कोठी के क़रीब पहुँच कर इमरान अपने नथुने इस तरह सिकोड़ने लगा जैसे कुछ सूँघने की कोशिश कर रहा हो। फिर वह अचानक चलते-चलते रुक कर ख़ालिद की तरफ़ मुड़ा।

‘क्या आप भी किसी क़िस्म की बू महसूस कर रहे हैं?’ उसने पूछा।

‘हाँ, महसूस तो कर रहा हूँ! कुछ मीठी मीठी-सी बू! शायद यह सड़ते हुए शहतूतों की बू है।’

‘हरगिज़ नहीं!’ वह कोठी की तरफ़ दौड़ता हुआ चला गया...फिर पिछले दरवाज़े में दाख़िल होते ही दोबारा उछल कर बाहर आ गया। इतने में ख़ालिद और बारतोश भी उसके क़रीब पहुँच गये।

‘क्या बात है?’ ख़ालिद ने घबराए हुए लहजे में पूछा।

‘अन्दर कुछ गड़बड़ ज़रूर है।’ इमरान आहिस्ता से बोला, ‘नहीं, अन्दर मत जाओ वहाँ सिंथेलिक गैस भरी हुई है!...यह मीठी-मीठी-सी बू उसी की है?’

‘सिंथेलिक गैस!’ ख़ालिद बड़बड़ाया। ‘यह क्या बला है।’

‘ज़ेहन को कुछ देर के लिए सुन्न कर देने वाली गैस। मेरा ख़याल है कि अन्दर कोई भी होश में न होगा।’ इमरान बोला।

अचानक उन्होंने एक चीख़ सुनी और साथ ही कर्नल डिक्सन इमारत के पिछले दरवाज़े से उछल कर नीचे आ रहा। वह बेचैनी से अपने हाथ-पैर पटक रहा था। उसका चेहरा सुर्ख़ हो गया था और आँखों और नाक से पानी बह रहा था।

ख़ालिद ने उससे कुछ पूछना चाहा लेकिन इमरान जल्दी से हाथ उठा कर बोला—

‘कुछ पूछने का वक़्त नहीं है। हमें अन्दर वालों के लिए कुछ करना चाहिए, वरना मुमकिन है उनमें से कोई मर ही जाये।’ फिर उसने बारतोश को वहीं ठहरने को कहा और ख़ालिद को अपने पीछे आने का इशारा करके बेतहाशा दौड़ने लगा। वे दोनों चक्कर काट कर कोठी के बाहरी बरामदे में आये। यहाँ बू और ज़्यादा तेज़ थी। इमरान ने अपनी नाक दबायी और तीर की तरह अन्दर घुसता चला गया। ख़ालिद ने भी उसका पीछा किया। लेकिन थोड़ी ही दूर चलने के बाद उसका दम घुटने लगा। वह पलटने के बारे में सोच ही रहा था कि उसने इमरान को देखा जो किसी को पीठ पर लादे हुए वापस आ रहा था। ख़ालिद एक तरफ़ हट गया और फिर वह भी उसी के साथ बाहर चला गया।

इमरान ने बेहोश आरिफ़ को बाहर बाग़ में डालते हुए कहा, ‘यार, हिम्मत करो। उन सब की ज़िन्दगियाँ ख़तरे में हैं। क्या तुम दस-पाँच मिनट साँस नहीं रोक सकते?’

फिर किसी-न-किसी तरह उन्होंने एक-एक करके उन सबको कोठी से निकाला, मगर सोफ़िया उनमें नहीं थी। इमरान ने पूरी कोठी का चक्कर लगा डाला, लेकिन सोफ़िया कहीं न मिली।

उन्हें होश में लाने और कोठी का वातावरण साफ़ होने में तक़रीबन दो घण्टे लग गये।

उनमें से किसी ने भी कोई ढंग की बात न बतायी। किसी को इसका एहसास नहीं हो सका था कि वह सब क्यों और किस तरह हुआ।

‘इमरान साहब।’ ख़ालिद बड़े ग़ुस्से में बोला, ‘पानी सिर से ऊँचा हो चुका है। अब आपको बताना ही पड़ेगा। यह वाक़या इतना पेचीदा भी नहीं है कि मैं कुछ समझ ही न सकूँ। आख़िर कर्नल की साहबज़ादी कहाँ ग़ायब हो गयीं?’

