प्यारा चाय बनाने के बाद कुर्सी पर बैठा चुस्कियां ले रहा था कि सोनू आ गया।

"चाय पिएगा?" प्यारे ने पूछा।
भगते से मिलकर सीधा आ रहा हूँ...।" सोनू बैठता हुआ बोला--- "उसने बड़े काम की बात बताई है।"
"क्या?"
"वो कहता है कि बच्चा ठहराने का सबसे आसान और टिकाऊ रास्ता है कि खुले में प्यार किया जाये।"
"खुले में?"
"मतलब कि खेतों में--- जहाँ न तो छत हो, न दीवार हो। कहता है कि खुले में बच्चा जल्दी ठहरता है।"
"अजीब टोटका है!" प्यारे ने गहरी साँस ली--- "लेकिन खुले में कैसे होगा?"
"क्यों नहीं होगा?"
"कोई देख लेगा। गिन्नी की बदनामी हो जाएगी।"
"तो ये काम रात को क्यों नहीं करता?"
"रात को?"
"हाँ। तूने बताया कि चाची शादी पर कहीं शहर जाने वाली है तो गिन्नी को रात को लेकर खुले में चले जा। मैं भी तेरे साथ---।"
"तेरे साथ चलने की क्या जरूरत है? तू---।"
"समझा कर, चौकीदारी करूँगा। रात में भी कोई आ सकता है।"
"ठीक है। ये तूने ठीक कहा।" प्यारा चाय का गिलास सोनू को देता बोला--- "ये तू पी।"
"तू...?"
"मैं जरा गिन्नी से मिलकर पाँच मिनट में आता हूँ...।"
"बैठ तो...तेरे को कुछ बताना है।"
"क्या?"
"भगता बहुत खुश था। उसकी खुशी देखकर मेरा तो दिल जल उठा। कहता है कि पिंकी बहुत अच्छी है। उसका बहुत खयाल रखती है। बोलता है कि उसने पिछले जन्म में मोती दान करे होंगे जो उसे पिंकी जैसी पत्नी मिली। पिंकी का तो वो लट्टू हुआ पड़ा है...।"
"ऐसा क्यों?"
"तू भी गिन्नी से शादी कर लेगा।"
"हाँ।"
"मैं अकेला रह जाऊँगा। सोचता हूँ कि मैं भी कोई अच्छी सी लड़की देखकर शादी कर लूँ।"
"ये तो तूने अच्छी बात सोची।"
"कल कलुआ भी मिला था।"
"कलुआ--- वो ऑटो वाला?"
"हाँ। कह रहा था कि मेरे दो ऑटो आजकल खाली पड़े हैं।कोई भरोसे का ड्राइवर नहीं मिल रहा। वो जानता है न कि मैं हर तरह की गाड़ी बहुत बढ़िया चला लेता हूँ। कहने लगा कि मैं उसका ऑटो चलाना शुरू कर दूँ। जो भी कमाई हो, आधी-आधी कर लेंगे।"
"तो तूने क्या कहा?"
"मैंने बोला कि एक-दो दिन में जवाब दूँगा।"
"बात तो ठीक है कि तू ऑटो चलाना शुरू कर दे। पहले भी तूने पन्द्रह दिन चलाया था, दो सौ रुपये रोज के कमाता था तू।"
"तू भी चला ले ऑटो?"
"नहीं, मैं तो कोई दूसरा काम सोचूँगा। कल से ही तू ऑटो चलाने लग जा।"
"अभी नहीं--- पहले गिन्नी के बच्चा ठहरा दूँ।"
"तू ठहरायेगा बच्चा?" प्यारे ने मुँह बनाया--- "कैसी बुरी बात करता है तू?"
