अजय की टार्च की रोशनी नीलम के चेहरे पर केन्द्रित थी। और वह यूं अब तक उसे देखे जा रहा था मानो पहली दफा देख रहा है।

अचानक अजय चौंका। नीलम का धीरे–धीरे उठता–गिरता वक्ष इस बात का सबूत था कि उसकी सांसें चल रही थीं। लेकिन इसके अलावा जीवन का अन्य कोई चिन्ह उसमें नजर नहीं आ रहा था। नीलम का पीला पड़ा हुआ चेहरा शांत था। किसी प्रकार की पीड़ा या यातना का कोई चिन्ह उस पर नहीं था। प्रत्यक्षतः वह आराम से सोई प्रतीत होती थी। लेकिन चेहरे पर टार्च की रोशनी केन्द्रित होने के बावजूद उसका आंखें तक न खोलना और शरीर में अन्य किसी प्रकार की हरकत न होना अपने आपमें बेहद अजीब था।

मन ही मन कुछ निश्चित करते हुए अजय ने कमरे का दरवाजा भीतर से बन्द करके लॉक किया, फिर वह बिस्तर के पास पहुंचा।

–"नीलम।" वह उसका गाल छूता हुआ बोला–"उठो।"

लेकिन नीलम पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। वह पूर्ववत , निश्चल पड़ी धीमी–धीमी सांसें लेती रही।

अजय ने जोर से आवाज लगाई। उसे झिंझोड़ा। मगर नीलम पर जरा भी असर हुआ नजर नहीं आया।

अजय समझ नहीं पा रहा था माजरा क्या है। जोर–जोर से झिंझोड़ने का भी कोई प्रभाव नहीं हुआ तो उसने नीलम के ऊपर पड़ा कम्बल अलग हटाया। मगर फौरन ही वह इस बुरी तरह चौंका कि उसके हाथ से कम्बल छूट गया।

कम्बल के नीचे नीलम पूर्णतया नग्न थी। कपड़ों के नाम पर एक चिन्दी भी उसके जिस्म पर नहीं थी।

इस प्रयास में एक और भी चीज उसे नजर आ गई। नीलम की बायीं कलाई में हथकडीनुमा एक कंगन फंसा हुआ था। उस हथकड़ी का दूसरा सिरा पलंग के मोटे पाए में मजबूती से गड़ा हुआ था। हथकड़ी और पाए के बीच लोहे की एक मजबूत पिन थी, जिसकी लम्बाई इतनी थी कि नीलम अपने हाथ को सुविधानुसार हिला तो सकती थी मगर स्वयं को पलंग से जुड़ी हथकड़ी से अलग नहीं कर सकती थी।

अजय, मन–ही–मन नीलम को कैद किए जाने के ढंग की तारीफ किए बगैर भी न रह सका। अगर वह किसी प्रकार स्वयं को हथकड़ी से मुक्त कराने में कामयाब हो जाती तो भी बाहर से लाक्ड होने की वजह से कमरे से नहीं निकल सकती थी। और अगर किसी तरह कमरे से भी निकल जाती तो भी पूर्णतया नग्न होने के कारण वह कोठी से बाहर जाने के बारे में सोच भी नहीं सकती थी और फिर हैंडबैग पास में न होने की वजह से पैसे की भी समस्या सामने आनी थी।

कुल मिलाकर नतीजा यह था उसकी आजादी नामुमकिन होने की हद तक मुश्किल थी।

अजय ने बेकार खड़ा रहकर वक्त जाया करने की बजाय नीचे झुककर नीलम की बांह कम्बल से बाहर निकाली। उसकी कलाई में फंसी हथकड़ी के लॉक का मुआयना किया। फिर जेब से वो चाबी निकाली जो अविनाश के कमरे में ड्रेसिंग टेबल पर पड़ी मिली थी। उस चाबी से हथकड़ी आसानी से खुल गई और नीलम की कलाई मुक्त हो गई।

