11 मई : सोमवार
सुबह के अभी नौ ही बजे थे कि एक इन्सपेक्टर कूपर कम्पाउन्ड पहुँचा।
वो उम्र में कोई पैंतालीस साल का था और बाकायदा वर्दी पहने था। खूब हट्टा-कट्टा था और सूरत से मवालियों जैसी कठोर शक्ल वाला मराठा जान पड़ता था। आँखों पर पतली कमानियों वाला वैसा काला चश्मा लगाए थे जैसा आजकल पुलिस अधिकारियों का जे़वर बना हुआ था।
विमल और इरफ़ान संयोग से उस घड़ी बाल्कनी में बैठे चाय पी रहे थे। नाइट ड्यूटी करके आया शोहाब सो रहा था।
पहले इरफ़ान की उस पर निगाह पड़ी।
“पुलिस वाला!” – इरफ़ान के मुँह से निकला – “तीन सितारों वाला! सुबह -सवेरे!”
विमल ने भी नीचे झाँका और संजीदगी से सिर हिलाया।
“क्या माँगता होगा?”
“अभी मालूम पड़ जाएगा।” – विमल बोला – “यहाँ आया है तो होगा तो हमारी ही फिराक में!”
तब इन्सपेक्टर की ऊपर बाल्कनी की तरफ निगाह उठी।
“ए!” – वो कर्कश स्वर में बोला – “नीचे आओ।”
दोनों नीचे पहुँचे।
नीचे वो उन्हें यूँ घूरता मिला जैसे नाराज़गी जता रहा हो कि उसका हुक्म सुनते ही बालकनी से छलाँग मार कर नीचे क्यों नहीं पहुँचे थे।
“सलाम बोलता है, बाप!” – इरफ़ान अदब से बोला।
इन्सपेक्टर ने अहसान-सा करते हुए एक बार सिर को ऊपर से नीचे हरकत देकर सलाम कबूल किया फिर घूर कर विमल की तरफ देखा।
विमल ने ख़ामोश अभिवादन किया।
“नाम बोले तो?” – इन्सपेक्टर सख़्ती से इरफ़ान से मुख़ातिब हुआ।
“इरफ़ान!”
“पूरा नाम!”
“इरफ़ान अहमद खान चंगेज़ी।”
“चंगेज़ी! क्या मतलब?”
“नाम है, बाप।”
“अरे, नाम का कोई मतलब होता है!”
“होता है पण मालूम नहीं। मतलब बताया नहीं अब्बू ने। और किसी से पूछा नहीं।”
“क्या काम करते हो?”
बेकार के सवाल थे – विमल ने महसूस किया – जो किसी मसले की बुनियाद के तौर पर नाहक पूछे जा रहे थे। इन्सपेक्टर किसी ख़ास ही वजह से वहाँ था जिसकी बाबत अपनी मनमाफ़िक हाजिरी लगा चुकने के बाद वो कुछ उचरता।
इरफ़ान ने बताया।
“ये कौन है?”
“सामने ट्रस्ट का केयरटेकर है। उधरीच रहता है। अभी मेरे साथ सुबू का चाय पीने आया।”
“इधर” – इन्सपेक्टर ने इरफ़ान की पीठ पीछे इशारा किया – “और कौन रहता है?”
“एक भीड़ू और है। शोहाब नाम है। जुहू के होटल अमृत में सिकोटिरी के अफ़सर की नौकरी करता है . . .”
“क्या बोला!”
“सिक्योरिटी ऑफ़िसर की।” – विमल ने संशोधन किया।
“उसे बुलाओ।”
“बाप, रात पाली किया। अभी सोता है।”
“उठाओ।”
इरफ़ान ऊपर गया और आँखें मलते शोहाब के साथ उलटे पांव वापिस लौटा।
“क्या हुक्म है?” – शोहाब जमहाई लेता हुआ बोला।
“तो” – इन्सपेक्टर बोला – “तुम्हारा नाम शोहाब है?”
“जी हाँ।”
“पूरा नाम?”
“शोहाब अहमद।”
“अहमद! चंगेज़ी नहीं?”
“नहीं।”
“वजह?”
“इरफ़ान मेरा दोस्त है, माँजाया नहीं है, ये है वजह। आप हुक्म फरमाइये।”
“इधर की बहुत शिकायतें हैं मेरे पास।” – इन्सपेक्टर रौब से बोला – “मालूम पड़ा इधर बहुत लोग जमा होते हैं।”
“आपको हम तीन के अलावा यहाँ कोई दिखाई दिया? या लगा कि कोई होगा?”
“अब नहीं तो पहले जमा होते होंगे!”
“परमानेंट कोई नहीं रहता। कुछ लोग किसी मजबूरी के मारे ओवरनाइट इधर टिकते हैं, बस।”
“मजबूरी क्या?”
“टैक्सी चलाते हैं। कभी नहीं घर पहुँच पाते – जैसे बारिश के मौसम में जो कि आगे आ रहा है – तो रात को इधर रुक जाते हैं।”
“अनजान लोग?”
“इरफ़ान के वाकिफ़, जोड़ीदार कैब ड्राइवर।”
“सैंकड़ों की तादाद में!”
“जनाब, इधर सैंकड़ों के लायक गुंजायश है?”
“हम्म!”
“तीन-चार लोग ही ऐसे होते हैं कभी-कभार। बरसात में अलबत्ता ज़्यादा हो जाते हैं।”
“कितने ज़्यादा?”
“आठ-दस।”
“ये ग़ैरकानूनी है। टेनेंट वैरीफि़केशन प्रोग्राम के तहत ग़ैरकानूनी है।”
“टेनेंट कौन बोला! ऐसे ओवरनाइट रहने वालों से क्या कोई किराया चार्ज किया जाता है!”
“दोस्त होते हैं वो भीड़ू लोग।” – इरफ़ान बोला – “हमपेशा दोस्त होते हैं।”
“फै़लो कैब ड्राइवर होते हैं।” – शोहाब बोला।
“सब गलत है।” – इन्सपेक्टर अप्रसन्न भाव से बोला – “जिनको तुम लोग यार-दोस्त बोलते हो, हो सकता है वो जरायमपेशा लोग हों जिनको कि यहाँ पनाह मिलती है।”
“ख़ामख़ाह!” – इरफ़ान तमक कर बोला।
शोहाब ने अर्थपूर्ण भाव से उसका कन्धा दबाया और विनयशील स्वर में बोला – “ऐसा कुछ नहीं है, जनाब। फिर भी आपको ऐतराज़ है तो आइन्दा हम उनको इधर नहीं रुकने देंगे।”
“पहले क्यों रुकने देते रहे?”
“अब क्या बोलें, जनाब! पहले हमें नहीं मालूम था कि हम कोई काबिले- ऐतराज़ काम कर रहे थे।”
“तुम और ये” – इन्सपेक्टर ने ठोड़ी ऊंची करके इरफ़ान की तरफ इशारा किया – “इस मकान में रहते हो?”
“जी हाँ।”
“किस हैसियत से?”
“किरायेदार हैं।”
“किसको किराया देते हो? कौन है मकान मालिक?”
“मकान मालिक यहाँ नहीं रहता। सोनपुर रहता है।”
“वो कहाँ है?”
“राजनगर के पास है। वहाँ से बत्तीस किलोमीटर दूर एक देहाती इलाका है सोनपुर, जहाँ उसकी ज़मींदारी है।”
“राजनगर तो यहाँ से हज़ार किलोमीटर दूर है!”
“हाँ।”
“प्रॉपर्टी मुम्बई में? मालिक ख़ुद राजनगर में?”
“अभी बत्तीस किलोमीटर और आगे।”
“कैसे मैनेज करता है?”
“नहीं कर पाता अब। बेचने की फिराक में है। ग्राहक ढूंढ़ रहा है।”
“सोनपुर बैठा?”
“इधर पोचखानावाला करके एक प्रॉपर्टी डीलर है, उसके ज़रिए।”
“एडलजी बोमन जी पोचखानावाला मालूम मेरे को। पारसी प्रॉपर्टी डीलर। बड़ी हैसियत वाला। उससे बात हो चुकी या अभी होनी है?”
“अभी होनी है। मालिक बरसातों बाद इस काम से इधर आएगा।”
“सब बेच देगा?”
