“दो घंटे कहां रहे?”
चिड़-सा गया वह, बोला - - - - “ ये बात मैं आपको क्यों बताऊं?”
“सवाल नहीं करोगे तुम ।" गोपाल मराठा गुर्राया ---- “जो वे पूछ रही हैं सिर्फ उसका जवाब दोगे ।”
“ये तो गलत बात है अफिसर ।” धनजय कपाड़िया का गुस्सा उसके लहजे से टपका---- “हमारी गाड़ी चोरी हुई थी । संजय वह पूरी वारदात बता रहा है। उसके आगे-पीछे ये कहां गए? क्या किया? ये इनका पर्सनल मेटर है। चाहें तो बताएं, चाहे न बताएं।"
“इसे वह सब बताना पड़ेगा कपाड़िया साहब जो हम पूछेंगे । ” मराठा ने बेखौफ कहा ---- “यहां नहीं तो थाने में बताएगा ।”
“ये तो नाजायज बात है। हमें कमीश्नर से बात करनी पड़ेगी ।” कहने के साथ उसने जेब से मोबाइल निकाल लिया था --- "आप - तो ऐसा बिहेव कर रहे हैं जैसा मुजरिमों से किया जाता है । "
संजय के होठों पर मुस्कान उभरी । ऐसी, जैसे अपने पापा को ‘रंग में आया' देखकर खुशी हुई हो। हमारी तरफ उसने ऐसी नजरों से देखा जैसे कह रहा हो कि ---- 'अब देखूंगा तुम्हें ।'
“ये लीजिए ।” विभा ने अपना मोबाइल निकालकर कान से लगाते हुए कहा ---- “आपने तो मोबाइल सिर्फ निकाला है, मैं कमीश्नर साहब का नंबर भी डायल कर चुकी हूं। स्पीकर भी ऑन है।”
बाप-बेटे हकबकाए ।
तभी कमरे में कमीश्नर की आवाज गूंजी ---- “कहिए बहूरानी ।”
“मिस्टर धनजय कपाड़िया को जानते हैं आप ?” विभा ने पूछा ।
“हां । हां । क्यों नहीं?”
“ये आपसे कुछ बात करनी चाहते हैं, लीजिए ।” कहने के साथ उसने मोबाइल धनजय कपाड़िया की तरफ बढ़ा दिया ।
बौखलाए-से कपाड़िया ने जल्दी से मोबाइल लिया और फिर बहुत ही संतुलित शब्दों और लहजे में कमीश्नर को यह समझाया कि वे लोग उसके बेटे से पूछताछ करने आए हुए हैं। हम पूरा सहयोग भी दे रहे हैं लेकिन ये लोग नाजायज सवाल कर रहे हैं। ऐसे-ऐसे जैसे सिर्फ मुजरिमों से किए जाते हैं ।
पूरी बात सुनने के बाद दूसरी तरफ से कहा गया---- -“कपाड़िया साहब, जिनके मोबाइल पर हम लोग ये बातें कर रहे हैं, उन्हें शायद आप जानते नहीं हैं। हम ही नहीं, सारी दुनिया जानती है कि वे कभी किसी से नाजायज बात नहीं कर सकतीं। अगर वे आपके बेटे से इस तरह पूछताछ कर रही हैं तो निश्चित रूप से उन्हें उस पर कोई शक होगा और वे बगैर बुनियाद के शक करने वाली भी नहीं हैं इसलिए, अपने बेटे से कहें कि वे जो पूछ रही हैं उसका सही-सही जवाब देता चला जाए। यह उसी के हित में होगा।”
धनजय कपाड़िया का मुंह कुछ कहने के लिए खुला जरूर लेकिन उससे कोई आवाज नहीं निकल सकी। उसकी समझ में ही नहीं आया कि कमीश्नर की इतनी बात के बाद कहे भी तो क्या कहे? चेहरा फक्क् पड़ा हुआ था। उससे ज्यादा फक्कू था संजय। पलक झपकते ही उसे अपने बाप की औकात पता लग गई थी । साथ ही पता लग गया था उस हस्ती का रुतबा जिसे वह कुछ समझ ही नहीं रहा था । विभा ने स्टेचू की मानिंद खड़े धनजय कपाड़िया के हाथ से अपना मोबाइल लिया और कमीश्नर को 'थैंक्यू' कहने के बाद संबंध-विच्छेद करके कोट की जेब में रख लिया ।
सन्नाया हुआ धनजय कपाड़िया तब तक ठीक से होश में भी नहीं आ पाया था जब विभा ने बहुत ही सौम्य लहजे में कहा ---- “उम्मीद है कमीश्नर साहब से बात करके आपकी तसल्ली हो गई होगी ! अब अगर परमीशन दें तो हम संजय से बाकी सवाल पूछ लें ?”
