देवांश खुश नजर आ रहा था । बहुत खुश । मुंह से सीटी की आवाज निकालता हुआ 'जेन' ड्राइव कर रहा था वह। डेशबोर्ड पर 'विषकन्या' रखी थी । दिमाग में कोई तनाव नहीं था । जैसे सारी समस्याएं हल हो गई हों । मस्तिष्क पटल पर रह-रहकर उन क्षणों की तस्वीरें चलचित्र की मानिन्द उभर रही थीं जो कुछ देर पहले 'विनीता' के साथ गुजारे थे। सबकुछ हो गया था | सबकुछ । वह भी जिसे अक्सर वह शादी के बाद करने को कहती थी । देवांश को खुशी थी वह उसे 'बहका' देने में कामयाब हो गया था ।
सबकुछ होने के बाद विनीता उसके सीने में मुखड़ा छुपाकर रोने लगी थी ।
वह उसे चुप कराने की कोशिश कर रहा था । कामयाब तो हुआ परन्तु बड़ी मुश्किल के बाद । विनीता ने रोते हुए । ने बार - बार, शायद हजार बार एक ही बात कही - - - - ये सबकुछ ठीक नहीं हुआ देव । तुमने मुझे 'बहका' दिया । तुम तो जानते हो, मैं ऐसी लड़की नहीं हूं। शादी से पहले ऐसा बिल्कुल नहीं चाहती थी। मैंने तो हमेशा यही सोचा था, यह 'गिफ्ट' तुम्हें गोल्डन नाइट पर दूंगी ।
देवांश ने अलग-अलग शब्दों में हर बार यही कहा ---- 'रोओ मत विनीता, जो हुआ उसमें दोष तुम्हारा नहीं, मेरा है । और फिर, हम यह क्यों मानें कुछ गलत हुआ। बहरहाल शादी तो हमारी होनी ही है। फिर क्यों न इसीं लम्हों को अपनी गोल्डन नाइट मान लें?'
थोड़ी संभलने के बाद विनीता ने कहा था “क्या पता हमारी शादी होगी भी या नहीं?.... देव, 'उनके' रहते मैं इस बारे में सोच तक नहीं सकती और इधर, महसूस कर रही हूं ठकरियाल ने तुम्हें जरूरत से ज्यादा डरा दिया है । मुझे नहीं लगता इस मानसिक अवस्था के रहते तुम कुछ कर सकोगे।"
वह शायद 'शबाब' का ही नशा था जिसके वशीभूत देवांश कह उठा ---" ऐसी की तैसी ठकरियाल की ! मैं भुगत लूंगा उसे । ठीक कहा था तुमने---- दिव्या के निप्पल्स पर जहर पाने के बाद वह और कुछ सोच ही नहीं सकता।”
“मगर ये होगा कैसे?”
“क्यों?” वह मुस्कराया था ---- “अपने देव के दिमाग से भरोसा उठ गया क्या?”
“मतलब?”
“कुछ देर पहले तुम्हीं ने कहा था ---- तुम्हें अपने प्य और मेरे दिमाग पर पूरा भरोसा है ।”
“भरोसा तो अब भी है देव । मगर...
“मगर?”
“तुम मुझे हिम्मत सी हार गये लगते हो । और जब कोई हिम्मत हार जाता है । ... यह सोच बैठता है 'ये काम' . उससे हो ही नहीं सकता तो, हो भी नहीं पाता ।”
वह मुस्कराया था। कहा था ---- "तुमसे किसने कहा मैं हिम्मत हार चुका हूं?”
“तुम्हारी ही बातों से लगा ।”
“उन क्षणों को गुजरे बहुत देर हो चुकी है मैडम । तब और अब के बीच हमारी गोल्डन नाइट आ चुकी है और गोल्डन नाइट कुछ क्षण नहीं, पूरा एक युग होता है। अगर मैं ये कहूं इस युग के बीच मुझे दिव्या के निप्पल्स पर जहर लगाने का बहुत आसान आइडिया सूझ चुका है तो गलत नहीं होगा।”
सारी लाज शर्म भूलकर उछल पड़ी थी विनीता । मुंह से निकला था----“ये क्या कह रहे हो तुम ?”
