करनाल के जिस रेस्टोरेंट में अमृत लाल वेटर था, वह रात के एक बजे तक खुला रहता था। अमृत लाल रेस्टोरेंट से थोड़ी ही दूरी पर रहता था। रेस्टोरेंट बंद होने के बाद वह अपने हाथ जेबों में धंसाए अपने घर की ओर पैदल चल पड़ा।

आज ठंड ज्यादा थी लेकिन आज उसे ठंड से शिकायत नहीं थी। आज रेस्टोरेंट में उसे अच्छी टिप मिली थी और सौ रुपए उसने उस्तादजी से भी कमा लिए थे।

मायाराम बावा उसको की गयी हर टेलीफोन कॉल के पचास रुपए देता था। कभी कभी वे पचास रुपए कमा पाने का मौका कई कई हफ्ते नहीं निकलता था लेकिन आज एक ही दिन में दो बार ऐसी नौबत आ गयी थी।

वह अपने एक कमरे के पोर्शन में अकेला रहता था। वह अभी अविवाहित था और उसका परिवार नकोदर में रहता था। शादी करने की उसकी बहुत इच्छा थी लेकिन कम से कम दस हज़ार रुपए जमा कर चुकने से पहले वह शादी के बारे में नहीं सोचना चाहता था। वह खुश था कि वह धीरे धीरे अपने लक्ष्य के करीब पहुंचता जा रहा था।

रेस्टोरेंट के बारटेंडर से उसकी गहरी दोस्ती थी। उसने ग्राहकों को सर्व होने वाली ब्रांडी में से थोड़ी थोड़ी बचा कर उसे दो पैग ब्रांडी पिला दी थी इसलिए आज वह बेहद अच्छे मूड में था। उसने मन ही मन भगवती भवानी का शुक्रिया अदा किया।

अपने घर का ताला खोल कर वह भीतर दाखिल हुआ। उसने बत्ती जलाई और सीधा किचन में घुस गया। सोने से पहले वह एक गिलास दूध पीने का आदी था। दूध वह सुबह ही ले कर रख जाता था। उसने स्टोव जला कर दूध गर्म किया और उसे एक पीतल के गिलास में डाल लिया। उसने किचन की बत्ती बुझाई और गिलास संभाले बाहर बैठक में आ गया।

वहां उसकी इकलौती कुर्सी पर हाथ में रिवाल्वर लिए एक विशालकाय सिख चुपचाप बैठा था। उसकी बगल में एक दुबला पतला गोरा चिट्टा युवक खड़ा था।

दूध का गिलास अमृत लाल की उंगलियों से फिसल कर झनाक की आवाज के साथ नीचे फर्श पर जा गिरा। दूध उसके पैरों के इर्द गिर्द बिखर गया। वह आतंकित भाव से रिवाल्वर वाले सिख की ओर देखने लगा।

वह उसे पहचानता था।

उसका नाम हरनामसिंह गरेवाल था और वह पंजाब का बड़ा मशहूर, बड़ा खतरनाक बदमाश था। वही मायाराम बावा का अता पता पूछता फिर रहा था और इसी संदर्भ में उसके पास भी आया था लेकिन उसने कह दिया था कि वह बावे के बारे में कुछ नहीं जानता था।

‘शेरां वालिएʼ — वह मन ही मन भगवती को याद करता बोला — ‘बावे के चक्कर में कहीं मैं किसी मुसीबत में तो नहीं फंस गया था?ʼ

गरेवाल उठा। उसने रिवाल्वर अपने समीप खड़े युवक को थमा दी और आगे बढ़ा।

अमृत लाल की घिग्घी बंध गयी। उसने चिल्लाने की कोशिश की लेकिन मुंह से बोल न फूटा। गरेवाल पहाड़ जैसा ऊंचा और बाघ जैसा खूंखार लग रहा था।

“शादी हो गयी तेरी?” — गरेवाल धीरे से बोला।

अमृत लाल ने जल्दी-जल्दी नकारात्मक ढंग से सिर हिलाया। जुबान तो उसकी तालू से जा चिपकी थी।

“चलो, अच्छा हुआ। एक लड़की विधवा होने से बच गयी।”

अमृत लाल पत्ते की तरह कांपने लगा।

गरेवाल ने हाथ बढ़ाया और अपने विशाल हाथ की मुट्ठी में अमृत लाल की गरदन दबोच ली।

“कंजरदया पुत्तरा” — गरेवाल लाल लाल आंखें निकालता कहरभरे स्वर में बोला — “अपने बाप से झूठ बोला तूने!”

अमृत लाल की आंखें बाहर को उबल पड़ीं।

“मैंने जिससे भी पूछा, उस ने यही कहा कि बावे का पता कोई जानता होगा तो अमृत लाल जानता होगा। और तू कहता था तू उसके बारे में कुछ जानता ही नहीं था। बोल, क्यों झूठ बोला तूने? बोल! बोल!”

“अरे, उसकी गरदन तो छोड़ो!” — कौल धीरे से बोला — “तभी तो बोलेगा!”

गरेवाल ने उसकी गरदन पर से अपनी पकड़ ढीली कर दी, लेकिन गरदन छोड़ी नहीं।

“बोल” — वह गुर्राया — “बावा कहां है?”

