प्रोफेसर की शरारत
मरीज़ के कमरे का दृश्य कुछ हद तक ऑपरेशन रूम में बदल चुका था। नर्स और डॉक्टर सफ़ेद कपड़ों में धीरे-धीरे, इधर-उधर आ-जा रहे थे। ऑपरेशन टेबल, जो सिविल हस्पताल से यहाँ लायी गयी थी, कमरे के बीच में पड़ी थी। मरीज़ को उस पर लिटाया जा चुका था। कमरे में बहुत ज़्यादा वॉट वाले बल्ब जला दिये गये थे। चिलमचियों में गर्म और ठण्डा पानी रखा हुआ था। उसी के क़रीब एक दूसरी मेज़ पर अजीबो-ग़रीब क़िस्म के ऑपरेशन के औज़ार और रबड़ के दस्ताने पड़े हुए थे।
डॉक्टर शौकत कुछ देर पहले हुए हादसे को बिलकुल भुला चुका था। अब उसका ध्यान सिर्फ़ ऑपरेशन की तरफ़ था। एक आदमी की ज़िन्दगी ख़तरे में थी। उसने सारी कोशिशें कर देखने का फ़ैसला कर लिया था। नौजवान डॉक्टर यह भी अच्छी तरह समझता था कि अगर उसे इस केस में कामयाबी मिल गयी तो उसकी शख़्सियत कहीं-की-कहीं जा पहुँचेगी। कामयाबी उसे तरक़्क़ी के ज़ीनों पर ले जायेगी...और नाकामी! लेकिन...नहीं... उसके ज़ेहन में नाकामी के ख़याल का नामोनिशान भी न था। वह एक क़ाबिल डॉक्टर की तरह इत्मीनान में नज़र आ रहा था। डॉक्टर तौसीफ़ भी कमरे में मौजूद था, लेकिन उसकी हैसियत एक तमाशाई जैसी थी। वह देख रहा था और हैरान था कि यह नौजवान लड़का किस तरह सुकून और इत्मीनान के साथ अपनी तैयारियों में जुटा है। ऐसे अवसर पर इतना इत्मीनान तो उसने अच्छे-अच्छे क़ाबिल डॉक्टरों के चेहरों पर भी नहीं देखा था। वह दिल-ही-दिल में उसकी तारीफें कर रहा था।
बाहर बरामदे में नवाब साहब की बहन और नजमा बैठी थीं। दोनों परेशान नज़र आ रही थीं। कुँवर सलीम टहल-टहल कर सिग्रेट पी रहा था।
‘‘मम्मी, क्या वह कामयाब हो जायेगा?’’ नजमा ने बेताबी से कहा। ‘‘मुझे यक़ीन है कि वह ज़रूर कामयाब हो जायेगा। लेकिन कितनी देर लगेगी...?’’
‘‘परेशान मत हो बेटी।’’ बेगम साहिबा बोलीं। ‘‘मेरा ख़याल है कि कई घण्टे लगेंगे। हो सकता है, सुबह हो जाये। इसलिए हम लोगों का यहाँ इस तरह बैठना ठीक नहीं। क्यों न हम ड्रॉइंग-रूम में चल कर बैठें। कॉफ़ी अब तक तैयार हो गयी होगी। सलीम, क्या आज तुम कॉफ़ी न पियोगे।’’
‘‘कॉफ़ी का किसे होश है फूफी साहिबा!’’ सलीम ने सिग्रेट को बरामदे में बिछे हुए कालीन पर गिरा कर पैर से रगड़ते हुए कहा। ‘‘नजमा से ज़्यादा मैं परेशान हूँ। मुझे हैरत है कि आप ऐसे वक़्त में भी कॉफ़ी नहीं भूलीं।
‘‘तुम सारे कालीनों का सत्यानास कर दोगे।’’ बेगम साहिबा ने नाक-भौं सिकोड़ कर कहा। ‘‘क्या सिग्रेट को दूसरी तरफ़ नहीं फेंक सकते!’’
‘‘जहन्नुम में गया कालीन...!’’ वह तेज़ लहजे में बोला। ‘‘मेरा दिमाग़ इस वक़्त ठीक नहीं है।’’
‘‘औरत न बनो।’’ बेगम साहिबा ने ताना मारते हुए कहा। ‘‘अभी कितनी देर की बात है कि तुम मेरे मना करने के बावजूद ऑपरेशन की हिमायत कर रहे थे। अपनी हालत को सँभालो। तुम्हें तो हम लोगों को दिलासा देना चाहिए।’’
‘‘मैं कोशिश करता हूँ कि ख़ुद को सँभाल लूँ, लेकिन यह मुमकिन नहीं। मुझे कर्नल तिवारी की बात याद आ रही है जिसने कहा था कि बचने की उम्मीद नहीं। आखिर यह बेवकूफ़ लड़का किस उम्मीद पर ऑपरेशन कर रहा है? मेरा मतलब यह है कि वह ख़तरे को जल्द-से-जल्द क़रीब लाने की कोशिश कर रहा है।’’
‘‘नहीं, कुँवर साहब...!’’ डॉक्टर तौसीफ़ ने बीमार के कमरे से निकलते हुए कहा, ‘‘मुझे यक़ीन होता जा रहा है कि वह जल्द-से-जल्द नवाब साहब को ठीक कर देगा।’’
‘‘मैं आपका मतलब नहीं समझा।’’ सलीम उसकी तरफ़ घूम कर बोला, ‘‘क्या ऑपरेशन शुरू हो गया?’’
