अगले दिन लाला हवेलीराम को एकाएक दिल्ली जाना पड़ गया। वहां से उसे कलकत्ता भी जाना था। वह एक हफ्ते में लौट कर आने की बात कह कर गया।

उसी रात वह फिर सेठानी के पहलू में था। सुबह पांच बजे तक सेठानी के मुलायम बिस्तर में उसके साथ कलाबाजियां खाते रहने के बाद जब उसके वहां से खिसकने की घड़ी आयी तो उसने सेठानी से कहा कि वह तीन दिन की छुट्टी चाहता था।

सेठानी ने तीव्र विरोध किया। उसने कहा कि उसे अगर छुट्टी लेनी हो तो तब लेनी चाहिए जब लाला हवेलीराम अमृतसर में हो।

बहुत मिन्नत मनुहार करके उसने न केवल सेठानी को छुट्टी के लिए मना लिया बल्कि उसे उतने अरसे के लिए एक कार उधार देने के लिए भी राजी कर लिया।

उसी रोज सुबह वह लाला हवेलीराम की एम्बेसेडर कार पर चंडीगढ़ के लिए रवाना हो गया। उस समय वह अपना वह नया सूट पहने था, जो उसे सेठानी ने सिलवा कर दिया था, और बड़ा खूबसूरत, बड़ा सम्भ्रांत लग रहा था। उसने अपनी पतलून की बैल्ट में वह रिवाल्वर खोंसी हुई थी जो उसने कौल के फ्लैट से बरामद की थी।

क्योंकि हर स्थिति में भाग निकलने को तैयार रहने की उसकी आदत बन गयी थी इसलिए वह अपनी जरूरत का सारा सामान सूटकेस में ले आया था। उसका हिप्पी परिधान, चश्मा और बैंक से उड़ाए पचास रुपए के नोटों की सूरत में दस हज़ार रुपए भी सूटकेस में मौजूद थे।

एक बजे के करीब वह चंडीगढ़ पहुंच गया।

उसने बड़ी सहूलियत से बाइस सी सेक्टर में 2244 नम्बर मकान तलाश कर लिया। उसने कालबैल बजाई।

कश्मीरी गाउन पहने एक खूबसूरत लड़की ने दरवाजा खोला। उसकी सूरत से लगता था जैसे वह तभी सोकर उठी हो। वह लड़की की खूबसूरती के लिए सबसे बड़ा सर्टिफिकेट था कि सोकर उठी होने के बावजूद खूबसूरत लग रही थी। उसने प्रश्नसूचक नेत्रों से उसकी ओर देखा।

“तुम्हारा नाम नीलम है?” — विमल ने पूछा।

“हां।” — वह सतर्क स्वर में बोली।

“बंदे को विमल कहते हैं। मैं तुमसे कुछ बात करना चाहता हूं।”

“किस बारे में?”

“मायाराम बावा के बारे में।”

वह सकपकाई। उसने एक बार फिर एक खोजपूर्ण निगाह विमल पर डाली और फिर बोली — “कहीं और पहुंचो, मैंने तो महीनों गुजर गए, उसकी सूरत नहीं देखी।”

“और कहां पहुंचूं?”

“मुझे क्या मालूम!”

उसने दरवाजा बंद करने की कोशिश की।

“सुनो, सुनो।” — विमल जल्दी से बोला। उसने चौखट में अपना पांव फंसा दिया।

“पैर हटाओ।” — वह कठोर स्वर में बोली।

“देखो, मुझे मालूम है कि तुम मायाराम से खफा हो...”

“तुम्हें कैसे मालूम है?”

“...मुझे भी मायाराम से शिकायत है। एक ही शख्स से खफा दो आदमियों में तो बड़ा दोस्ती का रिश्ता होना चाहिए।”

“तुम्हें कैसे मालूम है कि मैं मायाराम से खफा हूं?”

“जहां से मुझे तुम्हारा पता हासिल हुआ है, वहां से मुझे और भी तो जानकारी हासिल हुई होगी!”

नीलम सोचने लगी। उसकी निगाह पीछे खड़ी कार की ओर उठ गयी। उसने विमल का मुआयना किया और पूछा — “वह कार तुम्हारी है?”

