नींद खुलते ही उसने मिचमिचाती आंखों से रिस्टवॉच पर नजर डाली ।


बारह पच्चीस हो रहे थे।


हड़बड़ाकर उठा ।


देर तक सोते रहना राजदान को पसंद नहीं था। देर भी इतनी ज्यादा ---- आधा दिन गुजर गया था। उसे जगाया क्यों नहीं गया? यह मेहरबानी कैसे हो गयी ? उसे रात का ख्याल आया । शायद यह सोचकर 'रियायत' दे दी गई थी कि वह रात को देर से सोया था ।


हाथ बढ़ाकर इन्टरकॉम का रिसीवर उठाया । 'एक' नम्बर दबाया। रिंग जाने लगी। यह नम्बर किचन का था । दूसरी तरफ से रिसीवर उठाया गया । भागवंती की आवाज आई ---- "बैड टी भिजवाती हूं छोटे मालिक ।”


देवांश ने रिसीवर रख दिया ।


वह सोचने लगा----आज उसे बहुत काम करना है। आज की रात राजदान के जीवन की आखिरी रात होगी। लेकिन तब - - - - जब वह अपने सारे काम सफलतापूर्वक निपटाये । काम तो खैर वह निपटा लेगा । काफी वक्त है।


जो होने वाला था एक बार फिर वह उस सबको इस ऐंगिल से सोच लेना चाहता था कि 'घटना' के बाद टकरियाल वही सोचेगा जो 'वे' सुचवाना चाहते हैं या कुछ और भी सोच सकता है? विचित्रा उसके ख्याल से एक वैश्या थी । क्या विचित्रा के बारे में ठकरियाल की ये सोच मर्डर के बाद उससे यह भी सुचवा सकती है कि ये सब 'मैंने ' विचित्रा के कहने पर उसकी खातिर किया है ?


देवांश को लगा----ठकरियाल ऐसा सोचेगा जरूर! मगर कुछ बिगाड़ नहीं सकेगा। दिव्या के निप्पल्स पर लगा जहर उसकी सभी सोचों को समेटकर वहां केन्द्रित कर देगा ।


देवांश को लगा ----- सब कुछ ठीक है। कहीं कोई गड़बड़ होने वाली नहीं है।


गद्दे के नीचे हाथ डाला । 'विषकन्या' निकाली।


उस वक्त वह उसके कवर को ध्यान से देख रहा था जब दरवाजा खुला ।


हड़बड़ा सा गया देवांश ।


हाथों में चाय की ट्रे लिए आफताब दाखिल हुआ था ।


देवांश ने भन्नाकर कहा---- “कितनी बार कहा है तुमसे, 'नॉक' करके आया करो ।”


“स-सारी सर ।” उसने सहमकर कहा था।" 


दोनों हाथों में ट्रे थी।


देवांश ने जल्दी से 'विषकन्या' तकिये के नीचे सरकाई, बोला- “दराज पर रख दो ।”


आफताब ट्रे लिए दराज की तरफ बढ़ गया। उसके गठे हुए मजबूत जिस्म पर सफेद रंग की वह वर्दी थी जिसे राजदान के निर्देशानुसार सभी नौकरों को पहनना जरूरी था । उसे देखते ही देखते देवांश को ख्याल आया ---- पिछली रात क्या-क्या सोच गया था मैं इसके बारे में? —


ये और दिव्या !


अपनी रात की मूर्खता भरी कल्पना पर देवांश मुस्करा कर रह गया।


जब वह ट्रे रखकर जाने लगा तो पूछा---- “भैया कहां हैं?”


“ऑफिस गये सर । ”


.... “अ-ऑफिस ? ने जाने कैसे दिया ?” उनकी तो तबियत ठीक नहीं थी । भाभी ने जाने कैसे दिया?"


“बीबी जी ने रोकने की बहुत कोशिश की मगर वे नहीं माने। कहने लगे---- जरूरी काम है । "


“भाभी कहां हैं?”