“मेरे ख़याल से सब नहीं।”
“नाम बोले तो?”
“आत्माराम।”
“माहाना किराया कैसे भरते हो?”
“माहाना नहीं भरते। साल में एक बार भरते हैं। तब मालिक ख़ुद इधर फेरा लगाता है।”
“कब से हो यहाँ?”
“तीन साल से।”
“तीन साल से होटल अमृत की नौकरी में? ये कैब ड्राइवरी में?”
“नहीं। पहले हम दोनों होटल सी-व्यू के मुलाज़िम थे। वो ढह गया तो मौजूदा काम पकड़े।”
“ये?” – उसने विमल की तरफ संकेत किया, फिर जवाब मिलने से पहले उसने जोड़ा – “ख़ुद बोल।”
“मैं शुरू से ट्रस्ट की नौकरी में हूँ।” – विमल बोला।
“मैंने तो सुना है ये तुकाराम करके जो चैरिटेबल ट्रस्ट है, कब का किन्हीं और हाथों में पहुँच चुका है!”
“ठीक सुना है। लेकिन मुम्बई में हर किसी को ये बात मालूम नहीं इसलिए अभी भी इधर ज़रूरतमंद लोग मदद हासिल होने की उम्मीद में आते हैं।”
“होती है मदद हासिल?”
“कहाँ से होगी! जब आप जानते ही हैं कि सारा सैटअप किन्हीं और हाथों में पहुँच गया हुआ है तो . . .”
“तो तुम्हारा, केयरटेकर का, इधर क्या काम है?”
“लोगों को बताना पड़ता है, समझाना पड़ता है कि अब इधर से कोई उम्मीद न रखें।”
“तुम वाॅलंटियर हो? फ़्री में ये काम करते हो?”
“नहीं, फ़्री में तो नहीं करता। यहाँ के कुछ पुराने डोनर हैं जो अभी भी डोनेशन भेजते हैं। वो डोनेशंस ही मेरी तनखाह का ज़रिया है।”
“नाम क्या बोला?”
“नहीं बोला। गिरीश कुमार नाम है।”
“कोई प्रूफ़ ऑफ़ आइडेन्टिटी है?”
“ड्राइविंग लाइसेंस . . . था। पर अब नहीं है।”
“क्यों? कहाँ गया?”
“लोकल में कोई पॉकेट मार लिया। पर्स के साथ गया।”
“थाने रपट लिखवाई?”
“गया था लिखवाने। पैसा माँगते थे। पैसे बिना . . . डांट के भगा दिया।”
“अच्छा, अच्छा! ज्यास्ती नहीं बोलने का। बैंक एकाउन्ट भी प्रूफ ऑफ़ आइडेन्टिटी होता है। क्या!”
“बैंक एकाउन्ट नहीं है।”
“क्यों?”
“तनखाह नकद मिलती है। इसलिए ज़रूरत नहीं पड़ी।”
“क्यों ज़रूरत नहीं पड़ी? तनखाह से जो बचता है, वो पास रखता है?”
“कुछ बचता ही नहीं। मामूली तनखाह है इसलिए नकद मिलती है।”
“कितनी?”
“पन्द्रह हज़ार।”
“बस!”
“बोले तो तनखाह नहीं, आॅनरेरियम है। डोनर्स से यहाँ की आमदनी बंद हो गई तो हो सकता है आइन्दा न भी मिले।”
“दिस इज़ आउट ऑफ़ आॅर्डर। हर भीड़ू के पास कोई न कोई प्रूफ ऑफ़ आइडेन्टिटी होना ज़रूरी।”
“मैं नवां ड्राइविंग लाइसेंस बनवाता है न! बाप, आप ही के थाने आता है। मेरी रिपोर्ट दर्ज करना। मेहरबानी होगी। कौन से थाने से हो?”
“पीछे कहाँ से हो?”
“मैं समझा नहीं।”
“अरे, मुम्बई में किधर से आए?”
“अच्छा, वो? दिल्ली से।”
“वहाँ क्या करते थे?”
“तांगा चलाता था।”
“क्या बोला?”
“तांगा . . . तांगा चलाता था। जैसे इधर कभी विक्टोरिया होती थी, वैसे उधर तांगा होता था। जैसे इधर विक्टोरिया बंद हो गई, वैसे उधर तांगा बंद हो गया। यानी मैं बेरोजगार हो गया। फिर इधर आ गया। अब तीन साल से इधर हूँ।”
“कोई पढ़ाई-लिखाई न की?”
“इंटर पास हूँ।”
“वहाँ रहते कहाँ थे?”
“होटल ओबराय इन्टरकांटीनेंटल में।”
“मज़ाक मत करो।”
“मज़ाक तो आप कर रहे हो! कहाँ रहता होगा अकेली जान तांगा चलाने वाला! जहाँ घोड़ा रहता था, वहाँ मैं रहता था।”
“कहाँ?”
“तौबा! घुड़साल में।”
“गुस्ताखी माफ़, जनाब” – एकाएक शोहाब बोला – “हमारी इतनी जवाबदारी का मकसद क्या है? क्यों हमसे इतने सवाल पूछे जा रहे हैं?”
इन्सपेक्टर ने घूर कर शोहाब को देखा, शोहाब विचलित न हुआ तो इन्सपेक्टर बोला – “मालूम हुआ है, इस कम्पाउन्ड की सारी इमारतों का एक मालिक है।”
“तो इसमें काबिलेऐतराज़ क्या है? ग़ैरकानूनी क्या है?”
“ये मनी लांडरिंग का केस हो सकता है। दो नम्बर का रोकड़ा ठिकाने लगाने का केस हो सकता है। मालिक को अपने सोर्स ऑफ़ इंकम की, सोर्स ऑफ़ इनवेस्टमेंट की सफ़ाई देनी होगी।”
“मालिक तुकाराम था, जिसके नाम से उधर उस सामने मकान में चैरिटेबल ट्रस्ट चलता था, जो इंतकाल फरमा गया।”
“मैंने सुना है तुकाराम का नाम, जो गैंगस्टर-टर्नड-होलीमैन था। उसकी ज़िन्दगी में उसका मकान गिरवी था। अभी जिस पारसी प्रॉपर्टी डीलर का मैंने नाम लिया, उसी के पास साठ लाख रुपए में गिरवी था। रुपए-पैसे से इतना मोहताज शख़्स इतनी प्रॉपर्टी का – सारे कम्पाउन्ड का – मालिक कैसे बन गया?”
“हम क्या जानें! हम तो महज़ किरायेदार हैं!”
“जब तुकाराम इस दुनिया में नहीं है तो किसके किरायेदार हो? कोई वारिस भी तो होगा तुकाराम का या सारा कम्पाउन्ड ही धर्माथ है, चैरिटी के लिए है?”
“ऐसा तो नहीं है!”
“तो कैसा है? कौन है वो शख़्स जो बाई इनहैरिटेंस मौजूदा प्रॉपर्टी का मालिक है?”
“जनाब, जरा अपनी याददाश्त पर ज़ोर देने की तकलीफ़ कीजिए, ये सब आप पूछ चुके हैं, हम बता चुके हैं। आत्माराम नाम है लीगल हायर का जो कि तुकाराम का सगा भांजा है और तुकाराम का इकलौता जीवित, करीबी रिश्तेदार है। आत्माराम तुकाराम की सगी बहन का बेटा है।”
“उसे इधर बुलाओ।”
“जनाब, मैंने बोला न वो . . .”
“सुना मैं। याद है मेरे को क्या बोला! सोनपुर इंगलैंड में नहीं है, फ़्रांस में नहीं है, हिन्दोस्तान में ही है। इधर की ओनरशिप के तमाम कागज़ात के साथ उसको इधर बुलाओ। उसको इतनी प्राइम प्रॉपर्टी के सोर्स ऑफ़ इनवेस्टमेंट की भी जवाबदारी करनी होगी, भले ही इनवेस्टमेंट अपनी ज़िन्दगी में उसके स्वर्गवासी मामू ने की हो। मर के कोई ऐसी इंक्वायरी की ज़िम्मेदारी से बरी नहीं हो जाता . . .”