“मुझे नहीं मालूम।” — अमृत लाल ने आर्तनाद किया — “सौं भगवती भवानी दी, मुझे नहीं मालूम।”

गरेवाल के बाएं हाथ का एक प्रचंड घूंसा उसकी नाक पर पड़ा। साथ ही उसने उसकी गरदन छोड़ दी।

अमृत लाल का शरीर हवा में उछला और फिर भड़ाक से किचन की चौखट से जाकर टकराया। उसकी नाक से खून बहने लगा और सिर फिरकनी की तरह चक्कर खाने लगा। गरेवाल ने आगे बढ़ कर उसका गिरहबान थामा और एक झटके से उसे अपने पैरों पर खड़ा किया।

“बावा कहां है?” — उसने दांत पीसते हुए सवाल किया।

“मुझे नहीं मालूम।” — अमृत लाल रोता हुआ बोला — “वाहे गुरु दी सौं, मुझे नहीं मालूम।”

“माईंयवया, वाहे गुरु दी झूठी सौं खाता है! मैं तेरी तिक्का बोटी अलग कर दूंगा। मैं तेरा खून पी जाऊंगा।”

और उसने अमृत लाल को रुई की तरह धुनना आरम्भ कर दिया।


“बला टली।” — किरण बोली — “भगवान करे, अब वह वापिस आए ही नहीं।”

“मैं खुद यही प्रार्थना कर रहा हूं।” — खन्ना बोला — “इसलिए नहीं कि मुझे उससे कोई शिकायत है, बल्कि इसलिए कि इसी बहाने तुम्हारी चख चख तो बंद हो!”

“जरा बच्चों का तो खयाल करो!” — किरण शिकायतभरे स्वर में बोली — “मैं तुम्हें हज़ार बार कह चुकी हूं कि इनके सामने ऊटपटांग भाषा मत बोला करो। फिर ये भी यही कुछ सीख जायेंगे।”

खन्ना सकपका कर चुप हो गया।

वे डाइनिंग टेबल पर बैठे भोजन कर रहे थे। उसने एक बार सिर झुकाए खाना खाते बच्चों की तरफ देखा, फिर डपट कर अपने बड़े लड़के से बोला — “कमल, खाना चबा चबाकर खाओ।”

कमल ने सिर न उठाया।

सब चुपचाप खाना खाते रहे।

खन्ना का तो अभी आने का वक्त हुआ ही नहीं था और संयोगवश किरण भी उस समय घर पर नहीं थी जबकि मायाराम ड्राइंगरूम की टेबल पर एक चिट्ठी लिख कर छोड़ गया था कि उसे एक जरूरी काम से एकाएक कहीं जाना पड़ रहा था इसलिए वह बिना उन लोगों की प्रतीक्षा किए फौरन वहां से रवाना हो रहा था।

भोजन के बाद जब उन्होंने गैस्टरूम का चक्कर लगाया तो उन्हें मालूम हुआ कि मायाराम अपने तीन सूटकेसों में से केवल एक सूटकेस साथ ले कर गया था। दो सूटकेस गैस्टरूम की बड़ी अलमारी में मौजूद थे।

यानी कि वह सदा के लिए नहीं गया था। लौट कर — कम से कम अपना सामान लेने — तो वह आने ही वाला था।

किरण को मायाराम एक आंख नहीं भाया था। उसे तो वह कोई चोर और उठाईगिरा लगता था। खुद खन्ना का सम्मोहन भी टूटने लगा था। न जाने क्यों उसे लगने लगा था कि मायाराम उतनी इज्जत और खातिर के काबिल नहीं था जितनी कि वह उसकी कर रहा था। अगर किरण चुप रहती तो शायद वह उसे कह भी देता कि किन्हीं मजबूरियों की वजह से वह उसे अपने घर पर नहीं रख सकता था इसलिए अगर वह बुरा न माने तो वह उसका इंतजाम किसी होटल में कर दे। लेकिन किरण के बार बार एतराज जाहिर करने पर वह झुंझला जाता था और बीवी से न दबने की जिद में, उसकी बात न मानने की जिद में, वह मायाराम को बर्दाश्त किए जाता था।

बच्चों के अपने कमरे में चले जाने के बाद वह बैडरूम में आ गया।

किरण थोड़ी देर के लिए ड्राइंगरूम में चली गयी। जब वह वापिस लौटी तो उसने नया रहस्योद््घाटन किया।

“मैंने पंजाब की टेलीफोन डायरेक्ट्री देखी है” — वह बोली — “संगरूर में मोटरसाइकल बनाने वाली ऐसी कोई फैक्ट्री नहीं जिसके साथ मायाराम का नाम जुड़ा हो।”

“डायरेक्ट्री कैसे देखी तुमने? उसने अपनी फैक्ट्री का नाम तो बताया नहीं था?” — खन्ना बोला।

“मैंने संगरूर की सारी फैक्ट्रियों के नाम पढ़ डाले थे। मुझे किसी के साथ भी मायाराम बावा का नाम जुड़ा नहीं दिखायी दिया। मुझे वैसे भी सारी डायरेक्ट्री में मायाराम बावा का नाम नहीं दिखायी दिया। अगर वह इतना ही बड़ा आदमी है तो उसके घर पर टेलीफोन क्यों नहीं है?”

