उस वक्त विभा के चेहरे पर मौजूद उत्साह और रौनक देखने लायक थी और फिर, एकाएक उसका ध्यान ड्राईंगरूम के वर्तमान हालात पर गया। चेहरे पर मौजूद भाव तुरंत ही बदल गए। धनजय कपाड़िया को घूरती-सी बोली---- “तो मैं ये कह रही थी कि अगर उन पांच घंटों के बारे में मुझे पता लगाना पड़ा तो आपके ये साहबजादे गंभीर मुसीबत में फंस जाएंगे।"


धनजय कपाड़िया ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला लेकिन उसे मौका दिए बगैर वह बोली ---- "इस वक्त मेरे पास आपकी कोई भी सफाई सुनने के लिए टाइम नहीं है। आओ वेद । ”


कहने के बाद वह एक क्षण के लिए भी वहां नहीं रुकी ।


तेज कदमों के साथ दरवाजे की तरफ बढ़ गई ।


मैं, शगुन और गोपाल मराठा भी लपके । हकीकत ये है कि उसके साथ चलने के लिए हमें दौड़ना - सा पड़ रहा था ।


इस वक्त उसके जिस्म में ऐसी चुस्ती-फुर्ती नजर आ रही थी जैसी गेंद पकड़ने के लिए झपटते वक्त 'कैफ' के जिस्म में नजर आती है। लिमोजीन तक पहुंचते-पहुंचते मैं लपककर उसके नजदीक पहुंच गया था, पूछा----“बात क्या है विभा, किसका फोन था ।”


“देर मत करो दोस्त, अब मैं तुम्हें एक तमाशा दिखाने वाली हूं ।”


“तमाशा ?” शगुन भी झपटकर हमारे करीब आया ।


“ऐसा तमाशा जिसे देखकर तुम्हारे दिमागों के सारे तंतु हड़ताल पर चले जाएंगे।” कहने के साथ उसने एक झटके से लिमोजीन का दरवाजा खोला और लपककर उसमें जा बैठी।


गाड़ी में बैठते ही मैंने पूछा था ---- -“कुछ तो बताओ विभा, हुआ क्या है? क्या कामयाबी मिली है तुम्हें ? इतनी उत्साहित क्यों हो ?”


“धैर्य रखना सीखो दोस्त ।”


“ पर क्यों आंटी ?” शगुन व्याकुल -- -“बता क्यों नहीं रहीं?”


“क्योंकि शाहदरा पहुंचने तक का समय मैं यह सोचने में गुजारना चाहती हूं कि हालात ने जो करवट ली है उसमें इस मामले का ऊंट कौनसी करवट बैठने वाला है।" कहने के बाद उसने सीट की पुश्त से सिर टिकाकर उसी तरह आंखें बंद कर ली थीं जैसे बिड़ला -हाऊस से कपाड़िया - विला तक थीं ।


मैं भले ही चुप रह गया होऊं लेकिन इस बार शगुन ने यह नहीं सोचा कि उसे डिस्टर्ब नहीं किया जाना चाहिए, उसने कहा----“अता पता तो बता दो आंटी, पहेली को हम खुद हल कर लेंगे।”


“ अभी पता नहीं कौन जला ?”


“क्या मतलब?”


“ढूंढते रहो ।” कहने के साथ उसने हाथ उठाकर हममें से किसी को भी न बोलने का इशारा किया ---- “अगर रास्ते में भी मिल जाए तो मुझे शाहदरा पहुंचने पर ही बताना ।”


और वाकई, मैं और शगुन सारे रास्ते 'अभी पता नहीं कौन जला' का मतलब ढूंढते रहे । पर कुछ पल्ले नहीं पड़ा।


विभा के निर्देश पर शोफर ने लिमोजीन तूफानी रफ्तार से चलाने की भरपूर कोशिश की थी किंतु शाम का वक्त होने के कारण ट्रेफिक इतना ज्यादा था कि वह अपने मन की नहीं निकाल पा रहा था ।