“ अपने कमरे में।”


"जाओ। देवांश ने ट्रे से चाय का कप उठाते हुए कहा ---- आइन्दा बगैर नॉक किये किसी के कमरे में दाखिल मत होना, भले ही दोनों हाथ घिरे हों।”


“यस सर !” कहने के बाद वह गर्दन झुकाये कमरे से चला गया ।


चाय सिप करने के साथ देवांश अपने दिमाग में उन कामों को व्यवस्थित करने लगा जो आज रात तक करने थे । सारे कामों को 'सीरियल' सा देते हुए चाय समाप्त की । चार्जर पर रखा मोबाइल फोन उठाया और बाथरूम में घुस गया ।


रोज की तरह कमोड पर बैठकर उसने विचित्रा का नम्बर मिलाया।


रिंग जाते ही रिसीवर उठाया गया । विचित्रा की मां, यानी शांतिबाई की आवाज उभरी । देवांश ने कहा ---- " मैं बोल रहा हूं।"


"कैसे हो बेटे?" पूछा गया ।


"ठीक हूँ मम्मी । ”


“अभी बात कराती हूं।” इस आवाज के बाद ऐसी आवाज आई जैसे उसने जोर से विचित्रा को पुकारा हो । अगले मिनट विचित्रा फोन पर बरस रही थी---- “अब फुर्सत मिली है फोन करने की ? सुबह से इंतजार करते-करते आधी को गयी हूं।"


“सोकर ही अभी उठा हूं मैडम | "


“इस वक्त ? एक बजे!”


“बस आधा घंटा हुआ है। "


“ इसका मतलब रात को देर से सोये ।” एकाएक विचित्रा का लहजा सैक्सी हो उठा - - - - “ नींद नहीं आई क्या?... क्या करते रहे?”


बताने के लिए मुंह खुला । मस्तिष्क-पटल पर झरने पर नहाती दिव्या उभर आई थी। जाने क्यों उसे लगा ---- यह सब विचित्रा को बताना ठीक नहीं होगा। अतः बात बदलकर बोला- “बस सारी रात यही सोचता रहा, क्या, कैसे करना है ?"


“आधा दिन तो गंवा चुके हो । कैसे होगा इतना सब?”


"मैं कर लूंगा। तुम फिक्र मत करो । बस एक चेंज है प्रोग्राम में।"


“क्या?”


“आज हम नहीं मिलेंगे।”


“क्यों?” विचित्रा की आवाज ऐसी थी जैसे उस पर पहाड़ टूट पड़ा हो ।


“मेरे ख्याल से यही ठीक और सुरक्षित रहेगा । तुम्हारे बारे में इंस्पैक्टर ठकरियल के ख्याल बहुत गंदे हैं। कहता है तुम मुझे किसी लफड़े में फंसा दोगी ।”


“क्या वह तुम्हें बाद में भी मिला था ? ”


“हां ।” कहने के बाद उसने सब कुछ बता दिया। सुनकर विचित्रा ने कहा----“मैंने तो पहले ही कहा था देव, चाहे कितने नाम बदल लो मेरे । रहूंगी शांतिबाई तवायफ की बेटी विचित्रा ही। ठकरियाल को ही दोष क्यों दूं? जिसे भी इन सम्बन्धों के बारे में पता लगेगा, वह यही सब कहेगा । हर आदमी की सोच यही होती है कि तवायफ की बेटी तवायफ की होगी । दिल की गहराइयों से वह किसी को चाहे भी तो लोग वही कहेंगे---- बेवकूफ बना रही है । "


“विनीता !” देवांश ने कहा- - "तुम इन बातों पर ध्यान मत दो। मैं किसी की बातों में आने वाला नहीं हूं।


“अब तो मेरी नैया तुम्हारे ही हवाले है देव! पार लगाओ, या बीच मंझधार में डुबो दो । मेरे पास अब है ही क्या! सब कुछ सौंप चुकी हूं तुम्हें! सबकुछ ! और इसके बाद... सच्ची कहती हूं देव, तुमने आंखें फेरीं तो आत्महत्या कर लूंगी ।" कहने के साथ रोने की आवाज आई और फोन काट दिया गया।


***


“क्या कहने! क्या निखार है । आज तो कुछ ज्यादा ही जंच रहे हो देवर जी ।" दिव्या उसे ऊपर से नीचे तक देखती कह उठी----“पैरों में रिवॉक शू, चुस्त काली जींस और हल्के पीले कलर की 'पार्क एवेन्यू' की शर्ट ! तुम्हारे गुलाबी रंग पर यह लिबास कुछ ज्यादा ही फब रहा है । गोल चेहरा, मोटी भवें, रेशम से बाल, नुकीली नाक और पतले होंठ । ये सब किसी राजकुमारी तक के दिल को ध्वस्त करने के लिए काफी हैं।"


“ सुबह से कोई और नहीं मिला जो सामने पड़ते ही मेरी खिंचाई शुरू कर दी ?”


