को ध्यान में रखकर ही प्लान बनाया था देवांश ने।


घुटन से बचने के लिए उसने दोनों किवाड़ों के बीच हल्की-सी झिरी बना रखी थी । झिरी केवल घुटन से लड़ सकती थी । वह भी सीमित क्षमता के साथ | गर्मी से लड़ना वश में नहीं था उसके ।


परिणाम ---- देवांश पसीने से लथपथ हो गया ।


दस बज गये ।


जी चाहा ---- कुछ देर के लिए अलमारी से बाहर निकल जाये।


मगर !


जाने कौन से पल दिव्या दरवाजा खोलकर अंदर घुस आये ।


उस अवस्था में उसे छुपने का मौका मिलने वाला नहीं था। अतः जहां था, वहीं खड़ा रहा। दिव्या के जल्दी से जल्दी आने की कामना कर रहा था वह ।


ठीक सवा दस बजे!


एक झटके से दरवाजा खुलने की आवाज आई।


‘धक्क’ से रह गया देवांश का दिल । सांस रुक गई । पलक झपकते ही सूखा पड़ गया हलक में। जिस दिव्या के आगमन की कामना कर रहा था, उसी दिव्या का आगमन अब उसे अपने होश उड़ाता प्रतीत हुआ। अपने दिल के धड़कने की आवाज उसे इतनी स्पष्ट सुनाई दे रही थी जैसे स्टेथिस्कोप से सुन रहा हो ।


'कट' की हल्की सी आवाज के साथ ड्रेसिंग में एक ट्यूब का दृधिया प्रकाश फैल गया।


झिरी से आंख सटा दी उसने ।


दिव्या ने अपनी अलमारी खोली । उसमें मौजूद कपड़ों से छेड़खानी करने लगी। देवांश की तरफ उसकी पीठ थी । कुछ देर यही स्थिति रही। फिर दिव्या ने अपने एक हाथ में कुछ कपड़े सम्भाले। दूसरे हाथ से अलमारी बंद की और ड्रेसिंग टेबल की तरफ बढ़ गई |


कपड़े ड्रेसिंग टेबल के टॉप पर रखे। आइने में खुद को देखते हुए बालों में लगा हेयरबैण्ड उतारा ।


फिर वह बाथरूम और ड्रेसिंग के बीच मौजूद अपारदर्शी कांच का दरवाजा खोलकर बाथरूम में चली गयी ।


कांच का वह दरवाजा वापस बंद हो गया जिस पर अंगड़ाई लेती लड़की बनी हुई थी।


बाथरूम की लाइट ऑन हुई।


राहत की बहुत ही लम्बी सांस ली देवांश ने ।


यूं-- -जैसे वर्षों बाद सांस लेने का मौका मिला हो ।


झिर्री आहिस्ता से, बहुत ही आहिस्ता से चौड़ी की। हालांकि ड्रेसिंग में कोई ए. सी., कोई कूलर, कोई पंखा नहीं चल रहा था। मगर पसीने से लथपथ चेहरे पर हवा का ठण्डा झोंका महसूस किया उसने । राहत सी मिली। आंखें कांच पर जमी हुई थीं। कांच के पार दिव्या परछाई की शक्ल में नजर आ रही थी । फिर उसने देखा ---- परछाई ने अपनी साड़ी उतारनी शुरू कर दी ।


कांच पर चिपककर रह गयीं देवांश की आंखें ।


अब परछाई ब्लाउज के हुक खोल रही थी ।


कुछ देर बाद उसने 'ब्रा' भी एक तरफ उछलती देखी ।


आंखें उससे आगे का दृश्य देखने के लिए 'लालायित' हो उठीं परन्तु देख न सकीं।


परछाई कांच से गुम हो चुकी थी । देवांश का दिल चाहा ---- आगे बढ़े। दरवाजे के नजदीक पहुंच जाये। हालांकि

कांच अपारदर्शी है मगर झांकने का प्रयत्न करे । शायद कुछ नजर आ जाये । भले ही परछाई की शक्ल में हो। मगर, फिर झटका-सा लगा उसे । यहां वह ऐसे किसी दृश्य को देखने नहीं बल्कि हत्या के प्लान को अमली जामा पहनाने आया है।


दरवाजे की तरफ नहीं, ड्रेसिंग टेबल की तरफ बढ़ना है उसे ।


उसी तरफ बढ़ा भी ।


इस वक्त उस पर कोई खास घबराहट हावी नहीं थी । क्योंकि जानता था ---- कम से कम दस मिनट दिव्या ड्रेसिंग में आने वाली नहीं है । उस तरफ से ध्यान हटाकर इधर देवांश ड्रेसिंग टेबल के नजदीक पहुंचा, उधर बाथरूम में शॉवर चलने की आवाज आने लगी ।


