दरवाजे की निरंतर बजती घंटी की आवाज से नीलम की नींद खुली। पहले तो उसे यही लगता रहा कि वह सपना देख रही थी लेकिन फिर उसने अनुभव किया कि वह सपना नहीं था। कोई कालबैल बजा रहा था। उसने समीप ही मेज पर पड़ी रेडियम के डायल वाली टाइमपीस की ओर देखा।

रात के दो बजे थे।

इस वक्त कौन आ गया था?

उसे विमल का खयाल आया। उसकी आंखों के सामने उसका खूबसूरत, आत्मीयतापूर्ण चेहरा घूम गया और उसका मन एक अजीब-सी उम्मीद से मचलने लगा। वह कल्पना करने लगी कि किस प्रकार दरवाजा खुलते ही वह उसे अपनी बांहों में दबोच लेगा, उसके होंठों और गालों पर चुम्बनों की बौछार कर देगा और फिर उसे अपनी गोद में उठा कर बैडरूम में ले जायेगा। लेकिन जल्दी ही उसका वह सपना टूट गया। विमल भला इस वक्त क्यों आएगा? यौन तुष्टि के लिए? उहूं। इस वक्त? रात के दो बजे? असम्भव। और फिर वह ऐसा आदमी भी तो नहीं लगता था जो कि स्त्री के सहवास के लिए इतना मरा जा रहा हो!

तो फिर कौन आया था?

घंटी फिर बजी।

उसने बत्ती जलाई और बिस्तर से निकली। पलंग के पायताने उसका नाइट गाउन पड़ा था। वह उसे उठा कर पहनने लगी।

शायद उसका कोई पुराना ग्राहक आ गया हो!

यही बात थी — दरवाजे की ओर बढ़ती वह सोचने लगी। ऐन दरवाजे पर पहुंच कर उसे मायाराम का खयाल आया। उसके शरीर में सिहरन-सी दौड़ गयी।

हे भगवान! कहीं मायाराम को पता तो नहीं लग गया था कि उसने उसके एक दुश्मन की मदद करने का वादा किया था! तब तो मायाराम जरूर क्रोध में उफनता वहां पहुंचा होगा!

वह भयभीत हो उठी।

घंटी निरंतर बज रही थी। बाहर कोई भी हो, दरवाजा तो उसे खोलना ही पड़ना था।

“कौन है?” — उसने आवाज लगाई।

“मैं हूं। मायाराम।” — बाहर से आवाज आयी — “दरवाजा तो खोल!”

नीलम ने डरते डरते दरवाजा खोला।

मायाराम बगूले की तरह भीतर दाखिल हुआ।

लेकिन उसके चेहरे पर क्रोध का भाव नहीं था। उसकी आंखें व्याकुल भाव से इधर उधर फिर रही थीं और वह साफ साफ आतंकित दिखायी दे रहा था। उसने हाथ में थामा सूटकेस नीचे रखा और दरवाजे की ओर घूमा। उसने जल्दी से दरवाजा भीतर से बंद किया और फंसे स्वर में बोला — “क्या बात है? महीना लगा दिया दरवाजा खोलने में!”

वह चुप रही। उसे यह सोच कर तनिक गुनाह का अहसास हो रहा था कि उसने किसी के साथ इस आदमी को अपनी दगाबाजी का शिकार बनाने का वादा किया था।

मायाराम ने व्याकुल भाव से चारों ओर देखा और फिर बोला — “क्या बैडरूम में कोई है?”

नीलम ने इंकार में सिर हिलाया। जुबान से वह कुछ न बोली।

मायाराम बैडरूम की ओर बढ़ा।

नीलम उसके पीछे पीछे चल दी।

मायाराम ने बैडरूम में चारों ओर निगाह दौड़ाई और फिर धम्म से पलंग पर बैठ गया।

“मैं मुसीबत में हूं, नीलम।” — वह खोखले स्वर में बोला — “मैं तेरी शरण में आया हूं।”

“शुक्र है!” — नीलम व्यंग्यपूर्ण स्वर में बोली — “कैसे भी आए, आए तो सही!”

