10 मई : रविवार

दस बजे के करीब विमल इरफ़ान के साथ फिर जुहू रोड पर था।
विमल के निर्देश पर इस बार इरफ़ान ने कैब ऐन बंगला नम्बर सात के बंद आउटर गेट पर लाकर रोकी।
“सन्नाटा है।” – इरफ़ान बोला – “वाचमैन बॉक्स खाली है। भीतर भी हलचल के कोई आसार नहीं जान पड़ते!”
विमल ने सहमति में सिर हिलाया, फिर बोला – “कालबैल बजा।”
इरफ़ान टैक्सी से निकल कर गेट पर पहुँचा, उसने पिलर पर लगा कालबैल का पुश-बटन दबाया।
भीतर कहीं घंटी बजने की आवाज़ न आई लेकिन नतीजा फिर भी सामने आया। गैराज के ऊपर बने रिहायशी पोर्शन का दरवाज़ा खोलकर गोल सीढ़ियाँ उतरता एक आदमी दिखाई दिया। लंबे डग भरता वो आउटर गेट के जंगले पर पहुँचा। उसने सवालिया निगाह इरफ़ान पर डाली।
“धाेरपड़े साहब इधर रहता है?” – इरफ़ान ने पूछा।
“नहीं, भई” – वो व्यक्ति बोला – “इधर कोई नहीं रहता। ये बंगला तो खाली है!”
“तुम कौन है?”
“मैं इधर केयरटेकर है। क्यों पूछता है?”
“टैक्सी में जो पैसेंजर बैठेला है, वो कल रात इधर जुहू रोड आया था और अपने फिरेंड धोरपड़े साहब से मिला था पण आज फिर आया तो बंगला नम्बर भूल गया, इस वास्ते पता करता था।”
“मेरे को इधर रहते किसी धोरपड़े साहब की ख़बर नहीं।”
“बंगला खाली क्यों है?”
“तुम काहे वास्ते पूछता है?”
“साहब पूछेगा जो टैक्सी में बैठेला है। क्योंकि उसे लगता है वो इधरीच कल रात आया। कल रात भी बंगला खाली था?”
“नहीं, कल रात तो खाली नहीं था पण तुम काहे वास्ते . . .”
“अरे भीड़ू, मेरे को क्या करने का पूछ के! साहब पूछेगा। पुलिस का बड़ा अफ़सर है। अभी अदब से बात करने का।”
विमल टैक्सी में बैठा सब सुन रहा था। इरफ़ान का फेंका हिंट पकड़ कर वो टैक्सी से बाहर निकला और इरफ़ान के बाजू में आयरन गेट पर पहुँचा।
उस घड़ी वो ‘जेम्स दयाल’ नहीं था, विमल था।
“मेरी तरफ देखो।” – पुलिसिया मिज़ाज का क्‍यू पकड़ता वो अधिकारपूर्ण स्वर में बोला।
केयरटेकर तुरन्त मुस्तैद दिखाई देने लगा।
“बंगला कल आबाद था, आज खाली है, ऐसा क्यों?”
“रोज़ाना किराये पर मिलता है। कोलोनियल स्टाइल का बना बंगला है, फिल्म वालों को शूटिंग के लिए पसंद है। अक्सर इधर फिल्मों की शूटिंग होती है।”
“इस वास्ते अक्सर कभी आकूपाइड होता है, कभी खाली होता है?”
“जी हाँ।”
“मालिक कौन है?”
“किरण बाला हैं।”
“किरण बाला! फिल्म स्टार!”
“पहले थीं। जब थीं तो बहुत मशहूर भी थीं। अब तो कब की फिल्मों से रिटायर हो चुकी हैं। इस वक्‍त छिहत्तर साल की हैं।”
“वो यहाँ नहीं रहतीं?”
“जी नहीं। वो पुणे में रहती हैं।”
“बुकिंग्ज़ वग़ैरह वो ही देखती हैं? पुणे से ही?”
“नहीं जी। मैं देखता हूँ। पर वो आती-जाती रहती हैं। लेकिन कभी ठहरती नहीं। सुबह आती हैं, शाम को चली जाती हैं।”
“बंगला सिर्फ फिल्म वालों को ही किराये पर दिया जाता है?”
“जी हाँ। हैवी डेली चार्जिज़ हैं। दूसरा कोई अफोर्ड ही नहीं कर सकता।”
“सिर्फ शूटिंग होती है?”
“जी नहीं। कई बार स्क्रिप्ट पर डिसकशन के लिए सिटिंग्ज भी यहाँ होती हैं। जैसे कल हुई थी।”
“कल यहाँ फिल्म स्क्रिप्ट डिसकस हो रही थी?”
“मेरे को यही बोला गया था।”
“कौन थे इस काम में मशगूल?”
“स्टोरी राइटर थे और उनकी सैक्रेट्री थीं।”
“बस?”
“दो बाॅडीगार्ड थे।”
“स्टोरी राइटर के लिए? सैक्रेट्री के लिए?”
“स्टोरी राइटर फिल्म का प्रोड्यूसर भी था, उसके लिए।”
“ओह! रात को तुम कहाँ थे?”
“अपने पोर्शन में। गैराज के ऊपर है।”
“रात काफी हलचल थी बंगले में! तुम्हें ख़बर लगी थी?”
“आपको कैसे मालूम?”
“जवाब दो।”
“नहीं। मैं दस बजे सो जाता हूँ।”
“घूंट लगा के?”
उसने जवाब न दिया।
“कालबैल तुम्हारे पोर्शन में बजी?”
“जी हाँ। तभी तो यहाँ गेट पर पहुँचा!”
“यहाँ एक ही पुश-बटन है। बंगले की घंटी कहाँ से बजती है?”
“एक ही पुश-बटन से दोनों जगह घंटी बज सकती है। बीच में चेंज ओवर स्विच है, इसलिए।”
“यानी जब बंगला आबाद हो तो घंटी बंगले में बजती है, वर्ना तुम्हारे पोर्शन में बजती है?”
“हाँ।”
“बंगले में क्या हो रहा है, तुम उसकी ख़बर रखते हो?”
“जी नहीं। बंगला आबाद हो तो मेरे को तभी भीतर कदम रखने की इजाज़त है जबकि मुझे बुलाया जाए।”
“ऐसा क्यों?”
“शूटिंग डिस्टर्ब होती है। स्क्रिप्ट सैशन हो तो वो डिस्टर्ब होता है।”
“कल के आकूपेंट कब रुख़सत हुए?”
“यही कोई बारह बजे के करीब।”
“कैसे मालूम?”
“एक बाॅडीगार्ड मेरे को बोलने आया कि सब जा रहे थे।”
“तुम्हें जगा कर?”
“जी हाँ। पीछे सब बंद करना था न!”