जाहिर था - - दिव्या शॉवर के नीचे थी ।


देवांश की नजर ड्रेसिंग टेबल के टॉप पर रखे मखमली टॉवल, काई रंग के कोट और हल्के गुलाबी रंग के नाइट गाऊन पर थी । नेट के कपड़े का बना जालीदार गाऊन था वह । कुछ उतनी ही बारीक जालियां थीं जैसे मच्छरदानी में होती हैं। सलीके से तह हुई रखी थीं चीजें । मगर देवांश को उनसे नहीं उनके नीचे पहनी जाने वाली ब्रा से मतलब था । अत: बहुत ही आहिस्ता से टॉवल, कोट और गाऊन उठाये ।


अब ब्रा और पेन्टी उसकी आंखों के सामने थी ।


देवांश ने अपनी जेब से छोटी-सी शीशी निकाली।


एक हाथ में ब्रा उठाई। दूसरे से शीशी के मुंह पर लगा कार्क खोला ।


शीशी से दो बूंद उसने ठीक वहां टपकाई जहां, पहनी जाने पर दिव्या के बायें उरोज के निप्पल्स को शरण लेनी थी । दो बूंद वहां, जहां दायें उरोज के निप्पल्स को आना था ।


सपेरे के मुताबिक एक हट्टे-कट्टे कुत्ते को मारने के लिए दो बूंदें काफी थीं। मगर देवांश को तसल्ली नहीं हुई। जब इतना सब कर ही दिया था तो वह राजदान के बच जाने की हर संभावना को खत्म कर देना चाहता था । अतः ब्रा की दोनों कटोरियों की नोकों पर दो-दो बूंदें और टपका दीं। अब वे दोनों स्थान अच्छी तरह गीले हो चुके थे।


संतुष्ट होने के बाद देवांश ने ठीक उसी तरह ब्रा की 'तह ' बनाई जैसी उसके छेड़े जाने से पहले थी । पेन्टी की तह के ऊपर रखी । उसके ऊपर रख दिए नाइट गाऊन, कोट और टॉवल ।


बाथरूम में शॉवर की आवाज आनी बंद हो गयी थी ।


देवांश ने जल्दी से कार्क लगाया।


शीशी वापस जेब में डाली और बगैर जरा भी आहट उत्पन्न किये वापस अलमारी में बंद हो गया। अब वह खुश था । काम पूरा जो हो चुका था ।


जो काम विनीता के साथ मनाई गई सुहागरात से पहले नामुमकिन लग रहा था, वह असल में कितना 'आसान' था, यह बात देवांश की समझ में उस क्षण आई जिस क्षण उसने विनीता के तन से तनियों वाली ब्लाउज उतारकर उस स्थान को देखा था जहां एक पल पूर्व 'विनीता' के निप्पल्स थे।


झिर्री थोड़ी चौड़ी की उसने ।


उसी पल कांच का दरवाजा खुला ।


'धक्क' से रह गया दिल ! धड़कना बंद कर दिया था उसने ।


अवाक् रह गया देवांश !


किंकर्त्तव्यविमूढ़ !


दिव्या सामने खड़ी थी । ठीक सामने ।


निर्वस्त्र!


कपड़े का एक भी रेशा नहीं था उसके तन पर ।


सबकुछ ! सबकुछ देवांश की आंखों के सामने था ।


दरवाजे के बीचो-बीच |... उसके बेहद नजदीक ।


दिमाग जाम होकर रह गया । बिल्कुल काम नहीं कर रहा था । वह ।


आंखें यूं दिव्या के जिस्म पर चिपकी रह गयीं जैसे पथरा गई हों।


वह गोरी थी! अत्यन्त गोरी ! संगमरमर की मूर्ति-सी। ऐसी जैसे उसे तराशने में चोटी के संगतराश ने अपनी कई जिन्दगियां गंवा दी हों। पानी से पूरी तरह भीगी हुई थी वीनस की वह मूर्ति । उसके जिस्म पर जगह-जगह अटकी पानी की बूंदें ट्यूब की रोशनी में पारदर्शी मोतियों की तरह जगमगा रही थीं ।


उरोज छाती पर यूं खड़े थे जैसे दूध से नहाये सफेद कबूतर चोंच उठाकर आकाश की तरफ देख रहे थे । वे कठोर थे । ब्राऊन कलर के दो सिक्कों पर खड़े हुए निप्पल्स उनसे भी ज्यादा कठोर थे ।


बेपरवाह थी वह । स्वच्छंद मूड में। लापरवाह।


होती भी क्यों नहीं?


