22 दिसम्बर: रविवार

अरमान मॉडल टाउन के एक नर्सिंग होम में भरती था। सारा परिवार उसके सिरहाने मौजूद था।
पुलिस आ के जा चुकी थी। उन का फेरा औपचारिक ही साबित हुआ था क्यों कि उन के आगमन के समय तक अरमान बयान देने के काबिल नहीं था।
शाम तक डाक्टरों ने उसे किसी भी प्रकार के ख़तरे से बाहर घोषित कर दिया।
रात नौ बजे जस्से के साथ रघुनाथ गोयल आया तो चिन्तामणि को छोड़ के बाकी सारा परिवार बाहर चला गया।
तब अरमान होश में था और बातचीत के काबिल था।
‘‘जस्से, तू कुछ न कर सका।’’ – जस्से को देखते ही वो रोता हुआ बोला – ‘‘तेरी स्ट्रेटेजी ग़लत निकली।’’
‘‘वो मेरी स्ट्रेटेजी नहीं थी, काके’’ – जस्सा दबे स्वर से बोला – ‘‘वो तुम लोगों की स्ट्रेटेजी थी। तुम्हीं लोग उसको तड़पता देखना चाहते थे। इसीलिये उसकी जगह उसकी बीवी को निशाना बनाने का हुक्म मुझे हुआ। वो तड़पा बराबर। तड़प रहा है बराबर। तड़प कर पलटवार कर रहा है तो तुम लोगों से वार झेला नहीं जा रहा।’’
‘‘वो बात जुदा है लेकिन तू तो इस मोटी बात का ही भेद न पकड़ सका कि जिसने चार बार एक जैसा कहर ढाया, वो कौन था!’’
‘‘पड़ोस का बाबू कौल था जिसे अब तुम लोग कहते हो कि सोहल है।’’
‘‘असल काम को अंजाम देने वाला वो नहीं था। जो मेरे साथ बीती, उसके बाद अब ये स्थापित है कि असल काम को अंजाम देने वाला वो नहीं था।’’
‘‘क्या कहना चाहता है, काके?’’
‘‘वो एक हिजड़ा है।’’
‘‘क्या!’’
‘‘एक हिजड़ा है जिसने जनाना बहुरूप धारण कर के चारों बार इस काम को अंजाम दिया।’’
‘‘त-तेरे को कैसे मालूम?’’
‘‘मेरी दुरगत करने से पहले वो ख़ुद ऐसा बोला।’’
‘‘कौन? कौन?’’
‘‘अल्तमश। जिस को सोहल को ख़त्म करने के लिये बीस लाख की फीस के लालच में ऐंगेज किया गया, जिसको पांच लाख रुपये एडवांस दिये गये। जिसने दावा किया कि उसने सोहल को ख़त्म कर दिया था, जो लाश दिखाने के लिये मुझे सुन्दर नगर कहीं लेकर गया था। मेरे सामने वो एकाएक महीन, जनाना आवाज में बोलने लगा था। मेरे सामने उसने ख़ुद को ‘माशूक’ कह कर पुकारा था जिस पर मैंने अपनी मर्दानगी निसार कर दी थी।’’
जस्से ने अवाव्फ़ उसकी तरफ देखा।
‘‘जनाना लिबास में वो अपना कायापलट कर लेता है, बला की हसीन, जवान, हुस्न की मलिका बन जाता है। उसी को बाकायदा एक साजिश के तहत वसन्त कुण्ज ‘हाइड पार्क’ में अमित के मत्थे मंढ़ा गया था और उसका दीवाना हुआ अमित उसको और उसके साथियों को ईस्ट ऑफ कैलाश की अपनी खाली पड़ी कोठी में ले गया था। उसने ख़ुद कहा था कि उसके साथ जो हुआ था, वो किसी मर्द ने नहीं किया था, उस लड़की ने किया था। फिर वहीं किन्नर लखनऊ से शादी में आयी लखनवी बेगम बन कर ‘ब्लैक पर्ल’ में अशोक के गले पड़ा था और उसकी तबाही की वजह बना था। अकील के लिये वो फर्जी पुलिस पार्टी में शामिल था जिन्होंने किसी रेस्टोरेंट पर रेड डाल कर ग्राहक पटाती काल गर्ल्स पकड़ी थीं और कहने को पकड़ी गयी लड़कियों की रिंग लीडर जनाना लिबास में वही किन्नर था। लेडी पुलिस सब-इन्स्पेक्टर ने अकील को बताया था कि उनका ग्रुप एन्टीप्रॉस्टीच्यूशन ब्यूरो से था जिसके आफिस तक कि उसने सब-इन्स्पेक्टर को और प्रॉस्टीच्यूशन रिंग की लीडर को लिफ्ट देना कबूल किया था। वहां भी कौल के हुक्म पर जो किया था, उस रिंग लीडर लड़की ने किया था जो कि फिर वहीं किन्नर था। और मैं तो उस किन्नर की करतूत का ख़ुद गवाह हूं।’’
वो खामोश हुआ और बुरी तरह हांफने लगा।
कई क्षण खामोशी छायी रही।
‘‘जस्से’’ – आखिर अरमान फिर बोला – ‘‘जो होना था, वो तो हो गया। उसे तो न तू रोक सका था या मेरे जैसा कोई रोक सका। लेकिन अभी भी सब कुछ काबू से बाहर नहीं है। वो पड़ोसी बाबू यकीनी तौर पर दिल्ली में है और उस किन्नर को – जो अपना नाम अल्तमश बताता था – पता है वो कहां है। तू उस किन्नर को ढूंढ ले, उसे काबू में कर ले तो बाजी फिर पलट सकती है।’’
‘‘त्रिपाठी जी ने भी दिन में ऐसा कुछ कहा था मेरे को और मुझे वो पता दिया था जहां वो – अल्तमश – कहता था कि वो रहता था। मैं ख़ुद वजीरपुर और आगे जेजे कालोनी मकान नम्बर नौ सौ चौवालीस की तलाश पर गया था। काके, वो पता बिल्कुल फर्जी है। उस कालोनी में नौ सौ चौवालीस सीरियल तक मकान हैं ही नहीं।’’
‘‘फिर भी थोड़ी कोशिश से, थोड़ी मेहनत से उसका पता निकाला जा सकता है। बतौर किन्नर उसकी स्पैशल आईडेन्टिटी है जो छुप नहीं सकती। इतने किन्नर जनाना लिबास में चौराहों पर कार वालों से पैसे मांगते दिखाई देते हैं। कोई तो होगा जो हमारे वाले किन्नर को जानता होगा!’’
‘‘उसकी ख़बर तूने ही तो निकाली थी!’’ – चिन्तामणि बोला – ‘‘तू ही बोला था कि वो डी-9 में आजकल बसे बड़े मियां और उसके भांजों का करीबी था।’’
‘‘अगर आप का इशारा इस तरफ है’’ – जस्सा चिन्तित भाव से बोला – ‘‘कि मैं उन लोगों से अल्तमश की बाबत कबुलवाऊ तो ये मेरे से नहीं होगा। ये मेरे साधनों से बाहरा का काम है। ऐसा न होता तो मुझे अल्तमश की जरूरत ही न होती, तो मैं सीधा उन्हीं लोगों के गले पड़ा होता।’’
‘‘तो . . . क्या करें!’’
‘‘आप को पुलिस का आसरा लेना होगा। आपका भाई एमएलए है, इसी इलाके का एमएलए है, वो पुलिस पर इस काम के लिये दबाव बना सकता है। लेकिन उसके हवाले से आपका पुलिस के पास जाना वो असर नहीं दिखा पायेगा। जो एमएलए साहब ख़ुद जायेंगे तो दिखेगा।’’
‘‘मैं जोग को साथ ले के जाऊंगा।’’
‘‘यही मुनासिब होगा। मेरे को मालूम पड़ा है कि किन्नर छिटपुट नहीं रहते, इकट्ठे रहते हैं। मैं मालूम करूंगा कि उन का ऐसा ठिकाना दिल्ली में कहां हैं। फिर इस सिलसिले में जो मेरे से बन पड़ेगा, मैं करूंगा।’’ – उसने अरमान की तरफ देखा – ‘‘काके, अब गोयल साहब का और तेरे पिता का दुख एक है। मैं वादा करता हूं, काके, मैं अपनी तरफ से कोई कोशिश उठा नहीं रखूंगा।’’
‘‘मुझे तेरे पर ऐतबार है लेकिन जो करना, एहतियात से करना क्योंकि उसका अगला निशाना तू और तेरे आदमी होने वाले हैं।’’
‘‘मैं ख़बरदार हूं, वो भी ख़बरदार हैं, लेकिन और ख़बरदार कर दूंगा।’’
‘‘गुड।’’
‘‘अब मुझे ये बता, तुझे ले जाया कहां गया था?’’
‘‘सुन्दर नगर।’’
‘‘सुन्दर नगर कहां?’’
‘‘नहीं मालूम। कहां जाना था, ये उसे मालूम था। मैं उसकी हिदायत पर कार चला रहा था।’’
‘‘ओह!’’
‘‘लेकिन वो एक खाली कोठी थी, अन्धेरे में डूबी खाली कोठी थी। हालात ही बताते थे कि वहां कोई नहीं रहता था।’’
‘‘यानी सोहल के छुप के रहने के लिये फिट थी!’’
‘‘हां।’’
‘‘वो जगह तलाश करनी होगी।’’
‘‘कोई मुश्किल काम तो नहीं होगा ये! वो टॉप ग्रेड का, बसा हुआ इलाका है, ढ़ेरों खाली कोठियां तो वहां होंगी नहीं। और क्या पता एक ही हो!’’
‘‘ठीक।’’
‘‘अकील को भी वहीं ले जाया गया था। हो सकता है अकील को इस बाबत मेरे से बेहतर जानकारी हो!’’
‘‘मैं बात करूंगा उससे।’’
फिर रघुनाथ गोयल ने चिन्तामणि से एक आखिरी बार औपचारिक हमदर्दी जतायी और जस्से के साथ वहां से विदा हो गया।
वो जीटी करनाल रोड पर एक बहुत बड़ा ढाबा था जो रात के दस बजे भी तकरीबन फुल था। ढाबे के पृष्ठभाग में ग्लास पार्टीशंस वाला बन्द हाल था और फ्रंट में खुले में टेबल लगी हुई थीं, अलबत्ता छप्पर वाली छत वहां भी थी। रात के दस बजे दिसम्बर की ठण्डी हवा चल रही थी इसलिये अधिकतर ग्राहक बन्द हॉल में थे। बाहर तीन चार टेबल्स पर ही ग्राहक थे और उन में से एक कुलदीप सिंह था। वो कोने की एक तनहा टेबल पर बैठा घूंट लगा रहा था और तन्दूरी मुर्गा चबा रहा था।
विस्की वहां चोरी छिपे बिकती थी और जाने-पहचाने ग्राहकों को ही अध्दे या पव्वे की सूरत में मिलती थी – बोतल नहीं, पैग के हिसाब से नहीं। कुलदीप सिंह वहां का जाना पहचाना ग्राहक था – ढ़ाबे का मालिक उसका पुराना वाकिफ था – इसलिये एक अध्दा उसे सहज ही हासिल था।
सर्दियों की ठण्डी हवा के बावजूद खुले में बैठना उसकी मजबूरी थी। वो भीतर बैठता तो अध्दा उसके हवाले न होता और विस्की उसे पैप्सी में पीनी पड़ती।
पिछली रात ठेकेदार के छोकरे अरमान के साथ जो बीती थी, जस्से से उसे उसकी ख़बर लगी थी। जस्से ने उसे और गगनदीप सिंह को ख़ासतौर से आगाह किया था कि आइन्दा कुछ दिन उन्हें बहुत ख़बरदार रहने की जरूरत थी क्योंकि मौजूदा हालात में ऐसी नौबत आ सकती थी कि उनका अंजाम अरमान से भी बुरा होता। गगनदीप ने इस बारे में क्या सावधानी बरती थी, उसे अभी ख़बर नहीं थी लेकिन ख़ुद उसने जो फौरी कदम उठाया था वो ये था कि उसने पहाड़ी धीरज के अपने किराये के मकान से किनारा कर लिया था और आइन्दा कुछ दिन राई में एक दोस्त के साथ रहने का और दिल्ली में फिलहाल कदम भी न रखने का फैसला किया था।
उसके पास रॉयल एनफील्ड मोटरसाइकल थी जिस पर अपनी नयी पनाहगाह तक वो बड़ी हद बीस मिनट में पहुंच सकता था इसलिये उसे उठने की कोई जल्दी नहीं थी। वो अध्दे का रियाजी था और अभी अध्दे में से उसने दो पैग ही पिये थे।
उस ढ़ाबे का उसे दूसरा आकर्षण ये था कि तन्दूरी की तरह बटर चिकन भी वहां लाजवाब बनता था। वो डट के खाने पीने वाला आदमी था इसलिये दिल्ली से भी – ख़ास तौर पर ड्राई डे को – वो वहां अक्सर आता था।
राई से आना तो बिल्कुल ही आसान था।
‘‘सत श्री अकाल।’’
उसने सिर उठाया।
सामने एक सिख खड़ा था।
लाल पगड़ी, काली फिफ्टी, फिक्सो से संवारी दाढ़ी मूंछ, टाइट जींस, चैक की कमीज और कार्डुराय का लाइट ब्राउन कोट।
‘‘की हाल ए कुलदीप सिंहां?’’
कुलदीप के चेहरे पर उलझन के भाव आये।
‘‘नहीं पहचाना?’’
उसने हिचकिचाते हुए इंकार में सिर हिलाया।
‘‘ओये, मैं सुरिन्दर सिंह।’’ – वो – विमल – बेतकल्लुफी से उसके सामने बैठता बोला – ‘‘अब याद आया?’’
कुलदीप ने फिर इंकार में सिर हिलाया।
‘‘जस्से ने मिलवाया था। तेरे से भी और गगनदीप से भी। अब ये भी बताऊं, कौन जस्सा! कौन गगनदीप!’’
‘‘कहां?’’
‘‘पहाड़गंज। गोयल साहब के टिम्बर गोदाम के आफिस में।’’
‘‘कब?’’
‘‘पखवाड़ा होने को आ रहा है।’’
‘‘तेरा वहां क्या काम था?’’
‘‘जस्से से काम था न! उसी के बुलाये वहां पहुंचा था। उसने मुझे उम्मीद दिलाई थी कि वो मुझे वहां काम दिला सकता था।’’
‘‘कैसा काम?’’
