देवाश विला पहुंचा। पोर्च में खड़ी 'ऊनो' को देखकर चौंका। वह उनके फैमिली डॉक्टर भट्टाचार्य की गाड़ी थी। दिमाग में सवाल उठा 'किसे क्या हुआ है? भट्टाचार्य को आने की क्या जरूरत पड़ी?' यह सवाल उसने चौकीदार से किया । चौकीदार ने कहा "हमें कुछ नहीं मालूम साब!”


देवांश इमारत के अंदर दाखिल हुआ।


लॉबी में पहुंचा।


पहले सीधा राजदान के कमरे की तरफ बढ़ा फिर कुछ याद आते ही ठिठका। अपने कमरे में पहुंचा। पैन्ट और पेट के बीच से 'विषकन्या' निकालकर गद्दे के नीचे रखी । बाथरूम में गया और 'माऊथ वॉश' का स्प्रे करने के बाद कुछ इस तर राजदान के कमरे में दाखिल हुआ जैसे सीधा बाहर से आ रहा हो । कमरे में कदम रखते ही उसने चिंतित स्वर में पूछा था. ----“क्या हुआ?”


उसकी आवाज सुनकर कमरे में मौजूद सभी लोगों ने दरवाजे की तरफ देखा ।


राजदान और दिव्या के अलावा वहां भट्टाचार्य और बबलू भी मौजूद थे। राजदान बैड पर लेटा था । उसके एक तरफ बबलू बैठा था, दूसरी तरफ भट्टाचार्य । दिव्या वैड के सामने की तरफ खड़ी थी। खुद को फिक्रमंद दर्शाते देवांश ने लम्बे लम्बे कदमों के साथ बैड के नजदीक पहुंचते हुए एक बार फिर सवाल दोहरा दिया था।


"कुछ नहीं हुआ!" राजदान ने मुस्कराते हुए का "इस डॉकटर के बच्चे का दिल मुझसे मिलने को कर रहा था। इसलिए चला आया।"


"देखो न अंकल ।" बबलू कह उठा “किसी को कुछ नहीं बता रहे चाचू ! मैं भी कितनी देर से पूछ रहा हूं। बेवकूफ समझते हैं हमें | कुछ नहीं होता तो बिस्तर पर क्यों लेटे होते ये? इंजेक्शन क्यों लगाते डाक्टर अंकल ?”


हंस पड़ा राजदान ! बबलू के बालों में फुरैरी-सी मारता बोला “भला तुझे बेवकूफ कैसे समझ सकता हूं मैं ? तू तो शैतान है ! पक्का शैतान !"


"डॉक्टर!” देवांश भट्टाचार्य से मुखातिब हुआ “हुआ क्या है भैया को ?"


"कुछ खास नहीं !” भट्टाचार्य ने अपने मोटे लैंसों के चश्मे को दुरुस्त करते हुए कहा ---- “फीवर था हल्का-सा ।”


"हल्का नहीं, चार हो गया था।” दिव्या ने कहा ।


“मैंने इंजेक्शन दे दिया है। कुछ देर में उतर जायेगा।"


“और तू क्या समझ रहा है छोटे तेरे यूं धड़धड़ाकर अंदर घुसे चले आने और सवाल पर सवाल दागने से हम सब बेवकूफ बन जायेंगे ? ग्यारह बज रहे हैं। कहां रहा इतनी रात तक ?”


“ध्यान से देखना डॉक्टर, भैया अपने बारे में बहुत लापरवाह हैं।"


"दिव्या !” राजदान ने कहा ---- “जरा कान तो खींच इसके । असली सवाल को टाल रहा है ।”


“ अब आप कल काम पर नहीं जायेंगे।" दिव्या बोली- “मैंने पहले ही कहा था । आपने एक नहीं सुनी। कल ही कनाडा से लौटे और आज सारी साइटों के दौरे पर निकल पड़े। सुन लीजिए भट्टाचार्य भाई साहब की- बुखार ज्यादा भागदौड़ के कारण हुआ है । " ————


“अरे! सब मेरे ही पीछे पड़ गये । इस नालायक से कोई कुछ नहीं पूछ रहा । ये आवारा हो गया तो मेरे सारे सपने धूल में मिल जायेंगे।”


“चुप ! ” बबलू ने उसके मुंह पर हाथ रखते हुए कहा ---- “सुना नहीं डॉक्टर अंकल ने क्या कहा था...


