वह होटल अलंकार पहुंचा।
कार पार्क करके अपने एयरबैग सहित, जिसमें उसका सिख वेष मौजूद था, होटल में दाखिल हुआ और लिफ्ट द्वारा फोर्थ फ्लोर पर पहुंचा।
दस्तक के जवाब में उसके सुइट का दरवाजा दिलीप ने खोला।
अजय भीतर दाखिल हुआ।
–"दिलीप ने दरवाजा पुनः बन्द कर दिया।
नीलम एक सोफा चेयर में पसरी हुई थी। अजय को देखते ही उसके चेहरे पर रौनक दौड़ गई। वह मुस्कराई और एकदम तनकर सीधी बैठ गई।
–"कैसी हो?" अजय ने पूछा।
–"ठीक हूं।" नीलम ने जवाब दिया–"अलबत्ता सिर में थोड़ा भारीपन अभी भी है। तुम सुनाओ, कैसा चल रहा है?"
–"बेहतर है।" अजय मुस्कराकर बोला।
–"मुझे टालने की कोशिश मत करो।" नीलम शिकायती लहजे में बोली–"मैं जानती हूं हालात बेहद नाजुक हैं। मुझे उम्मीद नहीं थी स्थिति इतनी खतरनाक हो जाएगी। लेकिन दिलीप ने मुझे सब बता दिया है। वह बहुत ही ज्यादा फिक्रमंद है।"
अजय मुस्कराया।
–"दिलीप इंस्पैक्टर अजीत सिंह से डर गया है।" वह बोला–"जबकि उससे डरने की कोई बात नहीं थी। उसने अविनाश को गिरफ्तार कर लिया है, रंजना की हत्या के अपराध के संदेह में।"
–"क्या अविनाश ने अपने जुर्म का इकबाल कर लिया है?" नीलम ने पूछा।
–"जहां तक मैं मानता हूं वह चुप ही रहेगा। लगता है यह उनका पारिवारिक समझौता है कि उनमें से कोई भी जुबान नहीं खोलेगा।"
दिलीप उसके पास आ पहुंचा।
–"तुम गलत समझ रहे हो, अजय।" वह बोला–"अगर पुलिस ने अविनाश को गिरफ्तार कर लिया है तो अपनी जान बचाने के लिए वह सब–कुछ बक देगा। मेरे विचार से तुम्हें यहां नहीं आना चाहिए था। बेहतर होगा जल्दी से जल्दी यहां से चले जाओ।"
–"तुम्हारा मतलब है फिर मैं भेष बदलकर गायब हो जाऊं?"
–"हां, इस मामले के निपटने तक तुम्हें यही करना चाहिए।"
–"लेकिन इसमें एक बड़ी भारी दिक्कत है।"
–"क्या?"