‘‘तेरे जैसा काम। गगनदीप जैसा काम। जैसे जस्सा गोयल साहब का ख़ास, जैसे तू और गगनदीप जस्से के ख़ास, वैसे मैं जस्से का ख़ास। जस्सा बोलता था आजकल कुछ ऐसा सयापा पड़ा हुआ था जिसकी वजह से भरोसे के और आदमियों की जरूरत थी; और, और आदमियों की जरूरत थी।’’
‘‘वो तो है! तो रख लिया गया तू?’’
‘‘मेरा मौल करार हो गया है लेकिन मुझे हुक्म है कि मैं अपने जैसे दो आदमी और ढूंढ़ कर लाऊं। एक तो ढूंढ़ लिया है, दूसरा भी परसों तक पकड़ाई में आ जायेगा।’’
‘‘यार, मेरे को तो कुछ याद नहीं आ रहा तेरी बाबत!’’
‘‘घूंट का असर है। क्या पी रहा है?’’
‘‘विस्की।’’
‘‘कौन-सी?’’
‘‘ब्लैंडर्स प्राइड।’’
‘‘साथ लाया?’’
‘‘यहां मिलती है लेकिन – कुलदीप के स्वर में गर्व का पुट आया – ‘‘सब को नहीं।’’
‘‘सब को नहीं?’’ – विमल की भवें उठीं।
‘‘नहीं।’’
‘‘यानी मुझे नहीं मिलेगी?’’
‘‘नहीं मिलेगी।’’
‘‘यार, ये तो जुल्म है! तुझे पीता न देखता तो कोई बात नहीं थी लेकिन एक यार पिये और दूसरा उसके सामने बैठा तरसे, ये तो ठीक नहीं!’’
कुलदीप शान से हंसा।
‘‘ऐसी एक बाटली’’ – विमल ने उसके अध्दे की तरफ इशारा किया – ‘‘तू मंगा के दे न मुझे!’’
कुलदीप ने इंकार में सिर हिलाया।
‘‘क्यों? क्या हुआ?’’
‘‘अभी आधे घन्टे पहले तो अध्दा मंगाया मैंने! इतनी जल्दी दूसरा मंगाऊंगा तो वेटर झट समझ जायेगा कि तेरे लिये था।’’
‘‘ओह! तो इसी में से दे न मुझे! जब ख़त्म हो जाये तो दूसरा मंगाना।’’
कुलदीप ने जवाब न दिया।
‘‘दोनों के पैसे मैं भरूंगा।’’
‘‘तू भरेगा?’’
‘‘रोटी बोटी के भी।’’
‘‘तू क्यों भरेगा?’’
‘‘अरे, तू यार है! फिर मेरा भी तो काम बनेगा! मेरी भी तो तलब पूरी होगी!’’
‘‘तू यहाँ आया कैसे? मेरा मतलब है अक्सर आता है?’’
‘‘नहीं, अक्सर तो नहीं आता! मुझे कभी-कभार सोनीपत जाना होता है। लौटने में देर हो जाये तो मैं यहां आ जाता हूं।’’
‘‘अभी सोनीपत से आया?’’
‘‘हां।’’
‘‘तेरे को नहीं मालूम था यहां मिलती थी?’’
‘‘यार, नहीं मालूम था। सच में नहीं मालूम था।’’
‘‘हूं।’’
‘‘अब क्या कहता है? दे रहा है मेरे को कि नहीं?’’
कुलदीप हिचकिचाया।
‘‘मैं’’ – विमल ने एक दो हजार का नोट उसके सामने पटका – ‘‘एडवांस पेमेंट करता हूं।’’
‘‘नोट जेब में रख।’’
‘‘लेकिन . . .’’
‘‘रख, भई।’’
विमल ने नोट उठा लिया।
कुलदीप ने वेटर को इशारा करके करीब बुलाया और उससे एक गिलास और मंगवाया। फिर उसने अपना गिलास खाली किया और दो नये जाम तैयार किये।
उसके इशारे पर विमल ने एक गिलास उठा लिया।
‘‘चियर्स!’’
दोनों ने जाम टकराये।
‘‘तू इधर कैसे?’’ – फिर विमल बोला – ‘‘पहाड़ी धीरज से तो ये जगह बहुत दूर है!’’
‘‘तेरे को . . . तेरे को ये भी पता है मैं पहाड़ी धीरज रहता हूं?’’
‘‘पता है। अब पूछ कैसे पता है?’’
‘‘कैसे पता है?’’
‘‘ख़ुद तूने बताया। जब मैंने बोला मैं बलजीत नगर रहता था तो तूने बताया।’’
‘‘कमाल है! इतनी बातें! और मुझे कुछ याद ही नहीं आ रहा।’’
‘‘होता है कभी-कभी। अलबत्ता गगनदीप का मुझे नहीं मालूम कि वो कहा रहता है?’’ – विमल किसी जवाब की उम्मीद में एक क्षण ठिठका, फिर बोला – ‘‘कहां रहता है?’’
कुलदीप ने जवाब न दिया।
अभी बकरा भट्टी चढ़ा था, पक नहीं गया था, इसलिये विमल ने फौरन विषय बदला – ‘‘हाथ ठीक नहीं हुआ अभी तेरा।’’
वो सकपकाया, उसने संदिग्ध भाव से विमल की तरफ देखा।
‘‘तेरे को क्या ख़बर?’’ – वो बोला।
‘‘किस बात की क्या ख़बर?’’
‘‘कि मेरा हाथ जख्मी है?’’
‘‘लो! हाथ पर पट्टी बन्धी है, सर्जीकल ड्रैसिंग है, तो क्या सजावट के लिये है?’’
‘‘ओह! तूने ‘अभी ठीक नहीं हुआ’ कहा तो मैं समझा जैसे मेरे जख्मी हाथ की तुझे पहले से ख़बर है।’’
‘‘कैसे होती भला? वैसे हुआ क्या था?’’
‘‘गोली लगी थी।’’
‘‘क्या!’’
‘‘ख़ैर हुई कि हड्डी को न लगी। कलाई और अंगूठे के बीच की चमड़ी उधेड़ गयी, बस।’’
‘‘वाहेगुरु ने रक्षा की। कब की बात है?’’
‘‘पिछले सोमवार की।’’
‘‘फिर तो अब तक जख्म ठीक हो गया होगा!’’
‘‘हो ही गया है लेकिन अभी दो तीन दिन पट्टी और चलेगी।’’
‘‘ओह!’’
‘‘वैसे अब कोई तकलीफ नहीं है मुझे। हाथ बराबर काम करता है।’’
‘‘बढ़िया। गिलास खाली कर।’’
उसने किया।
इस बार विमल ने उससे पहले अध्दा ख़ुद उठा लिया और उसको यूं खाली किया कि उसके गिलास में विस्की ज्यादा डाली और अपने में कम डाली।
नीमअन्धेरे में कुलदीप को उस बात की ख़बर न लगी।
विमल ने एक छोटा-सा घूंट हलक में उतारा और होंठ चटकाता तृप्तिपूर्ण भाव से बोला – ‘‘मजा आ गया!’’
‘‘हां।’’ – कुलदीप ने भी झूमते हुए अनुमोदन किया। अब ये मुद्दा उसे याद नहीं रहा था, या अब महत्त्वपूर्ण नहीं रहा था, कि उसके सामने बैठा गुरमुख जिस मुलाकात का हवाला दे रहा था, वो उसे याद क्यों नहीं आ रही थी।
‘‘अब तो और मंगा ले!’’ – विमल ने इसरार किया।
‘‘हां। अध्दा के पव्वा?’’
‘‘तू बता।’’
‘‘नहीं, तू बता।’’
किसी का ऐसी वाहियात जिदों पर वक्त जामा करना सबूत होता था कि वो नशे के हवाले हो चुका था।
‘‘पव्वा।’’ – विमल बोला – ‘‘और जो लाये उसको बोलना बिल साथ ले के आये।’’
‘‘क्या जल्दी है!’’
‘‘जल्दी कोई नहीं। आराम से खाना खायेंगे न! जल्दी कोई नहीं। लेकिन बाटली का अभी चुकता कर देंगे और का दिल नहीं करेगा।’’
‘‘हां। ये बात ठीक है।’’
उसने वेटर को बुलाया और उसे आवश्यक निर्देश देने लगा।
उस दौरान विमल ने अपना गिलास उठा कर टेबल की ओट में किया, बायें हाथ में पहनी अंगूठी के नग को उमेठा तो वो ढ़क्कन की तरह खुल गया। उसने अंगूठी को गिलास से ऊपर उलटा किया तो ढ़क्कन के नीचे की कैविटी में मौजूद सफेद पाउडर सारे का सारा विस्की में जाकर गिरा और तत्काल घुल कर गायब हो गया।
वेटर पव्वा लाया, विमल ने उसका बिल चुकता किया और उसे पचास रुपये टिप दी। वेटर बाग-बाग हो गया, उसने ठोक के सैल्यूट मारा और वहां से रुख़सत हुआ।
‘‘लगता है’’ – कुलदीप बोला – ‘‘जस्से ने लगा भी लिया काम पर!’’
‘‘कैसे जाना?’’ – जानबूझ कर अंजान बनता विमल बोला।
‘‘तेरे जिद करके तूम्बे का बिल देने से जाना। वेटर को पचास का नोट टिप में देने से जाना।’’
‘‘ओह! वो क्या है कि बहुत मेहरबान है अपना जस्सा! बड़े सेठ गोयल साहब उससे भी ज्यादा मेहरबान हैं। जस्से की हामी होते ही बेहिचक उन्होंने मुझे दस हजार रुपये एडवांस दे दिये।’’
‘‘ऐसा एडवांस मिलता तो नहीं है किसी को लेकिन जस्से को आजकल कुछ ख़ास आदमियों की बहुत जरूरत है।’’
‘‘ऐसा क्यों?’’
‘‘क्योंकि मैं और गगदीप-जोकि उसके ख़ास हैं, बल्कि ख़ासुमख़ास हैं – आजकल आउट आफ सर्कुलेशन रहने को मजबूर हैं इसलिये थोड़े किये उसके काम नहीं आ सकते।’’
‘‘क्यों मजबूर हैं?’’
‘‘एक बहन का दीना हमारी जान के पीछे पड़ा है, मिल गये तो मार डालेगा।’’
‘‘अरे!’’
‘‘पिछले सोमवार उसी की चलाई गोली मेरे हाथ में लगी थी।’’
‘‘वाहे गुरु! कहीं और लग जाती तो?’’
‘‘बस, बच ही गया।’’
‘‘बात क्या थी?’’
‘‘बात तेरी समझ में नहीं आयेगी।’’
‘‘कौन-सी बात मेरी समझ में नहीं आयेगी? गोली वाली या वो बात जिसकी वजह से कोई तेरी और गगनदीप की जान के पीछे पड़ा है?’’
‘‘दोनों।’’
‘‘फिर आजकल तू पहाड़ी धीरज तो नहीं रहता होगा?’’
‘‘नहीं, वहां नहीं रहता।’’
‘‘कहां रहता है?’’
‘‘किया है कहीं टैम्परेरी ठिकाना।’’
‘‘और गगनदीप?’’
‘‘गगनदीप क्या?’’
‘‘वो कहां रहता है?’’
‘‘क्यों पूछता है?’’
‘‘यार, अच्छा लगता है यार दोस्तों से मिलते जुलते रहना। तू तो इत्तफाक से मिल गया, उससे भी मुलाकात हो जाये तो क्या हर्ज है?’’
‘‘क्या हर्ज है?’’ – वो झूम कर बोला।
‘‘मैं तेरे से पूछ रहा हूं। खूब गुजरेगी जो मिल बैठेंगे गुरमुख तीन।’’
‘‘हूं।’’
‘‘क्या हूं?’’
‘‘भई, वो मेरे करीब ही मॉडल बस्ती रहता था, अब किधर चला गया, मेरे को नहीं मालूम।’’
‘‘मॉडल बस्ती कहां?’’
उसने एक पता बताया जो विमल ने मोबाइल पर नोट कर लिया।
‘‘फोन नम्बर भी बता।’’ – वो बोला।
‘‘क्या करेगा? फोन पर मिल बैठेगा?’’
‘‘ये भी होता है, खाली शक्ल ही तो नहीं दिखाई देती! हा हा हा।’’
उसके होंठ फैले लेकिन ‘हा हा’ की जगह बेमन की मुस्कुराहट की शक्ल की अख्तियार ही कर सके।
‘‘क्या करेगा?’’ – वो फिर बोला।
‘‘अरे, बात करूंगा न उससे! वो चाहेगा तो मिलूंगा, नहीं चाहेगा तो आइन्दा कभी के लिए टाल करूंगा। तू कहता जो है कि तेरी तरह वो भी आजकल आउट आफ सर्कुलेशन रहने को मजबूर है!’’
‘‘ओ, हां। हां। ये बात तो समझदारी की की तूने! नोट कर।’’
उसका बोला नम्बर विमल ने मोबाइल पर नोट किया।
तब तक कुलदीप ने अपना गिलास खाली कर दिया था लेकिन उसकी तवज्जो इस बात की तरफ नहीं थी कि विमल का गिलास अभी भी पूरा भरा हुआ था।
विमल ने पव्वा खोला और उसका जाम फिर तैयार कर दिया।
तब भी कुलदीप ने ध्यान न दिया कि विस्की उसे ही सर्व हुई थी।
उसका ध्यान नये जाम की तरफ गया तो विमल ने एक चम्मच मेज से नीचे गिर जाने दिया।
चम्मच के पक्की जमीन से टकराने की आवाज हुई।
‘‘ये कैसी आवाज थी?’’ – विमल बोला।
‘‘कुछ गिरा शायद।’’ – कुलदीप बोला।
‘‘मेरे को तो नहीं दिखाई दे रहा!’’
‘‘मैं देखता हूं।’’
उसने झुक कर मेज के नीचे झांका।
तत्काल विमल ने अपना गिलास उसकी जगह रख दिया और उसका गिलास ख़ुद काबू कर लिया।
कुलदीप सीधा हुआ।
‘‘चम्मच था।’’ – वो चम्मच मेज पर रखता बोला।
‘‘ओह!’’ – विमल बोला – ‘‘शायद मेरा हाथ लगा।’’
‘‘हो जाता है। ये मेज भी तो बहुत छोटी है!’’
‘‘बहुत टाइम हो गया, अब बस करें मेरे ख्याल से।’’
‘‘अभी पव्वे में है।’’
‘‘खाना मंगाते हैं न! वो उसके साथ ले लेंगे।’’
‘‘ठीक।’’
‘‘बॉटम्स अप।’’
दोनों ने एक सांस में अपने गिलास खाली किये।
‘‘बल्ले!’’ – कुलदीप बोला – ‘‘मजा आ गया।’’
‘‘अभी कहां आ गया! अभी तो आयेगा!’’
