उपसंहार
“मैंने आप लोगों को मवालियों की ब्लैकमेल से, जबरिया वसूली से बचाया-न सिर्फ बचाया, वसूला जा चुका बत्तीस करोड़ रुपया भी लौटाने का सामान किया जो सोलह व्यापारियों से वसूला गया था। मैं सब को नहीं जानता-पहचानता, सिर्फ आप तीन को जानता हूँ इसलिए आप के रूबरू हूँ।”
विमल उस घड़ी लोखण्डवाला कम्पलैक्स, अन्धेरी में कार डीलर हीरा करनानी के आदर्श अपार्टमेंट्स में स्थित पैंटहाउस में मौजूद था और वहाँ पैंटहॉउसके भव्यड्राईंगरूम में स्वामी हीरा करनानी के अलावा फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर माधब मेहता और ज्वेलर वसन्तराव कालसेकर मौजूद थे।
“अगर आप समझते हैं” – विमल संजीदगी से आगे बढ़ा – “कि मैंने आप लोगों का, यहाँ मौजूद जनाबेहाज़रीन का या आप सरीखे बाकी तेरह व्यापारियों का कोई भला किया है तो मैं चाहता हूँ कि बदले में – रेसीप्रोकल कर्टसी के तौर पर – आप मेरा कोई भला करें।”
“क्या भला करें?” – फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर बोला।
“तू बोल न साईं, बेख़ौफ-खतर बोल, क्या चाहता है?” - कार डीलर बोला। “तेरा हुक्म सिर माथे।” – ज्वेलर बोला।
“हुक्म नहीं, साहबान” – विमल करबद्ध बोला – “दरख्वास्त है, बिनती है, कि आप सब मिल के धरम कारज एक इज्जतदार रकम का योगदान दें।”
“सब क्यों, साईं” – सिन्धी बोला – “मैं अकेला देता हूँ।”
“मैं भी, भाया।” – गुजराती बोला – “तू रकम बोल।”
“उसका आप खुद फैसला करें।” – विमल बोला।
“समझ, कर लिया।” – कालसेकर बोला – “मैं तेरा गुनहगार हूँ, इस वास्ते समझ गुनाहबख़्शी के लिए सबसे पहले बोला।”
“बाकी तेरह जनों से बात नहीं करेंगे?” – विमल बोला।
“क्यों करेंगे?” – मेहता बोला – “अभी हम हैं न!”
“ज़रूरत पड़ेगी तो कर लेंगे।”
करनानी बोला “वो कहीं भागे थोड़े ही जा रहे हैं।”
“ठीक! तो फिर रकम का कोई हिन्ट दीजिए।”
तीनों व्यवसायियों में आपस में खुफ़िया इशारेबाज़ी हुई।
फिर करनानी ने एक रकम उचरी।
“ज्यादा है।” – तत्काल विमल ने प्रतिवाद किया।
“कम है, साईं।” – करनानी बोला – “उन मवालियों ने जो वसूली की थी, उसकी सोचे तो कुछ भी नहीं है।”
“फिर भी...”
“नहीं, कोई फिर भी नहीं। सब की हामी है, इस आश्वासन के साथ हामी है कि ऐसी सेवा फिर दरकार होगी तो बेझिझक फिर हुक्म देना।”
“आप लोगों के दिल बड़े हैं ...”
“हम लोगों की ज़हमत बड़ी थी, मुसीबत बड़ी थी, जिससे हमने निजात पाई तो तेरी वजह से, सिर्फ तेरी वजह से। तूने हम लोगों के लिए जो काम किया, उसे ‘शुक्रिया साईं बोल के डिसमिस नहीं किया जा सकता। जान सूली पर टंगी जान पड़ती थी उन वसूली करने वाले कर्मांमारे मवालियों की वजह से। अब जान छूटी तो तेरी वजह से।”
“हमने राहत की साँस ली तो तेरी वजह से।” – मेहता जज़्बाती होने लगा। “हमेशा की दहशत से निजात पाई तो तेरी वजह से।” – कालसेकर बोला।
“तू दाता है,साईं,तही दाता है।”
करनानी बोला– “मैं अपनी ख़ातिर नहीं, अपने साथियों की ख़ातिर नहीं, मुम्बई के गरीब-गुरबा की ख़ातिर दुआ करता हूँ कि बड़े साईं झलेलाल की मेहर की छतरी चैम्बर का दाता’ के सिर पर हमेशा बनी रहे, अब कूपर कम्पाउन्ड और तुका का चैरिटेबल ट्रस्ट फिर पहले की तरह आबाद दिखाई दें।”
अब तीनों जज्बात की रौ में बहते दिखाई देने लगे।
“अच्छी बात है।” – विमल आख़िर बोला – “दाता और प्राप्तकर्ता के बीच में बिचौलिए के तौर पर मैं आपका तोहफा बाइज्जत कुबूल करता हूँ।”
“शुक्रिया।” – करनानी बोला – “कैश दें?”
“कैश क्यों?” – विमल से पहले मेहता ने प्रतिवाद किया – “धर्म कारज में दो नम्बर के पैसे का क्या काम!”