अजय ने एक बार फिर उसे बुरी तरह झंझोड़कर जगाने की कोशिश की। मगर, बेकार। नीलम की हालत में कोई तब्दीली नहीं आई।

अन्त में कुछ सोचकर, अजय ने नीलम की पलकें ऊपर उठाकर बारी–बारी से उसकी आंखें चैक की तो उसकी उस हालत की असली वजह समझ में आ गई। नीलम किसी ड्रग संभवतया मार्फीन के तगड़े प्रभाव में थी। उसे जगाने की कोशिश करना बेकार वक्त जाया करना था।

अजय बिस्तर के पास से हटा, सावधानीपूर्वक बाहर निकला, और उसी प्रकार दोनों कमरों में जाकर नीलम के तमाम कपड़े, हैंडबैग वगैरह सहित वापस उसी कमरे में लौट आया।

नीलम को कपड़े पहनाने के बाद वह चन्द क्षण खड़ा सोचता रहा। फिर बाहर निकला। दरवाजा पुनः बाहर से लॉक करके सीढ़ियों द्वारा फर्स्ट फ्लोर पर आ गया।

अविनाश का कमरा उसी प्रकार लॉक था वह ताला खोलकर भीतर दाखिल हुआ और लाइट ऑन कर दी।

पहले की भांति बंधे पड़े अविनाश को उसने फटी–फटी आंखों से अपनी ओर देखता पाया।

अजय को अपने मेकअप पर पूरा भरोसा था। सिख भेष में और चौड़े फ्रेम की ऐनक लगी होने की वजह से अविनाश द्वारा पहचाना जाना नामुमकिन था। अलबत्ता उसने नोट किया अविनाश की हैरानगी तो अपनी चरम सीमा पर थी मगर वह भयभीत नजर नहीं आता था।

अजय ने दरवाजा बन्द करके अपनी जेब से अविनाश की पिस्तौल निकाली और उस पर तान दी।

अविनाश की आंखों में व्याप्त हैरानगी का स्थान असमंजसता ने ले लिया।

–"अगर तुमने मेरे सवालों के सच–सच जवाब नहीं दिए।" अजय अपना स्वर बदलकर पंजाबी लहजे में चेतावनी देता हुआ बोला–"तो मैं तुम्हें शूट कर दूंगा।"

प्रतिक्रियास्वरूप अविनाश के चेहरे पर प्रश्नात्मक भाव उत्पन्न हो गए।

अजय ने उसके मुंह पर बंधी पट्टी खोल दी और अन्दर ठुँसा कपड़ा निकालकर अलग फैंक दिया।

–"कौन हो तुम?" अविनाश ने अपने सूखे होंठों पर खुश्क हो गई जुबान फिराते हुए पूछा।

अजय ने जवाब देने की बजाय पूछा–"तुमने रंजना दीवान की हत्या क्यों की थी?"

–"मैंने उसकी हत्या नहीं की।" अविनाश सिर हिलाकर इन्कार करता हुआ बोला।

–"बको मत। मैं जानता हूं उसका गला तुमने ही काटा था। तुम्हीं उसके हत्यारे हो।"

–"नहीं।"

–"झूठ मत बोलो।" अजय गुर्राकर बोला–"मैं यह भी जानता हूं तुमने अचानक बिना कोई वार्निंग दिए उस पर हमला किया और उसकी जान ले ली थी।"

–"नहीं, मैंने ऐसा नहीं किया।"

–"फिर क्या किया था?"

–"कुछ नहीं।"

–"बको मत! रंजना दीवान के हत्यारे तुम्हीं हो। पुलिस भी इस बात को जानती है। तुम खुद पुलिस को बुलाना पसंद करोगे या फिर मैं उन्हें यह भी बता दूं तुमने रिपोर्टर अजय कुमार की कुलीग नीलम को कैदी बनाकर यहां रखा हुआ है?"