“ऐसी इंक्वायरी करना पुलिस का काम नहीं है। इंकम टैक्स डिपार्टमेंट का काम है, एनफ़ोर्समेंट डायरेक्ट्रेट का काम है। इकॉनोमिक ऑफेंसिज़ विंग का काम है।”
“पुलिस का भी काम है।”
“पुलिस का काम मदद माँगी जाने पर इन महकमों में से किसी की मदद करना है, तब मदद करना है जब वो मदद की ज़रूरत जानें।”
“ज़्यादा कानून बघारने की ज़रूरत नहीं। ये पुलिस का भी काम है।”
“तब है जब किसी ने एफ़आईआर दर्ज कराई हो।”
“तुम्हें क्या मालूम नहीं कराई?”
“कराई है तो एफ़आईआर की कॉपी देना।”
“किसको? तुम्हें! जो यहाँ किरायेदार हो!”
“केयरटेकर को।”
“ये सामने, ट्रस्ट वाले मकान का केयरटेकर है?”
“ये अक्खे कूपर कम्पाउन्ड का केयरटेकर है। सब बंद इमारतों की चाबियाँ इसके पास रहती हैं।”
“ये दिखाए ऐसा कोई कागज-पर्चा जो इसके इस स्टेटस की तसदीक करता हो।” – इन्सपेक्टर विमल की ओर घूमा – “है तेरे पास ऐसा कोई डाकूमेंट तो जा, ले के आ। मैं ठहरता है इधर।”
“बाप, ये जैसा बोलेगा” – इरफ़ान सर्द लहज़े से बोला – “वैसा करेगा पण पहले मेरे को एक बात का जवाब माँगता है।”
“क्या बात?” – इन्सपेक्टर भुनभुनाया।
“किसका भड़वा है? किसी नेता का या किसी ‘भाई’ का?”
इन्सपेक्टर का चेहरा लाल होने लगा, उसका हाथ थप्पड़ की तरह घूमा।
विमल ने रास्ते में ही हाथ थाम लिया।
इन्सपेक्टर ने क़हरबरपा निगाह विमल पर डाली।
“हाथ छोड़!” – वो साँप की तरह फुंफकारा।
“फौजदारी नहीं।” –विमल शान्ति से बोला – “अगर तफ़्तीश के लिए आए हो तो तफ़्तीश करो, फौजदारी नहीं।”
“हाथ छोड़!”
“तमीज़ से बोलो, छोड़ता हूँ।”
इन्सपेक्टर कसमसाया, अपनी पुरज़ोर कोशिश से वो हाथ नहीं छुड़ा सका था।
“हाथ छोड़ो।” – आख़िर बोला।
विमल ने हाथ छोड़ दिया।
“बावर्दी पुलिस अफ़सर पर हाथ डाला।” – फौरन वो फिर गर्जने लगा – “नतीजा गंभीर होगा।”
“तेरा भी।” – इरफ़ान बोला – “अकेला आया। लाश का पता नहीं लगेगा।”
“धमकी देता है?”
“देता है न!”
“गिरफ़्तार करके थाने ले के जाऊँगा।”
“अकेला! तीन जनों को!”
“तू एक पुलिस अफ़सर से ऐसे . . .”
“भड़वे को। पुलिस अफ़सर तेरे जैसे होते हैं! भाई लोगों का मैला चाटने वाले!”
“पता नहीं” – विमल धीरे से बोला – “पुलिस वाला है भी या नहीं!”
शोहाब ने सहमति में सिर हिलाया।
“जनाब” – फिर बोला – “आप भी तो कोई प्रूफ ऑफ़ आइडेंटिटी दिखाइए ताकि हमें पता लगे कि आप असल में पुलिस इन्सपेक्टर हैं, भाड़े की खाकी वर्दी पहने कोई बहुरूपिये नहीं, जैसा इरफ़ान ने कहा, किसी नेता या भाई के . . .”
“शटअप!” – इन्सपेक्टर फिर भड़का।
“यही बताइए, कौन से थाने से हैं – थाने से हैं या पुलिस के किसी और महकमे से हैं – और नाम! बोले तो नाम तो वर्दी पर लगी नेम प्लेट पर ही लिखा है . . .”
शोहाब ने आगे झुक कर नाम पढ़ने की कोशिश की तो इन्सपेक्टर ने वर्दी की दाईं जेब के ऊपर लगी नेम प्लेट उतार कर जेब में रख ली। उसके बाद उसने शोहाब को मुँह खोलने का मौका न दिया, वो कठोर, अधिकारपूर्ण, ख़ास पुलिसिया लहज़े से बोला – “मेरी बात सुनो गौर से। अभी जो जिसने वाहियात मेरी बाबत बका, मैं उसे नज़रअन्दाज कर रहा हूँ क्योंकि आइन्दा जो कुछ यहाँ होगा, उससे उसकी सारी कसर निकल जाएगी। मैं तुम लोगों को दो दिन का वक्त देता हूँ। जो भी इधर का मालिक है, दो दिन के अंदर बमय कागज़ात यहाँ मौजूद दिखाई दे, वर्ना प्रॉपर्टी की अटैचमेंट का हुक्म जारी होगा और तुम लोगों को गुंडा एक्ट के तहत गिरफ़्तार किया जाएगा। दस साल की लगेगी। परसों आता हूँ इसी वक्त बैक अप के साथ। तब तक यहाँ से फरार होना चाहो तो तुम्हें खुली छूट है।”
उसने मुँह फेरा और लम्बे डग भरता वहाँ से रुख़सत हो गया।
“पता नहीं आया कैसे था?” – पीछे इरफ़ान बड़बड़ाया – “कोई पुलिस की बाइक नहीं, जीप नहीं। कहीं सच में तो नकली नहीं था!”
“नहीं, नकली नहीं था।” – विमल गंभीरता से बोला – “लेकिन तेरे अंदाज़े के मुताबिक भाई लोगों का भड़वा बराबर था। भाई लोगों की हिदायत और किसी ज़रूरत के तहत ही वो वर्दी का रौब दिखा कर हम लोगों को हड़काने आया था।”
“फिर तो आगे भी प्रॉब्लम करेगा!” – शोहाब चिन्तित भाव से बोला।
“और हम” – इरफ़ान भी अब चिन्तित दिखाई दिया – “आत्माराम कहाँ से लाएंगे, कागजात कहाँ से लाएंगे! आत्माराम तो तुका की ज़िन्दगी में, बाप, तू ही था जबकि ‘कम्पनी’ का तब का टॉप बॉस इकबाल सिंह तुका पर चढ़ दौड़ा था और उसे वहाँ मौजूद तेरे को सोनपुर से आया अपनी बहन का लड़का बताना पड़ा था। अब जब कि तेरे को पहले ही ट्रस्ट का केयरटेकर बताया जा चुका है तो तू भांजा आत्माराम तो अब बन नहीं सकता।”
“फिर” – शोहाब बोला – “हम उस इन्सपेक्टर का नाम तक नहीं जानते . . .”
“जानते हैं।” – विमल शान्ति से बोला – “वर्दी पर नेम प्लेट का ज़िक्र आख़िर में आया था, बाकी टाइम नेम प्लेट वर्दी पर मौजूद थी और उस पर से मैंने उसका नाम पढ़ा था।”
“अच्छा! क्या नाम था?”
“रामदास महाडिक। नाम मालूम है तो ये पता लगा लेना कोई मुश्किल काम नहीं है कि वो कौन से थाने में ड्यूटी करता है।”
“मैं मालूम कर लूंगा।”
“गुड! लेकिन सबसे पहले चैम्बूर पुलिस स्टेशन ट्राई करना, क्योंकि वो फासले से आया नहीं हो सकता।”
“वो तो मैं करूँगा लेकिन जो वॉर्निंग उछाल के गया, उसका क्या होगा?”
“उसके लिए मेरे पास एक तुरूप का पत्ता है, चल के देखता हूँ। हमारे पास दो दिन हैं, दाे दिन तो हम इंतज़ार कर ही सकते हैं कि हमारी चाल कारगर हुई या नहीं?”
“उम्मीद क्या है?” – इरफ़ान बोला – “होगी?”
“अगर मुम्बई के पुलिस कमिश्नर अभी भी जुआरी ही हैं तो पूरी उम्मीद है कि होगी।”
“वही हैं।” – शोहाब बोला – “मालूम मेरे को।”
“गुड!”
