दूसरी सुबह इमरान ने एक पी.सी.ओ. बूथ से कैप्टन फ़ैयाज़ को ग़ज़ाली के कोट के लिए फ़ोन किया। जवाब में फ़ैयाज़ ने बताया कि वह बहुत ज़्यादा मसरूफ़ है, लेकिन किसी-न-किसी तरह एक घण्टे के अन्दर ही कोट उसे भिजवा देगा।

इमरान अपने फ़्लैट में वापस आ कर उसका इन्तज़ार करने लगा, लेकिन कोट से पहले लेडी तनवीर पहुँच गयी। उसका चेहरा पीला पड़ा हुआ था। ऐसा लग रहा था जैसे वह सारी रात जागती रही हो।

‘‘येस माई लेडी।’’ इमरान कुर्सी से उठता हुआ बोला।

‘‘बैठो, बैठो।’’ लेडी तनवीर ने ग़ुस्से के अन्दाज़ में कहा। और ख़ुद भी एक कुर्सी पर बैठ गयी। रूशी किचन में नाश्ता तैयार कर रही थी।’’

‘‘मैं तुमसे बहुत कुछ कहने आयी थी, मगर अब मेरी समझ में नहीं आता कि क्या करूँ। अब मैं तुमसे एक काम और लेना चाहती हूँ।’’

‘‘तौबा, तौबा।’’ इमरान अपने कान पकड़ कर मुँह पीटता हुआ बोला। ‘‘आप काम लेना चाहती हैं या मेरा काम तमाम करना चाहती हैं?’’

‘‘मेरी बात तो सुनो।’’

‘‘सुनाइए साहब!’’ इमरान बेबसी से बोला।

‘‘एक बोगस डॉक्टर के बारे में जानकारी हासिल करनी है जो इसी मामले में सर तनवीर को ब्लैकमेल करना चाहता है। उसने शायद उन्हें ग़ज़ाली के दरवाज़े पर दस्तक देते देख लिया था।’’

इमरान ने एक लम्बी साँस ली। उसके चेहरे पर इत्मीनान दिखने लगा। जैसे कोई बहुत बड़ा मसला हल हो गया हो।

‘‘अच्छा, तो आप दोनों ही यही चाहते थे कि ग़ज़ाली यहाँ से चला जाये।’’

‘‘हाँ, यह सही है।’’ लेडी तनवीर ने जवाब दिया।

‘‘तो फिर आप अब तक यह क्यों ज़ाहिर करती रही थीं कि आप यह सब कुछ सर तनवीर की जानकारी में नहीं कर रही हैं।’’

‘‘ज़रूरत! अगर मैं ऐसा न करती तो तुम्हें मेरा काम म़ज़ाकिया मालूम होता और तुम ग़ज़ाली को छोड़ कर मेरे पीछे पड़ जाते और अगर मैं यह न करती तो पचास हज़ार की पेशकश मसख़रापन होती। मैं दरअसल अपने रवैये से यह ज़ाहिर करना चाहती थी कि मुझे ग़ज़ाली की तरफ़ से ब्लैकमेलिंग का डर है, लेकिन हक़ीक़त यह नहीं थी।’’

‘‘फिर हक़ीक़त क्या है?’’

‘‘कुछ भी हो! लेकिन वह ऐसी नहीं है जिसकी बिना पर ग़ज़ाली की मौत में हमारा हाथ हो सके।’’

‘‘आप नहीं बताना चाहतीं?’’

‘‘मैं सिर्फ़ यह चाहती हूँ कि तुम उस वाक़ये को भूल जाओ। कोई ऐसी हरकत न करो जिससे मेरा भी बुरा हो जाये....और अगर तुम नक़ली डॉक्टर को रोक सको तो उसकी मज़दूरी अलग! वह भी मामूली रक़म न होगी समझे।’’

‘‘समझा। अगर आप दोनों यानी आपके साथ सर तनवीर भी इस मामले में किसी एक ही मक़सद के तहत दिलचस्पी ले रहे हैं तो मुझे इत्मीनान है। लेकिन एक-न-एक दिन तो आपको अपना राज़ मुझे बताना ही पड़ेगा।’’

‘‘बेकार की बातें छोड़ो। उस नक़ली डॉक्टर के लिए क्या करोगे?’’

‘‘भला मैं उसे कहाँ ढूँढता फिरूँगा और फिर अगर उसकी लाश से भी मुलाक़ात हो गयी तो ख़ुदा को क्या मुँह दिखाऊँगा।’’

‘‘इमरान....बेटे.... ख़ुदा के लिए मुझ पर रहम करो।’’

‘‘अच्छा तो जाइए, सर तनवीर से कह दीजिएगा कि जैसे ही डॉक्टर फिर नज़र आये, उसे पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दें, फिर मैं सब कुछ देख लूँगा। आप....मगर....आप....मुझे सब कुछ बतायेंगी।’’

‘‘सर तनवीर से सलाह लिये बग़ैर मैं कुछ नहीं कह सकती.... हाँ, तुम उस बोगस डॉक्टर वाले मामले के लिए कितनी माँग करोगे?’’

‘‘कुछ भी नहीं। मैं यह नेक काम फ़्री करूँगा....!’’