अविनाश का चेहरा फक्क पड़ गया।

–"क...कौन हो तुम?"

–"मैं तो वही हूं जो तुम्हें नजर आ रहा हूं।" अजय का बदला हुआ स्वर कठोर और लहजा सर्द था–"लेकिन अजय से तुम अच्छी तरह वाकिफ नहीं लगते। वह जितना बढ़िया आदमी है वक्त पड़ने पर उतना ही खतरनाक भी हो जाता है। अगर उसे पता चल गया नीलम यहां और तुम्हारे कब्जे में है तो वह तुम्हारी वो गत बनाएगा उम्र भर भुला नहीं पाओगे। मैं जान सकता हूं, तुमने नीलम को किडनैप क्यों किया?"

अविनाश कुछ नहीं बोला।

–"तुम्हें जवाब देना ही पड़ेगा।" अजय पिस्तौल की नाल से उसकी कनपटी पर टहोका लगाता हुआ बोला–"तुमने नीलम का अपहरण क्यों किया? आखिर, अजय ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था?"

–"उसने दीवान पैलेस में सेंधमारी की थी।" अविनाश कठिन स्वर में बोला। फिर तनिक रुकने के बाद कहा–"देखो, तुम जो भी कोई हो, गलतफहमी का शिकार हो रहे हो। रंजना की हत्या से मेरा कोई वास्ता नहीं है। उसकी हत्या भी अजय ने ही की थी।"

अजय उसे घूरने के अलावा कुछ नहीं कर सका। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कहे भी तो क्या?

–"यकीन मानो, अजय ने ही रंजना का खून किया था।" अविनाश फंसी–सी आवाज में बोला–"मैं...।" एकाएक वह खामोश। हो गया और जोर–जोर से सिर हिलाकर इन्कार करने के बाद होंठों पर जीभ फिराकर बोला–"मैं सच कह रहा हूं, अजय सेंध लगाकर दीवान पैलेस में दाखिल हुआ था। उसी ने ही...।"

सिख भेषधारी अजय के होंठ क्रूरतापूर्ण मुस्कराहट में खिंच गए। साथ ही पुनः अविनाश की पिस्तौल ने उसकी कनपटी पर टहोका लगा दिया। फलस्वरूप अविनाश पुनः अचानक चुप हो गया और बड़ी ही बेचारगी से उसकी ओर देखने लगा।

–"तुम्हारे किसी बहकावे में आने वाला मैं नहीं हूं।" अजय हिकारत भरे लहजे में बोला–"मुझे अपने दो सवालों के जवाब चाहिए। नम्बर एक तुमने रंजना की हत्या क्यों की? दूसरे, नीलम का अपहरण क्यों किया? उसने चन्द क्षण रुककर इन्तजार किया। अविनाश को जवाब देता न पाकर बोला–"तुम शायद मुझे गलत समझ रहे हो। दरअसल रंजना की मौत से खास कुछ भी लेना–देना मुझे नहीं है। मैं तो बस इतना जानना चाहता हूं उसकी हत्या से तुम्हें फायदा क्या हुआ और अजय से तुम्हें क्या खुंदक है? जवाब दो अविनाश। सहसा अजय का स्वर हिंसक हो गया–"अजय से मुझे भी अपना एक पुराना हिसाब चुकाना है। हो सकता है तुम्हारी मदद से मैं भी अपने मकसद में कामयाब हो जाऊं। संक्षिप्त मौन के पश्चात् उसने पूछा–"क्या तुम पुलिस के सामने हलफ लेकर इस बात को कबूल कर सकते हो कि अजय ने दीवान पैलेस में सेंध लगाई थी?"