“कल के मेहमानों का – स्क्रिप्टर राइटर और उसकी सैक्रेट्री का – नाम क्या था?”
“साहब का नाम तो मिस्टर राजन था, मैडम का नहीं पता।”
“मिस्टर राजन का पूरा नाम?”
“नहीं पता।”
“लोकल अड्रैस? फोन नम्बर?”
“नहीं पता। इन बातों की जानकारी किरण मैडम ख़ुद रखती हैं।”
“मिस्टर राजन के लौटने का कोई शेड्यूल है? स्क्रिप्ट डिसकशंज के लिए या शूटिंग के लिए?”
“अभी इस बाबत इधर कोई ख़बर नहीं।”
“बंगला फरनिश्ड किराए पर दिया जाता है, कभी कोई चोरी-चकारी की वारदात नहीं होती?”
“आज तक तो नहीं हुई!”
“ओके, थैंक्यू।”
केयरटेकर ने विमल का सादर अभिवादन किया।
विमल और इरफ़ान कैब में सवार हुए। कैब वापिसी के सफ़र पर रवाना हुई।
“बोले तो?” – रास्ते में इरफ़ान बोला।
“कुछ नहीं बोले तो।” – गहरी साँस लेता विमल बोला – “दुश्मन – जो रात मौनव्रत धारण किए था – मेरी उम्मीद से ज़्यादा ख़बरदार, होशियार निकला। अपना कोई ट्रेस पीछे छोड़ कर न गया। फर्ज़ी नाम से एक दिन के लिए बंगला किराये पर लिया मेरे से वहाँ मुलाकात करने के लिए और गायब हो गया। उसका सुराग पाने का एक ज़रिया निकला था, वो भी डैड एण्ड बन गया।”
“डैड एण्ड बोले तो?”
“बंद गली। जिससे आगे कोई रास्ता नहीं होता।”
“ओह!”
“तू जेकब परेरा करके भीड़ू की ख़बर लाया था जो दिल्ली में मेरेे हाथों मरे स्टीवन फेरा की लाइफ़ में उसका ख़ास बताया जाता था, जिसको शोहाब हैंडल करने वाला था, उसकी बाबत क्या ख़बर है?”
“अभी तो कोई ख़बर नहीं!”
“कुछ कर तो रहा है?”
“कर तो रहा ही होगा! पण बोले तो, उसकी नौकरी है न! उस वजह से उसको टेम थोड़ा मिलता है कुछ करने को।”
“ओह!”
“तू बोले तो वो नौकरी छोड़ दे?”
“नहीं। लेकिन दुश्मन के गैंग के बिग बॉस तक पहुँचने की अब वही एक लीड है हमारे सामने।”
“मैं बात करता हूँ उससे।”
“ठीक है।”
सुबह ग्यारह बजे का टाइम था जबकि हनीफ़ गोगा की शिवाजी चौक पर के ट्रस्ट के ऑफ़िस में उमर सुलतान और अनिल विनायक के सामने पेशी हुई।
वो इतवार का दिन था पर ट्रस्ट का कार्यकारी दिवस था। रिसैप्‍शन पर चार फरियादी साढ़े ग्यारह बजने का इन्तज़ार करते मौजूद थे। वो वक्‍त आने में अभी आधा घंटा बाकी था इसलिए भीतर ऑफ़िस में दोनों ओहदेदारों के सामने हनीफ़ गोगा मौजूद था।
“हनीफ़ गोगा!” – सुलतान इतने कर्कश स्वर में बोला कि हनीफ़ का दिल डूबने लगा – “यही नाम है न?”
“हाँ, जी।” – वो नर्वस भाव से बोला।
“कब से गैंग में है?”
“यही कोई . . . साल होने को आ रहा है।”
“कौन सिफ़ारिश किया?”
“अहसान भाई।”
“कैसे जानता था?”
“पहले भाड़े का ऑटो चलाता था। अहसान भाई भरोसा करता था। फैमिली को किधर भेजना हो तो मेरे साथ अकेले भेज देता था। ऐसा कई मर्तबा हुआ था इसलिए मुलाहजा बन गया था। मैं अक्सर अहसान भाई से दरख़्वास्त करता था कि वो मुझे अपनी सरपरस्ती में ले लेते।”
“आख़िर दरख़्वास्त कुबूल हुई? तू गैंग में आ गया?”
“हाँ, जी।”
“ऑटो में क्या प्रॉब्लम थी?”
“बाप, आपको मालूम, अक्‍खी मुम्बई में तो ऑटो चलता नहीं, आधी में चलता है, ऑटो वालों की भरमार है इस वास्ते सवारी कम ही मिलती थीं।”
“इस वास्ते गैंग में आना माँगता था?”
“हाँ।”
“ये कैसे मालूम था कि अहसान भाई गैंग में था?”
“एक मर्तबा अहसान भाई और” – उसने अनिल की तरफ इशारा किया – “ये मेरे ऑटो में बैठे थे क्योंकि टैक्सी नहीं मिल रही थी, तब दोनों में कुछ ऐसी बातें हुई थीं जिनसे मेरे को अंदाज़ा लगा था कि वो . . . वो . . .”
बेचैनी का इज़हार करता वो ख़ामोश हो गया।
“कान पतले हैं तेरे! दूसरों की बात सुनने का पुराना चस्‍का है! क्या!”
“बाप, जानबूझ कर के तो नहीं सुनता! कुछ अपने आप ही सुनाई दे जाए तो . . . तो क्या करे मैं?”
“अच्छा सवाल है। पर जवाब मालूम तेरे को।”
“क्या बोला, बाप?”
“जो सुने उसे कूपर कम्पाउन्ड पहुँचाए, ये बोला।”
“म-मैं . . . मैं . . . कू-कूपर क-कम्पाउन्ड . . .”
“हाँ। तू। तू। कूपर कम्पाउन्ड। क्या!”
“बाप, मैं स-समझा नहीं!”
“अभी समझा नहीं तो हकलाता है। समझ जाएगा तो क्या होगा! बोलती अक्‍खी बंद हो जाएगी खाली या इधरीच मरा पड़ा होगा सदमे से?”
हनीफ़ सिर से पाँव तक काँप गया। उसके गले की घंटी ज़ोर से उछली।
“अनिल समझाता है। गौर से सुन। और समझ। . . . मेरा मुँह नहीं देखने का। मुंडी अनिल की तरफ कर।”
हनीफ़ ने भयभीत भाव से अनिल की तरफ देखा।
“मंगलवार सुबह तू मेरे को और अहसान भाई को वैगन-आर पर मैरीन ड्राइव, ताज ज्वेलर्स के शोरूम पर ले के गया था। याद आया?”