“टेलीफोन होगा। कई लोग डायरेक्ट्री में नाम छपवाना पसंद नहीं करते।”

“और फैक्ट्री?”

“उसके अंतर्गत भी उसने अपना नाम नहीं छपवाया होगा। कोई वजह होगी।”

“उसकी हिमायत में हर सफाई पेश करोगे लेकिन वह नहीं समझोगे जो मैं कह रही हूं।” — किरण चिढ़ कर बोली — “देखो, तुम हज़ार सफाइयां पेश करो लेकिन उसके बारे में मेरा खयाल नहीं बदल सकता। मुझे तो वह कोई चोर उचक्का मालूम होता है!”

“अच्छा, यही सही। लेकिन है तो वह मेरा दोस्त! अगर वह हमारे साथ ठीक से पेश आता है तो वह कुछ भी हो, हमें क्या!”

“देख लेना, एक दिन सारे घर पर झाड़ू फेर कर खिसक जायेगा।”

“अगर उसने ऐसा करना था तो आज ही क्यों नहीं किया? आज तो अच्छा मौका था!”

किरण चुप हो गयी।

“वह उलटे अपना सामान यहां छोड़ कर गया है।”

“हमें देखना चाहिए उसके सूटकेसों में क्या है।” — किरण नए उत्साह के साथ बोली।

“क्यों?”

“उसकी पोल खोलने के लिए। क्या पता वह कोई स्मगलर हो और वह उसमें कोई चरस, गांजा, हेरोइन जैसी स्मगलिंग की चीज छोड़ गया हो जो हमें भी फंसवा सकती हो!”

“लगता है, जासूसी उपन्यास पढ़ने शुरू कर दिए हैं तुमने?”

“मजाक मत करो।”

“लेकिन यह काम शराफत के खिलाफ है।”

“भाड़ में गयी शराफत।”

“और फिर सूटकेसों के ताले लगे हुए हैं।”

“हम खोलने की कोशिश करते हैं। शायद घर की कोई चाबी उन तालों में लग जाये।”

“किरण, अब हद से ज्यादा उसके पीछे मत पड़ो। वह आदमी जैसा भी है, मेरा दोस्त है। मैं...”

तभी टेलीफोन की घंटी बजी।

दोनों हड़बड़ाए। दोनों की निगाह मिली।

“मैं देखती हूं।” — किरण बोली और उठ कर ड्राइंगरूम में चली गई।

लगभग उलटे पांव वह वापिस लौटी।

“वही मालूम होता है।” — किरण यूं बोली जैसे कोई बड़ी रहस्यपूर्ण बात बता रही हो — “तुमसे बात करना चाहता है।”

आशंकित-सा खन्ना उठा। वह ड्राइंगरूम की ओर बढ़ा।

किरण चौखट पर ही खड़ी रही।

खन्ना ने टेलीफोन का रिसीवर उठा कर कान से लगाया और सशंक स्वर में बोला — “हल्लो!”

दूसरी ओर मायाराम ही था। वह घबराया हुआ मालूम होता था। उसकी आवाज से ऐसा लग रहा था जैसे हांफ रहा हो।

“खन्ना!” — वह बोला — “यार, एक समस्या आ खड़ी हुई है।”

“समस्या!” — खन्ना घबरा कर बोला — “कैसी समस्या?”

“अब मैं तुम्हारे पास वापिस नहीं आ सकता। यहां बहुत गड़बड़ हो गयी है। मैं...”

“तुम बोल कहां से रहे हो?”

“करनाल से। यहां मेरा एक दोस्त है। किसी ने उसे बुरी तरह पीटा है। मार डालने में कसर नहीं छोड़ी है। बेचारा बुरी हालत में है। मैंने उसके लिए कुछ न किया तो वह मर जायेगा इसलिए फिलहाल मेरा उसके पास ठहरना बहुत जरूरी है। उसके बाद मैं यहां से चला जाऊंगा।”

“कहां?” — खन्ना के मुंह से अपने आप निकल गया।

“अभी कोई फैसला नहीं किया मैंने। पता नहीं कहां जाऊंगा लेकिन मैं जहां भी जाऊंगा, वहां से तुमसे संपर्क स्थापित करूंगा।”

“अच्छा।”

“अब समस्या वे सूटकेस हैं जो मैं तुम्हारे यहां छोड़ गया हूं। तुम उन्हें किसी सुरक्षित जगह पर छुपा दो।”

“छुपा दूं?” — खन्ना हड़बड़ाया।

“हां, और अपनी बीवी को भी मत बताना कि वे सूटकेस तुमने कहां छुपाए हैं! बस, चुपचाप यह काम कर डालो।”

“लेकिन किरण तो...”

“यह बात मैं उसकी भलाई के लिए कह रहा हूं। उसकी भलाई इसी में है कि उसे इस बारे में कुछ न मालूम हो। शायद एक आदमी उसके बारे में पूछताछ करता वहां पहुंचे।”

“क-क्या?”

“फिक्र की कोई बात नहीं है। जो बात मैं तुम्हें समझाने जा रहा हूं, वही तुम उसे कह देना।”

“लेकिन तुम्हारा मतलब क्या है? कौन आएगा यहां?”