ज्यादा नहीं बोलना चाहिए आपको ।”


राजदान ने एक बार फिर उसके बालों में फुरैरी मारी । आंखों से वात्सल्य टपक रहा था । देवांश ने आगे बढ़कर अपना हाथ राजदान की कलाई पर रखा | हाथ गर्म तो था मगर ज्यादा नहीं । कुछ देर बाद भट्टाचार्य यह कहकर चला गया 'घबराने की कोई बात नहीं ।'


“तुम भी जाओ बबलू ।” देवांश ने कहा -----  “इन्हें आराम करना है।”


“ अभी नहीं छोटे ! कुछ देर बाद चला जायेगा ।”


दिव्या और देवांश की नजरें मिलीं। दिव्या ने फुंके हुए स्वर में पूछा- “आपको अकेले में बातें करनी होंगी। कहें तो हम बाहर चले जायें?"


“बिल्कुल नहीं आंटी ।” राजदान से पहले बबलू कह उठा-“मेरे सामने ही तो चाचू को आराम करने के लिए कहकर गये हैं डॉक्टर अंकल । ... चलता हूं चाचू!” वह बैड से खड़ा होता हुआ बोलाबोला ---- “सुबह फिर आऊंगा।”


राजदान ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा ---- “स्कूल गया था?”


कनखियों से दिव्या और देवांश को देखते बबलू ने 'हां' में गर्दन हिलाई ।


“मिले थे?”


“हां!” वह फुसफुसाया |


“क्या कहा उसने ?”


“मरवाओगे चाचू!” वह दांत भींचकर बोला ---- “छोड़ो मुझे । ” कहने के बाद वह अपनी कलाई छुड़ाकर भागता चला गया । राजदान खिलखिलाता रह गया । कुछ देर देवांश खामोश खड़ा रहा। फिर बोला----“मैं भी चलता हूं भाभी ! इन्हें सचमुच आराम की जरूरत है । "


“खाना 'ओवन' में रखा है।” दिव्या ने कहा । उसे क्या पता था आज ‘विला' में कुछ अलग ही गुल खिलने वाला है।


***


देवांश कमरे में आया और बैड पर गिर पड़ा।


खाने की तो बात ही दूर, कपड़े चेंज करने तक का मन नहीं हुआ।


'ताज' से कितने अच्छे मूड में चला था वह । रास्ते में ठकरियाल ने सब चौपट कर दिया ।


क्या वह ठीक कह रहा था ?


क्या विचित्रा वैसी ही है? एक तवायफ ?


बकवास!


बकवास कर रहा था ठकरियाल । मगर, बार-बार खुद उसे क्यों लगता है विचित्रा से यह सम्बन्ध कुछ ज्यादा ठीक नहीं है । लगता भले ही हो ---- लेकिन गलत लड़की नहीं हो सकती विचित्रा ! ठकरियाल के ऐसे ख्याल उसके केवल वैश्या की बेटी होने के कारण हैं । ये तो कोई दोष नहीं हुआ विचित्रा का । कौन कहां पैदा हो जाये, भला इस पर किसी का वश है? यह बेचारी तो खुद उस दलदल से निकलने के लिए छटपटा रही है।


विचारों के झूलों पर झोटे लेते-लेते जाने कितना समय गुजर गया?


आंखों में नींद का नामो-निशान नहीं था।


वह उठा!


नजर रिस्टवॉच पर डाली ।


दो बज रहे थे।


उफ्फ! सोचते-सोचते इतना टाइम गुजर गया ?


विला पूरी तरह सन्नाटे में डूबी हुई थी ।


दिमाग में ख्याल आया ---- 'टोह' लेने का अच्छा मौका है। जो काम उसे करना है, हालांकि वह ज्यादा कठिन नहीं है मगर फिर भी ----सारी स्थितियों को उस दृष्टिकोण से देखना तो होगा ही।


फिर आज ही क्यों नहीं, अभी क्यों नहीं?