“हां।”

“खाना खा लिया?”

“नहीं।”

“मैंने भी नहीं खाया। मुझे कहीं लंच के लिए ले कर चलते हो?”

“जरूर। जहां कहो।”

“आओ।”

वह चौखट से परे हट गयी। विमल भीतर दाख‍िल हुआ।

“क्या नाम बताया था तुमने अपना?”

“विमल।”

“ओके, विमल। तुम यहां बैठो, मैं तैयार हो कर आती हूं।”

“ओके।”

वह ड्राइंगरूम के पृष्ठभाग में बने एक दरवाजे में दाखिल होकर दृष्टि से ओझल हो गयी।

विमल एक सोफे पर बैठ गया। उसने एक सिगरेट सुलगा लिया। ड्राइंगरूम की सज धज से वह प्रभावित हुआ था। वह सोच रहा था कि क्या वह सारा माल उसे मायाराम ने दिलवाया था? अगर ऐसा था तो मायाराम बड़े ठाठ से रहने का आदी मालूम होता था।

मायाराम तक पहुंचना बड़ा कठिन और सुस्तरफ्तार काम साबित हो रहा था। उसे तो एक अंधे की तरह मायाराम के निजी जीवन को टटोलना पड़ रहा था। उसका नतीजा उलटा भी हो सकता था। मायाराम के जानकार अगर मायाराम का पता ठिकाना वाकई जानते थे तो वे विमल को कुछ बताने के स्थान पर मायाराम को सचेत कर सकते थे कि कोई आदमी उसके बारे में पूछताछ कर रहा था।

दूसरी गड़बड़ वैसी हो सकती थी जैसी कौल ने की थी। उसे मायाराम के बारे में कुछ बताने के स्थान पर कौल और हरनामसिंह गरेवाल उससे जानकारी हासिल करके खुद ही मायाराम के पीछे पड़ गए मालूम होते थे। अगर गरेवाल के मायाराम से दौलत हथिया चुकने के बाद उसे मायाराम का अता पता मालूम होता तो क्या फायदा होता।

आधे घंटे बाद सजी धजी नीलम जब वापिस लौटी तो वह मुंह बाये उसे देखता रहा। वह उसके अनुमान से कहीं ज्यादा खूबसूरत थी। वह शलवार कमीज और पुलोवर पहने थी और उस परिधान में बेहद नाजुक और कमसिन लग रही थी। उसे यह सोच कर सख्त हैरानी हुई कि उस लड़की को मायाराम जैसा रीछ कहीं से भगा कर लाया था और अब उसकी उस अप्सरा में दिलचस्पी नहीं रही थी।

“क्या बात है?” — वह खनकती आवाज में बोली — “मुंह में पानी आ रहा है?”

“न...नहीं।” — विमल हड़बड़ा कर बोला और उठ कर खड़ा हुआ।

“आओ, चलें।”

वे बाहर निकले। नीलम ने फ्लैट को ताला लगाया। दोनों कार में सवार हो गए।

“किधर चलूं?” — उसने इग्नीशन ऑन करते हुए पूछा।

“ ‘सोना चांदी’।”

“वह क्या चीज है?”

“रेस्टोरेंट है। तुम गाड़ी मुख्य सड़क पर लाओ, मैं रास्ता बताती जाऊंगी।”

“ओके।”

कार चलने लगी।

“मायाराम के बारे में तो तुमने मुझे कुछ भी नहीं बताया!” — विमल बोला।

“जल्दी क्या है?” — वह बोली — “खाली पेट गम्भीर विषय पर बात नहीं करनी चाहिए।”

“तो एक साधारण बात पूछूं?”

“पूछो।”

“मायाराम तुम्हें वाकेई भगाकर लाया था?”

नीलम ने हैरानी से उसकी ओर देखा और बोली — “तुम तो मेरे बारे में बहुत कुछ जानते हो!”

“बहुत कुछ नहीं। एकाध बात ही। मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया तुमने!”

“हां। वाकेई भगाकर लाया था।”

“कैसे?”

“मुझे फिल्म स्टार बनने का शौक था। कहता था, हीरोइन बनवा दूंगा।”

“इस काम के लिए चंडीगढ़ तो कोई मुनासिब जगह नहीं, तुम्हें तो मुम्बई जाना चाहिए था!”