“यहां मेरे जिस दोस्त के साथ मारपीट की गयी है, उसे मैंने तुम्हारा टेलीफोन नम्बर बताया हुआ था। किसी ने वह नम्बर उससे जबरदस्ती कुबुलवा लिया है। अब वह आदमी...”

“मेरा फोन नम्बर! हे भगवान! तुम मुझे किस बखेड़े में फंसा रहे हो?”

“अरे, कोई आफत नहीं आ गयी है। तुम मेरी बात तो सुनो। जरूरी नहीं है कि वह तुमसे संपर्क स्थापित करे लेकिन अगर वह ऐसा करे तो तुम उससे कह देना कि तुम्हारी कभी मुझसे वाकफियत हुआ करती थी। एक रोज मैंने तुम्हें फोन करके कहा था कि अगर तुम्हारे फोन पर कभी मेरे लिए कोई संदेशा आए तो तुम उसे आगे मुझ तक पहुंचा दो। तुमने हामी भर दी। तुमने अपने फोन पर मेरे दो संदेशे प्राप्त किए थे। एक संदेशे में तुम्हें बताया गया था कि हरनामसिंह गरेवाल मेरे बारे में पूछताछ कर...”

“मैं यह सब नहीं कर सकता।”

“जो मैं कह रहा हूं, वह करो, खन्ना। क्या तुम चाहते हो कि तुम्हारी भी वही हालत हो जो मेरे इस करनाल वाले दोस्त की हुई है?”

“वह आदमी चाहता क्या है? तुम्हारे सूटकेस?”

“नहीं। उसकी दिलचस्पी सिर्फ मुझमें है। तुम इन बातों को छोड़ो। तुम केवल इतना याद रखो कि तुमने मेरे लिए दो संदेशे प्राप्त किए। फिर थोड़ी देर के बाद मेरा फोन आया तो वे दोनों संदेशे तुमने मुझे दे दिए। बस, तुम सिर्फ इतना ही जानते हो। तुम्हें नहीं मालूम कि मैं कहां हूं और कहां से बोल रहा था। समझ गए?”

खन्ना ने चौखट पर खड़ी किरण को देखा। वह बड़े आतंकित भाव से उसकी ओर देख रही थी।

“अगर मैं पुलिस को खबर कर दूं तो...”

“ऐसा भूल कर मत करना” — मायाराम तीव्र स्वर में बोला — “वरना तुम खुद संकट में पड़ जाओगे। तुम पर एक फरार मुजरिम को पनाह देने का इलजाम आ जायेगा।”

“क-क्या?”

“फिक्र की कोई बात नहीं है, खन्ना। मुमकिन है वह आए ही नहीं। बस, सूटकेसों को ले जाकर किसी सुरक्षित स्थान पर छुपा दो और अगर वह आए तो उसे वही कहानी सुना देना जो मैंने तुम्हें बताई है। वह तुम्हारी बात पर विश्वास कर लेगा। संदेह की कोई गुंजाइश ही नहीं है। फिर वह चला जायेगा और दोबारा कभी तुम उसकी सूरत नहीं देखोगे। ठीक है? सुन रहे हो न?”

“सुन रहा हूं।” — खन्ना अपने एकाएक सूख गए होंठों पर जुबान फेरता बोला।

“अब संदेशों को जरा गौर से सुन लो और याद कर लो।”

मायाराम ने उसे संदेशे, उनके आने का सही वक्त, संदेशे देने वाले का नाम और मायाराम के वे संदेशे हासिल करने के लिए फोन करने का वक्त बता दिया। फिर उसने खन्ना को सारी बात दोहराने के लिए कहा। उसे यह जान कर संतुष्टि हुई कि खन्ना ने एक ही बार में सब कुछ ठीक से याद कर लिया था।

“मैं दो एक दिन में तुमसे फिर संपर्क स्थापित करूंगा।” — अंत में मायाराम बोला — “और तुम किसी बात की फिक्र मत करना। तुम पर कोई आंच नहीं आने वाली।”

सम्बन्धविच्छेद हो गया।

खन्ना रिसीवर थामे खड़ा रहा, हालांकि उसे मालूम था कि लाइन कट चुकी थी। किरण उसकी ओर देख रही थी। वह जानता था कि रिसीवर रखते ही उसे किरण के बेशुमार सवालों का जवाब देना होगा।

एक ही वक्त में सैकड़ों बातें सोचता, खन्ना रिसीवर कान से लगाए खड़ा रहा।


निजामुद्दीन में खन्ना की कोठी से चार पांच इमारतें परे सड़क पर एक पब्लिक टेलीफोन बूथ था। हरनामसिंह गरेवाल कौल को कोठी के सामने खड़ा छोड़ कर टेलीफोन बूथ की ओर बढ़ गया था। साइलेंसर लगी रिवाल्वर उसने कौल को इस निर्देश के साथ दे दी थी कि अगर उसकी गैरहाजिरी में मायाराम बावा कोठी से बाहर निकले तो वह उसकी टांग में गोली मार दे।

उस वक्त रात के ग्यारह बजे थे। वे लोग दोपहर से पहले ही दिल्ली पहुंच गए थे। एक घंटा उन्हें यह मालूम करने में लग गया था कि अमृत लाल वेटर से हासिल हुआ टेलीफोन नम्बर दिल्ली में कहां चल रहा था। फिर वे उस कोठी के सामने पहुंच गए थे और सारा दिन प्रतीक्षा करते रहे थे कि शायद मायाराम उस कोठी में से बाहर निकले या कोठी में ही कहीं चलता फिरता दिखायी दे जाये। लेकिन ऐसा नहीं हुआ था। परिणामस्वरूप वे निश्चित रूप से नहीं जान पाए थे कि मायाराम वहां था या अमृत लाल ने उनसे झूठ बोला था।

अमृत लाल झूठ बोलने की स्थिति में था तो नहीं!