अविनाश ने जवाब नहीं दिया।

इस सारी नाटकीयता के पीछे अजय का मकसद अविनाश को यह यकीन दिलाना था कि सिख भेषधारी वह और अजय दो 1 अलग–अलग व्यक्ति हैं और वह अजय का इस कदर दुश्मन है कि उसका पुलन्दा बंधवाना चाहता है। उसे उम्मीद थी इस मनोवैज्ञानिक प्रभाव से ही अविनाश असलियत उगल सकता है।

उससे असलियत उगलवाना जरूरी था।

अजय ने पिस्तौल पर और थोड़ा दबाव बढ़ाया।

–"तुम पुलिस को सेंधमारी के बारे में बताओगे?"

अविनाश चुप ही रहा।

उसकी चुप्पी की वजह साफ जाहिर थी। पुलिस को सेंधमारी के बारे में बताना यह कबूल करना है कि दीवान पैलेस में चोरी की पुरानी कलाकृतियां, जवाहरात वगैरह का विशाल संग्रह मौजूद है।

–"यानी तुम ऐसा नहीं करोगे।" अजय हिंसक स्वर में बोला–"क्योंकि तुम्हें डर है, इस तरह पुलिस को दीवान पैलेस में मौजूद स्ट्रांग रूम का पता चल जाएगा। दरअसल यह रिस्क लेने से पहले तुम्हें स्ट्रांग रूम को खाली करना पड़ेगा और यह काम तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि पुलिस की सरगर्मी खत्म नहीं हो जाती। मानना पड़ेगा तुम जरूरत से ज्यादा चालाक हो, अविनाश। लेकिन मैं तुम्हें एक और बात बताना चाहता हूं। पुलिस को स्ट्रांग रूम के बारे में गुमनाम जानकारी मैं भी दे सकता हूं और इंस्पैक्टर अजीत सिंह को ऐसी किसी जानकारी की तलाश भी है। मगर मैंने जानबूझकर ऐसा नहीं किया, क्योंकि मेरी समझ में नहीं आ रहा है तुमने रंजना का खून क्यों किया...।"

अचानक अजय चौका और खामोश हो गया। अविनाश के चेहरे पर घबराहट और हैरानगी की बजाय ऐसे भाव नजर आने लगे थे मानो वह इस स्थिति से एनज्वाय करने लगा था। अजय को भांपते देर नहीं लगी कि वह कोई गलत बात कह बैठा था और यह बात इतनी गलत थी कि अविनाश काफी हद तक बेफिक्र नजर आने लगा था।

–"तुम जो भी कोई हो, बेवकूफ हो।" अविनाश मुस्कराता सा बोला–"और बेकार अटकलें लगा रहे हो...।"

तभी बिस्तर के सिरहाने की तरफ दीवार में लगे किसी बजर से तेज आवाज उभरी। अविनाश के शेष शब्द उसी आवाज में दबकर रह गए और उसकी आंखों में घबराहट के भाव नजर आने लगे।

अजय भी बुरी तरह चौक गया था।

–"यह कैसी आवाज थी। उसने तीव्र स्वर में पूछा।

–"अलार्म बैल की थी।" अविनाश व्याकुलतापूर्वक बोली–"बाहर मेरे दो आदमी कोठी की निगरानी कर रहे हैं। उन्हीं में से एक ने सूचना दी है। पुलिस आ गई लगती है।"

या फिर उस गार्ड को किसी प्रकार, कोठी में मेरी मौजूदगी का पता चल गया है। अजय ने मन–ही–मन सोचा।

वह फौरन पलटकर दरवाजे पर पहुंचा।

बाहर कदमों की आहट सुनाई देने लगी थी।

अजय ने पिस्तौल अविनाश की ओर तानी और मुंह पर उंगली रखकर उसे चुप रहने का संकेत कर दिया।

कदमों की आहट बाहर दरवाजे के पास आ पहुंची थी।

अजय ने स्वयं को आड़ में रखते हुए दरवाजा थोड़ा खोलकर तीव्र स्वर में पूछा–"क्या बात है?"