मायाराम ने अपना कोट उतार कर एक ओर उछाल दिया और जूते उतारने लगा।

“मैं जानता हूं तू मुझसे नाराज है” — वह बोला — “लेकिन मैं तेरी हर नाराजगी दूर कर दूंगा। बस, थोड़ा वक्त दे मुझे।”

हरामजादा! — नीलम मन-ही-मन बोली — मेरी जिंदगी तो खराब कर दी और उसमें से इसे थोड़ा वक्त और चाहिए।

“इस संकट की घड़ी में मैं तेरे सिवाय किसी का भरोसा नहीं कर सकता, नीलम।” — वह गिड़गिड़ाता हुआ बोला — “इसलिए यह जानते हुए भी, कि तू मेरी सूरत से बेजार बैठी होगी, मैं तेरे ही पास आया हूं। नीलम, मैं सच कहता हूं मुझे एक मौका और दे, मैं तेरी सारी शिकायतें दूर कर दूंगा।”

“अब कौन-सी करामात हो गयी?”

“करामात हो ही गयी समझ।”

झूठा! मक्कार! अपना कोई मतलब हल करने के लिए फिर मुझे बेवकूफ बनाने आ गया है। लेकिन इस बार मैं बेवकूफ नहीं बनने वाली। इस बार मैं इसकी खबर ले कर रहूंगी।

“गुस्सा थूक दे।” — वह उसकी ओर हाथ फैलाता बोला — “मैं सच कहता हूं, नीलम, भविष्य में तुझे मुझसे कोई शिकायत नहीं होगी।”

नीलम अनिश्चित-सी अपने स्थान पर खड़ी रही।

मायाराम पलंग से उठा। उसने नीलम को अपनी बांहों में भर लिया। नीलम ने विरोध न किया। मायाराम के सूखे होंठ उसके चेहरे पर फिरने लगे। नीलम ने एतराज न किया। मायाराम के हाथ उसके शरीर पर फिर रहे थे और वह दुनिया भर के वादे उसके कान में फूंक रहा था।

मायाराम उसे चलाता हुआ पलंग तक ले गया। उसने उसे धीरे से पलंग पर धकेल दिया।

नीलम ने आंखें बंद कर लीं।

मायाराम को उसकी नीयत पर संदेह न हो, इसके लिए उसे जरूरी लग रहा था कि वह उसकी किसी बात का विरोध न करे और उसके मन में आश्वासन की भावना भरे।

तूफान गुजर जाने के बाद उसने अपनी आंखें खोलीं।

“मैं बहुत थका हुआ हूं।” — मायाराम कह रहा था — “सारा दिन दिल्ली और चंडीगढ़ के बीच धक्के खाता रहा हूं। मुझे आराम की सख्त जरूरत है।”

“ठीक है। सो जाओ।” — नीलम बोली।

“यहीं?”

“क्या हर्ज है? मेरे पलंग पर क्या पहली बार सो रहे हो?”

मायाराम खिसियायी-सी हंसी हंसा। फिर उसने करवट बदली और आंखें बंद कर लीं।

नीलम सीधी होकर लेट गयी। उसने रजाई अपने और मायाराम के ऊपर खींच ली।

मायाराम को तुरंत नींद ने दबोच लिया।

कितनी ही देर नीलम प्रतीक्षा करती रही। फिर उसने गौर से मायाराम को देखा। वह गहरी नींद सोया पड़ा था। उसने उसका नाम ले कर उसे धीरे से पुकारा। कोई प्रतिक्रिया न हुई। फिर उसने उसे अपेक्षाकृत जोर की आवाज दी। मायाराम की तंद्रा न टूटी। वह रजाई हटा कर पलंग से नीचे उतर आयी। वह दबे पांव बाहर की ओर बढ़ी।

चौखट पर पहुंच कर वह एक बार फिर ठिठकी।

मायाराम बेसुध पड़ा था।

वह दबे पांव चलती ड्राइंगरूम में एक कोने में रखे टेलीफोन के पास पहुंची। वहां फोन के नीचे डायरेक्टरी पड़ी हुई थी। उसने डायरेक्टरी उठायी और बाथरूम में आ गयी। वहां उसने बत्ती जलायी और उसके प्रकाश में एरोमा होटल का टेलीफोन नम्बर देखने लगी। नम्बर तलाश करके उसने उसे याद कर लिया। उसने बत्ती बुझायी और वापिस ड्राइंगरूम में आ गयी। पूरी सावधानी से, पूरी सजगता से उसने वह नम्बर मिलाया।

दूसरी ओर घंटी बजने लगी।

आतंकित-सी नीलम विमल से बात होने की प्रतीक्षा करने लगी।





विमल ने न्यू मद्रास होटल के सामने कार रोकी।

होटल की तिमंजिला इमारत के ग्राउंड फ्लोर पर स्थ‍ित रेस्टोरेंट के बाहर एक वर्दीधारी वेटर बैठा बीड़ी पी रहा था।