“खिंचाई नहीं कर रही जनाब, सचमुच हीरो लग रहे हो तुम ।”


“ऐसा है तो थैंक्यू! मगर...


“कहां अटक गई गाड़ी ?"


“जंच तो आज तुम भी कुछ ज्यादा ही रही हो ।” देवांश ने भी वैसी ही टोन में उसे ऊपर से नीचे तक गहरी नजर से देखते हुए कहा ---- “ऊंची एड़ी वाले सुनहरे सैंडिल ! झिलमिल करती सुनहरी साड़ी, जिस्म में कसा हुआ वैसा ही ब्लाऊज | कसे हुए बाल ! बालों में फूल और कपोल की भंवर से अठखेलियां करती ये लट ! चौड़े मस्तक पर अस्त होते सूरज को लजाती बिंदिया। ये डायमंड की नथ| ये दमकते बुन्दे! जगमग करता नेकलेस और गुलाब की पंखुड़ियों से होंठ । ये सब मुझ जैसे किसी राजकुमार के दिल को ध्वस्त करने के लिए काफी हैं।”


खिलखिलाकर हंस पड़ी दिव्या ।


उसके दांत दांत नहीं, मानो सच्चे मोतियों की लड़ियां थीं ।


दिव्या के खिलखिलाने की आवाज उसे ऐसी लग रही थी जैसे संगमरमर के फर्श पर कांच की गोलियां बरसाई जा रही हों । वह हंसे जा रही थी । हंसे जा रही थी । हंसते-हंसते आंखों में पानी आ गया। बोली- “मान गई देवांश ! मान गई तुम्हें | अच्छी पलट मारी । अब मैं समझ गयी । पक्के शैतान हो गये हो तुम ।” एकाएक वह उसके फेस पर झुक गई। होंठ कान के नजदीक लाकर फुसफुसाई ---- “देवरानी मिल गई क्या?”


“क- कैसी बात कर रही हो भाभी ?”


“ इस उम्र में लड़की के सौन्दर्य का इतना सटीक वर्णन तो लड़का तभी करता है ।”


“तुमने भी तो कुछ ऐसे ही अंदाज में...


“मैं शादीशुदा हूं जनाब! पांच साल पुरानी । ”


“लेकिन उम्र में तो कोई फर्क नहीं है।”


“मतलब साफ-साफ कह रहे हो उम्र हो चुकी है, अब शादी कर ही देनी चाहिए।"


“आज तुम्हें हो क्या गया है भाभी? कहां की बात कहां ले जा रही हो ।”


एक बार फिर उसके कान पर झुकी वह । उस वक्त बर्फ से ढके दो पर्वतों के बीच की घाटी उसकी आंखों के सामने थी। इधर नजरें उस घाटी की गहराई नाप रही थीं । उधर दिव्या उसके कान में कह रही थी -- -- “ये बनना संवरना ! रातों को जागना । सब एक ही तरफ इशारा करते हैं । देवरानी पसंद कर ली हो तो बता दो । वैसे भी, मुझे बताये बगैर बेड़ा पार नहीं होने वाला तुम्हारा । बहरहाल, तुम्हारे भैया को तो मैं ही तैयार करूंगी ।”


कहने के बाद वह सीधी हो गयी ।


देवांश को झटका-सा लगा ।


अपने आपसे पूछा उसने ---- 'हो क्या गया है मुझे ? इन नजरों से तो मैंने दिव्या को पहले कभी नहीं देखा । क्या ये 

विचित्रा से बने सम्बन्धों के कारण है? या रात वाले दृश्य का प्रभाव ? उसे लगा जैसे चूड़ियों से भरा हाथ चेहरे के सामने चुटकी बजा रहा हो ।


तन्द्रा भंग हुई।


दिव्या की आवाज आई ---- “जागती आंखों से सोना भी उसी तरफ इशारा करता है । "


“त- तुम भी भाभी बस... पीछे ही पड़ गईं ।”


“देख लो देवर जी, मैं बसा सकती हूं तुम्हारा घर ।”


देवांश को लगा ---- दिव्या ठीक कह रही है । वह विचित्रा के वैश्या की बेटी होने के बावजूद राजदान को सहमत कर सकती है। राजदान उसकी बात नहीं टाल सकता । ऐसा हो जाता तो कितना अच्छा होता ? बल्कि... बल्कि वह तो इसे इसके पति की हत्या के इल्जाम में फांसी कराने वाला है जो उसका घर बसाने की बात कर रही है ।


केवल बात ही नहीं कर रही, सचमुच घर बसा सकती है उसका ।


क्या वह ठीक कर रहा है?