–"आगंतुक फौरन बाहर ही रुक गया।

–"पुलिस आ गई है, जनाब।" वह बहुत ही फंसी–सी आवाज में बोला–"कोठी की निगरानी की जा रही है। पीछे मौजूद सुंदर पर वे लोग काबू पा चुके हैं। मैं पोर्च में खड़ी कार की आड़ में होने की वजह से उनकी आंखें बचाकर अन्दर आ गया। वे दो आदमी हैं। उनमें से एक सामने की तरफ है और दूसरा पीछे की ओर।

–"अन्दर आओ।" अजय ने भारी स्वर में आदेश दिया।

आगंतुक कमरे में दाखिल हुआ ही था कि दरवाजे के पीछे खड़े अजय ने उसकी खोपड़ी के पृष्ठ भाग पर पिस्तौल की नाल से नपा–तुला वार कर दिया।

उसके मुंह से कराह तक नहीं निकली और वह बेहोश होकर नीचे जा गिरा।

अजय ने पहले अविनाश के मुंह में कपड़ा ठूसकर पुनः ऊपर से पट्टी बांध दी। फिर अविनाश के ड्रेसिंग गाउन की डोरी से उस दूसरे आदमी के भी हाथ–पैर मजबूती से बांधे। उसके मुंह में उसी की जुराबें उतारकर और ऊपर से रुमाल कसकर बांध दिया।

अब वे पूरी तरह असहाय थे।

अजय ने लाइट ऑफ की और कमरे से निकलकर दरवाजा लॉक कर दिया।

पुलिस ने सिर्फ कोठी को वाच ही करना था। अगर उनका इरादा अन्दर आने का होता तो चोरों की तरह दो आदमी भेजने की बजाय उन्होंने दल–बल सहित आना था और अब तक वे भीतर भी दाखिल हो चुके होते।

अजय को अपना यह अनुमान काफी हद तक सही प्रतीत हो रहा था। मगर इस आधार पर रिस्क लेने के पक्ष में वह नहीं था। उसकी बेहतरी इसी में थी कि जल्दी से जल्दी नीलम सहित कोठी से बाहर निकल जाए।

वह सीढ़ियों द्वारा दूसरे खंड पर पहुंचा।

लीना के कमरे के सम्मुख पहुंचकर आहट ली। फिर दरवाजा खोलकर भीतर दाखिल हो गया।

लीना की गहरी सांसें उसके पूर्ववत् सोयी पड़ी होने का सबूत थी।

दरवाजा बन्द करके ज्योंहि अजय ने लाइट ऑन की लीना जाग गई। एक अपरिचित सिख को अपने सामने मौजूद पाकर वह हड़बड़ाकर तुरन्त उठ बैठी, उसका चेहरा फक्क पड़ गया था। और आंखें आतंक से फटी जा रही थीं। उसने चीखने के लिए मुंह खोला ही था कि अजय उसके पास जा पहुंचा।

–"चीखना मत!' वह उस पर पिस्तौल तानता हुआ बदले स्वर में गुर्राकर बोला–"वरना शूट कर दूंगा।"

लीना ने तुरन्त अपने होंठ कसकर भींच लिए।

–"तुम्हारे पास कार है?" अजय ने जानते हुए भी पूछा।

लीना ने सिर हिलाकर सहमति दे दी।

–"चाबियां कहां हैं?" अजय ने पूछा।

लीना ने बैड साइड टेबल पर टेलीफोन उपकरण की बगल में रखे अपने पर्स की ओर सिर हिलाकर इशारा कर दिया। फिर फंसी–सी आवाज में बोली–"अभी निकालती हूँ।"

लेकिन उधर देखने की बजाय अजय की आंखें बराबर उसी पर जमी रहीं। वह लीना को कोई शरारत करने का मौका देना नहीं चाहता था।

–"नीचे उतरो।" वह बोला।

लीना को आदेश का पालन करना पड़ा। वह कंबल खिसका कर बिस्तर से उतर गई। वह मात्र एक झीना–सा गाउन पहने थी जिससे उसका पुष्ट–सुडौल जिस्म काफी हद तक नुमाया हो रहा था।