‘‘पव्वे में बची की वजह से कह रहा है?’’
‘‘इससे पहले ही आयेगा। देखना।’’
‘‘कैसे? जादू के जोर से।’’
‘‘हां! तेरे लिये तो जादू ही होगा।’’
‘‘पता नहीं क्या कह रहा है! मैं डिनर आर्डर करता हूं।’’
‘‘थोड़ी देर रुक जा।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘ख़र्चा बच जायेगा?’’
‘‘कौन-सा?’’
‘‘डिनर का।’’
‘‘डिनर का! ओये, बिल तो तूने देना है!’’
‘‘तो मेरा ख़र्चा बच जायेगा।’’
‘‘मुझे कुछ घबराहट-सी होने लगी है एकाएक।’’
‘‘अच्छा! और कुछ नहीं हो रहा?’’
‘‘और क्या?’’
‘‘छाती में जलन! कलेजे में जकड़न। जैसे कोई मुट्ठी में भींच के निचोड़ रहा हो कलेजा!’’
‘‘नहीं, ये सब तो नहीं हो रहा।’’
‘‘होगा। अभी ख़ास मजे की शुरूआती स्टेज है, थोड़ी देर में होगा।’’
‘‘क्या बक रहा है, यार, तू।’’
‘‘परमानन्द की प्राप्ति होगी। बहुत जल्द तू उस बेरहम, निहत्थी औरत के रूबरू होगा जिसको उसके घर में घुस कर तूने और तेरे साथियों ने मारा था और उसके खाविन्द के लिये सन्देशा छोड़ा था कि पिल्ला अभी बाकी है, ढूंढ़ लेंगे, फिर उसकी बारी।’’
‘‘तू . . . तू कौन है?’’
‘‘उस बद्नसीब औरत का बद्नसीव खाविन्द हूं।’’
‘‘तू . . . तू . . . तू तो सिख है!’’
‘‘जिस पर पटियाला हाउस कोर्ट कम्पलैक्स की कैन्टीन में तूने गोली चलाई थी।’’
‘‘तू . . . तू . . . वो नहीं हो सकता।’’
विमल ने खामोशी से पगड़ी फिफ्टी उतार कर मेज पर रख दी, फिर दाढ़ी मूंछ उतार कर उलटी पड़ी पगड़ी में डाल दीं।
‘‘यहां अन्धेरा है लेकिन इतना नहीं कि बिल्कुल न देख सके। क्या दिखाई दिया?’’
उसने बड़ी मुश्किल से अपनी निगाह फोकस की और सामने डाली।
तत्काल उसके नेत्र फट पड़े।
‘‘तू . . . तू . . .’’ – वो बड़ी मुश्किल से बोल पाया – ‘‘क्या किया तूने? क्या हो रहा है मुझे? मेरा दम क्यों घुट रहा है! म-मेरे से . . . ब-बोला क्यों नहीं जा रहा!’’
‘‘विस्की के तेरे आखिरी जाम में जहर था। जानलेवा। बस अब चन्द ही सांसे बाकी हैं तेरी।’’
‘‘वाहे गुरु! वाहे गुरु! ऐसा क्यों कि तू . . . तूने?’’
‘‘क्योंकि जाके बैरी सम्मुख जीवै, ताके जीवन को धिक्कार। सिख है, गुरु महाराज का वाव्फ़ जानता ही होगा, पहचानता ही होगा!’’
‘‘माईंयवया! कमीनया! तू यहां से बच के नहीं जा सकता!’’
‘‘अच्छा! कौन रोकेगा मुझे? तू? जिसकी अगली सांस का भरोसा नहीं!’’
‘‘हां, मैं। कंजरदया, मैं पु-पुलिस को फोन . . .’’
बाकी बात उसके मुंह में ही रह गयी, उसकी आंखें पलट गयीं और वो मुंह के बल मेज पर ढ़ेर हुआ।
विमल ने उसकी नब्ज देखकर, शाहरग टटोल कर, दिल पर हाथ रखकर तसल्ली की कि वो मर चुका था। फिर उसने उसकी जेबों की तलाशी ली और वो चीजें निकाल लीं जिनसे उसकी शिनाख्त हो सकती थी।
मोबाइल फोन भी।
ये उसे हैरान करने की बात थी कि उसकी जेब में थोड़े बहुत नहीं, लगभग छत्तीस हजार रुपये थे।
आखिर में उसने अपनी जेब से पोलीथीन का एक बैग बरामद किया, उसका मुंह खोलकर अपनी पगड़ी, फिफ्टी, दाढ़ी मूंछ बैग में डाली, बैग को मुंह पर गांठ लगायी और उठ कर बाहर की ओर बढ़ा।
वो आधे रास्ते मे था तो उन की टेबल का वेटर उसके करीब पहुंचा।
‘‘साहब’’ – वो बोला – ‘‘वो साहब . . .’’
‘‘क्या वो साहब?’’ – विमल शुष्क स्वर में बोला।
‘‘टेबल पर औंधे मुह क्यों पड़े हैं?’’
‘‘मेरे को क्यों पूछता है? मैं तो उन्हें जानता तक नहीं!’’
‘‘पर आप उस टेबल से ही तो इधर आ रहे थे!’’
‘‘हां। क्योंकि दूर से मैंने वो टेबल खाली समझी थी। पास पहुंचा तो पता लगा कि कोई औंधे मुंह उस पर पड़ा था।’’
‘‘साहब, टेबल्स तो और भी खाली हैं!’’
‘‘मुझे वो कोने की टेबल ही पसन्द है। जब आता हूं, वहीं बैठता हूं।’’
‘‘वहां एक सरदार जी थे, वो कहां गये?’’
‘‘जाना कहां है? वहीं होंगे। जाके मेज के नीचे देख। और अब पीछा छोड़।’’
वेटर उसके रास्ते में हट गया।
लम्बे डग भरता विमल ढाबे से बाहर के उस मैदान में पहुंचा जहां ग्राहकों की कारें खड़ी थीं। उन में से एक कार ‘असैंट’ थी और उसकी ड्राइविंग सीट पर अशरफ मौजूद था।
विमल जाकर उसके पहलू में पैसेंजर सीट पर सवार हो गया।
‘‘निकल ले।’’ – वो बोला।
‘‘हो गया?’’ – इग्नीशन स्टार्ट करते अशरफ ने पूछा।
‘‘हां।’’ – विमल बोला – ‘‘अभी तक नर्क के द्वार पहुंचा ऐन्ट्री के लिये कॉल बैल बजा रहा होगा। चल।’’
तत्काल अशरफ ने कार आगे दौड़ा दी।
वाहे गुरु सच्चे पातशाह! तू मेरा राखा सभणि थांहीं।
23 दिसम्बर: सोमवार
मॉडल टाउन थाने के स्टेशन हाउस आफिसर का नाम संजीव तोमर था। सुबह दस बजे वो अपने एएसएचओ अजीत लूथरा के साथ कोठी नम्बर डी-9 पर पहुंचा।
और मुबारक अली के रूबरू हुआ।
मुबारक अली ने उसे भीतर आने का आमन्त्रण दिया लेकिन वो उसके साथ बरामदे से आगे न बढ़ा।
‘‘बैठिये।’’ – मुबारक अली सादर बोला।
‘‘ऐसे ही ठीक है।’’ – एसएचओ शुष्क स्वर में बोला – ‘‘नाम बोलिये।’’
‘‘मुबारक अली।’’
‘‘कब से यहां हैं?’’
‘‘यही कोई दो हफ्ते से।’’
‘‘पहले तो यहां कोई कौल साहब रहते थे!’’
‘‘जी हां। मकान मालिक वही हैं। हम उनके किरायेदार हैं।’’
‘‘वो कहां गये?’’
‘‘हैदराबाद।’’
‘‘कब लौटेंगे?’’
‘‘नहीं लौटेंगे। वहीं रहेंगे। इसीलिये कोठी किराये पर उठाई।’’
‘‘पता बोलिये।’’
‘‘नहीं मालूम।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘क्योंकि इस बाबत अभी उन्होंने कोई ख़बर न की।’’
‘‘कम्यूनीकेशन की जरूरत पड़ जाये तो कैसे करेंगे?’’
‘‘मोबाइल है न!’’
‘‘नम्बर बोलिये।’’
‘‘कहीं नोट कर के रखा था, देखना पड़ेगा।’’
‘‘देखिये।’’
मुबारक अली भीतर गया और पांच मिनट बाद बोला।
‘‘नहीं मिल रहा।’’ – वो खेदपूर्ण स्वर में बोला – ‘‘एक कागज के पुर्जे पर लिखा था, पता नहीं कहां उड़ गया पुर्जा!’’
‘‘हद है ये तो लापरवाही की! अब आपने लैंडलार्ड से कान्टैक्ट करना हो तो कैसे करेंगे?’’
‘‘दूसरी तरफ से फोन आने का इन्तजार करेंगे।’’
‘‘फोन न आया तो?’’
‘‘और इन्तजार करेंगे। कभी तो आयेगा! या कभी तो कौल साहब ख़ुद आयेंगे!’’
‘‘किरायेनामा है?’’
‘‘हां।’’
‘‘दिखाइये। और अब ये न कहियेगा कि वो भी उड़ गया कहीं!’’
मुबारक अली के जबड़े भिंचे, उसकी आंखें सर्द हुईं। फिर उसने ख़ुद पर काबू पाया, भीतर गया और किरायेनामे के साथ लौटा जो उसने आगे एसएचओ को सौंपा।
एसएचओ ने उसका गम्भीर मुआयना किया।
‘‘इस पर’’ – फिर बोला – ‘‘मकान मालिक और किरायेदार की तसवीर होनी चाहिये। ये रजिस्टर्ड होना चाहिये।’’
‘‘जनाब’’ – मुबारक अली विनयशील स्वर में बोला – ‘‘मैं ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूं, मैं इन बातों को नहीं समझता। मेरा एक भांजा ढेर पढ़ा लिखा है, मैं उसको बुलाता हूं।’’
उसके आवाज देने पर हाशमी बाहर बरामदे में पहुंचा।
स्वाभाविक तौर पर हाशमी के चेहरे पर विद्वता और बुद्धिमत्ता की ऐसी गहन छाप थी कि एसएचओ उससे वैसे पेश आने से लरज गया जैसे वो मुबारक अली से पेश आ रहा था।
‘‘ये मेरा भांजा हाशमी है।’’ – मुबारक अली बोला – ‘‘भांजे, सरकार कह रहे हैं कि किरायेनामे पर मालिक मकान और किरायेदार की तसवीर चस्पां होनी चाहिये और किरायेनामा, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में, रजी . . . रजिस . . .’’
‘‘रजिस्टर्ड।’’ – हाशमी बोला।
‘‘वही। रजिस्टर में . . . होना चाहिये।’’
‘‘दिस इज नाट मैन्डेटरी।’’ – हाशमी एसएचओ से मुख़ातिब हुआ – ‘‘रजिस्ट्री मकान मालिक अपनी सिक्योरिटी के लिये कराता है और रजिस्ट्री कराई जाने की सूरत में दोनों पार्टीज की फोटो लीज डीड पर लगाई जानी जरूरी होती है। मकान मालिक ने डीड को रजिस्टर कराना जरूरी नहीं समझा तो ये हमारी प्राब्लम नहीं है।’’
‘‘मुझे तुम्हारी बात से इत्तफाक नहीं।’’ – एसएचओ शुष्क स्वर में बोला – लीज डीड रजिस्टर्ड होना ही चाहिये।’’
‘‘है तो नहीं ऐसा . . .’’
‘‘है।’’
‘‘है तो करा लेंगे। आजकल में करा लेंगे।’’
‘‘रजिस्ट्री थाने दिखा के जाना।’’
‘‘ठीक है।’’
‘‘रजिस्ट्री के लिये दोनों पार्टियों को कोर्ट में पेश होना पड़ता है!’’
‘‘ये कतई जरूरी नहीं। डीड चौकस हो तो पार्टियों की फिजीकल प्रेजेंस कतई जरूरी नहीं।’’
‘‘जरूरी हो तो क्या करेंगे? तुम्हारे मामू के पास तो मकान मालिक से – मिस्टर कौल से – कन्टैक्ट करने का कोई जरिया ही नहीं है!’’
‘‘मामू इन बातों की ज्यादा नहीं समझते। है ऐसा जरिया। कौल साहब गैलेक्सी ट्रेडिंग कारपोरेशन नाम की बड़ी कम्पनी के मुलाजिम हैं जिसके हैदराबाद आफिस में उनका ट्रांसफर हुआ है। हम गैलेक्सी की मार्फत उन तक पहुंच बना सकते हैं।’’
‘‘अगर मैं कहूं मिस्टर कौल हैदराबाद में नहीं हैं, वो हैदराबाद, गये ही नहीं, वो शुरू से दिल्ली में हैं, तो?’’
‘‘ये मुमकिन नहीं। वो भले और बारसूख आदमी हैं। इतनी मामूली बात पर ग़लतबयानी नहीं कर सकते।’’
‘‘अगर मैं कहूं कि वो शख़्स कौल है ही नहीं, वो कोई और ही है जो अपनी असलियत छुपाने के लिये कौल बना हुआ है, तो?’’
‘‘क्या असलियत?’’
‘‘वो जरायमपेशा शख़्स है। वो इश्तिकारी मुजरिम है।’’
‘‘बट दैट्स प्रीपोस्चरस!’’
‘‘और आप लोगों को ख़बर है कि वो दिल्ली में कहां पाया जाता है!’’
‘‘सर, नाओ यू आर आन ए फिशिंग एक्सपीडीशन।’’
‘‘जवाब दो।’’
‘‘क्या जवाब दें? कोई जवाब देने लायक बात हो तो जवाब दें न! कौल साहब बीवी बच्चे वाले, इज्जतदार वाइट कालर एम्पलाई हैं . . .’’
‘‘नहीं है। उनकी बीवी का हाल ही में इसी इमारत में कत्ल हुआ था और बच्चा गायब है। और उनकी वाइट कालर एम्पलायमेंट में भी कोई भेद जान पड़ता है।’’
‘‘मिसेज कौल का कातिल गिरफ्तार हो गया?’’
‘‘अभी नहीं।’’
‘‘हो जायेगा?’’
‘‘अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। तफ्तीश जारी है।’’
‘‘वो तो हमेशा ही जारी होती है।’’
‘‘एक थाने में एक ही केस नहीं होता।’’
‘‘कौल साहब सालों यहां इस कोठी में रहे, आप उन्हें इश्तिहारी मुजरिम बता रहे हैं . . .’’
‘‘तीन लाख का ईनामी।’’
‘‘... ऐसा मुजरिम आपके थाने से एक किलोमीटर से भी कम के फासले पर रहता रहा और आपको कभी उसकी भनक तक न लगी। ठीक?’’