दोपहर के करीब रुआंसी सूरत बनाए हनीफ़ गोगा कूपर कम्पाउन्ड पहुँचा।
और इरफ़ान और शोहाब के रूबरू हुआ।
“क्या हुआ तेरे को?” – इरफ़ान बोला – “अम्मी इंतकाल फरमा गईं या अब्बू जान फौत हुए?”
“इरफ़ान भाई” – हनीफ़ सूरत जैसी ही रुआंसी आवाज़ से बोला – “मज़ाक न करो।”
“क्या हुआ?”
“जान जाते-जाते बची।”
“कब? कैसे? कहाँ?”
“कल। शिवाजी चौक पर। वहाँ के ऑफ़िस में। जहाँ कल अनिल विनायक के साथ अहसान भाई की जगह उमर सुलतान मौजूद था . . .”
“क्यों? अहसान कुर्ला कहाँ गया?” – जानबूझ कर अंजान बनते इरफ़ान ने सवाल किया।
“बॉस ने – कुबेर पुजारी ने – उधर से हटा दिया। किसी और काम में लगा दिया। अब उधर उसकी जगह उमर सुलतान ड्यूटी करता है जो कि कुबेर पुजारी का ख़ास है।”
यानी हनीफ़ को पास्कल के बार में हुए अहसान कुर्ला के बद्हाल की कोई ख़बर नहीं थी!
क्या बड़ी बात थी! आख़िर हनीफ़ मामूली प्यादा ही तो था! ऊपर वालों की हर बात की ख़बर उसे कैसे होती!
“जान कैसे जाती बची तेरी?” – प्रत्यक्षत: इरफ़ान ने पूछा।
“उमर सुलतान गोली मारने लगा था।”
“अरे! ऐसा क्या हो गया था? ठीक से, तफसील से बता।”
हनीफ़ ने पिछले रोज़ का तमाम किस्सा बयान किया।
“ओह!” – वो चुप हुआ तो इरफ़ान बोला – “तो उधर उनकी पकड़ में आ गया कि पिछले मंगलवार वैगन-आर में अनिल विनायक और अहसान कुर्ला जो डायलॉग करता था वो तू सुनता था और तूने उसे – पत्थरबाज़ों की इस्टोरी को – इधर पहुँचाया था!”
“इरफ़ान भाई, सब तुम्हारे मुलाहजे की वजह से हुआ। उमर सुलतान ने मेरे को गोली मारने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।”
“दिन दहाड़े! चलते ऑफ़िस में!”
“सब को डिसमिस करके। खाली एक चपरासी को छोड़कर जिसको मेरी लाश ठिकाने लगाने का हुक्म हुआ था।”
“बचा कैसे?”
“वापिस उनके लिए इधर की जासूसी करना कुबूल किया।”
इरफ़ान ने शोहाब की तरफ देखा।
“हो सकता है।” – शोहाब धीरे से बोला – “मरता क्या न करता!”
“वही तो!” – हनीफ़ का वक्ती तौर पर स्थिर हुआ लहज़ा फिर रुआँसा हुआ – “बाकायदा हुक्म हुआ कि मैं जानबख्शी चाहता था तो जैसे मैं उधर की जासूसी करता था, वैसे मैं इधर की करूँ। मैं हालात को पूरी तरह से नॉर्मल रखूँ और यहाँ की ख़बरें उधर पहुँचाऊँ।”
“यहाँ क्या रखा है?” – शोहाब बोला।
“यहीच बोला मैं।” – हनीफ़ व्यग्र भाव से बोला – “पण उमर सुलतान बोला जब इधर की बात उधर पहुँचाई, इधर वालों के कहने पर उधर पहुँचाई तो कुछ तो रखा ही होगा इधर! शोहाब भाई, इस बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था।”
शोहाब ने वापिस इरफ़ान की ओर देखा।
“तेरी पिराब्लम ये है” – इरफ़ान बोला – “कि तेरे को इधर की जासूसी करने का हुक्म है, तूने जासूसी में कोई कामयाबी दिखानी है, तभी तेरी जानबख्शी होगी। बरोबर?”
“हाँ।”
“रहेगा किसकी तरफ? हमारी तरफ या उनकी तरफ?”
हनीफ़ ने आहत भाव से उसकी तरफ देखा।
“ऐसे न देख। अमली बात है इसलिए सवाल पूछा। दो खसम कर सकेगा?”
उसने इंकार में सिर हिलाया।
“तो फैसला कर, मौजूदा हालात के तहत आइन्दा किसकी तरफ होगा?”
“तुम्हारी तरफ।” – वो बेहिचक बोला।
“शाबाश! मेरे को तेरे पर, तेरी बात पर ऐतबार! अब तेरा पिराब्लम ये है कि उधर अपना क्रेडिट बना के रखने के वास्ते तेरे को इधर की कोई करारी ख़बर माँगता है जिसे तू उधर परोस सके। क्या!”
“हाँ।”
“मैं करता है तेरी ज़रूरत पूरी। परसों सुबू इधर आना।”
“परसों!”
“मायूस हो के दिखाने की ज़रूरत नहीं है, अक्कल से काम लेने की ज़रूरत है। अभी से इधर कुछ ले के जाएगा तो वो समझ जाएंगे कि बनाई हुई बात थी। फिर कैसे उधर तेरा क्रेडिट बनेगा?”
“उलटे” – शोहाब बोला – “डिसक्रेडिट होगा तेरे नाम कि हालात के दबाव में आकर तूने एक फर्ज़ी बात गढ़ ली और उसके अासरे वाहवाही लूटने की कोशिश की।”
“वो बोलते हैं न, सहज पके सो मीठा होये। मालूम?”
“हं-हाँ।” – हनीफ़ बोला।
“परसों आना, तेरे लिए एक करारी ख़बर उधर परोसने के लिए पका कर रखेंगे।”
“ऐसी कि” – शोहाब बोला – “सुनने वाला तेरी जासूसी की तारीफ करे।”
“ऐसी ख़बर” – हनीफ़ गोगा संदिग्ध भाव से बोला – “इधर का नुकसान नहीं करेगी?”
“नहीं करेगी।” – इरफ़ान बोला – “ख़बर ऐसी होगी कि सुनने वालों को सुनते ही जाँच जाएगी पण हमेरे वास्ते उसका होना, न होना एक बराबर होगा। अब राज़ी?”
“हाँ। तो परसों?”
“सुबू। न आ सके तो फोन करना।”
“मैं सुबह ज़रूर . . .”
“बढ़िया। निकल ले।”
वो उठ खड़ा हुआ पर रुख़सत न हुआ।
“अब क्या है?” – इरफ़ान शुष्क लहज़े से बोला।
“मेरे से तुका के ट्रस्ट के बारे में पूछा गया था जो सामने चलता है . . .”
“चलता था। कैसा भीड़ू है तू उनका जो इतना भी नहीं जानता?”
“तेरे बाप लोगों की वजह ही से तो” – शोहाब बोला – “इधर सब उजड़ गया।”
“आती बार” – हनीफ़ बोला – “मैंने उधर का दरवाज़ा खुला देखा था, इस वास्ते पूछा।”
“एक केयरटेकर होता है उधर।”
“ओह! नाम बोले तो?”
“काहे वास्ते?”– इरफ़ान तीखे स्वर में बोला – “क्या करेगा नाम का?”
“कुछ नहीं।” – वो यूँ बोला जैसे बड़बड़ा रहा हो – “ऐसीच पूछा। जाता है।”
“ख़ुदा हाफिज़!”
