शाम का वक्त था जब सोनू ने तेजी से प्यारे के घर में प्रवेश किया।
प्यारे रात के खाने के लिए दाल गैस पर चढ़ाकर हटा था।
"प्यारे...ओ प्यारे।" सोनू जल्दी से बोला।
"हाँ...।" प्यारा किचन से बाहर निकला।
"भगते ने एक टोटका और बताया है बच्चा जल्दी ठहराने का।" सोनू जोश भरे स्वर में बोला।
"क्या?" प्यारे ने उत्सुकता से कहा।
"भगता कहता है कि प्यार करने से पहले गिन्नी को गोल-गप्पे जरूर खिला देना।"
"गोल-गप्पे?"
"हाँ, भगता कहता है कि तब पिंकी, सूरजभान की दुकान पर जाकर गोल-गप्पे खाकर आई थी। उसके बाद उसने प्यार किया था तो पिंकी के बच्चा ठहर गया था।" सोनू के स्वर में जोश था--- "तू फिक्र मत कर। जब चलना हो, मुझे बता देना। मैं सूरजभान की रेहड़ी से गोल-गप्पे लिफाफे में डलवाकर ले आऊँगा। खेतों में प्यार करने से पहले, गिन्नी गोल-गप्पे खा लेगी। उसके बाद तू प्यार करना। बच्चा ठहरा ही ठहरा प्यारे। चाची फिर तेरे पीछे दौड़ेगी... कि तू गिन्नी से शादी कर ले। तेरी पौ-बारह हो जाएगी।"
"गोल-गप्पे का बच्चा ठहरने से क्या वास्ता?"
"होगा कुछ। हमें क्या, गोल-गप्पे ही तो खिलाने हैं। तो ज्यादा सोचता क्यों है? वो भी मैं ही पैक करा कर लाऊँगा। तेरे साथ ही तो चलना है मैंने। याद है ना, तू भूल तो नहीं गया ये बात? तब चौकीदारी के लिए भी तो कोई चाहिए।"
"याद है।"
"गिन्नी से बात हुई?"
"वो तो आई नहीं। चाची ने नहीं भेजा होगा उसे।"
"ब्लाउज का क्या किया?"
"टाँका लगवा कर दे आया था। तब गिन्नी भी नजर नहीं आई। मैंने भी नहीं पूछा।
यही वो वक्त था, जब गिन्नी ने भीतर प्रवेश किया।
सोनू को वहाँ पाकर वो ठिठकी।
"नमस्ते भाभी जी।" सोनू जल्दी से कह उठा--- "मैं बस जाने ही वाला था...।"
गिन्नी मुस्कुराई।
"जाता हूँ प्यारे...।" कहकर सोनू बाहर निकलता चला गया।
"चाची कहाँ है?" प्यारे ने पूछा।
"सब्जी लेने बाजार गई है।" गिन्नी ने मुस्कुराते हुए कहा।
"पीछे वाले कमरे में आ जा...।" जल्दी से कर लेते हैं...।"
"माँ आ जायेगी...।" गिन्नी ने हड़बड़ा कर कहा।
"तू शादी पर जाने के लिए सूट सिला रही है? तू तो कहती थी कि बीमारी का बहाना...।"
"वो कल बनाऊँगी। कल सुबह जाना है माँ-बापू ने।"
"तूने नहीं ना जाना?"
"नहीं। तेरे को बोला तो है कि बीमार पड़ जाऊँगी।"
"ऐसा ही करना।"प्यारा धीमे से कह उठा--- "मुझे पता चला है कि सूरजभान के गोल-गप्पे खाकर प्यार किया जाए तो बच्चा ठहर जाता है। कल मैं तेरे को सूरजभान के गोल-गप्पे भी खिलाऊँगा और रात को खेतों में चलेंगे।"
"खेतों में?"
"हाँ, खुले में प्यार करने से बच्चा ठहर जाता है। भगते ने भी ऐसा ही किया था।"
"भगता हलवाई?"
"वो ही।"
"मैं थोड़ी देर पहले सूट लेकर आ रही थी तो वो मुझे मुस्कुराकर घूर रहा था।
"वो जानता है कि मैं तेरे को बच्चा ठहराने वाला हूँ।"
"क्यों बताया उसे?"