लूथरा के चेहरे पर बरबस मुस्कराहट आई जो उन्होंने बड़ी मुश्किल से छुपायी।
‘‘एक इश्तिहारी, इनामी मुजरिम आपके थाने की ज्यूरिस्डिक्शन में प्राइम प्रॉपर्टी का मालिक बन बैठा और आपको ख़बर नहीं।’’
‘‘ये बहस के मुद्दे हैं . . .’’
‘‘नौ से छः बजे की आनेस्ट रिस्पोंसिबल जॉब करने वाला सिटीजन उन तमाम कामों को कब को अंजाम देता था जिनकी वजह से, आप कहते हैं कि, वो इश्तिहारी था, ईनामी था!’’
‘‘मैं यहां बहस करने के लिये नहीं आया। आप लोग दो टूक जवाब दीजिये, आप का मकान मालिक, जिस को आप लोग अरविन्द कौल के नाम से जानते हैं, दिल्ली में है या नहीं है . . .’’
‘‘हमें इस बारे में कोई ख़बर नहीं।’’
‘‘... है तो कहां है?’’
‘‘हमें इस बारे में कोई ख़बर नहीं। सच पूछें तो हमारे ऐतबार में ही ये बात नहीं आ रही कि कौल साहब हैदराबाद में नहीं, दिल्ली में हैं।’’
‘‘हमें ऐसे संकेत मिले हैं कि वो दिल्ली में हैं।’’
‘‘ग़लत मिले हैं।’’
‘‘तुम पुलिस को ग़लत ठहरा रहे हो?’’
‘‘उनको ग़लत ठहरा रहा हूं जिनसे आप को ऐसे संकेत मिले हैं।’’
‘‘किसी को एक इश्तिहारी मुजरिम का जानकारी होना क्रिमिनल ऑफेंस है। ऐसी जानकारी रखने का और मुजरिम को पनाह देने का कानून की निगाह में एक ही दर्जा है और ये नॉनवेलेबल ऑफेंस है। आप लोग गिरफ्तार हो सकते हैं।’’
हाशमी ने मामू की तरफ देखा।
‘‘करो।’’ – मुबारक अली स्थिर स्वर में बोला।
एसएचओ हड़बड़ाया।
‘‘आप लोग गिरफ्तार होना चाहते हैं?’’ – फिर सख़्ती से बोला।
‘‘नहीं। आप ही कह रहे हैं हम गिरफ्तार हो सकते हैं। बड़े हाकिम हैं, ग़लत तो न कह रहे होंगे! हाकिम के सामने हमारा क्या जोर है?’’
‘‘सुना है यहां दो दर्जन आदमी रहते हैं!’’
‘‘ग़लत सुना है। दो दर्जन मेरे खयाल से चौबीस अदद होते हैं। हम पन्द्रह हैं। एक मैं और चौदह मेरे भांजे।’’
‘‘इतने लोग भी क्यों?’’
‘‘क्यों नहीं?’’ – हाशमी बोला – ऐसी रिहायश पर कोई पाबन्दी नहीं है! होती तो मकान मालिक ने ही उस पर अमल किया होता। लीज साइन ही न की होती।’’
‘‘मेरे भांजों में से कुछ शादीशुदा हैं।’’ – मुबारक अली बोला – ‘‘और शादीशुदा भांजों में से कुछ बाऔलाद है। उनकी बीवियां और बच्चे भी यहां होते तो, वो क्या कहते हैं अंग्रेजी में . . . अबे, क्या कहते हैं।’’
‘‘स्कोर, मामू।’’
‘‘हां। तो स्कोर और बड़ा हो जाता।’’
‘‘इतने आदमी इस छोटी-सी, एकमंजिला कोठी में!’’
‘‘दिक्कत होती है। लेकिन मजबूरी है, झेलते हैं।’’
‘‘अल्तमश को जानते हैं?’’
‘‘वो कौन हुआ?’’
‘‘अरे, भई, सवाल मैंने किया है। तुमने जवाब देना है।’’
‘‘नहीं, नहीं जानते।’’
‘‘हमें पक्की ख़बर लगी है कि आप लोग न सिर्फ उसे जानते हैं, वो आपका का और आपके भांजों का करीबी है।’’
‘‘आपकी ख़बर ग़लत है। हम अल्तमश को नहीं जानते।’’
‘‘है कौन वो?’’ – हाशमी ने उत्सुकता जताई।
‘‘हिजड़ा है।’’
‘‘अल्लाह!’’ – मुबारक अली बोला – ‘‘अब हमारे इतने बुरे दिन आ गये कि हिजड़े हमारे हमप्याला, हमनिवाला होंगे!’’
‘‘वो कोई आम हिजड़ा नहीं है। पलक झपकते हसीनतरीन औरत बन जाता है।’’
‘‘हिजड़े अमूमन जनाना लिबास में ही रहते हैं’’ – हाशमी बोला – ‘‘अलबत्ता हसीनतरीन नहीं होते – हसीन ही नहीं होते।’’
‘‘वो है। ऐसा कि देखने वाला लार टपकाये।’’
‘‘बात क्या है उसकी?’’
‘‘हमें उसकी तलाश है। उसके आप लोगों से ताल्लुकात होने की वजह से ही वो किसी की जानकारी में आया था।’’
‘‘किसकी?’’
‘‘है कोई। ढूंढ तो हम उसे लेंगे। लेकिन अगर तब हमें मालूम हुआ कि वो आप लोगों का वाकिफ था पर आपने उसकी बाबत झूठ बोला तो अंजाम बुरा होगा। समझ गये?’’
दोनों खामोश रहे।
‘‘अभी चलता हूं। लेकिन’’ – एसएचओ के लहजे में धमकी का पुट आया – ‘‘फिर आऊंगा।’’
‘‘आप क्यों आयेंगे?’’ – मुबारक अली बोला – हमें तलब कीजियेगा। सिर के बल हाजिर होंगे।’’
‘‘और एक आखिरी बात और। इतने आदमी एक मकान में होना इलाके की अमन-शान्ति के लिये ख़तरा हो सकता है। मेरे इलाके में ऐसा कुछ होने का अन्देशा भी हुआ तो सब को अन्दर कर दूंगा और ऐसा केस बनाऊंगा कि महीनों जमानत भी न होगी।’’
‘‘झूठा केस बनायेंगे?’’ – हाशमी बोला।
‘‘देखना।’’
‘‘इस वजह से क्योंकि माइनारिटी से हैं? मुसलमान हैं?’’
‘‘मैं माइनारिटी मेजॉरिटी नहीं जानता। मैं हिन्दु मुसलमान नहीं जानता। कुछ जानता हूं तो ये कि मेरे थाने के इलाके में अमन-शान्ति भंग नहीं होनी चाहिये। ध्यान में रखना मेरा बात वो सब के सब।’’
वो और उसका सहायक चले गये।
‘‘अल्तमश को ख़बर कर’’ – पीछे मुबारक अली चिन्तित भाव से बोला – ‘‘कि आइन्दा ताकीद तक इधर न फटके।’’
‘‘अभी, मामू।’’ – हाशमी बोला।
‘‘साहब, कुछ नहीं रखा केस में।’’ – रास्ते में अजीत लूथरा बोला।
‘‘अच्छा!’’ – एसएचओ अनमने भाव से बोला।
‘‘हम मिथ्या के पीछे भाग रहे हैं। उन लोगों की ख़ामख़यालियां हैं जो हमें दौड़ा रही हैं।’’
‘‘ये ख़ामख़्याली है कि वो बाबू कौल सोहल हो सकता है? ये ख़ामख़्याली है कि वो पटियाला हाउस कोर्ट में देखा गया था? ये ख़ामख़्याली है कि उस आदमी जसबीर सिंह उर्फ जस्सा को उस हिजड़े अल्तमश की ख़बर लगी ही इस वजह से थी क्योंकि वो उस मुस्लिम परिवार के ताल्लुक में था?’’
‘‘वो लोग कहते ही तो हैं ऐसा? असलियत क्या है, इसका कोई सबूत तो नहीं पेश करते?’’
‘‘लूथरा, जहां धुंआ होता है, वहां आग भी होती है।’’
‘‘ठीक! ठीक! वो कहते हैं कि चार लड़कों के साथ जो हुआ, कौल ने किया या करवाया। लेकिन वजह तो नहीं बताते कि वो नौबत आई क्यों कर?’’
‘‘कौल की बीवी का कत्ल हुआ था।’’
‘‘ठीक। लेकिन ये न भूलिये कि उससे पहले ही उन चार में से दो छोकरे अपने हाहाकारी अंजाम को पहुंच चुके थे।’’
एसएचओ खामोश रहा।
‘‘कोई मदद के लिये पुलिस के पास आता है तो ओपन हार्ट के साथ आता है, अपना पक्ष पुलिस के सामने साफ-साफ रखता है। वो लोग तो ऐसा करते नहीं जान पड़ते! उन्होंने तो पुलिस पर दबाव बना कर अपना मतलब हल करने की स्ट्रेटेजी अपनाई! चिन्तामणि त्रिपाठी ने अपने एमएलए भाई को आगे कर दिया। तोमर साहब, मैं तो यही कहूंगा कि नेता के रौब में आप कुछ ज्यादा ही आ गये।’’
‘‘जोगमणि त्रिपाठी इलाके का विधायक ही नहीं, चीफ मिनिस्टर का ख़ास है और बताया जाता है कि बहुत जल्द मंत्री बनने वाला है। हम उसकी नहीं सुनेंगे, उसकी मर्जी के मुताबिक उसकी नहीं सुनेंगे, तो सब लाइन हाजिर होंगे।’’
‘‘ठीक है, सुनिये। आप थानाध्यक्ष हैं, सुनिये।’’
‘‘और तू किस की तरफ है?’’
‘‘जी!’’
‘‘जवाब दे।’’
‘‘मैं पुलिस वाला हूं, पुलिस की तरफ हूं।’’
‘‘तो तू मुझे उन लोगों की हिमायत में बोलता क्यों लग रहा है जिन से हम मिल के आ रहे हैं?’’
‘‘ऐसी कोई बात नहीं, साहब।’’
‘‘न ही हो तो अच्छा है। लूथरा, उस मुस्लिम परिवार में कोई भेद है, उसके एकाएक यहां आके रहने लगने में कोई भेद हैं।’’
‘‘क्या भेद हैं?’’
‘‘वो चिन्तामणि को कौल की ताकत बताने के लिये यहां इकट्ठे हैं।’’
‘‘क्यों जरूरी है चिन्तामणि को ताकत बताना? क्या किया है उसने या उसे सुपुत्र ने? कुछ तो किया ही होगा! कोई ऐसे ही तो किसी के खिलाफ नहीं हो जाता! जुल्म तभी सहना पड़ता है जब जुल्म किया हो। वो साफ-साफ क्यों नहीं बताता कि कौल से मुखालफत की नौबत क्यों आयी? जैसे आपको उस मुस्लिम परिवार में कोई भेद दिखाई देता है, वैसे चिन्तामणि की पर्दादारी की एटीच्यूड में कोई भेद नहीं दिखाई देता? आपने तो एक बार भी उससे सवाल नहीं किया कि इस सिलसिले की शुरूआत कैसे हुई? क्या किया था उसने या उसके बेटे ने? या बाकी तीन छोकरों ने जो बेटे जैसे अंजाम को पहुंचे?’’
‘‘लूथरा, तू फिर हिमायती जुबान बोल रहा है!’’
‘‘मैं ख़ामोश ही हो जाता हूं, साहब।’’
तभी जीप थाने पहुंच गयी।
सुन्दर नगर वाली वीरान कोठी तक पहुंचने में जस्से को कोई दिक्कत न हुई।
अकील को बाख़ूबी याद था कि उसके लिये प्रगति मैदान की तरफ से आते हुए वो पहली सड़क से अन्दर मुड़ा था, फिर पहले एक पार्क आया था और उसके बाद वो एकमंजिला कोठी थी। लिहाजा जस्से को अपना मरकज तलाश करने के लिये सारे सुन्दर नगर में नहीं भटकना पड़ा था, वो ऐन नाक की सीध में वहां पहुंच गया था।
कोठी की शक्ल से ही लगता था कि वो बसी हुई नहीं थी। फिर आउटर गेट पर ताला लटक रहा था।
उसने पड़ोस की कॉल बैल बजाई।
जवाब में एक अधेड़ महिला भीतर से निकल कर गेट पर आयी।
‘‘नमस्ते जी’’ – जस्सा मधुर स्वर में बोला – ‘‘मैं एमसीडी का सर्वेयर हूं। पड़ोस की कोठी के सर्वे के लिये आया था।’’
‘‘कैसा सर्वे?’’ – महिला स्त्रीसुलभ उत्सुकता से बोली।
‘‘पता लगा है कि इधर कोई ग़ैरकानूनी, बिना नक्शा पाल करवाये कंस्ट्रक्शन हुई है . . .’’
‘‘कैसे हुई है?’’ – वो नाक चढ़ा कर बोली – ‘‘ये कोठी तो दो साल से बन्द है!’’
‘‘अच्छा, जी?’’
‘‘और क्या!’’
‘‘इधर कंस्ट्रक्शन में कोई हालिया एडीशन नहीं हुई?’’
‘‘नहीं हुई।’’
‘‘कभी-कभी ग़लत टिप मिल जाती है। वैसे क्यों बन्द है?’’
‘‘मालिक मुस्तफा बेग साहब सपरिवार दुबई में हैं।’’
‘‘दो साल से?’’
‘‘हां।’’
‘‘तो इधर कोई आता जाता नहीं?’’
‘‘आता है न!’’
‘‘अच्छा, आता है। कौन?’’
‘‘जब पहली बार आया था और आ के गेट का ताला खोलने लगा था तो मैंने उसे टोका था। तब उसने अपना नाम इकराम हाशमी बताया था और कहा था कि वो बेग साहब के बेटे इब्राहीम बेग का दोस्त था और बड़े बेग साहब ने उनके पीछे कोठी की देखभाल की जिम्मेदारी उसे सौंपी थी। तभी मुझे मालूम हुआ था कि पड़ोसी दुबई चले गये थे और लम्बे अरसे तक वहां से लौट कर नहीं आने वाले थे।’’
‘‘ओह! तो ये इकराम हाशमी अक्सर यहां आता है?’’
‘‘आना पड़ता है न!’’
‘‘आना पड़ता है?’’
‘‘भई, कई तरह के बिल यहां आते हैं जो भरे जाने होते हैं, डाक आती है। बीच-बीच में चक्कर लगा कर वो सब बटोरता है न!’’