सब सो रहे हैं ।


कौन है उसकी गतिविधियों को देखने वाला ? यही सोचकर वह कमरे से बाहर निकल आया । लॉबी में पहुंचा। किचन की तरफ से फ्रिज के चलने की आवाज आ रही थी । और बस ! उसके अलावा सर्वत्र खामोशी थी।


वह राजदान और दिव्या के बैडरूम की तरफ बढ़ा।


दबे पांव ! बिल्ली की मानिंद ।


कारीडोर पार करके बैडरूम के दरवाजे पर पहुंचा। हालांकि अच्छी तरह जानता था इस वक्त यहां कोई और नहीं हो सकता, इसके बावजूद चोर नजरों से दायें - बायें देखा। उसे पहली बार एहसास हुआ ----मन में चोर हो तो आदमी को अपना ही घर अजनबी, भयावह और डरावना लगने लगता है। ‘चोरी’ करते वक्त खुद ही डरा-सहमा रहता है आदमी।


बहुत ही आहिस्ता से झुककर एक आंख बंद की, दूसरी 'की-होल' से सटा दी। कुछ नजर नहीं आया। आना भी नहीं था। दरवाजे के पार पर्दा जो था । खुद ही पर झुंझला सा उठा देवांश! वह पहले से जानता था दूसरी तरफ पर्दा है । इसके बावजूद यह बेवकूफी की । ख्याल ही नहीं आया इस तरह कुछ चमकने वाला नहीं है । सीधा हुआ । वैसी ही बेवकूफी दूसरी बार की । वह जानता था दरवाजा अंदर से बंद होगा, इसके बावजूद हाथ से किवाड़ पर हल्का सा प्रेशर डाला।


आश्चर्य।


किवाड़ थोड़ा खुल गया ।


यानी दरवाजा बंद नहीं किया गया था ।


क्यों?


राजदान तो हमेशा दरवाजा बंद करके सोता है । उसे भी बंद करके सोने की हिदायत देता रहता है । फिर ये खुला हुआ क्यों है? ओह... हां, राजदान की तबियत ठीक नहीं थी । वह सो गया होगा । बाद में दिव्या दरवाजा बंद करना भूल गई होगी।


तो क्या उसे अंदर जाना चाहिए?


अगर उनमें से किसी की नींद टूट गई तो क्या जवाब देगा?


वापस जाने के लिए मुड़ा मगर तभी, दिमाग में ख्याल उभरा-- -' इतना डरेगा तो वह काम कैसे कर सकेगा जो करना है। नहीं- ---- इस कदर डरने से काम नहीं चलेगा। सवा दो बजे हैं। रात के इस वक्त की नींद सबसे गहरी होती है। यूं ही नहीं खुल जाती । और फिर... सिच्वेशन तो उसे देखनी ही होगी।' यह सब सोचकर उसने किवाड़ पर और प्रेशर डाला । बगैर किसी आहट के वह थोड़ा और खुल गया । अब देवांश अंदर जा सकता था। एक बार फिर उसने दायें - बायें देखा और संतुष्ट होने के बाद आहिस्ता से अंदर की तरफ सरक गया ।


अब वह दरवाजे और पर्दे के बीच में था।


पर्दे के उस तरफ नाइट बल्ब की मद्धिम रोशनी थी ।


दिल जोर-जोर से धड़कने लगा था । पदों के बीच उसने झिर्री सी बनाई । झिरी के जरिए कमरे में झांका । कीमती बैड ठीक सामने पड़ा था और बैड पर था राजदान ।


अकेला राजदान !


दिव्या नहीं थी वहां ।


‘कहां गई?’ सवाल बिजली की तरह देवांश के दिमाग में कौंधा । शुरू में दिव्या की 'गायबी' उसे अपना भ्रम लगी। आंखें फाड़-फाड़कर बैड को घूरा । वह नहीं थी ।


कमरे में राजदान की नाक बजने की आवाज गूंज रही थी। अपना दिल देवांश को पसलियों पर सिर पटकता महसूस हुआ । यह सवाल बार - बार हथौड़े की तरह दिमाग से टकराने लगा कि दिव्या गई तो गई कहां?


आंखों के सफेद हिस्से पर नाचती पुतलियां बाथरूम के दरवाजे की तरफ घूमीं । दूधिया रंग के नाइट बल्ब का प्रकाश काफी कम था मगर कमरे की तरफ से बंद बाथरूम का दरवाजा साफ नजर आ रहा था। स्पष्ट था, दिव्या बाथरूम में नहीं है। फिर कहां है? यह दरवाजा भी खुला हुआ था । जरूर बाहर निकली है । कहां गई है वह ? कहां गई है? कब गई है? क्यों गई है?