‘‘नहीं...अभी वे लोग तैयारी कर रहे हैं और मेरा वहाँ कोई काम भी नहीं। मैं इसलिए यहाँ चला आया।’’ डॉक्टर तौसीफ़ ने मुस्कुराते हुए कहा।
‘‘आप बहुत अच्छे हैं डॉक्टर...मम्मी तो काफ़ी सब्र वाली हैं, लेकिन शायद मुझे और सलीम को जल्द-से-जल्द डॉक्टरी मदद की ज़रूरत पेश आयेगी। मुझे यह सुन कर ख़ुशी हुई कि आप इस नौजवान डॉक्टर की कामयाबी पर इतना यक़ीन रखते हैं। वह कितना संजीदा और मुतमईन है।’’ नजमा बोली।
‘‘और साथ-ही-साथ काफ़ी ख़ूबसूरत भी।’’ सलीम ने मुँह बनाते हुए कहा।
‘‘तुम क्या बक रहे हो सलीम।’’ बेगम साहिबा तेज़ी से बोलीं और नजमा ने शर्मा कर सिर झुका लिया।
‘‘माफ़ कीजिएगा फूफी साहिबा, मैं बहुत परेशान हूँ।’’ सलीम यह कह कर टहलता हुआ बरामदे के दूसरे किनारे तक चला गया।
‘‘कुँवर साहब, मेरे ख़याल से बिजली का इन्तज़ाम बिलकुल ठीक होगा। शायद डायनैमो की देख-भाल आप ही करते हैं।’’ डॉक्टर तौसीफ़ ने कहा।
‘‘जी हाँ...क्यों...डायनैमो बिलकुल ठीक चल रहा है, लेकिन यह पूछने का मतलब...!’’ सलीम ने डॉक्टर को घूरते हुए पूछा।
‘‘मतलब साफ़ है।’’ डॉक्टर तौसीफ़ ने कहा। ‘‘अगर डायनैमो फ़ेल हो गया तो अँधेरे में ऑपरेशन किस तरह होगा? एक बड़े ऑपरेशन के लिए काफ़ी एहतियात की ज़रूरत होती है।’’
‘‘वैसे तो डायनैमो फ़ेल होने का कोई चांस नहीं, लेकिन अगर फ़ेल ही हो गया तो मैं क्या कर सकूँगा। उफ़! यह एक ख़तरनाक ख़याल है। अगर वाक़ई ऐसा हुआ तो डॉक्टर शौकत बड़ी मुसीबत में पड़ जायेगा। ओह, नहीं-नहीं...मेरे ख़ुदा, ऐसा हरगिज़ नहीं हो सकता....!’’ कुँवर सलीम के चेहरे पर बेचैनी के भाव पैदा हो गये।
इतने में एक नौकर दाख़िल हुआ।
‘‘क्यों क्या है...!’’ सलीम ने उससे पूछा।
‘‘प्रोफ़ेसर साहब नीचे खड़े हैं। आपको बुला रहे हैं।’’ नौकर ने कहा।
‘‘प्रोफ़ेसर...मुझे...इस वक़्त।’’ सलीम ने हैरत से कहा।
‘‘जाओ भई...नीचे जाओ...!’’ बेगम साहिबा जल्दी से बोलीं। ‘‘कहीं वह पागल यहाँ न चला आये।’’
‘‘मुझे हैरत है कि वह इस वक़्त यहाँ किसलिए आया है।’’ सलीम ने नौकर से कहा। ‘‘क्या तुमने उसे ऑपरेशन के बारे में नहीं बताया...?’’
‘‘हुज़ूर, मैंने उन्हें हर तरह समझाया...लेकिन वे सुनते ही नहीं।’’
‘‘ख़ैर चलो, देखूँ, क्या बकता है।’’ सलीम ने कहा। ‘‘इस पागल से तो मैं तंग आ गया हूँ।’’
सलीम नीचे आया...प्रोफ़ेसर बाहर खड़ा था। उसने सर्दी से बचने के लिए सिर पर मफ़लर लपेट रखा था और चेस्टर का कॉलर उसके कानों के ऊपर तक चढ़ा था। इन सब बातों के बावजूद वह सर्दी की वजह से सिकुड़ा जा रहा था।
‘‘क्यों प्रोफ़ेसर, क्या बात है?’’ सलीम ने उसके क़रीब पहुँच कर पूछा।
‘‘एक चमकदार सितारा दक्षिण की तरफ़ निकला है।’’ प्रोफ़ेसर ने ख़ुशमिज़ाज लहजे में कहा। ‘‘अगर तुम अपनी मालूमात में बढ़ोत्तरी करना चाहते हो तो मेरे साथ चलो।’’
‘‘जहन्नुम में गयी मालूमात...!’’ सलीम ने झुँझला कर कहा। ‘‘क्या इतनी-सी बात के लिए तुम दौड़े आये हो?’’
