आगाशे ने पहाड़ी सड़क पर एक जगह बाजू में लगाकर जीप रोकी ।


“आगे पैदल चलेंगे ।" - वो बोला- "फार्म हाउस पहाड़ी के ऐन दूसरी तरफ है ।”


जीतसिंह ने सहमति में सिर हिलाया ।


आधे घण्टे से ऊपर की ड्राइव के बाद वे उस जगह पहुंचे थे । अब आगे पहाड़ी पर ऊपर को जाती झाड़-झंखाड़ों के बीच से गुजरती एक पगडंडी दिखाई दे रही थी ।


दोनों जीप से बाहर निकले ।


आगाशे ने जीप का पिछला दरवाजा खोला और तिरपाल उठाई । तिरपाल अभी उसके हाथ में ही थी कि जीतसिंह ने हाथ बढ़ाकर रिवॉल्वर अपने काबू में कर ली ।


आगाशे सकपकाया और बोला- "तुम रायफल लो ।”


"नहीं।" - जीतसिंह बोला - "ये ठीक है । "


"रायफल में टेलीस्कोप लगा है । निशाना साधने में आसानी होगी ।"


"यही ठीक है । मुझे रायफल हैंडल करने का कोई तजुर्बा नहीं । "


"रिवॉल्वर लम्बी मार नहीं कर सकेगी ।"


"देखेंगे।”


"लेकिन..."


"अरे, पहले ऊपर तो पहुंच लें, ये बात सामने तो आ जाए कि ऊपर से फार्म हाउस का कितना फासला है ! फिर देख लेंगे । जरूरत पड़ी तो हथियार बदल लेंगे । क्या प्रॉब्लम है ?"


"कोई प्रॉब्लम नहीं ।" - आगाशे अनमने स्वर में बोला, फिर उसने जीप में से रायफल उठा ली और बोला - "चलो ।"


"तुम आगे चलो | तुम्हें रास्ता मालूम होगा ।"


आगाशे ने जोर से थूक निगली और फिर रायफल कन्धे पर टिकाए पगडण्डी पर कदम डाला । जीतसिंह उसके पीछे हो लिया । वो जानबूझ कर अपने और उसके बीच में चार-पांच कदम का फासला रखे था । कुछ ही कदमों के बाद आगाशे ने यूं घूमकर वापिस देखा जैसे उम्मीद कर रहा हो कि जीतसिंह उसके पीछे नहीं होगा । जीतसिंह ने अपलक उसकी तरफ देखा तो उसने तत्काल निगाह फिरा ली और पूर्ववत् पगडण्डी चढ़ता रहा ।


दस मिनट में वे पहाड़ी के ऊपर पहुंचे ।


उस दौरान रास्ते में आगाशे कई बार ठिठका लेकिन हर बार जीतसिंह भी उससे पांच-छ: कदम परे ठिठक गया, उसने कभी भी आगाशे के करीब पहुंचने की या उससे आगे गुजर जाने की कोशिश न की ।


आगाशे पहाड़ी के ऊपर पहुंचने के बाद घुटनों के बल झुका और घुटनों के बल ही आठ-दस कदम आगे सरका।


“वो रहा फार्महाउस ।" - वो थके से स्वर में बोला ।

आगाशे की तरह ही सरकता हुआ जीतसिंह उसके दाएं पहलू में पहुंचा। आगे पहाड़ी की जड़ में एक बड़ा सा मैदान था जिसके बीच में ढलुवां छतों वाला, डेढ़मंजिला फार्म हाउस बना हुआ था । उसके सामने वो कच्ची सड़क थी जिस पर से होकर असल में उन लोगों को वहां पहुंचना चाहिए था । फार्म हाउस की इमारत की कई खिड़कियों के शीशे टूटे हुए थे, दाई ओर के एक दरवाजे में चौखट ही थी, पल्ले नहीं थे और दूसरी आधी मंजिल की एक छत गिरी पड़ी थी । उस हालत में वो इमारत रहने के काबिल नहीं थी लेकिन कोई वहां रह रहा था इस बात की चुगली वो एम्बैसेडर भी कर रही थी जो कि इमारत की ओट में यूं खड़ी थी कि उसका सिर्फ बोनेट वाला हिस्सा ही दिखाई दे रहा था ।


"देवरे भीतर होगा ?" - जीतसिह बोला ।


“हां।" - आगाशे अनमने भाव से बोला - " और कहां जाएगा ?"


"दिखाई तो नहीं दे रहा ?"