“प... पूछिए । ” ये लफ्ज खुद संजय के मुंह से निकले ।
“दो घंटे कहां रहे?”
“यूं ही, ड्राइव पर निकल गए थे ।”
“काफी लंबी ड्राइविंग की ?”
“जी ।”
“मतलब उन दो घंटों में तुम किसी ऐसी जगह पर नहीं थे जहां से मालूम किया जा सके कि वहां थे भी या नहीं!”
“आप मंजू से पूछ सकती हैं।”
“जरूर । जरूरत पड़ी तो जरूर पूछूंगी।" कहते वक्त उसके होठों पर बहुत ही मोहक मुस्कान थी---- “फिलहाल ये बताओ कि लौटकर पार्किंग में कब आए? कितने बजे गाड़ी गायब पाई ?”
“दो बजे ।”
“ग्यारह से दो- - - - यानी तीन घंटे गुलमोहर में रहे?”
“हां।"
“इतनी देर क्या किया?”
“डांस करते रहे। फिर खाना खाया । "
“वहां का स्टाफ तो जरूर जानता होगा तुम्हें ? "
“इसका क्या मतलब?”
“सवाल मत करो, सिर्फ 'हां' या 'ना' में जवाब दो । गुलमोहर के स्टाफ का कोई आदमी तुम्हें जानता है या नहीं?”
“नहीं।”
“ अजीब बात है। तुम वहां जाते रहते हो। इतने बड़े बाप के इकलौते बेटे हो लेकिन स्टाफ का कोई आदमी नहीं जानता !”
“मैंने कब कहा कि मैं वहां जाता रहता हूं?”
“मतलब उसी रात गए थे।”
“गया था मेम | उससे पहले भी कई बार गया था । " संजय पर झल्लाहट सवार होने लगी थी---- “मगर अक्सर नहीं जाता था । दिल्ली में एक होटल नहीं है। सैंकड़ों डिस्कोथ हैं। हम कभी किसी में चले जाते थे, कभी किसी में । इसमें आपको क्या आपत्ति है ?” ।
“गुलमोहर में कितनी बार गए होगे?”
“ अब यूं... मैंने कभी गिना तो नहीं ।”
“अंदाजन?”
“चार-पांच बार ।”
“उस रात कोई मिला?”
“मिला से मतलब ?”
“कोई परिचित। बहरहाल, तुम वहां तीन घंटे रहे। इतनी देर में कोई परिचित तो मिला होगा ?”
“नहीं। मुझे याद नहीं है कि ऐसा कोई मिला हो ।”
“यानी ऐसा कोई गवाह नहीं है जो यह बता सके कि तुम दोनों वहां गए और तीन घंटे तक वहीं रहे? न स्टाफ, न कोई और ?”
“ भला हमें गवाह की क्या जरूरत है ?”
“मुमकिन है पड़ जाए ! ”
“मैं आपकी बात का मतलब नहीं समझ पा रहा हूं। क्या आप यह कहना चाहती हैं कि..
“खैर।” विभा ने जानबूझकर उसकी बात काटी - - - - “सुबह को जब तुम थाने पहुंचे तो पुलिस ने बताया तो होगा कि गाड़ी किसने चुराई थी और उन्होंने उसका क्या इस्तेमाल किया !”
“ बताया था । "
“लाश भी दिखाई होगी?"
“कहा था इंस्पेक्टर ने मगर मैंने देखी नहीं।”
“क्यों?”