हनीफ़ ने कठिन भाव से गरदन ऊपर-नीचे हिलाई।
“वापिसी में हमेरे को शिवाजी चौक जाने का था, अहसान भाई तेरे को ऐसा बोला था। ये भी बोला था कि गाड़ी उड़ाने का नहीं था क्योंकि हम दोनों को बात करने का था इम्पॉर्टेंट करके। ये भी याद आया?”
हनीफ़ ने फिर गर्दन हिला कर हामी भरी।
“मुंडी नहीं हिलाने का हर बार।” – सुलतान डपट कर बोला – “मुँह से बोल!”
“ह-हाँ।”
“तब मेरे और अहसान भाई में जो डायलॉग हुआ था, वो तेरी मौजूदगी में हुआ था क्योंकि तू डिरेवर था, गाड़ी चलाता था। बोले तो ये हमेरा मिस्टेक। हमेरे को खड़ी कार में, तेरे को कार से बाहर भेज कर बात करने का था पण अहसान भाई ने परवाह इस वास्ते न की क्योंकि तू . . . तू था। गैंग का वफादार प्यादा, जो कि तू न निकला।”
“बाप” – हनीफ़ दयनीय भाव से बोला – “ऐसा नहीं है।”
“ऐसीच है। अभी बात आगे सुन। क्या!”
“सु-सुनता है, बाप।”
“तब हम दोनों के बीच पत्‍थरबाज़ों की बाबत बातचीत हुई थी कि उन्होंने एकजुट होकर गैंग खड़ा कर लिया था और वो लोग हमेरे खिलाफ काम करने लगे थे और पूरी कामयाबी से हमेरे माल की लूट की एक वारदात को अंजाम दे भी चुके थे। पत्‍थरबाज़ों से ताल्लुक रखती इस बात को मेरे और अहसान भाई के अलावा कोई नहीं जानता था। वो मेरी और सिर्फ मेरी थ्योरी थी जिससे अहसान भाई को पूरी तरह से इत्तफ़ाक भी नहीं था। हनीफ़, अब तू मेरे को ये बता कि पत्‍थरबाज़ों वाली इतनी खुफ़िया बात – मेरे और अहसान भाई के बीच की बात – कूपर कम्पाउन्ड कैसे पहुँच गई?”
“क-कैसे पहुँच गई!”
“तू हकला ले, मैं बोलता हूँ कैसे पहुँच गई! क्योंकि तूने पहुँचाई।”
“न-नहीं।”
“क्योंकि उस बातचीत के दौरान कार में मेरे और अहसान भाई के अलावा सिर्फ तू मौजूद था। क्योंकि तू सब बात सुनता था – सुने बिना रह ही नहीं सकता था क्योंकि तेरे कान पतले हैं। अब बोल, क्या कहता है?”
“बाप” – हनीफ़ दयनीय भाव से बोला – “मैं उधर किसको कोई बात पहुँचाता? अक्‍खी मुम्बई को मालूम कि उधर अब कुछ नहीं रखा। इधर तो ख़ासतौर से ऊपर तक सबको मालूम। तभी तो ट्रस्ट इधर खुला। तभी तो . . .”
“बात को समझता नहीं है।” – अनिल यूँ प्यार से बोला जैसे बच्चे को स्कूल का कोई होमवर्क करा रहा हो – “देख, ये पत्‍थरबाज़ों के हमेरे खिलाफ हमलावर होने की बात है जो मेरे मगज में आई थी और अहसान भाई ने सुनी थी। बात वैगन-आर में हुई थी और उसमें बतौर डिरेवर तू मौजूद था। तूने वो बात सुनी बरोबर।”
“अभी हाँ या न बोल” – सुलतान पूर्ववत् डपट कर बोला – “सुनी या न सुनी?”
“बाप, म-मेरी तवज्जो कहीं और थी शायद।”
“पाँच दिन पहले की बात है, कैसे याद है तेरे को तेरी तवज्जो तब कहाँ थी! साले, खजूर, ये तक तो तेरे को याद दिलाना पड़ा कि मंगलवार सुबह तू कहाँ था, क्या कर रहा था! ऑटो चलाता था तो तेरे को सब सुनाई देता था; चलती कार में ड्राइविंग सीट पर बैठे तेरे को पीछे का कुछ सुनाई न दिया! अभी बोल क्या!”
तब सुलतान के स्वर में ऐसा क़हर था कि हनीफ़ की घिग्‍घी बन्‍ध गई।
“अभी सच बोल, वर्ना यहीं मरा पड़ा होगा।”
“बाप” – बड़ी मुश्किल से वो बोल पाया – “बा-बाहर लोग . . .”
“थोबड़ा बंद!”
हनीफ़ सहम कर चुप हो गया।
सुलतान ने कालबैल बजाई।
चपरासी मानक ने अदब से भीतर कदम रखा।
सुलतान ने मेज के दराज से गन निकाली और उसे अपने सामने मेज पर रखा।
इतने से ही हनीफ़ के चेहरे का ख़ून निचुड़ गया, चेहरा कागज की तरह सफेद निकल आया।
मानक गैंग का पुराना प्यादा था जो वहाँ चपरासी की ड्यूटी करता था। गन देख कर उसके चेहरे पर शिकन तक न आई।
“बाहर जो फरियादी लोग बैठेले हैं” – सुलतान कठोर भाव से बोला – “उनको बोल, कल आएं। पद् मा को भी बोल छुट्टी करे और बाहर का शटर गिरा कर वापिस इधर आ। एक लाश संभालने का।”
मानक जानबूझ कर तत्काल रुख़सत न हुआ, वो जानता था बॉस का वो ऑर्डर अभी वापिस हो जाने वाला था।
वही हुआ।
“बाप, रहम!” – हनीफ़ हाथ जोड़ता बोला – “रहम!”
“बोले तो?” – सुलतान बोला।
“रहम! अल्लाह के वास्ते रहम!”
“अभी सब याद आ गया? सब वापिस आ गया तेरे मगज में?”
“हं-हाँ।”
“मैं गन रखे वापिस दराज में?”
“हं-हाँ।”
“मानक जाए?”
मानक को कहना न पड़ा, वो ख़ुद ही लौट गया।
पीछे सुलतान ने अपलक हनीफ़ की तरफ देखा।
हनीफ़ का दिल पहले ही जूते में था, उसने बेचैनी से पहलू बदला।
“उधर के लिए जासूसी करता था?” – इस बार सुलतान कदरन नम्र स्वर में बोला।
“हं-हाँ।”
“किसने राज़ी किया?”
“इ-इरफ़ान ने।”
“क्यों?”
“मालूम नहीं।”
सुलतान ने खा जाने वाली निगाह उस पर डाली।
“बाप, दो जहां का मालिक मेरा जामिन। झूठ नहीं बोला।”
“क्यों न पूछी वजह?”
“मुलाहजा ही ऐसा था।”
“किसका?”
“तुका का।”
“तू . . . इतना पुराना है इस धंधे में?”