एक बार फिर विरोधाभासी विचार उसके दिमाग को खंगालने लगे। कभी ये ठीक लगने लगा, कभी वो! कभी विचित्रा ठीक नजर आने लगती, कभी गलत ! हमेशा की तरह अभी वह किसी निश्चय पर नहीं पहुंच पाया था कि खुद को झंझोड़ा जाता महसूस किया । कानों के पर्दों से दिव्या की आवाज टकरा रही थी -- “देवांश ! देवांश!”


देवांश चौंका! जाने किस दुनिया से वापस आया। इस वक्त वह लॉबी में था । सामने खड़ी दिव्या उसे झंझोड़ रही थी । अब वह गंभीर थी । चिंतित स्वर में बोली- -“हो क्या गया है तुम्हें ? कहां खो जाते हो बार - बार ? ”


“क-कहीं नहीं। कुछ नहीं भाभी।” उसने अपना मस्तक रगड़ा।


"प्रॉब्लम तो कुछ जरूर है देवांश ! ... क्या तुम मुझे भी नहीं बताओगे? अपनी भाभी को । उसे जिससे सबसे ज्यादा प्यार करने का दम भरते हो ?”


थोड़े झुंझलाये से स्वर में देवांश ने कहानहीं तो बताऊं क्या?” “जब कुछ है ही


“ओ. के . ।” दिव्या ने नाराजगी भरे स्वर में कहा ---- “पता लग गया तुम मुझसे कितना प्यार करते हो ।”


“ऐसा मत कहो भाभी।”


" ब्रेकफास्ट लग गया है। आओ।” कहने के साथ दिव्या ने उसे कलाई पकड़कर उस डायनिंग टेबल की तरफ खींचा जिस पर भागवंती और आफताब ब्रेकफास्ट लगा चुके थे।


वह कुर्सी पर बैठ गया। बोला ---- “तुम भी लो । ”


“टाइम तो लंच का हो गया है। केवल तुम्हारे इंतजार में ब्रेकफास्ट नहीं लिया था। उन्हें अकेले ही करके जाना पड़ा। पर लगता है, कल से मुझे ऐसा करने की जरूरत नहीं है ।”


“प्लीज भाभी ! नाराज मत हो ।”


“तो बताते क्यों नहीं? क्यों अंदर ही अंदर घुट रहे हो ?”


“मैं भैया के लिए फिक्रमंद हूं । "


“मतलब?”


अच्छा बहाना मिल गया था देवांश को | कहता चला गया ---- "जब तक नकाबपोश पकड़ा नहीं जाता, तब तक न मुझे चैन मिलेगा, न ही भैया के सिर पर मंडराने वाला खतरा टलेगा । एक भैया हैं. -- किसी के रोके नहीं रुक रहे हैं । सिक्योरिटी तक लेने को तैयार नहीं हैं। सारे शहर में अकेले भागे-भागे फिर रहे हैं ।”


उसके बाद, ब्रेकफास्ट के साथ वे इसी विषय पर बातें करते रहे। बातों ही बातों में देवांश को पता लगा दिव्या अपनी किसी फ्रैण्ड के साथ शापिंग के लिए जा रही है ।


ऐसे ही मौके की तलाश थी देवांश को ।


उसके जाते ही वह अपने कमरे में पहुंचा। 'विषकन्या' उठाई और पुनः लॉबी से गुजरता हुआ राजदान के बैडरूम में आ गया। उस वक्त वहां भागवंती सफाई कर रही थी ।


जो कुछ उसे करना था, भागवंती के सामने नहीं किया जा सकता था। अतः किताब छुपाये बॉल्कनी में पहुंचा।


किचन लॉन की तरफ देखा । बल्ब बुझे हुए थे । फव्वारे शांत । कोई जलधारा नहीं बह रही थी । बिजली और पानी के अभाव में वह जन्नत इस वक्त हरे-भरे पहाड़ी जंगल जैसी लग रही थी। उस सारे रास्ते को देखा उसने ---- जहां से रात गुजरा था। उस पत्थर तक ---- जिसके पीछे छुपा था । यहां से खड़े होकर उसे लगा ---- वह पत्थर के दूसरी तरफ था । अर्थात्... राजदान को नजर नहीं आया होगा । हां, पूरा रास्ता नजर आ रहा था ।


तो क्या राजदान ने उसे देखा होगा ?