–"मदन मोहन सेठी अभी भी सजा–ए–मौत पाया मुजरिम है। अगर कुछ नहीं किया गया तो उसे फांसी पर लटका दिया जाएगा।" अजय विचारपूर्वक बोला–"जबकि अब मैं सौ फीसदी यकीन के साथ कह सकता हूं 'कनकपुर कलैक्शन' उसने नहीं चुराया था। लेकिन उसे बेगुनाह साबित करने के लिए असली खूनी का पता लगाना जरूरी है। मैं समझता हूं इस पता लगाने के दौरान गायब रहना मुनासिब नहीं होगा क्योंकि ज्यादा वक्त हमारे पास नहीं है।"
–"देखो, अजय, इस सिलसिले को शुरू करने का फैसला तुम्हारा अपना था।" दिलीप ने कहा–"दीवान पैलेस में स्ट्रांग रूम मैं सेंध लगाते वक्त तुम जानते थे तुम्हें किस प्रकार के हालात का सामना करना पड़ेगा इसलिए इस मामले में किसी को दोष देना बेकार हैं। तुम्हारे सामने मौजूदा हालात का सामना करने के अलावा और कोई चारा नहीं है। मत भूलो कि तुम्हारी अपनी स्थिति भी मदन मोहन सेठी की स्थिति से कम खराब नहीं है। अगर अविनाश कसम खाकर कह देता है तुम भी दीवान पैलेस में मौजूद थे तो तुम्हारा पुलंदा बंधते देर नहीं लगेगी। इंस्पैक्टर अजीत सिंह को बेवकूफ मत समझो। इस बात से अनजान भी वह नहीं है हत्या वाली रात तुम भी दीवान पैलेस के आसपास थे। अविनाश द्वारा इस बात की पुष्टि की जाते ही इंस्पैक्टर का कहर तुम पर टूट पड़ेगा।" उसका स्वर पूर्णतया गंभीर था–"एक बात अच्छी तरह समझ लो। यह विराट नगर नहीं है कि पुलिस तुम्हारा लिहाज कर लेगी। जब तक तुम बेगुनाह साबित नहीं हो जाओगे तुम्हें गुनहगार समझा जाता रहेगा। इसलिए यहां की पुलिस के हत्थे मत चढ़ जाना। मेरी मानो तो हरनाम सिंह कालरा के रूप में भी तुम पुलिस से चौकस रहना, और नीलम से दूर रहकर बड़े ही गोपनीय ढंग से काम करना।"
अजय कुछ देर तक चुप रहा, फिर बोला–"मैं नहीं समझता अविनाश पुलिस को कुछ भी बताएगा।"
–"अच्छा?" नीलम ने कहा।
–"हाँ।"
–"खुद को बहलाओ मत।" नीलम बोली–"तुम्हारे चेहरे पर साफ लिखा है तुम जानते हो देर–"सबेर वह जुबान जरूर खोलेगा।" उसका स्वर व्याकुलतापूर्ण था–"तुम या तो हत्यारे को जल्दी से जल्दी ढूंढ निकालो या फिर छुप जाओ।"
–"तुम दोनों बातें करो।" दिलीप बोला–"मैं नीचे जा रहा हूं। सुबह से यहां बैठा–बैठा बोर हो गया।"
और वह बाहर निकल गया।
अजय ने पुन: दरवाजा बन्द कर लिया।
वह सोफा चेयर में पसर गया और एक सिगरेट सुलगाकर सोचने लगा।
एक–एक करके चार सिगरेट फूंकने के बाद अचानक वह खड़ा हो गया।
–"मुझे यहां से जाना ही होगा।" वह बोला।
–"कहां जाओगे?" नीलम ने पूछा।
–"होटल सूर्या।"
–"हरनाम सिंह कालरा बनकर?''
–"हां।"
अजय ने एयर बैग उठाया और ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ा होकर वेष परिवर्तन करने लगा।
मुश्किल से पांच–सात मिनट बाद वह हरनाम सिंह कालरा बना खड़ा था।