लेकिन अजय ने उस तरफ ध्यान न देकर दूसरा आदेश दिया।

–"मेरी ओर से पीठ करके सामने वाली दीवार पर दोनों हाथ रखकर खड़ी हो जाओ।"

विवश लीना को पुनः आदेश का पालन करना पड़ा।

अजय ने मन–ही–मन फोन नम्बर नोट करते हुए उसका पर्स खोला। चाबियां निकालते वक्त वह अनायास ही मुस्कराने पर विवश हो गया। पर्स में एक पिस्तौल भी थी। वह समझ गया कि लीना चाबियों के बहाने पिस्तौल निकालना चाहती थी। इसलिए उसने पूछते ही चाबियां निकालने की पेशकश की थी। चाबियों के साथ–साथ पिस्तौल भी निकालते हुए उसने पूछा–"कार खड़ी कहां है?"

–"पोर्च में।"

–"सच कह रही हो?"

–"हाँ।"

अजय को याद आया अलार्म बैल के बाद जो आदमी अविनाश के कमरे में पहुंचा था उसने भी पोर्च में कार खड़ी होने का हवाला दिया था।

–"थैंक्यू!'' वह बोला–"यादगार के तौर पर तुम्हारी पिस्तौल मैं साथ ले जा रहा हूं।" लीना ने पलटकर देखना चाहा तो उसने टोक दिया–"ऐसी गलती मत करना।"

लीना काफी हद तक संयत हो चुकी थी।

–"लेकिन तुम कौन हो?" उसने गुस्से से होंठ चबाते हुए पूछा।

–"वही! जो तुम्हें नजर आ रहा हूं।" कहकर अजय भूत की तरह निःशब्द रेंगता हुआ उसके सिर पर जा पहुंचा और उसे सम्भलने का मौका दिए बगैर उसकी गरदन के खास हिस्से पर अपने खुले हाथ के सिरे से वार कर दिया।

लीना के कंठ से कराह निकली और उसका जिस्म लहरा कर नीचे गिरने लगा।

अजय ने उसे बाहों में संभाला और उसके अचेत शरीर को उठाकर बिस्तर पर डाल दिया।

एहतियात बरतना जरूरी था। मजबूरन अजय को उसके भी हाथ–पैर बांधकर उसके मुंह में कपड़ा ठूस देना पड़ा।

कमरे से बाहर आकर उसने दरवाजा लॉक कर दिया।

फिर वह नीलम के कमरे में पहुंचा। बेहोशी की नींद सोती नीलम को उठाकर अपने कंधे पर लादा, उसका पर्स उठाया और एहतियातन पिस्तौल भी हाथ में रखी।

सीढ़ियां तय करके नीचे प्रवेश हाल में पहुंचने में कोई दिक्कत उसे नहीं हुई।

हाल में अंधेरा था। अजय ने नीलम को एक तरफ दीवार के पास कारपेट पर लिटा दिया।

उसने बन्द प्रवेश द्वार से कान लगाकर सुनने की कोशिश की। लेकिन किसी प्रकार की आहट सुनाई नहीं दी।

उसने प्रवेश द्वार की सिटकनी गिरा दी। फिर बार–बार आहट लेने की कोशिश करते हुए इंच–इंच करके थोड़ा–सा दरवाजा खोला।

बाहर, पोर्च में, ठीक सामने खड़ी एक मारुति कार की ड्राइविंग वाली साइड नजर आ रही थी।

अजय ने दरवाजे से बाहर सिर निकालकर दाएं–बाएं नीम अंधेरे में देखने की कोशिश की। लेकिन उसे कोई नजर नहीं आ सका।