शायद नहीं !


बल्कि पक्के तौर पर नहीं ।


इस निश्चय पर देवांश इसलिए पहुंचा क्योंकि वह झरना यहां से बिल्कुल साफ नजर आ रहा था, जहां दिव्या नहा रही थी और वह दृश्य ऐसा था जिस पर से लाख चाहकर भी कोई नजर नहीं हटा सकता था । सो राजदान ने उसे नहीं देखा होगा ।


क्या दृश्य था। वाह!


देवांश की स्मृति में रात हो गयी । बल्ब रोशन हो उठे । जल धारायें बह निकलीं । फव्वारे चल पड़े । झरने झरने लगे और झरने के नीचे नहाती दिव्या साकार हो उठी । अब वह उसे नहाने के बाद एक से दूसरे पत्थर पर कूदते देख रहा था । फिर वह केशराशि को जूड़े की शक्ल देती पत्थर तक पहुंच गयी ।


वहां, जहां उसने कपड़े चेंज किये थे ।


वह हिस्सा यहां से बिल्कुल स्पष्ट नजर आ रहा था । यानी राजदान ने उसे भीगे हुए कपड़े उतारकर सलवार सूट पहनते देखा था, जबकि वह... वह पत्थर की बैक में था । काश.. राजदान की जगह बाल्कनी में वह होता । उफ्फ ! कैसा रहा होगा वह दृश्य ? वह दिव्या के इतना नजदीक होने के बावजूद कुछ नहीं देख सका और राजदान ने इतनी दूर से सब कुछ देख लिया था । उस वक्त वह अपनी सब्र की कल्पना में खोया था जब भागवंती की आवाज आई----“सफाई हो गयी छोटे मालिक ।”


देवांश की तंद्रा भंग हुई ।


पलटा!


भागवंती कमरे से बाहर जाने के लिए दरवाजे की तरफ बढ़ रही थी ।


उसके निकलते ही देवांश ने दरवाजा अंदर से भिड़ा दिया। ‘विषकन्या' बैड पर डाली और बाथरूम की तरफ बढ़ गया । वहां, जहां आज उसे अपने मिशन को अमली जामा पहनाना था । बैडरूम और बाथरूम के बीच 'ड्रेसिंग रूम' था । नौ बाई नौ के कमरे की शक्ल में । उसकी एक दीवार के साथ बेशकीमती ड्रेसिंग टेबल खड़ी थी । बाकी दीवारों में बड़ी-बड़ी अल्मारियां थीं। हालांकि अल्मारियां बंद थीं, परन्तु देवांश जानता था उनमें दिव्या और राजदान के कपड़े हैं।


वह सीधा ड्रेसिंग टेबल के सामने पहुंचा।


स्वच्छ आईने में इस वक्त वह अपना अक्स देख सकता था ।


चेहरे पर थोड़ी हड़बड़ी सी पाई । ठिटका ! सोचा ---- उत्तेजित क्यों हो रहा है वह ? इस कमरे में आना उसके लिए नई बात नहीं है। भले ही अक्सर न आता हो, कोई काम ही नहीं पड़ता। मगर 'पाबंदी' कुछ नहीं थी । फिर 'चोर' जैसे भाव क्यों हैं फेस पर? अपने दिल की हालत पर वह मुस्कराया। खुद को समझाया----'हिम्मत से काम लेना होगा तुझे । इस वक्त तो यहां कोई है ही नहीं, फिर भी घबरा रहा है। रात को तो दिव्या भी होगी । यूं घबरायेगा तो क्या कर सकेगा उस वक्त ?”


