उनके दिमागों में तो सांय-सांय हो रही थी। देवांश सोच रहा था— आखिर वही ठीक निकला जो उसे लग रहा था। राजदान ने जो किया, खूब सोच-समझकर उन्हें अपने मनचाहे जाल में फंसाने का पूरा प्रबन्ध करके किया था।
उस वक्त ठकरियाल कागज की तह बनाकर वापस जेब में रख चुका था जब दिव्या ने कहा- "इसका मतलब तुम हमारे सम्बन्धों के बारे में पहले ही जान चुके थे?”
"अब इसमें भी कोई शक रह गया मोहतरमा ?”
“फिर खिलवाड़ा सा क्यों कर रहे थे हमारे साथ ?” देवांश ने पूछा – “हम बेकार इतनी देर तक अपने सम्बन्धों को छुपाये रखने की खातिर कसरतें करते रहे। झूठ-सच बोलते रहे । शुरू में ही बता देते तो... “तुम लोग अभी-अभी पढ़े इस लेटर का मजमून भूल रहे हो ।”
“क्या मतलब?”
“राजदान साहब ने मुझे तुम लोगों को सताने, हड़काने, डराने और हलकाने करने का काम सौंपा था।" ठकरियाल कहता चला गया – “वही कर रहा था बंदा। हलाल तो करने ही थे न पांच लाख मगर...
“मगर ?”
“इजाजत बख्शों तो एक और सवाल दाग दूं?”
“अब क्या बाकी रह गया है?” देवांश ने पूछा।
“असली सवाल तो साला शुरू से ही बाकी पड़ा है।"
“वह क्या?”
“प्लान क्या था तुम्हारा... किसके सिर पर फोड़ना चाहते थे राजदान साहब की हत्या का घड़ा?”
“क्या फायदा उसका नाम लेने से?” देवांश ने कहा – “अब तो बस एक ही रिक्वेस्ट है तुमसे हो सके तो इस वारदात को राजदान द्वारा की गई सीधी-सीथी आत्महत्या का केसा बनाकर दुनिया के सामने पेश कर दो।”
“कर तो सकता हूं मैं ये मेहरबानी । मगर...
“मगर?”
“दिक्कत ये ही फ्री-फण्ड में कोई काम करने का मैंने कभी पाठ ही नहीं पढ़ा। "
“तुम तो जानते हो।” देवांश ने कहा – “किसी को कुछ देने के लिए हमारे पास है ही क्या? होती... तो सारे जहां की दौलत दे देते तुम्हें । "
“मेरे पास ज्वेलरी है।" दिव्या बोली – “उसे ले सकते हो।”
ठकरियाल ने बुरा सा मुंह बनाया।
“और क्या... दे सकते हैं हम तुम्हें?"
“गधे हो तुम दोनों।” कहते वक्त ठकरियाल के होंठों पर धूर्त मुस्कान थी- “पांच करोड़ की पॉलिसी को बिल्कुल ही भुलाये बैठे हो ।”
“क-क्या?” दोनों के हलकों से एक साथ चीख निकल गई- “क-क्या कहना चाहते हो तुम?”
ठकरियाल एक सिगरेट सुलगाने में व्यस्त हो गया था।
दिव्या और देवांश ठकरियल की तरफ इस तरह देख रहे थे जैसे अचानक उसके सिर पर सींग नजर आने लगे हों जबकि सिगरेट सुलगाने के गाद ठकरियाल ने बहुत ही गहरा कश लगाया।
मुंह बंद कर लिया।
धुवें का एक भी कण उसने बाहर नहीं निकलने दिया था।
उसे मुंह में ही भरे चहलकदमी करने लगा।
साफ नजर आ रहा था - - पूरी गम्भीरता के साथ वह कुछ सोच रहा है।
“धांड़! धाड़! धाड़!!
दिव्या और देवांश के दिल पसलियों से सिर टकरा रहे थे।
एक-दूसरे की तरफ देखा उन्होंने।
जैसे पूछ रहे हों—“ठकरियाल के अंतिम वाक्य का आखिर मतलब क्या हुआ?”
क्या वही, जो उन्हें लग रहा है?
जवाब किसी के पास नहीं था।
काफी लम्बी खामोशी के बाद हिम्मत करके देवांश ने पूछा- “क्या सोच रहे हो इंस्पैक्टर ?”
“तुम क्या सोच रहे हो?” ठकरियाल ने एक ही झटके में सारा धुवां उगल दिया।
“क-क्या तुम्हारे कहने का मतलब वही है जो हमें लग रहा है।”
“क्या लग रहा है तुम्हें?”
“य - यही कि – कि तुम सोच रहे हो—क्या सचमुच इस वारदात को किसी के द्वारा की गई हत्या साबित किया जा सकता है?” डरा हुआ देवांश बुरी तरह हकलाता हुआ, बड़ी मुश्किल से कह सका।
“करेक्ट! यही सोच रहा हू मैं।” ठकरियाल ने कहा – “इसीलिए पूछा था – तुम लोग किसे फंसाना चाहते थे?”
