उस समय घण्टे ने तीन बार टन...टन... टन करके तीन बजने का संदेश दिया था। जब सब पुनः अपने-अपने बिस्तरों पर पहुंच गए तब मैंने सोचा कि यूं ही मुझे एक ख्वाब चमका है, किन्तु स्वप्न के बाद भी मेरे दिमाग में क्योंकि बराबर देव... देव होती रही इसलिए मैं थोड़ा परेशान था ।
मैं सोच रहा था ––स्वप्न में स्वयं को देव क्यों समझने लगा था ?
सोचते सोचते जब दिमाग थक गया तो सिर को एक झटका देकर मैंने स्वयं को विचारों से मुक्त किया और सोने का प्रयास करने लगा। लाइट पहले की भांति ही बुझा दी गई थी। फिर न जाने कब मेरी आंख लग गई।
आंख लगते ही पुनः वही दृश्य मेरे सामने थे।
वही खण्डहर—वही दुश्मन और दोस्त ——वही कांता—वही विस्फोट | —
मैं सबकुछ पहले की भांति देखने लगा। फिर मुझे ऐसा लगा, जैसे बुर्ज के शीर्ष पर से मुझे कांता पुकार रही है—– 'देव —–—देव —–—देव !'
और इस बार मुझे पुनः उसी प्रकार झंझोड़कर उठाया गया । पहले की भांति ही सब मुझ पर झुके हुए थे—–——इस बार सबकी आंखों में पहले से भी अधिक आश्चर्य के भाव थे। मैंने स्वयं महसूस किया——इस बार भी मैं कांता... कांता चीखता हुआ जागा हूं।
– "गुरु, बात क्या है ?" विकास इस बार बहुत गम्भीर था – “आप क्यों कांता-कांता चीखते हैं ? "
– "विकास !" मैं पहले की भांति चीखा — "कूची, रंग और एक आर्ट पेपर लाओ।"
-"क्यों ?" चकराया विकास ।
“जल्दी करो, जल्दी ।" मैं दीवाना-सा होकर चीखा — "मैं सबकुछ भूल जाऊंगा— मैं अपने सपने को आर्ट पेपर पर उतारना चाहता हूं – न जाने क्यों मेरे हाथ मचल रहे हैं — विकास, विकास मेरा दिल कह रहा है कि मैं एक आर्टिस्ट हूं— मेरा दिल तड़प रहा है। मुझे कूची दो―रंग — एक आर्ट पेपर, आर्ट बनाने के लिए मेरा दिल मचल रहा है—-मैं पागल हो जाऊंगा—-मैं पागल हो जाऊंगा- जल्दी से रंग लाओ- कूची – पेपर- मैं चित्रकार हूं – चित्र बनाऊंगा।" मैं पागलों की भांति – — चीखता जा रहा था। अजीब-सी हालत थी मेरी —–— मुझे यह भी मालूम था कि मैं क्या कह रहा हूं — यह भी जानता था कि सुनने वाले विकास, रैना, ब्लैक ब्वॉय और रघुनाथ हैं— मैं उस समय यह भी समझ रहा था कि मैं विजय हूं—लेकिन —लेकिन न जाने क्यों मुझे ऐसा भी लग रहा था कि मेरा नाम देव है — देवसिंह है। मैं एक बहुत बड़ा चित्रकार हूं— मैं महसूस कर रहा था कि मैं बहुत अच्छे अच्छे चित्र बनाता हूं। ये मुझे मालूम था कि मैं रंग – कूची इत्यादि मांग रहा था – दिल में ये भी सोच रहा था कि मैं तो विजय हूं—जासूस हूं, चित्रकार नहीं—–—मैं चीखता हुआ यह भी सोच रहा था कि मैं चीख रहा हूं—–—न चीखूं—–—कूची इत्यादि न मांगूं—किन्तु फिर भी मैं अपने नियंत्रण में नहीं था । दिमाग सोच रहा था कि मैं वह न करूं जो कह रहा हूं किन्तु लाख चेष्टाओं के बावजूद भी खुद को रोक नहीं पा रहा था । जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि मैं एक चित्रकार हूं—मेरी अंगुलियां चित्र बनाने हेतु तड़प रही हैं। मैं तड़प रहा हूं— वास्तव में मुझे ऐसा लग रहा था कि अगर मैंने चित्र नहीं बनाया तो मैं मर जाऊंगा । - कहता जा रहा था । न बड़ी विचित्र - सी हालत थी मेरी ।
मैं देख रहा था कि विकास इत्यादि मेरी बातें सुनकर घबराए से हैं। मैं चाह रहा था कि उन्हें घबराने न दूं किन्तु जो सोच रहा था, वह कर नहीं पा रहा था—यह मुझे भी मालूम था कि मैं चीख-चीखकर कूची और रंग इत्यादि मांग रहा हूं।
– "गुरु गुरु !" बुरी तरह मुझे झंझोड़कर चीखा विकास—“क्या हो गया है तुम्हें। गुरु सुनो !”