"इन्तजार करते हैं, दिखाई दे जाएगा। जल्दी क्या है ?" "हां | जल्दी क्या है ?"


आगाशे का हाथ अपनी एक जेब की तरफ सरका । जीतसिंह ने घूरकर उसे देखा ।


"सिगरेट ।" - वो बोला ।


जीतसिंह ने सहमति में सिर हिलाया ।

आगाशे ने जेब से सिगरेट का पैकेट बरामद किया और उसे खोलकर जीतसिंह की तरफ बढ़ाया ।


जीतसिंह ने इन्कार में सिर हिलाया ।


आगशे ने एक सिगरेट अपने होंठों से लगाया और दूसरी जेब से एक माचिस बरामद की । उसने सिगरेट सुलगा लिया और पैकेट और माचिस वापिस जेबों में रख लिए । बड़े नर्वस भाव से उसने सिगरेट का एक लम्बा कश खींचा और ढेर सारा धुआं नथुनों से उगला ।


“जरा रायफल दिखाना ।" - एकाएक जीतसिंह बोला ।


आगाशे चौंका । उसने यूं पलकें झपकाकर जीतसिंह की तरफ देखा जैसे उसकी बात समझने में दिक्कत महसूस कर रहा हो ।


"रायफल । जरा इधर करो । "


आगाशे ने खामोशी से रायफल जमीन पर रखी और फिर उसकी तरफ सरका दी ।


जीतसिंह ने रायफल उठाई और उसके दोनों कारतूस बाहर निकाले । उसने गौर से उनका मुआयना किया तो पाया कि दोनों पर बहुत महीन खरोंचे थी और बहुत गौर से देखे जाने पर ही दिखाई देती थीं। उन खरोंचो का मतलब वो समझता था । भीतर से बारूद निकाल लिया गया था जिसकी वजह से वो कारतूस बेकार थे ।


"ये" - जीतसिंह ने कारतूस हथेली पर रखकर हथेली उसके सामने की - "तुम्हारी खुद की करामात है या तुम्हारे गैरेज वाले दोस्तों की ?"


"दोस्तों की ।" - वो खोखले स्वर में बोला ।


"बढ़िया काम किया !”


आगाशे खामोश रहा । फिर उसने अपना बदन जमीन पर ढीला छोड़ दिया और आंखें बन्द करके सिगरेट के कश लगाने लगा ।


जीतसिंह भी उसके पहलू में छाती के बल लेट गया और नीचे फार्म हाउस की तरफ झांकने लगा जहां कि मुकम्मल सन्नाटा था । उस घड़ी वातावरण ऐसा स्तब्ध था कि आगाशे के कश लगाने की आवाज भी एक तीखी सिसकारी की तरह गूंजती थी।


आगाशे ने अपना सिगरेट खत्म किया और बचा हुआ टुकड़ा एक ओर उछाल दिया ।


“अब क्या होगा ?" - जीतसिंह बोला ।


" अब क्या होगा ?" - आगाशे उदासीन भाव से बोला - " अब तो जो होगा तुम्हारी तरफ से होगा। मेरी तरफ से तो जो होना था, वो हो चुका ।"


"तुम्हारी तरफ से क्या होना था ?"


"तुम्हें मालूम ही है ।" "कैसे होना था ?” वो खामोश रहा ।

"कैसे होना था ?" - जीतसिंह ने सख्ती से अपना सवाल दोहराया ।


“अभी" - आगाशे तत्काल हड़बड़ाया सा बोला- "अभी थोड़ी देर में वो बाहर दिखाई देगा ।"


"क्यों ?"


"ताकि तुम्हें यकीन आ सके कि वो वहां था ।”


"फिर ?"


"वहां सामने बाई तरफ एक पगडण्डी है जिस पर से होकर हम बिना देख लिए जाने के अंदेशे के फार्महाउस वाली साइड में पहाड़ी से नीचे उतर सकते हैं ।"


"फिर ?"


"फिर वही जिसके लिए कि मैं तुम्हें यहां लाया हूं।"


"तुम्हारा दांव पहले लग जाता तो तुम पहले ही कुछ कर गुजरते ?"