जहां भी, जरा भी जगह मिलती, वह गाड़ी को 'जम्बो जेट' बना देता। बावजूद इसके शाहदरा मेट्रो स्टेशन पहुंचने में एक घंटा लग गया । सात बज गए थे । अंधेरा हो चुका था इसलिए गाड़ी की हैड लाईट्स ऑन कर ली गई थीं ।


गोपाल मराठा और उसकी एम्बेसडर हमारे पीछे थी ।


स्टेशन पर पहुंचते ही विभा ने फोन मिला दिया था ।


संपर्क स्थापित होते ही बोली ---- “मैं पहुंच गई, सब ठीक है न !”


दूसरी तरफ से शायद माकूल जवाब मिला क्योंकि विभा ने 'गुड' कहा था, फिर शोफर से बोली- - - - “ दाएं चलो, उधर, ब्रिज के नीचे।”


शोफर ने तेजी से स्टेयरिंग घुमाया।


उसके बाद तो जैसे यह सिलसिला ही चल पड़ा।


विभा मोबाइल पर बताती जा रही थी कि हम कहां-कहां से गुजर रहे हैं और दूसरी तरफ से रास्ता बताया जा रहा था ।


एम्बेसडर निरंतर फालो कर रही थी ।


दो-चार जगह कनफ्यूजन भले ही हुआ हो लेकिन अंततः हम नन्दनगरी को पार करके हर्ष विहार पहुंच गए।


फिर मंडोली की तरफ मुड़े।


अंत में लिमोजीन एक ऐसी गली के बाहर जाकर खड़ी हो गई जिसके अंदर उस जैसी बड़ी गाड़ी तो क्या मारूति भी नहीं जा सकती थी मगर मोबाइल पर दूसरी तरफ वाले के निर्देश वह अब भी ले रही थी और उन्हें लेते ही लेते गाड़ी से उतरी ।


शोफर को वहीं रुकने का संकेत करके गली के अंदर घुसी।


जाहिर है कि हम उसके पीछे थे और हमारे साथ आ लगा था, गोपाल मराठा । उसके चेहरे पर हमसे भी ज्यादा हैरत के भाव थे।


दोनों पुलिसवाले हमें फालो कर रहे थे ।


वहां रोड-लेम्पस की भरपूर रोशनी थी ।


संकरी गली के कई मोड़ों पर मुड़े ।


उस वक्त विभा ने फोन पर कहा था ---- “ठीक कहा था तुमने, तुम्हारे पता बताने पर हम यहां नहीं पहुंच सकते थे।”


और पांचवें मोड़ पर मुड़ते ही वह बोली ---- “गुड, अब मैं तुम्हें देख सकती हूं । तुम्हें भी मैं नजर आ गई होऊंगी ।”


“वहां ।” श्रीकांत ने गली के अंतिम मकान की तरफ इशारा किया । हम सबकी नजर उधर उठ गई ।


वह दोमंजिला मकान था ।


छोटा-सा | बक्से जैसा ।


उसका बंद दरवाजा साफ नजर आ रहा था ।


“तब से यहीं खड़े हो ?” विभा ने पूछा ।


श्रीकांत ने सम्मानपूर्वक कहा ---- “जी ।”


“किसी को शक नहीं हुआ ?”


“आप देख ही रही हैं, गली में आवागमन बहुत कम है। जैसे ही कोई इधर से गुजरता है, दाएं-बाएं टहलने लगता हूं।"


“जब से वह अंदर गई है, बाहर नहीं निकली?”


“तीनों में से कोई भी नहीं ?”


“ गारंटी के साथ कैसे कह सकते हो ? हो सकता है पीछे की तरफ भी कोई दरवाजा हो!”