मुम्बई पुलिस कमिश्नर जुआरी की माॅर्निंग में होम मिनिस्टर से मीटिंग थी जिसकी वजह से अपने ऑफ़िस पहुँचने से पहले कमिश्नर साहब को सचिवालय पहुँचना पड़ा था जहाँ दस मिनट की मीटिंग के लिए उन्हें ढाई घंटे इन्तज़ार करना पड़ा था। नतीजतन, अब दो बजे कमिश्नर साहब फोर्ट में स्थित अपने ऑफ़िस में पहुँचे थे। आते ही उन्होंने अपने लिए कॉफ़ी का ऑर्डर दिया था जो वो जानते थे कि कभी-कभार ही बढ़िया बनती थी। पर उन्हें यकीन था कि क्योंकि कॉफी कमिश्नर साहब के लिए थी इसलिए उसे बढ़िया बनाने की कोशिश ज़रूर की जाएगी।
उनकी ऑफ़िशियल मेल उनका पीएस देखता था, जो कि डिप्टी कमिश्नर के रैंक का था, लेकिन पर्सनल मेल कमिश्नर साहब हमेशा ख़ुद देखते थे।
मेल देखने का सिलसिला शुरू हुआ तो उन्होंने पाया कि एक मेल कदरन लंबी थी। तब तक पहुँच चुकी कॉफी के साथ उन्होंने छोटी-मोटी टैक्स्ट वाली मेल पहले देखीं फिर आख़िर में लंबी मेल की तरफ तवज्जो दी थी।
लिखा था :
परम आदरणीय कमिश्नर जुआरी साहब,
सादर प्रणाम के बाद मैं आपको राजा गजेन्द्र सिंह की याद दिलाना चाहता हूँ जिनसे आप जब होटल सी-व्यू आबाद था तो कई मर्तबा मिले थे – जैसे कि ओरियन्टल होटल्स एंड रिज़ॉर्ट्स के चेयरमैन रणदीवे की बेटी की शादी में, जैसे नए साल की होटल द्वारा आयोजित पार्टी में जिसमें आप सपत्नीक पधारे थे। मुझे उम्मीद है राजा गजेन्द्र सिंह को आप भूले नहीं होंगे, फिर भी उनका परिचय दोहराता हूँ।
राजा गजेन्द्र सिंह, एनआरआई फ्रॉम नैरोबी एंड दि लास्ट बीकन ऑफ़ दि रॉयल फ़ैमिली ऑफ़ पटियाला एंड आलसो ओनर ऑफ़ होटल सी-व्यू बाई वर्च्यू ऑफ़ ए लांग टर्म लीज़ फ्रॉम ओरियन्टल होटल्ज़ एंड रिज़ॉर्ट्स ।
सर, होटल सी-व्यू के नेस्तनाबूद हो जाने के बाद राजा साहब की बाबत और किसी साजिश के तहत धराशायी हुए होटल सी-व्यू की बाबत आपके तलब किए ख़ाकसार आपके ऑफ़िस में आपके हुजूर में पेश हुआ था और अपना परिचय राजा साहब के प्राइवेट सैक्रेट्री अरविन्द कौल के पर्सनल असिस्टेंट विमल के तौर पर दिया था। खाकसार उम्मीद करता है कि आप उसे भूल नहीं गए होंगे। भूल गए हैं तो ये मेल बेमानी है, नहीं भूले तो बाउम्मीद मैं आगे बढ़ता हूँ।
सर, में आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि होटल सी-व्यू के ढह जाने की वजह से दो सौ आदमी मरे थे जिनमें सवा सौ से ज़्यादा होटल स्टाफ़ था। उस हादसे के बाद उन सवा सौ आदमियों के भाईबन्दों ने जिस वाहिद शख़्स को उस हादसे का ज़िम्मेदार ठहराया था, वो राजा गजेन्द्र सिंह थे जबकि हादसे के दौरान वो मुम्बई में भी नहीं थे, मुम्बई से हज़ार किलोमीटर दूर राजनगर में थे। फिर भी स्टाफ़ के भाईबन्द सिर्फ और सिर्फ राजा साहब को हादसे में हुई सवा सौ मौतों के लिए ज़िम्मेदार ठहराने लगे थे और नतीजतन राजा साहब के ख़ून के प्यासे हो उठे थे।
ऐसी विकट स्थिति में आपने ख़ाकसार को पुलिस हैडक्वार्टर में अपने ऑफ़िस में बुला कर तसलीम किया था कि आप राजा साहब से मुतासिर थे, उनको दोस्त मानते थे, होटल ढहने की वजह से उनके सिर पर मंडराते खतरे से वक्त रहते उनको आगाह करना अपना फर्ज़ मानते थे और आपने, बाज़रिया ख़ाकसार, राजा साहब को ये पैगाम भिजवाया था जिसका लुब्बोलुआब ये था कि मुम्बई का माहौल उनके लिए गर्म था इसलिए वो जहाँ से आए थे, वहाँ वापिस चले जाएँ; यानी फौरन, फौरन से पेशतर नैरोबी वापिस लौट जाएं।
कहना न होगा कि फौरन ही राजा साहब ने आपकी माकूल, वक्त रहते हासिल हुई राय पर अमल किया था और हमेशा के लिए मुम्बई को अलविदा बोल कर नैरोबी वापिस लौट गए थे।
सी-व्यू की ट्रेजेडी के दौरान राजा साहब के प्राइवेट सैक्रेट्री अरविन्द कौल काठमाण्डू में थे जो होटल की ट्रेजेडी और राजा साहब के नैरोबी लौट जाने की ख़बर सुनकर मुम्बई लौटे ही नहीं थे, सीधे कहीं और – शायद दिल्ली – चले गए थे।
पीछे अकेला ख़ाकसार, अरविन्द कौल का पर्सनल असिस्टेंट विमल, रह गया था जो कुछ अरसा सायन में एक दोस्त के पास रहा था फिर कूपर कम्पाउन्ड में इरफ़ान और शोहाब के साथ – जिनसे आप वाकिफ़ हैं, अपने ऑफ़िस में रूबरू मिल चुके हैं – रहने लगा था और ख़ाकसार अभी भी वहाँ रहता है।
सर, आपके सामने कूपर कम्पाउन्ड की, जो आज ही पैदा हुई, दुश्वारी का ज़िक्र करने की हिम्मत इसलिए कर रहा हूँ कि आपको राजा साहब की दोस्ती की कद्र थी और रूबरू मुलाकात के दौरान आपने मुझे अभयदान दिया था कि मैं जब चाहता, सीधा आपसे संपर्क कर सकता था। उस आश्वासन के जेरेसाया मैं अर्ज़ करना चाहता हूं कि तुकाराम के स्थापित किए चैरिटेबल ट्रस्ट को, जिससे कि आप वाकिफ़ हैं, गुस्ताखी की माफी के साथ अर्ज़ है, लोकल गैंगस्टर्स टेकओवर कर चुके हैं और उनकी पेश इसलिए चल गई है और चल रही है क्योंकि उनको रोकने वाला कोई नहीं। फिर भी वहाँ हम तीन जनों को चैन से नहीं रहने दिया जा रहा। आज सवेरे एक बावर्दी इन्सपेक्टर – नाम रामदास महाडिक – कूपर कम्पाउन्ड पधारे और उधर की प्रॉपर्टी को लेकर गड़े मुर्दे उखाड़ने लगे। (ज़्यादतियों से पिरोई उनकी विज़िट की पूरी रिपोर्ट इस मेल के साथ संलग्न है) अब वो हमें हुक्म दे के गए हैं कि दो दिन में हम प्रॉपर्टी की खरीद के तमाम कागजात उन्हें दिखाएं, साबित करके दिखाएं कि वो मनी लांडरिंग का केस नहीं था, इनवेस्टमेंट व्हाइट मनी से थी।
सर, इन्सपेक्टर साहब की उस विज़िट का मकसद साफ है कि जैसे हाल में तुकाराम चैरिटेबल ट्रस्ट को हाईजैक कर लिया गया, वैसे वो आइन्दा कूपर कम्पाउन्ड को ही हज़्म कर जाने की फिराक में थे।
सर, सारी मुम्बई को मालूम है कि तुकाराम चैरिटेबल ट्रस्ट ने मुम्बई के गरीब-गुरबा की कितनी मदद की है, कितनी ख़िदमत की है। लोग बाग इस हद तक कृतज्ञ हैं कि नहीं जानते असल में मदद कहाँ से हासिल हुई लेकिन सम्वेत् स्वर में कहते हैं, चैम्बूर से हासिल हुई, ‘चैम्बूर का दाता’ से हासिल हुई।
सर, गुस्ताखी की फिर माफी के साथ अर्ज़ है, पुलिस-गैंगस्टर नैक्सस का कोई भला आदमी मुकाबला नहीं कर सकता। लिहाज़ा अगर आप हमारी फरियाद को अनसुनी करेंगे तो नतीजा ‘चैम्बूर का दाता’ नाम की जो मिथ खड़ी है, उसकी असामयिक मौत होगा।
विनीत –
विमल
(एक्स पीए टु पीएस ऑफ़ राजा गजेन्द्र सिंह)
कमिश्नर साहब ने मेल एक बार फिर पढ़ी, फिर फोन उठा कर लाइन पर अपने प्राइवेट सैक्रेट्री को लिया और बोले – “इन्सपेक्टर रामदास महाडिक। पता करो कौन से थाने में ड्यूटी करता है। फिर जिस ज़ोन में वो थाना आता है उसके डीसीपी से मेरी बात कराओ।”
कमिश्नर साहब ने रिसीवर वापिस क्रेडल पर रख दिया, वो कुछ देर यूँ मेज खटखटाते रहे जैसे किन्हीं पुराने ख़यालों में खो गए हों।
‘वाट ए मैन!’ – आख़िर उनके मुँह से निकला – ‘वाट ए मैन!”
