जगमोहन की आँखें सिकुड़ी। चेहरे पर कठोरता आती चली गई। D.C.M.B बैंक वैन को वो तेज रफ्तार से दौड़ा रहा था। इस सड़क पर ज्यादा ट्रैफिक नहीं था।
परन्तु अब काफी आगे उसने सड़क के बीचों-बीच पुलिस जिप्सी खड़ी देखी। पास में खाकी वर्दी में पुलिस वाले भी दिखे। उनकी वैन को रोकने के लिए पुलिस ने पूरा इंतजाम कर रखा था।
"ये...ये...।" सुदेश के होंठों से निकला--- "आगे पुलिस है। सड़क घेर रखी है।"
जगमोहन के होंठ भिंचे रहे। वैन दौड़ती रही।
"क्या करें?" सुदेश की आवाज में बेचैनी आ गई थी।
"एक ही खतरा है कि ये वैन के टायर पर गोली न मारें---।" जगमोहन कह उठा।
"पीछे की क्या पोजीशन है?"
जगमोहन ने साइड मिरर पर नजर मारी।
"काफी पीछे पुलिस कार है।"
"पुलिस वाले हमें घेर रहे हैं।" सुदेश के दाँत भिंच गए।
"हम जितनी भी पुलिस की नजरों में रहेंगे, सड़क पर दौड़ते रहेंगे, उतना ही पुलिस को वक्त मिलेगा हमें घेरने का...।"
सुदेश कुछ न कह सका।
वो जगह अब करीब आ गई थी, जहाँ सड़क पर पुलिस जिप्सी आड़ी-तिरछी खड़ी थी।
जगमोहन ने वैन की रफ्तार कम करनी शुरू कर दी।
सुदेश के शरीर में भय से भरी झुरझुरी दौड़ गई।
"तुम--- तुम क्या करने जा रहे हो?" उसने चौंक कर जगमोहन को देखा।
"देखते रहो...।"
"तुम वैन को रोकने जा रहे हो? पुलिस मुझे डकैती के जुर्म में गिरफ्तार कर लेगी।"
जगमोहन के होंठों के बीच जहरीली मुस्कान रेंग उठी।
"तुम तो पहले बहुत बहादुर बन रहे थे...।"
"तब मैंने सोचा था कि पुलिस इस मामले में नहीं आएगी।"
"गलत सोचा था। ये क्यों भूले कि इस वैन में 60 करोड़ की रकम है।"
"डकैती जैसी बातों का मुझे अनुभव नहीं...।"
"पुलिस से कहना ये बात।"
"तुम करने क्या जा रहे हो?"
वैन की रफ्तार अब पच्चीस पर आ गई थी।
सामने सड़क पर आड़ी-तिरछी पुलिस जिप्सी खड़ी थी। सड़क के एक किनारे पर तीन पुलिस वाले खड़े थे। दूसरे किनारे पर चार खड़े थे। एक पुलिस वाला बीच में खड़ा था। तीन के हाथों में रिवाल्वरें थीं और दो के हाथों में गन थी। बाकी ने दो डंडे पकड़ रखे थे।
पल-प्रतिपल फासला कम होता जा रहा था।
"तुम बताते क्यों नहीं कि क्या करने वाले हो?"