"हां । लेकिन.. लेकिन रिवॉल्वर तुमने ले ली, जबकि मुझे गारंटी थी कि तुम रायफल लोगे ।”


“साले ! हरामजादे ! तू समझता था मैं तेरे काबिल भी नहीं ।”


आगाशे के शरीर में साफ-साफ सिहरन दौड़ी ।


"जिस आदमी की बीवी" - जीतसिंह विषभरे स्वर में बोला -

"आधी रात को छुपकर मेरे से मिलने को आती है, वो कहता है वो मेरे से खफा नहीं । जिसके थोबड़े पर मैंने उसकी बीवी के सामने घूंसा जड़ दिया, वो मेरे से खफा नहीं । बुलाया देवरे से मिलवाने को, उस के कत्ल का प्रोग्राम रास्ते में बना, फिर भी जीप तैयार । बाकायदा झाड़-पोंछ कर, आयल देकर, हथियार तैयार । खाली कारतूस तैयार । छुपके फार्महाउस पहुंचने का पहाड़ी रास्ता पहले से ही सैट । कमीने ! अब क्या तू मुझे लिख के देता तो मैं समझता कि तू किस फिराक में था ?"


आगाशे ने जोर से थूक निगली । उसके मुंह से बोल न फूटा ।


"कोई और हथियार है ?" - जीतसिंह बोला ।


“जेब में एक चाकू है ।"


"दो उंगलियों से थाम के जेब से निकाल और हमारे बीच में जमीन पर डाल ।”


आगाशे ने आदेश का पालन किया ।


"ऐसे ही जीप की चाबियां निकाल और जमीन पर डाल।” तत्काल चाबियां चाकू के पहलू में पड़ी दिखाई देने लगीं । जीतसिंह ने सावधानी से दोनों चीजें उठाकर अपने कब्जे में कर लीं ।


"मैं रास्ते में ही " - आगाशे धीरे से बोला- "गैरेज तक पहुंचने पर या उससे पहले ही तेरा काम कर देता तो...' FF


"कैसे कर देता ? उसके लिये" - जीतसिंह ने जेब से निकालकर उसे वो नन्ही-सी पिस्तौल दिखाई जो उसने पोंडा की टूरिस्ट लॉज के देवरे के कमरे से बरामद की थी - "ये थी न मेरे पास !"


आगाशे ने जोर से थूक निगली ।


जीतसिंह ने पिस्तौल वापिस जेब में रख ली और रिवॉल्वर वाला हाथ ऊंचा किया ।


आगाशे की आंखों में आतंक की छाया तैर गई । वो हड़बड़ाकर उठकर बैठा ।


जीतसिंह ने हवा में दो फायर किए । गोली चलने की आवाज स्तब्ध वातावरण में बहुत जोर से गूंजी। लेकिन फार्म हाउस की तरफ से कोई प्रतिक्रिया सामने न आई ।


"उठके खड़ा हो ।" - जीतसिंह कर्कश स्वर में बोला ।


"क... क्या ?"


"खड़ा हो । ताकि तू उसे दिखाई दे सके । समझा ?"


"हां" वो उठकर खड़ा हो गया ।


"थोबड़ा फार्म हाउस की तरफ । मेरी तरफ नहीं । " उसने तत्काल फार्म हाउस की तरफ मुंह कर लिया । "हाथ हिला । सिर से ऊंचा उठा करके ।"

उसने हाथ हिलाया ।


तत्काल प्रतिक्रिया हुई ।


बिना पल्लों के दरवाजे से देवरे ने फार्म हाउस से बाहर कदम रखा ।


"इसे ऊपर बुला ।" - जीतसिंह दबे स्वर में बोला ।


"देवरे ।" - आगाशे चिल्लाया- "यहां आ जा ।"

"वो मर गया ?" - वैसी ही चिल्लाती आवाज में देवरे ने पूछा ।


"हां । आ के देख ।”


"मर गया तो मर गया । मैं क्या आ के देखूं ?"


"जिद करके बुला ।" - जीतसिंह बोला ।


“तू आ तो सही ।" - आगाशे चिल्लाया ।


"मैं क्या करूंगा ऊपर आ के?" - देवरे का जवाब मिला ।


"कह लाश उठाने के लिए।" - जीतसिंह बोला ।


"मदद के लिए ऊपर आ ।" - आगाशे बोला- "मैं लाश अकेला नहीं उठा सकता ।"


"अरे, लाश उठानी किसलिए है ?" - देवरे झल्लाया-सा बोला - "जहां पड़ा है, पड़ा रहने दे हरामजादे को।"

"साला !" - वितृष्णापूर्ण भाव से जीतसिंह के मुंह से निकला ।


"तू नीचे आ।" - देवरे बोला ।


“क्या करू ?” - आगाशे घूमकर जीतसिंह की ओर देखे बिना बोला ।


“नीचे को चल ।” - जीतसिंह बोला- "लेकिन धीरे-धीरे । समझ गया ?"