‘‘बात तो कुछ दूसरी है। मैं तुम्हें बहुत ही हैरतनाक चीज़ दिखाना चाहता हूँ। ऐसी चीज़ तुमने कभी न देखी होगी।’’ उसने सलीम का हाथ पकड़ कर उसे पुरानी कोठी की तरफ़ ले जाते हुए कहा।
सलीम प्रोफ़ेसर के साथ चलने लगा, लेकिन उसने लोहे की उस मोटी-सी सलाख़ को न देखा जो प्रोफ़ेसर अपनी आस्तीन में छिपाये हुए था।
खट...! थोड़ी दूर चलने के बाद प्रोफ़ेसर ने वह सलाख़ सलीम के सिर पर दे मारी। सलीम बग़ैर आवाज़ निकाले चकरा कर धम से ज़मीन पर आ रहा। प्रोफ़ेसर हैरतंगेज़ फुर्ती के साथ झुका और उसने बेहोश सलीम को उठा कर अपने कन्धे पर डाल लिया, बिलकुल उसी तरह जैसे कोई हल्के-फुल्के बच्चे को उठा लेता है। वह तेज़ी से पुरानी कोठी की तरफ़ जा रहा था। यह सब इतनी जल्दी और ख़ामोशी से हुआ कि वह नौकर, जो हॉल में सलीम का इन्तज़ार कर रहा था, यही सोचता रह गया कि अब सलीम प्रोफ़ेसर को उसकी कोठी में धकेल कर वापस आ रहा होगा।
पुरानी कोठी में पहुँच कर प्रोफ़ेसर ने बेहोश सलीम को एक कुर्सी पर डाल दिया और झुक कर सिर के उस हिस्से को देखने लगा जो चोट लगने की वजह से फूल गया था। उसने बहुत ही इत्मीनान से इस तरह सिर हिलाया जैसे उसे यक़ीन हो गया हो कि वह अभी काफ़ी देर तक बेहोश रहेगा। फिर इस पागल बूढ़े ने सलीम को पीठ पर लाद कर मीनार पर चढ़ना शुरू किया। ऊपर के कमरे में अँधेरा था। उसने टटोल कर सलीम को एक बड़े सोफ़े पर डाला और मोमबत्ती जला कर ताक़ पर रख दी।
हल्की रोशनी में चेस्टर के कॉलर के साये की वजह से उसका चेहरा और ज़्यादा ख़ौफ़नाक मालूम होने लगा था। उसने सलीम को सोफ़े से बाँध दिया फिर वह दूरबीन के क़रीब वाली कुर्सी पर बैठ गया और दूरबीन के ज़रिये नवाब साहब के कमरे का जायज़ा लेने लगा। नवाब साहब के कमरे की खिड़कियाँ खुली हुई थीं। डॉक्टर और नर्सों ने अपने चेहरों पर सफ़ेद नक़ाब लगा रखे थे।
डॉक्टर शौकत खौलते हुए पानी से रबड़ के दस्ताने निकाल कर पहन रहा था। वे सब ऑपरेशन की मेज़ के पास खड़े थे। ऑपरेशन शुरू होने वाला था।
‘‘बहुत ख़ूब....!’’ प्रोफ़ेसर बड़बड़ाया। ‘‘मैं ठीक वक़्त पर पहुँच गया, लेकिन आखिर इस सर्दी के बावजूद उन्होंने खिड़कियाँ क्यों नहीं बन्द कीं?’’