‘‘बिजली, पानी के बिल के लिये तो मीटर रीडिंग जरूरी होती है! जब कोठी लाक्ड रहती है तो कैसे मीटर रीडर . . .’’
‘‘मेरे पास चाबी है न!’’
‘‘आपके पास कोठी की चाबी है?’’
‘‘नहीं, भई। बाहरले गेट की चाबी है। ख़ुद हाशमी ने दी। बिजली पानी के मीटर कोठी के फ्रंटयार्ड में हैं, मीटर रीडर का कोठी के भीतर क्या काम!’’
‘‘ठीक।’’
‘‘वो लोग रीडिंग के लिये हमारी कोठी में आते हैं तो मैं उन्हें बगल में भी ले जाती हूं।’’
‘‘मीटर रीडर्स की ऐसी विजिट तो शिड्यूल्ड होती है!’’
‘‘हां।’’
‘‘और बिल?’’
‘‘रीडिंग के बाद एक हफ्ते में आ जाता है। जब हमारे बिल आ जाते हैं तो मैं हाशमी को फोन कर देती हूं, वो आके बिल ले जाता है।’’
‘‘यानी आप के पास हाशमी का फोन नम्बर है?’’
‘‘अरे, नम्बर नहीं होगा तो फोन कैसे करूंगी?’’
‘‘वो नम्बर आप मुझे दे दें तो मेहरबानी होगी।’’
‘‘क्यों? तुम क्या करोगे?’’
‘‘उससे कान्टैक्ट करूंगा न! फिर वो आकर, कोठी खोल कर मुझे दिखायेगा कि कोई एडीशनल कन्स्ट्रक्शन नहीं हुई।’’
‘‘जब मैं बोली कि नहीं हुई . . .’’
‘‘मैडम, मेरी नौकरी है, मेरी ड्यूटी है, कनफर्म फिर भी करना पड़ता है।’’
‘‘ओह! नोट करो।’’
उसने एक नम्बर बताया जो जस्से ने मोबाइल पर नोट कर लिया।
‘‘वैसे’’ – जस्सा बोला – ‘‘उसने आना कहां से होता है?’’
‘‘पुरानी दिल्ली में तिराहा बैरम खान से आता है, ऐग्जैक्ट पता मुझे नहीं मालूम।’’
‘‘कोई अन्दाजा कि अब कब आयेगा?’’
‘‘कल आयेगा न! दोनों बिल आये पड़े हैं, दो कूरियर से आये लैटर भी हैं . . .’’
‘‘ऐसे लैटर आप रिसीव करती हैं?’’
‘‘हां। बेग साहब कूरियर कम्पनी को और डाक वालों को हिदायत देकर गये थे इस बाबत। मेरे पास इसी सिलसिले में उनका एक अथारिटी लैटर भी है।’’
‘‘आई सी। आपने बोला हाशमी कल आयेगा!’’
‘‘हां। आज फोन किया न मैंने उसको! बोला, कल आऊंगा।’’
‘‘ऐसे जब आने को बोलता है, आ जाता है?’’
‘‘हां। कभी-कभी एक दिन लेट हो जाता है लेकिन अमूमन आ जाता है।’’
‘‘आता है तो किस वक्त आता है?’’
‘‘दोपहर से पहले ही आता है लेकिन आज जब फोन पर बात हुई तो बोला शाम को आऊंगा।’’
‘‘शाम को किस वक्त?’’
‘‘चार बजे।’’
‘‘शुक्रिया, बहन जी, आपने मेरी बहुत मदद की।’’
उसने मुस्कुरा कर शुक्रिया कुबूल किया।
जस्से ने अल्तमश की तलाश का अपना अभियान शुरू किया।
वो काम ख़ुद करना उसकी मजबूरी थी, वर्ना कुलदीप सिंह और गगनदीप सिंह में से कोई भी – या दोनों मिल कर – उसे बेहतर अंजाम दे सकता था। लेकिन मौजूदा हालात की रू में दोनों उपलब्ध नहीं थे और जो बाकी आदमी थे उनकी ऐसे कामों को अंजाम देने की कूवत पर उसे ख़ुद शक था।
कुलदीप और गगनदीप जैसा ख़तरा उसे भी था लेकिन कहीं जा छुपना न उसकी फितरत में था और न लाला उसे ऐसा करने देने वाला था।
किन्नरों की बाबत जानकारी हासिल करने के जो बेहतरीन ठिकाने उसे सूझे, वो आईटीओ और दिल्ली गेट के चौराहे थे जो कि वहां से दूर भी नहीं थे। दोनों ही जगह उसने अक्सर झुण्ड के झुण्ड किन्नर लाल बत्ती पर रुकी कारों के शीशे ठकठकाते देखे थे।
दोनों जगह से व्यापक पूछताछ का नतीजा ये निकला कि या तो वो जमनापार जाफराबाद, भजनपुरा, और सीमापुरी जैसे इलाकों के स्लम्स में रहते थे या फिर महरौली, महिपालपुर, रंगपुरी और बेरीवाला बाग में उन की रिहायश बहुताहत में पायी जाती थी।
जमनापार वहां से करीब था इसलिये पहले वो जमना के लोहे के पुल से होता जीटी रोड पर शाहदरा से पहले स्थित जाफराबाद पहुंचा। दिन की उस घड़ी क्योंकि लोगबाग काम काज पर निकले होते थे इसलिये वहां की किन्नर बस्ती से कोई पूछताछ करना दिक्कत का काम था। फिर भी कोई एक घन्टा उसने वहां धक्के खाये।
कोई नतीजा सामने आया तो वो यहीं था कि वहां कोई अल्तमश नहीं रहता था।
उसके पास होटल ब्लैक पर्ल की शादी की सीसीटीवी फुटेज से निकाली अल्तमश की लखनवी बेगम के लिबास वाली तसवीर थी जो उसने वहां कई जगह दिखाई लेकिन हर जगह सिर इंकार में ही हिला।
महरौली में तब उसकी उम्मीद जागी जबकि उसे पता लगा कि अल्तमश वहां रहता था। उस की लम्बी भागदौड का सिला आखिर उसे मिलने वाला था।
लेकिन ऐसा न हुआ।
जो अल्तमश उसके सामने पेश किया गया, वो उम्र में पचास से कम न था, सिर पर मेहंदी लगाता था और उसके दान्त कत्थे से रंगे थे।
आखिर बेरीवाला बाग में जैसे ही उसकी लाटरी निकली। वो किन्नरों की बड़ी कॉलोनी थी फिर भी जिस पहले ही किन्नर से उसने अल्तमश की बाबत सवाल किया, उसने जवाब दिया कि वो वहां रहता था। उसने उसका कद काठ, हुलिया बयान किया तो उसकी भी तसदीक हुई। उसने अल्तमश की लखनवी बेगम वाली तसवीर पेश की तो वृद्ध किन्नर एकाएक सन्दिग्ध हो उठा।
‘‘क्या माजरा है?’’ – वो बोला।
‘‘मेरे मालिक का अल्तमश से कुछ काम निकलता है इसलिये मैं उससे मिलना चाहता हूं।’’
‘‘क्या काम?’’
‘‘है कोई काम।’’
‘‘बोलो मेरे को!’’
‘‘अरे, तुम नहीं समझोगे।’’
‘‘क्यों नहीं समझूंगा? अक्ल से भी किन्नर हूं?’’
‘‘लो! तुम तो बुरा मान गये!’’
‘‘क्या काम है, बोलो!’’
‘‘बोलता हूं लेकिन राज की बात है’’ – जस्से के लहजे में इरादतन याचना का पुट आया – ‘‘आगे न बोलना किसी को।’’
‘‘नहीं बोलेंगे।’’
‘‘कुछ सामान दिल्ली यूपी बार्डर से पार पहुंचाना है। आज कल उसके चक्कर में बार्डर पर बहुत पड़ताल हो रही है क्योंकि यूपी पुलिस को उस बाबत कोई गुमनाम टिप पहुंच गयी है। लेकिन किन्नरों की पड़ताल नहीं होती। इसलिये मेरे बॉस को – मालिक को – अल्तमश चाहिये।’’
‘‘अल्तमश को क्या मिलेगा तुम्हारे मालिक का काम करने का?’’
‘‘जो वो चाहेगा।’’
‘‘क्या मतलब? वो जो फीस मांगेगा, मिलेगी?’’
‘‘हां।’’
‘‘फिर तो माल कीमती होगा!’’
‘‘हां।’’
‘‘बेशकीमती होगा!’’
‘‘वो भी।’’
‘‘अल्तमश ही क्यों चाहिये? ऐसे और भी बहुत हैं यहां।’’
‘‘उनकी भी जरूरत पड़ेगी लेकिन उनका चुनाव अल्तमश ख़ुद करेगा।’’
‘‘हूं।’’
‘‘ये ग्रुप में होने वाला काम है। किन्नरों की कोई टोली अपनी ढ़ोलक वगैरह के साथ बार्डर से गुजरती है तो उनकी तरफ कोई तवज्जो नहीं देता।’’
‘‘होता तो है ऐसा!’’
‘‘तभी तो . . .’’
‘‘मुझे क्या मिलेगा?’’
जस्सा हड़बड़ाया।
‘‘इतनी बड़ी कॉलोनी है, ख़ुद तो ढूंढ़ नहीं पाओगे अल्तमश को!’’
‘‘ऐसा तो नहीं है!’’
‘‘घन्टों भटकोगे। वो भी रात के वक्त। कोई बड़ी बात नहीं कि कल फिर आना पड़े।’’
जस्से ने एक आह सी भरी, फिर जेब से एक सौ का नोट निकाला।
किन्नर ने उसकी तरफ हाथ न बढ़ाया।
जस्से ने उसके साथ एक नोट और जोड़ा।
किन्नर ने जैसे वैसा होता देखा ही नहीं।
‘‘लालच मत करो।’’ – जस्सा बोला – ‘‘इसलिये मत करो कि अभी तो इस बात की ही कोई गारन्टी नहीं कि अल्तमश को हमारा काम करना कुबूल होगा।’’
‘‘कुबूल हुआ तो?’’
‘‘तो उससे भी मांगना न! असल कमाई तो वो करेगा। बोलना, अहसान जताकर बोलना कि तुमने मुझे उस तक पहुंचाया था।’’
उसके तेवर तब्दील हुए। उसने जस्से को पंजा दिखाया।
जस्से ने उसे पांच सौ का नोट सौंपा।
‘‘यहां से एक गली छोड़ के जो गली है, वो आगे से बन्द है। उस गली का आखिरी मकान, जो कि गली के माथे पर है, अल्तमश का है।’’
‘‘इस वक्त वहां होगा कोई?’’
‘‘एक दसेक लाल का छोकरा होता है कभी-कभी। जा के देखना, है कि नहीं।’’
‘‘शुक्रिया।’’
जस्सा आगे बढ़ा और तीसरी गली में दाखिल हुआ।
वो एक लम्बी गली थी जिसके सिरे पर हरा रंग मिले चूने से पुता एक मकान था। उस दो पल्लों वाला, सांकल वाला दरवाजा भी हरा था।
सांकल खुली थी।
उसने सांकल खटखटाई।
छोकरे ने दरवाजा खोला।
‘‘अल्तमश को बुला।’’ – जस्सा रौब से बोला।
छोकरे पर रौब बराबर गालिब हुआ।
‘‘क्या काम है?’’ – फिर भी उसने पूछा।
‘‘अरे, बोलूंगा न उसको! तू क्या समझेगा काम को!’’
‘‘अभी नहीं आया।’’
‘‘कब आता है?’’
‘‘कोई टाइम नहीं आने का। कई बार तो आता ही नहीं।’’
‘‘क्या!’’
‘‘दो-दो, तीन-तीन दिन नहीं आता।’’
‘‘क्या बकता है!’’
‘‘पर आज का बोल के गया कि आठ-साढ़े आठ तक आ जायेगा।’’
‘‘आज क्यों जल्दी आयेगा?’’
‘‘मालूम नहीं।’’
जस्से ने कलाई घड़ी पर निगाह डाली।
सवा सात बजे थे।
‘‘हूं।’’ – वो बोला – ‘‘ठीक है।’’
‘‘मैं क्या बोलूं, कौन आया था?’’ – छोकरे ने पूछा।
‘‘नहीं जरूरत पड़ेगी बोलने की। मैं जा नहीं रहा, यहीं हूं मैं। गली के बाहर इन्तजार करता हूं उसका।’’
जस्सा वापिस घूमा और लम्बे डग भरता आगे बढ़ा।
आधे रास्ते में वो ठिठका। उसने घूम कर पीछे देखा तो पाया कि गली के माथे का हरा दरवाजा पूर्ववत् बन्द हो चुका था।
गली उस घड़ी सुनसान थी।
उसने जेब से मोबाइल निकाला, एक नम्बर पंच किया और अपने चार आदमियों को गोली की तरह वहां पहुंचने का हुक्म जारी किया और सविस्तार समझाया कि उन्हें वहां पहुंचना था।
अब अल्तमश का उनके काबू में होना महज वक्त की बात थी।
ऐन उस वक्त विमल गगनदीप सिंह का मोबाइल बजा रहा था।
घन्टी बजने लगी।
वो फोन बन्द करने लगा था तो एकाएक उत्तर मिला।
‘‘हल्लो!’’
‘‘हल्लो। गगनया?’’
‘‘हां, कौन?’’
‘‘मैं जस्से का नया आदमी हूं।’’
‘‘नाम बोल, भई।’’
‘‘सुरिन्दर सिंह।’’
‘‘मैंने नहीं सुना ये नाम।’’
‘‘कमला न होवे ते। अरे, मैं नया आदमी बोला कि नहीं बोला!’’
‘‘कहां से बोल रहा है?’’
‘‘पहाड़गंज से।’’
‘‘कैसे फोन किया?’’
‘‘लाला बुलाता है।’’
‘‘लाला . . . गोयल साहब बुलाते हैं! जस्सा नहीं?’’
‘‘जस्सा दोपहर का निकला हुआ है, अभी तक नहीं लौटा। इस वास्ते तेरे से कान्टैक्ट करने को लाला मेरे को बोला।’’
‘‘हूं।’’
‘‘मैं तेरे घर भी गया था।’’
‘‘क्या?’’
‘‘मॉडल बस्ती गया था। तू वहां होता तो तुझे साथ ले के आता।’’
‘‘मॉडल बस्ती कहां गया था?’’
‘‘तेर घर।’’
‘‘कहां।’’
‘‘मन्दिर मार्ग। चौदह नम्बर।’’
‘‘पता कैसे जाना? गोयल साहब को तो मालूम नहीं!’’
‘‘कुलदीपे से जाना।’’
‘‘किस से?’’
‘‘कुलदीप सिंह से।’’
‘‘वो कहां मिला तुझे?’’