यही सब सोच उसने खुद को हौसला दिया । हाथ ड्रेसिंग टेबल के पृष्ठ भाग और दीवार के बीच खाली हिस्से की तरफ बढ़ाया। जाने क्या सोचकर ठिठका । जेब से रूमाल निकाला । उसे लपेटकर हाथ खाली स्थान में डाला । हाथ जब बाहर आया तो उसमें चाबियों का एक गुच्छा था । गुच्छे को लिए बैडरूम में आया। जूते उतारे । दूसरे हाथ में एक छोटा टॉवल लपेटा और बैड पर चढ़ गया। बैड के ठीक ऊपर, दीवार पर ‘पिकासो’ की बनी एक कीमती पेन्टिंग टंगी हुई थी । एक हाथ में रूमाल, दूसरे में टॉवल लपेटे देवांश ने पेन्टिंग को दीवार से उतारकर बड़े आराम से बैड पर रखा ।


अब दीवार में एक फुट बाई एक फुट का किसी तिजोरी का दरवाजा नजर आ रहा था ।


बंद दरवाजा ठीक दीवार के लेवल में था।


कोई हैंडिल नहीं था उसमें, सिर्फ एक 'की-होल' था ।


देवांश ने गुच्छे की एक चाबी उसमें डाली । हाथ अभी भी रूमाल में लिपटा हुआ था ।


लॉक बगैर किसी विघ्न-बाधा के खुल गया |


चाबी की 'की-होल' में डाले ही डाले अपनी तरफ खींचा। तिजोरी का भारी-भरकम दरवाजा खुल गया । चाबी का गुच्छा ‘की-होल' में लगा छोड़ा और तिजोरी के अंदर से एक दराज बाहर खींच ली । दराज दिव्या की ज्वैलरी से भरी पड़ी थी । उसने रूमाल में लिपटा हाथ दराज में डाला और ज्वैलरी को खंगालने लगा ।


जाने किस चीज की तलाश थी उसे । वह, जो मिल नहीं रही थी।


वह उत्तेजित नजर आने लगा ।


झुंझलाहट में एक बार नहीं, अनेक बार दराज 'खकोड़' डाली । अंततः पूरी दराज ही बाहर निकाल ली । सम्पूर्ण ज्वैलरी बैड पर उलट दी । अब वह उसके बीच उस वस्तु को इस तरह खोजने की कोशिश कर रहा था जैसे चावलों

के बीच से कंकर बीने जाते हैं। उस वक्त उसके दिमाग पर झुंझलाहट के साथ निराशा भी छाती चली गई जब सारी कोशिशों के बावजूद इच्छित वस्तु नहीं मिली। अंततः पलंग पर ही माथा पकड़कर बैठ गया वह ।


तभी, दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी।


उछल पड़ा वह ।


यूं - ---जैसे नंगा तार जिस्म से टकराया हो ।


एक ही ख्याल उभरा दिमाग में ---- 'क्या दिव्या लौट आई है?' अगर उसने उसे इस हॉल में देख लिया तो क्या जवाब देगा?


क्यों वह उसकी ज्वैलरी पलंग पर बिखराये बैठा है ?


छक्के छूट गये उसके! मुंह से बेहद डरा हुआ स्वर निकला ---- “क- कौन है ?”


“मैं हूं सर, आफताब!” आवाज के साथ दरवाजा खुला ।


मारे आतंक के चीख पड़ा देवांश ---- “क्यों आया है यहां ? क्या मुसीबत है?”


दरवाजे पर खड़ा आफताब सहम गया । बोला ---"स-सर, मैं ये पूछने आया था ---- आप लंच घर पर ही लेंगे या बाहर जाने का प्रोग्राम..


“अभी कुछ ही देर पहले मैंने तुझसे 'नॉक' करने के बाद किसी कमरे में दाखिल होने के लिए कहा था ।” .


“न-नॉक करके ही तो आया हूं सर । "


उसका हर जवाब देवांश के गुस्से का पारा ऊपर ही चढ़ाये चला जा रहा था। जी चाहा ---- अपने बाल नोंच ले या सामने खड़े आफताब का जबड़ा तोड़ डाले । मगर ऐसा कुछ नहीं कर सका वह । दांत भींचकर चीख सका केवल----“हरामजादे, यह नहीं कहा था मैंने तुझसे कि नॉक करते ही कमरे को अपने बाप का कमरा समझकर घुस आना । तभी तो आयेगा जब अंदर से कोई आने को कहेगा?”


“स - सॉरी सर !... सॉरी! आगे से ऐसा ही करूंगा ।”


“गेट आऊट ।”


“जी?”