“हाँ, जी।”
“तुका का मुलाहजा था, बरोबर, जिसने तेरे को पिघलाया। काहे वास्ते था मुलाहजा?”
“इधर की कोई जानकारी माँगता था। मैं साफ बोला मैं मामूली भीड़ू। प्यादा। अव्वल तो मेरी किसी जानकारी तक पहुँच नहीं थी, होती तो छोटी-मोटी जानकारी तक ही होती, वो क्या उसके किसी काम की होती! बोला – बोलना, देखेंगे।”
“तूने पत्‍थरबाज़ों की बाबत बोला?”
“हाँ।”
“पहले क्या-क्या बोल चुका था?”
“कुछ भी नहीं। इस एक ही मर्तबा वो नौबत आई।”
“कब?”
“सोमवार को।”
“कौन से सोमवार को? यही जो गुज़रा? चार तारीख वाला?”
“हाँ, जी।”
“उससे पहले कभी वास्ता न पड़ा?”
“वो . . . कुछ टेम से टैक्सी चलाता था, कभी-कभार ऑन रोड दिखाई दे जाता था तो दुआ-सलाम हो जाती थी।”
“तुका का ख़ास, सोहल का ख़ास, टैक्सी चलाता है?”
“अब . . . है तो ऐसीच!”
“टैक्सी डिरेवर इरफ़ान को इधर की कोई जानकारी काहे वास्ते माँगता था?”
“बाप, जान की अमान पाऊँ तो अर्ज़ करूँ?”
“जो बोलना है, बेफि़क्र हो के बोला!”
“बोलता था वो पत्‍थरबाज़ों का हमदर्द था, सलाहकार था।”
“अभी तो तू बोल के हटा है” – अनिल दखलअंदाज़ हुआ – “कि तेरे को मालूम नहीं इरफ़ान ने क्यों जासूसी के लिए तेरे को राजी किया!”
“वो . . . वो . . . डर गया था न!” – हनीफ़ बोला – “यकायक सवाल हुआ, इस वास्ते।”
“बोलने दे इसे।” – सुलतान बोला।
अनिल ख़ामोश हो गया।
“अभी क्या बोला।” – सुलतान हनीफ़ से मुख़ातिब हुआ – “फिर से बोल! दोहरा के बोल।”
“बाप, मैं बोला” – हनीफ़ ने दोहराया – “इरफ़ान बोलता था वो पत्‍थरबाज़ों का हमदर्द था, सलाहकार था।”
“बंडल! पत्‍थरबाज़ों का कोई वजूद नहीं। मैं ख़ुद कनफर्म किया।”
“बाप, तुम्हेरे को धोखा हुआ।”
“बोले तो!”
“पत्‍थरबाज़ों की ये चाल! कोई पता करने आए, तुम्हेरी माफ़िक भाव दे के पूछने आए तो ऐसी बर्बाद सूरत बना के मिलने का जैसे कल मर जाने वाले हों। सबने आपस में तय किया हुआ था कि कोई ‘भाई’ कोई ‘बड़ा बाप’ दरयाफ़्त करे, या करवाए तो ऐसीच पेश आने का।”
“वो साले कच्चा लिम्बू मेरे से श्यानपंती में कामयाब हो गए! यकीन नहीं आता।”
हनीफ़ अदब से ख़ामोश खड़ा रहा।
“तेरे को आता है, चिकने?” – सुलतान अनिल विनायक की ओर घूमा – “तेरे को तो आता ही होगा! तेरा तो शुरू से ही इस बात पर ज़ोर था कि हमेरे खिलाफ लूट की दो वारदातें हमेरे से नाउम्मीद, इधर की बद्सलूकी की वजह से हमेरे से भड़के हुए फरियादियों ने गिरोह बना कर की थीं। गिरोह, जो ख़ुद की शिनाख्‍़त ‘पत्‍थरबाज़’ के तौर पर करता था। बरोबर?”
“अब मैं क्या बोले?” – ‌अनिल असहाय भाव से कंधे उचकाता बोला – “मेरी तो किसी ने सुनी नहीं!”
“अभी मैं सुनता है। बोले तो इरफ़ान पत्‍थरबाज़ों का सलाहकार, वो इधर की कोई ख़बरें बाज़रिया हनीफ़ गोगा जानना माँगता था जो पत्‍थरबाज़ों के किसी काम आ सकती थीं। ठीक?”
अनिल ने सहमति में सिर हिलाया।
“अब मेरा सवाल है, इसमें इरफ़ान का क्या फायदा? इरफ़ान को क्या हासिल?”
“वो हमारा सताया हुआ है – कूपर कम्पाउन्ड हमारा सताया हुआ है – किसी भी तरीके से हमें कोई नुकसान पहुँचता है तो उसको चैन पड़ना लाज़मी है।”
“इस मिशन के तहत हमारा हनीफ़ गोगा इधर उसका जासूस!”
“अब क्या शक है? अब तो ये कबूल कर चुका है!”
“क्या कबूल कर चुका है? कि लूट की वारदात पत्‍थरबाज़ों का, पत्‍थरबाज़ों का ही, कारनामा है और इरफ़ान उनका सलाहकार है?”
“हाँ।”
“उसका ख़ास जोड़ीदार शोहाब भी?”
“हो सकता है।”
सुलतान वापिस हनीफ़ की तरफ घूमा – “शोहाब क्या करता है, मालूम?”
“नौकरी करता है।” – हनीफ़ बोला – “जूहू के किसी होटल में मुलाज़िम है।”
“किस होटल में?”
“ये तो . . . मालूम नहीं।”
“हाल में कभी कूपर कम्पाउन्ड गया?”
“एक मर्तबा गया। उधर से गुज़र रहा था . . .”
“घसीट मत बात को। जैसे भी गया, गया। क्या देखा वहाँ? कौन लोग रहते हैं आजकल उधर? इरफ़ान और शोहाब के अलावा बोल!”
“कोई नहीं।”
“पक्की करके बोलता है?”
“मेरे को उधर और कोई नहीं दिखाई दिया था।”
“कमाल है! सोहल के सगों में से एक आजकल टैक्सी चलाता है, दूसरा होटल में नौकरी करता है। फिर वो दोनों सलाहकार और हमदर्द कब को बनते हैं!”
“दोनों काम दिखावे के हो सकते हैं।” – अनिल धीरे से बोला।
“टैक्सी चलाना हो सकता है दिखावे का काम। होटल की रेगुलर नौकरी कैसे दिखावे का काम हो सकता है?”