"मैं पुलिस जिप्सी को टक्कर मारकर निकलने वाला हूँ।" जगमोहन ने कठोर स्वर में कहा।
सुदेश ने गहरी साँस ली।
तीस फीट का फासला रह गया था वैन और जिप्सी के बीच में। पुलिस वालों के चेहरे साफ नजर आ रहे थे। सड़क के बीचो-बीच रिवाल्वर थामें जो पुलिस वाला खड़ा था, वो इस बात को लेकर सतर्क नजर आ रहा था कि कहीं वैन उसके ऊपर ना चढ़े। वो अपनी जगह छोड़ने को तैयार खड़ा था।
फासला जब बीस फीट का था तो जगमोहन ने एक्सीलेटर पैडल दबा दिया।
जबकि रफ्तार धीमी होने पर पुलिस वाले सोच रहे थे कि वैन रुकने जा रही है।
बैंक वैन एकाएक रफ्तार से आगे को रपटी।
जगमोहन ने जिप्सी के पीछे वाले हिस्से में टक्कर मारी। उसी पल जिप्सी घूमती चली गई और वैन रफ्तार से सड़क पर दौड़ती चली गई।
घूमकर जिप्सी सड़क पर ही पुनः आड़ी-तिरछी खड़ी हो गई।
वैन कब की निकल चुकी थी।
पुलिस वाले वैन पर फायरिंग भी नहीं कर पाए। क्योंकि सड़क पर और लोग भी नजर आ रहे थे। पुलिस वालों की हालत देखने लायक थी। पुलिस जिप्सी पीछे की तरफ से बुरी तरह से पिचक चुकी थी।
"गाड़ी संभालो। हमें पीछे जाना है।" सब-इंस्पेक्टर चीखा।
"सर।" कॉन्स्टेबल हड़बड़ाया सा कह उठा--- "इंजन ऑयल लीक करने लगा है।"
"वो सर--- पुलिस कार आ रही है।"
सबकी निगाह उस तरफ रुकी।
तभी पुलिस कार पास आकर रुकी। ब्रेक से टायर चीख उठे।
"वैन कहाँ गई?" उसमें बैठा इंस्पेक्टर गर्दन बाहर निकालकर चीखा।
"आगे--- वो, उधर।"
"इतने लोग हो तुम और वैन को रोक नहीं सके---चलो।" इंस्पेक्टर ने कहा।
पुलिस कार पुनः कच्ची सड़क पर रास्ता बनाती, वैन की दिशा में दौड़ पड़ी।
◆◆◆
वैन रफ्तार से दौड़ रही थी।
सूर्य सिर पर चढ़ा चमक रहा था।
सुदेश के चेहरे पर व्याकुलता नाच रही थी। वो बोला---
"इस तरह तो हम ज्यादा देर तक नहीं बचे रह सकते...।"
"मेरा भी यही ख्याल है। तुम्हारी ठिकाना कहाँ है, जहाँ तुमने जाना था?"
"उसके लिए तो हमें पीछे से मुड़ना था।"
"हमें कहीं रुकना होगा।"
"क्या मतलब?"
"वैन के साथ हमें कहीं रुकना-छिपना होगा। कम से कम अँधेरा होने तक।"
"इतनी बड़ी वैन के साथ हम कहाँ छिप सकते हैं?" सुदेश ने जगमोहन को देखा।
"कोई जगह तलाशनी होगी। हम इसी तरह भागते रहे और पुलिस को हमारे यहाँ-वहाँ होने की खबर मिलती रही तो हम कहीं न कहीं पुलिस के घेरे में आ ही जायेंगे।" जगमोहन ने सख्त स्वर में कहा।
"मैं तुम पर निर्भर हूँ इस मामले में...। तुम जो करोगे, ठीक करोगे।"
जगमोहन वैन दौड़ाता कह उठा---
"तुम लोगों को क्या चाहिए, जो वैन में पड़ा है?"
"तुम बेकार कोशिश कर रहे हो...।"
"नहीं बताओगे?"