मेन गेट के आस–पास भी किसी की मौजूदगी का आभास नहीं मिला।

अजय दरवाजे से बाहर आ गया।

सामने वाली दीवार के साथ चिपककर वह सुनने की कोशिश करने लगा।

कोठी की गार्डन वाली साइड की ओर से उसे धीमी–सी आवाजें आती सुनाई दी।

वह जरा भी आहट किए बगैर दीवार के साथ चलता हुआ उस तरफ के कोने पर जा पहुंचा। चन्द क्षण दम साधे खड़ा रहा फिर धीरे–धीरे गरदन आगे करके आवाजों की दिशा में देखा।

कोठी की उस तरफ की दीवार के लगभग आखिरी सिरे के पास खड़े दो सायों को देखते ही उसने तुरन्त अपनी गरदन खींच ली।

किस्मत उसका साथ दे रही थी। कोठी की निगरानी करने वाले दोनों पुलिस मैन एक जगह खड़े बातें कर रहे थे।

अजय के लिए यही सुनहरी मौका था।

वह फौरन वापस लौटा।

लीना से प्राप्त चाबियों द्वारा उसने मारुति के दरवाजे खोले, फिर प्रवेश हॉल में जाकर नीलम को उठा लाया और उसे कार की पिछली सीट पर अधिकतम आरामदायक स्थिति में लिटाकर दरवाजा बन्द करके लॉक कर दिया और फिर स्वयं ड्राइविंग सीट पर बैठ गया।

अभी तक सारे काम उसने भूत की तरह निःशब्द किए थे। लेकिन अब इंजन स्टार्ट करने में शोर तो होना स्वाभाविक था।

अजय ने यथासंभव फुर्ती दिखाते हुए इंजन स्टार्ट करके कार बाहर जाने वाले गेट की ओर जिधर कार का रुख था, दौड़ा दी।

संयोगवश गेट खुला हुआ था।

रिअर व्यू मिरर में उसे मानवाकृतियां कार के पीछे भागती दिखाई दी।

लेकिन गेट से बाहर आते ही अजय ने कार दायीं ओर घुमाई और लगातार स्पीड बढ़ाते हुए शहर की ओर ड्राइव करने लगा।

उसकी आंखें बराबर रियर व्यू मिरर पर लगी थीं। मगर पीछा किया जाने का कोई चिन्ह नजर नहीं आ रहा था।

नीलम के गायब होने के बाद से उसने पहली बार सही मायने में राहत महसूस की।

अपने अगले कदम के बारे में सोचते हुए वह सार्वजनिक टेलीफोन की सुविधा की तीव्र आवश्यकता अनुभव कर रहा था।

करीब दस मिनट बाद, उसने एक पैट्रोल पम्प से कुछ दूर कार रोकी और नीचे उतरकर टेलीफोन बूथ में जा घुसा।

उसने अरुण का नम्बर डायल किया।

जवाब में दूसरी ओर लगातार घंटी बजती रही।

तीन दफा ट्राई करने पर भी अंजाम वही रहा तो उसका माया ठनका।

उसने होटल अलंकार में रिसेप्शन से सम्बन्ध स्थापित करके अपना असली परिचय देने के बाद पूछा क्या उसके लिए कोई. मैसेज है? रिसेप्शनिस्ट ने जवाब में बताया मि० अरुण कुमार ने आकर मैसेज छोड़ा था कि उसे हैड आफिस द्वारा बुलाया गया है इसलिए वह विराट नगर जा रहा है।

इस अप्रत्याशित समाचार ने अजय को बुरी तरह बौखला, दिया। मौजूदा हालात में उसे अरुण की मदद की फौरन सख्त जरूरत थी। वह झुंझलाहट में रिसीवर हुक पर लटकाने ही वाला था कि दूसरी ओर से रिसेप्शनिस्ट का स्वर आता सुनाई दिया।

–"आपके लिए एक खुशखबरी है, मि० कुमार। विराट नगर से आपके दोस्त आए हुए हैं। हमने उन्हें आपके बगल वाला रूम सुइट दे दिया है।

अजय चकराया।

–"मेरा दोस्त?"