गरेवाल ने उसे बहुत मारा था। अगर कौल उसे न रोकता तो शायद वह उसे जान से ही मार डालता। गरेवाल जल्दी गुस्सा खा जाने वाला आदमी था। उसे इस बात पर कतई विश्वास नहीं हो रहा था कि अमृत लाल को मायाराम का वर्तमान पता नहीं मालूम था। उसे अमृत लाल का सच भी झूठ लगता था। उसका इंकार बार बार सुन कर उसका गुस्सा और भड़कता जाता था और वह उसे और पीटता जाता था। अंत में कौल ने जबरदस्ती उसे अमृत लाल से अलग किया था और स्वयं बड़े प्यार से अमृत लाल से सवाल किया था। अधमरे अमृत लाल ने फूट फूट कर रोते बताया था कि वह सिवाय दिल्ली के एक टेलीफोन नम्बर के और कुछ नहीं जानता था।

कौल ने गरेवाल को समझाया था कि वह सच बोल रहा था। वैसे भी उसकी बात पर विश्वास करने के अलावा और कोई चारा नहीं था। इतनी मार खा कर कोई इतनी मामूली बात छुपाए नहीं रख सकता था।

वे दिल्ली आ गए थे।

गरेवाल और कौल की यारी बड़ी अजीब थी। गरेवाल एक पहाड़ जैसे जिस्म वाला, खूंखार आंखों वाला, रूखा, बद्सूरत, बेरहम आदमी था। इसके विपरीत कौल बड़ा नाजुक, बड़ा गोरा, खूबसूरत नयन नक्श वाला और औरतों जैसी नजाकत और रखरखाव वाला युवक था। पहले लोग उन दोनों के रिश्ते के बारे में बड़ी खराब खराब बातें कहा करते थे। फिर एक बार हरनामसिंह ने खुद किसी को ऐसा कुछ कहते सुन लिया था। अगली ही सुबह उस आदमी की लाश चाटीविंड की नहर में तैरती पाई गयी थी।

उसके बाद किसी की उन दोनों के बारे में कैसी भी कोई बात कहने की हिम्मत नहीं हुई थी।

गरेवाल ने बूथ में जा कर वह नम्बर डायल किया।

कितनी ही देर तक घंटी बजती रही।

फिर किसी ने दूसरी ओर से टेलीफोन उठाया और एक आशंकित-सी मरदाना आवाज उसके कान में पड़ी — “हल्लो!”

“जरा मायाराम से बात करवा दो, जी।” — हरनामसिंह अपने खुरदरे स्वर में मिठास भरने का भरसक प्रयत्न करता बोला।

दूसरी ओर से जोर से सिसकारी भरी जाने की आवाज आयी और फिर खामोशी छा गयी। फिर कोई जल्दी से बोला — “यहां कोई मायाराम नहीं है। आपका गलत नम्बर लग गया मालूम होता है।”

“नहीं। नम्बर ठीक है। मैंने मायाराम बावा से बात करनी है।”

“इस नाम का कोई आदमी यहां नहीं है।” — इस बार आवाज में स्पष्ट कंपन था।

क्या मायाराम को उसकी भनक पड़ गयी थी? क्या वह कहीं खिसक गया था?

“मैं उससे बात करना चाहता हूं। उससे बात कर पाने का कोई तरीका?”

“मुझे नहीं मालूम। मैं किसी मायाराम बावा को नहीं जानता।”

अगर वह आदमी सच बोल रहा था तो फिर उसकी आवाज क्यों कांप रही थी? वह घबरा क्यों रहा था? वह निश्चय ही झूठ बोल रहा था।

“देखो, बाउजी।” — गरेवाल बोला — “मेरा नाम हरनामसिंह गरेवाल है। मैं मायाराम का दोस्त हूं। अभी कल अमृत लाल ने करनाल से इसी टेलीफोन पर मायाराम से बात की थी। अब मैं खुद उससे बात करना चाहता हूं।”

“हरनामसिंह गरेवाल!” — दूसरी ओर से सिसकारी की आवाज आयी।

गरेवाल सकपकाया। शायद उसे अपना नाम नहीं बताना चाहिए था। लेकिन मायाराम तो विमल से दूर भाग रहा था, उससे नहीं। वह मायाराम को पुराना जानता था। मायाराम की उससे भागने की तो कोई वजह नहीं थी। उसके पास यह जानने का कोई साधन नहीं था कि गरेवाल ने विमल से सब कुछ कुबुलवा लिया था और अब वह डकैती की दौलत के लिए ही उसके पीछे पड़ा हुआ था।

“हां।” — वह बोला — “मैं और मायाराम पुराने दोस्त हैं।”

“हरनामसिंह गरेवाल!” — दूसरी ओर से अनिश्चित-सी आवाज आयी — “उसने जिक्र तो किया था इस नाम का!”