‘‘मिला नहीं। जब उसे बुलावे का फोन किया तो तब पूछा।’’
‘‘उसको भी बुलावा है?’’
‘‘हां।’’
‘‘कोई ख़ास बात है?’’
‘‘ख़ास ही होगी। मेरे को क्या पता! मेरे को तो जो हुक्म मिला, वो मैं बजा रहा हूं।’’
‘‘ऐसे बुलावे के फोन जस्सा ख़ुद करता है।’’
‘‘यहां होता तो वही करना।’’
‘‘तेरी आराम से बात हो गयी थी कुलदीप से?’’
‘‘हां। लेकिन फोन दो तीन बार बजाने के बाद हुई थी।’’
‘‘मेरे को तो फोन मिल नहीं रहा उसका! कई बार खड़काया।’’
‘‘कह रहा था सिम लूज था। कई बार कनैक्शन नहीं देता था। फोन खोल कर एडजस्ट करना पड़ता था।’’
‘‘ओह! तभी।’’
‘‘तू है कहां?’’
‘‘उत्तम नगर।’’
‘‘दूर है। फौरन निकल ले। क्योंकि गोदाम बन्द होने के टाइम से पहले तेरे को यहां पहुंचना है।’’
‘‘अच्छा!’’
‘‘आयेगा कैसे?’’
‘‘मोटरसाइकल ख़राब है। सुबह ठीक करवाऊंगा। अभी आटो से आऊंगा।’’
‘‘ठीक है।’’
‘‘आता हूं।’’
सम्बन्धविच्छेद हो गया।
विमल ने फोन जेब के हवाले किया।
‘‘आयेगा?’’ – अशरफ ने पूछा।
‘‘फिफ्टी-फिफ्टी चान्सिज हैं। कनफर्मेशन के लिये लाला को फोन तो वो नहीं करेगा लेकिन जस्से को कर सकता है। फिर जस्सा आगे लाला को फोन करेगा तो पोल खुल जायेगी।’’
‘‘फिर?’’
‘‘फिर क्या! हमारी स्कीम फेल। फिर कुछ और सोचेंगे।’’
‘‘ओह!’’
‘‘मैंने उसे बहुत शार्ट नोटिस पर बुलाया है। जिधर से उसने आना है, उधर रात की इस घड़ी बहुत ट्रैफिक होता है। अगर ऐसा हुआ तो ये बात हमारे हक में होगी।’’
‘‘हूं।’’
‘‘फिर हो सकता है वो जस्से को फोन करे ही नहीं, या करे तो फोन उसे न मिले। यूं ही जस्सा लाला को फोन करे ही नहीं, करे तो फोन उसे न मिले। एक बार हमारा बन्दा यहां पहुंच जाये, फिर कौन किस को फोन करता है या नहीं करता, हमें कोई फर्क नहीं पड़ता।’’
‘‘इसीलिये फिफ्टी-फिफ्टी चांस बोला?’’
‘‘हां।’’
‘‘उसे कुलदीप सिंह के अंजाम की ख़बर हुई तो?’’
‘‘नहीं है। होती तो जब मैंने कुलदीप सिंह का हवाला दिया था तो तब उसने मेरा मुंह पकड़ा होता। जब मैंने कहा था कि बुलावे का फोन मैंने कुलदीप सिंह को भी किया था तो वो तभी समझ गया होता कि मेरी काल फेक थी, जो शख़्स इस दुनिया में है ही नहीं, मैंने उसको फोन कैसे किया! फिर वो बोला होता कि आटो पर आ रहा हूं?’’
‘‘ओह!’’
तभी मोबाइल बजा।
विमल का हाथ तत्काल अपने फोन पर पड़ा। लेकिन वो नहीं बज रहा था। वो फोन बज रहा था जो उसने पिछली रात ढ़ाबे पर कुलदीप की लाश की जेब से निकाला था। उसने स्क्रीन पर निगाह डाली।
गगनदीप।
उसने स्क्रीन अशरफ को दिखाई।
‘‘जवाब दोगे?’’ – अशरफ सस्पेंस में बोला।
‘‘देना पड़ेगा। वर्ना वो जस्से को काल लगायेगा।’’
उसने काल रिसीव की।
‘‘हल्लो!’’ – वो जानबूझ कर अपनी आवाज में भर्राहट, खरखराहट पैदा करता और उसे गला सिकोड़ कर निकालता बोला।
‘‘कुलदीपे! – गगनदीप की आवाज उसके कान में पड़ी।
‘‘आहो!’’
‘‘फोन क्यों नहीं सुनता?’’
‘‘सुन तो रहा हूं!’’
‘‘अब सुन रहा है न! मैंने पहले भी तो तीन चार बार फोन किया!’’
‘‘सिम कार्ड लूज है। कई बार कनैक्शन नहीं देता। निकाल कर दोबारा लगाने पर चल पड़ता है। कल रिपेयर शॉप में लेकर जाऊंगा।’’
‘‘ओह! तेरी आवाज को क्या हुआ?’’
‘‘रात तूम्बे में बर्फ ज्यादा डाल ली। गला पकड़ा गया।’’
‘‘ओह!’’
‘‘फोन कैसे किया?’’
‘‘बोलता हूं। अभी किसी सुरिन्दर सिंह का फोन आया था मेरे पास। बोलता था लाला अजेंट बुलाता था।’’
‘‘सही बोलता था। मेरे को भी बुलावा है।’’
‘‘बोलता था मेरा मोबाइल नम्बर और घर का पता उसने तेरे से लिया था।’’
‘‘लिया तो था! नहीं देना था?’’
‘‘यार, मोबाइल तक ठीक है, घर का पता न दिया कर किसी को।’’
‘‘किसी को नहीं दिया, गगनया, अपने जैसे को दिया।’’
‘‘फिर भी?’’
‘‘अब सयापा क्या है?’’
‘‘कुछ नहीं। तू पहुंच रहा है?’’
‘‘मैं तो समझ पहुंच गया! दिल्ली गेट के चौराहे पर हूं। पांच मिनट में पहुंच जाऊंगा। तू अभी बैठा ही हुआ है?’’
‘‘नहीं, नहीं। मैं भी ऑन रोड हूं।’’
‘‘कहां से ऑन रोड है।’’
‘‘उत्तम नगर से।’’
‘‘अभी कहां है?’’
‘‘राजोरी से निकला हूं।’’
‘‘तू टाइम लगायेगा, गगने।’’
‘‘क्या करूं? ट्रैफिक बहुत है। मोटरसाइकल ख़राब पड़ी है। ऑटो पर आ रहा हूं।’’
‘‘छेती कर।’’
‘‘वो तो मैं कर रहा हूं पर माजरा क्या है?’’
‘‘आने पर पता लगेगा।’’
‘‘जस्से से पूछूं?’’
‘‘हां, क्यों नहीं! लाले से भी पूछ ले। कहीं और से दरयाफ्त करना सूझे तो वो भी कर ले।’’
‘‘तू तो नाराज हो रहा है!’’
‘‘कलप रहा हूं तेरी अक्ल पर। वक्त पर मोटरसाइकल खराब कर ली – माईंयवीं शिकार वेले कुतिया हगाई – जब जासूसियां झाड़ रहा है।’’
‘‘मैं कुछ नहीं कर रहा।’’
‘‘ठीक कर रहा है। क्योंकि पहुंच कर बहुत कुछ करना है। बन्द कर जब।’’
सम्बन्धविच्छेद हो गया।
विमल ने मोबाइल जेब के हवाले किया, उसने अशरफ की तरफ देखा।
‘‘कमाल किया आपने!’’ अशरफ हंसता हुआ बोला – ‘‘बर्फ से गला बैठ गया!’’
विमल ने हंसी में उसका साथ दिया।
‘‘आप ख़ुद सिख न होते तो कैसे कर लेते पंजाबी मिला वो हिन्दोस्तानी डायलॉग जो आप ने किया?’’
‘‘नो मैं रिसीव ही न करता। जो होता देखा जाता।’’
‘‘ओह!’’
‘‘अब तो गारन्टी हो गयी न, कि उसे कुलदीप सिंह के अंजाम की ख़बर नहीं?’’
‘‘हां। बहुत उम्दा तरीके से हुई।’’
‘‘मेरे ख़याल से अभी कुलदीप सिंह की बाबत कोई ख़बर किसी को भी नहीं है – जस्से को भी नहीं।’’
‘‘ऐसा क्यों?’’
‘‘जीटी करनाल रोड के जिस ढाबे पर रात वाली वारदात हुई थी, वो हरियाणा में है। मैं उस को मेज पर औंधे मुंह पड़ा छोड़कर आया था, इतने से नहीं कहा जा सकता था कि वो मरा पड़ा था। ये तो बिल्कुल ही नहीं कहा जा सकता था कि वो मरा नहीं था, उसे जहर दे कर मारा गया था। तब रात के ग्यारह से भी ऊपर का टाइम था। मेरे चले आने के बाद क्या पता वहां से कब किसी ने पुलिस को फोन किया, कब पुलिस आयी, कब उसे हस्पताल ले जाया गया। फिर पता नहीं कि एग्जामिनेशन से कनफर्म हुआ या नहीं हुआ कि वो प्वायजनिंग का केस था – या यही समझा गया कि फूड प्वायजनिंग से मरा था। सरकारी अमले ने बहुत फुर्ती दिखाई होगी तो भी आज दोपहर में कहीं जा कर उसका पोस्टमार्टम हुआ होगा और तसदीक हुई होगी कि वो स्वाभाविक मौत नहीं मरा था उसे जहर देकर मारा गया था या ख़ुदकुशी करने के इरादे से जहर उसने ख़ुद खाया था।’’
‘‘ओह!’’
‘‘यहां भी एक घुंडी है। ख़ुदकुशी हमारे मीडिया के लिये न्यूज नहीं है, कत्ल न्यूज है। वो भी तब मीडिया तक पहुचेंगी जब इतना कुछ हो चुका होगा। फिर हमारे यहां लाश की फोटो छापने का रिवाज नहीं है, अलबत्ता मकतूल की वैसे, उसकी जिन्दगी के दौर की, कोई फोटो उपलब्ध हो तो छापी जा सकती है। फिर उसकी जेब में तो उसकी शिनाख्त का कोई जरिया मैंने छोड़ा नहीं थी।’’
‘‘उस के पास कोई सवारी हुई तो उसके रजिस्ट्रेशन से उसका पता निकाला जा सकता है।’’
‘‘हुई तो। हुई तो स्कूटर-मोटरसाइकल जैसा दोपहिया वाहन ही होगा, कार वाली हैसियत तो उसकी जान नहीं पड़ती थी। उसकी ऐसी सवारी वहां लावारिस खड़ी होगी और पता नहीं कब किसी के नोटिस में आयेगी और कब ख़बर पुलिस तक पहुंचेगी।’’
‘‘यानी उसके अंजाम के आम होने की फिलहाल कोई सूरत नहीं?’’
‘‘हां। आखिर कोई हिलडुल होगी तो तब होगी जब लाश की तसवीर के साथ ‘अपील फॉर आइडेंटिफिकेशन’ का पुलिस द्वारा जारी किया इश्तिहार छपेगा।’’
‘‘कौन देखता है ऐसे इश्तिहार को! जहां, मौत के हवाले मरने वाले ने ऐसी हौलनाक सूरत अख्तियार की हुई होती है कि पहचान में नहीं आती।’’
‘‘बिल्कुल!’’
‘‘यानी वक्त लगेगा दूसरे पाले में ख़बर लगने में कि उनकी बिसात का एक मोहरा और पिट गया था!’’
‘‘हां।’’
‘‘और अभी एक और पिटने की कगार पर था?’’
‘‘अगर आ गया हमारा जवान।’’
‘‘आ ही जाये, जवाब। खत्म हो ये सिलसिला।’’
‘‘आजिज आ गये?’’
‘‘अरे, ऐसा तो मैं ख़याल भी नहीं कर सकता। मामू पिछौंड़ा सेक देगा।’’
विमल हंसा।
वो प्रतीक्षा करते रहे।
आठ बज गये।
टिम्बर गोदाम बन्द हो गया। गोदाम को ताले लग गये, बाहर की बत्तियां भी बुझ गयीं, क्या मालिक, क्या मुलजिम, सब लोग रुख़सत हो गये।
सवा आठ बजे एक ऑटो बन्द टिम्बर गोदाम के आगे आ कर रुका।
पैसेंजर उसमें से बाहर निकला।
‘‘वही होगा।’’ – अशरफ बोला।
‘‘उम्मीद तो है!’’ – विमल कार का दरवाजा खोलता बोला – ‘‘देखता हूं।’’
जब तक वो पैसेंजर के करीब पहुंचा, पैसेंजर ऑटो का भाड़ा चुकता कर चुका था।
उस बार विमल ने सिख बहुरूप धारण करने की कोशिश नहीं की थी क्योंकि उसे यकीन था कि गगनदीप उसकी सूरत से वाकिफ नहीं था।
स्कूटर आगे बढ़ गया।
‘‘गगनदीप ही है न!’’ – विमल बोला।
‘‘हां।’’ – वो बोला – ‘‘तू . . .’’
‘‘सुरिन्दर सिंह। मैंने तुझे फोन किया था।’’
‘‘ओह!’’
‘‘देर कर दी न?’’
‘‘मैं क्या करता! इतना ट्रैफिक था। फिर आटों ने अपनी रफ्तार से चलना होता है। मोटरसाइकल होती तो वक्त की जरूरत समझ कर तेज भगा लेता।’’
‘‘ठीक।’’
‘‘गोयल साहब चले गये?’’
‘‘हां। घर तो नहीं गये लेकिन यहां से चले गये। कुलदीपा तेरे से पहलं पहुंच गया था, और हमारे लिये बोल के गये हैं कि तेरे आ जाने पर हमने कहां पहुंचना है!’’
‘‘ईस्ट ऑफ कैलाश।’’
‘‘कहां पहुंचना है?’’
‘‘गोयल साहब के पुराने घर?’’
‘‘हां।’’
‘‘वहां क्यों? यही लेट रुक जाते तो क्या था?’’
‘‘तेरे लेट आने की वजह से मैंने बोला था ऐसा। बोले, कुछ लोग और भी आने वाले थे जिन्हें वहां आने में सहूलियत थी।’’
‘‘बात क्या है?’’
‘‘दुश्मन का एक ख़ास आदमी पकड़ में आ गया है। उस को हथियार बना के उस शख़्स को काबू करने का प्लान है जिसने इतना अन्धेर मचाया हुआ है। कहते हैं उसको भी बड़ी सपोर्ट हासिल है इसलिये चौकस मुकाबले के लिये बहुत आदमी चाहियें। इसलिये जस्से ने खड़े पैर काफी नयी भरती की है।’’
‘‘तू उस नयी भरती में से है?’’