“पहले वह मुझे मुम्बई ही ले कर गया था और उसने कोशिश भी की थी मेरे लिए लेकिन बात बनी नहीं थी। दरअसल मैं समझी थी कि उसने खुद मुझे अभिनेत्री बनाना था लेकिन हकीकत में उसने भी अभी कोशिश ही करनी थी मेरे लिए।”

“बात नहीं बनी तो वह तुम्हें चंडीगढ़ ले आया?”

“हां। और यहां उसने मुझे बड़े ठाठ से रखा।”

“फिर छोड़ क्यों दिया?”

“मन भर गया होगा मुझसे। मुझे बहुत खराब किया उस आदमी ने। मैं न घर की रही, न घाट की।”

“तुमने उसे तलाश करने की कोशिश नहीं की?”

“बहुत कोशिश की।”

“मिला?”

“अब फिर गम्भीर विषय आरम्भ हो गया है।”

“ओह!”

कुछ क्षण चुप्पी रही।

“अब तुम करती क्या हो?” — एकाएक विमल ने पूछा — “मेरा मतलब है, रोजी रोटी का क्या जरिया है?”

“पांच सौ रुपए दो। अभी मालूम हो जायेगा।”

“दूंगा। पांच सौ से बहुत ज्यादा दूंगा लेकिन मुझे अपने मतलब की बात मालूम होनी चाहिए।”

“उस बात को बताने की फीस ही पांच सौ रुपए रख दूं तो?”

“तो फिर मैं तुम्हें अभी पांच सौ रुपए देकर वह बात जानूंगा और तुम्हें यहीं सड़क पर उतार कर चलता बनूंगा।”

“यानी कि लंच की छुट्टी!”

“छुट्टी।”

“बहुत खराब आदमी हो!”

“हां। शायद।”

रेस्टोरेंट ज्यादा दूर न निकला।

और ‘सोना चांदी’ का खाना वाकई लजीज था।

भोजन के बाद काॅफी के दौरान विमल बोला — “मायाराम पुराण शुरू हो जाये?”

“तुम मायाराम को क्यों तलाश कर रहे हो?” — उसने पूछा — “किस्सा क्या है?”

“है कोई किस्सा।”

“बताना नहीं चाहते?”

“जाहिर है।”

“मैंने एक साल से मायाराम की सूरत नहीं देखी है।”

“लेकिन तुम्हें यह तो मालूम होगा कि वह कहां रहता है?”

“कार में तुमने सवाल किया था कि क्या मैंने उसे तलाश करने की कोशिश की थी! मैंने कहा था, बहुत कोशिश की थी। अगर मुझे उस कमीने का पता मालूम होता तो क्या मुझे बहुत कोशिश करनी पड़ती?”

“यानी कि तुम्हें उसका अता पता तक नहीं मालूम?”

नीलम चुप रही।

विमल ने एक गहरी सांस ली। उसने असहाय भाव से उसकी ओर देखा और दांत पीसता बोला — “अगर तुम इतनी खूबसूरत न होती तो मैं तुम्हारी गर्दन मरोड़ देता।”

“मरोड़ दो।” — वह इठला कर बोली।

“मेरे से लंच हथियाने के लिए तुमने मुझे इतना लटकाया?”

“जितनी कमीनी बात कर रहे हो” — एकाएक वह गम्भीर हुई — “उतने कमीने सूरत से तो नहीं मालूम होते हो!”

वह सकपकाया।

“बिल मैं अदा करूंगी। मैं कोई भिखारिन नहीं हूं, हातिमताई की कब्र पर लात मार कर जिसकी झोली में तुमने एक रोटी डाल दी हो। देखो।”

उसने अपना हैंडबैग खोल कर उसे दिखाया।

विमल ने देखा, वह सौ सौ के नोटों से भरा पड़ा था।

“लगता है चंडीगढ़ में तुम्हारे बहुत कद्रदान हैं।” — विमल बोला — “तुम्हें पांच सौ रुपए देने वाले बहुत लोग मौजूद हैं यहां। लाइन लग जाती होगी?”