“जरूर किया होगा। वह मेरा दोस्त है।”

“लेकिन वह अब यहां नहीं है और न ही मुझे मालूम है कि कहां है। लेकिन अगर तुम कोई संदेशा छोड़ना चाहो तो...”

“वह तुम्हारे यहां से कब गया?”

“कब गया क्या मतलब? वह यहां तो कभी आया ही नहीं था!”

फिर झूठ — गरेवाल ने सोचा — अभी तो वह आदमी कह रहा था कि वह ‘अब’ वहां नहीं था। यानी कि पहले वह वहां था।

“लेकिन उसका यहां फोन आएगा।” — आवाज आयी — “तुम उसके लिए कोई संदेशा छोड़ना चाहते हो तो मुझे बता दो।”

“हां।” — गरेवाल बोला — “उसे कह देना कि हरनामसिंह गरेवाल ने फोन किया था।”

“कोई नम्बर, जहां वह तुम्हें फोन कर सकता हो?”

“नहीं। बस, उसे सिर्फ इतना कह देना कि गरेवाल ने फोन किया था और वह उससे संपर्क स्थापित करना चाहता है।”

“अच्छा।”

गरेवाल ने फोन रख दिया।

वह बूथ से बाहर निकला और विचारपूर्ण मुद्रा बनाए कोठी की ओर बढ़ा।

क्या यह हो सकता था कि वह टेलीफोन नम्बर भी मायाराम तक पहुंचने की अमृत लाल जैसी ही एक कड़ी हो! शायद अमृत लाल वहां फोन करके संदेशा दे देता हो और फिर मायाराम कहीं और से वहां फोन करके वह संदेशा हासिल कर लेता हो!

लेकिन उस आदमी की बातें साफ जाहिर कर रही थी कि मायाराम वहां जरूर आया था, चाहे अब वह वहां न हो।

वह कौल के समीप पहुंचा।

उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से कौल की ओर देखा।

कौल ने इंकार में सिर हिलाया।

गरेवाल ने कोठी की ओर निगाह उठाई।

“फोन से क्या मालूम हुआ?” — कौल से पूछा — “वह है भीतर?”

“लगता है, अब नहीं है” — गरेवाल बोला — “लेकिन पहले जरूर था। खन्ने को जरूर मालूम होगा कि वह कहां गया है! आओ, भीतर चलते हैं।”

दोनों आगे बढ़े। इमारत के सामने की ओर जाने के स्थान पर वे उसकी साइड की ओर बढ़े। वहां कोठी की चारदीवारी में एक स्थान पर टेलीफोन की ब्रैकट लगी दिखायी दे रही थी। गरेवाल ने कौल को उठा कर दीवार पर चढ़ा दिया। कौल ने जेब से एक छोटा-सा चाकू निकाला और उसकी सहायता से टेलीफोन की तार काट दी।

फिर गरेवाल भी दीवार पर चढ़ गया। दोनों नि:शब्द कम्पाउण्ड के भीतर कूद गए। कोठी की साइड में गैराज था। गरेवाल ने देखा, गैराज का शटर आधा उठा हुआ था। दोनों चुपचाप भीतर दाखिल हो गए। गरेवाल ने अपने पीछे शटर गिरा दिया।

गरेवाल ने दीवार टटोल कर बिजली का स्विच तलाश किया और बत्ती जला दी। उस मद्धम-से प्रकाश में उसने देखा कि गैराज के पृष्ठभाग में एक दरवाजा था जिसका ऊपरी भाग शीशे का था। वे उस दरवाजे के समीप पहुंचे। गरेवाल ने शीशे में से भीतर झांका। वह किचन थी।

गरेवाल ने अपने पाजामे के नेफे में खुंसी रिवाल्वर निकाली और उसके मूठ के प्रहार से शीशा तोड़ दिया। फिर उसने टूटे शीशे में से हाथ डाल कर भीतर से लगी चिटखनी गिरा दी और दरवाजे को धक्का देकर खोला। दोनों भीतर दाखिल हुए। किचन में ड्राइंगरूम का प्रकाश पहुंच रहा था। उन्होंने किचन का दरवाजा भीतर से बंद कर दिया।

तभी उन्हें पदचाप सुनाई दी।

वे दोनों ठिठक गए। उनके हाथ रिवाल्वर पर कस गए।

एक आदमी किचन की चौखट पर प्रकट हुआ। वह एक पाजामा सूट, उस पर ऊनी गाउन और पैरों में स्लीपर पहने था। उन पर निगाह पड़ते ही वह थमक कर खड़ा हो गया और विस्फारित नेत्रों से उनकी ओर देखने लगा।

“कौन हो तुम लोग?” — वह भयभीत स्वर में बोला — “यहां क्या कर रहे हो?”

