उस रात अपने अपार्टमेंट लौटकर कबीर, नेहा के ख़यालों में ही महकता रहा, और उसकी फैंटसियों में नेहा ही मचलती रही। जो न हो सका, उसकी भरपाई, क्या कुछ हो सकता था, की कल्पनाओं से होती रही, मगर अगली सुबह, फिर कबीर को कल्पनाओं के मुलायम आकाश से उतारकर वास्तविकता की खुरदुरी ज़मीन पर ले आई। अपनी फैंटसियों से निकलने के बाद उसे नेहा की चिंता सताने लगी। नेहा का नशे में डूबना, उसका अपनी मॉम को मिस करना, उसका दर्द भरी आवा़ज में कहना - ‘मेरा कोई घर नहीं है।’ कबीर को लगा कि उसे नेहा से बात करनी चाहिए, कि आ़िखर उसका दर्द क्या है। छोटी उम्र में माँ-बाप का अलग हो जाना तकली़फदेह तो होता है, मगर कबीर को नेहा का दर्द कुछ अधिक ही लगा। शाम को कॉलेज खत्म होते ही उसने राज से नेहा का मोबाइल; नंबर लिया और उसे कॉल किया।
‘‘हेलो नेहा! दिस इ़ज कबीर; हाउ आर यू?’’
‘‘हे कबीर! आई एम फाइन; हाउ अबाउट यू।’’ नेहा ने आश्चर्य में डूबी ख़ुशी से कहा।
‘‘आई एम गुड नेहा; कैन वी मीट?’’
‘कब?’
‘‘अभी... एट प्रिंस कै़फे।’’
‘‘ओके, आई विल बी देयर इन टेन मिनिट्स।’’
नेहा को कै़फे पहुँचने में दस मिनट से ज़्यादा ही लगे। कबीर, कै़फे में उसका इंत़जार कर रहा था। नेहा का गेटअप देखकर कबीर को लगा, जैसे वह सीधे कॉलेज से ही चली आ रही हो। उसकी ड्रेस पर सिलवटें सी पड़ी थीं, मेकअप उतरा-उतरा सा लग रहा था, पैरों में हाई हील की जगह फ्लैट शू थे। वह नेहा उस नेहा से बहुत अलग लग रही थी, जो सारी रात उसकी फैंटसियों में थिरक रही थी। फिर भी नेहा को देखकर उसे अच्छा ही लगा। आज वह उस नेहा से मिलने आया था, जिसकी उसे चिंता सता रही थी; न कि उस नेहा से, जिसके ख़यालों में वह सारी रात महकता रहा था।
‘‘हाय नेहा, कैसी हो? कल तुम्हारी हालत कुछ ठीक नहीं थी।’’ कबीर ने सवाल किया।
‘‘अरे मैं ठीक हूँ; कल बस यूँ ही कुछ ज़्यादा पी ली थी।’’ टेबल के दूसरी ओर रखी कुर्सी पर बैठते हुए नेहा ने कहा।
‘‘नेहा, तुम इतना ड्रिंक क्यों करती हो कि सँभल ही न पाओ; इस तरह लड़खड़ाकर फरारी की सवारी करोगी?’’ कबीर के लह़जे में शिकायत भरी थी।
‘‘छोड़ो न कबीर; प्ली़ज ऑर्डर कॉ़फी।’’ नेहा ने पिछली रात के नशे की बात को टालना चाहा।
‘‘ओह या, क्या लोगी?’’
‘‘लेट्टे विद वन शुगर।’’
थोड़ी देर में कबीर दो कॉ़फी ले आया।
‘‘नाउ प्ली़ज टेल मी नेहा; तुम ख़ुद को शराब में क्यों डुबा देती हो?’’ कबीर ने बैठते हुए फिर वही प्रश्न किया।
‘‘कबीर, तुमने यही पूछने के लिए मुझे यहाँ बुलाया है?’’
‘‘हाँ नेहा, मुझे तुम्हारी चिंता हो रही है।’’
‘‘तो सुनो कबीर; मुझे डिप्रेशन है, और मुझे ड्रिंक करके अच्छा लगता है।’’
‘‘डिप्रेशन की वजह?’’