"मेरा मतलब कि चौकीदारी तो मैंने ही करनी है तब...।"
"हाँ, वो तो ठीक है।" प्यारे उठता हुआ बोला--- "मैं जरा गिन्नी से मिलकर आया...।"
प्यारा बाहर निकला और चार कदम आगे बढ़कर चाची के घर में प्रवेश कर गया।
पहला कमरा खाली था।
"चाची...ओ चाची!" प्यारे ने आवाज लगाई।
तभी भीतर के कमरे से आवाज आई।
"तू आ गया प्यारे, आ, जरा इधर तो आ...।"
"क्या बात है चाची?" दूसरे कमरे में जाता प्यारे कह उठा।
"ये ब्लाउज का हुक पीठ की तरफ है। खुल नहीं रहा, अटक गया है। तू जरा खोल दे।"
दूसरे कमरे में प्रवेश करते ही चाची पर नजर पड़ी तो हड़बड़ा कर वापस पहले वाले कमरे में आ गया।
"तू भाग क्यों गया प्यारे?"
"देख चाची, नॉनवेज काम मैं नहीं करूँगा। वेज काम तू जितना भी करा ले। पानी भर के ला दूँगा। केले ला दूँगा। सब्जी ला दूँगा। नमक-हल्दी ला दूँगा, लेकिन नॉनवेज काम नहीं करूँगा।" प्यारे ने कहा।
"तू पागल हो गया है क्या?" चाची की झल्लाई आवाज आई।
"नहीं चाची, मैं तो पूरे होश में हूँ।"
"हुक अटक गया है। पीछे है, इसलिए तेरे को खोलने के लिए...।"
"चाची हुक तो खोल देता। वेज मामला है, लेकिन तू तो बिना पेटीकोट के खड़ी है...।"
"हाय रब्बा!" चाची की आवाज आई।
"गिन्नी कहाँ है?" पूछा प्यारे ने ।
"अपना सूट सिलने देने गई है...।" चाची की आवाज आई--- "शादी में नया सूट तो चाहिए ना...।"
"शादी, किसकी शादी है।"
"रिश्तेदारी में जाना है।"
"कब?"
"कल। तू चलेगा क्या?"
"ना चाची। मैं तो अपनी शादी में ही जाऊँगा। जब तक गिन्नी के साथ मेरी शादी नहीं होती, मैं किसी की शादी में नहीं जाऊँगा।"
"वह तो मेरी हाँ के बिना थोड़े ही होगी।"
"तू हाँ कर दे...।"
"तेरे को तो कहा है कि अपना मकान बेंचकर कर मेरे पास रहने आ जा। सब बढ़िया हो जाएगा।"
"मकान तो कभी ना बेचूँ।"
"फिर शादी नहीं होगी प्यारे। तू मेरी बात नहीं मानेगा तो मैं तेरी नहीं मानूंगी।"
इसके साथ ही चाची ने कमरे में प्रवेश किया। वह कमीज सलवार पहने थी।
"हुक कैसे खोला?"
"तोड़ दिया।" चाची मुस्कुराई।
प्यारा भी मुस्कुराया।
"तूने मुझे बिना पेटीकोट के देख लिया...।" चाची ने गहरी साँस लेकर कहा।
"तूने ही तो दिखाया। मुझे बुलाने से पहले सोच तो लेती कि तब तूने पेटीकोट नहीं पहना।"
"मुझे याद नहीं रहा।"
"याद तो सब रहा होगा...।" प्यार मुँह बनाकर बोला--- "सामान दिखाने का मन कर रहा होगा...।"
"शरारती हो गया है तू।"
"चाचे का क्या हाल है? आजकल दिखता नहीं वो...।"
"सुबह जाता है तेरा चाचे, रात दस के बाद आता है। कल तो तेरा चाचे दारु की बोतल साथ ले आया...पी-पी के तंग करता रहा।"
"चाचा तंग नहीं करेगा तो क्या मैं करुँगा? कल को गिन्नी से मेरी शादी होगी तो मैं ही तंग करुँगा। वैसे तुम औरतों की कहानी भी मजेदार है। पास आओ तो मुसीबत, ना आओ तो मुसीबत...।"
"लगता है तेरे को बहुत एक्सपीरियंस है इन बातों का।"
"सुनी-सुनाई बातें हैं, तेरे से कह दीं। मैं चलता हूँ, गिन्नी आए तो मेरे पास भेजना।"
"तू क्या करेगा गिन्नी का?"