लेकिन रंग इत्यादि न मिलने पर मुझे अपने पागल होने का खतरा लग रहा था ।
जब मैं किसी प्रकार नहीं माना तो विकास भागकर दूसरे कमरे में से रंग, कूची और आर्ट पेपर ले आया।
उन्हें देखते ही मुझे ऐसा लगा, जैसे मुझे दुनिया का सबसे नायाब खजाना मिल गया है। मैंने झपटकर विकास से वे सब चीजें छीनीं और बाकी ओर से बेखबर होकर मैं आर्ट पेपर पर चित्र बनाने लगा। मुझे ये अहसास था कि वे चारों मुझे चारों ओर से घेरे खड़े हैं। मैं कुछ नहीं भूला था— मैं ये भी जानता था कि विजय हूं – किन्तु मेरी कूची किसी सधे हुए चित्रकार की भांति आर्ट पेपर पर खेल रही थी । मैं नहीं जानता था कि वह कौन-सी शक्ति थी, जो मुझसे आर्ट बनवा रही थी ।
इस दिन से पहले मैंने कभी कोई तस्वीर नहीं बनाई थी। यह बात विकास इत्यादि सभी जानते थे, किन्तु वे सभी चमत्कृत-से थे, क्योंकि पेपर पर बेहद साफ तस्वीर बनती जा रही थी। अगर तुम विश्वास करो कि मैं स्वयं आश्चर्यचकित था। मैं कुछ बनाना नहीं चाहता था । किन्तु !
मेरे मस्तिष्क से नियंत्रण मुक्त मेरे हाथों ने पेपर पर वह खण्डहर बना दिया, जो मैं दो बार स्वप्न में देख चुका था। मैं स्वयं उस समय 'चौंका, जब मैंने अपने स्वप्न में चमका खण्डहर आर्ट पेपर पर ज्यों-का-त्यों देखा — एक स्थान पर मेरी कूची ने वही बनाया था, जो मैंने स्वप्न में देखा था। वह बुर्ज जो बहुत ही आकर्षक बना था, उस खण्डहर का सबसे ऊंचा बुर्ज था । चित्र पूरा होते ही मैंने उसके एक कोने पर कूची से छोटे-छोटे अक्षरों में लिख दिया — देव।' - कदाचित उसे पढ़कर सब चौंके, विकास ने पूछ ही लिया — "गुरु ज़ी
"हूं।" मैं किसी महान चित्रकार की भांति अपनी पेंटिंग में कमी खोजते हुए बोला ।
-"ये देव कौन है ?" —“मैं |" न चाहते हुए भी मैंने कहा।
कहते समय मैं सोच रहा था कि मुझे अपना नाम विजय बताना चाहिए—मैं तो विजय हूं—मगर कमाल ये था कि यह सब चाहते हुए भी मैं स्वयं को देव ही कह रहा था — "तुम तो बिल्कुल मूर्ख हो विकास–क्या तुम नहीं जानते कि चित्र के इस तरफ हमेशा चित्रकार का नाम होता है ?" अजीब थी मेरी हालत, कहना कुछ चाहता था, कह कुछ जाता था। ये भी मुझे मालूम था कि मैं क्या कह रहा हूं—दिमाग की एक नस कहती थी कि मैं जो कुछ कह रहा हूं, ठीक कह रहा हूं, किन्तु दूसरी नस कहती थी—नहीं, मैं गलत कह रहा हूं—मेरा नाम देव नहीं, विजय है, विजय ! किन्तु सबकुछ नियंत्रण से बाहर था मेरे दिमाग में अजीब-सी परेशानी थी । –“लेकिन आपका नाम तो विजय है, गुरु !” अजीब-सी गुत्थी में उलझे हुए विकास ने कहा। दिल में आया कि कह दूं —तुम ठीक कहते हो विकास, वास्तव में मेरा नाम विजय है— मैं देव नहीं हूं। किन्तु यह मैं सोचकर रह गया, मेरा दिमाग अपनी ही आवाज सुन रहा था, मैं कह रहा था – “मेरा नाम देव है—मैं चित्रकार हूं।"