“ठीक! अभी बोल साईं, चैक किसके नाम?”
विमल ने बोला।
प्रधान भाई गुरतेज सिंह ने अपने सामने रखे गए चैक पर निगाह डाली तो तुरन्त उनके चेहरे पर सख़्त हैरानी के भाव आए। उन्होंने हकबका कर अपने सामने बैठे आगन्तुकों को देखा जिनमें से एक ने चैक उनके सामने रखा था।
“एक करोड़!” – मन्त्रमुग्ध से वो बोले – “गुरुद्वारा सिंह सभा, महालक्षमी के नाम!”
“जी हाँ।” – आगन्तुकों में एक बोला। “किसने दिया?”
“दिया किसी आपके धर्म स्थान से मतासिरसखी हातिमने। आपकुबूल फरमाइए।”
“नहीं, ऐसे नहीं। मेरे को मालूम होना चाहिए कि इतना बड़ा दाता कौन है जिसकी दात मेरे गुरुद्वारे को बिन माँगे मिल रही है जबकि लोग माँगे से कुछ नहीं देते, देते हैं तो सौ हज्जत कर के देते हैं।”
“वो दाता नहीं” – दसरा आगन्तुक बोला – “दूसरों के सदकार्यों में निमित्त है।”
“कौन?”
दसरे ने जवाब न दिया।
“ज़रूर जानना चाहते हैं?” – पहला बोला।
“हाँ। बोलो कौन?”
“जो जनवरी से मई तक गुमनाम आपके गुरुद्वारे में फर्श धोता था, बाटियाँ माँजता था, जूते उठाता था।”
प्रधान जी ने अवाक् वक्ता को देखा। कई क्षण वो ख़ामोशी न टूटी।
“उसने”– फिर उनके मुंह से निकला – “उसने चैक दिया?”
“दिया नहीं, चैक आपको मिले, इसका ज़रिया बना।”
“एक ही बात नहीं?”
“आप समझते हैं एक ही बात है तो बेशक समझिए”
“अच्छा !”
“ये चन्दा ख़ुशी से, दिल से, शुभ कारज आपके गुरुद्वारे की नज़र है, ये कोई पाप की कमाई नहीं, दाताओं के गाढ़े पसीने की कमाई है। दाताओं ने जो किया, ख़ुद किया, इस लोक में सबाब कमा कर परलोक सुधारने के लिए किया – सिर्फ इस फर्क के साथ कि ये आप के पुराने कार सेवक ने सुझाया कि सबाब का जो काम करना था, उसके लिए बेहतरीन ठिकाना कौन-सा था!”
“बेहतरीन ठिकाना ये गुरुद्वारा!”
“जी हाँ।”
“ख़द क्यों न आया?”
“आपसे शर्मिंदा है क्योंकि अपने गुनाह की तलाफी को बीच में छोड़ कर चला गया ...”
“अपनी निष्ठा से, अपनी लगन से, अपने निर्मल मन में हमें शर्मिंदा कर गया।”
प्रधान जी का गला भर आया।
“वो कोई अवतारी मनुख था” – उनकी आँखें डबडबा आईं – “जो अपने दिव्य प्रकाश नाल गुरां दे इस अस्थान नू प्रकाशित कर गया।”
“जनाब, आप ऐसा समझते हैं तो ये आपका बड़प्पन है और उसकी बड़ी कमाई है जो उसे हमेशा याद रहेगी। अब चैक कुबल कीजिए और हमें इजाज़त दीजिए।”
“वो तो मैं करता हूँ पर, काका, तू कौन है?”
“मेरे को नाम बोलने में हिचक है।”
“क्यों भला?”
“कहीं आप ये न समझ लें कि आपकी इबादतगाह नापाक हो गई।”
“तेरी ज़ुबान से लगता है मुसलमान है!”
“जी हाँ। इरफान नाम है। ये शोहाब है।”
“काका, धर्म स्थान सबके लिए होता है, सिर्फ जहाँ कदम रखा जाए, वहाँ के लिए आस्था भले ही न हो, अनास्था नहीं होनी चाहिए। हरमिन्दर साहब के बारे में जानते हो न, जो सिखों का सब से बड़ा तीर्थ है! जैसे क्रिस्तान के लिए वेटीकन सिटी है, मुसलमान के लिए मक्का है, सिखों के लिए वैसे अमृतसर में स्थापित हरमिन्दर साहब है जिसको गोल्डन टेम्पल भी कहा जाता है।”
“जानते हैं।”
“लेकिन ये शायद न जानते होगे कि सन् 1589 में हरमिन्दर साहब की नींव रखने वाला सूफी संत तुम्हारा जात भाई था ... नाम बाबा साईं मीर मोहम्मद साहब उर्फ मियां मीर था।”
“जानकर खुशी हुई।”
इरफ़ान उठ खड़ा हुआ शोहाब भी उठा – “इजाज़त दीजिए।”
तब भी जज़्बात की रौ में बहते प्रधान जी केवल सहमति में सिर हिला सके।
क्या बन्दा था? – पीछे बरबस उनके मुँह से निकला – क्या बन्दा था!
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