परियों की पहाड़ी पर

ह नन्ही हरी बत्तियाँ जिन्हें मैं परी टिब्बा पर टिमटिमाते देखता था—उसका कोई वैज्ञानिक आधार भी होगा। मैं इसके लिए निश्चित था। अँधेरे के बाद हम बहुत-सी ऐसी चीज़ें देखते या सुनते हैं जो रहस्यमयी या अतार्किक लगती हैं। और फिर दिन के उजाले में हम पाते हैं कि उस जादू या रहस्य की एक परिभाषा ज़रूर है।

मैं उन बत्तियों को कभी-कभी देखता था, देर रात में, जब मैं शहर से जंगल के किनारे पर बने अपने कॉटेज में लौटा करता था। वे इतनी तेज़ी से चलती थीं कि कोई टॉर्च या लालटेन थामे व्यक्ति नहीं चल सकता। और चूँकि परी टिब्बा पर कोई सड़क नहीं थी, वे बत्तियाँ कोई साइकिल या गाड़ी का लैम्प नहीं हो सकती थीं। किसी ने मुझे बताया कि चट्टानों में फास्फोरस है और सम्भवतः यह कथन देर रात को चमकती उन रोशनियों के लिए सही माना जा सकता था। शायद, लेकिन मैं सहमत नहीं था।

उन छोटे लोगों से मेरा सामना दिन के उजाले में हुआ।

अप्रैल में एक सुबह, तड़के, मैंने परी टिब्बा के शीर्ष पर चढ़कर खुद पता करने की सोची। हिमालय की तलहटी में वह वसन्त का मौसम था। पौधों का रस बढ़ रहा था—पेड़ों में, घास में,जंगली फूलों में, मेरी अपनी शिराओं में। मैंने सिन्दूर के जंगल से गुज़रता हुआ रास्ता लिया जो नीचे पहाड़ी की तलहटी की नन्ही धारा तक जाता था और वहाँ से ऊपर परी टिब्बा की खड़ी चोटी पर, परियों की पहाड़ी।

ऊपर चढ़ना बहुत संघर्षपूर्ण था। रास्ता ढलान के नीचे धारा के पास खत्म हो गया था। मुझे जंगली बेरियों और घास से भरे पहाड़ी पत्थरों को पकड़ कर ऊपर चढ़ना पड़ा। देवदार की नुकीली पत्तियाँ, ज़मीन की फिसलन, पैरों को जमने में दिक्कत दे रही थी। लेकिन आखिरकार मैं ऊपर पहुँच गया—एक घास का मैदान जहाँ देवदार के पेड़ झालर की तरह लगे थे और कुछ जंगली फल के पेड़ जिन पर उजले फूल लगे थे।

वह एक सुन्दर जगह थी, लेकिन मुझे गर्मी लग रही थी और पसीना आ रहा था। मैंने अपने लगभग सारे कपड़े उतार लिये और फल के पेड़ के नीचे लेट गया। चढ़ाई बहुत थकाने वाली थी। लेकिन ताज़ी हवा ने मुझे राहत दी जो देवदारों के बीच हल्के से गुनगुना रही थी। घास, पीले फूलों से छितराई हुई, झींगुर और टिड्डों की आवाज़ से भरी हुई थी।

थोड़ी देर बाद मैं उठा और मैंने उस नज़ारे को निहारा। उत्तर में अपने पुराने लाल पत्थरों से बने कॉटेज के साथ खेतिहर ज़मीन थी तो दक्षिण में विशाल घाटी और एक चाँदी-सी चमकती धारा गंगा की ओर बहती हुई। पश्चिम में दूर तक फैली पहाड़ियाँ इधर-उधर कहीं जंगल और उनके बीच एक छोटा सा गाँव था।

मेरी उपस्थिति से परेशान, एक हिरण मैदान से होते हुए सामने वाले ढलान पर भाग गया। लम्बी पूँछ वाली नीलकंठ चिड़िया का दल सिन्दूर के पेड़ से उड़कर, टीले से होते हुए, सिन्दूर के अन्य पेड़ों के समूह पर जाकर बैठ गया।

मैं अकेला था, हवा और आकाश के साथ अकेला। लगभग महीनों, शायद सालों से इस तरफ़ कोई इन्सान नहीं आया था। मुलायम, हरी घास आमन्ति्रत करती दिख रही थी। मैं सूरज की रोशनी से गर्म हुई धरती पर लेट गया। मेरे वज़न से दबे और घायल, घास में उग रहे कैटमिंट और क्लोवर के पौधे अपनी भीनी-भीनी खुशबू छोड़ने लगे। लाल-काली चित्तियों वाला लेडीबर्ड कीड़ा मेरे पैर पर चढ़ा और मेरे शरीर का संधान करने लगा। सफ़ेद तितलियों का एक समूह मेरे आस-पास चक्कर काट रहा था।

मैं सो गया।

मुझे अन्दाज़ा नहीं कि मैं कब तक सोया रहा। जब मैं जागा, तो एक विचित्र लेकिन राहत देने वाली उत्तेजना अपने अंगों में महसूस की, जैसे उन पर गुलाब की पत्तियाँ हौले-हौले फेरी जा रही हों।