उसी समय मैंने महसूस किया ! सभी लोग मेरी बात सुनकर बुरी तरह घबरा गए हैं। मैं सोच रहा था कि मैं ये कहकर कि मैं विजय हूं, अपनी तरफ से उनकी चिन्ता समाप्त कर दूं, मैं जानता था कि वे सब मुझसे प्यार करते हैं और मेरी इस अवस्था पर बेहद चिन्तित हैं।
किन्तु लाख कोशिश के बावजूद भी मैं वह न कह सका जो सोच रहा था ।
मैं पुनः खण्डहर की उस तस्वीर को देखने लगा, जो मैंने बनाई थी। सारे खण्डहर पर से फिसलती हुई मेरी दृष्टि बुर्ज के शीर्ष पर स्थिर हो गई। उस समय मुझे जागृत अवस्था में ही ऐसा लगा — चित्र में बने हुए उस बुर्ज के शीर्ष से कांता की आवाज आ रही है -
- 'देव... देव... देव !'
आर्ट पेपर पर बने बुर्ज से पुनः कांता की आवाज निकलकर मेरे मस्तिष्क पर चोट करने लगी। मेरी अवस्था खराब होने लगी। हृदय तड़पने लगा—मेरी प्यारी कांता उस बुर्ज में से मुझे पुकार रही थी। मैं उस पुकार को सहन नहीं कर पाया और जोर से चीख पड़ा
--"आया कांता — मैं आ रहा हूं—मैं तुम्हें नहीं मरने दूंगा।"
और यह चीखते ही मैंने कूची फेंक दी। एक झटके से मैं उठकर खड़ा हो गया ।
मेरी ये हालत देखकर वे चारों और भी बुरी तरह चौंक पड़े। पागल-सा होकर मैं हॉल के दरवाजे की तरफ भागा। कांता की पुकार बराबर 'देव...देव' करके मेरे कानों में गूंज रही थी। मैं समझ रहा था कि मैं जो कुछ कर रहा हूं, गलत कर रहा हूं, किन्तु संभल नहीं पा रहा था ।
मुझे अच्छी तरह याद है – मैं भागकर हॉल से बाहर निकल जाना चाहता था कि विकास मेरे सामने अड़ गया, बोला – “क्या बात है गुरु —–—–कहां जाते हो ?"
— "कांता... अपनी कांता के पास... वो मुझे बुला रही है, विकास , रोको मत मुझे... जाने दो।"
–“आपका दिमाग खराब हो गया है, गुरु । ” चीख पड़ा विकास — “आप कहीं नहीं जाएंगे । "
— "तुम कौन होते हो मुझे रोकने वाले !" मुझे क्रोध आ गया— "मेरे और कांता के बीच जो भी आएगा, मैं जान से मार दूंगा । हट जाओ सामने से वर्ना लाश का भी पता नहीं लगेगा।" बुरी तरह खूनी होकर चीख रहा था मैं। कमाल ये है कि मैं अच्छी तरह ये महसूस कर रहा था कि मैं जो कुछ कह रहा हूं गलत है। विकास मुझे प्यार करता है। वह मेरी भलाई के लिए मुझे रोक रहा है। मुझे उससे ऐसे शब्द नहीं कहने चाहिएं, किन्तु इन सब विचारों के मस्तिष्क में होते हुए भी मैं पूरी तरह विकास का दुश्मन बना हुआ था ।
"मुझे मारकर जा सकते हो गुरु, लेकिन मेरे जीते-जी आप इस तरह अपने होश गंवाकर कहीं नहीं जा सकते।"
—" तो तुम्हें मारकर ही जाऊंगा लेकिन कांता के पास जरूर जाऊंगा।" मैं अपनी उसी स्थिति में गुर्रा उठा ।
–“भैया !" चीख पड़ी रैना – “ये आप क्या कह रहे हैं ?"