“हां। तुम भी शामिल होना चाहते हो उस लाइन में?”

“बिना लाइन के सेवाएं हासिल करने का भी कोई रेट होगा?”

“है, लेकिन तुम उसे अफोर्ड नहीं कर सकोगे।”

“छोड़ो। बहुत नोक झोंक हो चुकी। मैं कबूल करता हूं कि तुम बहुत हाजिरजवाब हो। मैं तुम्हारा कोई मुकाबला नहीं कर सकता। अब मायाराम की बात करो।”

“मैं उसका अता पता नहीं जानती।”

“न सही, लेकिन तुम दो साल उसके साथ रही हो। उसके किसी यार दोस्त को तो जानती होगी?”

“एकाध को जानती हूं।”

“जैसे?”

“लाभसिंह। वह एक लम्बा चौड़ा सरदार...”

“ ‘मटर पनीर’?”

“हां, वही। जानते हो उसे?”

“उसे छोड़ो। किसी और के बारे में बताओ।”

“कृष्णामूर्ति।”

“वह कौन है?”

“वह भी मायाराम का दोस्त है। कभी कभी यहां आया करता था। पटियाला में न्यू मद्रास होटल नाम का उसका होटल है जो कि होटल कम और चोर डाकुओं का अड्डा ज्यादा है।”

“साउथ इंडियन है?”

“हां। मद्रासी। हट्टा कट्टा। काला भुजंग।”

“कोई और?”

“एक दो बार मैंने मायाराम को किसी अमृत लाल के बारे में बात करते सुना था। बातों से लगता था कि वह मायाराम का कोई पक्का यार था। पहले तो वह चंडीगढ़ में ही कहीं रहता था लेकिन अब वह यहां नहीं है, यह मुझे पक्का मालूम है।”

“अब कहां है?”

“मालूम नहीं।”

“कोई और?”

“कपूरथले में एक थानेदार है — अमरीकसिंह गिल। वह भी मायाराम का अच्छा दोस्त था। वह जब भी चंडीगढ़ आता था, हमारे पास ही ठहरता था।”

बेकार? थानेदार से जाकर कौन पूछेगा मायाराम का पता!

“कोई और?”

नीलम कुछ क्षण सोचती रही, फिर उसने नकारात्मक ढंग से सिर हिलाया।

“अच्छी तरह सोच लो।”

“नहीं, और कोई नहीं।”

“क्या संकट की घड़ी में मायाराम तुम्हारी शरण लेने आ सकता है?”

“काश, आ जाये। आ जाये तो मैं गोलीवजने की आंखें निकाल लूंगी।”

“आ सकता है?”

“शायद आ जाये। पक्का कुछ नहीं कह सकती। अगर उसे बाकी तमाम दरवाजे बंद दिखायी दें तो वह मेरा दरवाजा खटखटा सकता है।”

“हूं।”

“तुम तो उस तक पहुंचने के लिए मरे जा रहे मालूम होते हो!”

“हां।”

“किस्सा क्या है?”

“बताऊंगा। जिंदगी में आगे भी साथ रहा तो बहुत कुछ बताऊंगा। लेकिन पहले वह मायाराम का बच्चा मेरे हाथ में आ जाये।”

“बहुत खफा हो उससे?”

“हां।”

“हाथ आ जायेगा तो क्या करोगे?”

“इतना मारूंगा, इतना मारूंगा कि उसकी आत्मा त्राहि त्राहि कर उठेगी।”

“जरूर मारना। दो चार हाथ मेरी ओर से भी जमा देना।”

“अच्छा।”

“सुनो” — एकाएक वह बड़े रहस्यपूर्ण स्वर में बोली — “अगर मायाराम मेरे पास आया तो मैं तुम्हें खबर कर दूंगी। ठीक है?”

“ठीक है। बड़ी मेहरबानी होगी तुम्हारी।”

“और अगर मुझे उसके किसी और यार दोस्त का ध्यान आ गया तो मैं वह भी तुम्हें बता दूंगी।”

“बहुत मेहरबानी।”

“अपना पता बताओ।”

“अभी मेरा कोई पता नहीं लेकिन दो तीन दिन मेरा चंडीगढ़ में ठहरने का इरादा है। मैं ‘एरोमाʼ में ठहरूंगा। उस दौर में अगर कोई बात तुम्हें सूझे तो मुझे वहां फोन कर देना। मैं वहां न होऊं तो तुम रिसैप्शन पर मेरे लिए संदेशा छोड़ देना।”

“दो तीन दिन के बाद कहां जाओगे?”