“देख चुका हूं। मकान की सिच्वेशन ही ऐसी है कि कोई और दरवाजा नहीं हो सकता। उसके तीनों तरफ दूसरे मकान हैं । "


“कैसे कह सकते हो कि अंदर वही हैं?”


“इसी सवाल ने दिमाग परेशान कर रखा था मेरा । उसके पीछे यहां पहुंचने के बाद आधा घंटा यही सोचने में लगा कि क्या किया जाए। फिर तरकीब सूझी, मैंने सीधे जाकर उस मकान की घंटी बजा दी । उनमें से एक ने दरवाजा खोला। मैंने सीधे कहा कि रामलाल जी से मिलना है । वह चकराया, बोला ---- 'यहां तो कोई रामलाल नहीं रहता ।' अब मैं चकराया, कहा- - - - 'क्या बात कर रहे हैं? मुझे तो यहीं बताया था ।' उसने एड्रेस पूछा। मैंने वही बता दिया जो मकान के बाहर लिखा है। उसने असमंजस वाली अवस्था में कहा कि आपको किसी ने गलत पता बता दिया है। मैंने ऐसी एक्टिंग की जैसे रामलाल पर मेरे पांच हजार रुपए चाहिएते हों । वह सारा मामला समझ गया । बोला ---- 'जो लोग ऐसे लोगों को एड्रेस बताते हैं भाई साहब जिसके उन पर पैसे चाहिएते हों, वे सही एड्रेस नहीं बताते ।' मैंने सॉरी कहा । उसे पहुंची तकलीफ के लिए माफी मांगी और वहां से हट गया। मेरा काम हो चुका था । ”


“पहचाना कैसे ?”


“ उसके एक हाथ में छः उंगलियां हैं।”


“गुड... वैरीगुड ।” श्रीकांत से इतनी बातें करने के बाद विभा के उत्साह में इजाफा हो गया । तुरंत ही मराठा की तरफ पलटती हुई बोली वह ---- “यहां से तुम्हारा और तुम्हारे पुलिसवालों का काम शुरु होता है। उस मकान में पारो और छंगा - भूरा हैं।"


“छंगा - भूरा ?” गोपाल मराठा के हलक से चीख निकल गई ।


मैं और शगुन हतप्रभ ।


“क... क्या कह रही हो विभा, वे तो मर चुके हैं।"


“मैंने कहा था न----अभी पता नहीं कौन जला है !” हमारे दिमागों में धमाका-सा हुआ ।


मुंह से निकला - - - - “ल... लेकिन..


“ श्रीकांत को क्या तुम बेवकूफ समझते हो ?”


“अरे मगर..


“ये पारो का पीछा करता हुआ यहां तक पहुंचा है।"


“कौन पारो ?”


“भूल गए ? चांदनी और अशोक जब छंगा - भूरा की जली हुई खोली पर पहुंचे थे तो सबसे ज्यादा हंगामा वही मचा रही थी ।”


“ओह!”


“मगर आंटी।” मुझ जितने ही हैरान शगुन ने पूछा----“श्रीकांत अंकल को पारो का पीछा करने की क्या सूझी?”


“रामायण सुनाने का टाइम नहीं है बच्चे।” शगुन से कहने के बाद वह अभी तक हकबकाए से खड़े गोपाल मराठा की तरफ घूमी और बोली----“हैरानी की दुनिया से बाहर आओ मराठा और उन्हें अपने कब्जे में लो, याद रहे---- हंगामा कम से कम होना चाहिए | बिल्कुल ही न हो तो ज्यादा अच्छा है। मैं नहीं चाहती गली में रहने वाले बाकी लोगों को यह सोचने का मौका मिले कि यहां क्या हो रहा है ?”