"मैं ठीक कह रहा हूं, रैना।" मैं गरजा – “या तो विकास को मेरे सामने से हटा दो, मुझे अगर कोई भी कांता के पास जाने से रोकेगा तो मैं उसकी लाश पर से गुजरकर अपनी कांता के पास चला जाऊंगा।” मैं अपने होशो-हवास में था भी और नहीं भी।
–“कांता—कांता !" पागल सा होकर चीख पड़ा रघुनाथ – “अवे बताता क्यों नहीं कांता कौन है ?”
जी में आया कि कह दूं — विकास का केक ले जाने वाली भैंस है। किन्तु कहा ये कि— "कांता मेरी जान है मेरा दिल है मेरी जिन्दगी है। मेरी सबकुछ है—वह मुझे बुला रही है —मुझे जाने दो, मेरी जिन्दगी... मेरी कांता खतरे में है। "
– "मैं नहीं हटूंगा, गुरु ।” विकास तो जिद्दी है ना, अड़ गया— “नहीं जाने दूंगा ।"
–“ले, तो मर ।” कहकर मैंने उसपर न चाहते हुए भी जम्प लगा दी। इससे पहले कि मैं विकास तक पहुंच पाता, पीछे से किसी ने मेरे सिर पर चोट मारी — चोट ब्लैक ब्वॉय ने मारी थी। मैं दर्द से तड़प उठा लहराया।
मेरे मुंह से निकला — "कांता ।"
और मैं बेहोश हो गया। उसके बाद मुझे पता नहीं रहा कि मेरे साथ क्या गुजरी।
***
आइए जरा उनका हाल देखते हैं, जो संख्या में चार थे, परन्तु अलफांसे का नाम सुनते ही उनमें से एक ने अपने ही साथी की गरदन कलम कर दी थी। अलफांसे को प्राप्त करने के लिए वे आपस में लड़ने लगे, किन्तु तभी एक नकाबपोश आया और एक बन्दर दिखाकर उन्हें भयभीत कर दिया। फिर बेहोशी का चूर्ण सुंघाकर उन्हें बेहोश कर दिया ।
उन तीनों को थोड़े से अन्तराल से अभी-अभी होश आया है।
वे कमरे में इधर-उधर देखने लगे, मगर उनके अतिरिक्त कमरा सर्वथा रिक्त था । मोमबत्ती अब भी अपने स्थान पर रखी जल रही थी । अब भी वह उतना ही प्रकाश उगल रही थी, जितना कि उनके बेहोश.. होने से पूर्व था । हां — वह छोटी अवश्य हो गई। किसी अन्य को वहां न पाकर तीनों की दृष्टि एक-दूसरे पर टिक गई ।
फिर उनकी नजर अपने साथी की लाश पर पड़ी, जिसका धड़ और सिर भिन्न दिशाओं में पड़ा था ।
—“अब सोच क्या रहे हो, मूर्खो ?" गुलशन अपने बाकी दो साथियों से बोला—‘‘अपनी मूर्खता से तुमने अलफांसे को खो दिया । "
— "तुम ही कौन से बड़े बुद्धिमान हो ।" उनमें से एक बोला—“तुम भी तो अलफांसे का नाम सुनकर पागल हो गए थे। जब नाहरसिंह ने बेनीसिंह का सर कलम किया, उस समय अलफांसे को प्राप्त करने के लिए नाहरसिंह पर तलवार तानने वाले भी तुम्हीं थे | "
—"लेकिन तुमने भी तो उसी समय मुझ पर तलवार खींच ली थी । " गुलशन ने कहा ।