चार बजे के करीब विमल के पास मौजूद ज्वेलर कालसेकर का फोन बजा।
उसने काल रिसीव की।
“कुबेर पुजारी बोलता है” – कर्कश आवाज आई – “अभी ‘भाई’ बात करता है। लाइन पर रहने का।”
“यस।” – विमल बोला।
‘भाई’ – जो कोई भी वो था – कालसेकर की आवाज पहचानता नहीं हो सकता था और उसके विमल की आवाज़ पहचानता होने का तो कोई मतलब ही नहीं था, फिर भी विमल ने अपनी आवाज़ भरसक छुपाने की कोशिश करते उससे बात करने का फैसला किया।
“हल्लो!” – थोड़ी देर बाद नई, धृष्ट, आवाज़ आई – “कालसेकर बोलता है?”
“हाँ।” – विमल बोला।
“ज्वेलर?”
“हाँ।”
“मेरे से बात करना माँगता था तुम?”
“हाँ।”
“किस वास्ते? कुबेर पुजारी जो है, सब ठीक से एक्सप्लेन नहीं किया?”
“किया। लेकिन बड़ा प्रोजेक्ट था, ज़िम्मेदारी का प्रोजेक्ट था इसलिए ऊपर से कनफ़र्मेशन होती तो बेहतर होता।”
“अभी हुई न ऊपर से जो है, कनफ़र्मेशन! मैं बात करता है न!”
“शुक्रिया।”
“माँग की बाबत जो है, मेरी जुबानी सुनना माँगता था न, ताकि कनफ़र्म होता कि मेरे हवाले से है, रोकड़ा जो है, बिचौलिये न हज़्म कर जाएं!”
“हाँ।”
“अभी माँग जो है, मैं जारी करता है तो तुम्हेरे को तसल्ली रोकड़ा जो है, बिचौलिये नहीं हज़्म कर सकते?”
“हाँ।”
“बढ़िया। अभी बाकी बात मेरे से सुनने का। रोकड़े के इन्तज़ाम के वास्ते कुबेर दो दिन दिया जो तुम को कमती लगा। मैं टाइम जो है, चार दिन करता है।”
“लेकिन मैं कुबेर भाई को एक हफ्ता बोला!”
“पाँच दिन बोला। अभी चार दिन . . .”
“लेकिन . . .”
“सुनता नहीं है तुम। चार दिन। एक शर्त के साथ।”
“श-शर्त के साथ!”
“हाँ।”
“हफ्ते से चार दिन! वो भी शर्त के साथ!”
“हाँ। अभी शर्त सुनने का। टोटल रोकड़ा जो है, पाउन्ड या डाॅलर या यूरो में तो टाइम की मोहलत चार दिन वर्ना दो दिन।”
“मेरे को दो करोड़ की पेमेंट का इन्तज़ाम फॉरेन करेंसी में करने का . . .”
“सबको . . . सबको जो है, दो करोड़ की पेमेंट का इन्तज़ाम फॉरेन करेंसी में करने का और ऑनवर्ड डिलीवरी के लिए जो है, तुमको सबसे कलैक्ट करने का।”
“क्या! लेकिन मैं कलैक्शन की इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी अकेला कैसे ले सकता हूँ?”
“सोचना कोई तरकीब। ऐसीच नहीं करेगा तो मोहलत जो है, दो दिन। बोले तो परसों शाम तक।”
“ये ज़्यादती है!”
“है न! तुम साला जब ‘भाई’ के साथ श्यानपन्ती किया तो नतीजा जो है, सोच के किया था? अभी बोले तो सज़ा, खामियाजा सब नई रकम की अदायगी में शामिल है। अभी ये नहीं बोलने का कि श्यानपन्ती सबने न किया। जिन्होंने न किया वो तुम्हेरी, तुम्हेरे जैैैसों की सज़ा को जो है, अपने लिए वॉर्निंग जानें। फैसला अभी करने का कि टाइम जो है, दो दिन माँगता है या चार दिन! मैं वेट करता है।”
“चा-चार दिन।”
“बढ़िया। अभी पिछले दो टाइम की तरह जो होगा, रात को नहीं, दिन में होगा। दिन में रश ऑवर में जो है, फॉरेन करेंसी में तमाम का तमाम रोकड़ा जो है, अपनी निगरानी में ख़ुद शिवाजी चौक पहुँचाने का।”
“क्या!”
“अभी ये बोल के तुम्हेरा लिहाज़ करता है कि तब तुम्हेरे साथ हमेरे भीड़ू भी होंगे जो जब टाइम आएगा तो तुम्हेरे शोरूम पर जो है, तुमको रिपोर्ट करेंगे।”
“वो तुम्हारी मेहरबानी है, मैं उसके लिए थैंक्यू बोलता हूँ लेकिन कैश ट्रांजे़क्शन में आख़िरकार ज़िम्मेदारी किसकी होगी?”
“तुम्हेरी।”
“नो! नैवर!”
“क्या बोलता है तुम?”
“जब पहले ही मेरे पर शक किया जा रहा है और मेरे लिए सज़ा तजवीज़ की जा रही है, खामियाजा तजवीज़ किया जा रहा है तो इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी भला मैं कैसे ले सकता हूँ! तुम्हारे इसरार पर, तुम्हारे हुक्म पर मैं बाकी पन्द्रह ट्रेडर्स के लिए बैंक बनने को तैयार हूँ लेकिन डिलीवरी की ज़िम्मेदारी ओढ़ने के लिए मैं बिल्कुल तैयार नहीं। गणपति न करें, फिर कोई ऊँच-नीच हो जाए तो तुम्हारा क्या जाएगा? तुम तो फिर नई माँग खड़ी कर दोगे, फिर के बाद फिर माँग खड़ी कर दोगे! अभी ख़ुद इंसाफ़़ करने का, क्या ये जायज़ होगा, मुनासिब होगा?”
कुछ क्षण ख़ामोशी रही।
“ओके!” – आख़िर आवाज़ आई – “डिलीवरी जो है, हमारे भीड़ू हैंडल करेंगे, पर डिलीवरी के ठिकाने तक तुम्हें उनके साथ मौजूद रहना होगा।”
“जब ज़िम्मेदारी मेरी नहीं होगी तो साथ मौजूद किसलिए रहना होगा?”
“क्योंकि मैं ऐसा बोला। अब इसके बाद जो है, आगे हुज्जत नहीं करने का। क्या!”
“अच्छी बात है।”
“अच्छी बात है तो फिनिश करे मैं?”
“नहीं, अभी नहीं। प्लीज़़।”
“सुनता है।”
“मैं दो बातें जानना चाहता हूँ। ज़रूरी जान के जवाब देने का। गुज़ारिश है।”
“बोलो।”
“तुम्हारा नाम क्या है?”
“क्यों पूछता है तुम?”
“जिसको बत्तीस करोड़ रुपया नज़र करना हो, उसका नाम तो मालूम होना चाहिए! क्या पता दोबारा कभी फिर वास्ता पड़ जाए!”
“मिस्टर क्वीन। एल्फ्रेड क्वीन। दूसरी बात बोलो।”
“तुम गैंग का टॉप बॉस है?”