‘अगर तुम समझ गये हो तो मुझे बता दो! मैं तो कुछ नहीं जानता।’ इमरान ने उम्मीद के ख़िलाफ़ बड़े ख़ुश्क लहजे में कहा।

‘या तो यह ख़ुद साहबज़ादी ही की हरकत है या फिर किसी और की जो इस तरह उन्हें उठा ले गया।’ ख़ालिद बोला।

‘उसे शिफ़्टेन ले गया।’ इमरान ने कहा।

‘तो आख़िर अब तक वक़्त बर्बाद करने की क्या ज़रूरत थी?’ ख़ालिद झुँझला गया।

‘वक़्त की बर्बादी से तुम्हारा क्या मतलब है?’ इमरान ने ख़ुश्क लहजे में पूछा।

‘जब मैं ने शिफ़्टेन के बारे में पूछा था तो आपने कहा था कि नहीं जानता। फिर आपने इस सिलसिले में उसका नाम क्यों लिया?’

‘तो फिर क्या शहंशाह बाऊडाई का नाम लेता?’

‘देखिए, आप ऐसी सूरत में भी मामले को उलझाने से बाज़ नहीं आ रहे!’

‘यार, मैं हूँ कौन।’ इमरान गर्दन झटक कर बोला, ‘तुम सरकारी आदमी हो। इस सिलसिले में हम लोगों के बयान नोट करो। कुछ तसल्ली-दिलासे दो। मुझ पर चन्द पर्दानशीन औरतों ने हमला किया। इसका हाल भी लिखिए, वग़ैरह, वग़ैरह।’

‘मैं आपको अपने साथ ऑफ़िस ले चलना चाहता हूँ।’ ख़ालिद बोला।

‘देखो दोस्त, मैं वक़्त बर्बाद करने के लिए तैयार नहीं।’

‘मुझे कोई सख़्त क़दम उठाने पर मजबूर न कीजिए।’ ख़ालिद का लहजा कुछ तेज़ हो गया।

‘अच्छा...यह बात है।’ इमरान व्यग्यांत्मक अन्दाज़ में बोला, ‘क्या कर लेंगे जनाब! क्या इस कोठी के किसी फ़र्द ने आपसे मदद तलब की है। आप हमारे मामलों में दख़ल देने वाले होते ही कौन हैं?’

दूसरे लोग सोफ़ों पर ख़ामोश पड़े उनकी गुफ़्तगू सुन रहे थे। किसी में भी इतनी ताक़त नहीं रह गयी थी कि कुछ कहने के लिए ज़बान हिला सकता। उनकी हालत बिलकुल तमाशाइयों जैसी थी। इन्स्पेक्टर ख़ालिद ने उन पर एक उचटती-सी नज़र डाली और इमरान से बोला, ‘इमरान साहब! मुझे कैप्टन फ़ैयाज़ का ख़याल है...वरना!’

अचानक बारतोश ने हस्तक्षेप किया। उसने अंग्रेज़ी में कहा, ‘लड़की के लिए तुम लोग क्या कर रहे हो? यक़ीनन यह उन्हीं बदमाशों की हरकत लगती है।’

‘हाँ माई डियर मिस्टर ख़ालिद।’ इमरान सर हिला कर बोला, ‘फ़िलहाल हमें देखना चाहिए कि सोफ़िया कहाँ गयी?’