" —" और क्या तुम मुझे मूर्ख समझते हो ?" वह व्यक्ति बोला – "तुम्हारी चाल मैं अच्छी तरह समझता था। मेरा नाम भीमसिंह है। यह जानते ही कि वह आदमी अलफांसे है, तुमने सोचा कि उसे तुम ही गिरफ्तार करो और गौरवसिंह तुम्हें अपना सेनानायक बना ले। जो विचार तुम्हारे दिमाग में आ सकता है, मेरे दिमाग में वह पहले ही आ जाता है। "
– "इसका मतलब तुम भी उसे गिरफ्तार करके अकेले ही गौरवसिंह के पास ले जाना चाहते थे ?" गुलशन ने कहा ।
-“अब छोड़ो भी इन बातों को।" एकाएक नाहरसिंह उनके बीच में बोला – “असल बात तो ये है कि हम तीनों को लालच ने अंधा कर दिया था। हम तीनों के दिमाग में लालच एक ही था । मैं तो इतना अंधा हो गया कि अपने ही दोस्त बेनीसिंह को मार डाला । उधर उस समय तुम दोनों की बुद्धि भी कुण्ठित हो गई थी। अलफांसे को सामने पाकर ही हम तीनों लालच में इतने अंधे हो गए कि अपनी दोस्ती, अपना भाईचारा सभी कुछ भूल गए और एक-दूसरे की जान के ग्राहक बन गए । हमने पहली मूर्खता ये की कि हम एक-दूसरे से ही लड़ने लगे। हम तीनों ही की मूर्खता का लाभ उठाकर वह नकाबपोश अलफांसे को ले गया। इस समय हम बेकार की बातों में समय गंवाकर दूसरी भूल कर रहे हैं । जरा बेहोश होने से पहले की घटना याद करो – क्या इस समय हम बहुत बड़े खतरे में नहीं हैं ?" — — " नाहरसिंह ठीक कहता है । " भीमसिंह ने समर्थन किया – “हम पिछली घटना में बराबर के गुनहगार हैं। हमें वह घटना भूल जानी चाहिए, अगर हममें फूट रही तो वह नकाबपोश हम तीनों को ही समाप्त कर देगा । हमारे हित में यही है कि हम संगठित हो जाएं और उस नकाबपोश का पता लगाएं । ”
– “मुझे तो अभी तक वह बंदर याद आ रहा है, जो उसने हमें दिखाया था । " गुलशन ने कहा – “लेकिन मुझे लगता है कि वह अब हमें नहीं छोड़ेगा ।"
– "गुलशन ठीक कहता है । " भीमसिंह बोला— “अगर उसने खण्डहर का राज खोल दिया तो हम तबाह हो जाएंगे । "
-"हमें इस तरह घबराना नहीं है।" नाहरसिंह बोला – “अगर हम इसी तरह हाथ पर हाथ रखकर बातें करते रहे तो निश्चय ही वह हमें बरबाद कर देगा । हमें पता लगाने की कोशिश करनी चाहिए कि वह कौन था। उसे खण्डहर का रहस्य क्यों जान पड़ा और हमारे खिलाफ क्या करना चाहता है। यह सब पता लगाकर हमें कोशिश करनी चाहिए कि वह किसी प्रकार गौरवसिंह तक न पहुंच सके–हम तीन हैं और वह अकेला । इस बार हमें उससे डरना नहीं चाहिए बल्कि उसे समाप्त कर देना चाहिए, ताकि हम बर्बाद होने से बच जाएं।"
- "मगर हम उसे ढूंढ़ेंगे कहां ——– अगर वह पहले ही गौरवसिंह के. पास पहुंच गया तो...?"
–“उसका पता मैं तुम्हें बता सकती हूं।" अचानक वहां मधुर नारी स्वर गूंजा – “अगर तुम खुद को बचाना चाहते हो तो मैं तुम्हारी मंदद जरूर करूंगी। मैं तुम्हें ये भी बता सकती हूं कि वह कौन था और इस समय वह कहां है ?"