सवाल तो लगभग वही गोपाल मराठा के दिमाग में भी चकरा रहे थे जिन्होंने हमारे दिमागों का मलूदा बनाया हुआ था परंतु उस वक्त उन्हें उठाना शायद उसने मुनासिब नहीं समझा।


यह वह समझ ही चुका था कि उसे क्या करना है ।


सो, अब आगे-आगे वह और उसके दोनों पुलिसवाले थे।


पीछे मैं, विभा, श्रीकांत और शगुन ।


दरवाजे पर पहुंचकर मराठा ने दाएं-बाएं देखा।


गली में हमारे अलावा किसी और को न पाकर अपनी जेब से रिवाल्वर निकालकर हाथ में लिया ।


कालबेल के बटन पर अंगूठा रखा ।


अंदर कहीं घंटी बजी।


अपने कप्तान को ऐसा करते देखते ही पुलिसवालों ने भी कंधों पर लटकी बंदूकें उतारकर हाथों में ले लीं बल्कि दरवाजे की तरफ ऐसे अंदाज में तान दीं जैसे लादेन को शूट करने को तैयार हों।


एक मिनट बाद दरवाजा खुला और फिर, वाकई उसने आगे की सारी कार्यवाई ठीक उसी तरीके से की जैसे विभा चाहती थी ।


दरवाजा भूरा ने खोला था ।


बस थोड़ा-सा |


इतना कि वह बाहर झांक सके ।


उसी झिरी को रास्ता बनाकर मराठा के रिवाल्वर की नाल उसके माथे पर जा सटी, मुंह से निकला गुर्राहटदार स्वर----“आवाज निकली तो तेरे मुंह से निकलने वाली वह आखरी आवाज होगी।” भूरा सन्न | यूं खड़ा रह गया जैसे जंगल का कोई मोड़ पार करते ही किसी हिरन ने अपने ठीक सामने खड़े सिंहराज को देख लिया हो।


“अंदर चल।” उसने नाल से भूरा को धकेला । यही क्षण था जब दोनों पुलिसवालों ने दरवाजा पूरा खोल दिया और उसके अगल-बगल से निकलकर अंदर जा धमके। दरवाजे के तुरंत बाद छोटा-सा आंगन था। ठीक सामने दो कमरे । एक कमरे का दरवाजा खुला था, दूसरे का बंद | पुलिसवाले बंद दरवाजे पर झपटे । शायद आंगन में मची हलचल के कारण दरवाजा खुद ही खुल गया । खोलने वाले ने जब आंगन का हाल देखा तो मुंह चीखने के लिए खुला लेकिन चीख निकल नहीं सकी उससे । उससे पहले ही शगुन ने झपटकर उसे दबोच लिया था। उसका एक हाथ छंगा की गर्दन के चारों तरफ लिपटा हुआ था दूसरा कूकर का ढक्कन बनकर मुंह पर । एक पुलिसवाले की बंदूक की नाल उसकी छाती से सट गई । खौफ की मारी पारो जरूर चीखने में कामयाब हो गई थी। दो बार चीखने का मौका मिला उसे लेकिन तीसरी बार नहीं । उससे पहले ही दूसरे पुलिसवाले की बंदूक की नाल उसके टेंटवे को चूमने लगी थी। मुंह खुला का खुला रह गया । थर-थर कांप रही थी वह । पूरे कपड़े बस भूरा ने पहन रखे थे । छंगा के जिस्म पर बनियान और अंडरवियर था । पारो के जिस्म पर ब्लाऊज और पेटीकोट । कपड़े बता रहे थे कि वे बंद कमरे में क्या कर रहे थे । दिमाग में भले ही ये सवाल भगदड़ मचा रहे हों कि ये सब हो क्या गया और हुआ लकिन घिरे ऐसे थे, इतनी तेजी के साथ कि कुछ कर नहीं पाए । हालत जाल में फंसे मेंमनों जैसी थी। सबसे पहले विभा ने छंगा- पारो से कपड़े पहनने के लिए कहा । इधर वे कपड़े पहन रहे थे उधर, गोपाल मराठा ने सिपाहियों को मकान की तलाशी लेने का हुक्म दिया । वे दोनों कपड़े पहनकर चुके ही थे कि एक सिपाही ने हजार-हजार रुपए के नोटों की तीन गड्डियां और कुछ खुले नोट लाकर मराठा को दिखाते हुए कहा---- “इस दूसरे कमरे के अंदर से ये मिले हैं सर ।”


हम उन नोटों को देखते रह गए ।


गिने, खुले नोट पचास हजार से कुछ ज्यादा थे ।


“काफी नोट इकट्ठे कर रखे हैं।" मराठा भूरा को कहरभरी नजरों से घूरता बोला----“कहां से आए?”