ऐसे सैंकड़ों सवाल जहन में एक-दूसरे से गुत्थम-गुत्था हो गये।


फिर एक और विचार उठा ---- 'तू निकल बेवकूफ ! तू निकल जल्दी से ... वह लौट आयी और तूझे देख लिया तो गजब हो जायेगा ।'... यह विचार दिमाग में आते ही दरवाजे के पार सरक लिया। अब उसे दिव्या द्वारा देखे जाने का पूरा खतरा था। अतः घबराहट खुलकर दिलो-दिमाग पर हावी होने लगी । एक बार फिर उसने कारीडोर में दोनों तरफ देखा | सन्नाटा ज्यों का त्यों था । मगर अब वह उसे पहले से ज्यादा भयावह लगा ।


किवाड़ को बहुत आहिस्ता से भिड़ाया उसने ।


दबे पांव लॉबी की तरफ लपका ।


कारीडोर के अंतिम सिरे पर पहुंच कर ठिठका । बहुत ध्यान से लॉबी का निरीक्षण किया। वहां मौजूद एक - एक चीज पर फिसलती चली गई नजर ! हर चीज खामोश थी। कहीं कोई हलचल नहीं । किचन से फ्रिज के चलने की आवाज अभी भी आ रही थी ।


कारीडोर के अंतिम सिरे से निकलकर अपने कमरे की तरफ बढ़ा ।


दरवाजे के नजदीक पहुंचा ही था कि दिमाग पर फिर हथौड़ा पड़ा- - "दिव्या आखिर गई कहां?”


देखना तो चाहिए । ढूंढना तो चाहिए उसे ।


लेकिन अगर उसने उसे रात के इस वक्त यूं विला में घूमते देख लिया तो?


इस विचार ने उसे बल दिया ।


मगर ढूंढे कहां? और कैसे ?


रात के इस वक्त आखिर वह गई कहां होगी ? कहीं सचमुच ही तो कोई आशिक नहीं पाल रखा है दिव्या ने? लगती तो नहीं ऐसी ! मगर क्या भरोसा ? आशिक पाल ही रखा हो तो मजा आ जाये । बेगुनाह समरपाल को बलि का बकरा बनाने की जहमत से बच सकता है वह । वैसे भी ---- वास्तविक आशिक को आशिक साबित करना एकदम आसान होगा । उस अवस्था में तो ठकरियाल द्वारा रंगे हाथों ही पकड़वा देगा वह उन्हें। ठकरियाल के लिए कुछ और सोचने की गुंजाइश ही नहीं रह जाएगी। देवांश ने जितना सोचा उतना रोमांचित होता चला गया |


जरूर दिव्या ने कोई आशिक पाल रखा है, वरना इतनी रात गये कहां जायेगी?


मगर कौन ?


कौन हो सकता है उसका आशिक ?


विला में तो नौकर-चाकरों के अलावा कोई है नहीं ।


तो क्या किसी नौकर से ही ?


आफताब का ख्याल आया उसे ! वह युवा था । जवान और हृष्ट-पुष्ट भी। सीना बाहर निकला हुआ था उसका । पेट अंदर | बांहों की मछलियां अक्सर फड़कती रहती थीं। हर रोज कसरत जो करता था वह । एक बार तो उसी ने देखा था ---- किस कदर पसीने से नहाया हुआ था उसका बलिष्ठ जिस्म । ऐसे जिस्मों पर लड़कियां अक्सर मर मिटती हैं ।


देवांश को अपना विचार जमने लगा ।


जरूर दिव्या उसी पर मर मिटी है ।


अचानक उसे आफताब से ईर्ष्या होने लगी ।


बड़ा ही अनोखा ख्याल उभरा देवांश के मस्तिष्क में----‘ऐसा ही था तो मैं क्या बुरा था? नौकर आखिर नौकर होता है। इतने नीचे गिरने की क्या जरूरत थी ?"