‘‘मैं तुम्हारे बारे में बहुत कुछ जानकारी हासिल कर चुकी हूँ। तुम आख़िर रहमान साहब की म़र्जी के मुताबिक़ ज़िन्दगी क्यों नहीं गुजारते।’’

‘‘वे ख़ुद मेरी म़र्जी के मुताबिक़ ज़िन्दगी क्यों नहीं गुज़ारते....’’ इमरान घड़ी की तरफ़ देखता हुआ खड़ा हो गया और फिर धीरे से बोला। ‘’अब मैं इजाज़त चाहूँगा।’’

लेडी तनवीर चली गयी। लेकिन उसने इमरान के इस रवैये पर बहुत बुरा-सा मुँह बनाया था।

इमरान मेज़ पर तबला बजाने लगा। फिर चौंक कर रूशी को आवाज़ दी।

थोड़ी देर बाद दोनों नाश्ता कर रहे थे....रूशी कुछ उखड़ी-उखड़ी नज़र आ रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे वह झगड़ा करने के लिए कोई बहाना तलाश रही हो।

नाश्ते के दौरान ही कैप्टन फ़ैयाज़ का आदमी ग़ज़ाली का कोट ले कर आया और वापस भी चला गया।

‘‘कारोबार तो अच्छा चल रहा है।’’ इमरान ने रूशी से कहा था और रूशी ने जवाब में ज़मीन और आसमान एक कर दिये। इमरान की शख़्सियत का कोई पहलू ऐसा नहीं बचा जिस पर रूशी ने नुक़्ता-चीनी न की हो।

‘‘परवाह न करो।’’ इमरान बड़बड़ाया। ‘‘एक दिन तुम भी इसकी आदी हो जाओगी।’’

‘‘नहीं, मैं तन्हाई में पागल हो जाऊँगी। तुम मुझे अपने दोस्तों से क्यों नहीं मिलाते।’’

‘‘मिलाऊँगा....ज़रा हालात ठीक हो जाने दो....अच्छा.... हिप....अब मैं काम करना चाहता हूँ।’’

इमरान ने कहा और ग़ज़ाली का कोट उलट-पलट कर देखने लगा। दामन में नीचे की तरफ़ एक छोटा-सा सूराख़ था। जो शायद अँगूठी को अन्दर से निकालने के लिए बनाया गया था। बहरहाल, कोट का अच्छी तरह जायज़ा लेने पर फ़ैयाज़ के बयान की तसदीक़ हो गयी। हक़ीक़त में दूसरा कोई ऐसा सूराख़ मौजूद नहीं था जिस से अँगूठी अस्तर और अपर के बीच में पहुँच सकती हो....फिर वह अँगूठी अन्दर किस तरह पहुँची। इमरान सोचने लगा कि दूसरी सूरत यही हो सकती है कि वह जान-बूझ कर अपर और अस्तर के बीच रखवायी गयी हो। मगर मक़सद....? क्या ख़ुद अँगूठी की हिफ़ाज़त! मगर अँगूठी फ़ैयाज़ के बयान के मुताबिक़ ज़्यादा क़ीमती नहीं थी। उस पर नगीना भी नहीं था। नगीने की जगह बराबर थी और उस पर ‘‘ग़ज़ाली’’ ख़ुदा हुआ था। वह सोच रहा था कि अँगूठी पर नाम खुदवाना भी कम-से-कम मौजूदा दौर में चलन नहीं है। फिर मक़सद....?

वह काफ़ी देर तक ख़यालों में डूबा रहा फिर उसने ग़ज़ाली के कोट का अस्तर उधेड़ना शुरू कर दिया....देर ज़रूर लगी, लेकिन मेहनत बेकार नहीं हुई....सीने पर बकरम की जगह....ट्रेसिंग क्लाथ लगा हुआ देख कर इमरान चौंका....और फिर दूसरे ही पल उसने एक लम्बी साँस ली....! ट्रेसिंग क्लॉथ पर काले रंग की लिखावट थी....

इमरान उसे पढ़ता रहा....और उसके होंट भिंचते रहे....!

तहरीर पढ़ने के बाद उसने ट्रेसिंग क्लॉथ के टुकड़े को बहुत ही हिफ़ाज़त से मेज़ के दराज़ में रख लिया और बायीं तरफ़ का अस्तर उधेड़ने लगा....उधर भी बकरम की बजाय ट्रेसिंग क्लॉथ ही निकला। लेकिन यह बिलकुल सादा था....इमरान ने उसे भी निकाल कर दराज़ में डाल दिया।

रूशी बेकार बैठी थी। उसने एक बार फिर इमरान से अपनी उकताहट का तज़किरा किया।

‘‘हाँ वाक़ई।’’ इमरान मुस्कुरा कर बोला। ‘‘बेकारी आदमी को बीमारी में डाल देती है। अच्छा तो बेकार मत बैठो। इस कोट का अस्तर दोबारा सी डालो।’’

‘‘तुमने उसे उधेड़ा क्यों और यह किसका है?’’ रूशी ने पूछा। वह उस वक़्त कमरे में मौजूद नहीं थी जब इमरान ने उसका अस्तर उधेड़ कर ट्रेसिंग क्लॉथ निकाला था।

‘‘मेरा ही है।’’ इमरान ने संजीदगी से कहा। ‘‘मैं हमेशा पुराने कोट ख़रीद कर पहनता हूँ। इस तरह कई कोट हो जाते हैं और यह तो तुम जानती ही हो कि हर रोज़ कोट बदलने वाले हमेशा बड़े आदमी हुआ करते हैं।’’