अपने बाथरूम में थी वह ।


उसे क्या पता था कोई उसे देख रहा है?


वह आगे बढ़ी । ड्रेसिंग के बीचो-बीच पहुंची। अब वह देवांश के और नजदीक थी। यहां पहुंचकर उसने चेहरा थोड़ा पीछे की तरफ झुकाया । लम्बे, घने, काले और गीले बालों को झटका। पानी की कुछेक बूंदें झिरी को पार करके देवांश के पसीना पसीना हुए चेहरे पर भी आ पड़ीं मगर इधर कहां था देवांश का ध्यान?


उसकी आंखें तो सफेद रंग के उन बड़े-बड़े आमों पर थीं जो बाल झटके जाने के कारण छाती पर लोट-पोट से हो गये थे । बालों को झटकती ही झटकती दिव्या झिरी की रेंज से बाहर निकल गई ।


देवांश को यूं लगा जैसे वह उसके जिस्म से जान निकालकर ले गई हो।


बेचैन हो उठा वह। बल्कि यह कहा जाये तो ज्यादा मुनासिब होगा कि छटपटा सा उठा । एक बार फिर... एक बार फिर दिव्या को देखने की लालसा दिलो-दिमाग में प्रबल हुई | खुद को रोक नहीं सका देवांश ।


झिर्री थोड़ी चौड़ी की ।


दिव्या फिर भी नहीं चमकी ।


और चौड़ी और चौड़ी ।


देवांश अलमारी के पट को तब तक खोलता चला गया जब तक वह पुनः नजर न आने लगी । अब झिरी की तरफ उसकी पीठ थी । बार-बार बालों को झटक रही थी वह और बालों के सिरे लहरा रहे थे हल्की सी सुर्खी लिए गोल नितम्बों पर ।


राजदान से ईर्ष्या होने लगी उसे ।


दिमाग में ईर्ष्या होने लगी उसे ।


दिमाग में विचार उठा ---- 'काश ये सम्पत्ति मेरी होती !'


यही वह क्षण था जब आंखों के सामने 'विचित्रा' का निर्वस्त्र जिस्म तैरा । उस वक्त वह उसे दुनिया का सबसे बेहतरीन जिस्म लगा था। मगर इस पल, देवांश को लगा - - - - वह तो कूड़ा था | काला कूड़ा । जिस्म तो इसे कहते हैं इसे ! जो इस वक्त उसके सामने है। मगर कहां? कहां है सामने? वह तो एक बार फिर अच्छी खासी चौड़ी हो चुकी झिरी की रेंज से बाहर जा चुका है।


देवांश को लगा ---- उसका दिल किसी ने जोर से मुट्ठी में भींच लिया है।


झिरी और चौड़ी की उसने ।


इतनी, कि एक बार फिर दिव्या नजर आने लगी ।


अब वह टॉवल से अपना जिस्म पौंछ रही थी। उसी टॉवल से जिसे उसने कोट, पेन्टी, ब्रा और गाऊन के ऊपर रखा से था । झिरी की तरफ अभी-भी उसकी पीठ ही थी मगर कोण ऐसा था कि देवांश उसके जिस्म के अगले भाग को भी देख सकता था ।


ड्रेसिंग टेबल के साफ-सुथरे आइने में ।


उसी के सामने खड़ी अपने बदन को पौंछ रही थी । साथ ही निहारती भी जा रही थी खुद को ।


जैसे खुद ही पर मोहित हो ।


एकाएक उसकी नजर आइने पर ठिठकी। टॉवल से बदन

पौंछते हाथ रुके। बहुत ही ध्यान से आइने में कुछ देख रही थी वह । देवांश को लगा ---- शायद उसे अलमारी का किवाड़ कुछ खुला हुआ महसूस हो रहा है ।


देवांश ने आहिस्ता से झिरी कम करनी शुरू की।


“कौन है ?” कहने के साथ दिव्या फिरकनी की तरह घूमी।


देवांश ने झट से पूरी झिर्री बन्द कर ली ।


होश उड़ चुके थे उसके । दिल जोर-जोर से पसलियों पर सिर टकरा रहा था । जिस्म पसीने से उतना ही गीला था जितना बाथरूम से निकलते वक्त दिव्या का था । जूड़ी के मरीज की तरह कांप रहा था वह । दिमाग में एक ही विचार कौंधा ---- 'हे भगवान!