नवाब साहब की कोठी के चारों तरफ़ अजीब तरह की ख़ामोशी छायी हुई थी। छोटे से ले कर बड़े तक को अच्छी तरह मालूम था कि बीमार के कमरे में क्या हो रहा है। बेगम साहिबा का सख़्त हुक्म था कि किसी क़िस्म का शोर न होने पाये। लोग इतनी ख़ामोशी से चल रहे थे जैसे ख़्वाब में चल रहे हों।
कोठी में नौकरानियाँ पंजों के बल चल रही थीं। घर के सारे कुत्ते बाग़ के आखिरी किनारे पर एक ख़ाली झोंपड़े में बन्द कर दिये गये थे, ताकि कोठी के क़रीब शोर न मचा सकें।
प्रोफ़ेसर दूरबीन पर झुका हुआ, चारों तरफ़ से बेख़बर, बीमार के कमरे का मंज़र देख रहा था। वह इतना ध्यानमग्न था कि उसने सलीम के जिस्म की हरकत को भी महसूस नहीं किया। सलीम धीरे-धीरे होश में आ रहा था। एक अजीब क़िस्म की सनसनाहट उसके जिस्म में फैली हुई थी। उसने अपने बाज़ुओं पर रस्सी के तनाव को भी नहीं महसूस किया। दो-तीन बार सिर झटकने के बाद उसने आँखें खोल दीं। उसे चारों तरफ़ अँधेरा-ही-अँधेरा फैला नज़र आ रहा था। फिर दूर एक टिमटिमाता हुआ तारा दिखायी दिया। तारे के चारों तरफ़ हल्कीहल्की रोशनी थी। धीरे-धीरे रोशनी फैलती गयी। मोमबत्ती की लौ थर्रा रही थी। प्रोफ़ेसर दूरबीन पर झुका हुआ था। उसने उठने की कोशिश की। मगर यह क्या...वह बँधा क्यों है? फिर उसे कुछ देर पहले का क़िस्सा उसे याद आ गया।
‘‘प्रोफ़ेसर, आखिर यह क्या हरकत है?’’ उसने भर्रायी हुई आवाज़ में क़हक़हा लगा कर कहा। ‘‘आखिर इस मज़ाक़ की क्या ज़रूरत थी?’’
‘‘अच्छा, तुम जाग गये?’’ प्रोफ़ेसर ने सिर उठा कर कहा। ‘‘घबराने की कोई बात नहीं। तुम इस वक़्त उतने ही बेबस हो जितने कि मेरे दूसरे शिकार...तुम्हें यह सुन कर ख़ुशी होगी कि मैं अब गिलहरियों, ख़रगोशों और मेंढकों के साथ-साथ आदमियों का भी शिकार करने लगा हूँ। क्यों, है न दिलचस्प ख़बर...!’’
पहले तो सलीम समझ न सका। लेकिन दूसरे पल में उसे महसूस हुआ जैसे उसके जिस्म का सारा ख़ून जम गया हो। वह काँप गया...वह अच्छी तरह जानता था कि बूढ़े ने अपने दूसरे शिकारों का हवाला क्यों दिया है...तो...क्या...तो... क्या...अब वह अपनी ख़ूनी प्यास बुझाने के लिए जानवरों के बजाय आदमियों का शिकार करने लगा है?
अरे.....!
सलीम ने घबराहट के बावजूद लापरवाही का अन्दाज़ पैदा करके क़हक़हा लगाने की कोशिश की।
‘‘बहुत अच्छे, प्रोफ़ेसर...लेकिन मज़ाक़ का वक़्त और मौक़ा होता है। चलो...शाबाश, ये रस्सियाँ खोल दो। मैं वादा करता हूँ....!’’
‘‘सब्र...सब्र...मेरे अच्छे लड़के।’’ उसने उसकी तरफ़ झुक कर मुस्कुराते हुए कहा। ‘‘अब मेरी बारी आयी है, हा-हा-हा।’’
‘‘तुम्हारी बारी...क्या मतलब.....!’’ सलीम ने चौंक कर कहा।
‘‘क्या तुम नहीं जानते।’’ प्रोफ़ेसर ने बुरा-सा मुँह बना कर कहा।
‘‘कहो-कहो, मैं कुछ समझ नहीं सका।’’ सलीम ने बेपरवाही से कहा।
‘‘मेरा इरादा यह था कि नौजवान डॉक्टर अपने मक़सद में कामयाब हो जाये।’’ प्रोफ़ेसर ने कहा। ‘‘और यह मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम दोबारा आज़ाद कर दिये गये तो ऐसा न हो सकेगा। इसी का मुझे ख़ौफ़ है...बहरहाल, मैं यह चाहता हूँ कि वह इत्मीनान के साथ नवाब साहब की जान बचा सके। इसीलिए मैं तुम्हें यहाँ लाया हूँ। मेरे भोले सलीम, क्या समझे? मैं...कम चालाक नहीं...!’’