सोचते-सोचते गुस्सा-सा भर गया उसके दिमाग में। हालांकि अभी उसने कुछ देखा नहीं था । जो कुछ था ---- था ---- उसके ख्यालों में ही था परन्तु जी चाहा ---- आफताब को कत्ल कर डाले।


होगा कहां हरामजादा?


वहीं होगा जहां दिव्या है ।


मगर कहां?.... कहां मिल रहे होंगे वे?


शायद किचन लॉन में ।


हां, प्रेमियों के मिलन हेतु वह जगह माकूल है।


वह किचन लॉन के दरवाजे की तरफ बढ़ा।


दरवाजा अंदर से खुला हुआ था ।


दिमाग में ख्याल उभरा ---- 'तो यहीं, जन्नत में रासलीला मन रही है।'


उसने दरवाजा खोला ! जन्नत सामने थी । बड़े-बड़े पत्थरों को लाकर बनाये गये पहाड़ । उनके बीच से संगीतमय आवाज के साथ बहती जल धारायें । पत्थरों के बीच जगह-जगह छुपे रंग-बिरंगे बल्बों का प्रकाश और बीस फुट की ऊंचाई तक एक मोटी धार के रूप में पानी फेंकने वाला मुख्य फाऊन्टेन ।


बहुत ही सुन्दर नजारा था वह ।


इस ढंग से बनाया गया था कि राजदान के कमरे की बॉल्कनी के अलावा और कहीं से नजर न आये। मगर देवांश इस वक्त उसकी खूबसूरती नहीं, कुछ और ही देख रहा था । उसे तलाश थी, दिव्या और आफताब की ।


रोशनियां केवल उन पत्थरों और जल - धाराओं के आस-पास थीं जहां बल्ब लगाये गये थे । बाकी हर तरफ अंधेरा था । देवांश के विचारानुसार आफताब और दिव्या उस अंधेरे में कहीं भी हो सकते थे। या किसी पत्थर की बैक में। चट्टान के पीछे। वह खुद भी तो इस वक्त अंधेरे में थे। काफी नजर घुमाने के बाद कहीं कोई नजर नहीं आया। मगर होंगे तो यहीं। यहां पहुंचने का उसके अलावा कोई रास्ता नहीं है जिससे वह खुद आया है और वह अन्दर से खुला हुआ दो हजार गज में फैला हुआ है ये लॉन । इतने सारे पत्थर, पेड़, पौधे, हैज और चट्टानें कहां ढूंढे उन्हें ? और अगर उससे पहले उनकी नजर उस पर पड़ गयी तो सारी मेहनत बेकार हो जायेगी ।


यह सब सोचकर उसने एक-एक कदम फूंक-फूंककर रखना शुरू किया। किसी भी कीमत पर खुद को रोशनी की रेंज में नहीं आने देना चाहता था वह । पत्थरों की बैक में छुपता हुआ चट्टानों के पीछे पहुंच गया ।


वहां पहुंचते ही दंग रह गया वह ।


दृश्य ही ऐसा था ।


एक बहुत ही बड़े पत्थर पर खड़ी थी दिव्या । उसके ऊपर मौजूद एक चट्टान से झरने की शक्ल में पानी गिर रहा था। झरने के उस पानी में नहा रही थी वह । देवांश को लगा---- अचानक वह 'देवलोक' में पहुंच गया है। चारों तरफ लगे बल्बों की रोशनी में दमक रहा था दिव्या का जिस्म । उसे वह परी - सी लगी । अप्सरा सी ! उसके तन पर सफेद साड़ी थी । वह... जो गीली होकर तन से चिपक थी । जिस्म का हर कटाव, हर उतार-चढ़ाव साफ नुमाया

हो रहा था । देवांश उससे दूर था। नीचे भी। वह उससे करीब बीस फुट दूर, पांच फुट ऊपर थी। झरना दिव्या पर दस फुट की ऊंचाई से गिर रहा था। कोई होश नहीं था उसे । नहाने में मग्न थी ।


अकेली ।


आफताब केवल देवांश के ख्यालों में उभरा था, ख्यालों में ही गुम हो गया । उसे अकेली देखकर देवांश को निराशा भी हुई थी, खुशी भी! बल्कि यह कहा जाये तो ज्यादा बेहतर होगा कि इस वक्त वह दुनिया जहान को भूलकर उस दृश्य में खो गया था जो उसके सामने था । इतने ध्यान से उसने दिव्या को पहले कभी नहीं देखा था। उसे लगा ---- उसके वक्ष जिस्म से उतने ही बाहर निकले हुए हैं जितने नितम्ब ।