विमल ने धीरे से कार का हॉर्न बजाया। वेटर ने सिर उठा कर उसकी ओर देखा। विमल ने उसे समीप आने का संकेत किया। वेटर ने बीड़ी फेंक दी और कार के समीप पहुंचा।

“कृष्णामूर्ति है?” — विमल ने पूछा।

“हां, साहब।” — वेटर आदरपूर्ण स्वर में बोला।

“जरा उसे बुलाओ। कहना, कोई आदमी मायाराम बावा का संदेशा ले कर आया है।”

“बहुत अच्छा, साहब।” — वेटर भीतर चला गया।

थोड़ी देर बाद कृष्णामूर्ति उस वेटर के साथ इमारत से बाहर आया। वेटर ने उसे दिखा कर कार की ओर संकेत कर दिया। कृष्णामूर्ति ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाया और कार की ओर बढ़ा।

वेटर पीछे ही खड़ा रहा।

कृष्णामूर्ति कार के समीप पहुंचा तो विमल बोला — “कृष्णामूर्ति?”

“हां।” — कृष्णामूर्ति उसे गौर से देखता बोला।

“मैं मायाराम बावा का दोस्त हूं। तुम्हारे लिए उसका संदेशा लाया हूं।”

“बोलो।”

“कार में बैठो। थोड़ा आगे चल कर बात करते हैं।”

कृष्णामूर्ति हिचकिचाया।

“अरे बैठो न, स्वामी!” — विमल कार का उसकी ओर का दरवाजा खोलता बोला — “तुम क्या लड़की हो जो मैं तुम्हें भगा कर ले जाऊंगा!”

कृष्णामूर्ति कार में बैठ गया।

विमल ने कार आगे बढ़ाई।

थोड़ा ही आगे सड़क पर अंधेरा था और वहां रास्ते में आवाजाही भी नहीं थी। विमल ने वहां कार रोकी।

कृष्णामूर्ति ने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी ओर देखा।

“मायाराम ने तुम्हारे लिए कुछ भेजा है।” — विमल बोला।

“क्या?” — कृष्णामूर्ति ने उत्सुक स्वर में पूछा।

“यह।” — विमल बोला। उसने रिवाल्वर निकाल कर उसकी पसलियों से सटा दी।

कृष्णामूर्ति के छक्के छूट गए।

“ऐन्ना रे!” — वह हकलाता हुआ बोलने लगा — “ऐन्ना...स्वामी...”

“मुझे मायाराम की तलाश है।” — विमल कठोर स्वर में बोला — “मुझे मालूम हुआ है तुम उसके बड़े पक्के दोस्त हो। तुम्हें मायाराम का पता जरूर मालूम होगा!”

“स्वामी...”

“हिन्दुस्तानी में बोलना।”

“मुझे मायाराम का पता नहीं मालूम।”

एक क्षण के लिए रिवाल्वर की नाल उसकी पसलियों से हटी और उसका भरपूर वार कृष्णामूर्ति की नाक पर पड़ा। रिवाल्वर फिर यथास्थान पहुंच गयी।

कृष्णामूर्ति जोर से चिल्लाया। वह पीड़ा से बिलबिला उठा। उसकी नाक से खून बहने लगा था।

“मायाराम का पता बोलो।”

“मुझे नहीं मालूम। बाई मुरुगन, मुझे नहीं मालूम। जब से उसने चंडीगढ़ रहना छोड़ा है, तब से मुझे उसके किसी पक्के पते ठिकाने की खबर नहीं। उसने कभी बताया ही नहीं। तुम नीलम से पूछो। शायद वह जानती हो। तुम जानते हो नीलम को?”

“वह नहीं जानती।”

“तो फिर शायद अमृत लाल जानता हो!” — कृष्णामूर्ति अपनी हथेली के पृष्ठभाग से नाक से बहता खून पोंछता बोला।

विमल को याद आया, इस नाम का जिक्र नीलम ने भी किया था।

“अमृत लाल कौन है?” — उसने पूछा।

“तुम नहीं जानते उसे?” — कृष्णामूर्ति बोला।

“नहीं।”

“वह करनाल में जी.टी. रोड पर स्थित रीजेंट रेस्टोरेंट में वेटर है। उसे अक्सर मालूम होता है कि मायाराम कहां है।”

करनाल!