तीनों ने आश्चर्य के साथ पलटकर दरवाजे की ओर देखा। वहां एक सुन्दर-सी लड़की खड़ी थी। उस पर दृष्टि पड़ते ही वे चारों एकदम उछलकर खड़े हो गए और एक साथ तीनों के मुख से निकला — "नसीम बानो !"
–“बोलो।" मुस्कराती नसीम बानो आगे बढ़ती हुई बोली – “क्या आप लोग इस मामले में मेरी मदद लेने के लिए तैयार है ?"
— "परन्तु तुम हमारी मदद करने के लिए क्यों तैयार हो ?” भीमसिंह उसे घूरता हुआ बोला — "तुम तो ।" -
- - "उस बात को छोड़ो भीमसिंह, मेरी बात का जवाब दो।" नसीम बानो कठोर स्वर में बोली – “अगर तुम मेरी मदद प्राप्त करना चाहते हो तो मैं तुम्हें उसका नाम बता सकती हूं, अगर नहीं चाहते तो मैं चलती हूं, मगर यह जरूर बताकर जाऊंगी कि आज की रात समाप्त होने के बाद जैसे ही सुबह होगी, गौरवसिंह को सारे रहस्य का पता लग जाएगा।"
' — "लेकिन, हम यह नहीं समझे कि तुम हमारी मदद क्यों करना चाहती हो ?" गुलशन ने पूछा ।
-"क्योंकि तुम्हारे पास रक्तकथा है। " नसीम बानो ने जैसे धमाका किया — "तुम्हारी जान बचाने की कीमत रक्तकथा मांगती हूं। मैं अच्छी तरह जानती हूं कि रक्तकथा के विषय में तुम अन्जान बनने का नाटक करोगे। कहोगे कि तुम्हारे पास रक्तकथा नहीं है, बल्कि रक्तकथा वस्तु क्या है—तुम नहीं जानते, लेकिन मेरे सामने ये धोखा नहीं चलेगा— मैं ये ये अच्छी तरह जानती हूं कि दो मास पहले तुम पिशाचनाथ के नौकर थे—बड़ी कठिनता से पिशाचनाथ ने वह रक्तकथा प्राप्त की थी —– उसने रक्तकथा को अपने घर के छोटे-से तिस्लिम में रखा । पिशाच अपने काम के सिलसिले में बाहर जाता रहता था और तुम उसके नौकर होने के कारण घर में रहते थे, ये मैं नहीं जानती कि तुम किस प्रकार से गौरवसिंह से मिल गए। उससे मिलकर तुमने अपने मालिक यानी पिशाच से नमकहरामी की और वह रक्तकथा उस छोटे-से तिस्लिम में से निकाल ली। पिशाच के घर में रहने के कारण तुम उस तिलिस्म के रहस्यों से परिचित थे। अतः तुम्हारे लिए रक्तकथा प्राप्त करना अधिक कठिन नहीं था, रक्तकथा प्राप्त करने के बाद तुमने गौरवसिंह को... | '
"नहीं... नहीं !" भीमसिंह एकदम चीख पड़ा – “आगे कुछ मत कहना नसीम बानो, हम... हम तबाह हो जाएंगे।"
–“तो फिर बोलो।" अपनी सफलता पर मुस्कराकर बोली नसीम बानो– “रक्तकथा तुमने कहां रखी है और उसे मुझे दोगे या नहीं?"
—“बिलकुल नहीं । " एक चौथी रहस्यमय आवाज कमरे में गूंजी — "तुम तीनों हमारी बात कान खोलकर सुन लो —–— रक्तकथा इसे बिलकुल मत सौंप देना, वर्ना तुम इसी समय मर जाओगे । वह नकाबपोश यह नसीम बानो ही है जिसने तुम्हें बन्दर दिखाया था और कुछ ही देर पहले तुमसे अलफांसे को छीनकर ले गई है। अब इस रूप में यह तुमसे रक्तकथा भी प्राप्त करना चाहती है।"
– "कौन हो तुम —क्या बकते हो ?" नसीम बानो एकदम घबराकर चारों ओर देखती हुई बोली ।
*****
0 Comments