ख़ालिद कुछ न बोला। इमरान कमरे से बरामदे में आ गया। ख़ालिद ने उसका अनुसरण किया।

‘ऐसी जगह, जहाँ आबादी न हो, मकान बनाना बहुत बुरा है,’ बारतोश ने कहा, जो दरवाज़े में खड़ा चारों तरफ़ देख रहा था।

अचानक इमरान बरामदे से उतर कर एक तरफ़ चलने लगा। फिर वह गुलाब की झाड़ियों के पास रुक कर झुका।

यह एक काले रंग का ज़नाना सैंडिल था जिसने उसका ध्यान अपनी तरफ़ खींचा था।

ख़ालिद और बारतोश भी उसके क़रीब पहुँच गये।

‘ओह...यह तो लड़की ही का मालूम होता है।’

इमरान कुछ न बोला। उसकी नज़र सैंडिल से हट कर किसी दूसरी चीज़ पर जम गयी। फिर वह अचानक ख़ालिद की तरफ़ मुड़ा।

‘तुम तो सोनागिरी के चप्पे-चप्पे से वाक़िफ़ होगे।’ उसने ख़ालिद से पूछा।

‘न सिर्फ़ सोनागिरी, बल्कि आस—पास के इलाक़े पर भी मेरी नज़र है।’ ख़ालिद ने कहा, लेकिन उसका लहजा सहज नहीं था।

‘क्या यहाँ कोई ऐसा इलाक़ा भी है जहाँ की मिट्टी लाल रंग की हो?’

ख़ालिद सोच में पड़ गया। कुछ देर बाद उसने कहा, ‘आप यह क्यों पूछ रहे हैं?’

इमरान ने ज़मीन से लाल चिकनी मिट्टी का एक टुकड़ा उठाया, जिसमें थोड़ी नमी भी मौजूद थी।

‘मेरा ख़याल है।’ उसने कहा, ‘यह मिट्टी किसी जूते के सोल और एड़ी की बीच की जगह में चिपकी हुई थी और यहाँ कम-से-कम दो-दो मील के घेरे में मैंने कहीं नर्म ज़मीन नहीं देखी। इसे देखो, इसमें अब भी नमी बाक़ी है।

ख़ालिद ने उसे अपने हाथ में ले कर उलटते-पलटते हुए कहा, ‘पलटन के पड़ाव के इलाक़े में एक जगह ऐसी नर्म ज़मीन मिलती है। वहाँ दरअस्ल एक छोटी-सी नदी भी है। उसके किनारे की ज़मीन...उसकी मिट्टी में हमेशा नमी मौजूद रहती है।’

‘क्या वह कोई सुनसान जगह है?’

‘सुनसान नहीं कह सकते, कम आबाद ज़रूर है। वहाँ ज़्यादातर ऊँचे तबक़े के लोग आबाद हैं।’

‘क्या तुम मुझे अपनी मोटर साइकिल पर वहाँ ले चलोगे?’

‘हो सकता है।’ ख़ालिद ने सोचते हुए कहा।

‘अच्छा तो ठहरो!’ इमरान ने कहा और कोठी के अन्दर चला गया। उसने अनवर को सम्बोधित किया जो एक सोफ़ें पर पड़ा अफ़ीमचियों की तरह ऊँघ रहा था।

‘सुनो! मैं सोफ़िया की तलाश में जा रहा हूँ। तुम अगर अपनी जगह से हिल न सको तो पुलिस को फ़ोन पर इस वाक़ये की ख़बर दे देना। लेकिन ये नौकर कहाँ मर गये?’

‘बाहर हैं।’ अनवर ने कमज़ोर आवाज़ में कहा, ‘सुबह ही वे शहर गये थे। अभी तक वापस नहीं आये।’

कर्नल ज़रग़ाम का यह उसूल था कि वह हफ़्ते में एक दिन अपने नौकरों को आधे दिन की छुट्टी देता था।

इमरान चन्द लम्हे खड़ा सोचता रहा। फिर उस कमरे में चला आया जहाँ उसका सामान रखा हुआ था। उसने जल्दी से सूटकेस से कुछ चीज़ें निकालीं और उन्हें जेबों में ठूँसता हुआ बाहर निकल गया।