तत्काल जवाब न मिला।
“मैं जो है” – फिर शुष्क जवाब मिला – “बिग बॉस है।”
लाइन कट गई।
विमल ने मोबाइल करीब बैठे इरफ़ान के सामने मेज पर रखा।
“क्या समझे?” – फिर बोला।
“तू बोल, बाप।” – इरफ़ान बोला – “मैं तो औना-पौना ही समझा, क्योंकि दूसरी तरफ की बात तो मैं नहीं सुन सकता था न!”
“लाइन पर वही आदमी था जो परसों रात हमें जुहू के बंगला नम्बर सात में मिला था।”
“कैसे जाना?”
“उसकी आवाज़ पहचानी। और आवाज़ से ज़्यादा उसके तकिया कलाम से जाना – जो बोलता था, उसके बीच-बीच में आदतन ‘जो है’ पिरोता था। उसकी ये आदत मैंने बंगले में भी नोट की थी जबकि बाज़रिया ट्रांसमिटर मैंने उसे लम्बा सुना था।”
“फिर तो अच्छा किया, बाप, कि फोन पर आवाज़ बदल कर बोला।”
“ऐन टाइम पर ही मेरे को ऐसा करना सूझा।”
“तूने उसकी आवाज़ पहचानी तो तू नॉर्मल टोन में बोलता तो वो भी तो तेरी आवाज़ पहचानता।”
“हाँ। शुक्र है, ऐसा न हुआ।”
“वो जान जाता लाइन पर ज्वेलर कालसेकर नहीं था क्योंकि भले ही वो कालसेकर की आवाज़ से वाकिफ़ नहीं था लेकिन तेरी आवाज़ तो पहचान लेता! फिर वो कालसेकर की आवाज़ कैसे होती!”
“वही तो?”
“नाम मिस्टर क्वीन।”
“‘शंघाई मून’ के मैनेजर जमशेद कड़ावाला ने इसी नाम से उसका हवाला दिया था। जुहू के बंगले में बुलावे की जो जनाना काल मेरे को आई थी, उसमें भी जिस बिग बॉस से मिलने का मैं तमन्नाई था, उसका नाम मिस्टर क्वीन बताया गया था।”
“बिग बॉस!”
“लेकिन टॉप बॉस नहीं। टॉप बॉस के बारे में दो टूक सवाल किया तो मिस्टर ‘जो है’ बड़ी सफाई से टाल गया।”
“टॉप बॉस कोई और?”
“अब यकीन है मेरे को। भाई लोगों का गैंग का निजाम सीढ़ी-दर-सीढ़ी चलता है, जैसे बखिया के टाइम में ‘कम्पनी’ का निजाम चलता था। तीन पायदान से तो हमारा वास्ता पड़ ही चुका है। मसलन बाॅटम में चिल्लर, फ़ील्ड वर्कर, वैसे प्यादे जैसे पाँच कर्टसी इरफ़ान अहमद खान चंगेज़ी, हाय-हाय करते घर में या हस्पताल में पड़े हैं . . .”
“अगली पायदान के ख़ास खलीफ़ा अहसान कुर्ला को भूल गया जो पास्कल के बार के तेरे करतब की वजह से अभी भी हस्पताल में है, जो पता नहीं अभी कब उठ कर पैरों पर खड़ा होगा!”
“उसे नहीं भूला था, उसके अंजाम को भूल गया था। बहरहाल प्यादों से ऊपर अनिल विनायक उर्फ अनिल चिकना, अहसान कुर्ला उर्फ रिज़वी, उमर सुलतान वग़ैरह, और ऊपर की पायदान पर कुबेर पुजारी, अब और ऊंचे रखे खलीफ़ा की ख़बर हमें अब लगी जो अपना नाम मिस्टर क्वीन बताता है और जो ख़ुद को बिग बॉस बोलता है। यानी टॉप बॉस के हवाले से बचता जान पड़ता है। इस लिहाज़ से मिस्टर क्वीन के ऊपर कोई मिस्टर किंग भी होना चाहिए। क्या कहता है?”
“यही कि चोर की ख़बर लगी, चोर की माँ से हम अभी भी दूर हैं।”
“शायद अब न रहें।”
“वजह?”
“रात को मेरी जेकब परेरा से अप्वायंटमेंट है।”
“शोहाब कुछ बोला?”
“हाँ।”
“मैं किधर था?”
“ध्यान नहीं। बात करना शोहाब से। क्योंकि शाम को शोहाब की जगह तूने मेरे साथ चलना है।”
“कहाँ?”
“शोहाब बोलेगा न! बात करना, लेकिन जब दाँव लगे, एक काम और करना।”
“बोले तो?”
“ज्वेलर का मोबाइल” – विमल ने उसे फोन थमाया – “लौटा के आना। हमारे जितना काम आना था, आ चुका।”
“ठीक!”
डिस्ट्रिक्ट मुम्बई सबर्ब ज़ोन फाइव के डीसीपी का नाम बीआर पाटिल था। वो आईपीएस का टॉपर था, पुलिस में सीधा डीसीपी भरती हुआ था इसलिए उस घड़ी अपने सामने मौजूद अधेड़ इन्सपेक्टर के मुकाबले में नौजवान था।
डीसीपी ने आँख भर कर अपने सामने खड़े इन्सपेक्टर को देखा फिर बोला – “बैठो।”
कृतज्ञ भाव से इन्सपेक्टर अपने आला अफ़सर के सामने एक विज़िटर्स चेयर पर स्थापित हुआ।
“महाडिक!” – डीसीपी बोला – “रामदास महाडिक?”
“यस, सर।”
“चैम्बूर थाने में तैनात?”
“यस, सर।”
“जो ज़ोन फाइव में आता है?”
“यस, सर।”
“ऐज़ एडीशनल स्टेशन हाउस ऑफ़िसर?”
“यस, सर।”
“कूपर कम्पाउन्ड क्या करने गए थे?”
उस अप्रत्याशित सवाल से इन्सपेक्टर गड़बड़ाया, उसने बेचैनी से पहलू बदला।
“जी, वो” – फिर हकलाता-सा बोला – “वो . . .”
“गए थे तो थानाध्यक्ष को ख़बर करके क्यों नहीं गए थे? अपनी फ़ील्ड मूवमेंट रोजनामचे में दर्ज करके क्यों नहीं गए थे?”
“जी, वो . . . वो . . .”
“या किसी पर्सनल एरैन्ड पर थे? ऐसा था तो ड्यूटी आवर्स में क्यों था?”
इन्सपेक्टर ने फिर बेचैनी से पहलू बदला, अपने एकाएक सूख आए होंठों पर जुबान फेरी। अभी तो वो इसी तथ्य से समझौता नहीं कर पा रहा था कि डीसीपी को उसकी सुबह की कूपर कम्पाउन्ड की विज़िट की ख़बर थी।
“जवाब दो, भई!”
“सर, वो क्या है कि मेरे को उधर कुछ अनलॉफ़ुल एक्टिविटीज़ की ख़बर लगी थी . . .”
“कैसे? कैसे ख़बर लगी थी?”
“एक गुमनाम काल के ज़रिए लगी थी। सर, आप जानते ही हैं कि ऐसी काल्ज़ थाने में आम आती हैं जो . . .”
“इन्सपेक्टर, उसी बात का जवाब दो जो तुमसे पूछी जाए। जवाब में दाएं बाएं की बातों को शामिल करने से परहेज़ रखो।”
“य-यस, सर।”
“ऐसी काल्ज़ थानाध्यक्ष को आती हैं या फ़्रंट डैस्क पर तैनात ड्यूटी ऑफ़िसर को आती हैं। तुम्हें कैसे आ गई ऐसी काल?”
“सर, अब आ गई तो मैं कैसे रोक सकता था?”
“मेरे से पूछ रहे हो?”
इन्सपेक्टर से जवाब देते न बना।
“पूछ रहे हो तो . . . ठीक, नहीं रोक सकते थे। काल कहाँ आई? तुम्हारे मोबाइल पर या थाने की लैंडलाइन पर।”
“लैंडलाइन पर। मेरे ऑफ़िस की लैंडलाइन पर।”
“थानाध्यक्ष को ख़बर की?”
“ज-जी, जी नहीं।”
“ऐसी कोई गुमनाम टिप अगर इम्पॉर्टेंट हो तो उसे थानाध्यक्ष के नोटिस में लाया जाता है। तुमने ऐसा किया?”