“आई से गेट आऊट !” हलक फाड़कर चीख पड़ा वह ।


आफताब घबराकर उल्टे पैर दौड़ पड़ा।


बैड के नजदीक खड़ा देवांश गुस्से की ज्यादती के कारण कांप रहा था । खड़ा नहीं रहा गया तो 'धम्म' से बैड पर बैठ गया। दोनों कोहनियां जांघों पर टिकाईं । हथेलियों से सिर् जकड़ लिया। उन क्षणों में वह सोचने समझने की शक्ति गंवा बैठा था |


धीरे-धीरे दिमाग ने काम करना शुरू किया तो अनेक तरह के डरावने सवाल जहरीले सर्प बनकर डसने लगे। क्या मर्डर के बाद वह घटना गुल खिलायेगी? क्या ठकरियाल आफताब का बयान लेगा? स्वाभाविक है। उसने उसे दिव्या की ज्वैलरी बैड पर फैलाये देखा है। क्या यह बात वह ठकरियाल को बतायेगा? यदि हां ---- तो सुनकर क्या सोचेगा ठकरियाल? किस नतीजे पर पहुंचेगा? क्या इस हरामजादे आफताब ने बैड पर पड़ी 'विषकन्या' भी देखी है? क्या इस किताब पर उसकी नजर तब भी पड़ गई थी जब वह चाय लेकर उसके कमरे में आया था ? ये सारी बातें मिलकर ठकरियाल को पता लग गईं तो...?


इस 'तो' के आगे अंधेरा ही अंधेरा नजर आने लगा देवांश को।


लगने लगा- राजदान की हत्या का यह विचार ही उसे त्याग देना चाहिए। यदि उसने यह सब किया तो एक मात्र आफताब का बयान ही फांसी करा देगा |


कम से कम 'इस' प्लान के साथ तो अब राजदान की हत्या की नहीं जा सकती ।


ऐसा सोचकर उसने बैड पर पड़ी ज्वैलरी समेटनी शुरू की। दराज में डाली और कांपते हाथों से दराज यथास्थान 'फिक्स' कर दी । इस वक्त वह खुद को बहुत कमजोर महसूस कर रहा था । जैसे किसी अज्ञात शक्ति ने जिस्म की सारी जान खींच ली हो ।


इसी हालत में उसने तिजोरी का दरवाजा बंद किया । लॉक लगाया और पेन्टिंग यथास्थान टांग दी । उस वक्त वह चाबी का गुच्छा यथास्थान रखने के बाद ड्रेसिंग रूम से निकल रहा था जब टी-शर्ट की जेब में रखा मोबाइल फोन घनघना उठा।


एक बार फिर चौंक गया वह ।


फोन जेब से निकाला । स्क्रीन पर नम्बर देखा ।


नम्बर विचित्रा का था ।


जाने क्यों अच्छा नहीं लगा उसे ! फिर भी 'ऑन' करना जरूरी था। ‘आफ' कर देता तो वह फिर मिला देती । साथ ही पहली बार 'ऑफ' करने का कारण पूछती । फिर भी उसने तुरन्त ऑन नहीं किया । लगभग दौड़कर कमरे के दरवाजे पर पहुंचा । गैलरी में झांका । किसी को न पाकर वापस कमरे में आया। इस बीच फोन लगातार घनघनाता रहा था। ‘ऑन' करके कान से लगाया। दूसरी तरफ से तुरन्त विचित्रा की अधिकार भरी आवाज सुनाई दी - - - - “इतनी देर से क्यों ऑन किया फोन?”


“तुम्हें अपनी पड़ी है!” न चाहते हुए भी आवाज में थोड़ी झुंझलाहट पैदा हो गयी ----“यहां मैं मुसीबत में फंसा हुआ था।”


“क्यों ---- क्या हुआ ?”


“नहीं विनीता !” उसने खुद को नियंत्रित रखने की भरपूर चेष्टा के साथ कहा---- “राजदान का मर्डर नहीं हो सकता। ... उस प्लान के साथ तो हरगिज नहीं जो हमने बनाया था।"


“क- क्या बात कर रहे हो देव?” आवाज से ही जाहिर था विचित्रा पर बिजली गिर पड़ी है ---- “हो क्या गया है तुम्हें ? कुछ देर पहले तो बड़े कॉन्फीडेंस के साथ कहा था कि..


“अगर ये मर्डर इस ढंग से हुआ तो मैं फौरन पकड़ा जाऊंगा।"


“मगर क्यों? क्या आफत आ गयी ऐसी ?”