विमल ने गहरी सांस ली। अमृतसर से जालंधर। जालंधर से चंडीगढ़। चंडीगढ़ से पटियाला। पटियाला से करनाल और करनाल से आगे पता नहीं कहां।

“उतरो।” — विमल बोला।

“क्या!” — कृष्णामूर्ति अविश्वासपूर्ण स्वर में बोला। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि उस आदमी से वह इतनी आसानी से छुटकारा पा रहा था।

“कार से बाहर निकलो। जो कुछ अभी हुआ, उसे अभी भूल जाओ। अगर तुमने इसकी खबर मायाराम तक या अमृत लाल तक पहुंचाने की कोशिश की तो मैं वापिस आकर तुम्हारा गला काट दूंगा।”

कृष्णामूर्ति के शरीर ने जोर से झुरझुरी ली। वह जल्दी से कार से बाहर निकल गया।

विमल ने तुरंत कार आगे बढ़ा दी।


करनाल पहुंचते पहुंचते रात के ग्यारह बज गए। रीजेंट रेस्टोरेंट तलाश करने में उसे कोई दिक्कत न हुई। वहां से उसे मालूम हुआ कि अमृत लाल उस रोज नहीं आया था। उसे वहां से अमृत लाल के घर का पता मालूम हो गया। पूछता पूछता वह अमृत लाल के घर पहुंचा।

अमृत लाल दीन दुनिया से बेखबर बेहद खस्ता हालत में अपनी बैठक में पड़ा था। उसकी बगल में एक युवक बैठा था। उसने बताया कि वह अमृत लाल का पड़ोसी था। विमल ने उससे पूछा कि अमृत लाल की वह हालत कैसे हुई? मालूम हुआ कि पिछली रात को जब वह घर लौटा था तो कुछ बदमाश वहां घुस आए थे और उस पर टूट पड़े थे। वे उसे मार मार कर अधमरा कर के वहां से चले गए थे और अड़ोस पड़ोस में किसी को खबर भी नहीं लगी थी। फिर आज दिन में उसका कोई दोस्त बाहर से वहां पहुंचा था तो उसी ने अमृत लाल को मरणासन्न अवस्था में बैठक के फर्श पर पड़ा पाया था। उस दोस्त ने डॉक्टर बुलवा कर उसकी मरहम पट्टी करवाई थी और उस युवक से उसका खयाल रखने की प्रार्थना करके वहां से चला गया था।

विमल ने देखा, अमृत लाल का सारा जिस्म मार के निशानों से नीला पड़ा हुआ था। कई जगह जख्म आए थे, बाएं हाथ की एक और दाएं हाथ की तीन उंगलियां टूट गयी थीं और तीन चार पसलियां चटक गयी थीं।

एक ही शख्स था जिससे ऐसी नृशंसता की अपेक्षा की जा सकती थी।

हरनामसिंह गरेवाल।

क्या वह इस आदमी से मायाराम का पता जानने में कामयाब हो गया था? क्या इस आदमी को मायाराम का पता मालूम था?

“अब इसकी हालत कैसी है?” — विमल ने पूछा।

“अभी तो खराब ही है।” — युवक बोला — “डॉक्टर साहब ने इसे बेहोशी का टीका लगाया है ताकि इसे पूरा आराम मिल सके।”

“यह होश में कब आएगा?”

“कल रात को। पूरे चौबीस घंटे बाद।”

अगर अमृत लाल कुछ जानता भी था तो भी विमल इतनी देर इंतजार नहीं कर सकता था। क्या पता अभी भी बहुत देर हो चुकी हो! क्या पता अब तक गरेवाल मायाराम को तलाश कर चुका हो और उससे डकैती की दौलत हथिया चुका हो।

अब एक ही दरवाजा बाकी रह गया था जिसको खटखटाने से कोई नतीजा हासिल हो सकता था :

कपूरथले का थानेदार अमरीकसिंह गिल।

हालांकि उसके पास भी फटकना खतरनाक साबित हो सकता था लेकिन उसके अलावा अब कोई और चारा भी तो नहीं था।

फिलहाल उसने चंडीगढ़ लौटने का ही फैसला किया।

चंडीगढ़ लौटने से पहले उसने ‘रीजेंटʼ में ही जा कर खाना खाया और फिर कार में आ सवार हुआ। उसने कार आगे बढ़ाई।

वह बहुत थका हुआ था। रह रह कर उसकी आंखें मुंदी जा रही थी। इसलिए वह कार बहुत धीमी रफ्तार से चला रहा था। लेकिन पंद्रह बीस मील आगे बढ़ने के बाद ही उसे अनुभव होने लगा कि अब पूरी एकाग्रता से कार चला पाना उसके बस का काम नहीं था। बड़ी मुश्किल से वह अम्बाला कैंट तक पहुंचा। उसने रेलवे स्टेशन की पार्किंग में कार खड़ी की और उसके सारे शीशे चढ़ा कर पिछली सीट पर सो गया।