मेरी सारी सुस्ती दूर हो गयी थी, मैंने अपनी आँखें खोलीं तो एक नन्ही लड़की को देखा—या वह कोई औरत थी—लगभग दो इंच लम्बी, पालथी मारकर मेरे सीने पर बैठी और एकाग्रचित्त होकर मेरा अध्ययन करती हुई। उसके लम्बे, काले बाल खुले हुए थे। उसकी त्वचा का रंग शहद जैसा था। उसके पुष्ट नन्हे वक्ष बलूत के छोटे फलों जैसे थे। उसके हाथ में एक पीला फूल था, जो उसकी हथेली से बड़ा था और वह उस फूल को मेरे शरीर पर फेर रही थी।

मुझे पूरे शरीर में गुदगुदी-सी हो रही थी। मेरे पूरे शरीर में कामुक खुशी की अनुभूति दौड़ गयी।

एक नन्हा लड़का या क्या वह आदमी था और वह भी नग्न। अब उस परी समान लड़की के साथ शामिल हो गया था और उन्होंने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा और मेरी आँखों में देखा, मुस्कुराते हुए। उनके दाँत नन्हे मोतियों की तरह थे, उनके होंठ खुबानी के फूल की मुलायम पंखुड़ियों से थे। क्या वे प्रकृति के जीव थे, फूल परियाँ, जिनको मैंने अक्सर सपने में देखा था।

मैंने अपना सिर उठाया और देखा कि मेरे आस-पास हर तरफ़ नन्हे लोगों का झुंड है। वे मुलायम और सौम्य जीव मेरे पैरों, हाथों और मेरे शरीर को हल्के-हल्के सहला रहे थे। उनमें से कुछ मुझे ओस और फूलों के रस और कुछ अन्य नरम खुशबुओं से नहला रहे थे। मैंने अपनी आँखें फिर बन्द कर लीं। शुद्ध शारीरिक आनन्द की एक लहर ने मुझे घेर लिया। मुझे इस तरह की अनुभूति पहले कभी नहीं हुई थी। यह अनन्त थी, मुझे खुद में समेटती हुई। मेरे शरीर के अंग पानी में बदल गये थे। आकाश मेरे चारों ओर घूम रहा था और मैं ज़रूर बेहोश हो गया था।

जब मैं जागा, शायद एक घंटे बाद, वे नन्हे लोग चले गये थे। मधुलवंग की खुशबू हवा में ठहरी हुई थी। सिर पर एक तेज़ गर्जन ने मुझे ऊपर देखने को बाध्य किया। काले बादल जमा हो गये थे, बारिश की चेतावनी देते हुए। क्या बादलों की गरज ने उन्हें डरा दिया जिससे वे पत्थरों और जड़ों के नीचे बने अपने आशियाने में छुप गये थे? या वह एक अनजान नवागंतुक के साथ खेलते हुए बस थक गये थे? वे शरारती थे; क्योंकि जब मैंने चारों ओर अपने कपड़े खोजे, मुझे वे कहीं नहीं मिले।

एक आतंक की लहर मुझमें दौड़ गयी। मैं यहाँ-वहाँ दौड़ा, झाड़ियों और पेड़ की शाखाओं के पीछे देखता हुआ, लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ। मेरे कपड़े परियों के साथ गायब हो चुके थे—अगर वे सच में परियाँ थीं!

बारिश होने लगी थी। सूखे पत्थरों पर बड़ी बूँदें गोलों की तरह बरसने लगी थीं। फिर ओले पड़ने लगे और ढलान बर्फ़ से ढँक गयी। वहाँ कोई छाया नहीं थी। नग्न, मैं धारा तक कैसे भी संघर्ष करके पहुँचा। वहाँ मुझे देखने वाला कोई नहीं था—सिर्फ़ एक जंगली पहाड़ी बकरी के अलावा जो विपरीत दिशा में भागी जा रही थी। हवा के झोंके, बारिश और ओले मेरे चेहरे और शरीर पर फेंक रहे थे। हाँफते और काँपते हुए, मैंने एक लटकते हुए पत्थर के नीचे शरण ली, जब तक तूफ़ान गुज़र नहीं गया। तब तक शाम हो गयी थी और मैं अपने कॉटेज के लिए जाते रास्ते पर चढ़ चुका था, हतप्रभ लंगूरों के झुंड को छोड़कर बिना किसी और का सामना किये हुए, जो मुझे देखकर उत्तेजित होकर बतियाने लगे थे।

मैं लगातार काँप रहा था, इसलिए सीधा बिस्तर में घुस गया। मैं एक गहरी, बिना सपने की नींद में पूरी दोपहर, शाम और रात सोता रहा और दूसरी सुबह तेज़ बुखार के साथ जागा।