“क्या करता देखकर ? लाश भी कोई देखने की चीज है? मुझे तो वैसे ही यह सोच-सोचकर अजीब-सा लग रहा था कि वे कम्बख्त मेरी गाड़ी की डिक्की में लाश ढूंसे घूम रहे थे । और फिर, मेरा मतलब ही क्या था किसी लाश से ? मेरा मतलब अपनी गाड़ी से था।"
“लाश का नाम तो सुना होगा?”
“हां । बताया था इंस्पेक्टर ने ।”
“क्या?”
“रतन ।”
“या रतन बिड़ला ?”
“क्या फर्क पड़ गया ?”
“फर्क ये पड़ गया कि रतन दिल्ली में बहुत हो सकते हैं लेकिन रतन बिड़ला शायद एक ही था। इतने बड़े घराने से ताल्लुक रखने वाला तो यकीनन एक ही ।”
“ मैं आपकी बात का मतलब नहीं समझ पा रहा । "
“पूरा नाम सुनकर भी नहीं समझे कि लाश तुम्हारे दोस्त की है !”
“द... दोस्त की ?” इस बीच संजय के बेहद नजदीक पहुंच चुकी विभा ने उसकी आंखों में झांकते हुए कहा ---- “रतन बिड़ला तुम्हारा दोस्त नहीं था?”
“न... नहीं तो। व... वह मेरा दोस्त क्यों होता ?” वह बौखलाया । “ये है वो बात जिसकी वजह से तुमसे उस अंदाज में सवाल करने पड़े जैसे मुजरिम से किए जाते हैं।” कहने के बाद वह बहुत तेजी से धनजय कपाड़िया की तरफ घूमी और बोली ---- “आप सुन रहे हैं मिस्टर धनजय ? मेरे पास इस बात की बहुत ही पक्की इंफारमेशन है कि रतन बिड़ला और आपके साहबजादे दोस्त थे ।”
धनजय कपाड़िया के चेहरे का रंग सफेद पड़ा हुआ था । चीख - सा पड़ा वह ---- “संजय, ये क्या कह रही हैं ?” “मेरी रतन से कोई दोस्ती नहीं थी।” धनजय ने विभा से पूछा----“आपके पास क्या इंफारमेशन है?” “हमें रतन के पेरेंट्स ने बताया है कि रतन और अवंतिका आपके बेटे-बहू के साथ पार्टियां आदि मनाते रहते थे।”
“अरे !” संजय ने तुरंत पैंतरा बदला ---- “एकाध बार अगर वे पार्टियों में मिल गए तो इससे क्या वह मेरा दोस्त हो गया ?”
“मतलब परिचय तो था उससे ! "
"बहुत थोड़ा ।”
“ चाहे जितना थोड़ा था । उस वक्त तुमने इंस्पेक्टर से यह बात कही क्यों नहीं कि तुम लाश को यानी रतन बिड़ला को जानते हो ?”
“इस बात का जिक्र करना मैंने जरूरी नहीं समझा । "
“वजह?”
“बेवजह यह बात उठती कि हत्यारों ने लाश को ठिकाने लगाने के लिए गाड़ी भी चुराई तो उसके परिचित की ही।”
“बिल्कुल ठीक। मैं ठीक यही कहना चाहती हूं मिस्टर संजय | " अपनी बात को पुरजोर अंदाज में कहने के साथ वह एक बार फिर धनजय कपाड़िया की तरफ घूमकर बोली---- “आप भी इस बात को सुनें मिस्टर धनजय और गौर से सोचें, कथित हत्यारों ने रतन की लाश को ठिकाने लगाने के लिए गाड़ी भी चुराई तो उसी के परिचित की बल्कि मेरे हिसाब से तो दोस्त की । क्या ये इत्तफाक है?”
मुंह में जुबान की तो बात ही दूर, धनजय कपाड़िया को काटो तो जिस्म में खून की एक बूंद तक नहीं ।
“वही हो गया पापा ।” संजय बोला---“वही हो गया जिस वजह से थाने में मैंने पुलिस को यह नहीं बताया था कि रतन बिड़ला को मैं पहले से जानता था। उस वक्त मेरे दिमाग में यह ख्याल आया था कि मैंने यह कहा नहीं और फालतू का यह सवाल उठा नहीं कि हत्यारों ने मेरी ही गाड़ी चोरी क्यों की? जिस लफड़े से बचने के लिए मैंने यह बात छुपाई थी, वह आखिर उठ ही गई । अब इसमें मैं क्या कर सकता हूं कि हत्यारों ने मेरी ही गाड़ी उठाई ?”