गरेवाल ने आवाज फौरन पहचानी। वह वही आवाज थी जो उसने टेलीफोन पर सुनी थी।

“तुम खन्ना हो?” — गरेवाल ने सवाल किया।

खन्ना ने उत्तर न दिया। उसने हाथ बढ़ा कर किचन की बत्ती का स्विच ऑन किया। किचन में प्रकाश फैल गया।

“जा” — गरेवाल कौल से बोला — “जरा बाकी इमारत का चक्कर लगा कर आ।”

“ठहरो, ठहरो।” — खन्ना बोला। वह यूं आगे बढ़ा जैसे कौल का रास्ता रोकना चाहता हो।

गरेवाल ने अपना रिवाल्वर वाला हाथ ऊंचा किया। तब पहली बार खन्ना को मालूम हुआ कि वे लोग सशस्त्र थे। खन्ना जहां खड़ा था, वहीं जड़ हो गया। कौल किचन से बाहर निकल गया। गरेवाल और खन्ना खड़े प्रतीक्षा करते रहे। थोड़ी देर बाद उनके कानों में एक क्रोधभरा महिला स्वर और एक बच्चे के चिल्लाने की आवाज पड़ी। खन्ना ने कुछ कहने के लिए मुंह खोला लेकिन गरेवाल की दहकती निगाहें अपने पर टिकी पा कर वह सहम कर चुप हो गया।

फिर कहीं से कौल की आवाज आयी — “सब ठीक है, सरदार।”

“चलो।” — गरेवाल खन्ना को रिवाल्वर से टहोकता बोला।

दोनों बाहर निकले।

कौल ड्राइंगरूम में मौजूद था। उसने खिड़कियां दरवाजे बंद करके उन पर परदे डाल दिए थे। एक महिला तीन बच्चों को ले कर एक सोफे पर बैठी थी। वह भयभीत और क्रोधित दिखायी दे रही थी। बच्चे डबडबाई आंखें लिए सहमे सिकुड़े बैठे थे।

“कोई गैस्टरूम में रहता रहा मालूम होता है।” — कौल बोला — “लेकिन अब लगता है फूट चुका है। वहां सामान वगैरह कुछ नहीं है।”

“इसका तो मतलब हुआ कि वह वापिस भी नहीं आएगा।” — गरेवाल बोला। उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से खन्ना और किरण की ओर देखा और बोला — “क्यों?”

“वह यहां नहीं आने वाला।” — किरण तीखे स्वर में बोली — “हम उसे यहां नहीं देखना चाहते। और तुम्हें भी।”

“किरण!” — खन्ना चेतावनीभरे स्वर में बोला।

“तुम चुप रहो, जी। यह सारी मुसीबत तुम्हारी ही बुलाई हुई है।”

खन्ना हड़बड़ा कर चुप हो गया। उसने व्याकुल भाव से गरेवाल की ओर देखा।

“बाउ” — गरेवाल बोला — “थोड़ी देर पहले मैंने तुझे फोन किया था।”

“गरेवाल!” — खन्ना के मुंह से निकला।

“हां। हरनामसिंह गरेवाल।” — गरेवाल अपने खाली हाथ से अपनी एक मूंछ उमेठता बोला — “मुझे अफसोस है कि हमें तुम लोगों को इतनी रात गए इस तरह परेशान करना पड़ रहा है। लेकिन मेरी मजबूरी है। मैं जल्दी से जल्दी मायाराम बावे से बात करना चाहता हूं। हम तुमसे सिर्फ इतना जानना चाहते हैं कि बावा यहां से कहां गया है! यह बात मालूम होते ही हम यहां से चले जायेंगे।”

“हमें मालूम नहीं है बावा कहां गया है।” — खन्ना व्यग्र स्वर में बोला — “मैं सच कहता हूं हमें उसके बारे में कुछ नहीं मालूम।”

“फिर तो तुम्हारे लिए बहुत मुश्किल हो गयी!” — गरेवाल अफसोस जाहिर करता हुआ बोला — “मायाराम का पता जाने बिना तो हम यहां से टलने वाले नहीं हैं! अगर तुम्हें वाकई उसका पता नहीं मालूम तो हमें तो तुम्हारा बहुत लम्बा मेहमान बनना पड़ेगा।”

“उसने कहा था कि वह टेलीफोन करेगा।” — खन्ना असहाय भाव से बोला — “बस, यही कहा था उसने। वह कहां था और कहां जा रहा था, इस बारे में उसने कुछ नहीं बताया था। मैं ईश्वर की सौगंध खा कर कहता हूं कि हमें उसका अता पता कुछ नहीं मालूम। लेकिन फोन उसका जरूर आएगा।”

“यह तो और भी बड़ी मुश्किल हो गयी।” — गरेवाल बोला — “हमने तो तुम्हारे टेलीफोन की तार काट दी है। अब तो तुम्हें ही बताना पड़ेगा कि मायाराम कहां है।”

“लेकिन मुझे तो मालूम नहीं!”

“शायद वह वापस लौटे!”

तभी एक क्षण के लिए खन्ना के चेहरे पर ऐसा भाव पैदा हुआ जिसने गरेवाल को आश्वस्त कर दिया कि मायाराम वहां लौटने वाला था। खन्ना उससे निगाह चुराने लगा और होंठों पर जुबान फेरने लगा।

“हां, यह ठीक रहेगा।” — गरेवाल संतुष्टिपूर्ण ढंग से सिर हिलाता बोला — “वह यहां वापिस आएगा। क्या खयाल है, बाउ साहब, कब तक वापस आएगा?”