यंत्रवत मैंने कपड़े पहने, अपने लिए थोड़ा नाश्ता बनाया और सुबह के काम निबटाने की कोशिश की। जब मैंने शरीर का तापमान देखा, वह 104 था, इसलिए मैंने एक ब्रूफेन की गोली निगली और वापस बिस्तर में घुस गया।

मैं दोपहर देर तक सोता रहा, जब तक डाकिये की दस्तक ने मुझे नहीं जगाया। मैंने अपनी चिट्ठियाँ बिना खोले ही मेज़ पर रख दीं—एक अनुल्लंघनीय अनुष्ठान को तोड़ते हुए—और वापस बिस्तर में घुस गया।

बुखार लगभग एक हफ़्ता रहा और मुझे कमज़ोर और शक्तिहीन कर गया। मैं चाहता भी तो परी टिब्बा पर दोबारा नहीं चढ़ सकता था। लेकिन मैं अपनी खिड़की से बेरंग पहाड़ी पर तैरते बादल देखता। वह उजाड़ प्रतीत होते हुए भी विचित्र रूप से बसा हुआ नज़र आता। जब वह अँधेरे में डूबता, मैं नन्ही हरी बत्तियों के आने का इन्तज़ार करता, लेकिन ऐसा प्रतीत होता था कि उन्होंने मुझे यह देखने से वंचित कर दिया है।

और इसलिये मैं अपनी मेज़ पर लौट आया, मेरा टाइपराइटर, मेरे अखबार के आलेख और मेरी चिट्ठियाँ। वह मेरे जीवन का एक एकाकी समय था। मेरी शादी टूट गयी थी, मेरी पत्नी को उच्च स्तरीय रहन-सहन पसन्द था और जंगलों में बने एक दूरस्थ कॉटेज में एक असफल लेखक के साथ रहने से नफ़रत। वह मुम्बई में अपना एक सफल करियर बना रही थी। मैं हमेशा से पैसे बनाने को लेकर आधे मन से सोच पाता था, जबकि उसे हमेशा अधिक-से-अधिक की चाह थी। उसने मुझे छोड़ दिया—मेरी किताबों और मेरे सपनों के साथ…

परी टिब्बा की वह विचित्र घटना, क्या वह एक सपना थी? क्या मेरी अतिसक्रिय कल्पना ने उन आभासी आत्माओं को वास्तविक किया था, ऊपर हवा में रहने वाले वे सिद्ध? या वे ज़मीन के नीचे रहने वाले लोग थे, पहाड़ियों की गहरी खोह में रहने वाले? अगर मुझे अपना मानसिक सन्तुलन बनाये रखना था तो यही सही था कि मैं रोज़ की उबाऊ जीवन पद्धति को अपनाऊँ—शहर जाकर किराने का सामान खरीदना, चूती हुई छत की मरम्मत कराना, बिजली का बिल जमा करना और उन पुराने बैंक के चेक जमा करना जो मेरे नाम आये थे। यह सभी दैनिक दिनचर्या के कार्य-कलाप जो जीवन को रंगहीन और उबाऊ बनाते हैं।

सच तो यह है कि जिसे सामान्यतः हम जीवन कहते हैं वह बिलकुल भी जीने लायक नहीं है। वे नियमित और स्थायी जीवन प्रक्रिया जिसे हमने जीवन पद्धति की तरह स्वीकार कर लिया है, वास्तव में जीवन का अभिशाप है। वे हमें क्षुद्र और एकरस चीज़ों से बाँधते हैं और उससे छुटकारा पाने के लिए और एक ज़्यादा बेहतर और पूर्ण अस्तित्व पाने के लिए हम कुछ भी करने को तैयार रहेंगे, लेकिन अगर यह सम्भव नहीं हुआ, तो कुछ घंटों के लिए ही इसे शराब, नशीली दवाओं, निषिद्घ शारीरिक सम्बन्धों और यहाँ तक कि गोल्फ़ खेलकर भी भुलाते हैं। इसलिये परियों के साथ भूमिगत हो जाना मुझे असीम सुख देने वाला था। वे नन्हे लोग जिन्होंने मानवजाति के संहारक रवैये से बचकर धरती माँ की शरण ली है, तितलियों और फूलों से नाज़ुक हैं। सभी सुन्दर चीज़ें आसानी से नष्ट कर दी जाती हैं।

मैं अपनी खिड़की पर घिरते अंधकार में बैठा, इन आवारा खयालों को लिख रहा था, जब मैंने उन्हें आते देखा—हाथों में हाथ डाले, कुहरे में लिपटे हुए, इन्द्रधनुष के चमकदार रंगों से सराबोर। इन्द्रधनुष ने उनके लिए परी टिब्बा से मेरी खिड़की तक एक पुल बना दिया था।

मैं उनके साथ उनके गुप्त ठिकाने या ऊपर हवा में जाने को तैयार था—दुनिया की इस जकड़न भरी कैद से दूर जहाँ हम मशक्कत करते हैं…

आओ, परियो, मुझे ले चलो, उसी परिपूर्णता को फिर से महसूस करने के लिए जैसा मैंने उस गर्म दिन में महसूस किया था।