‘‘बहुत चालाक हो, क्या कहने...!’’ सलीम ने हँस कर कहा।
‘‘तुम यहाँ बिलकुल बेबस हो। यहाँ मैं तुम्हारी पिटाई भी करूँगा और बीमार के कमरे का मंज़र भी देख सकूँगा।’’ प्रोफ़ेसर ने दूरबीन के शीशे में आँख लगाते हुए कहा। ‘‘न तो मैं बेवकूफ़ हूँ और न मेरी दूरबीन...महज़ मज़ाक़ है...क्या समझे।’’
अचानक सलीम में एक हैरतंगेज़ बदलाव पैदा हो गया। उसकी भौंहें तन गयीं। कुछ देर पहले जो होंट मुस्कुरा रहे थे, भिंच कर रह गये। आँखों की शरारत-भरी शोख़ी एक बहुत ही ख़ौफ़नाक क़िस्म की चमक में बदल गयी। वह अब तक एक हँसमुख नौजवान था। ऐसा मालूम हुआ जैसे उसके चेहरे पर से एक गहरी नक़ाब हट गयी हो। वह एक ख़ूँख़ार भेड़िये की तरह हाँफ रहा था।
‘‘इन रस्सियों को खोल दो, सुअर के बच्चे।’’ वह चीख़ कर बोला। ‘‘वरना मैं तुम्हारा सिर फोड़ दूँगा।’’
‘‘धीरज रखो...धीरज...मेरे प्यारे बच्चे।’’ प्रोफ़ेसर ने मुड़ कर कहा। ‘‘कल तक मैं ज़रूर तुमसे ख़फ़ा था। मुझे इसका अफ़सोस है, लेकिन तुम इस वक़्त मेरी गिरफ़्त में हो... क़ातिल... साज़िशी...तुम बहुत ख़तरनाक होते जा रहे हो। ऐसी सूरत में तुम्हारी निगरानी की ज़रूरत है।’’
‘‘तुम दीवाने हो....बिलकुल दीवाने।’’ सलीम ने तेज़ी से कहा।
‘‘शायद ऐसा ही हो...!’’ प्रोफ़ेसर ने लापरवाही से कहा। ‘‘लेकिन मैं इतना दीवाना भी नहीं कि तुम्हारी साज़िशों को न समझ सकूँ। तुम अब तक मुझे एक बेजान औज़ार की तरह इस्तेमाल करते आये हो, लेकिन आज की रात मेरी है...क्या समझे।’’
सलीम के जिस्म से पसीना फूट पड़ा। ग़ुस्से की जगह ख़ौफ़ ने ले ली। वह अब तक प्रोफ़ेसर को पागल समझता था और जिधर उसे ले जाना चाहता था, वह बग़ैर समझे-बूझे चला जाता था, लेकिन फिर भी वह हमेशा होशियार रहा। उसने आज तक अपने असली प्लान की भनक भी प्रोफ़ेसर के कान में न पड़ने दी थी। फिर उसे उसके प्लान का पता कैसे चला? वह ख़ौफ़ज़दा ज़रूर था, लेकिन नाउम्मीद नहीं। क्योंकि उसकी ज़िन्दगी के दूसरे पहलू की जानकारी प्रोफ़ेसर के अलावा किसी और को नहीं थी और प्रोफ़ेसर तो पागल था।’’
‘‘तुम क़त्ल की बात करते हो।’’ सलीम ने सुकून के साथ कहा। ‘ख़ुदा की क़सम अगर तुमने यह रस्सी फ़ौरन ही न ख़ोल दी तो मैं अपनी उस धमकी को पूरा कर दिखाऊँगा, जो अकसर तुम्हें देता रहा हूँ। मैं पुलिस को ख़बर दे दूँगा कि तुम क़ातिल हो। अपने असिस्टेंट के क़ातिल....!’’
‘‘मैं....!’’ प्रोफ़ेसर ने शरारती लहजे में कहा। ‘‘यह मैं आज एक नयी और दिलचस्प ख़बर सुन रहा हूँ। मैंने यह क़त्ल कब किया था।’’
‘‘कब किया था...!’’ सलीम ने कहा। ‘‘इतनी जल्दी भूल गये। क्या तुमने अपने असिस्टेंट नईम को अपने बनाये हुए ग़ुब्बारे में बिठा कर नहीं उड़ाया था, जिसका आज तक पता नहीं चल सका।’’
प्रोफ़ेसर ख़ामोश हो गया। उसके चेहरे पर अजीब क़िस्म की मुस्कुराहट नाच रही थी। ‘‘और हाँ, इसी हादसे के बाद से मेरा दिमाग़ ख़राब हो गया और तुम्हें इस बात का पता चल गया था। लिहाज़ा तुमने मुझे ब्लैकमेल करना शुरू कर दिया और मुझसे नाजायज़ कामों में मदद लेते रहे। मुझसे रुपये ऐंठते रहे। लेकिन बरख़ुरदार, शायद तुम्हें इसका पता नहीं कि मैं हाल ही में एक सरकारी जासूस से मिल चुका हूँ। तुम डर क्यों रहे हो ? मैंने तुम्हारे बारे में उससे कुछ नहीं कहा। मैं तुम्हें यह बताना चाहता हूँ, नईम मेरे ग़ुब्बारे के टूटने से मरा नहीं, बल्कि वह इस वक़्त भी मद्रास के किसी घटिया-से शराबख़ाने में नशे से चूर औंधा पड़ा होगा और मुझे इसका भी पता है कि उसने ज़िन्दा होने के जो ख़त मुझे लिखे थे, वे तुमने रास्ते ही से ग़ायब कर दिये। बहुत दिन हुए, तुम्हें उसके ज़िन्दा होने का सुबूत मिल गया था, लेकिन तुम मुझे पागल समझ कर रुपये ऐंठने के लिए अँधेरे ही में रखना चाहते थे। कहो मियाँ सलीम, कैसी रही! क्या अब मैं तुम्हें वे बातें भी बताऊँ जो मैं तुम्हारे बारे में जानता हूँ।’’