"गोल-गप्पे और खुले में प्यार करने की सलाह उसी ने तो दी है। सोनू पूछ के आया था उससे।"
गिन्नी ने सिर हिला दिया।
"तू आज बड़ी खूबसूरत लग रही है...।"
"चल हट!" गिन्नी शरमा कर मुस्कुराई।
"सच में!" प्यारे की आवाज में प्यार ही प्यार था।
"एक बात तो बता, तुझे प्यार करना आता है?" गिन्नी ने शरमा कर आहिस्ता से पूछा।
"कर लूँगा।"
"किया है पहले तूने प्यार?"
"किया तो नहीं--- पर जानता हूँ कि कैसे करते हैं...। सब हो जाएगा। उस बात की चिंता नहीं कर।
गिन्नी के चेहरे पर शर्म थी।
तभी दरवाजे पर चाची आ खड़ी हुई।
"तू यहाँ है, उधर सारा घर खुला छोड़ रखा है...।" चाची बोली।
"प्यारे से बात करने आई थी...।"
चाची ने दोनों को गहरी निगाहों से देखा, फिर बोली---
"सब ठीक तो है?"
"ठीक?" प्यारा कह उठा--- "सब ठीक है। तू क्या पूछना चाहती है?"
"यही पूछना चाहती थी कि सब ठीक है कि नहीं? चल घर चल।"
गिन्नी खामोशी से बाहर निकल गई।
चाची मुस्कुराई। प्यारे को देखा। फिर से उठी---
"आज तूने मुझे बिना पेटीकोट के देख लिया...।"
"म- मैंने कहाँ देखा? तूने ही तो आवाज लगाकर आने को कहा था।" प्यारा सकपका कर बोला।
"गिन्नी को बताई ये बात?"
"उसे क्यों बताऊँगा?"
"समझदार है तू। पता है कि कौन सी बात बतानी है और कौन सी नहीं। अभी सब्जी लेकर आ रही थी तो लक्ष्मण मिला...।"
"वो मैकेनिक---।" प्यारे के होंठों से निकला।
"हाँ। पूछ रहा था कि लाख रुपया कब लाऊँ?"चाची ने इतरा कर कहा।
"गिन्नी की शादी के लिए प्यारा?" प्यारा हड़बड़ाया।
"हाँ। पहले तो मेरा मन किया कि कह दूँ अभी ले आ। फिर सोचा, शादी पर जा रही हूँ। कहीं पीछे से घर पर चोर ना पड़ जायें। यह भी मन में आया कि एक बार फिर तेरे से पूछ लूँगी कि मकान बेचकर पैसे मेरे हाथ पर रखता है तो तेरी शादी गिन्नी से कर दूँगी।"
प्यारा चुप रहा।
"सोच के बता दे प्यारे। एक बार बात हाथ से निकल गई तो सारी उम्र पछताएगा।" चाची ने आँखें नचाई।
"तू शादी से वापस आ जा चाची। फिर तेरे को बता दूँगा।"
"मैं तो दो दिन में आ जाऊँगी। अब यह आखिरी मौका है तेरे पास।" चाची भीतर आई और बड़े प्यार से प्यारे के गाल पर हाथ फेरा।
प्यारा सकपका कर पीछे हटा।
"चाची से शर्माता है!" चाची मुस्कुरा कर बोली--- "वैसे मुझे बिना पेटीकोट के देख लेता है...।"
"वो तो तूने भीतर बुलाया था...। मैं क्या करता।"
"कर तो तू बहुत कुछ सकता था, लेकिन अक्ल मारी गई थी तेरी तो। बाद में तेरे को अफसोस हुआ कि नहीं?"
"किस बात का अफसोस?"