क्या हो गया ये ? मदद कर ! इतनी क्यों मारी गई थी मेरी मति कि किवाड़ इतना खोल बैठा ? '


उस वक्त उसकी स्थिति फांसी के फंदे की तरफ ले जाये जा रहे शख्स जैसी थी।


“कौन है अलमारी में ?” इस बार दिव्या की आवाज बहुत ही नजदीक से आई थी । कोड़े की-सी फटकार थी लहजे में । शायद अलमारी के ठीक सामने खड़ी थी वह ।


देवांश की हालत खराब हो गयी। जी चाहा ---- 'धरती फटे और वह उसमें समा जाये या भगवान किसी तरह अदृश्य कर दे उसे।'


“बोलते क्यों नहीं?” इन शब्दों के साथ दिव्या ने एक झटके से अलमारी के पट खोल दिए ।


और... देवांश को लगा ---- दिव्या नहीं, वह नंगा हो गया है।


कपड़े का एक जर्रा भी नहीं है उसकी आत्मा के जिस्म पर।


चेहरे पर हवाइयां उड़ रही थीं ।


जुबान तालू से जा चिपकी । बोलता भी तो क्या बोलता?


उधर दिव्या की हालत भी उससे ज्यादा अलग नहीं थी । अलमारी में खड़े देवांश को इस तरह देखती रह गयी वह जैसे खुली आंखों से सपना देख रही हो । भय और आश्चर्य की ज्यादती के कारण मोटी-मोटी आंखें मानो पुतलियों से कूद पड़ना चाहती थीं ।


दोनों एक-दूसरे की डरी-सहमी आंखों में झांक रहे थे ।


दोनों के दिलो-दिमाग सुन्न पड़ चुके थे।


जिस्म ठंडे!


कई पल तक किसी के मुंह से बोल न फूट सका ।


"त तुम ?... त तुम यहां?" अंततः दिव्या के मुंह से आवाज निकली।


देवांश गिड़गिड़ा उठा "प प्लीज ! प्लीज भाभी ! किसी को बताना नहीं ।"


“मगर तुम यहां कर क्या रहे थे?” दिव्या का लहजा तेज हो गया।


"प- प्लीज भाभी ! प्लीज!” बुरी तरह घबराये देवांश ने झपटकर अपना मजबूत हाथ उसके मुंह पर रख दिया । दिव्या बुरी तरह डर गई । वह टॉवल वक्षस्थल से फिसलकर पैरों में जा गिरा जिसे उसने अभी तक अपने एक हाथ से संभाल रखा था। देवांश उसे पूरी मजबूती के साथ दबोचे गिड़गिड़ाया----“माफ कर दो मुझे । मेरी नीयत...! मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था । भैया को पता लग गया तो...


आगे के शब्द उसके मुंह में घुटकर रह गये ।


दिव्या ने अपने जिस्म को एक तेज झटका देकर उससे छुड़ा लिया था।


देवा बुरी तरह लड़खड़ा गया। बड़ी मुश्किल से खुद को गिरने से रोका।


दिया सामने खड़ी उसे घूर रही थी। कपड़े का एक भी रेशा इस वक्त भी नहीं था उसके जिस्म पर मगर, इस वक्त इस बात पर न दिव्या का ध्यान था। न देयांश का!


वह दिव्या के कदमों में गिर गया। सचमुच रो पड़ा। "अब कभी ऐसा नहीं करूंगा भाभी। बोला पहली और आखिरी बार माफ कर दो मुझे । "


कुछ देर हकबकाई सी दिव्या उसे देखती रही ।


फिर अचानक पलटी।


अपनी नग्नता का ख्याल किये बगैर बैडरूम में खुलने वाले दरवाजे की तरफ लपकी ।


देवांश को लगा ----वह बैडरूम में जा रही है ।


दिमाग में दो ही शब्द कौंधे ---- 'खेल खत्म ।'


ड्रेसिंग के फर्श में चेहरा छुपाकर फफक पड़ा वह मगर दिव्या ने उस दरवाजे को खोला नहीं बल्कि इस तरफ से चटकनी चढ़ा दी । असल में अब तक वह सिर्फ भिड़ा हुआ था । इधर चटकनी सरकने की आवाज सुनकर देवांश ने अपना चेहरा ऊपर उठाया, उधर दिव्या ने झपटकर टॉवल उठा लिया । उससे अपनी नग्नता ढांपी। पूछा----“कहां से आये यहां?”


“प-पीछे से ।” उसने खड़े होते हुए कहा----- - " ब - बाथरूम की खिड़की से ।”


“वहीं से निकल जाओ।"


“क- क्या ?” उसे यकीन नहीं आया दिव्या ने वही कहा है जो कानों से सुना।


“देर मत करो बेवकूफ... जल्दी निकलो !”


देवांश फिरकनी की तरह कांच वाले दरवाजे की तरफ घूमा । एक ही कदम में उसके नजदीक पहुंचा। ठिठका | पलटा और बोला-----“थ - थैंक्यू भाभी।”