“अमृतसर। मैं वही से आया हूं। जाती बार मैं तुम्हें वहां का पता बता जाऊंगा।”

“तुम मेरे पास ही क्यों नहीं ठहर जाते?”

“अभी नहीं। तुम्हारे पास मैं तब आऊंगा जब मैं बिना लाइन तुम्हारी सेवाएं हासिल करने का रेट अफोर्ड करने की स्थिति में आ जाऊंगा।”

“अब मजाक छोड़ो।”

“यह मजाक नहीं है। अगर मायाराम मेरे हाथ आ गया तो मैं न केवल तुम्हारा वह स्पेशल रेट अफोर्ड कर सकूंगा बल्कि मैं तुम्हारी इतनी लम्बी बुकिंग करूंगा कि तुम्हें अपने सारे ग्राहक भगाने पड़ जायेंगे।”

“ओके। मैं इंतजार करूंगी उस दिन का।”

बिल चुकाने का वक्त आया तो बाकायदा हाथापाई की नौबत आ गयी। बड़ी कठिनाई से विमल खुद बिल चुकाने में कामयाब हो पाया।

लड़की को क्या भा गया था उसमें!

या उसको लड़की में!





मायाराम को विमल के बच निकलने का अफसोस था। लेकिन उस बारे में वह जब उस समय कुछ कर नहीं सका था जबकि विमल उसके काबू में था तो अब क्या कर सकता था। वह महसूस कर रहा था कि जिस वक्त वह वैन को घुमाने सड़क पर आगे ले कर गया था, उस वक्त उसे वैन जरा और आगे ले जानी चाहिए थी और विमल को पहले शूट करना चाहिए था।

अब जो गड़बड़ होनी थीं, हो चुकी थीं।

बल्क घटाने के लिये वो रुपयों को डालर में तब्दील नहीं कर सका था।

विमल बच निकला था।

लेकिन उसे उम्मीद थी कि वह उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता था। वह उसके बारे में कुछ भी तो नहीं जानता था! कैसे तलाश कर सकता था वह उसे! नहीं कर सकता था। बिना किसी मदद के इतने बड़े हिन्दोस्तान में वह उसे कहां कहां ढूंढता! और फिर इस बात की भी पूरी सम्भावना थी कि वह पुलिस द्वारा पकड़ा जाता।

फिर तो कंटक ही कट जाता।

लेकिन फिर भी अभी कुछ दिन कहीं छुपे रहने में ही उसका कल्याण था। विमल चाहे उसे नहीं तलाश कर सकता था लेकिन फिर भी कोई खतरा मोल लेना नादानी होती! अगर विमल पकड़ा जाता तो पुलिस को यह भी पता लग जाता कि उस डकैती में बावे का भी हाथ था। अब मायाराम अपनी यह गलती भी महसूस करता था। उसे विमल को अपना वास्तविक परिचय नहीं देना चाहिए था।

लेकिन सवाल यह था कि वह छुपे कहां?

उसे नीलम का खयाल आया था। नीलम से अलग हुए उसे एक साल हो गया था। इसलिए शायद किसी को उसके नीलम के यहां होने का खयाल न आता। लड़की उससे खफा तो थी लेकिन फिर भी उसे पूरा विश्वास था कि वह उसे संभाल सकता था। दौलत से बड़े बडों की शिकायतें दूर की जा सकती थीं। लेकिन एक साल में पता नहीं उसके मिजाज में कितना परिवर्तन आ गया था। वह नीलम को धोखा दे कर भागा था। क्या पता उससे बदला लेने की नीयत से वह भी उसे धोखा देने की कोशिश करती!

अमृत लाल!