–"बेचारे मदन मोहन के बारे में सोच–सोचकर मुझे बड़ा ही अजीब लग रहा है।" वह सिर पर बंधी पगड़ी को ठीक करता हुआ बोला–"दिक्कत की बात है मैं 'कनकपुर कलैक्शन' को पुलिस के हवाले भी नहीं कर सकता, क्योंकि इस तरह मेरी अपनी गरदन फंस जाएगी। इसलिए मुझे पता लगाना है काशीनाथ की सेफ से उसे किसने चुराया था। हालांकि उसमें हरीश के चोर होने की संभावना बहुत कम है। ज्यादा उम्मीद सुमेरचन्द के चोर होने की है। वह बेईमान, खूंखार और मक्कार है और उसे जवाहरात से पागलपन की हद तक प्यार है। मैं यकीनी तौर पर कह सकता हूं वह जानता है काशीनाथ की हत्या किसने की थी। रंजना ने उसे और अविनाश को ''कनकपुर कलैक्शन' को लेकर झगड़ते सुन लिया था। इसलिए इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता रंजना की हत्या की यह भी वजह हो सकती है।"
–"दीवान सुमेरचन्द काफी खतरनाक आदमी लगता है।" नीलम ने कहा।
तभी टेलीफोन की घंटी बज उठी। अजय ने तुरन्त लपककर रिसीवर उठा लिया। –"हैलो!'' वह आशंकित स्वर में बोला।
–"जल्दी करो।" लाइन पर दिलीप का तीव्र स्वर उभरा–"इंस्पैक्टर अजीत सिंह अपने कई मातहतों सहित आ पहुंचा है। अविनाश को छोड़ दिया गया है। रंजना की हत्या के समय की कोई ठोस एलीबी उसने पेश कर दी है–"
इससे पहले कि अजय कुछ पूछ पाता, दूसरी ओर से सम्बन्ध–विच्छेद कर दिया गया।
अजय ने रिसीवर यथास्थान रखकर जल्दी–जल्दी नीलम को फोन के बारे में बताया और तेजी से बाहर निकल गया।
* * * * * *
कारीडोर में आकर उसने दाएं–बाएं देखा, फिर तेजी से सीढ़ियों की ओर बढ़ गया। मन–ही–मन खुद को तसल्ली देने की कोशिश कर रहा था कि सिख वेष में होने के कारण कोई उसे पहचान नहीं पाएगा।
जब वह सीढ़ियों द्वारा नीचे लॉबी में पहुंचा, इंस्पैक्टर अजीत सिंह अपने दल–बल सहित लिफ्ट में दाखिल हो रहा था।
सिख वेषधारी अजय की ओर किसी ने आंख उठाकर भी नहीं देखा। वह सकुशल होटल से बाहर आ गया।
फिर अचानक उसका माथा ठनका।
पार्किंग लॉट में खड़ी उसकी किराए की एम्बेसेडर के पास दो पुलिस मैन मौजूद थे।
अजय कार की ओर जाने की बजाय लापरवाही से चलता हुआ होटल के गेट से बाहर आ गया और तेजी से सड़क पर चल दिया।
वह जल्दी से जल्दी वहां से यथासम्भव दूर निकल जाना चाहता था।
कोई दस मिनट बाद वह एक सिनेमा हाल में बने पब्लिक काल बूथ में खड़ा रहमान स्ट्रीट वाली कोठी में लगे फोन का नम्बर डायल कर रहा था।
सम्बन्ध स्थापित होने पर उसे बताया गया लीना वहां नहीं है।
अजय ने निराश मन से फोन डिस्कनेक्ट कर दिया।
उसे उम्मीद थी लीना उसकी मदद कर सकती है। उसका अनुमान था लीना ऐसा कुछ जानती हो सकती है जिसके खुल जाने पर सच्चाई सामने आ सकती है। लेकिन अविनाश के छोड़ दिए जाने से स्थिति बिगड़ गई थी।
उसने सिनेमा हाल से निकलकर एक ऑटो रिक्शा पकड़ा और होटल सूर्या की ओर रवाना हो गया।
वह हरीश द्वारा अपने भाई पर शक किए जाने के बारे में सोच रहा था।
क्या अविनाश और रंजना का सचमुच आपस में अफेयर रहा था?
क्या अविनाश अपनी जान बचाने के लिए मरा जा रहा था?
क्या रंजना की हत्या उसी ने की थी? या हरीश ने?
या सुमेरचन्द ने? या फिर लीना ने?
अजय किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका।
होटल सूर्या पहुंचकर वह ऑटो रिक्शा से उतरा और भाड़ा चुकाकर भीतर दाखिल हो गया।
रिसेप्शनिस्ट की मुस्कराहट का जवाब देता हुआ सीढ़ियों द्वारा ऊपर पहुंचा। अपने कमरे में जाकर वह एक कुर्सी में धंस गया।
मौजूदा हालत में क्या किया जा सकता था?