कुँवर सलीम सहम कर रह गया था। उसे ऐसा मालूम हो रहा था जैसे प्रोफ़ेसर का पागलपन किसी नये मोड़ पर पहुँच गया है। जिसे वह अब तक केचुआ समझता रहा, वह आज फन उठाये उस पर झपटने की कोशिश कर रहा है।
‘‘ख़ैर, प्रोफ़ेसर, छोड़ो इन बेकार की बातों को।’’ सलीम ने कोशिश करके हँसते हुए कहा। ‘‘मेरी रस्सियाँ खोल दो...आदमी बनो। तुम मेरे अच्छे दोस्त हो। मैं वादा करता हूँ कि तुम्हें इससे भी बड़ी दूरबीन ख़रीद दूँगा। इतनी बड़ी कि सचमुच एक शीशे का गुम्बद मालूम होगी।’’
‘‘ठहरो सलीम, ठहरो...!’’ प्रोफ़ेसर ने दूरबीन के शीशे पर झुक कर कहा। ‘‘मैं ज़रा बीमार के कमरे में देख लूँ। हाँ, तो अभी ऑपरेशन शुरू नहीं हुआ। ऐसे ख़तरनाक ऑपरेशनों में काफ़ी तैयारी की ज़रूरत होती है। मुझे यक़ीन है कि नौजवान डॉक्टर नवाब साहब की जान बचाने में कामयाब हो जायेगा। लेकिन सलीम, यह तो बड़ी बुरी बात है। अगर नवाब साहब दस-बीस बरस और ज़िन्दा रहे तो क्या होगा। तुम्हारी विरासत तुम तक जल्द न पहुँच सकेगी।’’
‘‘इससे क्या होता है।’’ सलीम ने कहा। ‘‘मैं हर हाल में उनका वारिस हूँ और फिर मुझे इसकी ज़रूरत ही क्या है। क्या मैं कम दौलतमन्द हूँ।’’
‘‘ख़ैर... ख़ैर...तुम्हारी दौलत का हाल तो मैं अच्छी तरह जानता हूँ; इसीलिए तो एक बेबस बूढ़े से रुपये ऐंठते रहे। सुनो बेटे, मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम्हारी तंगहाली अब नवाब साहब की मौत की ख़्वाहिश रखती है, इसीलिए मैंने तुम्हें इस वक़्त तकलीफ़ दी है। मुझे उम्मीद है कि तुम एक अच्छे बच्चे की तरह इसका ख़याल न करोगे। क्या तुमने आज डॉक्टर तौसीफ़ को इसीलिए शहर नहीं भेज दिया था कि नौजवान डॉक्टर सचमुच पैदल आने पर मजबूर हो जाये।’’
‘‘क्या बकवास है।’’ सलीम ने दूसरी तरफ़ मुँह फेरते हुए कहा।
‘‘और फिर तुम एक रस्सी ले कर पेड़ पर चढ़ गये।’’ प्रोफ़ेसर बोलता रहा। ‘‘क्या तुम समझते हो कि मैं कुछ नहीं जानता। मैं यह भी जानता हूँ कि डॉक्टर शौकत बच कैसे गये, लेकिन मैं तुम्हें नहीं बताऊँगा। तुम मुझे अँधेरे की चमगादड़ समझते हो और तुम्हारा ख़याल भी दुरुस्त है। अँधेरा मुझ पर सूरज की तरह रोशन रहता है। मैं इससे भी ज़्यादा जानता हूँ। मैं क्या नहीं जानता।’’
‘‘तुम कुछ नहीं जानते।’’ सलीम ने मुर्दा आवाज़ में कहा। ‘‘यह सिर्फ़ तुम्हारा ख़याल है।’’
‘‘तुम इसे ख़याल कह रहे हो, लेकिन यह सौ फ़ीसदी सच है। देखो सलीम, हम दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं। क्या मैं यह नहीं जानता कि डॉक्टर शौकत को क़त्ल कर देने की एक वजह और भी है, जिसका ताल्लुक़ ऑपरेशन से नहीं।’’
‘‘क्या...!’’ सलीम एकदम चौंक कर चीख़ा।
‘‘ठीक ठीक।’’ प्रोफ़ेसर ने सिर हिलाया। ‘‘तुम्हारी चीख़ ही इक़बाल-ए-जुर्म है। ‘‘क्या तुमने उस ख़ंजरबाज़ नेपाली को रुपये दे कर उसे क़त्ल करने के लिए राज़ी नहीं किया था। उस बेवकूफ़ ने धोखे में एक बेगुनाह औरत का क़त्ल कर दिया।’’
‘‘यह झूठ है....यह झूठ है।’’ सलीम बेसब्री से बोला। ‘‘लेकिन तुम्हें यह सब कैसे मालूम हुआ। यह सिर्फ़ शक है...बिलकुल शक...!’’