‘‘बिल्कुल।’’
‘‘जायेंगे कैसे?’’
‘‘जल्दी पहुंचना है इसलिये मैंने पहले से एक टैक्सी ऐंगेज की हुई है। वो ‘असैंट’, जो पीछे खड़ी है। लाला भी ऐसा बोल के गया ताकि टाइम जाया न हो।’’
‘‘तो अब हम ईस्ट ऑफ कैलाश चल रहे हैं?’’
‘‘हां।’’
‘‘कुलदीपा गोयल साहब के साथ गया?’’
‘‘हां।’’
‘‘पूछा नहीं मोबाइल क्यों नहीं लगता उसका!’’
‘‘नहीं, यार। मौका ही न लगा। फिर वजह तो उसने बताई ही थी कि सिम लुज था।’’
‘‘लेकिन . . .’’
‘‘यार, बस कर अब। एक तो लेट आया, ऊपर से यहां टाइम खोटी कर रहा है। और जाे बातें करनी हैं, कैब में बैठ कर करना। चल।’’
दोनों ‘असैंट’ की बैक सीट पर सवार हुए।
तत्काल अशरफ ने कार आगे बढ़ाई।
थोड़ा सफर कटा।
‘‘ओये!’’ – एकाएक गगनदीप बोला – ‘‘ये तो ईस्ट ऑफ कैलाश का रास्ता नहीं!’’
‘‘थोड़ा डाइवर्जन करना है। एक पैसेंजर और बिठाना है, फिर ईस्ट ऑफ कैलाश का रास्ता पकड़ेंगे।’’
‘‘और कौन?’’
‘‘लाला का कोई ख़ास है।’’
‘‘कहां मिलेगा?’’
‘‘पार्क स्ट्रीट।’’
‘‘वो कहां है?’’
‘‘तालकटोरा गार्डन के पास है। मन्दिर मार्ग से चलेंगे। खुल्ला रास्ता है।’’
‘‘ओह!’’
‘‘बस, पहुंचे कि पहुंचे।’’
‘‘ठीक है।’’
‘‘एक बात बता। पिछले सोमवार, सोलह दिसम्बर वाले सोमवार, कुलदीपे ने पटियाला हाउस कोर्ट कम्पलैक्स की कैन्टीन में जिस बाउ को शूट करने की कोशिश की थी लेकिन जो बाल-बाल बच गया था, तू उसे पहचानता है?’’
‘‘लो! मैं कैसे पहचानूंगा! वो काम तो कुलदीपे के हवाले था। मेरे को तो जस्से ने बैकअप के लिये रिजर्व में रखा हुआ था।’’
‘‘हूं। फिर तो तू उस जनानी के खसम को भी नहीं पहचानता होगा मॉडल टाउन में जिसके घर में घुस कर तुम लोगों ने जनानी को शूट किया था?’’
‘‘न!’’
‘‘ये तो जानता होगा कि दोनों एक ही शख़्स हैं?’’
‘‘हां, ये जानता हूं। लेकिन तू तो अपने आप को नयी भरती बता रहा है, ये सब तेरे को कैसे मालूम है?’’
‘‘ओये, यारा, बड़े कारनामों का बड़ा जिक्र होता है। एक ही थैली के चट्टे-बट्टों से कहीं छुपा रहता है कुछ?’’
‘‘ओह! तो आपसी खुसर-पुसर से पता चला!’’
‘‘हां! लेकिन ये पता नहीं चला कि तुम लोगों को उस बड़े कारनामे का कोई ख़ास ईनाम मिला या नहीं! मिला तो क्या मिला! नहीं मिला तो क्या मिलेगा!’’
‘‘भई, जस्सा कहता है कि मिलेगा तो जरूर लेकिन तभी मिलेगा जब कि जो क्लेश चल रहा है, वो कट जायेगा।’’
‘‘जस्से को भी?’’
‘‘वो तो लीडर है। उसे तो हम से बड़ा ईनाम मिलेगा।’’
‘‘बाकी तुम तीनों को बराबर का या उससे भी बड़ा?’’
‘‘तीन तो अब दो रह गये हैं।’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘हरीश नेगी . . . गया ऊपर।’’
‘‘अरे! क्या हुआ?’’
‘‘उसका जिक्र न आया आपसी खुसर-पुसर में?’’
‘‘नहीं हो आया, यार। क्या हुआ था?’’
‘‘डी-9 वाले बाउ के चक्कर में कोर्ट वाले वाकये के बाद ऐसे हालात पैदा हो गये हैं कि नेगी उन लोगों के हाथ पड़ गया था और प्रैशर में आकर वो जनानी के कत्ल के बारे में सब बक सकता था इसलिये मजबूरन . . . मजबूरन कुलदीपे को ही उसे शूट कर देना पड़ा था।’’
‘‘ओह!’’
कार तब मन्दिर मार्ग पर दौड़ रही थी।
‘‘एक बात और बता।’’ – विमल बोला – ‘‘अगर तू अकेला डी-9 वाले इस बाउ को मार गिराये तो क्या होगा?’’
‘‘क्या होगा? ओये मेरी बल्ले-बल्ले हो जायेगी।’’
‘‘क्या बल्ले-बल्ले?’’
‘‘मेरा रुतबा जस्से के बराबर का हो जायेगा। मुझे शुकराना जस्से के बराबर मिल जायेगा। हो सकता है उससे ज्यादा मिल जाये।’’
‘‘काफी खुशफहम आदमी है। लेकिन बहुत जल्दी तेरी समझ में आयेगा कि जो कारोबार तूने पकड़ा है, उसमें न कोई इनाम है, न सजा है, सिर्फ नतीजे हैं जो भुगतने पड़ते हैं। जैसे अभी तू भुगते गा।’’
‘‘ओये, क्या कह रहा है तू? बुझारतें क्यों कर रहा है?’’
‘‘तो तेरा रुतबा जस्से के बराबर हो जायेगा, उससे बड़ा शुकराना तुझे मिल जायेगा?’’
‘‘हां। पर कैसे मिल जायेगा! सौरा पता तो लगे कि कहां है?’’
‘‘मुझे पता है।’’
‘‘तुझे पता है?’’
‘‘हां।’’
‘‘कमला माईंयवा! कल की भरती बताता है ख़ुद को और कहता है मुझे पता है।’’
‘‘फिर भी न सिर्फ पता है, यकीनी तौर पर पता है।’’
‘‘अच्छा!’’ – वो हंसा – ‘‘पता है तो बता कहां है?’’
‘‘तेरी बगल में बैठा है।’’
‘‘मेरा बगल में बैठा है! मेरी बगल में तो तू बैठा है!’’
‘‘कितना सयाना है! हर बात को झट भांप लेता है।’’
‘‘देख, रात का वक्त है और हम लोग सीरियस मिशन पर हैं इसलिये मजाक न कर।’’
विमल यूं हंसा जैसे सच में ही मजाक कर रहा था।
‘‘माईंयवा जोकर?’’ – गगनदीप भी हंसा।
बिड़ला मन्दिर से आगे के सिग्नल को पार कर के कार की रफ्तार घटने लगी और उसका दायां ब्लिंकर चमकने लगा।
‘‘अरे, उधर कहां जा रहा है?’’ – गगनदीप तीखे स्वर में बोला – ‘‘उधर मन्दिर लेन है जो रात को बन्द होती है। फिर न भी बन्द हो तो तेरा उधर क्या काम है? आगे राउन्डअबाउट पर पहुंच कर बायें मुड़ पार्क स्ट्रीट के लिये।’’
अशरफ ने जैसे सुना ही नहीं। उसने कार को दायें मोडा। मन्दिर लेन के दहाने पर पुलिस के ट्रेडीशनल पीले, पहियों वाले बैरियर लगे हुए थे। ‘असैंट’ की ठोकर से एक बैरियर गिर गया जो कुछ दूर ‘असैंट’ के साथ-साथ घिसटा, फिर एक और जा पड़ा।
पिछली सवारियां सीट पर से उछल गयीं।
सीट बैल्ट की वजह से अशरफ के साथ वैसा न हुआ।
‘‘अबे, पागल है क्या, साले?’’ – गगनदीप चिल्लाया – ‘‘दूसरे सिरे पर पुलिस होती है, पकड़ लेगी।’’
‘‘पिल्ला अभी बाकी है।’’ – विमल एक-एक शब्द पर जोर देता बोला – ‘‘ढूंढ़ लेंगे। फिर तेरी बारी।’’
गगनदीप के नेत्र फट पड़े। वो झटके से यूं पीछे को गिरा जैसे बिजली का करेंट लगा हो।
दो फरलांग आगे जा कर कार रुकी।
अशरफ ने भीतर की बत्ती जलाई।
गगनदीप ने फटे नेत्रें से विमल को देखा, फिर बोला – ‘‘क-कौन है तू?’’
‘‘मैं वो शख़्स हूं जिसके कत्ल से तेरा रुतबा जस्से के बराबर हो जायेगा, तुझे उसमें बड़ा ईनाम मिलेगा।’’
‘‘क-क्या?’’
‘‘मैं मॉडल टाउन वाली उस बद्नसीब औरत का बद्सीब खाविन्द हूं जिसके कत्ल में तू शामिल था।’’
‘‘क-क-कौल!’’
‘‘आलसो नोन एज सोहल!’’
‘‘सो-सोहल!’’
‘‘पटियाला हाउस कोर्ट कम्पलैक्स में तेरे जोड़ीदार कुलदीप सिंह ने जिस को शूट करने की कोशिश की थी।’’
‘‘वाहे गुरु! वाहे गुरु!’’
‘‘क्यों? प्राण कांप रहे हैं मुझे सामने पा कर? पाप नाच रहे हैं आंखों के सामने?’’
‘‘तू . . . तू . . . क्-क्या करेगा?’’
‘‘ज्यादा कुछ नहीं।’’
‘‘ज्या . . . ज्यादा कुछ नहीं!’’
‘‘सिर्फ तेरा खून पियूंगा। तेरा कलेजा भून के खाऊंगा। तेरी हड्डी बोटी चबाऊंगा।’’
‘‘म-माफ . . . माफ कर दे।’’
‘‘क्यों? क्यों माफ कर दूं? क्या दावा है तेरा माफी पर?’’
‘‘ओये, मैं तेरा पंजा की भ्रा। तू गुरां दा सिंह। गुरां दा सिंह इतना निर्दयी नहीं हो सकता कि निहत्थे पर वार करे।’’
‘‘हो सकता है, हरामजादे, हो सकता है। तूने और कुलदीप सिंह ने साबित करके दिखाया है कि हो सकता है। जो सबक अब मुझे दे रहा है, वो तब याद न आया जबकि निर्दोष औरत को मारा था। तब याद न आया तू गुरां दा सिंह था, तुझे एक निहत्थी औरत पर वार नहीं करना था। ये फैंसी बातें अब याद आयीं, वाहे गुरु अब याद आया जबकि मौत सामने खड़ी दिखाई दी!’’
उसके मुंह से बोल न फूटा।
‘‘बाहर निकल!’’
‘‘तू . . . तू मुझे पुलिस के हवाले कर दे।’’
‘‘है न तू पुलिस के हवाले!’’
‘‘क-क्या!’’
‘‘तेरे लिये मैं ही पुलिस हूं। तेरा जज, ज्यूरी, एग्जीक्यूशनर सब मैं हूं। बाहर निकल अब।’’
वो अपनी जगह से हिला भी नहीं।
विमल ने गन निकाल कर उसकी पसलियों से सटाई।
वो फिर भी न हिला। उसका चेहरा चाक की तरह सफेद था और लगता था जैसे बैठा-बैठा ही मर गया था।
विमल के इशारे पर अशरफ कार से बाहर निकला और उसने उसे जबरन घसीट कर कार में बाहर निकाला।
विमल भी बाहर निकला। वो आकर उसके सामने खड़ा हुआ, गन की नाल को उसने उसकी छाती में खुबोया।
गगनदीप लड़खड़ाता-सा दो कदम पीछे हट गया।
‘‘माफ कर दे।’’ – वो कातर भाव से बोला – ‘‘बकश दे।’’
‘‘मैं कौन होता हूं बख्शने वाला! बख्शना होगा तो वाहे गुरु बख्शेगा न तेरे को? उसने तेरे को बख्शना होगा तो अभी मेरे पर बिजली गिरेगी और मैं यही खड़ा-खड़ा राख हो जाऊंगा। वेट करते हैं।’’
कई क्षण खामोशी रही।
वक्ती तौर पर जैसे सब कुछ फ्रीज हो गया।
‘‘नहीं मर्जी वाहे गुरु की तेरे को बख्शने की।’’ – फिर विमल बोला – ‘‘नहीं गिरी मेरे पर बिजली। अब बोल, क्या कहता है?’’
‘‘छमा कर दे, वीर मेरे। वो बोलते हैं कि नहीं कि छमा बड़न को
चाहिये . . .’’
‘‘मैं बड़न नहीं हूं इसलिये क्षमा नहीं कर सकता। मैं बहुत मामूली आदमी हूं। मेरी न कोई हस्ती है, न हैसियत है, न औकात है। मैं वाहे गुरु के हुक्म पर चलने वाला नश्वर प्राणी हूं। जिव तिसु भावे तिवें चलावे, जिव होवै फरमानु। और इस घड़ी वाहे गुरु का फरमान है कि अपने सन्मुख खड़े बैरी का मैं संहार करूं।’’
‘‘म-मैंने खून किया त-तो . . . तो तू भी तो अब खून करने जा रहा है!’’
‘‘नहीं। मैं खून नहीं, वध करने जा रहा हूं। वाहे गुरु को आखिरी बार याद कर ले गगनदीप सिंह, जहन्नुम में कुलदीप सिंह को मेरा सत श्री अकाल बोलना।’’
विमल की गन ने तीन बार आग उगली।
गगनदीप के मुंह से आवाज भी न निकली, वो पीछे झाड़ियों में जा कर गिरा।
‘‘देख, गया?’’ – विमल बोला।
अशरफ आगे बढ़ा, उसने झुक कर उसका मुआयना किया, फिर सीधा हुआ और सहमति में सिर हिलाया।
‘‘जेबें देखूं?’’ – फिर बोला।
‘‘क्या जरूरत है?’’ – विमल बोला।
‘‘जब पहले जरूरत थी तो . . .’’
‘‘पहले जरूरत इसलिये थी क्यों कि जोड़ीदार के अंजाम की ख़बर इसे जल्दी हासिल होती तो ये ख़बरदार हो सकता था। नतीजतन ऐसा ग़ायब होता कि ढूंढ़े न मिलता।’’
‘‘अभी जस्सा बाकी है।’’
‘‘वो बड़ा खलीफा है, वो ऐसे ग़ायब नहीं होने वाला।’’
‘‘क्या पता चलता है!’’