“सोलह आने सच है ये । कहो तो बताऊं तरकीब ?”
“बताओ। ठिनकी थी | जल्दी बताओ देव!” वह बच्चों की तरह
उसके बाद - - - - वह तरकीब बताता चला गया | सुनकर झूम उठी विनीता। सारी लाज शर्म ताक पर रखकर दोनों हाथों से उसकी कनपटियां पकड़ीं और होठों का जोरदार चुम्बन लेने के बाद बोली - - - - “देखा... मैंने कहा था न मुझे अपने देव के दिमाग पर पूरा भरोसा है। देर-सवेर वह जरूर कोई मारवलस तरकीब उगल देगा | मगर... तुम गोल्डन नाइट मना रहे थे या तरकीब सोच रहे थे ?”
“गोल्डन नाइट ने ही तो सुझाई तरकीब ! न हम बहकते! न ये बात दिमाग में आती है।” कहने के साथ उसने विनीता को जकड़ लिया था । और फिर वह जकड़न एक बार पुनः तूफान तक पहुंच गई। एक बार फिर तूफान अपने यौवन पर पहुंचकर शांत हुआ।
से उसी तूफान में फंसा हुआ था वह कि एक जिप्सी ने तेजी से ओवरटेक किया । पलक झपकते ही वह उसका रास्ता रोकती हुई सड़क पर तिरछी खड़ी हो गयी ।
हड़बड़ाकर ब्रैक पर लगभग खड़ा हो गया देवांश ।
तब कहीं जाकर जेन जिप्सी से केवल छः इंच इधर रुकी।
वह जरा भी लेट हो जाता तो गाड़ी का बोनट जिप्सी के बायें हिस्से से जा टकराता । मारे गुस्से के उसका बुरा हाल हो गया। जाने क्या-क्या भुनभुनाता गाड़ी से बाहर निकलने के बारे में सोच ही रहा था कि नजर जिप्सी से कूदे टकरियाल पर पड़ी ।
कांपकर रह गया वह ।
फुर्ती से 'डेशबोर्ड' पर रखी विषकन्या उठाकर डिक्की में डाली ।
बड़ी तेजी से सवाल कौंधा देवांश के दिमाग में ---- 'ठकरियाल द्वारा उसे बीच सड़क पर, इस अटपटे ढंग से रोकने की क्या वजह हो सकती है?' अभी अपने सवाल का जवाब नहीं सूझा था उसे कि ठकरियाल गाड़ी के नजदीक पहुंचा।
रूल के अगले सिरे से खिड़की का बंद कांच ठकठकाया ।
देवांश ने तेजी से कांच नीचे उतारा । नाराजगी भरे स्वर में बोला-- “ये क्या हिमाकत है इंस्पैक्टर ? किसी को रोकने का ये कौन सा तरीका है?”
“तुम तेज ही इतने जा रहे थे देवांश बाबू, रोकना जरूरी हो गया था। सड़क पर नहीं, हवा में उड़ रहे थे तुम! उसके
अन्नाचा कोई तरीका नहीं था जो मैंने अपनाया।"
देवांश को लगा यह सुनहरे क्षण' में खोया हुआ था। होश ही नहीं था ड्राइविंग कर रहा है। मुमकिन है जरूरत से ज्यादा तेज चला रहा हो। यह सब सोच कर थोड़ा नर्म पड़ा। बोला- "ब्रेक मारने में जरा भी लेट हो जाता तो टक्कर हो जाती।"
"हमें वह सोचकर हलकान नहीं होना चाहिए जो नहीं हुआ।”
देवांश को जवाब नहीं सूझा, इसलिए चुप रह गया।
इस बीच ठकरियाल ने जिप्सी के ड्राइवर को कुछ इशारा किया। ड्राइवर ने जिप्सी बैंक की और वापस उसी तरफ ले गया जिधर से आई थी। यह सब देखकर देवांश ने पृछा ----“रोकने का कारण ?”