जी चाहा पत्थर की बैक से निकलकर उसके नजदीक जाये । ... और नजदीक ! और नजदीक ! बहुत ही करीब पहुंच जाये उसके ताकि अंग-अंग को ध्यान से देख सके । इस वक्त वह दूर था । बहुत कुछ नजर आने के बावजूद सबकुछ नजर नहीं आ रहा था ।


उधर झरने के नीचे नहाती दिव्या अंगड़ाइयां ले रही थी इधर, देवांश के दिल में अंगड़ाइयां ले रही थी सबकुछ देखने की इच्छा । परन्तु उसके नजदीक पहुंचना तो दूर, जहां था वहां से एक कदम आगे बढ़ने का साहस नहीं जुटा सका वह ।


बस मंत्र मुग्ध सा दिव्या को देखता रहा ।


नजर इस तरह चिपकी रह गई थी जैसे चकोर चांद को देख रहा हो ।


अपलक ! एकटक ! स्वप्न में खोया-सा |


चौंका तब जब वह झरने के नीचे से हटी । पत्थर लगातार पानी गिरने से चिकना हो गया था । इसलिए बहुत ही संभल-संभलकर पैर जमाती हुई दूसरे पत्थर पर पहुंची । दूसरे से तीसरे पर और अंततः घास पर कूद पड़ी ।


वहां पहुंचकर उसने गर्दन को एक झटका दिया। भीगे हुए लम्बे, काले और घने बाल कंधे से होते हुए जिस्म के अगले भाग पर फैल गये । दिव्या ने दोनों हाथों से उन्हें समेटा । गूंथा ! यूं ---- जैसे कपड़ा निचोड़ने के लिए गूंथा जाता है । फिर वह बालों को जूड़े की शक्ल देती हुई इसी तरफ बढ़ी जिस तरफ देवांश था | हाथ उठे हुए होने के कारण उस पोज में देवांश उसके पुष्ट उरोजों का नजारा कर सकता था । देखते ही देखते वह उस पत्थर के नजदीक... और नजदीक आती चली गई । बहुत कुछ देखने की इच्छा के बावजूद देवांश कुछ नहीं देख सका, क्योंकि उसने घबराकर अपना चेहरा पत्थर के पीछे खींच लिया था । 'अगर दिव्या ने उसे देख लिया तो हंगामा खड़ा हो जायेगा । बात राजदान तक पहुंच गई तो... तो?'


इससे आगे वह सोच न सका।.


उसने महसूस किया ---- इसी पत्थर के दूसरी तरफ दिव्या कपड़े चेंज कर रही है ।


झांककर देखने की बड़ी ही प्रबल इच्छा हुई दिल में मगर, पत्थर काफी विशाल था । दूसरी तरफ देखने के लिए उस पर थोड़ा-सा चढ़ना पड़ता । इससे आहट उत्पन्न हो सकती थी । दिव्या को उसकी मौजूदगी का आभास हो सकता था। ऐसा होने देने का साहस नहीं था उसमें । एकाएक उसे ख्याल आया- - कपड़े चेंज करने के बाद वह विला के अंदर ही जायेगी । दरवाजा अंदर से बंद कर लेगी । फिर वह अंदर कैसे पहुंचेगा? इस एहसास ने उसे बेचैन कर दिया । सोचा----अभी मौका है । वह कपड़े चेंज कर रही है।


देवांश ने तेजी से अपना स्थान छोड़ा | बगैर जरा भी आहट पैदा किये । खुद को उसी पत्थर की बैक में रखता हुआ चट्टान के दूसरी तरफ पहुंच गया। उसके बाद लगभग भागता हुआ दरवाजे पर । वहां भी रुका नहीं वह। दरवाजे को ज्यों का त्यों भिड़ाकर सीधा लॉबी में आया। इरादा चुपचाप अपने कमरे में जाकर लेट जाने का था। फिर जाने क्या शरारत सूझी, लॉबी में पड़े सोफे पर पसर गया वह ।