"पुलिस से बचने की सोचो। मेरे बारे में कुछ मत सोचो।" सुदेश कह उठा।
वैन दौड़े जा रही थी।
इधर ज्यादा ट्रैफिक नहीं था।
बाई तरफ सड़क से काफी दूर गाँव बसा नजर आ रहा था। जगमोहन की निगाह बार-बार उस गाँव की तरफ उठ रही थी। तभी उसने दूर ही देख लिया कि सड़क से एक रास्ता गाँव की तरफ जा रहा है। जगमोहन वैन धीमी करने लगा। डोर मिरर पर निगाह मारी तो पीछे कोई पुलिस कार आती न दिखी।
"यहाँ किधर?" सुदेश उसका इरादा समझकर कह उठा।
"कहीं तो जाना ही है...। इधर ही सही...।"
"उधर गाँव लगता है।"
"देख लिया है मैंने।"
"वहाँ फँस जायेंगे।"
"सड़क पर वैन दौड़ाते रहने से बेहतर है वैन गाँव में ले जाकर खड़ी कर देना।"
सुदेश ने कुछ नहीं कहा।
जगमोहन ने उस मोड़ पर वैन को कच्चे में उतारा और गाँव की तरफ वैन बढ़ा दी।
धूप में वो गाँव जैसे तपता सा लग रहा था।
"पता नहीं क्या होने वाला है?" सुदेश परेशान सा कह उठा।
"अगर मैं वैन से उतर जाता तो क्या तुम इस तरह पुलिस से बचने के लिए भाग सकते थे?" जगमोहन ने पूछा।
"नहीं।" सुदेश ने इन्कार में सिर हिलाया।
"इसीलिए कहा जाता है कि अपनी औकात के बाहर के कामों में हाथ मत डालो।"
"मैं जो कर रहा हूँ, वो मेरी ड्यूटी है।"
"तुम ये ड्यूटी पूरी करने के काबिल नहीं थे। मलिक महा बेवकूफ इन्सान है कि उसने तुम्हारे हवाले ये काम किया।"
सुदेश चुप रहा।
गाँव तक पहुँचने का आधा रास्ता पार हो गया था।
उसी पल सुदेश का फोन बजा। दूसरी तरफ मलिक था।
"तुम कहाँ हो?"
"बार-बार मुझे फोन मत करो।" सुदेश झल्ला उठा।
"सुदेश!" मलिक की आवाज में कठोरता आ गई--- "तुम किस तरह बात कर रहे हो?"
सुदेश ने गहरी साँस ली, फिर शांत स्वर में कह उठा---
"सॉरी! मैं इस वक्त परेशानी में हूँ। पुलिस वैन के पीछे है। हम कई बार पुलिस से बचे हैं।"
"ये गलत हुआ। जगमोहन क्या ठीक से तुम्हारा साथ दे रहा है?"
"हाँ।"
"इस वक्त कहाँ हो?"
"पता नहीं। बाद में बात करूँगा। अभी हम कहीं छिपने की सोच रहे हैं।" सुदेश ने कहा।
"वैन के साथ?"
"हाँ।"
"इतनी बड़ी वैन के साथ इस दोपहर में कैसे छिप सकते हो? जब कि पुलिस पीछे हो---।"
"तुम फोन बंद करो।" सुदेश झल्लाया--- "तुम्हें पहले ही सोचना चाहिए था कि पुलिस बीच में आ सकती है...।"
"मैं समझ सकता हूँ तुम्हारी हालत। ये गलती मेरे से हो गई। वरना कुछ और भी सोच के रखता।"
"अम्बा, जगदीश, मल्होत्रा कहाँ हैं?"
"वो तुम्हारी वैन के पीछे थे, परन्तु अब वैन को खो चुके हैं।" उधर से मलिक ने कहा।
"उन्हें वापस बुला लो। अब हमारा बचना भगवान भरोसे ही है।"
"तुम मुझे खबर देते रहना कि कहाँ हो--- कैसे हो और...।" मलिक के स्वर में परेशानी थी।
"दूँगा।" कहकर सुदेश ने फोन बंद कर दिया।
गाँव अब पास आने लगा था।
वो कच्चा-पक्का गाँव था।
ईंटों वाले मकान भी नजर आ रहे थे और फूंस के बने कच्चे मकान, झोपड़े भी दिखाई दे रहे थे। अब गाँव को जाती सड़क खत्म हो गई थी और कच्चे रास्ते पर, वैन धूल उड़ाती आगे बढ़ रही थी।