नहीं। उसकी जानकारी के दायरे में तकरीबन हर किसी को मालूम था कि अमृत लाल उसके पोस्ट ऑफिस का काम करता था।

उसकी तलाश की कोशिश में किसी का अमृत लाल तक पहुंच जाना मामूली बात थी।

फिर उसे कैलाश कुमार खन्ना की याद आयी थी।

खन्ना लुधियाने में हाई स्कूल तक उसका सहपाठी था। हाई स्कूल के बाद मायाराम ने पढ़ाई से किनारा कर लिया था लेकिन खन्ना ने उच्च शिक्षा प्राप्त की थी और अब वह दिल्ली की किसी बड़ी कम्पनी में किसी बड़े ओहदे पर काम कर रहा था।

स्कूल में मायाराम का बड़ा दबदबा था और खन्ना उसके चमचों में से एक हुआ करता था। स्कूल छोड़ने के बाद वह कहीं बाहर पढ़ने चला गया था इसलिए दोनों की कई साल मुलाकात नहीं हुई थी। बाद में कई साल बाद जब दोनों की मुलाकात हुई थी तो मायाराम ने महसूस किया था कि वह अब भी मायाराम के लिए वही आदरभाव रखता था जो स्कूल के दिनों में दिखायी देता था। मायाराम संयोगवश उस दिन अच्छे कपड़े पहने था और खन्ना ने उससे बिना पूछे सोच लिया था कि वह जरूर जिंदगी में उससे ज्यादा कामयाब होगा। उसके इस खयाल को बरकरार रखने के लिए मायाराम ने भी डींग हांक दी थी कि संगरूर में उसका मोटरसाइकलों के पुर्जे बनाने का कारखाना था। खन्ना ने उसे अपना कार्ड दिया था और उससे अनुरोध किया था कि अगर वह कभी दिल्ली आए तो उससे जरूर मिले।

उसके बाद दो तीन बार और दोनों की मुलाकात हुई थी और खन्ना ने हर बार शिकायत की थी कि वह दिल्ली उसके पास नहीं आया था, उसकी निगाह में उस जैसे व्यापारी का चक्कर तो दिल्ली लगता ही रहता होगा, जरूर वह तकल्लुफ कर रहा था और जानबूझ कर उसके घर नहीं आया था। मायाराम ने हमेशा की तरह कह दिया था कि वह अगली बार जरूर आएगा।

उसने अपनी जेबें टटोलीं थीं तो एक में से खन्ना का दिया मुड़ा-तुड़ा विजिटिंग कार्ड बरामद हो गया था। उसने देखा था उस पर निजामुद्दीन का एक पता छपा हुआ था।

मायाराम ने खन्ना की ही शरण लेने का फैसला किया था।

खन्ना एक सम्भ्रांत व्यक्ति था और ऊंची सोसायटी का अंग था।

किसी को सपने में भी नहीं सूझ सकता था कि मायाराम के स्तर के आदमी का खन्ना जैसे आदमी से कोई संपर्क हो सकता था।

वह दिल्ली पहुंचा।

दिल्ली का सफर उसने एक भीड़ भरी ट्रेन के जनरल कम्पार्टमेंट में ढ़ोर डंगरों की तरह ठुंसे लोगों के बीच में किया था। सामान के तौर पर उसके पास तीन सूटकेस थे जिन में से दो में लूट के नोट भरे थे और तीसरे में उसका सामान — कपड़े वगैरह — था और एक कुली की पीतल के बिल्ले समेत लाल वर्दी थी, बहुत सोच विचार कर जिसका इन्तजाम उसने पटियाले में ही कर लिया था। ट्रेन दिल्ली तक की ही थी इसलिये वहां खाली हो जाती थी। उसने स्टेशन पर अपने डिब्बे के खाली हो जाने का इन्तजार किया था और फिर टायलेट में जाकर अपने कपड़ों के ऊपर ही कुली की वर्दी पहन ली थी। फिर जब वो ट्रेन से उतरा था तो कुली की तरह अपना सामान — दो सूटकेस सिर पर और एक हाथ में — खुद उठाये था।

यूं वो बिना किसी के खास नोटिस में आये निर्विघ्न स्टेशन से बाहर निकल आया था, ओट में जाकर उसने कुली की वर्दी को तिलांजलि दी थी और एक टैक्सी पर सवार हो कर निजामुद्दीन पहुंचा था जहां कि खन्ना का आवास था।