“मुझे थाने जाना है और जिसी को किसी जरूरी काम से 'उधर' जाना था।" ठकरियाल ने अपने रूल से पीछे की तरफ इशारा किया- “थाना तुम्हारे रास्ते में पड़ेगा। सोचा साथ निकल जाऊं ।”
देवांश ने साफ महसूस किया, वह झूठ बोल रहा है। वजह कुछ और है। उसे खामोश देखकर ठकरियाल ने पूछा----“क्या मैं बैठ सकता हूं।”
“बैठो !” देवांश को कहना पड़ा ।
ठकरियाल अजीब ढंग से मुस्कराया । वहां से हटा और बोनट के सामने से गुजरता हुआ गाड़ी के अगले बायें दरवाजे के नजदीक पहुंचा | देवांश को हर पल एक शंका सता रही थी कि कहीं वह गाड़ी में बैठने के बाद डिक्की न खोल ले । शायद इसीलिए उसका जी चाह रहा था कि उसे न बैठाये । अचानक गाड़ी दौड़ा दे। परन्तु ऐसा कर नहीं सका।
हाथ बढ़ाकर अंदर से लॉक खोला ।
ठकरियाल 'धम्म' से बगल वाली सीट पर आ बैठा । दरवाजा बंद करता बोला“चलो!” —
पसीने-पसीने हुए देवांश ने गाड़ी आगे बढ़ा दी ।
ठकरियाल ने ऐसी सांस ली जैसे दिन भर की थकान के बाद अपने ड्राइंगरूम के सोफे पर 'पसरा' हो ! रूल डेशबोर्ड पर रखा, कैप उतारकर हाथ में ले ली । बगैर कैप के देवांश ने उसे पहली बार देखा था। उसके फुटबॉल की तरह गोल मटोल सिर पर कांटों की तरह खड़े छोटे-छोटे बाल थे । उस वक्त देवांश को घोर आश्चर्य हुआ और राहत भी मिली जब उसने सिर सीट की पुश्त से टिकाकर आंखें बंद कर लीं ।
देवांश की सभी आशाओं के विपरीत न तो ठकरियाल कोई बात करने के मूड में नजर आ रहा था, न ही उस डिक्की को खोलने के जिसमें 'विषकन्या' रखी थी ।
देवांश गाड़ी चलाता रहा।
और वह पट्ठा दीन-दुनिया से बेखबर बाकायदा खर्राटे मारता रहा।
देवांश के दिलो-दिमाग पर छाया तनाव कम हुआ। यह सोचकर मुस्करा उठा कि उसकी स्थिति 'चोर' जैसी हो गयी है। बिना वजह साधारण बातों से डरने लगा है। ठकरियाल ने सचमुच उसे लिफ्ट लेने के लिए रोका था और वह जाने क्या-क्या ऊल-जुलूल सोच गया मगर, थाने पहुंचते ही उसका भ्रम टूट गया। थाना परिसर में गाड़ी रोकते हुए उसने कहा था ---- “थाना आ गया इंस्पैक्टर साहब ! "
वह सचमुच नींद से जागा । कैप पहनी और रूल उठाता बोला----“आओ! एक - एक चाय पीते हैं।"
“नहीं! रात काफी हो चुकी है। वैसे भी, तुम जानते हो इस वक्त मैं चाय नहीं पी सकूंगा ।”
“आओ !” कहने के के साथ उसने इग्नीशन से चाबी निकाल ली थी----“चाय न सही ! वही पिला दूंगा जो तुम पीते हो ।
ड्यूटी के बाद मैं भी ले लेता हूं।”
“इंस्पैक्टर ! मैंने कहा ही था -शौकीन नहीं हूं उसका ।”
“ फिर भी आना तो तुम्हें पड़ेगा ही।" ठकरियाल का स्वर अचानक शुष्क हो उठा था ---- हो उठा था ---- “जरूरी बातें करनी हैं ।”
धड़ाम्... धड़ाम्... धड़ाम्!