यह सवाल रह–रहकर हथौड़े की तरह उसके दिमाग में बज रहा था। इसका मुनासिब जवाब तो उसे नहीं सूझ सका अलबत्ता इस बात की बड़ी भारी तसल्ली उसे थी कि उसने वक्त रहते यह ठिकाना ढूंढ लिया। जहां पुलिस की चिंता से मुक्त होकर चैन से छुपा रह सकता है। वह हत्यारे को ढूंढना चाहता था।
वह स्वयं को आश्वस्त करने की कोशिश करने लगा। मदन मोहन सेठी को अभी भी बचाया जा सकता है। मगर यह खुशफहमी उसने नहीं पाली कि वह इस काम में कामयाब हो जाएगा।
अजय देर तक बैठा सोचता हुआ अपना अगला कदम निर्धारित करने की कोशिश करता रहा।
फिर अचानक बज उठी टेलीफोन की घंटी ने उसे बुरी तरह चौका दिया।
उसने यूं टेलीफोन उपकरण को घूरा मानों वो कोई अजूबा था। फिर हिचकिचाता–सा उठकर उसकी ओर बढ़ गया। उसकी इस होटल में मौजूदगी के बारे में सिर्फ नीलम और दिलीप ही जानते थे और उनमें से किसी की भी फोन काल अपेक्षित नहीं थी।
अजय ने रिसीवर उठा लिया।
–"हेलो।" वह पंजाबी लहजे में बोला–"हरनाम सिंह कालरा हियर।"
–"हूँ, तो तुम हरनाम सिंह कालरा हो।" दूसरी ओर से पुरुष स्वर में कहकर सम्बन्ध–विच्छेद कर दिया गया।
अजय ने साफ नोट किया फोनकर्ता का स्वर उपहासपूर्ण था। मगर वह यह फैसला नहीं कर सका कि उस स्वर को पहले भी कभी सुना है या नहीं।
वह कई क्षण, हाथ में पकड़े रिसीवर को मूर्खों की भांति ताकता रहा, फिर रिसीवर वापस क्रेडिल पर रखकर पीछे हट गया।
जाहिर था कोई और भी उसकी यहां मौजूदगी के बारे में जानता है।
उसने अपनी रिस्टवाच पर निगाह डाली–सवा पांच बज रहे थे। बाहर दिन ढलने के चिन्ह नजर आने शुरू हो गए थे।
अजय बड़े ही विचारपूर्ण ढंग से फोन को घूरता हुआ सोच रहा था। फोनकर्ता कौन हो सकता है।
क्या लीना या अविनाश ने उसे सिख वेष में पहचान लिया था? या उन्हें किसी वजह से शक हो गया था कि सिख वेष में वही था? और वे उसे वाच कराते रहे थे इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। मगर यह बिल्कुल सही था पूरी तरह यकीनी तौर पर कह पाना नामुमकिन था कि उसका पीछा नहीं किया गया।
सहसा अजय चौंका।
अगर फोनकर्ता उसे डराना नहीं चाहता था। तो क्या किसी भी क्षण पुलिस वहां पहुंच सकती थी? उसे फौरन वहां से कूच कर जाना चाहिए।
उसने अपना सामान पैक करना आरम्भ कर दिया।
एहतियातन बार–बार खिड़की से बाहर भी देख रहा था पुलिस तो नहीं आ रही थी?