“न-हीं।”
“वजह।”
“मैं . . . मैं जल्दी में था . . .”
“क्यों जल्दी में थे। क्यों जल्दी में थे इतनी सुबह-सवेरे कि अपने इंचार्ज को ख़बर न कर सके?”
कम्बख्त को ये भी मालूम था मैं सुबह-सवेरे कूपर कम्पाउन्ड गया था! कैसे मालूम था!
“ख़ैर” – डीसीपी आगे बढ़ा – “गुमनाम काल में ज़िक्र आया था कि अनलॉफ़ुल एक्टीविटीज़ की किस्म क्या थी?”
“जी, नहीं।”
“नो प्रॉब्लम। तुमने वहाँ जाकर क्या जाना? वो जगह स्मगलर्स डैन थी? प्रॉस्टीट्यूशन का अड्डा था? ड्रग्ज़ डिस्ट्रीब्यूशन का ठिकाना था? कोई ग़ैर-कानूनी जुआघर चलता था वहाँ? क्या जाना अपनी अनअप्रूव्ड विज़िट के ज़रिए?”
वो ख़ामोश रहा, उसने ज़ोर से थूक निगली।
“इन्सपेक्टर!” – इस बार डीसीपी का स्वर शुष्क हुआ – “क्या तुम्हें जवाब के लिए बार-बार प्रॉम्प्ट किया जाना पड़ेगा?”
इन्सपेक्टर फिर जवाब न दे सका, उसके गले की घंटी ज़ोर से उछली।
“अगर ऐसी कोई पूर्वसूचना तुम्हें थी तो क्या भूल गए थे कि ऐसे मुहिम पर अकेला नहीं जाया जाता?”
“सर, वहाँ वैसा कुछ नहीं था, जैसे का आपने ज़िक्र किया।”
“और इस हकीकत से तुम पहले से वाकिफ़ थे? इलहाम हुआ था तुम्हें कि वहाँ ऐसा कुछ नहीं था?”
इन्सपेक्टर फिर गड़बड़ाया।
“ओके! तुम अपनी कहो। क्यों गए? क्या पाया?”
“सर, पता लगा था कि वहाँ सन्दिग्ध किस्म के लोग पनाह पाते थे?”
“मुमकिन है। कितने मिले?”
ख़ामोशी
“इन्सपेक्टर!”
“सर, तब तो कोई न मिला लेकिन ख़बर पक्की थी, वहाँ के बाशिन्दों ने भी तसदीक की थी, कि अक्सर वहाँ लोग पनाह पाते थे?”
“कैसे लोग? गुण्डे-बदमाश! मवाली! और पनाह देने वाले भी ऐसे ही थे?”
“न-हीं।”
“उन्होंने बोला नहीं, पनाह पाने वाले कौन थे?”
“जी, बोला।”
“क्या? एक बार में बात कम्पलीट किया करो?”
“बोला, कैब ड्राइवर होते थे जो किसी वजह से घर नहीं पहुँच पाते थे इसलिए ओवरनाइट वहाँ ठहर जाते थे। लेकिन मुझे उनकी बात पर यकीन नहीं था। मेरे ख़याल से वो जरायमपेशा लोग होते थे जिनको कवर अप के लिए कैब ड्राइवर बताया गया था।”
“आख़िर क्या फैसला किया तुम्हारे” – डीसीपी ने एक क्षण को अपलक इन्सपेक्टर को देखा – “सुपीरियर जजमेंट ने? यूँ वहाँ पनाह पाने वाले लोग कौन होते थे? गुण्डे-बदमाश या कैब ड्राइवर?”
“सर, कोई मिला नहीं इसलिए इस बारे में कुछ कहना मुहाल था।”
“ठीक! ऐसा कोई मिला नहीं इसलिए तुम लौट आए! नो?”
इन्सपेक्टर फिर बेचैन दिखाई देने लगा।
“लगता है” – डीसीपी उसे घूरता बोला – “कुछ और भी किया! कुछ और भी जाना?”
“ज-जी, जी हाँ।”
“क्या?”
“सर, कूपर कम्पाउन्ड में आठ इमारतें थीं जिनका एक मालिक बताया जाता था जो यहाँ से हज़ार किलोमीटर दूर सोनपुर में रहता था। मेरे को वो मनी लांडरिंग का केस लगा था। वो दो नम्बर का रोकड़ा ठिकाने लगाने का केस हो सकता था।”
“इतनी पते की बात तुमने गुमनाम टेलीफोन काल से जानी?”
“अब्ब . . . था तो ऐसा ही!”
“ऐसी तफ्तीश तो इंकम टैक्स डिपार्टमेंट करता है, सीबीआई का इकॉनमिक ऑफेंसिज़ विंग करता है, तुम क्यों वहाँ पहुँच गए?”
“सर, मेरा इरादा टिप की तसदीक करने का था और फिर उन महकमों को ख़बर करने का था।”
“तो तुमने टिप की तसदीक कर ली और उन महकमों को ख़बर कर दी?”
इन्सपेक्टर की जुबान जैसे फिर लॉक हो गई।
“वहाँ प्रॉपर्टी अटैचमेंट की धमकी छोड़ कर आए, अल्टीमेटम छोड़ कर आए कि दो दिन बाद फिर लौट कर आओगे और वहाँ मौजूद सबको गुण्डा एक्ट के तहत गिरफ़्तार कर लोगे! इससे तो नहीं लगता कि तुम्हारी आगे मुनासिब महकमों को ख़बर करने की मंशा थी?”
इन्सपेक्टर से जवाब देते न बना।
“दो दिन बाद भी अकेले ही जाते? ख़ुद ही जो मिलता, उसे गिरफ़्तार कर लाते?”
वो ख़ामोश रहा।
“इन्सपेक्टर महाडिक, आज सुबह कूपर कम्पाउन्ड जाकर वर्दी की आड़ में ख़ुद तुमने ऐसे काम किए जिनकी तुमसे उम्मीद नहीं की जाती थी, जो तुम्हारी ड्यूटी का हिस्सा नहीं थे। लगता है तुम्हारी निष्ठा पुलिस के महकमे के साथ नहीं है जहाँ से कि तुम तनखाह पाते हो, कहीं और ही है जहाँ से तुम शुकराना पाते हो, गुलदस्ता थामते हो . . .”
“सर, ऐसी कोई बात नहीं है।” – इन्सपेक्टर आवेश से बोला।
“ज़रूर नहीं होगी।” – डीसीपी शांत था – “ज़रूर नहीं होगी। शायद मेरे से गलती हुई। गलती आख़िर इंसान से ही होती है जो कि डीसीपी भी हो सकता है, इन्सपेक्टर भी हो सकता है।” – डीसीपी एक क्षण ठिठका, फिर बोला – “तुम हो न?”
“क-क्या?”
“इंसान!”
“सर, मैं समझा नहीं।”
“नैवर माइन्ड।” – डीसीपी ने मेज के दराज से दो कागज निकाले और उसके सामने रखे – “ये तुम्हारे लिए है। ओरिजनल पास रखो, कॉपी पर रिसीव्ड के साइन करो।”
“ये . . . ये क्या है?”
“तुम्हारा ट्रांसफ़र आॅर्डर है।”
“जी!”
“इत्मीनान से पढ़ना। कॉपी साइन करो।”
“ल-लेकिन . . . लेकिन . . .”
“यू आर ट्रांसफ़र्ड टु पोलिस हैडक्वार्टर विद इमीजियेट इफै़क्ट . . .”
“सर! सर! प्लीज़ . . .”
“ये ट्रांसफर टैम्परेरी है। बाद में तुम्हें ऐसी जगह पोस्ट किया जाएगा कि तुम कहोगे कि काश तुम पुलिस के महकमे में न होते। हरी अप, नाओ। रिसीव दि ओरिजनल एण्ड गैट आउट ऑफ़ माई साइट।”
इन्सपेक्टर ने यूँ ट्रांसफर ऑर्डर रिसीव किया जैसे वो किसी करीबी रिश्तेदार की मौत की ख़बर हो।
(वृहद कथानक की अगली और आख़िरी कड़ी
गैंग ऑफ़ फोर
गैंग ऑफ़ फोर
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