देवांश के मस्तिष्क में विस्फोट से होने लगे । अंततः वही सच निकला जिसकी उसे शंका थी | क्या बातें करनी चाहता है वह? क्या वह, वह भी जानता है जो सुइट में उसके आने के बाद हुआ? वह विचारों में गुम था, ठकरियाल ने हौले से झंझोड़ा- “अब तुम सो गये लगते हो देवांश बाबू ।”
“आं!” वह चौंका! संभलकर बोला ---- "इस वक्त मुझे जाने दो ! सुबह विला पर आकर बात कर लेना ।”
ठकरियाल इस तरह बोला जैसे बड़बड़ा रहा हो- “वे बातें विला पर नहीं हो सकतीं देवांश बाबू ।”
“क्यों?”
- “खुद ही तो कहा था कि तुमने । सुरा सुन्दरी के बारे में तुम्हारे भैया-भाभी को पता नहीं लगना चाहिए।”
देवांश देखता रह गया उसे ।
लगा----वह उसे ब्लैकमेल कर रहा है ।
ठकरियाल अपनी तरफ से गाड़ी का दरवाजा खोलकर बाहर निकल गया। चाबी उसी पर थी । कुछ देर देवांश अपनी सीट पर ठगा सा बैठा रहा, लेकिन अंततः बाहर निकलकर उसके पीछे बढ़ना पड़ा ।
ऑफिस में, अपनी कुर्सी पर बैठने के साथ उसने “बैठो।" कहा
देवांश विजिटर चेयर्स में से एक पर बैठता बोला ---- “जल्दी करो क्या बातें करनी हैं। मुझे घर पहुंचना है। पहले ही काफी लेट हो चुका हूं।"
“तुम तो 'तर' होकर आये हो । मुझे क्या एक गिलास पानी भी नहीं पीने दोगे?” कहने के साथ उसने घंटी बजाई । तुरन्त एक सिपाही हाजिर हुआ । ठकरियाल ने उससे पानी लाने के लिए कहा। कुछ देर बाद वह दो गिलास पानी के साथ नमूदार हुआ । ठकरियाल ने ट्रे से एक गिलास उठा लिया । दूसरा सिपाही ने देवांश की तरफ बढ़ाया । देवांश ने इंकार किया तो सिपाही उसे वापस ले जाने लगा | तब ठकरियाल ने कहा- -“रख दे रामोतार ! साहब के सामने टेबल पर रख दे। कुछ देर बाद इन्हें जरूरत पड़ेगी । ”
ठकरियाल के शब्द देवांश के समूचे जिस्म में झुरझुरी-सी दौड़ा गये ।
उधर, ठकरियाल ने गिलास रखकर बाहर जा रहे रामोतार से कहा ---- “ और सुन, जब तक मैं साहब से बात कर रहा हूं, तब तक न खुद इधर झांकेगा, न ही किसी और को झांकने देगा।”
“यस सर !” कहकर वह चला गया । मगर देवांश के दिलो-दिमाग में खलबली मच चुकी थी । ठकरियाल की बातों से जाहिर था वह कुछ बहुत ही सीरियस बातें करने वाला है । मगर क्या ? लाख सिर पटकने के बावजूद देवांश समझ न सका । पानी से भरा गिलास खाली करने के बाद ठकरियाल ने उसे मेज पर पटका और साइड में रखे फोन का रिसीवर उठाकर क्रेडिल से अलग रखता बोला- "ये भी साला बीच में डिस्टर्ब कर सकता है। वैसे भी, इस वक्त मैं ड्यूटी पर नहीं हूं। जो बातें करने वाला हूं वे ड्यूटी से बाहर की हैं।”
“तुमने तो मारे सस्पैंस के बुरा हाल कर रखा है मेरा । कहो न, जो कहना है ।”
" सबसे पहले यह बताओ, ताज में उस लड़की के सामने कही गईं बातों में कितनी सच्चाई थी ?”