निजामुद्दीन में खन्ना एक खिलौना-सी खूबसूरत कोठी में रहता था। कोठी का रखरखाव ऐसा सलीके का था कि एकबारगी तो उसे कोठी में कदम रखने में भी झिझक महसूस हुई।

खन्ना घर पर मौजूद था। मायाराम को देख कर उसने दिली खुशी का इजहार किया। मायाराम ने उसे साफ ही कह दिया कि वह कुछ दिन उसके पास मेहमान बन कर रहने की नीयत से आया था। उसने बताया कि उसका अपनी पत्नी से झगड़ा हो गया था और वह कुछ दिन शांति से गुजारने के लिए घर से भाग आया था। अपने काल्पनिक बीवी बच्चों का जिक्र उसने अपनी बद्किस्मती के रूप में किया और कहा कि उस कलहयुक्त परिवार से दूर शांति से गुजरे कुछ दिन उसके लिए वरदान से कम न होते। उसने कहा कि वह होटल में भी जा सकता था लेकिन खन्ना ने उसे फिकरा भी पूरा न करने दिया। उसने कहा कि मायाराम के आगमन से उसे भारी खुशी हुई थी।

मायाराम के तीन सूटकेस कोठी के गैस्ट रूम में पहुंच गए।

उन तीनों सूटकेसों में से दो में डकैती के नोट ठूंस ठूंस कर भरे हुए थे और उन पर मजबूत ताले लगे हुए थे।

खन्ना ने उसका परिचय अपनी पत्नी किरण और तीन बच्चों से करवाया। किरण एक फिल्म अभिनेत्रियों जैसी खबूसूरत युवती थी और तीन बच्चों की मां तो हरगिज नहीं लगती थी, जबकि उसका सबसे बड़ा लड़का दस साल का था।

खन्ना का सुखी और सुरुचिपूर्ण घर परिवार देख कर मायाराम को जिंदगी में पहली बार इस बात का मलाल हुआ कि वह एक जरायमपेशा व्यक्ति था, समाज का एक अवांछित अंग था। अगर वह बुरी सोहबत में न पड़ा होता तो क्या पता आज वह भी एक इज्जतदार आदमी की तरह ठाठ से रह रहा होता। फिर उसने यह सोच कर अपने आपको तसल्ली दी कि उसके अधिकार में पैंसठ लाख रुपए थे और आज के समाज में इज्जत भी खरीदी जा सकती थी।

मायाराम खन्ना की कोठी में जम गया।

वहां एक ही दिन में उसे महसूस हो गया कि खन्ना उसकी कितनी भी इज्जत करता हो, उसकी पत्नी को वह कोई खास पसंद नहीं आया था। कई बार तो उसने किरण के चेहरे पर अपने प्रति झलकती अरुचि साफ देखी। लेकिन मायाराम ने इस बात की कोई विशेष परवाह न की। उसे तो अपना मतलब हल करना था। दोस्त की बीवी की पसंद नापसंद से उसे क्या लेना था!

मायाराम ने बच्चों से भी हिलने मिलने की कोशिश की लेकिन बच्चों ने उसमें कोई दिलचस्पी नहीं ली। वह उनका पसंदीदा अंकलजी न बन सका।

दिन में खन्ना के आफिस चले जाने के बाद कोठी में मायाराम की स्थिति एक अवांछित व्यक्ति जैसी हो जाती थी। किरण उससे पूरी औपचारिकता से पेश आती थी और औपचारिक बातों के अलावा उसे साफ साफ नजरअंदाज करती मालूम होती थी। लेकिन मायाराम ने इन बातों की परवाह न की। वह वहीं डटा रहा।

उसने करनाल में अमृत लाल को फोन करके उसे खन्ना की कोठी का फोन नम्बर दे दिया और बता दिया कि अगली सूचना तक वह उस नम्बर पर उपलब्ध था। उसने उसे यह नहीं बताया कि वह नम्बर दिल्ली में कहां था।