"दो चार बातें कर लूँगा--- और क्या करना है।"
"एक बात तो बता।" चाची उसके पास आ गई।
"बोल चाची।"
" तूने मुझे बिना पेटीकोट के देखा तो तेरे दिल में कुछ-कुछ नहीं क्या?"
"गिन्नी को ऐसे देखता तो कुछ होता, अब तेरे को देखकर क्या होना है चाची...?"
चाची ने हाथ बढ़ाकर प्यारे के गाल पर रगड़ा।
"तेरे को कुछ नहीं हुआ? मेरा सामान तो पूरा है, रख-रखाव भी बढ़िया है। फिर तेरे को...।"
"कुछ नहीं हुआ तो नहीं हुआ। अब मुझे क्या पता कि क्यों कुछ नहीं हुआ?"
"मैं सोचती हूँ कि अगर गिन्नी को देखकर भी तेरे को कुछ नहीं हुआ तो गिन्नी की जिंदगी बर्बाद हो जाएगी।"
"तू फिक्र मत कर चाची। पहले मैं गिन्नी की जिंदगी आबाद करूँगा, फिर उससे शादी करूँगा।"
"क्या मतलब?" चाची के होंठों से निकला।
"मेरा मतलब कि...कि मैं शादी के बाद बच्चों की लाइन लगा दूँगा।" प्यारा हड़बड़ा कर बोला।
"लाइन लगाने में मेहनत ही क्या लगती है। मर्द की सारी मुसीबत तो औरत को झेलनी पड़ती है। मर्द तो लोगों से बधाइयां लेता फिरता है। मेरे को तो सब मर्द बहुत बुरे लगते हैं।" चाची ने मुँह बनाकर कहा।
"चाची, तू कहेगी तो बच्चा मैं अपने पेट से पैदा कर लूँगा। बस तू गिन्नी से मेरी शादी करवा दे।" प्यारे ने कहा और कमरे से बाहर निकालकर गली में आया और फिर आगे बढ़कर अपने घर के कमरे में प्रवेश कर गया।
सोनू उसके बेड पर आँखें बंद किए लेटा था। आहट पाकर उसने आँखें खोलीं।
"मिल आया गिन्नी से?"
"वह तो सूट सिलवाने गई है... टेलर के पास...।"
"कृष्णा के पास गई होगी। गिन्नी वहीं से सूट सिलवाती है।"
"तेरे को कैसे पता?"
"मेरी भाभी बनने वाली है। इतनी खबर तो रखता ही हूँ कि भाभी कहाँ-कहाँ जाती है?" सोनू मुस्कुरा कर बोला।
प्यारा बैठता हुआ बोला।
"चाय बना, पीते हैं।"
"तू कृष्णा की दुकान पर जाकर गिन्नी से मिल ले...।"
"जब आएगी तो मिलूँगा। चाची को कह आया हूँ कि गिन्नी को भेज दे।"
तभी दरवाजे पर आहट हुई और चाची ने भीतर प्रवेश किया। हाथ में ब्लाउज थाम रखा था।
"क्या हाल है चाची?" सोनू मुस्कुरा कर बोला।
"चाची का हाल पूछता है और उस दिन गिन्नी से राखी बंधवाने नहीं आया? पचास रुपये की राखी खरीदकर लाई थी गिन्नी तेरे लिए। तूने तो नुकसान करा दिया। आया क्यों नहीं?" चाची ने सुनककर पूछा।
"बाकी ढाई सौ नहीं थे देने को...।"
"तेरे को कहा था कि किस्तों में दे देना।"
"अगली बार राखी को आऊँगा--- गिन्नी को कहना कि राखी संभाल कर रखे।"
"वो राखी तो भैरों के लड़के को बांध दी। आखिरराखी के पैसे भी तो पूरे करने थे। उसने भी पचास रुपये ही दिए।" चाची ने कहा और ब्लाउज प्यारे को थमाती कह उठी---"इसका टूट गया है। टाँका लगवा ला।"
"ब्लाउज का?" प्यारा हड़बड़ाया।
"हाँ। तूने तो खोला नहीं। तोड़ दिया मैंने। इतना काम तो कोई भी मुफ्त में कर देगा।"
"ठीक है चाची।" प्यारे ने गहरी साँस ली--- "गिन्नी नहीं आई अभी?"