‘‘मेरी माँ मुझे तब छोड़कर चली गई थी, जब मैं सि़र्फ पाँच साल की थी।’’
‘‘मुझे पता है नेहा; तुमने बताया था... मगर तलाक तो इस देश में आम बात हो गई है... तुम जैसे कितने बच्चे होंगे इस देश में; सब सारी ज़िंदगी डिप्रेशन में तो नहीं जी सकते।’’
‘‘मगर उन्हें कोई सहारा तो मिलता होगा; कबीर, मेरी कहानी बहुत अलग है।’’
‘‘मैं सुनने को तैयार हूँ नेहा; शायद तुम्हें कहकर अच्छा लगे।’’
‘‘कबीर; मेरे मॉम और डैड की अरेंज्ड मैरिज थी। डैड यहाँ ब्रिटेन में पले बढ़े हैं, और मॉम इंडिया से आई थीं। डैड बहुत ऐम्बिशस हैं; अपनी लॉ फ़र्म का बि़जनेस बढ़ाना और ऊँची सोसाइटी में उठना-बैठना, इसी में उनका ज़्यादा वक्त निकलता। मॉम साधारण थीं, डैड की लाइफ स्टाइल से उनका मेल नहीं था, और मॉम की लाइफ में डैड का वक्त नहीं था। इसके दो ही नती़जे हो सकते थे, या तो मॉम समझौता करतीं या फिर तलाक। मॉम समझौता नहीं कर पाईं। डैड बड़े लॉयर हैं; उन्होंने कोर्ट से मेरी कस्टडी ले ली। मॉम वापस इंडिया चली गईं।’’
‘‘तो क्या तुम्हारे डैड ने तुम्हारा ख़याल नहीं रखा?’’
‘‘डैड मुझे बहुत चाहते हैं; उन्होंने मुझे प्यार भी बहुत दिया है... मगर उनके प्यार में लिपटकर आती है उनकी ऐम्बिशन्स; उनके सपने। डैड मुझे लॉयर बनाना चाहते थे। मैंने पहले लॉ कोर्स में एडमिशन लिया था, मगर मुझसे न हो सका। मुझे लॉ बिल्कुल पसंद नहीं आया। डैड के जिस करियर, जिस प्रोफेशन ने उन्हें मॉम से दूर कर दिया, मैं उसे कैसे पसंद कर सकती थी। मैंने लॉ ड्राप करके फिलॉसफी ले लिया। डैड बहुत नारा़ज हुए। उन्हें फिलॉसफी मन को कम़जोर करने वाला विषय लगता है। ज़िंदगी की हक़ीक़त से भागकर फ़लस़फों की आड़ लेना; फिलॉसफी के बारे में डैड बस इतना ही समझते हैं। डैड को जितनी ऩफरत फिलॉसफी से नहीं है, उतनी कम़जोरी से है। बचपन में मुझे जब भी माँ की याद आती, मन उदास होता या डिप्रेशन होता, तो डैड के पास उसका एक ही इला़ज होता... वन ऑवर रिगरस प्ले। जिम जाओ, टेनिस खेलो, स्विमिंग करो; फिट और स्ट्रांग रहो... देयर इ़ज नो प्लेस फॉर द वीक इन दिस वल्र्ड। बस यही एक रट होती।’’
‘‘तुम्हारे डैड आर्मी स्कूल में पढ़े हैं?’’
‘‘कबीर, तुम्हें म़जाक सूझ रहा है?’’
‘‘सॉरी नेहा, मगर तुम्हारे डैड कैरेक्टर हैं।’’
‘‘कबीर, मुझे सि़र्फ डिप्रेशन ही नहीं था, बल्कि उसका अपराधबोध भी था; जैसे कि डिप्रेस होना कम़जोर होने की निशानी हो। सब कुछ तो है तुम्हारे पास, किस ची़ज की कमी है? – डैड बस यही कहते। ची़ज? प्यार तो कोई ची़ज नहीं होता न; माँ तो कोई ची़ज नहीं होती। ख़ुशी को ची़जों में तौलने वाले माहौल में डिप्रेशन से कहीं अधिक मन पर उसका बोझ तकलीफ देता है। जिसे साधनों की कमी हो, उसका डिप्रेशन तो फिर भी समझा जाता है, मगर जिसके पास सारे साधन हों, उसका डिप्रेशन? वह तो उसकी अपनी ही कमी समझा जाता है।’’
‘‘आई एम सॉरी टू हियर दिस नेहा; मगर क्या तुम कभी अपनी मॉम से नहीं मिली? या वह कभी तुमसे मिलने नहीं आर्इं?’’