"हमें उस सड़क से भी देखा जा सकता है।" सुदेश खिड़की से बाहर, पीछे की तरफ देखता बोला।
"मुझे नहीं लगता कि पुलिस हमें देख सकती है। हम उस सड़क से काफी दूर हैं।"
"वहाँ से वैन पहचानी जा सकती है...।"
जगमोहन ने कुछ नहीं कहा। वैन गाँव में प्रवेश कर चुकी थी। रफ्तार कम हो गई थी। गाँव में कहीं ईटों की चौड़ी गली थी। भैंसा-बुग्गी, घोड़ा-गाड़ी, बैलगाड़ी जैसी चीजें नजर आ रही थीं। गाय-भैंस गली के बीच ही बांध रखी थीं। कहीं-कहीं गाय-भैंसे बड़े से मकानों के आहते में भी बंधी थीं।
बेढंगा रास्ता होने के कारण वैन इधर-उधर डोल रही थी।
"यहाँ हम कैसे बचे रह सकते हैं?" सुदेश बेचैनी से बोला।
आते-जाते इक्का-दुक्का लोग सरसरी निगाह से वैन को देख लेते थे।
तभी गली के अंत में जगमोहन ने एक स्कूल बना देखा। ज्यादा बड़ा स्कूल नहीं था। आठ-दस कमरे थे। बीचों-बीच आहता बना था। जहाँ लोगों ने गाय-भैंसें बांध रखी थीं। स्कूल के गेट पर एक पल्ला टूट कर गिरा हुआ था। दूसरा नीचे झूल रहा था। इतना रास्ता था कि वैन को भीतर ले जाया जा सके।
जगमोहन ने वैन को स्कूल के भीतर जानवरों के पास ले जाकर रोका। इंजन बंद कर दिया।
दोनों की नजरें मिलीं।
एक तरफ चारपाई पर बूढ़ा सा आदमी बैठा था--- जो कि वैन के इंजन की आवाज सुनकर उठ बैठा।
तभी वैन के पीछे की तरफ खटका हुआ।
"यह कोई गड़बड़ ना कर दे...।" सुदेश के होठों से निकला।
"कुछ नहीं कर सकता वो। बंद है।" जगमोहन ने नजरें दौड़ाते हुए कहा।
सुदेश भी हर तरफ देख रहा था।
यहाँ हम शाम तक वैन कैसे खड़ी कर सकते हैं?"
"देखते रहो।" जगमोहन ने वैन की चाबी निकालकर हाथ में ली और दरवाजा खोलकर वैन से बाहर आ गया।
सुदेश भी वैन से बाहर निकला।
"तुम वैन के पास ही रहो।" जगमोहन ने कहा।
"चाबी मुझे दे दो।"
"नहीं। तुम वैन लेकर भाग सकते हो।"
सुदेश ने नाराजगी भरी नजरों से जगमोहन को देखा।
जगमोहन उस बूढ़े की तरफ बढ़ गया, जो कि चारपाई पर बैठा उसे देख रहा था।
"राम-राम ताऊ।" पास पहुँचता जगमोहन दोस्ताना ढंग में कह उठा।
"राम-राम।" बूढ़े ने चारपाई पर एक तरफ खिसकते हुए कहा--- "तू कौन होवे?"
जगमोहन चारपाई के दूसरे हिस्से पर बैठता कह उठा---
"ड्राइवर हूं ताऊ। मालेगाँव में रहता हूँ।"
"यां कूं आवे?"
"बन्तराम से मिलने आया हूँ। बन्ते बोते कि उसके गाँव में नेई आता सो आज आ गया।"
"बन्ता? कौन सा बनता बोले तू?"
"बन्तराम।"
"वो ही।" बूढ़ा सिर हिलाकर उठा--- "गाँव में तो बीसियों बन्ते होवे।"
"छोटे से कद का है। मूंछें हैं। कमीज-पायजामा पहनता है।" जगमोहन ने सरल स्वर में कहा।
"इस तरह तू बन्ते तो ढूंढे हो?" बूढ़े ने उपहास उड़ाने वाले स्वर में कहा।
"क्यों--- नहीं मिले वो क्या?"
"नहीं। मूंछें सब रखते हैं। कमीज-पायजामा भी पहनते हैं। कद भी ऐसा कुछ ही है जैसा तूने बोला।"
"मैं देखकर पहचान लूँगा।"
"खाक छान ले गाँव की। इस दोपहर में तो कोई दरवाजा भी ना खोले।"
"तो शाम को उसके बारे में पता करुँ?"
"हाँ। अभी तो सब आराम कर रहे होंगे। बन्तराम के बाप का नाम क्या है?"
"मुझे क्या पता?"