वह रोज अखबार पढ़ता था। यह बात उसे काफी दहशत में डाल रही थी कि पुलिस भारत बैंक की डकैती के केस में काफी तेजी से आगे बढ़ रही थी। एल्यूमीनियम की सीढ़ी पर बरामद हुए अपनी उंगलियों के निशानों की खबर पढ़ कर तो उसके छक्के ही छूट गए थे। उसे अपने सिर पर भारी खतरा मंडराता लगने लगा था। उंगलियों के निशानों की शिनाख्त हो जाने के बाद तो उसकी तसवीर भी छपती और फिर खन्ना परिवार पर उसकी हकीकत खुले बिना न रहती कि वह कोई उद्योगपति नहीं, बल्कि एक डकैत था। फिर जिन लोगों का वह सम्मानित अतिथि बना हुआ था, उन्हीं से उसे खतरा हो जाता। उसका वहां से भागना अवश्यम्भावी हो जाता।

बुधवार को अमृत लाल का दो बार फोन आया।

पहले सुबह फोन आया तो उसने बताया कि हरनामसिंह गरेवाल उसके बारे में पूछताछ करता फिर रहा था। वह जरायमपेशा लोगों के दायरे में यह बात फैलाता फिर रहा था कि अगर कोई मायाराम से मिले तो उसे कह दे कि हरनामसिंह गरेवाल उसे याद कर रहा था। उसने कोई बहुत बड़ा हाथ मारने की योजना बनाई थी जो कि मायाराम को मालामाल कर देगी।

लेकिन मायाराम तो मालामाल हो चुका था। उसे अब पूरी जिंदगी कोई और हाथ मारने की जरूरत नहीं थी। उसने उस संदेश को नजरअंदाज कर दिया।

लेकिन उसके मन में किसी कोने में संशय का बीज पनप रहा था। कहीं गरेवाल को यह खबर तो नहीं लग गयी थी कि भारत बैंक की डकैती का माल उसके पास था! कहीं वह मायाराम से माल हथियाने की फिराक में तो नहीं था! कहीं मायाराम तक पहुंचने के लिए ही तो वह बड़ा हाथ मारने वाली खबर नहीं फैला रहा था!

लेकिन मायाराम ने यह सोच कर वह खयाल अपने दिमाग से झटक दिया कि भला गरेवाल को कैसे पता लग सकता था कि उस डकैती में मायाराम का हाथ था और डकैती का सारा माल मायाराम के पास था!

शाम को अमृत लाल का दोबारा टेलीफोन आया। उसने उसे बताया कि कोई विमल नाम का आदमी उसके बारे में पूछताछ करता फिर रहा था।

मायाराम सन्नाटे में आ गया।

“तुम्हें किसने बताई है यह बात?” — उसने पूछा।

“जालंधर के अतरसिंह बाजवा ने।” — उत्तर मिला।

“और कुछ कहा उसने?”

“नहीं। बस, इतना ही कहा था। सोचा, तुम्हें खबर कर दूं।”

“बहुत अच्छा किया।”

उसने धीरे से रिसीवर क्रेडल पर रख दिया। उसने अपने हाथों से अपना सिर थाम लिया।

तकदीर की मार — उसने सोचा — डकैती का कठिन काम तो आसानी से हो गया था लेकिन अब मामूली बातें पहाड़ जैसी बनती जा रही थीं।

भगवान बेड़ागर्क करे इस विमल के बच्चे का! अतरसिंह बाजवा तक कैसे पहुंच गया वह! जरूर उसने लाभसिंह की बीवी को खोज निकाला होगा।

लेकिन अतरसिंह बाजवा तो केवल उसके बिचौलिए अमृत लाल को जानता था इसलिए विमल उससे कोई कारआमद जानकारी हासिल कर ही नहीं सकता था। क्या पता लाभसिंह की बीवी ने विमल को उसके किन्हीं अन्य दोस्तों के बारे में बताया हो! अव्वल तो वह कुछ जानती ही नहीं थी, अगर उसने कुछ बताया भी था तो क्या फर्क पड़ता था! मायाराम का मौजूदा पता न उसके किसी दोस्त को मालूम था और न ही मालूम किया जा सकता था।

मायाराम को कुछ राहत महसूस हुई।

आने दो साले को। जब गीदड़ की मौत आती है तो वह शहर को भागता है।

यूं ही अपने आपको दिलासा देता मायाराम वहां डटा रहा।