अनिल ने जवाब न दिया, वो परे देखने लगा।
“मैं आज ही कूपर कम्पाउन्ड को खड़काने के लिए इन्तज़ाम करता हूँ।” – वो वापिस हनीफ़ की ओर घूमा – “देख, जो जानकारी तूने आगे सरकाई, मोटे तौर पर देखा जाए तो वो पाले के पार किसी काम की नहीं थी, सिवाय इसके कि लूट की जुर्रत करने वालों को हम पत्‍थरबाज़ समझने को मजबूर हुए। लेकिन ये तेरी जासूसी के सिलसिले की; हमारे साथ, बिग बॉस के साथ दगाबाज़ी के सिलसिले की, अभी शुरूआत है। जो हरकत तूने की, उसके लिए तेरा बहुत बुरी मौत मरना बनता है। बिग बॉस को तेरी ख़बर लगेगी – कुबेर पुजारी बॉस को भी तेरी ख़बर लगेगी – तो तेरे को गोटी से लटकाए जाने का हुक्म होगा।”
हनीफ़ सिर से पांव तक कांपता दोनों ओहदेदारों को साफ दिखाई दिया।
“हनीफ़ गोगा” – सुलतान आगे बढ़ा – “तेरी जान बच सकती है अगरचे की तू दो काम ईमानदारी से – फिर बोलता है, ईमानदारी से – करना कबूल करे। पूछ कौन से दो काम?”
“क-कौन से द-दो काम?”
“एक की तेरे को ख़बर है, क्योंकि वो तेरी ख़ुद की नाकाबिलेमाफ़ी करतूत है। पहला काम ये है कि आइन्दा उस करतूत को नहीं दोहराना, भले ही तेरे सामने पूरी ख़ुदाई तेरी झोली में डालने का लालच लहराया जाए। क्या!”
“मैं समझा, बाप। ऐसीच करेगा।”
“दूसरा काम सुन। कान खोल के सुन।”
“सुनता है, बाप।”
“अभी ये टेम तक जैसे हमेरे पाले में तू उनका जासूस था, अब उनके पाले में तू हमेरा जासूस होगा। तेरे को उधर मेल-जोल बढ़ाना होगा और जो इम्पॉर्टेंट करके मालूमात उधर से हासिल हों, उनको इधर हमेरे पास लाना होगा। समझ गया?”
“बाप, मैं ये सब करेगा तो चक्की के दो पाटों में पिसेगा।”
“साला खजूर! जब एक पाट से पिसने का हौसला पहले ही कर चुका तो दो में क्या वान्दा है?”
हनीफ़ ने बेचैनी से पहलू बदला।
“हनीफ़!” – अनिल बोला – “सुलतान भाई अभी जो बोला, उसे तेरे को अपनी जानबख्‍शी की कीमत जान के करने का। काम नहीं तो जानबख्शी नहीं।”
“काम में धोखा या कोताही की, दूसरी तरफ के मुलाहजे में आके कोई फच्चर डाला तो भी जानबख्‍शी नहीं।”– सुलतान बोला – “मैं ख़ुद कमती करेगा तेरे को। क्या!”
“बाप, मैं हुक्म के मुताबिक काम करूँगा।”
“बढ़िया! तेरी ज़िन्दगी की डोर मेरे हाथ में है, ये टेम मैं उसको खाली ढील देता है, छोड़ ही नहीं देने का। तू मेरे को जब श्यानपन्ती करता दिखाई देगा, मैं डोर वापिस खींच लेगा।”
“कोई श्यानपन्ती नहीं, बाप। ज़िन्दगी दांव पर है, मैं पूरी फ़र्माबरदारी के साथ काम करूँगा।”
“अपनी ख़ातिर!”
“बरोबर, बाप।”
“निकल ले।” – वाल क्लॉक पर निगाह डालता सुलतान बोला – “बाहर पद् मा को बोल के जाने का पहला फरियादी इधर भेजे।”
अन्दर-बाहर से बुरी तरह से हिला हुआ हनीफ़ गोगा वहाँ से रुख़सत हुआ।
शाम ढले विमल की शोहाब से मुलाकात हुई।
इरफ़ान तब वहाँ मौजूद नहीं था, दोपहर से टैक्सी लेकर निकला हुआ था।
“एक दो छोटी-छोटी बातें हैं” – शोहाब बोला – “अभी सुनना पसंद करेंगे?”
“ज़रूर।” – विमल बोला।
“तो सुनिए। पहली बात तो ये है कि ‘शंघाई मून’ की होस्टेस शेफाली आज से दो हफ्ते की छुट्टी पर है।”
“एकाएक?”
“पता नहीं। छुट्टी प्रीप्लांड भी हो सकती है।”
“मुम्बई में उसकी रिहायश की बाबत मालूम करना था!”
“मालूम किया जा सकता था, कोई मुश्किल काम नहीं था लेकिन फायदा कोई न होता।”
विमल की भवें उठीं।
“मुम्बई में नहीं है। दोपहरबाद की फ्लाइट से नागपुर चली गई जोकि उसका होम टाउन है।”
“सच में चली गई या ऐसा सुनने में आया?”
“सुनने में ही आया ‘शंघाई मून’ से। आप वहम में डाल रहे हैं तो मैं फ़रदर कंफ़र्मेशन की जुगत करूँगा।”
“ज़रूरत नहीं। मैंने यूँ ही व्यवहारिक बात की थी। ‘शंघाई मून’ में पहुँच कैसे बनाई?”
“मामूली काम था। हाॅस्पिटेलिटी बिजनेस में लोगबाग एक-दूसरे से कोआॅपरेट करते हैं। वहाँ इतना कहना काफी निकला कि मैं होटल अमृत कांटीनेंटल का सिक्योरिटी ऑफ़िसर था।”
“यानी जनाब का सिक्योरिटी का अफ़सर होना काम आया!”
“यही समझ लीजिए।”
“मैनेजर जमशेद कड़ावाला तो अपनी जगह सलामत है या एकाएक उसे भी लंबी छुट्टी पर जाना पड़ गया?”
“ऐसा कुछ नहीं हुआ है।”
“मिस्टर क्वीन से अपनी मुलाकात के लिए मेरे को उसके कॉन्टैक्ट में रहने को बोला गया था, इसलिए पूछा।”
“वो कॉन्टैक्ट अब आप भूल जाइए। ‘शंघाई मून’ में अब आपके साथ धोखा हो सकता है।”
“इरफ़ान भी यही कहता था।”
“दुरुस्त कहता था।”
“और?”
“अहसान कुर्ला सलामत है लेकिन हस्पताल में है और इस हालत में है कि हफ्ते में भी छुट्टी पा जाएगा तो ख़ुशकिस्मत होगा।”
“शुक्र है बच तो गया! मैं नहीं चाहता था ‌वो जान से जाता। बस उतना ही चाहता था जितना तुमने कहा वो भुगत रहा है।”
“साथियों ने अक्ल की, फुर्ती दिखाई, फौरन हस्पताल पहुँचाया वर्ना वही होता जो आप कहते हैं आप नहीं चाहते थे।”
“उन तीन जवानों की क्या ख़बर है जिन्हें हमने वैगन-आर में बेहोश शिवाजी चौक छोड़ा था?”