“क्या मतलब ?”
“क्या तुम उससे वही प्यार करते हो जिसका दावा कर रहे थे ?... दिल की गहराई वाला ?”
“ऑफकोर्स!”
“शादी भी करना चाहते हो ?”
“यकीनन ।”
ठकरियाल ने सच्चाई पता लगाने के अंदाज में उसकी आंखों में झांका ---- "सच कह रहे हो ?”
“तुम्हें यकीन क्यों नहीं आ रहा?”
“अगर सच कह रहे हो तो मुझे अफसोस है ।... बहुत ही ज्यादा अफसोस!” ठकरियाल कहता चला गया ---- “यदि तुम उसे केवल मौज मस्ती के लिए इस्तेमाल कर रहे होते तो खुशी होती ।”
“ अजीब आदमी हो तुम ! एक सच्चा प्यार करने वाले से कह रहे हो कि ...
“देवांश बाबू!” ठकरियाल का लहजा अत्यन्त गंभीर था ----“अपनी भलाई चाहते हो तो उस लड़की से दूर रहो।”
“मगर क्यों इंस्पैक्टर ? विनीता आखिर ...
“ उसका नाम विनीता नहीं, विचित्रा है! विचित्रा!”
“ओह !” देवांश के मुंह से निकला- “तो तुम उसका असली नाम जानते हो ?”
ठकरियाल ने उसे गौर से देखते हुए कहा ---- "इसका मतलब तुम्हें भी पता है । "
हौले से मुस्कराया देवांश ! बोला- ---- “शायद तुमने यह सोचा था उसने मुझे अपना नकली नाम बता रखा है । ”
“तो विनीता क्यों कह रहे थे ?”
“यह नाम मैंने खुद रखा है। .... अपनी मर्जी से।”
“तब तो उसका 'निवास स्थान' भी पता होगा ?”
“पता है!” देवांश की मुस्कान और गहरी हो गयी।
ठकरियाल ने उसकी आंखों में झांकते हुए कहा----- “फिर भी ?”
“हां ।” देवांश के लहजे में अजीब सी दृढ़ता थी ---- “फिर भी!”
ठकरियाल चकित लहजे में कह उठा ---- “तब तो कमाल है।"
“तवायफ की बेटी होना क्या पाप है इंस्पैक्टर ?”
“ मैंने सोचा था ---- - तुम अंजान होगे। समझाना अपना फर्ज समझा मगर, जो जानबूझकर अंधे कुंवे में छलांग लगा रहा हो उसे कोई नहीं रोक सकता।”
“यही तो कमी है समाज में । यही !” देवांश अपने एक-एक शब्द पर जोर देता कहता चला गया ---- "अगर कोई शख्स दलदल में फंसी लड़की को निकालने की कोशिश करता है तो कहा जाता है वह अंधे कुवें में छलांग लगा रहा है । "
“याद रखना !” ठकरियाल ने चेतावनी सी दी- - "यह लड़की तुम्हें बखेड़े में फंसा देगी ।"
“ चाहे जितने बखेड़े हों मगर मैं उसे छोड़ने वाला नहीं हूं इंस्पैक्टर |" देवांश दृढ़तापूर्वक कहता चला गया ---- "मैं
जानता हूं, जैसे ही लोगों को पता लगेगा वह रेड लाइट एरिया में रहती है, तो मुझे कुछ वैसी ही नजरों से देखा जायेगा जैसी नजरों से इस वक्त तुम देख रहे हो । बहुत कुछ सुनना भी पड़ सकता है मगर मैं सुनने को तैयार हूं। हां, जो चोट भैया-भाभी के दिमाग पर पड़ने वाली है ---- उससे जरूर डरा हुआ हूं। समझाने की कोशिश करूंगा उन्हें! भगवान से दुआ ही कर सकता हूं बात उनकी समझ में आ जाये और वे खुशी-खुशी शादी कर दें ।”
“ अगर बात उनकी समझ में नहीं आई ?”