“वह वापस नहीं आएगा।” — खन्ना बोला — “उसने कहा था कि टेलीफोन करेगा। जब उसे टेलीफोन का कोई जवाब नहीं मिलेगा तो वह संदिग्ध हो जायेगा और फिर यहां हरगिज नहीं आएगा।”

“नहीं। वह समझ लेगा कि फोन खराब हो गया था। फोन पर बात न हो पाने की स्थिति में वह जरूर यहां आएगा। हम यहीं उसका इंतजार करेंगे। हमसे पीछा छुड़ाना चाहते हो तो सोचो कि वह कहां हो सकता है!”

“मुझे कुछ नहीं मालूम। मैं कसम खाकर कह रहा हूं मुझे कुछ नहीं मालूम।”

“सुनो” — एकाएक किरण अपने पति से बोली — “अगर तुम उस आदमी की रक्षा करने की फिराक में हो तो...”

“हे भगवान! कैसी बातें कर रही हो! क्या मुझे अपने बीवी बच्चों से ज्यादा उसका खयाल होगा? मैं तो...”

गरेवाल ने किरण की ओर देखा और मुस्कराने का असफल प्रयत्न करता बोला — “काकी, तेरे घर वाले को न सही लेकिन शायद तुझे ही कुछ मालूम हो!”

“मेरी उससे बात नहीं हुई थी।” — किरण बोली — “जब उसका फोन आया था तो इन्होंने उससे बात की थी।”

“उसका फोन आया था?” — गरेवाल खन्ना की ओर घूमा — “वह कब की बात है?”

“आज शाम की।”

“क्या कहा था उसने?”

“उसने कहा था कि अब वह वापिस नहीं आएगा लेकिन वह टेलीफोन करेगा।”

“उसने यह नहीं बताया था कि वह कहां से बोल रहा था?”

“बताया था। करनाल से बोल रहा था। कह रहा था कि उसके किसी दोस्त को किसी ने मार मार कर अधमरा कर दिया था।”

“उसने कहा था कि वह करनाल में था?”

“हां। लेकिन उसने यह भी कहा था कि वह वहां से भी जा रहा था।”

“हूं।” — उसने कौल की ओर देखा — “करनाल पहुंच गया, कुत्ती दा पुत्तर।”

कौल ने सहमति में सिर हिलाया।

“तेरा क्या खयाल है, यहां आएगा वह?”

“क्या कहा जा सकता है!” — कौल बोला — “फोन की लाइन कटी पड़ी है। फोन पर बात न होने पर शायद वह भयभीत हो जाये और फिर इधर का रुख ही न करे।”

“तार ही तो कटी है! उसे दोबारा जोड़ दे।”

“अच्छा।”

“यही ठीक रहेगा। हम फोन चालू कर देते हैं और फिर यहीं इंतजार करते हैं। बाउजी, अगर मायाराम का फोन आया तो तुम्हें उसको कहना होगा कि यहां सब ठीक ठाक है। वह शौक से यहां वापिस आ सकता है। और तुम्हारे बोलने का अंदाज बड़ा आश्वासनपूर्ण होना चाहिए। उसे शक नहीं होना चाहिए।”

“अच्छा।” — खन्ना बोला।

“मैं जा कर फोन ठीक करूं?” — कौल बोला।

“अभी नहीं। अभी थोड़ी देर ठहर जा। अभी तू जरा हर किसी पर निगाह रख। और काकी” — वह किरण से सम्बोधित हुआ — “तू जरा मुझे सारी कोठी का एक चक्कर लगवा।”

और वह बड़े फाश ढंग से मुस्कराया।

किरण अपने आपमें सिकुड़ गयी। उसने आतंकित भाव से उस गोरिल्ले की तरफ देखा।

“सरदार।” — कौल दबे स्वर में बोला — “जाने दे।”

गरेवाल हंसा।

“अरे, कुछ नहीं होता।” — वह बोला। फिर वह किरण की ओर घूमा। उसने अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाया और बोला — “आ चल, मुझे बाकी की कोठी दिखा।”

“खबरदार!” — किरण भयभीत स्वर में चिल्लायी — “मुझे हाथ मत लगाना।”

वह गरेवाल के स्पर्श से बचने के लिए और परे सिकुड़ गयी।

गरेवाल ने हाथ बढ़ा कर उसकी बांह पकड़नी चाही। किरण ने जोर से उसके हाथ पर हाथ मारा।

गरेवाल का चेहरा क्रोध से लाल भभूका हो गया।

“ठहर जा, काको यानी दिए।” — वह कहरभरे स्वर में बोला। उसने इतनी जोर का थप्पड़ किरण के चेहरे पर रसीद किया कि किरण सोफे पर उलट गयी। स्तब्ध वातावरण में थप्पड़ की आवाज यूं गूंजी जैसे बम फटा हो।

एक बच्चा भय से जोर जोर से रोने लगा। बाकी दोनों भयभीत-से नि:शब्द बैठे रहे।

खन्ना जोर से चिल्लाया और गरेवाल पर झपटा।

गरेवाल ने हाथ बढ़ा कर उसे यूं थाम लिया जैसे वह कोई मिट्टी का पुतला हो। उसने बाएं हाथ से खन्ना का गिरहबान दबोचा और दाएं से उसके शरीर के विभिन्न भागों पर दनादन घूंसे बरसाने आरम्भ कर दिए।

क्रोध में हरनामसिंह गरेवाल अपना आपा भूल जाता था और इंसान से राक्षस बन जाता था।