“खस्ता हाल हैं। लेकिन हस्पताल से जल्दी छुट्टी पा जाएंगे। कल या बड़ी हद परसों।”
“मालूम पड़ा था कि इस बार मैडिकोलीगल केस बना था। क्या बयान दिया पुलिस को?”
“अभी नहीं दिया। पाखण्ड कर रहे हैं कि बयान देने के काबिल नहीं।”
“जिनका हुक्का भरते हैं, उनका यही कहने का उनको हुक्म हुआ होगा!”
“ऐसा ही जान पड़ता है।”
“और?”
“फिलहाल बस।”
“ये सब काम आपने ख़ुद किए?”
“नहीं। सिर्फ ‘शंघाई मून’ वाला काम मैंने ख़ुद किया। बाकी जो किया, आपके मुरीदों ने किया और मेरे को रिपोर्ट किया।”
“बढ़िया।” – विमल एक क्षण ठिठका, फिर बोला – “शोहाब भाई, जेकब परेरा की बाबत कुछ जल्दी हो पाता तो मुझे ख़ुशी होती।”
“उसके बारे में कुछ इम्पॉर्टेंट लीड्स मिली हैं मेरे को। मैं कल आपको यकीनी तौर पर कोई गुड न्यूज देता हूँ।”
“गुड! आइल वेट।”
रात के नौ बजने को थे, ताज ज्वेलर्स का शोरूम बंद होने की तैयारी में था, स्टाफ़ छुट्टी करके जा चुका था जबकि भाई लोगों की त्रिमूर्ति के वहाँ कदम पड़े।
अनिल विनायक, उमर सुलतान और उनका बॉस ख़ुद कुबेर पुजारी।
कालसेकर उनमें से सिर्फ अनिल विनायक से वाकिफ़ था जिसने दोनों साथियों का परिचय ज्वेलर को दिया – कुबेर पुजारी का बड़े बिल्ड अप के साथ।
कई क्षण ज्वेलर की जुबान न खुली।
आसार अच्छे नजर नहीं आ रहे थे।
“वैलकम!” – आखिर वो सशंक भाव से बोला – “विराजिये।”
तीनों उसके सामने विज़िटर्स चेयर पर बैठे। बैठते ही अनिल और सुलतान ने अपनी-अपनी कुर्सी पुजारी की कुर्सी से थोड़ा पीछे सरका ली ताकि ज्वेलर पर दोहरा असर हो पाता कि पुजारी ‘इम्पॉर्टेंट करके भीड़ू’ था।
“कैसे आए?” – ज्वेलर बोला।
सवाल तीनों से था पर जवाब के लिए क्यू पुजारी ने पकड़ा।
“मैं ऐसे कभी किसी के पास नहीं गया।” – वो रुखाई से बोला।
“अच्छा!” – ज्वेलर अनि‌िश्‍चत भाव से बोला।
“हाँ। मेरे सामने इम्पॉर्टेंट करके मसला है, इस वास्ते आया।”
“मेरे से ताल्लुक रखता?”
“तुम्हारे से भी ताल्लुक रखता।”
“ऐसा क्या मसला है?”
“दो टूक बोले मैं?”
“हाँ। ज़रूर।”
“सोमवार चार तारीख की जो लूट की वारदात हुई – जिसमें बीस पेटी रोकड़ा ही न लुटा, हमारे दो कलैक्टर बुरी तरह ठुके – उसकी ख़बर तुमने लीक की।”
“नो! नैवर! ये बात पहले इसके” – ज्वेलर ने अनिल की ओर इशारा किया – “और इसके साथी अहसान कुर्ला उर्फ रिज़वी के और मेरे बीच हो चुकी है। ये और कुर्ला मंगलवार को यहाँ से मुतमईन होकर गए थे कि मेरा उस वारदात से – इनके बताए बिना जिसकी मुझे ख़बर तक नहीं थी – मेरा कोई लेना-देना नहीं था। अब पाँच दिन बाद नया क्या हो गया जो मेरे पर नए सिरे से इलज़ाम लगा रहे हो?”
“अनिल और अहसान इधर से जो सुन कर गए थे, वो मेरे को मालूम।”
“तो फिर क्या प्रॉब्लम है?”
“मेरे को इस सिलसिले पर भेजा लगाने को टेम दूसरी वारदात के बाद मिला। बाप, तुम बहुत चिल्लाकी से अनिल और अहसान का माथा घुमा दिया, अभी मेरे साथ ऐसे नहीं कर पाएगा।”
“क्या नहीं कर पाऊँगा? जिस आदमी का पलक झपकते तुमने दो करोड़ का नुकसान किया वो . . .”
“ये बात हो चुकी है। दोहराने का नहीं है।”
“नहीं है तो बोलो – जो कुर्ला नहीं बोल सका, वो बोलो – कैसे मैं तुम लोगों से बाहर जाने की जुर्रत कर सकता था?”
“नहीं कर सकते थे पण की। किसी ने माथा घुमाया तुम्हेरा। किसी के तरफदार बन बैठे जिसकी बातों में आकर रोकड़े वाली ख़बर ख़ुद तुमने उसे लीक की . . .”
“ये मेरे पर गलत इलज़ाम है।”
“. . . तरफदार को बाद में उस बात की लीपापोती सूझी। उसने वारदात के बाद में – फिर बोलता है, बाद में – नज़ीर सैफी की टोपी में से ट्रांसमिटर की बरामदी का इन्तज़ाम किया। पहले ये इन्तज़ाम हो ही नहीं सकता था। अब ये बात पर ज़ोर रखकर जवाब दो कि वो ख़बर लीक किया तो कौन किया!”
“कौन किया?”
“तुम किया। तुम्हारे सिवाय कोई दूसरा भीड़ू ये काम कर ही नहीं सकता था। पण तुम जो किया, ये टेम मेरे को उसकी परवाह नहीं।”
“परवाह नहीं?”
“हाँ। यहीच बोला मैं। परवाह नहीं मेरे को। वजह पूछो!”
“पूछी। बोलो!”
“अभी ‘भाई’ दो खोखा माँगता है। उसमें सब कवर हो जाएगा। हमेरा नुकसान भी, तुम्हेरी बद्हरकत भी।”
“द-दो करोड़ रुपया!”
“कल देने का।”
“क-कल देने का!”
“बरोबर सुना तुम!”
“मैं दो करोड़ रुपया कहाँ से लाऊंगा?”
“क्यों? क्या हुआ? खड़े पैर कंगाली आ गई!”
“मेरा मतलब है, खड़े पैर दो करोड़ रुपया कहाँ से लाऊंगा?”
“सोचना। अभी रात है सोचने के वास्ते तुम्हारे पास।”
“देखो, जो कह रहे हो, उसका मतलब समझो।”
“क्या समझूँ?”