कई क्षण के लिए ड्राईंगरूम में खामोशी छा गई।
फिर, धनजय कपाड़िया ने विभा से बहुत ही संतुलित शब्दों में यह कहकर उस खामोशी को तोड़ा ---- “बात ठीक है आपकी । यह इत्तफाक कोई छोटा नहीं है मगर..
“मगर?”
“यदि आपके ख्याल से यह इत्तफाक नहीं था तो... आप क्या कहना चाहती हैं? क्या रतन की हत्या में संजय का कोई हाथ है ?"
“अभी यह कहना शायद जल्दबाजी होगी।” “बात खत्म हो गई।”
“बात तो अभी शुरु हुई है मिस्टर धनजय, जैसा कि आपने खुद कबूल किया ---- जहां हत्यारों द्वारा लाश को ठिकाने लगाने के लिए मक्तूल के परिचित की गाड़ी चुराना छोटा इत्तफाक नहीं है वहीं, यह सवाल अपनी जगह है कि संजय ने उसी वक्त थाने में रतन से अपना परिचय कबूल क्यों नहीं किया ?”
“ उसका तो जवाब दे रहा है ये । ”
“हालांकि ये जवाब यकीन के काबिल नहीं है क्योंकि स्वाभाविक नहीं है। स्वाभाविक तो यह होता कि रतन बिड़ला का नाम सुनते ही इसके मुंह से निकलता ---- 'अरे, रतन को मार डाला इन्होंने? और कम्बख्तों ने उसे ठिकाने लगाने के लिए मेरी ही गाड़ी चुरा ली?’ मगर इसके मुंह से ऐसा नहीं निकला। मुझमें एक खास क्वालिटी ये है मिस्टर धनजय कि जैसे ही कोई अस्वाभाविक बात होती है, मेरे कान खड़े हो जाते हैं। इसके बावजूद शायद इसके जवाब पर यकीन कर लेती लेकिन इसने पिछले सवालों के जो जवाब दिए हैं, वे खुद कह रहे हैं कि मुझे इस जवाब पर यकीन नहीं करना चाहिए । ”
“ ऐसे कौनसे जवाब दे दिए संजय ने ?”
“ पत्नी के साथ यह नौ बजे घर से निकला और फिर लोगों ने इन्हें रात के दो बजे गुलमोहर की पार्किंग में हंगामा करते देखा । नौ और दो के बीच पांच घंटे होते हैं । बकौल अपने ही, यह एक भी ऐसा गवाह पेश करने की स्थिति में नहीं है जो कह सके कि---- 'हां, मैंने इन्हें ड्राइव करते, गुलमोहर के डिस्कोथ में डांस करते या वहां खाने खाते देखा था । इस बात की क्या गारंटी है कि वे पांच घंटे इन्होंने उसी तरह गुजारे जिस तरह संजय महाशय कह रहे हैं? ये मुझे इस बात का कोई सबूत दे दें, मैं इस बात पर भी यकीन मान लूंगी कि हत्यारों ने इत्तफाक से इनकी गाड़ी चुरा ली थी और इस बात पर भी कि रतन से परिचित होने की बात इसने लफड़े से बचने के लिए छुपाई थी ।”
“लेकिन जरूरी तो नहीं है कि जब हम बाहर निकलें, भले ही चाहे जितनी देर के लिए, कोई परिचित देख ही ले ?”
“बिल्कुल जरूरी नहीं है। मगर मामला जब ऐसा फंस जाए तो पांच घंटे तक किसी परिचित का न मिलना खटक जाता है धनजय जी, वह मुझे खटक चुका है। और जो बात मुझे खटक जाती है, उसकी तह में जाए बगैर मैं चैन से नहीं बैठती ।”
“आप क्या धमकी दे रही हैं हमें ?”