“क-क्या तुम सचमुच राजदान के लिखे लेटर की अवहेलना कर दोगें?" दिव्या ने पूछा। ।
“नहीं। अवहेलना करने जैसी कोई बात नहीं है। उसने मुझे दो काम सौंपे थे। पहला — तुम्हें डराना, धमकाना, आतंकित करना और जलील करना। दूसरा- तुम्हें गिरफ्तार करके जेल भेज देना। उसने खुद कुबूल किया है - दोनों कामों के लिए पांच लाख माकूल रकम नहीं थी। पहला काम कर चुका हूं। अर्थात् पांच लाख हलाल हो गये। उस रकम में बस इतना ही हो सकता था। बाकी रहा तुम्हें जेल भेजने वाला काम। उसका मेहनताना मुझे नहीं मिला है। और... बता चुका हूं। फ्री का चंदन घिसने का पाठ नहीं पढ़ा मैंने। पार्टी चाहे जो हो, काम वही करता हूं जिसका पारिक्षमिक मिले ।”
“य-यानी-यानी तुम हमे जेल नहीं भेज रहे हो ?” मारे खुशी के दिव्या मानो पागल हुई जा रही थी।
“अभी इतना फुदकने की जरूरत नहीं है मोहतरमा ।" ठकरियाल बोला- “तुम्हें जेल भेजना है या नहीं, यह इस बात पर निर्भर है, मैं जो सोच रहा हूं वह परवान चढ़ सकता है या नहीं?”
दिव्या भूल चुकी थी कुछ देर पहले उसकी क्या हालत थी। अपने भविष्य के प्रति निराशा के कितने गहरे गर्त में डूब चुकी थी वह। इस वक्त तो ऐसा लग रहा था जैसे डूबते-डूबते अचानक किनारे आ लगी हो । ठकरियाल ने चंद ही शब्दों में उसे रोशनी की किरन नहीं बल्कि सर्चलाईटें नजर आने लगी थीं। अति उत्साह में भरी, चहकती सी कह उठी — “जरूर चढ़ेगा। जो तुम सोचोगे वह जरूर परवान चढ़ेगा।”
“पहले बताओ—तुम्हारा प्लान किसे फंसाने का था?”
“बबलू को।”
“क्या वही बबलू जो सामने वाली बिल्डिंग के एक फ्लैट रहता है ?”
“हां ।”
“शिकार के रूप में उसका नाम दिमाग में आने की कोई खास वजह?”
“वह गरीब है। राजदान की ‘शे' के कारण बगैर रोक-टोक यहां आता है। पेन्टिंग के पीछे छुपे लॉकर की भी जानकारी है उसे । यह भी जानता है वहां मेरी ज्वेलरी रखी रहती है। मुझे और देव को हमेशा लगता था- किसी न किसी दिन वह जरूर लॉकर पर हाथ साफ कर देगा। (डिटेल जानने के लिय पढ़ें- 'कातिल हो तो ऐसा ) इन्हीं सब वजहों से दिमाग में उसका नाम आया था।"
“उसकी उम्र तो सोलह साल के आसपास है न?"
“हां ।” कहने के साथ दिव्या को लगा, बबलू को प्लान्ट किया जाना उम्र के कारण शायद ठकरियाल को जंचा नहीं है। कहीं उसका विचार न बदल जाये इसलिये तुरन्त ही आगे कहा – “अगर तुम्हें नहीं जंच रहा तो अभी इस दिशा में कुछ किया नहीं गया। किसी और को प्लान्ट किया जा सकता है। उसे, जो तुम्हें जंचता है।" -
“उम्र के हिसाब से शिकार बिल्कुल ठीक है। आजकल ऐसे क्राइम कच्ची उम्र के लड़के ही ज्यादा करते हैं। खर्चे अनाप-शनाप बढ़ गये हैं उनके। घर से पैसा मिलता नहीं है।”
“तब तो जो कुछ यहां हुआ है, वह बबलू के लिए सबसे आसान था।"
“वह कैसे?”
“बहुत फेथ करते थे राजदान साहब उस पर वह अगर यह कहता — 'चाचू, जरा मुंह खोलना।' तो बगैर यह सोचे-समझे मुंह खोल देते कि वह ऐसा क्यों कह रहा है ? अर्थात् उनके मुंह में गोली मारना बबलू के लिये जरा भी मुश्किल नहीं हो सकता।”
“फंसाना कैसे था उसे ?”