“ट्रेडर्स पर आजकल की सख़्ती के जमाने में कैश में इतना पैसा किसी के पास नहीं होता।”
“बैंक में तो होता है न!”
“बैंक से एकमुश्त इतनी बड़ी रकम निकाली जाए तो इंकम टैक्स के महकमे को सख्त जवाबदारी करनी पड़ती है कि वो रकम किस वजह से निकलवाई, कहां सर्फ की! मैं क्या ये जवाब दे सकता हूँ कि भाई लोगों की वसूली की मद में सर्फ की?”
पुजारी ने तुरंत जवाब न दिया।
“बोले तो” – फिर बोला – “भाई की ये माँग अकेले तुमसे नहीं है।”
“मेरे को पहले से ही अन्दाज़ा था . . . अन्देशा था। और हीरा करनानी और माधव मेहता से तो होगी ही जिनका मेरी तरह रोकड़ा लुटा बताया जाता है?”
“ठीक।”
“उनके अलावा और भी हैं?”
“हैं। जानना चाहते हो कौन?”
“नहीं। लेकिन करनानी और मेहता को जानता हूँ इसलिए सवाल है, करनानी कैश पेमेंट लेकर कार बेच सकता है? जवाब ये बात ध्यान में रख कर देना कि हैवी कैश ट्रांजेक्‍शंज पर – बड़ी रकमों के नकद लेन-देन पर – पाबंदी है। कोई कार की पेमेंट नकद ले भी आएगा तो उसको बैंक से ड्राफ्ट बनवा कर लाने को बोला जाएगा। या बैंक एकाउन्ट से ड्राफ्ट बनवाने को बोला जाएगा। मिस्टर पुजारी, ट्रेडर्स पर इंकम टैक्स की बहुत पाबन्दियाँ हैं आजकल। कोई नहीं पंगा ले सकता महकमे से।”
“अगर रकम न देने की बुनियाद बना रहे हो तो कान खोल कर सुन लो। अदायगी नहीं टलने वाली।”
“मालूम मेरे को। एक बार टालने की कोशिश की थी तो करारा मज़ा चखने को मिला था। मैं तुम्हारे ‘भाई’ के हुक्म की उदूली करने की जुर्रत नहीं कर सकता। मरता क्या न करता की तरह इन्तज़ाम करूँगा मैं जैसे-तैसे इस बड़ी रकम का लेकिन वक्‍त दरकार होगा।”
“कितना?”
“कम से कम एक हफ्ता।”
“नो! दो दिन।”
“कुबेर जी, नहीं हो सकता। हमारी मजबूरी समझो। व्यापारी का आजकल ब्लैकमनी रखना अपनी हालत आ बैल मुझे मार करना है। आज की तारीख में ब्लैकमनी या फिल्म इन्डस्ट्री में है, या बिल्डिंग कंस्ट्रक्‍शन में है या स्मगलिंग, ब्लैक मार्केटिंग में है और या फिर . . . तुम जानते ही हो कहाँ है!”
“‌हफ्ता हरगिज़ नहीं।”
“‌तो पाँच दिन तो हर हाल में।”
“‌हूँ।” – वो कुछ क्षण ख़ामोश रहा फिर बोला – “‌ठीक है, मैं ‘भाई’ से बात करूँगा। ‘भाई’ का जो फैसला होगा उसकी ख़बर तुम्हें मिल जाएगी।”
“‌किसकी मार्फत?”
“‌अनिल विनायक की मार्फत, क्योंकि इससे तुम पहले से वाकिफ़ हो।”
“‌ठीक है। इसका जोड़ीदार कुर्ला कहाँ गया?”
“‌कहीं नहीं गया। साथ ही आता पण अनिल बोला इधर तुम्हारे ऑफ़िस में मेहमानों के लिए तीन ही कुर्सियाँ थीं।”
ज्वेलर सकपकाया, उसने कुछ कहने के लिए मुँह खोला, फिर होंठ भींच लिए।
“‌अब एक ख़ास बात” – पुजारी बोला – “‌गौर से सुनो। बहुत गौर से सुनो।”
“‌बोलो।”
पुजारी ने सुलतान को इशारा किया।
सुलतान ने एक तहशुदा कागज जेब से निकाला और उसे खोल कर ज्वेलर के सामने रखा।
“‌ये” – पुजारी बोला – “‌तुम्हारे जैसे सोलह ट्रेडर्स की लिस्ट है, जिनमें से दो को तुम यकीनी तौर पर जानते हो क्योंकि अभी तुमने उनका ज़िक्र किया था, बाकी तेरह को भी, मुझे यकीन है, तुम जानते ही होगे। बड़े व्यापारी एक-दूसरे को जानते ही होते हैं। लिस्ट में सबके नाम, व्यापार, पते, फोन नम्बर, सब दर्ज हैं। तुमने लिस्ट में दर्ज लोगों को – अपने अलावा लिस्ट में दर्ज लोगों को – ‘भाई’ का वो पैगाम पहुँचाना है जो तुम्हारे तक ख़ुद मैंने पहुँचाया।”
“‌क्या मतलब!” – ज्वेलर अचकचाया – “‌मेरे को उनको बोलना है कि ‘भाई’ को सब से दो-दो करोड़ रुपया माँगता है?”
“‌हाँ।”
“‌ये मेरे कहने की बात है?”
“‌तुम्हीं कहोगे। ‘भाई’ के हवाले से कहोगे?”
“‌मेरी कौन सुनेगा?”
“‌सब सुनेंगे।”
“‌अरे, कोई मेरे को सीरियसली नहीं लेगा। सब समझेंगे मैं मज़ाक कर रहा हूँ।”
“‌समझाना सबको तुम सीरियस हो, मज़ाक नहीं कर रहे हो।”
“‌कमाल है! अजीब हुक्म है!”
“‌अमल करना चौकसी से।”
“‌किसी ने मेरी न सुनी?”
“‌वो मेरी सुनेगा। ख़बर करना।”
“‌नम्बर दो।”
पुजारी ने फिर सुलतान की तरफ इशारा किया।
सुलतान ने लिस्ट वाला लिफाफा वापिस खींचकर उसी पर एक मोबाइल नम्बर दर्ज कर दिया।
मीटिंग बर्ख़ास्त हुई। बुरे वक्त की तरह आए तीनों वहाँ से रुख़सत हुए।
शोरूम बंद होते ही घर का रुख करने की जगह कालसेकर ने चैम्बूर का रुख किया और आगे कूपर कम्पाउन्ड पहुँचा।
विमल और इरफ़ान से उसकी मुलाकात हुई।
ज्वेलर ने संजीदगी से दो जोड़ीदारों के साथ कुबेर पुजारी की शोरूम में विज़िट का विस्तृत ज़िक्र किया और उन्हें सोलह व्यापारियों की वो लिस्ट दिखाई जिसमें उसके अलावा हीरा करनानी, कार डीलर और माधव मेहता, फिल्म डिस्ट्रीब्यूटर शामिल थे।
“‌हम्म!” – वो ख़ामोश हुआ तो विमल बोला – “‌यानी मवाली अब फटे मुँह से बात कर रहे हैं!”