"बाप का नाम पता होता तेरे को तो मैं उसका घर बता देता।"
"यारी-दोस्ती में बाप का नाम बीच में कैसे आएगा ताऊ--- वो तो---।"
"मैंने कोई और भी है जगमोहन की तरफ नजरहां मेरा साला है जबरदस्ती खींच लाया उसे साथ में बुला दे मैं तुम्हें गरमा गरम दूध चीनी डालकर पिलाता हूं घर में आसपास देखा है यहां तो गायब ही नजर आ रही है गर्म कहां होगा वह सामने मेरा घर है 5 मिनट में दूध आ जाएगा मेरा एक काम तो कर दे या ताऊ मेरा बेटा बढ़िया ट्रैक्टर चला लेता है तो शहर में कहीं उसकी नौकरी लगवा दे।"
"ट्रैक्टर चलाने की नौकरी?"
"नहीं--- ट्रक की। ट्रैक्टर बढ़िया चलाता है। तो ट्रक भी बढ़िया चलायेगा।"
"ताऊ--- भैंस का पेशाब तो देखा होगा कि कैसा होता है?"
"हाँ--- क्यों?"
"अब भैंस जैसा पेशाब करती है, वैसा दूध तो नहीं देती?"
"मैं समझा नहीं...।"
"ट्रैक्टर चलाने वाला, ट्रक नहीं चला सकता। ट्रैक्टर खेतों में चलता है, जिधर भी मोड़ दो, कोई पूछने वाला नहीं। लाइसेंस की भी जरूरत नहीं। जबकि ट्रक हाईवे पर चलता है। जरा सी गलती हुई नहीं कि जीवन की कहानी खत्म।"
"तू अपने वाला छोटा ट्रक दे दे उसे। वह चला लेगा।"
जगमोहन ने वैन पर नजर मारी, जिसे वह छोटा ट्रक कह रहा था।
"रहने दे ताऊ। कहे तो शहर में तेरे को कमाई का रास्ता बता दूँ। तेरा बेटा ड्राइवर से ज्यादा कमा लेगा।"
"बता... बता।"
"अपने बेटे को रिक्शा खरीदकर शहर भेज दे। लाइसेंस की जरूरत नहीं। परमिट लेने की जरूरत नहीं। जहाँ मन करे, घुसेड़ दो। हर तरफ हरा ही हरा है। सवारियों की कमी नहीं। दौड़ेगा यह काम!"
"सच?"
"हाँ। ट्रैक्टर चलाने वाले के लिए इससे बढ़िया दूसरा कोई काम नहीं।"
"ये तूने बढ़िया कही...।" बूढ़ा उठता हुआ बोला--- "मैं तेरे लिए दूध लाता हूँ। अपने साले को भी बुला ले। बन्तराम को छोड़। मेरा ही मेहमान बन कर रह तू। रिक्शे के बारे में बहुत कुछ जानना है तेरे से।"
बूढ़ा स्कूल के टूटे गेट की तरफ बढ़ गया।
सामने ही पक्का मकान बना दिखाई दिया।
जगमोहन उठा और वैन के पास जा पहुँचा।
"उससे क्या बातें कर रहे थे? वह कहाँ गया?" सुदेश उसके पास पहुँचते ही कह उठा।
"पटा रहा था, यारी गाँठ रहा था। बात बन गई लगती है, हम शाम तक आसानी से यहाँ रह सकते हैं।"
"वो कहाँ गया है?"
"गर्म दूध लाने। मैंने बतलाया कि मेरे साथ मेरा साला है, यानी कि तू है।"
सुदेश वैन से बाहर आ गया।
"यहाँ पुलिस हमारी तलाश में आ गई तो?"
"तब की तब देखेंगे---।" कहने के साथ जगमोहन ने वैन की रोशनदान पर लगी जाली के बीच फँसी चादर को देखा।
वो अभी तक अपनी जगह पर टिकी हुई थी।
दूसरी तरफ देखा। वहाँ भी सब ठीक था।
भीतर मौजूद गनमैन को बाहर का कुछ भी नजर नहीं आ सकता था।
"मैंने इतना बुरा वक्त कभी नहीं देखा...।" सुदेश बोला।
"मुझे तो लगता है कि तूने अभी तक कुछ देखा ही नहीं है।" कहकर जगमोहन चारपाई की तरफ बढ़ गया।
सुदेश उसके साथ था।
"तुमने बूढ़े को क्या पट्टी पढ़ाई?"