"नहीं। आ जाएगी।"
"इतनी देर तो नहीं लगती सूट का नाप देने में...।"
"कृष्णा को बातों में फँसा रही होगी। शाम को सूट सिला हुआ चाहिए। कल जाना है शादी पर। वरना वह चार दिन से पहले कहाँ देता है...।"
"चाची, अपनी आदतें गिन्नी को मत सिखा। क्यों उसे बिगाड़ती है कि सामने वाले को फँसा कर काम निकालो...।" सोनू बोला।
"चुप कर तू। तेरे को क्या पता कि कितनी परेशानी होती है, जब वक्त पर सूट न मिले तो। प्यारे ब्लाउज का टांका लगवा लाना। भूलना नहीं!" कहकर चाची बाहर चली गई।
सोनू, प्यारे को देखता कह उठा---
"चाची ने तेरे को हुक खोलने को कहा था?"
"हाँ--- मैंने नहीं खोला।"
"बेवकूफ है! मुझे बुला लेता। मैं खोल देता।"
प्यारा गहरी साँस लेकर रह गया।
"मैं चाय बनाता हूँ।" कहते हुए सोनू उठ खड़ा हुआ।
◆◆◆
दोपहर के दो बज रहे थे।
देवराज चौहान, टिड्डा, प्रतापी, पव्वा, शेख एक रेस्टोरेंट में मौजूद लंच कर रहे थे।
देवराज शांत-सा नजर आ रहा था।
परन्तु बाकी के चारों व्याकुलता से भरे थे।
रह-रहकर वे एक-दूसरे को देखने लगते। अभी तक वैन की कोई खबर नहीं आई थी। सोहनलाल का कोई फोन नहीं आया था। जबकि अब तक तो सोहनलाल का फोन हर हाल में आ जाना चाहिए था। उनकी आशा अब सोहनलाल के फोन पर ही टिकी थी। वरना बाजी तो कब की हाथ से निकल गई थी।
"तुम।"पव्वे ने प्रतापी को घूरते हुए खा जाने वाले स्वर में कहा--- "अगर उस वक्त मेरी बात मान जाते और वैन को रोकते नहीं, तो...।"
"चुप कर।" प्रतापी ने तीखे स्वर में कहा--- "जब भी देखो, यही बात कहे जा रहा है।"
"कहूँगा नहीं क्या? गलत क्या है इसमें?"
"अब चुप भी हो जा। ये बात पुरानी हो चुकी है। वैन को जगमोहन ले उड़ा है और करोड़ों हमारे हाथ से निकल गए।"
पव्वे ने देवराज चौहान को देखा।
देवराज चौहान लंच लेने में व्यस्त था।
"तुम क्यों नहीं कुछ बोलते?" पव्वे ने धीमे किन्तु धीमे स्वर में कहा।
"क्या बोलूँ?" देवराज चौहान उसे देख कर मुस्कुराया।
"सोहनलाल का फोन क्यों नहीं आया अभी तक?"