"हां"

" दौड़ने की कोशिश की तो गोली ।"


मन-मन के कदम रखता आगाशे नीचे को चला ।


जीतसिंह सिर नीचा किए उस पगडण्डी की तरफ लपका जिसके बारे में आगाशे ने कहा था कि उस पर से बिना देख लिए जाने के अंदेशे के फार्म हाउस वाली साइड में उतरा जा सकता था । वो उस पगडण्डी पर पहुंचा तो उसने पाया कि उस पर जगह-जगह बड़ी-बड़ी चट्टानों की ओट भी उपलब्ध थी।


दबे पांव वो नीचे को लपका।


आधे रास्ते में वो ठिठका तो उसने पाया कि अपनी वर्तमान स्थिति से आगाशे तो उसे एक-एक कदम जमाता पहाड़ी से उतरता दिखाई दे रहा था लेकिन अब देवरे उसे नहीं दिखाई दे रहा था ।


वो फिर पगडण्डी उतरने लगा ।

थोड़ी देर बाद उसे देवरे फिर दिखाई दिया। वो फार्म हाउस के पहलू में कमर पर दोनों हाथ रखे उससे थोड़ा दूर खड़ा अपलक आगाशे को पहाड़ी से नीचे आता देख रहा था ।


जीतसिंह सावधानी से फिर पगडण्डी पर नीचे सरकने लगा ।


आगाशे अब लगभग पहाड़ी उतर ही चुका था।


एकाएक जीतसिंह के पांव से एक पत्थर टकराया जो पगडण्डी से नीचे लुढ़कने लगा ।


तत्काल देवरे कि तवज्जो उसकी तरफ गई । तत्काल उसके हाथ में रिवॉल्वर प्रकट हुई और वो जीतसिंह को दिशा में अंधाधुन्ध फायर झोंकता वापिस फार्म हाउस की तरफ भागा ।


तीन गोलियां जीतसिंह के बहुत करीब से गुजरीं ।


गोलियां चलनी शुरू होते ही तब तक पहाड़ी से नीचे पहुंच चुका आगाशे औधे मुंह जमीन पर लेट गया ।


जीतसिंह ने उकडूं होकर एक चट्टान की ओट ली और उस पर रिवॉल्वर वाला हाथ टिकाकर देवरे की तरफ तीन फायर झोंके ।


एक गोली देवरे के कन्धे से लगी । वो जमीन पर ढेर हुआ तो वेग से आगे को लपकता उसका जिस्म एक पूरी कलाबाजी खा गया । लेकिन बला की फुर्ती से वो उठकर अपने पैरों पर खड़ा हुआ और फिर इमारत की तरफ भागने के स्थान पर उसकी ओट में पहुंचने की नीयत से उसके पहलू की तरफ भागा ।

जीतसिंह पगडण्डी के बाकी बचे रास्ते पर लपका ।


देवरे इमारत की ओट में आधी छुपी खड़ी एम्बैसेडर के पास पहुंचा और फुर्ती से उसमें सवार हो गया । तत्काल कार का इंजन गर्जा, उसने इमारत की ओट से निकलकर मैदान में एक गहरा यू टर्न लिया तो क्षण भर को वो पहियों की रगड़ से उठे धूल के गुबार में छुप गई। लेकिन फौरन ही वो तोप से छूटे गोले की तरह कच्ची सड़क की दिशा में भागती दिखाई दी।


जीतसिंह जमीन पर बैठ गया और उसने रिवॉल्वर वाली कोहनी को अपने घुटने पर टिकाकर ताक कर एम्बैसेडर पर दो फायर किए ।


एम्बैसेडर का पिछला शीशा चटका, ब्रेकों की चरचराहट से वातावरण गूंजा और कार फिर यू टर्न में गोल घूम गई । फिर जैसे वो इमारत की तरफ लपकी उससे जीतसिंह को ये लगा कि वो देवरे के काबू से बाहर हो गई थी । के


कार एक पागल हाथी की तरह झूमती हुई जीतसिंह की तरफ लपकी । जीतसिंह तत्काल डाइव मारकर परे न जा गिरा होता तो वो यकीनन कार की चपेट में आ गया होता।