‘‘मॉम ने इंडिया जाकर दूसरी शादी कर ली। मॉम मुझे वहाँ बुलाती हैं, मगर मेरा ही मन नहीं करता वहाँ जाने का। यहाँ के दर्द तो पहचाने हुए हैं; वहाँ जाकर न जाने कौन से नए दर्द मिलें।’’
जब अपने दुःख परेशान करें, तो दूसरों के दुःख समझो; अपने दुःख कम लगने लगते हैं। नेहा के दर्द सुनकर कबीर को भी यही अहसास हो रहा था। इससे पहले कि कबीर कुछ और कहता, एक खूबसूरत जवान लड़का पास से गु़जरते हुए रुका।
‘‘हाय नेहा!’’ लड़के ने मुस्कुराकर कहा।
‘‘हाय साहिल!’’ नेहा ने एक मजबूर मुस्कान से जवाब दिया।
‘‘न्यू बॉयफ्रेंड?’’ साहिल ने कबीर की ओर इशारा किया।
‘‘साहिल प्ली़ज!’’ नेहा ने कुछ खीझते हुए कहा।
‘‘ओह! सॉरी नेहा, होप यू आर डूइंग वेल।’’
‘‘आई एम गुड, थैंक्स साहिल।’’
‘‘ओके... यू गाए़ज एन्जॉय योरसेल्फ, सी यू लेटर।’’ कहकर साहिल आगे बढ़ गया।
‘‘कौन है ये?’’ साहिल के जाते ही कबीर ने पूछा।
‘‘साहिल, मेरा बॉयफ्रेंड था।’’
‘‘बॉयफ्रेंड था?’’ कबीर के सवाल में बेचैनी के साथ आशंका भी थी।
‘‘हाँ; हम एक साल साथ थे, मगर अब हमारा ब्रेकअप हो गया है।’’
ब्रेकअप की बात सुनकर कबीर को थोड़ी तसल्ली हुई, मगर साहिल की इस छोटी सी मौजूदगी ने उसे फिर उसी पुराने कॉम्प्लेक्स से भर दिया। साहिल के, कबीर को नेहा का ‘न्यू बॉयफ्रेंड’ कहने पर नेहा का खीझ उठना, उसे एक विचित्र सी हीनता से भर गया। कबीर, नेहा के दर्द बाँटना चाहता था; उससे कहना चाहता था, ‘मैं हूँ न।’... मगर अचानक उसे अपना ‘मैं’ इतना छोटा लगने लगा, कि वह उसे नेहा के सामने पेश करने में घबराने लगा। साहिल का नेहा से ब्रेकअप हो चुका था; नेहा कबीर के साथ बैठी थी... मगर फिर भी कबीर, साहिल की मौजूदगी में कॉम्प्लेक्स महसूस कर रहा था। कबीर को एक बार फिर अपना कद छोटा, और दर्द बड़ा लगने लगा।
कबीर के अगले कुछ दिन नेहा से दूरी में कटे। उसने नेहा से मिलने की कोई पहल नहीं की, लेकिन उसे नेहा के मैसेज या फ़ोन कॉल आने की उम्मीद बनी रहती। हर मैसेज या कॉल पर वह फ़ोन की ओर बेसब्री से लपकता, कि शायद वह नेहा का ही हो; मगर हर बार उसे मायूसी ही हाथ लगती। कभी मन करता कि नेहा को कॉल किया जाए... मगर फिर लगता कि जिस लड़की ने उसे कोई मैसेज भी नहीं किया, उसकी उसमें भला क्या दिलचस्पी होगी। मगर फिर एक शाम एक सुखद आश्चर्य लेकर आई... नेहा का फ़ोन आया,
‘‘हे कबीर! हाउ आर यू?’’ फ़ोन पर नेहा की आवा़ज आई।
‘‘आई एम गुड नेहा, हाउ आर यू?’’ कबीर ने चहकते हुए कहा।
‘‘आई एम आल्सो गुड’’ नेहा ने कहा, ‘‘व्हाट आर यू डूइंग टूनाइट?’’
‘‘नथिंग इम्पोर्टेन्ट।’’ नेहा की ओर से किसी आमन्त्रण की आहट पाकर कबीर ने खुश होते हुए कहा।
‘‘आई एम गोइंग टू क्लब विद ए कपल ऑ़फ फ्रेंड्स, व्हाई डोंट यू आल्सो कम अलोंग?’’
‘‘व्हाई नॉट... सेम प्लेस?’’ कबीर की चहकती आवा़ज में एक नई उमंग घुल गई।
‘‘यस, सेम प्लेस।’’
नेहा, कबीर के लिए वह आलम्ब बन चुकी थी, जिस पर उसके मन का संतुलन टिका था; जिसकी एक करवट उसकी उमंगों को उड़ान देती, तो दूसरी, उसकी उदासी को उफान। जब मनुष्य का मन किसी ऐसे आलम्ब पर आकर टिक जाए, जिसकी अपनी ख़ुद की ज़मीन ही कच्ची हो, तो उसका मनोबल पल-पल डगमगाता है... ऐसी डगमगाती राह पर फरारी की सवारी, सि़र्फ और सि़र्फ दुर्घटना को ही जन्म देती है।
0 Comments