“आप तो जानते ही होंगे सर ।" उसने गोलमोल जवाब दिया।


छंगा और पारो कपड़े पहन चुके थे।


विभा ने उनसे पूछा ---- “ये मकान किसका है?”


“हमें नहीं मालूम।" छंगा - भूरा का एक सुर


“तो फिर तुम कैसे रह रहे हो यहां ?”


“हमें उसने यहीं का पता दिया था। और मकान की चाबी भी।”


“किसने?”


“चांदनी ने।”


“चटाकू ।” छंगा के गाल पर इतनी जोर से चांटा पड़ा कि हवा में चकरघिन्नी-सी खाकर वह आंगन के एक कौने में जा गिरा।


यह चांटा भन्नाए हुए मराठा के हाथ का था और... भन्नाया हुआ वह इतना ज्यादा था कि यह एक चांटा मारकर ही नहीं रह गया बल्कि झपटकर उसके नजदीक पहुंचा। दोनों हाथों से उसका गिरेबान पकड़ कर उठाया । गुर्राया ---- “अभी भी झूठ बोल रहा है साले!”


वह मिमियाया----“म... मैं झूठ नहीं..


मराठा का हाथ एक बार फिर हवा में उठा ही था कि विभा जिंदल ने कहा----“उसे मारने से कोई फायदा नहीं मराठा, वह झूठ नहीं बोल रहा बल्कि चांदनी का झूठ खोल रहा है । "


अपने चेहरे पर सारे जमाने की हैरानियां समेटे मराठा और शगुन विभा की तरफ देखते रह गए ।


आश्चर्य के इतने गहरे सागर में डूबे हुए थे वे कि मुंह से एक लफ्ज तक नहीं निकाल सके ।


मैंने जरूर कहा ---- “ये क्या कह रही हो विभा?”


“वह सब जानने की यह माकूल जगह नहीं है ।” कहने के बाद वह मराठा की तरफ घूमी ---- “इन्हें एम्बेसडर में डालो और अपने आफिस ले चलो । वह जगह सबसे माकूल रहेगी ।”


अब मैं एक ऐसी फोन- कॉल का जिक्र करने जा रहा हूं जिसे विभा ने हमारे सामने ही रिसीव किया और बातें कीं।


वे बातें इतनी रहस्यमय थीं कि, हमारे सामने की जाने के बावजूद एक शब्द भी पल्ले नहीं पड़ा । न यह कि वह किससे बातें कर रही थी और न ही यह कि उन बातों का मतलब क्या था ।


आज मेरा दावा है कि अगर मैं उन बातों को समझ जाता तो इस केस की हर पर्त मेरे दिमाग में उसी समय उधड़ती चली जाती मगर दुर्भाग्य यह था कि मेरी और शगुन की समझ में कुछ नहीं आया था।


लिख इसलिए रहा हूं कि अगर आपकी समझ में कुछ आ सके तो समझें और समझने की कोशिश करें कि विभा कितना बड़ा खेल, खेल रही थी। कॉल लिमोजीन के आगे बढ़ते ही आ गई थी।


विभा ने स्क्रीन पर नंबर देखा, कॉल रिसीव की और कान से लगाती बोली---- “कोई प्रॉब्लम ?”