कार इमारत के सिर पर पहुंच गई लेकिन तब उसकी रफ्तार कम होने की जगह और बढ़ गयी ।


कार का हॉर्न जोर-जोर से लगातार बज रहा था लेकिन उसे सुनकर उसके सामने से हटने वाला कोई नहीं था ।


जीतसिंह उठकर खड़ा हो गया और हक्का-बक्का-सा कार की दिशा में देखने लगा ।

एक भीषण आवाज के साथ कार इमारत से टकराई और उसकी दीवार को तोड़ती हुई भीतर घुस गई ।


जीतसिंह इमारत की तरफ लपका। उसके करीब पहुंचकर उसने देखा कि कार जिस कमरे की दीवार तोड़ती भीतर घुसी थी, उसकी परली दीवार से टकरा कर गतिशून्य हो गई थी लेकिन उसका हॉर्न अभी भी बज रहा था और स्तब्ध वातावरण में बड़ी डरावनी आवाज पैदा कर रहा था।


रिवॉल्वर सामने करके थामे जीतसिंह झिझकता-सा कार के समीप पहुंचा तो उसने पाया के देवरे स्टियरिंग के पीछे मरा पड़ा था और उसका शरीर यूं स्टियरिंग पर दोहरा होकर गिरा था कि उसके भार से ही हॉर्न लगातार बजे जा रहा था । उसका दाया पांव तब भी एक्सिलेटर के पैडल पर जाम था जिससे लगता था कि कार हरकत में ही थी कि गोली लगने पर वो मर गया था । इसीलिये कार का रुख फिर गया था और वो वेगवान होकर इमारत से जा टकराई थी ।


"मर गया ?"


जीतसिंह ने चौंककर सिर उठाया तो पाया कि आगाशे उसके पहलू में आ खड़ा हुआ था ।


“हां।” "चलो, किस्सा खत्म हुआ ।"


"किसी पर एतबार करना न सीखा।" - जीतसिंह यूं बोला जैसे स्वत:भाषण कर रहा हो - "किसी की बात मानना न सीखा । वरना जिंदा होता ।"

"किस्सा खत्म हुआ।"


"अभी कहां खत्म हुआ। अभी तू जो बाकी है ।"


"मेरी- तुम्हारी अब क्या अदावत है ?" - उसने जबरन हंसने की कोशिश की - "जिस आदमी ने मुझे तुम्हारे साथ दगा करने के लिये मजबूर किया था, वो तो मर गया।"


"देवरे ने तुझे मजबूर किया था ?" " और नहीं तो क्या ?" "वो तेरे पास आया था ?" "हां"


"क्या कहने ? ये कि मेरे खिलाफ तू उसका साथ नहीं देगा तो वो तुझे सूली पर टांग देगा ?"


“ऐसा ही कहा था उसने कुछ ।”


"ये तू इसलिए कह रहा है क्योंकि तू जानता है कि देवरे तेरी बात को झुठलाने के लिये जिंदा नहीं है ।"


"अरे, ऐसी कोई बात नहीं, मेरे भाई । सच में वो ही बात है जो मैंने कही । अब छोड़ो वो किस्सा और आओ चल के देवरे का माल तलाश करें और उसे शेयर करें ।"


“आगाशे, तू देवरे का माल नहीं उसकी तकदीर शेयर करेगा |"


"क्या मतलब ?"

"ये मतलब ।"


जीतसिंह ने रिवॉल्वर वाला हाथ ऊंचा किया और उसकी आखिरी गोली आगाशे की खोपड़ी में दाग दी ।


***

रात के आठ बजे थे जबकि ऐंजो की टैक्सी पर उसके साथ जीतसिंह गाडगिल की कोठी पर पहुंचा ।


"तू टैक्सी में ही बैठ ।" - जीतसिंह अपनी ओर का दरवाजा खोलता हुआ बोला- "मैं जा के आता हूं।"


“जल्दी लौटना, बॉस ।" - ऐंजो व्यग्र भाव से बोला- "मेरे को तेरी फिक्र ।”


"खामखाह ! वो क्या मुझे खा जाएगा ?"