–"यस सर। इजन्ट मि० केसवानी युअर फ्रेंड?"

दिलीप केसवानी।

अजय का तमाम क्रोध और व्याकुलता काफूर हो गए। उसकी आंखें खुशी से चमक उठीं।

–"ओह यस।" वह पुलकित स्वर में बोला–"ही इज ए वैरी गुड फ्रेंड ऑफ माइन। थैंक्यू वैरी मच फार दी इन्फॉर्मेशन।" और सम्बन्ध विच्छेद कर दिया।

अजय ने आपरेटर के माध्यम से केसवानी से सम्बन्ध स्थापित किया।

अजय द्वारा परिचय दिए जाते ही दिलीप का उत्सुकतापूर्ण स्वर लाइन पर उभरा।

–"कहां हो? मैं तुम्हारे इंतजार में यहां सूख रहा हूं।"

–"मेरी फिक्र मत करो, मैं...।"

–"तुम कुछ मत बताओ। मैं सब–कुछ जानता हूं।"

–"क्या मतलब?"

–"विराट नगर जाने से पहले अरुण कुमार तुमसे मिलने यहां होटल में आया था। वह मुझसे भी परिचित है। इत्तफाक से मुझसे उसकी मुलाकात हो गई। जब मैंने उसे बताया मेरे यहां आने की वजह भी वही है तो उसने मुझे सब–कुछ बता दिया। अब तुम बताओ, नीलम मिल गई?"

–"हां, लेकिन वह किसी तगड़े नशे के प्रभाव में है।" अजय ने जवाब दिया–"अब तुम मेरी बात ध्यान से सुनो।" और पैट्रोल पम्प से कोई मील भर दूर स्थित एक चर्च का पता बताने के बाद बोला–"तुम टैक्सी लेकर आ जाओ। नीलम तुम्हें उस चर्च की बायीं दीवार के पास लेटी मिलेगी। समझ गए?"

–"हां।"

–"फौरन आ रहे हो?"

–"हां।"

–"अगर नीलम को डॉक्टरी सहायता की जरूरत पड़े तो?"

–"तुम फिक्र मत करो। वो सब मैं संभाल लूंगा।"

–"ओ० के० दैन। बाय!"

अजय सम्बन्ध विच्छेद करके बूथ से बाहर निकला।

कार में सवार होकर वह चर्च की ओर ड्राइव करने लगा। पिछली सीट पर पड़ी नीलम उसी प्रकार बेहोशी की नींद में सोती रही।

अजय पिछली सड़कों से होता हुआ चर्च के पास वाली साइड स्ट्रीट में पहुंचकर इंतजार करने लगा।

जब उसे लगा कि दिलीप पहुंचने ही वाला होगा तो उसने पिछली सीट पर पड़ी नीलम को उठाया और चर्च की दीवार के पास लिटा दिया।

वह खुद एक बड़े पेड़ के पीछे जा खड़ा हुआ।

ठीक तभी पुलिस की दो पैट्रोल कारें रहमान स्ट्रीट की दिशा में तेजी से जाती दिखाई दीं। प्रत्यक्षतः वे कारें निगरानी करते पुलिस मैनों की काल के जवाब में उन्नीस नम्बर की कोठी की ओर जा रही थीं।

अजय ने मन–ही–मन भगवान को धन्यवाद दिया वह खुद, मारुति और नीलम इस स्थिति में थे कि सड़क से गुजरने वालों की आसानी से उनमें से किसी पर भी निगाह नहीं पड़ सकती।

चन्द मिनटोपरांत शहर की दिशा से आती एक टैक्सी चर्च के पास रुकी।

स्ट्रीट लाइट की रोशनी में अजय ने दिलीप को टैक्सी से उतरते, फिर नीलम को उठाकर लाते और दोबारा उसी में सवार होते देखा।

उन्हें लेकर टैक्सी चली गई।

* * * * * *