देवांश ने विस्तारपूर्वक सबकुछ बता दिया। यह भी कि आफताब द्वारा इतना सब देख लिए जाने के परिणाम क्या हो सकते हैं ।


सुनकर हंस पड़ी विचित्रा | कहा---- “ओफ्फो देव ! तुम भी बस। मैं समझी पता नहीं ऐसी क्या आफत आ गयी?... ऐसी छोटी-छोटी बातों से इतने बड़े और शानदार प्लान चेंज नहीं हुआ करते मेरे प्यारे देव ।” ...


देवांश ने चकित स्वर में कहा ---- “तुम्हें ये छोटी बात लग रही है?”


“मच्छर से भी छोटी ।” वह हंस रही थी ।


“समझने की कोशिश करो विनीता। सबकुछ सुनने के बाद ठकरियाल को कुछ भी समझने में देर नहीं लगेगी। आफताब ने 'विषकन्या' भी मेरे पास देखी है और..


विचित्रा ने उसका वाक्य बीच में ही काटा ---- “ठकरियाल यह सब सुनेगा ही क्यों?”


“मर्डर के बाद उसके द्वारा नौकरों का बयान लेना स्वाभाविक है।"


“मानती हूं ।”


“फिर?”


“वह दूसरे सब नौकरों का बयान लेगाका नहीं ले सकेगा।” -मगर आफताब


देवांश ने हैरत के साथ पूछा ---- “क्यों?”


“क्योंकि तब तक वह तुम्हारा नौकर रहेगा ही नहीं।"


“क्या पहेलियां बुझा रही हो विनीता, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा?”


“क्या तुम्हारा उस पर इतना भी 'राइट' नहीं है कि एक नौकर को उसकी बद्तमीजी पर तत्काल नौकरी से बर्खास्त कर सको ?”


“राइट क्यों नहीं है?"


“ फिर?... फिर समस्या क्या है ?”


झटका-सा लगा देवांश के दिमाग को । शब्द मुंह से फिसलते चल गये-"ओह! .... वाकई विनीता । ऐसा फौरन किया जा सकता है। कमाल की बात तो ये है, इतनी छोटी-सी बात मेरे दिमाग में नहीं आई। बेवजह इतना घबरा गया मैं । अभी निकाल देता हूं हरामजादे को। मगर...


“अब कहां अटक गये ?”


“वो साला पैन भी तो नहीं मिल रहा । बगैर उसके तो आगे का सारा प्लान ही चौपट हो जायेगा । जब 'विषकन्या' की वे लाइनें अण्डरलाइन ही नहीं होंगी तो...


“वहीं होगा देव! ध्यान से देखो।”


“देख चुका हूं। खूब ध्यान से देख चुका हूं। इसी चक्कर में तो सारी ज्वैलरी बैड पर फैला दी थी और वो हरामजादा अंदर घुस आया। पैन दिव्या लॉकर में ही रखती थी । इस वक्त नहीं है।”


“तो कहीं और होगा । बैडरूम में दूसरी जगहों पर तलाश करो।”


“ओ.के. । ... देखता हूं।"


“बेस्ट ऑफ लक!” कहने के बाद विनीता ने दूसरी तरफ से 'फ्लाइंग किस' उछाला ।


उसके 'किस' का जवाब देने के बाद देवांश ने मोबाइल ऑफ किया और पैन की खोज में जुट गया ।


सबसे पहले उसने बैड की दराजें देखीं । फिर कमरे में मौजूद गोदरेज की अलमारी को खंगाला । मगर वह मिला तो राइटिंग टेबल की दराज में मिला। पैन पर नजर पड़ते ही देवांश के दिमाग पर काबिज हो चुकी निराशा आशा में तब्दील हो गयी । पैन पर लगे डायमंड जगमग कर रहे थे। कीमती तो खैर वह था ही, मगर देवांश ने हाथ बढ़ाकर इस तरह उठाया जैसे कोहिनूर से भी ज्यादा कीमती हो।.... और सचमुच, देवांश के लिए इस वक्त कोहिनूर उस पैन के मुकाबले ठीकड़ा ही था । पैन हाथ में लिए वह इस तरह बैड की तरफ बढ़ा जैसे अपने स्वर्णिम भविष्य की 'रास' हाथ लग गयी हो। बैड से 'विषकन्या' उठाई और राइटिंग चेयर पर आ बैठा ।