"जल्दी लौटना ।"


"ठीक है ।"


जीतसिंह टैक्सी में से निकला और कोठी के कम्पाउन्ड में दाखिल हुआ । मुख्यद्वार पर पहुंचकर उसने कालबैल बजाई |


दरवाजा उसी नौकर ने खोला जिसने कि पहले फेरे में खोला था । उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से जीतसिंह की तरफ देखा ।


"साहब से मिलना है।" - जीतसिंह बोला ।


"क्या काम है ?" - नौकर ने पूछा ।


"साहब को बताऊंगा ।"


“वो मेरे से पूछेंगे ।”


"तो यही जवाब देना कि मैं बोला साहब को बताऊंगा ।"

उसके चेहरे पर अनिश्चय के भाव आए ।


"पहचानता तो है न तू मेरे को ? मैं परसों साहब से इधर उनके आफिस में मिला था । "


"मालूम है।"


"तो खड़ा मुंह क्या देखता है ? जाके साहब को बोल कि बद्रीनाथ आया है ।"


"घर में मेहमान आए हुए हैं । साहब उनके साथ बिजी हैं।"


"अब हिल भी चुक ।”


"इधर ही ठहरो । "


नौकर ने उसके मुंह पर दरवाजा बन्द कर दिया ।


जीतसिंह प्रतीक्षा करने लगा ।


पूरे पांच मिनट बाद दरवाजा फिर खुला और सूट-बूट डाले गाडगिल ने बाहर कदम रखा ।


जीतसिंह ने उसका अभिवादन किया ।


“क्या है ?” - गाडगिल अप्रसन्न भाव से बोला । ।


"

आपसे बात करनी है । "


"क्या बात करनी है ? "


"जरूरी बात है ।"


"अरे क्या जरूरी बात है ? कुछ बोलेगा भी ?"


"बात उन मूर्तियों की बाबत है जो कैसीनो के वाल्ट में से..."


"उस बाबत हमारी मुकम्मल बातचीत एडुआर्डो से हो चुकी है । हमने उसे समझा दिया है कि हम क्या चाहते हैं और उसे बता दिया है कि हमारी जरूरत पूरी करने की उजरत के तौर पर उसे क्या मिलेगा ? अब बातचीत को और क्या बाकी रह गया है ?"


"कुछ बाकी रह ही गया है, साहब, तभी तो मैं यहां आया हूं ।"


"क्या बाकी रह गया है ?"


"यहीं बता दूं ?" “क्या हर्ज है ? अगर..."

"अरे, गाडगिल साहब !" - तभी भीतर से एक ऊंची आवाज आई - "अरे, कहां हो, भई ?"


"हमारे मेहमान हमें पुकार रहे हैं । "


जीतसिंह खामोश रहा ।


"पिछवाड़े में जाओ।" - फिर गाडगिल निर्णायक स्वर में बोला - "उधर का दरवाजा खुला है। वहां किचन के सामने एक कमरा है । जाकर उसमें मेरा इन्तजार करो ।”


"कोई टोकेगा तो नहीं ।"

"नहीं टोकेगा । टोके तो मेरा नाम लेना ।”


"ठीक है ।"


जीतसिंह घूमा और पिछवाड़े की ओर चल दिया।


निर्देशित कमरे तक वो निर्विघ्न पहुंच गया ।


वो एक छोटा-सा कमरा था जहां तीन कुर्सियां बिखरी-सी पड़ी थीं । जीतसिंह एक कुर्सी पर बैठ गया और प्रतीक्षा करने लगा ।


दस मिनट बाद भुनभुनाता-सा गाडगिल वहां पहुंचा । जीतसिंह उठकर खड़ा होने लगा तो वो बेसब्रेपन से बोला - " बैठे रहो । बैठे रहो ।"


"शुक्रिया ।" - जीतसिंह बोला ।


"अब बोलो क्या कहना चाहते हो ?"


"टो टूक बोलूं ?"


"हां । दो टूक ही बोलो । हमारे पास वक्त की कमी है। हम बड़ी मुश्किल से तुम्हारे लिये वक्त निकाल पाए हैं । "


"इस काम की मैं अपनी उजरत दस लाख चाहता हूं।"


"तो जाकर एडुआर्डो से बात करो, भाई, इधर क्यों आए ? हमारा सौदा उससे फाइनल हो चुका है ।"


"मुझे मालूम है । ये सात आदमियों का काम है । सात आदमियों में पचास लाख बटें तो मुझे दस लाख नहीं मिलते।"


" तो हम क्या करें ?"


"कमी आप पूरी कीजिए ।"


"क्या !"


"मेरे हिस्से को दस लाख तक पहुंचाने के लिये जो बाकी की रकम दरकार होगी, वो आप मुझे देंगे।"


"पागल हुए हो !"


"या सौदे की रकम बढ़ाकर सत्तर कीजिए।"


"नामुमकिन ।"


"ये आपका आखिरी फैसला है ?"