“‌क्या बोलूं?” – ज्वेलर दयनीय भाव से बोला – “‌मुम्बई में भाई लोगों की ऐसी वसूली आम है। मुखालफत दिखाई तो मेरा तो शोरूम ही फोड़ा, कितनों को तो जान से मारा जा चुका है, कितने मुम्बई क्या, मुल्क ही छोड़ गए।”
“‌कैश रकम के इन्तज़ाम में वाकई दिक्कत होगी?”
“‌ज़्यादा नहीं लेकिन शाॅर्ट नोटिस मिला तो होगी तो सही!”
“‌लिस्ट के हवाले से वो लोग जो हुक्म कर गए, मानोगे?”
“‌हुक्म के मुताबिक फोन कर दूँगा, बाकी वो जानें, उनका काम जाने।”
“‌क्या उम्मीद करते हैं, सब मान जाएंगे?”
“‌हाँ। क्योंकि लिस्ट में मेरा, करनानी और मेहता का नाम होने से ये तो नि‌िश्‍चत है कि हम तीनों की तरह वो भी पहले छोटी माँगों के ‌ज़रिए पकाए जा चुके हैं।”
“‌मैं कोई जनरल राय दूँ तो वो सब मानेंगे?”
“‌मानेंगे। वाकिफ़ तो हम सब हैं ही, जिनका एक ही दुश्मन हो, वो स्वाभाविक तौर पर दोस्त होते हैं।”
“‌ओके। लेकिन अब भाई लोग आपका रोल उनके नुमायन्दे का बना गए हैं तो नुमायन्दे के तौर पर आप ही हो सके तो मेरी दो राय कबूल करें।”
“‌क्यों नहीं करूँगा? और मैं यहाँ आया किसलिए हूँ? बोलो!”
“‌आपने पैसा अरेंज करने के लिए हफ्ते का टाइम माँगा, पाँच दिन पर आ गए, जब इस बाबत ‘भाई’ का फैसला सामने आए तो पाँच दिन की मोहलत की जिद कीजिएगा लेकिन चार दिन की माँग से तो बिल्कुल न हिलियेगा, भले ही आपके पास दो करोड़ रुपए नकद अभी हों।”
“‌मेरी जि़द चलेगी?”
“‌जब यही जि़द सोलह जनों की होगी तो यकीनन चलेगी।”
“‌ठीक। दूसरी बात?”
“‌आप पुरइसरार उन लोगों को ये कहिए कि बड़ी रकम का मामला है, माँग ‘भाई’ की तरफ से जारी होनी चाहिए।”
“‌मैं समझा नहीं।”
“‌आपको कहना होगा कि ये एहतियात इसलिए बरतनी ज़रूरी है कि ‘भाई’ के हवाले से रकम बिचौलिए ही न हज़म कर जाएं।”
“‌ऐसा हो सकता है?”
“‌न हो भले ही लेकिन हो क्यों नहीं सकता?”
“‌ ‘भाई’ को मेरे को फोन करना मंज़ूर होगा?”
“‌मामूली काम है, खानापूरी जैसा काम है, क्यों नहीं होगा? आख़िर बत्तीस करोड़ की रकम का मामला है।”
“‌फ़र्ज़ करो बिचौलिए वाली थ्योरी अमल में आती है, मेरी जिद मान ली जाती है, मेरे को फोन आता है ‘भाई’ बोलता था, जबकि असल में काला चोर बोलता हो तो मेरे को क्या पता लगेगा?”
“‌मेरे को लगेगा।”
“‌तु-तुम्हें! तुम्हें लगेगा?”
“‌हाँ।”
“‌कैसे?”
“‌आपके मोबाइल पर आई ‘भाई’ की कॉल मैं सुनूंगा। मैं गैंग के एक बहुत ऊँचे मुकाम पर विराजमान मवाली की आवाज़ पहचानता हूँ क्योंकि उससे रूबरू मिल चुका हूँ, बातें कर चुका हूँ। हर कोई उसे बिग बॉस करार देता था और वह शख़्स मिस्टर क्वीन कहलाता था। अगर वही बतौर ‘भाई’ आपसे फोन पर बात करेगा तो मैं उसकी आवाज़ पहचान जाऊँगा। तब मैं उससे सीधे सवाल करूँगा कि क्या वो ही गैंग का टॉप बॉस था तो . . . देखेंगे वो क्या जवाब देता है!”
“‌वो जान गया कि लाइन पर मैं नहीं था तो?”
“‌कैसे जान जाएगा? क्या उसने पहले कभी आपसे बात की?”
“‌न-हीं।”
“‌तो?”
“‌इस तमाम ड्रिल से मेरे को क्या फायदा होगा?”
“‌आप यहाँ किस फायदे की उम्मीद से आए थे?”
ज्वेलर को जवाब न सूझा।
“‌फिर भी फायदा जानना चाहते हैं तो आपको ये फायदा होगा कि दो करोड़ रूपए की अदायगी चार दिन के लिए टल जाएगी।”
“‌चार दिन बहुत टेम होता है, बाप!” – इरफ़ान बोला – “‌इस दौरान ‘भाई’ को दिल का दौरा पड़ सकता है, किसी दूसरे गैंग का ज़्यादा जबर ‘भाई’ उसे शूट कर सकता है, पाकिस्तान हमला कर सकता है, वग़ैरह।”
“‌लिहाज़ा क्या पता चार दिन पूरे होने तक आप रकम की देनदारी से बरी हो जाएं!”
“‌हम्म! पिछली बार की मुलाकात के बाद से तुम्हारी बाबत मेरे को कुछ अंदाज़ा तो है, फिर भी पूछता हूँ – तुम कौन हो?”
“‌आप खाना यहीं खाना पसंद करेंगे?”
“‌मैं समझ गया।” – वो उठ खड़ा हुआ – “‌चलता हूँ। तुम्हारी हर हिदायत पर अमल करूँगा।”
“‌आई-फोन कौन-सा है आपके पास?”
“‌आई-टैन।”
“‌एक ही कनैक्‍शन है?”
“‌एक और है लेकिन उसका नम्बर सर्कुलेटिड नहीं है।”
“‌आई-फोन है?”
“‌नहीं।”
“‌दैट सूट्स मी फ़ाइन। अपना आई-टैन यहाँ छोड़ के जाइए। ‘भाई’ की काल आते ही लौटा देंगे।”
उसने नि:संकोच आदेश का पालन किया।