‘‘मुझे यह सब कैसे मालूम हुआ, क्योंकि दुनिया में तुम्हीं एक बड़े चालाक नहीं हो। मुझे यह भी मालूम है कि उस दिन तुमने एक रिपोर्टर पर गोली चलायी थी और वह राइफ़ल मेरे हाथ में दे कर ख़ुद भाग गये थे। महज़ इसलिए कि मुझे पागल ख़याल करते हुए उस वाक़ये को महज़ इत्तफ़ाक़ समझा जाये। और कहो तो यह भी बता दूँ कि तुम उस रिपोर्टर को क्यों मारना चाहते हो। तुम उसे पहचान गये थे। तुम्हें यक़ीन हो गया था कि उसे तुम्हारी हरकतों का पता हो गया है। उस वक़्त तो वह बच गया था, लेकिन आखिरकार उसे तुम्हारी ही गोलियों से ज़ख़्मी होना पड़ा...क्यों है न सच।’’
‘‘न जाने तुम किसकी बातें कर रहे हो।’’ सलीम ने सँभलते हुए कहा।
‘‘इन्स...पेक्...टर... फ़री...दी की।’’ प्रोफ़ेसर ने उसकी आँखों में देखते हुए रुक-रुक कर कहा।
सलीम के हाथ-पैर ढीले पड़ गये। वह सुस्त पड़ गया।
‘‘तुम्हारी धमकियाँ मेरा अब कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं। मैं अब तुम्हारे गाल पर इस तरह चाँटा मार सकता हूँ।’’ प्रोफ़ेसर ने उठ कर उसके गाल पर हल्की-सी चपत लगाते हुए कहा। ‘‘क्यों न मैं इन सब बातों की ख़बर नजमा और उसकी माँ को दे दूँ। पुलिस को तो मैं इसी वक़्त ख़बर कर दूँगा, लेकिन तुम यह सोचते होगे कि पुलिस मेरी बातों का ऐतबार न करेगी, क्योंकि मैं पागल हूँ।’’
‘‘नहीं-नहीं, प्रोफ़ेसर, तुम जीत गये। तुम मुझसे ज़्यादा चालाक हो।’’ सलीम ने आख़री पाँसा फेंका। ‘‘इस रस्सी को काट दो। मैं तुम्हारे लिए एक बड़ी शानदार लेबोरेटरी बनवा दूँगा।’’
‘‘तुम्हारा दिमाग़ किसी वक़्त भी चालबाज़ियों से बाज़ नहीं आता। अच्छा, मैं तुमसे दोस्ती कर लूँगा, मगर इस शर्त पर कि तुम इस मीनार में किसी राज़ को राज़ न रखोगे। इसके बाद यह यक़ीन रखो कि तुम्हारे सब राज़ मरते दम तक मेरे सीने में दफ़्न रहेंगे। मैं इसीलिए तुमसे यह सब उगलवा रहा हूँ कि तुमने मुझे बहुत दिनों तक ब्लैकमेल किया है। अच्छा, पहले यह बताओ कि वाक़ई तुमने उस नेपाली से डॉक्टर शौकत को क़त्ल कराने की साज़िश की थी।’’
‘‘मेरे ख़याल से तुम भी उतना जानते हो, जितना मैं...हाँ मैंने उसके लिए रुपया दिया था।’’
‘‘फिर तुम्हीं ने उसे क़त्ल भी कर दिया। इसलिए कि कहीं वह नाम न बता दे।’’
‘‘हाँ...लेकिन ठहरो...!’’
‘‘इन्स्पेक्टर फ़रीदी का क़त्ल करने के लिए तुमने ही गोली या गोलियाँ चलायी थीं।’’
‘‘हाँ...लेकिन तुम तो इस तरह सवाल कर रहे हो जैसे जैसे...!’’