‘‘क्या कहना चाहता है?’’
‘‘मेरे ख़याल से इसके लिये भी वही ट्रीटमेंट मुनासिब होगा तो आपने इसको जोड़ीदार को दिया।’’
विमल ने उस बात पर विचार किया।
‘‘ओके!’’ – फिर निर्णायक भाव से बोला – ‘‘देख जेबें। शिनाख़्त में मददगार कोई आइटम हो तो काबू में कर।’’
अशरफ ने तत्काल आदेश का पालन किया।
रात के ग्यारह बजे थे।
हौज ख़ास की गार्मेंट फैक्ट्री के तीसरी मंजिल के खाली हाल में स्टीफेन फेरा मौजूद था और बुरे मूड में था कि इतनी रात गये उसे वहां आना पड़ा था।
उसके अलावा वहां चिन्तामणि त्रिपाठी और रघुनाथ गोयल थे, जस्सा था और जस्से के दो चार आदमी थे जिन्होंने बेरीवाला बाग में अल्तमश को काबू में किया था, फेरा के हुक्म पर उसे वहां लाये थे।
अल्तमश उन सबके सामने एक कुर्सी पर बन्धा पड़ा था, बाकी सब लोग उसके आगे पीछे दायें बायें खड़े थे जबकि कम-से-कम साहब लोगों के बैठने के लिये वहां कुर्सियां उपलब्ध थीं। वो सब निगाहों से उस पर भाले बर्छिया बरसा रहे थे और अल्तमश निडरता से हर निगाह का मुकाबला कर रहा था।
‘‘तू ने हमें धोख दिया!’’ – आखिर फेरा ने ख़ामोशी भंग की।
‘‘ग़लत।’’ – अल्तमश बोला।
‘‘क्या बोला?’’
‘‘मैंने धोखा नहीं दिया, तुम लोगों ने धोखा खाया। कोई धोखा खाने को तैयार बैठा हो तो मैं क्या करे? चांस मिस कर दे?’’
‘‘बोम मारता है, साला। साला इधर आ के पता नहीं लगा था कि उधर कोई लोग धोखा खाने को तैयार बैठे थे, तू साला धोखा देने को तैयार होकर आया था क्योंकि तेरी डी-नाइन वालों से मिली भगत है।’’
‘‘ये आप की सोच है। आप की सोच पर मेरा क्या बस है?’’
‘‘रोकड़ा कहां है?’’
‘‘कौन-सा रोकड़ा?’’
‘‘देखो तो! साला पूछता है कौन-सा रोकड़ा! पांच लाख रुपया! जो इधर से एडवांस ले के गया था कौल को खल्लास करने का वास्ते। पण तू साला पहले ही उससे मिला हुआ था क्योंकि वो सोहल था। क्योंकि उसको हमारा भीडूं अरमान कोहली मांगता था रिवेंज का वास्ते। जो हुआ तेरी वजह से हुआ। अब तू नहीं बच सकता।’’
‘‘कौन बचना चाहता है? ये कोई जिन्दगी है? जितनी जल्दी निजात मिले, उतना ही अच्छा।’’
‘‘पांच लाख रुपया कहां है?’’
‘‘मेरे पास नहीं हैं। मेरे पीछे जो चार चाण्डाल खड़े हैं, इन्होंने कनफर्म किया, मेरे पास नहीं हैं। सालों ने मेरे सारे घर की यूं तलाशी की जैसे सुई तलाश रहे हों।’’
‘‘कहां गया?’’
‘‘बस्ती में बांट दिया। बहुत गरीबी है उधर। आप को तो मालूम होगा नहीं गरीबी क्या होती है!’’
‘‘कौल कहां है?’’
‘‘कौन कौल?’’
‘‘अरविन्द कौल। जो कि असल में सोहल है?’’
‘‘मुझे नहीं मालूम।’’
‘‘क्यों नहीं मालूम? अभी परसों सुन्दर नगर की उजाड़ कोठी में वो तेरे साथ था।’’
‘‘वहीं होगा।’’
‘‘बकवास न कर।’’
‘‘मेरे को नहीं मालूम वो कहां है?’’
‘‘क्यों नहीं मालूम?’’
‘‘बस, नहीं मालूम।’’
‘‘जब वो वहां था तो . . .’’
‘‘मुझे नहीं मालूम किधर से आया था, किधर को चला गया था।’’
‘‘अरमान के साथ सुन्दर नगर की कोठी में जो हुआ, वो तूने किया। इस बात से तू नहीं मुकर सकता, क्योंकि अरमान अभी सलामत है। तेरे को उसके रूबरू किया जा सकता है, वो बाखूबी तेरी शिनाख्त कर सकता है।’’
‘‘मैं गरीब किन्नर। चार पैसे कमाने का मौका मिला, कमा लिये, कोई मेरे को बोला ऐसा कर, पैसा मिलेगा, मैंने कर दिया। आप भी तो यही जुबान बोला।’’
‘‘कितना पैसा?’’
‘‘बीस।’’
‘‘चार बार तूने ये करतब किया। कहां है अस्सी हजार रुपया? अभी बोम नहीं मारने का कि बस्ती में बांट दिया। साला गरीब है तो बस्ती में काहे बांट दिया! पास नहीं रखना था तो कमाने की क्या जरूरत थी?’’
‘‘सोशल सर्विस किया न!’’
फेरा ने आंखें निकाल कर उसे देखा।
अल्तमश ने पूरी निडरता से उसकी निगाह का मुकाबला किया।
फेरा ने जस्से को इशारा किया।
जस्सा करीब आया।
‘‘इसके थोबड़े पर एक बड़े वाला ठोक।’’ – फेरा ने आदेश दिया।
सहमति में सिर हिलाता जस्सा अल्तमश के सामने जा खड़ा हुआ। फिर बिजली की फुर्ती से उसका दायां हाथ चला और स्टीम रोलर की ठोकर जैसा एक घूंसा अल्तमश के थोबड़े से टकराया।
अल्तमश कुर्सी समेत पीछे उलट गया। एक धड़ाम की आवाज सारे हाल में गूंजी।
‘‘देख, जबड़ा टूटा कि नहीं?’’ – फेरा बोला।
जस्से ने झुक कर कुर्सी समेत उसे सीधा किया, उसके जबड़े को हिलाया डुलाया, फिर फेरा की ओर मुंह कर के इंकार में सिर हिलाया।
‘‘साला पिलपिला गया है।’’ – फेरा बोला – ‘‘तेरे जैसे किसी भीडूं को मुम्बई में यहीच काम बोलता तो साला मुंडी सिर से अलग हो जाता।’’
‘‘सॉरी।’’ – जस्सा बोला – ‘‘एक और ट्राई मारूं?’’
‘‘नहीं। अभी नहीं।’’
‘‘तू तो मेरे से भी बड़ा हिजड़ा है!’’ – अल्तमश जस्से से मुखातिब हुआ – ‘‘मर्द होता तो मर्द पर वार करता।’’
‘‘ठहर जा, साले!’’
‘‘जस्से!’’ – रघुनाथ गोयल का चेतावनीभरा स्वर गूंजा।
जस्सा ठिठक गया। तीव्र अनिच्छा के साथ उसने अपना हवा में तना हाथ नीचे किया और मुट्ठी खोली।
‘‘एक बार खोल दे मेरे को’’ – अल्तमश हिंसक भाव से बोला – ‘‘और फिर मेरे मुकाबिल हो। फिर देखना तेरी हमलावर बांह उखड़कर एक बाजू पड़ी होगी और तू दूसरे बाजू पड़ा होगा।’’
जस्से ने दान्त किटकिटाये।
‘‘जस्से!’’ – गोयल ने फिर चेतावनी दी – ‘‘कन्ट्रोल!’’
जस्सा परे हट गया।
‘‘बोले तो’’ – फेरा बोला – ‘‘अगर तूने जुबान न खोली तो तेरा एक अरमान तो पूरा हो जायेगा – तू आजाद कर दिया जायेगा – लेकिन जो तू करने को बोला, वो तू नहीं करेगा, वो सब तेरे साथ होगा।’’
‘‘देखूंगा।’’
‘‘देखना। और इस बार तेरे को कोई जहर वाला बटन-वटन भी चबाने का मौका नहीं मिलेगा।
अल्तमश ख़ामोश रहा।
‘‘हमने तेरे को सोहल का सिर्फ पता बताने के लिये एक लाख रुपया ऑफर किया था। अब उसी काम का सुपारी के बरोबर रोकड़ा तेरे को मिल सकता है। तू समझ सुपारी अभी भी कायम, अभी भी तेरे पास। बोले तो जो बुरा किया, ख़राब किया, धोखा किया, सब तेरे को माफ, और जो पन्द्रह पेटी का तेरे से वादा है, वो भी तेरे हवाले। अभी तेरे को खाली सोहल का पता बोलने का। बाकी सब हम को करने का। अगर काम ऐन फिट कर के हो गया तो तू पन्द्रह पेटी का मालिक और आगे से तू हमारा भीडूं। बोल, क्या बोलता है?’’
‘‘मैंने क्या बोलना है, साहेब’’ – गहरी सांस लेता अल्तमश बोला – ‘‘सब कुछ तो आपने बोल दिया।’’
‘‘फिर भी बोल। हमने जो बोला, उसकी हामी भर।’’
‘‘कैसे होगा। मैंने अल्लाह को मुंह दिखाना है।’’
‘‘ये . . . ये क्या कह रहा है?’’
‘‘इंकार कर रहा है।’’ – चिन्तामणि धीरे से बोला।
फेरा का चेहरा लाल होने लगा। कितनी ही देर वो खा जाने वाली निगाहों से अल्तमश को घूरता रहा।
अल्तमश पर कोई असर न हुआ।
‘‘सुन’’ – इस बार फेरा का लहजा कदरन नर्म पड़ा – ‘‘तेरी कोई अपनी शर्त है वो बोला।’’
‘‘कैसी शर्त?’’ – अल्तमश बोला।
‘‘कैसी भी। कोई भी। बेख़ौफ बोल तू क्या चाहता है?’’
‘‘मैं क्या चाहता हूं!’’
‘‘हां। बोल! तेरी हर ख़्वाहिश पूरी की जायेगी।’’
‘‘मेरी ख़्वाहिश पूरी करने लायक सलाहियात आप को ऊपर वाले न नहीं बख्शीं।’’
‘‘क्या बकता है!’’
‘‘आप मेरे को सारी ख़ुदाई भी आफर करेंगे तो मेरा एक ही जवाब होगा।’’
‘‘क्या?’’
‘‘नहीं मांगता।’’
‘‘तू पागल है। दीवाना है। अरे, ऐसा मौका बार-बार हाथ नहीं आता। अबे, ढ़क्कन, सोहल तेरा कोई सगेवाला नहीं है। वो सिख है, तू मुसलमान है। वो मर्द है, तू . . . वो है। क्या मुलाहजा है तेरा उससे? ये टेम जैसी बाजी उलट हो तो वो तेरी टके की परवाह नहीं करेगा। खुशी-खुशी ऐसे चानस को कैश करेगा जैसा इस वक्त तेरे सामने है। क्या!’’
‘‘ये इंसानी जज्बात से ताल्लुक रखती बातें हैं, साहेब, जिन्हें इंसान ही समझ सकते हैं, आप ये कोशिश न करो।’’
‘‘हम क्या हैं?’’
‘‘इबलीस का तुख़्म।’’
‘‘क्या?’’
‘‘आप को’’ – चिन्तामणि धीरे से बोला – ‘‘शैतान की औलाद बोल रहा है।’’
वक्ती तौर पर नर्म पड़ा फेरा का मिजाज फिर बदला।
‘‘तो’’ – वो दान्त पीसता बोला – ‘‘तू नहीं बतायेगा सोहल कहां है?’’
‘‘नहीं।’’ – अल्तमश दृढ़ता से बोला – ‘‘नहीं बताऊंगा।’’
‘‘ये तेरा आखिरी फैसला है?’’
‘‘हां।’’
‘‘वैसे जानता है वो कहां है!’’
‘‘हां।’’
‘‘फिर तो तू बतायेगा।’’
‘‘कोशिश कर देखो।’’
‘‘वर्ना जान से जायेगा।’’
‘‘वो तो सबने जाना है। किसी ने अभी, किसी ने ठहर के, किसी ने और ठहर के।’’ – एकाएक अल्तमश की आवाज बुलन्द हुई – ‘‘आज मैं जद में हूं, खुशगुमां न होना, चराग सबके बुझेंगे हवा किसी की नहीं।’’
ख़ामोशी छा गयी।
‘‘इसको खोल दो।’’ – फिर फेरा के साथ हुक्म सुनाया – ‘‘और इसके साथ तब तक फुटबाल खेलो जब तक इसके . . . इसका चराग न बुझ जाये।’’
‘‘थैंक्यू बोलता हूं।’’ – अल्तमश मुस्कुराया।
फेरा ने हैरानी ने उसकी तरफ देखा।
‘‘हर मरने वाले की एक आखिरी ख़्वाहिश पूरी की जाती है। मेरी भी एक आखिरी ख़्वाहिश है। पूरी करेगा बड़ा साहेब?’’
फेरा कई क्षण खामोश रहा।
‘‘बोल!’’ – फिर बोला।
‘‘बहुत जल्द आप – आप सब लोग – सोहल के रूबरू होंगे। फर्क सिर्फ ये होगा कि बाजी तब आप लोगों के हाथ में नहीं, सोहल के हाथ में होगी। जब वो आप का कलेजा निकाल कर मसल रहा हो तो धड़कन बन्द होने से पहले उसको मेरा पैगाम देना। बोलना कि अल्तमश को अल्लाह ताला ने अगर सौ बार जिन्दगी अता फरमाई और इस फानी दुनिया में वापिस भेजा तो सौ बार मेरी जान सोहल पर वैसे ही कुरबान होगी जैसे इस घड़ी कुरबान होने जा रही है।’’
सन्नाटा छा गया।
‘‘खेल शुरू करो।’’ – फिर फेरा गरज कर बोला।
अल्तमश को खोल दिया गया। उसे चारों तरफ से घेर लिया गया।
पहली ठोकर जस्से ने जमाई।
ठोकर उतनी भरपूर थी कि अल्तमश गेंद की तरह उछला।
‘‘ऐ, ख़ुदावन्द करीम!’’ – वो बुलन्द आवाज में बोला – ‘‘तेरा गुनहगार बन्दा तेरी बारगाह में आता है।’’
अल्तमश के मुंह से निकले वो आखिरी अल्फाज थे।