"हां" "ठीक है । फिर नमस्ते । "


जीतसिंह कुर्सी पर से उठा और दरवाजे की ओर चल दिया । उसने अभी बन्द दरवाजे को खोलने के लिए उसका हैंडल ही थामा था कि गाडगिल बोल पड़ा - "अरे, रुको । रुको ।”


जीतसिंह ठिठका, घूमा ।


"इधर आओ।"


वो गाडगिल के करीब पहुंचा ।


“तुम क्यों अपने आपको बड़े हिस्से का हकदार समझते हो ? क्या खूबी है तुममें ?"


“आपको मालूम होनी चाहिए । मेरे अलावा वाल्ट कोई नहीं खोल सकता ।"


" औरों की मदद के बिना तुम भी नहीं खोल सकते । "


"मेरा काम अहमतरीन है। औरों जैसे और मिल जायेंगे। मेरे जैसा कोई नहीं मिलने वाला । "


"ये बात अपने साथियों को समझाओ । उनको एतबार दिलाओ कि तुम बड़े हिस्से के हकदार हो ।”


"वो नहीं समझते । वो नहीं समझते, इसीलिये मुझे आपके पास आना पड़ा है।"


"हम समझ जायेंगे।"


“आप गरजमंद हैं। "


"तुम लोग नहीं हो ?"


“एक हाथ दूसरे हाथ को धोता है, साहब ।”


"जुबान चलाना खूब जानते हो ।”


जीतसिंह खामोश रहा ।


"अगर हम तुम्हारी बात मान लें तो जानते हो क्या होगा ?"


"क्या होगा ?"

"फिर तुम्हारे बाकी साथी - खासतौर से एडुआर्डो - भी बारी-बारी यहां पहुंचने लगेंगे और वही मांग करने लगेंगे जो कि तुम कर रहे हो । "


"हो सकता है। इस समस्या का एक ही हल है । आप सौदे की रकम पचास लाख से बढ़ाकर सत्तर लाख कर दें। फिर सबका हिस्सा बराबर हो जायेगा ।”


"क्या कहने ।"


जीतसिंह खामोश रहा ।


"तुम सात जने हो ?"


"हां । बोला तो ।"


"दो आदमी घटा दो। पांच से काम चला लो ।"


"ऐसा होना मुमकिन होता तो मैं यहां न आया होता । मेरे यहां आने का मकसद ही ये है कि मेरे को दस लाख जरूर-जरूर मांगता है और वो मेरे को मुकर्रर रकम के हिस्से से नहीं मिल रहे हैं।"


"ये तुम्हारी प्रॉब्लम है । इसे हमारे सिर क्यों थोप रहे हो ?"

"ये आपकी भी प्रॉब्लम है। मैं काम नहीं करूंगा तो काम होगा ही नहीं । "


"तुम काम नहीं करोगे तो तुम्हें दस लाख कैसे मिलेंगे ?” "वो तो अभी भी नहीं मिल रहे ।"

"हूं।"


"वो डेढ़ करोड़ से ऊपर का माल है। उसकी कीमत पचास लाख रूपये वैसे भी बहुत कम है । "


"तुम पागल हो । तुम्हारी जानकारी के लिये, हमारे पास सिर्फ पांच मूर्तियों का ग्राहक है। बाकी तीन ने महज हमारे गले पड़ना है । हमने जो चार पैसे खरे करने हैं, उन पांच मूर्तियों से खरे करने हैं। उनकी हमें डेढ़ करोड़ से ऊपर की रकम कौन दे देगा


जीतसिंह खामोश रहा ।


"

आसान तरीका ये ही है, मेरे भाई, कि जा के एडुआर्डो से बात करो और उसे समझाओ, मुतमईन करो कि तुम्हारी फीस दस लाख होनी चाहिये जो कि तुम्हें मिले और बाकी के चालीस लाख बाकी के छः जने आपस में बराबर-बराबर बांट लें।"


जीतसिंह ने इन्कार में सिर हिलाया ।


" मैं तुम्हें बाकी की रकम पल्ले से दूं तो तुम गारंटी करते हो कि ये बात तुम्हारे साथियों को नहीं मालूम होगी ?”


"नहीं । मैं ऐसी कोई गारंटी नहीं कर सकता।"


"क्यों ?"