उसकी आशंका निर्मूल सिद्ध हुई।
कोई नहीं आया।
तमाम चीजें सूटकेस में पैक करके वह नीचे पहुंचा। रिसेप्शन पर बिल चुकाया। रिसेप्शनिस्ट ने मुस्कराते हुए औपचारिक रूप से उसे धन्यवाद दिया। अजय अपने सूटकेस सहित बाहर निकला और तेजी से चल पड़ा। अब उसे एक नई चिंता घेरने लगी। सामान पास में होने की वजह से किसी दूसरे होटल में कमरा तो वह आसानी से ले सकता था मगर दिक्कत थी उसकी जेब में पचास–साठ रुपए से ज्यादा नहीं थे।
होटल अलंकार में सिख भेष धारण करके भागने की जल्दबाजी के चक्कर में वह अपनी जेबें खाली नहीं कर पाया था। गनीमत थी उसके चैक वाले कोट में, जो उसने बतौर हरनामसिंह कालरा पहले भी पहना हुआ था, कुछ रुपए पड़े थे तो उसने होटल सूर्या का बिल चुका दिया था।
भाग–दौड़, अनिश्चितता और पुलिस भय की इस स्थिति में पास में खुला पैसा होना बेहद जरूरी था। पैसे के इन्तजाम के लिए उसे जल्दी ही पुनः दिलीप अथवा नीलम से सम्पर्क करना पड़ेगा।
लेकिन पहले किसी सस्ते होटल में डेरा डालना ज्यादा जरूरी था।
उसने एक खाली जाता ऑटो रिक्शा रोका और उसमें सवार होकर चल पड़ा।
करीब बीस मिनट बाद वह बलवीर सिंह गिल के छद्म नाम से औसत दर्जे के होटल 'मयूर' में जा ठहरा। दूसरे खंड पर होटल के सामने वाले भाग में स्थित उसका कमरा छोटा मगर साफ–सुथरा और हवादार था। लेकिन बड़ी बात थी किराया था सिर्फ बीस रुपए रोज।
लगभग एक घंटे बाद, जब शाम का धुंधलका चारों ओर फैल गया, अजय होटल से निकला और पैदल ही होटल अलंकार की ओर चल दिया। यह जानते हुए भी वहां जाना खुदकुशी करने के जैसा था।
पास ही एक तारघर था जिसमें पब्लिक कॉल की सुविधा उपलब्ध थी।
अजब बूथ में जा घुसा।
उसने होटल अलंकार का नम्बर डायल किया।
सम्बन्ध स्थापित होने पर आपरेटर ने जानकारी दी सुइट नम्बर 417 से कोई जवाब नहीं मिल रहा।
अजय ने रिसेप्शन से सम्बन्ध स्थापित किया और अपना परिचय न देते हुए नीलम के बारे में पूछा तो पता चला उसे इंस्पैक्टर अजीत सिंह अपने साथ ले गया।
इससे आगे और कुछ पूछने की बजाय उसने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया।
चन्द क्षणोपरांत, उसने पुनः होटल अलंकार का नम्बर डायल करके दिलीप केसवानी से बातें करने की इच्छा प्रगट की।
आपरेटर ने सम्बन्ध स्थापित करा दिया।
–"दिलीप, मैं बोल रहा हूं।" अजय अपने सामान्य स्वर में बोला–"मुझे फौरन कुछ रुपयों की जरूरत है।"
–"तुम्हारे चले जाने के बाद मुझे पता चला तुम अपना पर्स यहीं भूल गए हो, तो मैंने एक हजार रुपए अपने एक परिचित के जरिए होटल सूर्या तुम्हारे लिए भिजवा दिए थे।" दिलीप ने जानकारी दी–"मैं खुद इसलिए नहीं गया कि कहीं पुलिस पीछा न कर बैठे, क्योंकि इंस्पैक्टर को पता लग गया है हम एक–दूसरे को जानते हैं। तुम्हारा मुझे ज्यादा फोन करना भी ठीक नहीं है। अब...।"
–"ठीक–गलत को गोली मारो।" अजय झुंझलाकर बोला–"यह बताओ नीलम कहां है?"