"उसे वक्त नहीं मिला होगा फोन करने का...।"
"तुम कर लो उसे फोन।"
"वह करेगा।"
"मेरे दिमाग में कुछ आ रहा है--- कहीं वो सब तो नहीं कर कर रहे, जगमोहन और सोहनलाल।"
"क्या?" देवराज चौहान खुलकर मुस्कुराया।
"यही कि तुम हम चारों पर यहाँ लंच करा कर बेवकूफ बना रहे हो और उधर जगमोहन, वैन के साथ सोहनलाल के पास जा पहुँचा हो। मलिक का अस्तित्व ही नहीं हो और वो वैन से नोट निकालकर ठिकाने लगा रहे हों। उसके बाद तुम कोई भी मौका देख कर हमारे पास से खिसक कर 60 करोड़ के नोटों के पास पहुँच जाओगे...।"
"पव्वे---।" टिड्डे ने कहना चाहा--- "तू---।"
"चुप कर! मैं देवराज चौहान से बात कर रहा हूँ। इसका जवाब मुझे सुन लेने दे।"
"ऐसा कुछ नहीं है।" देवराज चौहान बोला--- "मुझ पर शक मत करो।"
"तो अभी तक सोहनलाल का फोन क्यों नहीं आया? वैन तो कब की वहाँ पहुँच गई होगी?"
"कोई खास वजह ही होगी जो सोहनलाल का फोन नहीं आया।"
"तुम फोन करके देखो, कहीं वह मर ना गया हो।" पव्वे ने बेचैन स्वर में कहा।
"बात तो ठीक है।" प्रतापी कह उठा--- "सोहनलाल का फोन तो अब तक आना ही चाहिए था...।"
"तुम एक बार सोहनलाल को फोन करके देख लो।" टिड्डा बोला।
" देवराज चौहान जो ठीक समझेगा, कर लेगा।" शेख ने गम्भीर स्वर में कहा--- "उसे भी चिंता है...।"
"तुम सोहनलाल को फोन करो देवराज चौहान...।" प्रतापी बोला।
देवराज चौहान ने सिर हिलाया और खाना छोड़ कर फोन निकाला और नंबर मिलाने लगा। बात भी हो गई है।
"वैन अभी तक नहीं पहुँची।" सोहनलाल ने उधर से धीमे स्वर में कहा।
"इतनी देर क्यों हो गई?" देवराज चौहान ने पूछा।
"पता चला है कि रास्ते में पुलिस टकरा गई है।" सोहनलाल की आवाज बहुत आहिस्ता थी।
"उस वैन में जगमोहन भी है।"
"ओह!"
"पता चला कि जगमोहन इन लोगों की बात क्यों मान रहा है?" देवराज चौहान बोला।
चारों का पूरा ध्यान देवराज चौहान की बात पर था।
"इस बारे में सामने कोई बात नहीं हुई। वो कोशिश करते हैं कि मेरे सामने कोई बात ना हो।"
"वो लोग हैं कौन नहीं?"
"नहीं मालूम। वैन के यहाँ पहुँचते ही तुम्हें फोन करुँगा।"
"तुम इस वक्त कहाँ पर...।"तब तक उधर से सोहनलाल ने फोन बंद कर दिया था।
देवराज चौहान फोन बंद करता कह उठा---
"अभी वैन रास्ते में ही है। वहाँ नहीं पहुँची।" देवराज चौहान गम्भीर था--- "पता चला है कि वैन पुलिस की नजरों में आ गई है।"
"वैन पुलिस की नजरों में आ गई?" टिड्डा हड़बड़ाया।
"बचा-खुचा काम भी हो गया।" शेख ने गहरी साँस ली।
"तो अभी तक वो लोग वैन को लेकर ठिकाने पर नहीं पहुँचे?" पव्वे ने उखड़े स्वर में कहा।
"अब क्या होगा?"