"क्योंकि मेरे साथियों में इस बात का बहुत प्रचार हो चुका है कि मेरे को दस लाख मांगता है। मैं इस बाबत खामोश रहूंगा तो वो फौरन समझ जाएंगे कि मैंने अपने हिस्से की कमी आपसे पूरी कर ली थी । खासतौर से तब जब कि उन्हें मालूम है कि मैं इस बाबत आपसे बात करने आने वाला था |"


"ये भी मालूम है ?"


"हां"


"अजीब आदमी हो । परसों तो गऊ-गणेश लग रहे थे, आज पहुंचे हुए उस्ताद मालूम हो रहे हो ।”


जीतसिंह खामोश रहा ।


गाडगिल कुछ क्षण सोचता रहा और फिर एकाएक बोला "तुम आदमी घटाओ। दो आदमी कम करो । पांच जने ये काम करो । फिर तुम्हारी समस्या अपने आप हल हो जाएगी |"


"दो आदमी नहीं घटाये जा सकते ।"


"एक के बारे में क्या कहते हो ?"


"एक आदमी घटाने से मेरा हिस्सा दस लाख नहीं बनता । जबकि मेरे को दस लाख ही मांगता है। नौ नहीं मांगता, साढ़े नौ नहीं मांगता, पौने दस नहीं मांगता । दस मांगता है।"


"वाल्ट में से और भी तो माल निकलेगा ।"


"उससे आपको कोई मतलब नहीं होना चाहिये । न ही उसकी कोई गारन्टी है । "


"गारन्टी तो मूर्तियों की भी नहीं है। उनकी भी तुम लोगों के वाल्ट खोलने तक वहां से चल-चल हो सकती है ।"


"वो हमारा नुकसान होगा। आपका उससे कुछ नहीं जाने वाला । आपने हमें कोई एडवांस रकम नहीं देनी जो कि उस सूरत में हम मार लेंगे । "


"तुम्हारी दस लाख की रट क्यों है ? ऐन यही रकम क्यों चाहिए तुम्हें ?"


"वो मेरा जाती मामला है । "


"हमें लगता है तुम काम करना ही नहीं चाहते । तुम खौफ खा गए हो। पहली बार वाल्ट तुमने मार्सेलो के कहने से खोला था । अब चोरी से वाल्ट खोलने के ख्याल से तुम्हारा दम निकल रहा है। जानते हो कि पकड़े जाने पर जेल की हवा खानी पड़ेगी इसलिए रकम की हुज्जत खड़ी करके बहाना तैयार कर रहे हो काम न करने का ।"


"

आप मेरी मांग कबूल करके आजमा क्यों नहीं लेते कि मैं खौफ खा गया हूं या नहीं ?"


"तुम्हारी मांग नाजायज है । तुम्हारे साथ सौदा नहीं हो सकता ।"


"मुझे भी ऐसा ही लग रहा है । "


"एडुआर्डो ठीक आदमी था | वो.."


“आप उसी से फिर बात कर लीजिए। मैं चलता हूं।"


"ठहरो, ठहरो | तुमने अभी कहा था कि एक आदमी घटाने से भी तुम्हारा हिस्सा दस लाख नहीं रहता लेकिन तुमने इस बात का जबाव नहीं दिया कि तुम लोग एक आदमी घटा सकते हो या नहीं ।”


“एक आदमी घटा सकते हैं । ठीक है, हम एक आदमी घटाते हैं, आप रकम में दस लाख रुपये बढ़ाइये ।"


वो सोचने लगा ।


"ये मेरी आखिरी पेशकश है आपको ।” "ठीक है । हमें तुम्हारी बात कबूल है ।” "मूर्तियों की एवज में आप साठ लाख देंगे ?" "हां, भई, हां ।" "मैं आपका शुक्रगुजार हूं। आप महान हैं।"


"बकवास मत करो।"


"अब एक बात और ।"


" अभी और भी ?"


"हां"


" अब क्या कसर रह गई ?"


"वो क्या है कि.... "


“हमारे पास और बातें सुनने का वक्त नहीं । हम पहले ही तुम्हें बहुत वक्त दे चुकें हैं।"

"बात जरूरी है, साहब । निहायत जरूरी है । "


"कल सुबह आना । तब हम सुनेंगे तुम्हारी जरूरी बात ।”


"सुबह किस वक्त ?"


“आठ बजे । आठ बजे आना और एडुआर्डो को भी साथ लेकर आना ।"


"उसे किसलिए ?"


"सुना नहीं !"

"ठीक है । नमस्ते ।"


फिर वो अपने मेजबान से पहले कमरे से बाहर निकल गया ।


***