“एक बार फिर कमीश्नर साहब से फोन पर पूछ लीजिएगा, मुझे पूरी उम्मीद है कि वे यही कहेंगे कि - - - - विभा जिंदल धमकियां नहीं दिया करती बल्कि धमकियां देने वालों की खबर लेती है।"
वह कहती चली गई ---- “विनम्र शब्दों में बस इतनी सी विनती है आपसे कि दो दिन देती हूं, इस बीच अपने लाडले से बात करके मुझे बता दें कि वे पांच घंटे इन्होंने कहां गुजारे? यदि मैंने पता लगाया तो..
बात अधूरी रह गई ।
कारण था ---- विभा के मोबाइल से गायत्री मंत्र की धुन निकलना ।
उसने लांग कोट की जेब से उसे निकाला । डिस्प्ले स्क्रीन पर नाम पढ़ा और ऑन करके कान से लगाती बोली ----“बोलो।” -
दूसरी तरफ से पता नहीं क्या कहा गया ?
मगर जो भी कहा गया वह ऐसा था जिसे सुनते ही विभा जिंदल की आंखों में एक खास चमक उभर आई ।
कोई और उस चमक का मतलब जानता हो या न जानता हो परंतु मैं जानता हूं और इसीलिए मेरे सारे जिस्म में रोमांच की बहुत ही अजीब-सी लहर दौड़ती चली गई ।
मैं जानता हूं कि वह खास चमक उस जादूगरनी की आंखों में केवल तभी उभरती है जब उसे कोई खास कामयाबी मिल जाए।
दूसरी तरफ वाले की बात सुनकर उसने कहा भी - "गुड।”
उधर से पुनः कुछ कहा गया ।
विभा ने पूछा ---- “पोजीशन?”
पोजीशन बताई गई ।
है सुनते-सुनते विभा के चेहरे पर ऐसे भाव उभरते चले गए जिनसे बस इतना पता लगता था कि जो बताया जा रहा है, वह हक में ।
“नहीं... नहीं।” विभा बोली ---- “उस वक्त तक एक्शन बिल्कुल नहीं करोगे जब तक कोई मजबूरी ही न आ जाए। याद रखो, तुम अकेले हो ---- वे तीन । मामला उल्टा भी हो सकता है।"
दूसरी तरफ से पुनः कुछ कहा गया ।
“हां | वही कह रही हूं।” उसने कहा ---- “एक्शन केवल तभी करोगे जब लगे कि वे तुम्हारे हाथ से निकलने वाले हैं। मगर ध्यान से, चोट मत खा जाना । तुम फाइट - मास्टर नहीं हो । ”
दूसरी तरफ से शायद यह पूछा गया कि 'तुम कहां हो?' तभी तो विभा ने कहा ----“ग्रेटर कैलाश फेज टू ।”
एक बार फिर नहीं पता कि दूसरी तरफ से क्या कहा गया ? विभा की आवाज जरूर हम सबके कानों में पड़ी ---- “क्यों, तुम कहां हो ?”
शायद बताया गया ।
“ओह !” लहजे में हल्की सी चिंता - - - - “टाइम तो वाकई लगेगा । मगर तुम चिंता मत करो। मैं जितनी जल्दी पहुंच सकती हूं, पहुंच रही हूं। तुम बस अपनी नजरों को पैनी बनाए रखना।”
फिर कुछ कहा गया ।
उसे सुनने के बाद वह बोली ---- “ये तो वाकई प्रॉबलम है। तुम वहां से हट नहीं सकते और मुझे कह रहे हो कि...।” एकाएक वह बात का रुख बदलती बोली ---- "ठीक है, मैं शाहदरा मेट्रो स्टेशन पर पहुंच जाती हूं। वहां पहुंचकर तुम्हारा मोबाइल मिलाऊंगी । तुम रास्ता बताते रहना । मैं फालो करती रहूंगी
उस तरफ से शायद 'ठीक है' जैसा ही कुछ कहा गया तभी तो विभा बोली- --- “ओ. के . । और हां, अगर मेरे फोन से पहले वहां कोई गड़बड़ हो या हालात में चेंज आए तो फौरन खबर करना ।”
इतना कहने के बाद उसने दूसरी तरफ से बोलने वाले की बात सुनने की कोई कोशिश नहीं की।
संबंध-विच्छेद करके मोबाइल कोट की जेब में डाला ।
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