"आएगा तो समझ जाओगे...।" जगमोहन मुस्कुराया---वो अपने बेटे को शहर में ड्राइवरी करवाना चाहता है।"
"तो इस बात को लेकर तुमने उसे पटा लिया?"
"हाँ, मैंने उसे समझाया कि शहर में ट्रक चलाने से रिक्शा चलाना ज्यादा ठीक रहेगा।"
सुदेश ने गहरी साँस ली।
"पता नहीं--- तुम इस तरह की बातें, मुसीबत के वक्त में कैसे कर लेते हो?"
"मैंने अपने काम की बहुत पढ़ाई कर रखी है। मुझे मालूम रहता है कि हालातों से कैसे मुकाबला करना है...।"
"कभी फँस भी जाते होगे।"
"बहुत कम, शायद ही कभी।"
"तब क्या करते हो?"
"तब ऊपर वाला जुगाड़ भिड़ा देता है।"
वो चारपाई पर जा बैठे।
"तुम अपना फोन दो तो मैं एक फोन कर लूँ।"
"देवराज चौहान को?"
"हाँ।"
"कभी नहीं।"
"तेरा क्या जाता है, जो मैं देवराज चौहान से बात---।"
"एक फोन से तू सारी बाजी पलट सकता है।देवराज चौहान यहाँ आ सकता है। वैन पर कब्जा जमा सकता है। मुझे गोली मारी जा सकती है। तब जो हो जाए, वही कम होगा।" सुदेश का स्वर सख्त हो गया।
"तू मेरे बारे में यह विचार रखता है?"
"यह याद रख कि हम साथ-साथ हैं, लेकिन हममें किसी भी तरह का याराना नहीं हो सकता।" सुदेश कह उठा।
"मैं कब से तेरे काम आ रहा हूँ---। वरना मैं छोड़कर भी जा सकता था।"
"तू कभी भी वैन छोड़कर नहीं जाएगा।"
"क्यों?"
"60 करोड़ जो है वैन में। तू मेरे लिए कुछ नहीं कर रहा है। उन साठ करोड़ के लिए वैन को भगाये फिर रहा है।"
"मैं तेरे को ऐसा लगता हूँ?"
"बहुत कमीना है तू।"
"वो आ गया...।" जगमोहन की इधर-उधर घूमी।
वो बूढ़ा तेज-तेज कदमों से इधर आ रहा था। उसके पीछे घूँघट ओढ़े युवती हाथ में थाम रखे थाल में दूध के भरे गिलास रखे आ रही थी।
"यह मेरे उस बेटे की बहू है, जिसकी ड्राइवरी की मैं बात कर रहा था।" बूढ़ा 20 कदम दूर से ही कह उठा--- "महीना भर पहले तो ब्याह हुआ है। पहली बार किसी मेहमान के स्वागत के लिए बाहर निकली है...।"
जगमोहन ने सुदेश को देखकर धीमे स्वर में कहा---
"इसे अपनी बहन समझकर बात करना। कुछ गड़बड़ मत करना। ये गाँव वाले हैं और...।"
"मैं तुम्हारी तरह नहीं हूँ। हर औरत को अपनी माँ-बहन समझता हूँ।"
"मेरी तरह? मैं कैसा हूँ? बोल, तेरे को क्या पता कि मैं कैसा...।"
तब तक बूढ़ा पास आ पहुँचा था।
"पैर छू बहू इनके। ये रामू को शहर में रिक्शा चलवा देंगे।" ड्राइवरी में इतनी कमाई नहीं, जितनी रिक्शे में हो जाती है। क्यों, मैंने ठीक कहा ना ड्राइवर बाबू?" बूढ़े ने मुस्कुरा कर कहा।
जगमोहन उसे देख कर मुस्कुराया।
"लो...गर्म दूध पियो। बहू ने मोटी इलायची डालकर गर्म किया है, खूब चीनी डाली है।"
◆◆◆
0 Comments