"कैसा कबूतर है तू, दाना भी नहीं चुगना आता! वैसे कहता है कि जवान हो गया है...।" चाची ने मुँह बनाकर कहा और बाहर निकल गई।
"चाची!" प्यारे ने अपने गाल पर हाथ फेरा, गहरी साँस लेकर बड़बड़ा कर कहा--- ",तेरे दाने में दम नहीं है। खामखाह का ढोल क्या बजाना! मेरे को तो गिन्नी चाहिए। एक बार उसके पेट में बच्चा ठहरा दूँ, फिर तू सीधी हो जाएगी।"
◆◆◆
शाम के पाँच बज चुके थे।
देवराज चौहान, पव्वा, टिड्डा, प्रतापी, शेख एक भरी-पूरी मार्केट के पास के पार्क की रेलिंग के पास खड़े थे। धूप अब हल्की हो गई थी। परन्तु गर्मी अभी बाकी थी।
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगाई और बाजार की रौनक पर नजरें टिका दीं। चेहरे पर बेहद शांत भाव थे। उसे सोहनलाल के फोन का इंतजार था।
पव्वा सिर से पांव तक उखड़ा हुआ था। बीते वक्त के साथ उसे इस बात का अहसास होता जा रहा था कि अब दौलत उसके हाथ नहीं लगने वाली। बाकी तीनों की हालत भी ऐसी ही थी, परन्तु अपने दिल के हाल का प्रदर्शन नहीं कर रहे थे। बेचैन वे सख्त तौर पर नजर आ रहे थे।
"दिन बीता जा रहा है...।" टिड्डे ने दबे स्वर में प्रतापी से कहा।
"हाथ कुछ नहीं लगने वाला।" प्रतापी बोला।
"देवराज चौहान हमें बेवकूफ बना रहा है।" पव्वे ने सुलगे स्वर में कहा।
"ऐसा मत कहो।" शेख बोला--- "मैं देख रहा हूँ कि देवराज चौहान भी परेशान है।"
"वह साला ड्रामा कर रहा है।" पव्वा धीमे स्वर में भड़का--- "देखना मौका पाते ही हमें छोड़ कर भाग जाएगा। तुम लोग मेरी बात मानते क्यों नहीं की अब तक सोहनलाल उस वैन को खोल चुका है। जगमोहन उसके पास है। वह दोनों नोटों को ठिकाने लगा रहे होंगे अब। देवराज चौहान हमें बेवकूफ बना रहा है...।"
"लेकिन करें क्या?" बोला प्रतापी।
"मेरे ख्याल में देवराज चौहान का गला पकड़ कर पूछताछ करनी चाहिए।" टिड्डे ने कहा।
वे चारों एक दूसरे को देखने लगे।
देवराज चौहान पाँच-छः कदम दूर, कश लेता, बाजार की तरफ देख रहा था।
"तुम लोगों को अपनी जिंदगी प्यारी नहीं।" शेख ने गम्भीर स्वर में कहा।
देवराज चौहान साठ के साठ करोड़ के हजम करने के फेर में है और तुम कहते हो कि...।"
"चुप कर पव्वे। गलत मत कह।"
"मैं गलत हूँ?"
"हाँ। पूरे गलत हो। तुम लोगों का दिमाग खराब हो गया है जो देवराज चौहान के खिलाफ सोच रहे हो।"
"जगमोहन ने...।"
"मालूम है जगमोहन वैन ले भागा परन्तु यह कहाँ साबित होता है कि उसने देवराज चौहान के कहने पर...।"
"वह उसका खास साथी है।"
"जरूर है, परन्तु एक दिन पहले उसके साथ कुछ हुआ और वह गायब हो गया।"
"झूठ बोलता है देवराज चौहान। ये सब देवराज चौहान की प्लानिंग थी जो...।"
"तुम यह भी सोचो कि देवराज चौहान सच कहता हो सकता है।"
"क्यों सोचें? जगमोहन वैन को---।"
"क्या जगमोहन ने कुछ गलत करके वैन को रुकवाया?" शेख बोला।
"तुम!" टिड्डा तीखे स्वर में बोला--- "तुम देवराज चौहान की साइड क्यों ले रहे हो?"
"गलत मत कहो। मैं तो बात कर रहा हूँ। तुम्हारा ध्यान उस तरफ ले जा रहा हूँ, जिस तरफ तुम सब सोचने को भी तैयार नहीं। मैं पूछता हूँ कि क्या जगमोहन ने वैन को जबरदस्ती रुकवाया?" शेख ने गम्भीर स्वर में पूछा।
प्रतापी और पव्वे की नजरें मिलीं।
पव्वे ने होंठ भींच कर नजरें घुमा लीं।
"बोल प्रतापी, मैं तेरे से पूछ रहा हूँ।" शेख पुनः बोला।
"नहीं, जबरदस्ती नहीं रुकवाया।" प्रतापी बोला।
"तो वैन कैसे रोकी तुमने?"
"उसे देख कर रोक दी।"
"तो क्या ये देवराज चौहान की प्लानिंग होगी कि तुम, जगमोहन को देखकर वैन रोक दोगे। ये भी तो हो सकता है कि वैन नहीं रोकते। देवराज चौहान क्या इतनी घटिया प्लानिंग करेगा?"