"----------- ।”


“बोलो।”


दूसरी तरफ से शायद काफी लंबी प्राब्लम बताई गई क्योंकि विभा काफी देर तक केवल 'हां - हूं' ही करती रही।


फिर एक बार बीच में कहा ---- “मानना पड़ेगा, काफी दिमाग लगा रहा है कमबख्त । हर बार नया पैंतरा लाता है।"


बीच-बीच में उसके होठों से बहुत ही दिलचस्प मुस्कान की नन्हीं-नन्हीं उंगलियां छेड़छाड़ करने लगती थीं लेकिन अंत तक पहुंचते-पहुंचते चेहरा गंभीर हो गया ।


मस्तक पर चिंता की लकीरें उभर आईं। बोली- - - - “पर इस तरह तो तुम्हारी जान भी खतरे में पड़ सकती है !”


"----------"


“फिर भी, मैं तुम्हें इसकी परमीशन नहीं दूंगी ।”


"----------"


“हां, ये प्राब्लम तो वाकई है ।”


"----------"


“तुम श्योर हो कि कोई खतरा नहीं है ?”


"----------"


“तब ठीक है। ऐसा हो गया तो मजा तो जरूर आएगा लेकिन एक बार फिर कहती हूं- - अपना ध्यान रखना ।”


"----------


“ओ. के. ।” कहने के बाद उसने संबंध विच्छेद कर दिया।


“कौन था विभा ?” मैंने पूछा ---- “क्या बातें कर रही थीं तुम ?”


“दिमाग पर उतना लोड डालना चाहिए प्यारे मित्र जितना वह सह सके और मुझे नहीं लगता कि तुम्हारा दिमाग इतना लोड झेल पाएगा।”


“खुद को कुछ ज्यादा ही दिमागदार नहीं समझने लगी हो तुम?”


मैं थोड़ा किलस गया था । “मूड अंताक्षरी खेलने का है। "


वह मुस्कराई----“खेलोगे?”


“भाड़ में जाओ।” मैं समझ चुका था कि वह कुछ नहीं बताएगी ।


गोपाल मराठा के आफिस में पहुंचने के बाद छंगा-भूरा ने जो कुछ बताया वह विभा के अलावा हम सभी को 'शॉक्ड' कर देने वाला था ।


सबसे ज्यादा 'शॉक्ड' शगुन था ।


मराठा भी उससे कम नजर नहीं आ रहा था ।


उस वक्त उनके हाव-भाव देखने लायक थे जब मराठा के कारिंदों ने छंगा-भूरा को उस हाल में पहुंचा दिया जिसके बाद वे सच और सिर्फ सच ही बोल सकते थे और उस अवस्था में पहुंचने के बाद भी उन्होंने यही कहा ---- 'हमें सुपारी देने वाली चांदनी ही थी।"


“वह कहां मिली तुम्हें ?” मैंने पूछा।


“खोली पर ही आई थी।"


“वह तुम्हें या तुम उसे पहले से जानते थे ?”


“नहीं।”


“पूछा नहीं कि वह तुम्हारे पास कैसे पहुंच गई ?”


“पूछा था । "


“क्या बोली?”


“कहने लगी आम खाओ, पेड़ गिनने की कोशिश मत करो।”


“और तुम आम खाने में जुट गए ? "


“सर, आम लाई भी तो बहुत रसीले थी वो ।” छंगा बोला ---- “वैसे भी यह कोई खास बात नहीं थी । इस दुनिया में हर आदमी अपने काम के आदमी को ढूंढ ही लेता है ।”


“रात के कितने बजे की बात है ये ?”


“साढ़े बारह बजे की ।”


“ और डेढ़ बजे तुमने रतन को खोजकर किडनेप करने के बाद कत्ल भी कर दिया ? जादू का चिराग था तुम्हारे हाथ में ? "


“न हमने किडनेप किया, न कत्ल ।”


“तो किया क्या तुमने ? किस बात की सुपारी मिली थी ?”