"इतनी बड़ी वैन को सड़क पर दौड़ाते रहने में पुलिस का खतरा तो था ही---।" शेख ने बेचैनी से कहा।
"मुझे नहीं लगता कि अब नोट हमारे हाथ लग सकेंगे।" टिड्डे ने कहा।
चारों की निगाह एक-दूसरे पर जा रही थी।
"हमारी सारी मेहनत बेकार गई।" पव्वा कह उठा।
"साढ़े सात करोड़ मिलने पर हमने क्या-क्या सपने...।"
"ये सारी गड़बड़ जगमोहन ने की है, वरना हम तो सफल हो गए थे।" टिड्डे ने कहा।
"अगर मैं जगमोहन ने की है, वरना हम तो सफल हो गए थे।" टिड्डे ने कहा।
"अगर मैं जगमोहन के पास वैन न रोकता तो सब ठीक रहता। धोखा खा गए हम।"
"मैंने तो तेरे को कितना मना किया था...।"
प्रतापी, देवराज चौहान से बोला---
"सोहनलाल इस वक्त कहाँ हैं?"
"मैं नहीं जानता।"
"पता करो, हम सब वहीं चलेंगे।" प्रतापी ने कहा।
"हमारे वहाँ जाने का कोई फायदा नहीं। क्योंकि वैन वहाँ पर नहीं पहुँची।"
"क्या पता पहुँच गई हो?"
"पहुँची होती तो सोहनलाल बता ना देता।"
"क्या पता जगमोहन की तरह सोहनलाल भी कोई गड़बड़ी कर रहा हो? हमसे झूठ बोल रहा हो?"
"ऐसी बात नहीं है।"
"क्यों नहीं है? जगमोहन गड़बड़ कर सकता है तो सोहनलाल भी कर सकता है।"
देवराज चौहान ने प्रतापी को आँखों में देखा फिर अन्यों की।
सबकी नजरें देवराज चौहान पर थीं।
"मैं बहुत देर से तुम लोगों की बातें सुन रहा हूँ, अब खामोश हो जाओ।" देवराज चौहान ने कहा।
"तुम सोहनलाल से पूछ क्यों नहीं लेते कि वह इस इस वक्त कहाँ  है?" शेख बोला।
"जब उसका फोन आएगा तो जरूर पूछ लूँगा।" देवराज चौहान की आवाज में कुछ सख्ती थी।
चारों चुप ही रहे।
"उतावलापन मत दिखाओ। सबके साथ चलो। मुझे 60 करोड़ की भी चिंता है। जगमोहन की चिंता है। तुम सबकी चिंता है। मैं मजे नहीं कर रहा। जब तक अगली खबर, वैन के बारे में नहीं मिलती, हम कुछ नहीं कर सकते।"
"तुम्हें भरोसा इस बात का है कि सोहनलाल तुमसे सच कह रहा है?"
"भरोसा है।"
"तुम्हें जगमोहन पर भी भरोसा था कि वह तुम्हारे खिलाफ कोई गड़बड़ी नहीं कर सकता...।" परन्तु उसने की।"
"जिस बात का जवाब मेरे पास नहीं है, वह बात क्यों करते हो? वक्त आने पर जवाब मिल जाएगा। कोई तो वजह होगी जो जगमोहन ने यह किया वरना उससे काम लेना सम्भव नहीं था।" देवराज चौहान के चेहरे पर कठोरता नाच उठी।
"प्रतापी!" शेख बोला--- "देवराज चौहान ठीक कहता है।"
"म-मैंने कब कहा कि गलत कहता है। मुझे तो अपने हिस्से के साढ़े सात करोड़ की चिंता है।"
"उसमें देवराज चौहान का भी तो 30 करोड़ है।"
"परन्तु देवराज चौहान को इस बात की तसल्ली है कि गड़बड़ जगमोहन ने की है। हमसे गलती हुई होती तो क्या यह चुप बैठता?"
"बात तो ठीक कही!" टिड्डा मुस्कुराया।
देवराज चौहान ने सिगरेट सुलगा ली।
"तुम कुछ नहीं कहोगे?" पव्वे ने देवराज चौहान से कहा।
"मुझे वैन के बारे में खबर आने का इंतजार है!" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा।
◆◆◆