प्रतापी ने पव्वे को देखा।
पव्वा दूसरी तरफ देख रहा था।
"मेरी बात का यकीन करो कि देवराज चौहान इस काम में जगमोहन के साथ नहीं! देवराज चौहान अभी तक शराफत से हमारे साथ चल रहा है, तभी तो वह हमारे साथ है। वरना उसके पास यहाँ से जाने के ढेरों रास्ते होंगे।"
कोई जवाब में कुछ ना बोला।
"जगमोहन के पास प्रतापी ने वैन रोकी। अपनी मर्जी से रोकी। जगमोहन ने जबरदस्ती वैन रुकवाई नहीं।" शेख गम्भीर स्वर में कह रहा था--- "तुम लोग खामखाह देवराज चौहान के पीछे मत पड़ो। उसे गुस्सा आ गया तो बुरा होगा।"
"मुझे अपने साढ़े सात करोड़ चाहिए।" पव्वा कठोर स्वर में बोला--- "जो कि मेरे को मिलने वाले थे।"
"मुझे भी चाहिए।" शेख मुस्कुराया, फिर गम्भीर हो गया--- "इस तरह नहीं मिल सकते, जैसे कि तुम रवैया अपनाए हुए हो।"
"हम सब को ही साढ़े सात करोड़ चाहिए।" प्रतापी बोला।
"इस वक्त बढ़िया रास्ता तो यह है कि देवराज चौहान के साथ सहयोग करो। नाराजगी मत दिखाओ उसे।"
"साला, समझ में नहीं आता कि गड़बड़ कैसे हो गई!" टिड्डे ने झल्ला कर कहा।
"तुम लोग यह सोचो कि मलिक और मल्होत्रा सच में कोई है। वो लोग भी वैन पर हाथ डालने...।"
"लेकिन वैन पर जगमोहन ने हाथ---।"
"क्या इस बात की संभावना नहीं हो सकती कि उन्होंने जगमोहन को मजबूर कर दिया हो कि वो ये काम करे। कुछ भी हो सकता है। देवराज चौहान पर शक मत करो और---।"
तभी देवराज चौहान का मोबाइल बजने लगा।
चारों की निगाहें देवराज चौहान की तरफ गईं।
"फोन बजा है उसका।" प्रतापी कह उठा।
"सोहनलाल का होगा।" शेख ने विश्वास भरे स्वर में कहा।
वे चारों देवराज चौहान के पास जा पहुँचे।
तब तक देवराज चौहान फोन निकालकर बात करने में व्यस्त हो चुका था।
दूसरी तरफ सोहनलाल ही था।
"वैन पहुँची?" देवराज चौहान ने पूछा।
"अभी नहीं।" सोहनलाल की आवाज कानों में पड़ी--- "जगमोहन और सुदेश ने वैन को किसी जगह ले जा रोका। वहाँ छिपकर वो दिन के बीतने का इंतजार कर रहे हैं। अँधेरा होने पर वो वहाँ से चलेंगे। तब तक पुलिस का खतरा कम हो जायेगा।"
"तुम कहाँ हो इस वक्त?"
सोहनलाल ने बताया।
"जब तुम खबर दोगे कि वैन वहाँ पहुँच गई है, तब मैं वहाँ आ जाऊँगा।"
"मेरे ख्याल में वैन रात को आठ-दस के बीच यहाँ पहुँच सकती है।" उधर से सोहनलाल ने कहा।
"तब मुझे फोन कर देना--- मैं---।"
तभी पव्वा उखड़े लहजे में देवराज चौहान से कह उठा---"तुम सोहनलाल से बात कर रहे हो?"
"हाँ।" देवराज चौहान ने उसे देखा।
"मुझे बात करने दो उससे।"
देवराज चौहान शांत भाव में मुस्कुराया और फोन उसकी तरफ बढ़ा दिया।
पव्वे ने बात की।
"मैं पव्वा हूँ। देवराज चौहान के साथ काम में हूँ।"
"तो मैं क्या करुँ?" उधर से सोहनलाल की आवाज कानों में पड़ी।
"तुम कहाँ हो और यह सब क्या हो रहा है?"
"देवराज चौहान ने तुम्हें नहीं बताया?"
"बताया, लेकिन मैं तुम्हारे मुँह से सुनना चाहता हूँ।"
"तेरे को देवराज चौहान की बात पर भरोसा नहीं तो मुझ पर क्या होगा?"