ठीक उसी वक्त लॉबी की एक दीवार पर लगा पुराने जमाने का घण्टा तीन बार टनटनाया, तब कहीं जाकर देवांश को एहसास हुआ, उसे इधर-उधर भटकते एक घण्टा हो गया है।


पांच मिनट बाद किचन लॉन वाला दरवाजा खुलकर बंद होने की आवाज आई।


देवांश सोफे पर कुछ और पसर गया । जैसे सो रहा हो । वास्तव में उसकी आंखें उसी कारीडोर पर लगी थीं जहां से दिव्या को आना था ।


वह आई ।


जिस्म पर हल्के फिरोजी कलर का सलवार सूट था । देवांश को उसे, तन को इतना ढकने वाले कपड़ों में देखकर निराशा हुई। आंखों के समक्ष अब भी, झरने के नीचे नहाती हुई दिव्या तैर रही थी। उसने आंखों की झिरी से देखा ---- दिव्या उसे सोफे पर पड़ा देखकर चौंकी ठिठकी और उसकी तरफ बढ़ गई | देवांश ने आंखें बंद कर लीं । 


दिव्या उस पर झुकी! कंधा पकड़कर झंझोड़ती हुई बोली----“देवांश! देवांश !”


“आं !” पहले चौंकने, फिर हड़बड़ाकर उठने की एक्टिंग की ।


“यहां क्यों पड़े हो ?”


“यूं ही ।” उसने आंखें मलते हुए कहा- “कमरे में नींद नहीं आ रही थी ।”


“नींद कैसे आती! जो कपड़े तुमने पहन रखे थे, वे तक नहीं उतारे।”


देवांश ने चौंककर अपने कपड़ों की तरफ देखा । जैसे पहली बार इस बात पर ध्यान गया हो । दिव्या ने उसके माथे पर हाथ रखते हुए कहा  ---- “तबियत तो ठीक है तुम्हारी ?”


“तबियत को क्या हुआ है मेरी ?” हंसता हुआ वह सोफे से खड़ा हो गया ।


“ नींद नहीं आ रही थी । कपड़े तक चेंज नहीं किये । मेरा ख्याल है खाना भी नहीं खाया होगा।” दिव्या ने प्यार से पूछा----“देवांश! कोई प्रॉब्लम तो नहीं है तुम्हें ? "


“म- मुझे क्या प्रॉब्लम होती मगर, तुम इस वक्त यहां क्या 

कर रही हो?”


सामान्य स्वर में कह दिया उसने ---- “नहाकर आई हूं।'


"इस वक्त ?”


“ देख लो।” वह मुस्कराई ।


“मगर नहाई भी हो तो यहां आने का क्या मतलब? बाथरूम तो रूम के साथ...


“बाथरूम में नहीं, झरने पर नहाकर आई हूं।”


“झरने पर ! रात के इस वक्त ? अब मुझे पूछना पड़ेगा भाभी !” आंखों में खास चमक भरकर दिव्या की आंखों में झांका उसने । लहजे को रहस्यमय सा बनाता बोला----“तबियत तो ठीक है तुम्हारी ?” ।


“इसमें तबियत की बात कहां से आ गयी? तुम्हारी तरह मुझे भी नींद नहीं आ रही थी । बॉल्कनी में पहुंची। वहां से किचन लॉन चमक रहा था । बहती हुई पानी की धाराओं को देखकर नहाने का मन हुआ । सो चली गई। बहरहाल, तुम्हारे भैया ने वहां वे झरने नहाने के लिए ही बनवाये हैं।”


"मेरे ख्याल से इसलिए नहीं कि --- उनकी पत्नी वहां अकेली नहाये ।”


“मतलब?”


देवांश ने उसका मन टटोलने की ठान ली थी । बोला - - - - "वह सब भैया ने अपनी पत्नी के साथ नहाने के लिए बनवाया होगा।”


“वे सो गये थे ।”


“तो जगा लेतीं ।” देवांश उसके फेस पर झुका- -“शायद उन्हें अच्छा ही लगता।”


“ कोई फायदा नहीं था ।”


“क्यों?”


“गधे हो तुम !” वह बोली ---- “बुखार नहीं था उन्हें?”