“ रतन बिड़ला की लाश को ठिकाने लगाने की ।”


“ और अगर सही ढंग से कहा जाए तो ठिकाने लगाने की भी नहीं।” छंगा ने भूरा की बात को काटते हुए कहा ----“असल में चांदनी ने वह सुपारी हमें इसलिए दी थी कि हम रतन बिड़ला की लाश के साथ पुलिस के हाथ लग जाएं । वही हमने किया । एक मोटर साइकिल पर पुलिसवाले को देखते ही इनोवा की स्पीड इतनी ज्यादा बढ़ा दी कि उसका ध्यान हम पर जाना ही जाना था । वही हुआ । पट्ठे ने तुरंत ही पीछा करना शुरु कर दिया और थोड़ी ही दूर जाने के बाद हमें धर दबोचा। थोड़ा-सा ड्रामा करने के यानी पुलिस की पिटाई झेलने के बाद हमने वही बयान दिया जो चांदनी ने समझाया था। "


“क... क्या बात कर रहे हो ?” मैं हकला गया ---- “चांदनी ने तुमसे यह कहा था कि अपने बयान में तुम्हें उसी का नाम लेना है! यह कहना है कि उसने तुम्हें रतन के मर्डर की सुपारी दी थी! यह बताया था कि इस वक्त वह अपनी पत्नी के साथ पैराडाइज होटल में होगा ! और उसके बाद तुमने उसी के कहने पर रतन को किडनेप करके उसकी हत्या कर दी ! यही बयान तो दिया था तुमने पुलिस को !”


“सौ परसेंट ।”


“ और यह सब कहने के लिए तुमसे खुद चांदनी ने कहा था !” 


“हां।"


“कैसे हो सकता है ऐसा ---- कैसे ?” मैंने अपने चेहरे पर सारे जमाने की हैरानी समेटे विभा जिंदल की तरफ देखते हुए कहा- “सुन रही हो इन लफाड़ियों की बातें ! झूठ बोल रहे हैं ये । मराठा, ये और खुराक मांग रहे हैं। तुम्हारे आदमियों ने इनकी ठीक से खातिरदारी नहीं की । ऐसा भला कैसे हो सकता है कि एक लड़की ने इनसे वह बयान देने के लिए कहा जो उसी को फंसा रहा था ? उसी को रतन बिड़ला का हत्यारा साबित कर रहा था?”


चीख-चिल्लाहट भरे मेरे इन सवालों के जवाब में कोई कुछ नहीं बोला । जवाब कौन देता? सबके चेहरों पर वही सवाल थिरक रहे थे जो मैंने पूछे थे। लेकिन... यहां शायद मैं थोड़ा गलत लिख गया हूं।


वे सवाल बाकी सबके चेहरों पर भले ही थे परंतु विभा के चेहरे पर नहीं थे और ... ऐसा भी होता तो शायद मैं खुद पर नियंत्रण रख सकता था । विभा के चेहरे पर कोई भाव ही न होता तब भी शायद मैं उतना नहीं भड़कता । भड़का तो इसलिए क्योंकि उस जालिम के गुलाब की पत्तियों से होठों पर मुस्कान थी ।


उस मुस्कान को देखकर चीख पड़ा मैं ---- "तुम मुस्करा क्यों रही हो विभा? मुस्करा क्यों रही हो तुम? क्या ऐसा हो सकता है कि कोई किसी से खुद ही को फंसाने वाला बयान दिलवाए ?”


“इस मामले में ऐसा ही हुआ है।" उसने शांत स्वर में कहा।


“ पर कैसे ? क्यों ?”