‘‘तुमने डॉक्टर शौकत के गले में रस्सी का फन्दा भी डाला था।’’ प्रोफ़ेसर ने हाथ उठा कर उसे बोलने से रोक दिया।
‘‘फिर तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो चला।’’ सलीम ने कहा। ‘‘हाँ, मैंने फन्दा तो डाला था।’’ लेकिन फिर उसने कहा। ‘‘तुमने अभी कहा है कि हम दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं। इस रस्सी को काट दो। मैं तुमसे बिलकुल डरा हुआ नहीं हूँ, इसलिए कि अब हम दोनों दोस्त हैं।
‘‘तुम्हारे हवाई क़िले बहुत ज़्यादा मज़बूत मालूम नहीं होते।’’ प्रोफ़ेसर ने कहा। लेकिन इस बार उसकी आवाज़ बदली हुई थी। सलीम चौंक पड़ा...सिकुड़ा-सिकुड़ाया...प्रोफ़ेसर तन कर खड़ा हो गया। उसने अपने सिर पर बँधा हुआ मफ़लर खोल दिया। चेस्टर के कॉलर नीचे गिरा दिये और मोमबत्ती ताक़ पर से उठा कर अपने चेहरे के क़रीब ला कर बोला।
‘‘लो बेटा, देख लो। मैं हूँ तुम्हारा बाप इन्स्पेक्टर फ़रीदी।’’
‘‘अरे...!’’ सलीम के मुँह से निकल गया और उसे अपना सिर घूमता हुआ महसूस होने लगा, लेकिन वह फ़ौरन ही सँभल गया। उसके चेहरे के उतार-चढ़ाव से साफ़ ज़ाहिर हो रहा था कि वह ख़ुद पर काबू पाने की कोशिश कर रहा है।
‘‘तुम कौन हो...मैं तुम्हें नहीं जानता और इस हरकत का क्या मतलब।’’ सलीम ने गरज कर कहा।
‘‘शोर नहीं, शोर नहीं।’’ फ़रीदी ने हाथ उठा कर कहा। ‘‘तुमसे ज़्यादा मुझे कौन पहचान सकता है? जबकि तुम मेरे जनाज़े में भी शरीक थे। इसकी तो मैं तारीफ़ करूँगा सलीम! तुम बहुत होशियार हो। अगर मैं अपने मकान से एक जनाज़ा निकलवाने का इन्तज़ाम न करता तो तुम्हें मेरी मौत का हरगिज़ यक़ीन न होता। अख़बारों में मेरी मौत की ख़बर सुन कर शायद तुम रात ही को शहर आ गये थे। मेरे लिए हस्पताल से एक मुर्दा हासिल कर लेना कोई मुश्किल काम न था और शायद तुमने दूसरे दिन क़ब्रिस्तान तक मेरी लाश का पीछा किया। मैं क़बूल करता हूँ कि तुम एक अच्छे साज़िशी ज़रूर हो, लेकिन अच्छे जासूस नहीं। तुमने यह भी न सोचा कि पाँच गोलियाँ खाने के बाद बाहोशो-हवास पन्द्रह मील का सफ़र तय करना अगर नामुमकिन नहीं तो मुश्किल ज़रूर है। उस रात तुमने सार्जेंट हमीद के घर के भी चक्कर काटे थे, लेकिन शायद उस वक़्त तुम वहाँ मौजूद न थे जब वह नेपाली के भेस में राजरूप नगर इसलिए आया था कि डॉक्टर तौसीफ़ को इस बात की ख़बर पुलिस को करने से रोक दे कि मैं उससे मिल चुका हूँ और राजरूप नगर से वापसी पर यह हादसा पेश आया। मैंने एक बार रिपोर्टर के भेस में मिल कर सख़्त ग़लती की थी। इसलिए कि तुम मुझे पहचानते थे और क्यों न पहचानते, जबकि मेरा कई बार पीछा कर चुके थे। उस रात भी तुमने मेरी पीछा किया था। जब मैं नेपाली के क़त्ल के बाद घर वापस आ रहा था...फिर तुमने कुबड़े के भेस में सार्जेंट हमीद को ग़लत राह पर लगाने की कोशिश की। हाँ, तो मैं कह रहा था कि तुम्हें शक हो गया कि मैं तुम्हें अपराधी समझता हूँ, लिहाज़ा वापसी में तुमने मुझ पर गोली चलायी और राइफ़ल प्रोफ़ेसर के हाथ में दे कर फ़रार हो गये। प्रोफ़ेसर से बातचीत करते वक़्त मैंने अच्छी तरह अन्दाज़ा लगा लिया था कि गोली चलाना तो दरकिनार वह उस राइफ़ल का इस्तेमाल तक नहीं जानता था। तुमने मुझे क़स्बे की तरफ़ मुड़ते देखा, इस मौक़े को ग़नीमत जान कर तुम वहाँ से दो मील के फ़ासले पर झाड़ियों में जा छुपे और तुम उसी ताँगे पर गये थे जो सड़क पर खड़ा था। तुमने ख़ुद ही मदद के लिए चीख़ कर मेरा ध्यान अपनी तरफ़ करना चाहा। फिर तुमने गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं। उसी वक़्त मेरे ज़ेहन में यह नया प्लान आया जिसका नतीजा यह है कि आज तुम एक चूहेदानी में फँसे हुए चूहे की तरह बेबस नज़र आ रहे हो।’’
इन्स्पेक्टर फ़रीदी इतना कह कर सिगरेट सुलगाने के लिए रुक गया।
‘‘न जाने तुम कौन हो और क्या बक रहे हो...!’’ सलीम ने झुँझला कर कहा। ‘‘ख़ैरियत इसी में है कि मुझे खोल दो...वरना अच्छा न होगा...!’’
‘‘अभी तक तो अच्छा ही हो रहा है....!’’ फ़रीदी ने कन्धे उचका कर कहा और झुक कर दूरबीन में देखने लगा।
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