“सोचा था— रात ही रात मे देव रिवाल्वर और ज्वेलरी उसके कमरे में छुपा आयेगा। सुबह जब पुलिस आयेगी, लाश के साथ लॉकर खुला पायेगी तो मैं रोती-कलपती बबलू पर शक जाहिर करूंगी। कहूंगी — 'बाहर का एक मात्र वही शख्स था जिसे पंन्टिंग के पीछे लॉकर होने की जानकरी थी ।' मेरे बयान के आधार पर पुलिस बबलू को चैक करेगी। उसके घर की तलाशी लेगी। रिवाल्वर और ज्वेलरी के वहां से बरामद होने के बाद कोई शक नहीं रह जायेगा जो हुआ है, उसी ने किया है।"
“अगर कहीं कोई कमी हो तो उसे तुम खुद दुरुस्त कर सकते हो ।” दिव्या अब ऐसा कोई भी प्वाईंट नहीं छोड़ना चाहती थी जिस पर अटककर ठकरियाल अपना विचार बदल सके।
अच्छा है।” ठकरियाल सारे मामले पर गौर करता बोला— “काफी हद तक ठीक सोचा था तुमने ।”
“केवल एक प्वाईंट ठीक है।” ठकरियाल ने सिगरेट एश्ट्रे में कुचलते हुये कहा- -“रिवाल्वर उसके घर से बरामद नहीं होना चाहिये । सवाल वही उठेगा जो मैंने शुरू में उठाया था। बबलू ने मुंह के अंदर गोली क्यों मारी? क्यों हत्यारा एक एक्स्ट्रा काम करेगा?”
“फिर?”
“रिवाल्वर यहीं से मिलना चाहिए। राजदान के हाथों से उसे लाश के हाथों में तुम्हें ठीक उसी ढंग से फंसाना है जिस ढंग से वास्तव में था।"
“इससे तो वही लगेगा जो असल में हुआ है। "
“उस पोजीशन को देखकर कोई भी बता देगा - राजदान साहब ने आत्महत्या की है।"
“मतलब?”
“यही ।...बिल्कुल यही लगना चाहिए।”
दिव्या के चेहरे पर निराशा फैल गई। बोली – “इससे क्या फायदा होगा?"
“फायदा इसी से होगा मोहतराम। मेरे दिमाग में पूरा प्लान बन चुका है।" मारे खुशी के झूमता सा ठकरियाल कहता चला गया— “अब बस उस पर अमल करना है। कहीं कोई छेद, कोई लोच नहीं है। सारी दुनिया वही सोचेंगी जो मैं सुचवाऊंगा।”
“यानी तुम तैयार हो?” खुशी के मारे दिव्या पागल सी हुई जा रही थी।
“स्टाम्प पेपर पर ऐग्रीमेंट करना चहती हो क्या?”
“न-नहीं।” दिव्या अपनी खुशी छुपा नहीं पा रही थी— “व-वो बता नहीं है। असल में मुझे यकीन ही नहीं आ रहा — एक ही पल में हमारी किस्मत इतना बड़ा पलटा खा गयी। अभी, एक ही पल पहले मुझे लग रहा था— - बाकी जिन्दगी जेल की चारदीवारी में गुजरने वाली है और अब... एक ही पल बाद अपने लिए स्वर्ग के दरवाजे खुलते नजर आ रहे हैं। पांच करोड़ में सचमुच जन्नत धरती पर आयेगी।”
“पांच करोड़ नहीं मोहतरमा ! केवल ढाई करोड़ की बात की।”
ठकरियाल ने आकाश में परवाज कर रही दिव्या को जमीन पर ला पटका – “केवल ढाई करोड़ की ।” -
“म-मतलब?”
“धर्मादा नहीं खोल रखा है मैंने कि कमाई मेरी वजह से हो और मालकिन तुम बन जाओ। पूरे पांच करोड़ की। बराबर-बराबर के दो हिस्से होंगे।”
“ब-बात तो ठीक है।” दिव्या सम्भली – “हिस्सा तो होना चाहिए तुम्हारा मगर...
“जरा सी जान क्या पड़ी अगर-मगर करने लगीं तुम तो ।”
वह देवांश की तरफ देखती हुई बोली – “हिस्से तीन होने चाहियें।”
“क्यों भला?”
“मेरा, तुम्हारा और देवांश का।"
“लो-मैं तो गलत ही समझ रहा था अब तक ।”
“क्या समझ रहे थे ?”
“यही कि तुम दोनों ‘दो जिस्म एक जान' बन चुके हो ।”
ठकरियाल मजे लेने वाले लहजे में बोला – “इसीलिए तो उसे इस लफड़े में।"
“ये तो बात गलत है ठकरियाल । बेशक हम एक-दूसरे से प्यार कर रहे हैं लेकिन ये मैटर अलग है। हिस्से तीन होने चाहिए। कायदे से तुम तीसरे हिस्से के हकदार हो ।”
“एक ही सांस में दो बातें नहीं चलेंगी मोहतरमा । या तो ये कहो- दोनों एक हो। या ये कि अलग-अलग हो। ताकि आगे की बातें उसी खाके को दिमाग में रखकर करूं।"
दिव्या ने देवांश की तरफ देखा | सोचा - शायद वह कुछ कहेगा। दरअसल यह सौदा उसे बहुत महंगा लग रहा था। ठकरियाल को आधा हिस्सा नहीं देना चाहती थी वह।
उसने महसूस किया— देवांश बहुत देर से चुप है। उस खुशी का भी कोई लक्षण नहीं था उसके चेहरे पर जो अचानक पलटा खा गये हालात के कारण होना चाहिए था। बोला – “तुम चुप क्यों हो देव? बोलते क्यों नहीं कुछ?”
0 Comments