"तू बता मुझे, सारे हालात बता।"
उधर से सोहनलाल बताने लगा ।
पव्वा सुनता रहा।
कुल तीन मिनट उसकी बात सोहनलाल से हुई। इतने में पव्वे के चेहरे पर कुछ तसल्ली आई। दिमाग कुछ ठीक हुआ। देवराज चौहान की कही बातें और सोहनलाल जो बातें कह रहा था, वो--- लगभग एक जैसी ही थीं।
◆◆◆
रात के नौ बज रहे थे।
वैन सामान्य गति से सड़क पर दौड़ रही थी। अब सुदेश वैन को ड्राइव कर रहा था। आते जाते वाहनों की हेडलाइट की तेज रोशनी में बार-बार उसकी आँखें चौंधिया जाती थीं। उस गाँव से चलने से पहले उन्होंने वैन की दोनों साइडों में लिखे बैंक के नाम D.C.M.B पर ताजा गोबर पोत दिया था। इससे अब एकाएक कोई भी पहचान नहीं सकता था कि वह बैंक वैन है। दिन के मुकाबले अब खतरा, बहुत कम था। पुलिस वैन की तलाश में थक चुकी होगी। इतना तो वह समझ गए होंगे कि वैन कहीं पर जा छिपी है। अब सड़क पर नहीं दौड़ रही होगी। वैसे तो ताऊ के उस गाँव वह जगह ज्यादा दूर नहीं थी जहाँ पर सुदेश को वैन लेकर पहुँचना था। ताऊ ने पूरी इज्जत की थी उनकी। शाम को ही गर्म-गर्म खाना बनाकर उसके बेटे की बहू ने खिलाया था। जगमोहन ने उसे झूठा आश्वासन दिया था कि उसके बेटे के लिए रिक्शे का इंतजाम कर देगा।
"अब शायद कोई खतरा ना आए।" जगमोहन बोला।
"आधा रास्ता तो हम पार कर चुके हैं । दस-बारह मिनट में वहाँ होंगे जहाँ मलिक हमारा इंतजार कर रहा है।"
जगमोहन ने कुछ नहीं कहा।
"आज का दिन बहुत बुरा बीता।" सुदेश बोला--- "यह वक्त में जिंदगी में कभी नहीं भुला पाऊँगा।" सुदेश बोला।
"एक ही दिन में काँप गए...।" जगमोहन मुस्कुराया।
"हाँ। चोरी-डकैती मेरा काम नहीं है। तुम्हारे लिए तो यह सब मामूली बातें होंगी।"
"ठीक कहा।"
"तुम्हें डर नहीं लगता कि पुलिस पकड़ लेगी, या मार देगी?"
"डर इसलिए नहीं लगता कि मैं इस बात के लिए हमेशा तैयार रहता हूँ। मुझे मालूम है कि एक दिन ऐसा भी आएगा।"
"पैसा तो बहुत होगा तुम्हारे पास?"
"हाँ।"
"फिर यह काम छोड़ क्यों नहीं देते?"
"यह काम अब मुझे नहीं छोड़ता। अब तो इसी के साथ जीना है और इसी के साथ मरना है।"
सुदेश में गहरी साँस ली।
वैन मध्यम रफ्तार से आगे बढ़ रही थी।पुलिस का खतरा नहीं आया था।
तभी सुदेश का फोन बजा। सुदेश का ध्यान वैन चलाने में था।
"तुम बात करो।" सुदेश ने फोन निकालकर जगमोहन को दिया।
"हैलो!" जगमोहन ने बात की।
क्षणिक खामोशी के बाद मलिक की आवाज कानों में पड़ी। "जगमोहन?"
"हाँ।"
"सुदेश कहाँ है?"
"वह ठीक है। मेरे पास बैठा वैन चला रहा है।" जगमोहन ने कहा।
"तुम लोग आ रहे हो?"
"हाँ। शायद दस मिनट तक पहुँच जाएंगे। सुदेश अभी यही बात कह रहा था।"
"यह अच्छी खबर सुनाई।"
"देवराज चौहान कैसा है?"
"तुम कोई गड़बड़ नहीं करोगे तो, उसे भी कुछ नहीं होगा।" मलिक की आवाज कानों में पड़ी।
जगमोहन के चेहरे पर कठोरता उभरी।
"कम बोलो मलिक। ज्यादा बोलना ठीक नहीं होता।"
"मैं तुम लोगों का इंतजार कर रहा हूँ। जल्दी पहुँचो।"
◆◆◆
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