“भट्टाचार्य इंजेक्शन लगा गया था । बुखार तो कभी का उतर गया।” राजदान की आवाज सुनकर दोनों चौंक पड़े। चेहरे एक झटके से स्वतः आवाज की दिशा में घूम गये । कारीडोर से लॉबी में कदम रखते हुए राजदान के जिस्म पर स्केल की चौड़ाई जितनी मोटी काली- सफेद धारियों वाला नाइट गाऊन था । दांतों को ठण्डा पसीना छूट गया। शायद यह सोचकर कि उसने दिव्या के साथ रोमांटिक मूड में आना शुरू कर दिया था। पूरी तरह आ गया होता तो क्या होता? उसे देखते ही उसकी तरफ बढ़ती दिव्या ने कहा--- "अरे! आप कब जगे?”


“आधा घंटा हो चुका है। देखा ---- देवी जी बैड पर नहीं - हैं।”


'हे भगवान!' देवांश मन ही मन बड़बड़ाया - -'मैं तो केवल पांच मिनट पहले आकर सोफे पर लेटा था। क्या राजदान ने मेरी हरकत देखी है??


उधर, दिव्या ने पूछा थापाकर?” “तो क्या सोचा मुझे गायब —


“सोचने का मौका ही कहां दिया तुमने ?”


“मतलब?”


“शुरू में सोचा था ---- - तुम बाथरूम में होगी। उस वक्त कमरे की तरफ से बंद उसके दरवाजे पर ध्यान तक नहीं दिया। सिगार सुलगाया और बाल्कनी में पहुंच गया । देखा ---- तुम झरने के नीचे नहा रही हो । बस----खो - सा गया उस दृश्य में। देखता रहा तुम्हें नहाते ! ऐसे लग रहा था जैसे देवलोक से सीधी मेनका उतर आई हो । सफेद साड़ी में तुम...


“बस ! बस !” दिव्या ने उसे आगे बोलने से रोका- "छोटा

यहीं है । इतने बेशर्म कब से हो गये आप?” 


राजदान हंस पड़ा । हंसी में अजीब सा खोखलापन था ।


और इधर, देवांश की हालत बेहद खराब थी। वह यह सोच-सोचकर हलकान हो रहा था ----अगर राजदान बॉल्कनी में था तो क्या उसने उसे भी देखा था ? उसे याद आने लगा, किचन लॉन में वह कहां-कहां से गुजरा था ? अनुमान लगाने की कोशिश कर रहा था वे स्थान बॉल्कनी से चमकते हैं या नहीं? फिर उसने सोचा- -- उसने हर पल खुद को अंधेरे में रखा था । परन्तु - - - - बल्बों का छिटका हुआ इतना प्रकाश तो वहां था ही कि उसे साये के रूप में देखा जा सके। रह-रहकर घबराहट सी हावी हो रही थी उस पर! 


“अच्छा अब चलो ।” कहने के साथ दिव्या ने राजदान की बांह पकड़ी, घूमकर देवांश से कहा- “ और तुम भी अपने कमरे में जाओ देवर जी ! मैं जानती हूं इस उम्र में नींद क्यों नहीं आती।"


देवरानी का इन्तजाम करना पड़ेगा ।”


देवांश कुछ कह न सका।


वे अपने कमरे की तरफ चले गये ।


देवांश भी कमरे में आया । पुनः बगैर कपड़े चेंज किये बैड पर गिर पड़ा। आंखें बंद कर लीं उसने । झरने पर नहाती दिव्या चमकने लगी। घबराकर आंखें खोलीं ।


ऐसा एक बार नहीं, अनेक बार हुआ। हर उस बार जब उसने आंखें बंद कीं । आंखें खोलते ही वह सोचता ---- ये क्या हो गया है मुझे ? आंखें बंद होते ही विचित्रा की जगह दिव्या क्यों नजर आ रही है? दिव्या तो उसके रास्ते का रोड़ा है। उसके तो निप्पल्स पर जहर लगाना है उसे । राजदान की हत्या के जुर्म में फंसाना है । यह सब सोचने के बावजूद जब आंखें बंद कीं तो नहाती हुई दिव्या फिर सामने थी।


वह मुस्करा उठा ।


इस बार आंखें नहीं खोलीं उसने । बल्कि 'नयन सुख देने वाले उस दृश्य को देखता रहा, देखता रहा । और देखते ही देखते बंद आंखों में निद्रारानी भी आ समाई ।