लाइन पर कुछ देर खामोशी रही। फिर दिलीप द्वारा गहरी सांस ली जाने की आवाज सुनाई दी और फिर उसका धीमा स्वर उभरा।
–"इंस्पैक्टर अजीत सिंह पूछताछ के लिए उसे अपने साथ ले गया है। उसकी फिक्र मत करो। यह ठीक है अजीत सिंह सख्त किस्म का आदमी है, लेकिन नीलम के साथ सख्ती से पेश वह नहीं आएगा, क्योंकि नीलम का इस सारे सिलसिले से सीधा सम्बन्ध नहीं है। अब तुम फोन बन्द कर दो और होटल से दूर रहना, क्योंकि अगर किसी तरह अजीत सिंह को तुम्हारे बारे में पता चल गया तो तुम्हारी खैरियत नहीं है। तुमसे बातें करने में मेरे लिए भी कम खतरा नहीं है।
–"ठीक है।"
अजय ने बेमन से सम्बन्ध विच्छेद कर दिया।
वह बूथ से बाहर निकला और होटल सूर्या की ओर चल दिया।
उसके विचारानुसार पुलिस को उसके सिख वेष की जानकारी नहीं थी। इसके बावजूद वह स्वयं को पूर्णतया सुरक्षित अनुभव नहीं कर रहा था, क्योंकि लीना और अविनाश उसके छद्म वेष का राज जान गए लगते थे।
अजय तय नहीं कर पा रहा था उसका अगला कदम क्या हो। उसने खुद को इस कदर विचार शून्य कभी महसूस नहीं किया था।
– इस सिलसिले की शुरुआत से ही वह ऐसा महसूस कर रहा था। उसे पहला क्लू तब मिला था जब रंजना विराटनगर गई थी। रंजना क्यों मिली थी उससे? क्या रंजना ने वास्तव में उसे सच्चाई बताई थी? अगर ऐसा था तो वापस अपने होटल पहुंचकर सुमेरचन्द को सब–कुछ बताकर खतरे से आगाह क्यों किया?
इससे भी बड़ी बात थी वह अचानक अकेली उस रात दीवान पैलेस क्यों लौट आई थी?
ये तमाम सवाल पुराने थे जिनके मुनासिब जवाब उसके पास नहीं थे।
अगर काशीनाथ और रंजना की हत्याओं में वाकई कोई आपसी रिश्ता था तो रंजना की हत्या के लिए इतना लम्बा इन्तजार क्यों किया गया? रंजना की हत्या करना क्यों जरूरी समझा गया? आखिर कौन से नए हालात पैदा हो गए थे?
काशीनाथ की मृत्यु के बाद पहली महत्वपूर्ण बात रंजना का विराटनगर जाकर उससे मिलना था। फिर वह भी वापस विशालगढ़ दौड़ी चली आई। यकीनी तौर पर जानने का तो कोई साधन रंजना के पास था नहीं। अलबत्ता उसने अनुमान लगाया हो सकता था कि अजय दीवान पैलेस जरूर आएगा। मुमकिन था रंजना उसे और भी बहुत–कुछ बताना चाहती थी। इसलिए उससे मिलने वह दीवान पैलेस आ पहुंची थी।
इस सम्बन्ध में अन्य कोई अनुमान वह नहीं लगा सका।
जहां तक वजह का सवाल था रंजना की हत्या की तगड़ी वजह या तो उसका यह जानना थी कि 'कनकपुर कलैक्शन' किसके पास था। या फिर किसी तरह उसे काशीनाथ के हत्यारे का पता चल गया था और हत्यारे को भी इस बात की जानकारी हो गई थी।
इन्हीं विचारों में उलझा और किसी नतीजे पर पहुंचने की कोशिश करता अजय फुटपाथ पर चला जा रहा था।
होटल सूर्या अब ज्यादा दूर नहीं था।