“तब भी, शादी तो ये होगी ही! हां, दुःख बहुत होगा मुझे !"
“उस अवस्था में राजदान साहब की दौलत से तुम्हारे सारे रिश्ते टूट जायेंगे ।”
धिक्कारने वाले अंदाज में हंसा देवांश ! बोला- -“प्यार करने वालों ने इन बातों की परवाह की है कभी?”
“क्या विचित्रा भी इस अवस्था में शादी करने को तैयार है?"
“क्यों नहीं?” पूरी दृढ़ता के साथ झूठ बोला उसने- "हम दोनों को अच्छी तरह मालूम है यह स्थिति आ सकती है। बल्कि आयेगी ही। .... वह मुझसे प्यार करती है, मेरे भैया
की दौलत से नहीं।” कहने को तो देवांश कहता चला गया मगर अंदर ही अंदर ग्लानि सी महसूस की थी उसने ।
“अगर ऐसा है।” ठकरियाल बोला ---- “तो आश्चर्य है ।”
“तुम जैसे लोगों को, जो समाज के घिसे-पिटे ढर्रे से हटकर कुछ सोच ही नहीं सकते, यह बात आश्चर्यजनक ही लगेगी।”
“वही बात निकली जिसका मुझे डर था । ”
“कौन-सी बात ?”
“उसने तुम पर पूरा रंग चढ़ा रखा है।" ठकरियाल कहता चला गया- -“ और ये रंग जरूर कोई गुल खिलायेगा । मुमकिन है खिला भी रहा हो ।”
“लगता है मैं तुम्हें भरपूर कोशिश के बावजूद अपनी बात नहीं समझा सकूंगा । इसलिए चलता हूं।" कहने के साथ अपनी चाबी उठाकर देवांश खड़ा हो गया - --“लेकिन जाता-जाता एक आखिरी बात जरूर कहना चाहूंगा । यह कि... एक बार को तवायफ हमारी नफरत का पात्र हो सकती है मगर उसकी बेगुनाह बेटी नहीं।”
“बशर्ते वह बेगुनाह हो!”
“मतलब?” देवांश पलट पड़ा ।
“ अपनी मां की तरह वह भी एक तवायफ है।"
“क्या बक रहे हो इंस्पैक्टर ! क्या बक रहे हो तुम ?” विचित्रा पर लगाये गये ठकरियाल के सीधे-सीधे आरोप ने देवांश को बुरी तरह बौखला दिया था ।
“ये चीख - चिल्लाहट, तुम्हारा ये भभकता हुआ चेहरा साबित कर रहे हैं, तुम वाकई उसके जाल में बुरी तरह फंस चुके हो ।"
“कोई सुबूत भी है तुम्हारे पास या यूं ही बके चले जा रहे हो ?”
“लो! पानी पियो !” ठकरियाल ने गिलास उठाकर उसकी तरफ बढ़ाया - - - - “तुम्हें इसकी जरूरत है।”
“मुझे इसकी नहीं, सुबूत की जरूरत है।" देवांश अब भी उत्तेजित था ।
गिलास मेज पर रखते हुए ठकरियाल ने कहा---- “वक्त आने पर सुबूत भी जुटा लिया जायेगा ।”
“ यानी फिलहाल कोई सुबूत नहीं है !” देवांश के होठों पर विजयी-व्यंग्य’ वाली मुस्कान दौड़ गई ।
0 Comments