" इस बात ने तो हमारे दिमागों के कलपुर्जे भी हिलाकर रख दिए थे साब ।” छंगा बोला ---- “जब उन मोहतरमा ने यह कहा कि पकड़े जाने पर तुम्हें 'ये - ये' कहना है तो यह सोचकर खोपड़ी का दिवाला तो हमारी भी निकल गया था कि ये मोहतरमा कह क्या रही हैं! इस लिए बार-बार पूछा था कि यही कहना है न! और जब बार-बार पूछने पर भी यही कहने के लिए कहा तो हमने कहा---- 'मोहतरामा, अगर तुम्हें हत्या के इल्जाम में फांसी पर झूलने का इतना ही शौक है तो कान को इतना घुमाकर क्यों पकड़ रही हो? हमें लफड़े में डालने की जरूरत ही क्या है ? सीधी थाने ही जो पहुंच जाओ और खुलेआम कह दो कि तुमने हत्या की है। हमारा दावा है ---- उस हालत में भी तुम्हें उतनी ही सजा मिलेगी जितनी हमारे बयान के बाद मिलने वाली है' ।”


“जवाब में क्या कहा उसने ?” मैं पागल हुआ जा रहा था।


“डपट दिया हमें । कहने लगी---- ज्यादा दिमाग मत चलाओ । जितना कहा जा रहा है उतना करो।"


“उसके बाद हमारी क्या मजाल थी जो ज्यादा चूं-चपड़ करते!”


-“मैंने इससे कहा, भूरा ने छंगा की तरफ इशारा करके कहादो लाख कमाने हैं तो दिमाग को ताक पर रख दे भैया। ये बड़े लोगों की बातें हैं, हमारे जैसे छुट- भैयों के दिमागों में फिट नहीं होंगी।”


“ और फिर मैंने इसकी बात मान ली।" छंगा बोला ।


“दो लाख ?” मैं चिहुंका---- “ दो लाख की बात कहां से आ गई? चांदनी ने तो तुम्हें पचास हजार रुपए दिए थे न !”


“पागल हो गए हो साब?” भूरा बोला ---- “पचास हजार में भला हत्या के इल्जाम में जेल जाने को कौन तैयार हो जाएगा ? माना कि ऐसे कामों के शेयर काफी गिर गए हैं मगर इतने भी नहीं गिरे हैं।”


“ यानी उसने तुम्हें दो लाख दिए थे ?”


“ढाई । पचास उसी के प्लान के मुताबिक पकड़वा दिए ।”


“तुम्हारी बातें मेरी समझ में नहीं आ रहीं। शुरू से बताओ, क्या हुआ था ? तुम्हारी खोली पर आकर चांदनी ने क्या-क्या कहा था?”


- “ जनाब, बात बस इतनी सी है कि वे उसी इनोवा में हमारे पास आई थीं जिसे बाद में हमने उन्हीं की इच्छा के मुताबिक पकड़वाया।"


“इनोवा में आई थी?” मैं एक बार फिर चकराया ---- “उसे तुमने गुलमोहर की पार्किंग से नहीं चुराया ?”


“यह बात आपकी समझ में क्यों नहीं आ रही हुजूर कि वो सब उन्हीं मोहतरामा के हुक्म पर पुलिस के सामने मारी गई हमारी गप्पें थीं। न हमने कहीं से कोई लाल मारूति चुराई । न रतन बिड़ला को किडनेप किया और न ही उसका मर्डर किया। जब यही सब नहीं किया तो गुलमोहर की पार्किंग से इनोवा चुराने और लाश को उसमें ट्रांसफर करने की बात कहां से आ गई ?”


“सच्चाई ये है कि लाश को तो हाथ तक नहीं लगाया हमने ।” भूरा के चुप होते ही छंगा ने कहा - - - - “हत्या - वत्या करने का हौसला होता तो छोटी-मोटी चोरियां क्यों किया करते ? वह पट्ठी तो पका-पकाया पकवान लिए खोली पर पधारी थी ।”


“पके पकाए पकावान से मतलब ?”


“लाश।” “क... क्या?”


आते ही बोली ---- 'दो लाख कमाना चाहते हो ?"


हमारी तो आखें फट पड़ीं ।


दिल बल्लियों उछलने लगे ।