अजय मन ही मन आशंकित था कि होटल में पुलिस ही उसका इन्तजार करती न मिले क्योंकि अज्ञात फोनकर्ता ने जिस ढंग से कहा था–'हूँ तुम हरनाम सिंह कालरा हो' उससे जाहिर था उसके इरादे नेक नहीं थे।
मगर अजय के सामने होटल में जाने के अलावा अन्य कोई चारा नहीं था।
वह धीरे–धीरे आगे बढ़ता रहा।
मोड़ पर घूमते ही उसे होटल का प्रवेश द्वार दिखाई देने लगा। हालांकि वहां पुलिस की मौजूदगी का कोई आभास उसे नहीं मिला, फिर भी बेफिक्री महसूस नहीं कर पाया।
विभिन्न आशंकाओं में घिरे अजय को पता भी नहीं चल सका वह फुटपाथ छोड़कर कब बीच सड़क पर आ गया था।
–"बचो।" अचानक एक औरत चिल्लाई।
एक बच्चा चीखा।
एक आदमी ने जोर से पुकारा।
अजय ने पीछे गरदन घुमाते ही एक कार को तेजी से अपनी ओर झपटती पाया। किसी अज्ञात भावना से प्रेरित उसने तुरन्त फुटपाथ की ओर छलांग लगा दी।
कार लगभग उसे छूती हुई–सी फर्राटे के साथ आगे गुजर गई। वह फुटपाथ पर जा गिरा। अपना संतुलन कायम न रख पाने की वजह से औंधे मुंह गिरा था और उसका माथा फुटपाथ से टकरा गया।
कार की रफ्तार तूफानी थी। इस बीच वो आगे जाकर आंखों से ओझल हो चुकी थी।
अजय सिर्फ इतना ही देख सका था कार काली थी। उसमें मौजूद ड्राइवर को ठीक प्रकार से नहीं देख सका।
अब तक उसके चारों ओर भीड़ लग चुकी थी। हालांकि उसका सिर चकरा रहा था, मगर वह जानता था भीड़ देखकर है पुलिस भी वहां पहुंच सकती है। जिस स्थिति से बचना चाहता था वही उत्पन्न हो जानी थी।
वह कराहता हुआ धीरे–धीरे उठ खड़ा हुआ।
–"आप लोग परेशान मत होइए।" वह अपने इर्द–गिर्द मौजूद भीड़ को सम्बोधित करता हुआ बोला–"मैं बिल्कुल ठीक हूं।"
–"तुम्हारी तकदीर अच्छी है बच गए।" एक अधेड़ औरत उत्तेजित स्वर में बोली–"वरना उस कार ने तुम्हें कुचल ही डालना था। मैंने खुद देखा ड्राइवर ने तुम्हें कुचलने की कोशिश थी।"
–"आप बिल्कुल ठीक फरमा रही हैं।" एक अन्य आदमी ने सहमति देते हुए कहा–"वो कार वाकई इन्हें कुचलना चाहती थी।"
अजय की रीढ़ की हड्डी से भय की सर्द लहर गुजर गई। उसके जिस्म से पसीने छूट रहे थे और दिल धाड़–धाड़ पसलियों में बज रहा था।
इसके बावजूद उसके होशोहवास कायम थे। उसने अपनी नकली दाढ़ी पर हाथ फिराकर तसल्ली कर ली कि वो सही ढंग से चिपकी हुई थी। फिर उसने अपनी पगड़ी चैक की। गनीमत थी कि वो भी सिर पर सही ढंग से बंधी हुई थी।
उसने आस–पास निगाहें डाली। होटल सूर्या वहां से मुश्किल से पांच–सात कदम ही दूर था।
भीड़ लगातार बढ़ती जा रही थी। अजय वहां से खिसकने के चक्कर में था।
तभी होटल की रिसेप्शनिस्ट भीड़ को चीरती हुई उसकी ओर बढ़ी। शायद शोर सुनकर वहां आ पहुंची थी।
–"अरे, कालरा साहब, आप?" वह व्याकुलतापूर्वक बोली–"क्या हुआ?"
इससे पहले कि अजय जवाब देता अन्य लोगों ने बता दिया उसे कार द्वारा कुचलने की कोशिश की गई थी।
रिसेप्शनिस्ट ने अच्छी तरह तसल्ली करने के बाद कि अजय को डॉक्टरी सहायता की जरूरत नहीं थी, उसे होटल में चलकर आराम करने का आग्रह किया।
अजय ने जरा भी विरोध नहीं किया। रिसेप्शनिस्ट की बातों से वह अंदाजा लगा चुका था वहां उसके लिए कोई खतरा नहीं है।
होटल में पहुंचकर रिसेप्शनिस्ट ने उसे रिसेप्शन के पीछे एक कमरे में सोफे पर लिटा दिया।
–"आपके जाने के बाद एक आदमी एक लिफाफा छोड़ गया था।" वह बोली–"मैं अभी लाए देती हूं।" दरवाजे की ओर बढी फिर रुककर पूछा–"कॉफी लेंगे आप...?"
अजय ने सिर हिलाकर सहमति दे दी।
रिसेप्शनिस्ट चली गई।
थोड़ी देर बाद वह एक लिफाफा उसे देकर वापस लौट गई।
अजय ने लिफाफा खोला। उसमें सौ–सौ के वही दस नोट थे जिनके बारे में दिलीप ने फोन पर बताया था।
उसने नोट जेब में रख लिए।
तभी एक वेटर उसे काफी सर्व कर गया।
अजय अभी तक आतंकित था।
कॉफी की चुस्कियों से तनिक राहत महसूस करते हुए उसने सोचने की कोशिश की उसे कार से कुचलने की कोशिश करने वाला कौन हो सकता था।
मगर वह किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका।
कॉफी खत्म करते ही उसे सिगरेट की जोरदार तलब सताने लगी। मगर अपने सिख वेष के कारण उसने सिगरेट न पीना बेहतर समझा।
तभी दरवाजे पर दस्तक के साथ रिसेप्शनिस्ट भीतर दाखिल हुई।
–"अब कैसी तबियत है, कालरा साहब?"
–"ठीक है।" अजय ने कहा–"सहयोग के लिए धन्यवाद।"
–"आपके लिए फोन काल है। अटैंड करोगे?"
–"श्योर!"
अजय सोफे से उठकर उसके साथ बाहर आ गया।
उसने रिसेप्शनिस्ट के संकेत पर अलग रखा टेलीफोन रिसीवर उठा लिया।
–"हैलो।"
–"जनाब हरनाम सिंह कालरा साहब। एक परिचित–सा प्रतीत होने वाला पुरुष स्वर जवाब में लाइन पर उभरा–"फौरन वहां से रफूचक्कर हो जाओ। इंस्पैक्टर अजीत सिंह तुम्हें गिरफ्तार करने आ रहा है।"
इससे पहले कि अजय कछ पूछता, दूसरी ओर से सम्बन्ध विच्छेद कर दिया गया।
अजय ने रिसीवर वापस क्रेडिल पर रख दिया। उसने रिसेप्शनिस्ट को पुनः धन्यवाद दिया और एक क्षण भी व्यर्थ गंवाए बगैर होटल से बाहर आ गया।
वह दायीं ओर घूमा और तेजी से चल दिया।
मुश्किल से बीस–पच्चीस गज आगे रेडीमेड गारमेंट्स को एक दुकान पर बड़ी भारी सेल लगी हुई थी।
अजय वहीं भीड़ में जा शामिल हुआ और होटल के प्रवेश द्वार की ओर देखने लगा।
कठिनाई से दो मिनट बाद ही उसने एक पुलिस जीप को होटल के आगे रुकते और उससे इंस्पैक्टर अजीत सिंह को अपने दल–बल सहित उतरते देखा।
इतना ही काफी था। फोनकर्ता ने सौ फीसदी सही सूचना दी थी।
अजय को उस इलाके से दूर चले जाने में ही अपनी कुशलता दिखाई दी।
वह फौरन वहां से हटा, एक खाली ऑटो रिक्शा रोका और होटल मयूर की ओर रवाना हो गया।
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