"बॉस" - वापिसी में ऐंजो बोला- "मेरे को कौल की फिक्र।"
"कैसी फिक्र ?” - जीतसिंह सकपकाया ।
"वो गब्बर बॉस क्या बोलता था ? बोलता था जो डर गया, वो मर गया ।"
"अरे, कैसी फिक ?"
"वो कैप्सूल की दहशत खा रहा था । ऐन वक्त पर वो कैप्सूल खाने को नक्की बोल गया तो... "
"वो ऐसा नहीं करेगा । वो ऐसा नहीं कर सकता । उसे मालूम है उसका कैप्सूल खाना जरूरी है ।”
“सबको मालूम । पण, ऐन वक्त पर वो डर गया और कैप्सूल खाने को नक्की बोला तो ?"
"ऐंजो, वो तो वक्त आने पर डरेगा, पर मुझे तो तू अभी डरा रहा है । "
"ये प्रोब्लम है, बॉस जिसका कोई सोलूशन होना मांगता है । उसकी नालेज के बिना । "
"नहीं तो वो सोलूशन में हल में भी गड़बड़ करेगा ?" - "एग्जैक्टली ।”
- "ऐंजो, तू खामखाह वहम करता है । कौल एक जिम्मेदार आदमी है । वो यूं हमारे साथ धोखा नहीं करेगा।"
"न करे तो वैरी वैल ।" - ऐंजो एक क्षण ठिठका और फिर बोला - "अब मैं तेरे को भी एक बात बोलना मांगता है बॉस ।"
"क्या ?"
"तेरा शेयर वन मिलियन रुपीज - दस लाख नहीं बनेगा, इसकी तेरे को फिक ?" -
" है तो सही । "
"मेरे को भी है । इसलिए मैं तेरे को ये बोलना मांगता है, बॉस, कि अगर हम दोनों का शेयर मिलाकर भी तेरा काम बनता है तो कोई वान्दा नहीं ।"
"क्या मतलब ?"
"मेरे को अपना शेयर नहीं मांगता । तेरा रोकड़ा पूरा करने को मैं अपना शेयर तेरे को देगा । फिर भी पूरा नहीं पड़ेगा तो अपने पार्टनर लोगों में से किसी का भी गला काटकर उसका शेयर छीन लेगा ।”
"ऐसा तू मेरे लिए करेगा ?"
"मैं कसम खाता है सेंट फ्रांसिस की, जरूर करेगा ।" "ऐंजो ! मेरे दोस्त ! मेरे भाई !” " अब तेरे को । फिक्र नहीं करने का है। क्या !" । जीतसिंह ने हौले से सहमति में सिर हिलाया ।
ठीक आठ बजे जीतसिंह ने बेलगाम में आगाशे को फोन किया ।
तत्काल जवाब मिला । फोन खुद आगाशे ने उठाया ।
“मैंने कल फोन किया था - जीतसिंह बोला - “तुम घर पर नहीं थे ।”
"तुम...'
"वही । वही हूं मैं ।"
"मैसेज मिल गया तुम्हें मेरा ?"
"मिल गया । तभी तो फोन किया। दो बार | क्या किस्सा है ?"
"उस रात तुम ताव खा गए थे। अगर मिजाज ठिकाने आ गया हो तो...
"छोड़ो वो किस्सा । मुझे तुम्हारी स्कीम से कुछ लेना देना नहीं ।”
"मुझे तो है लेना देना । सच पूछा तो मैंने तुम्हारी और ऐंजो की जगह तेने वाले दो जने ढूंढ़ भी लिए हैं । "
"बधाई । अब मतलब की बात पर आओ ।”
" उन दो जनों में से एक जना वो है जिसकी तुम्हें तलाश है । "
“देवरे ?”
"हां"
"पक्की बात ?”
"हां"
"कैसे टकरा गया ?"
"बस, टकरा गया किसी तरह से । "
"कहां है ?"
“यहीं है । "
"बेलगाम में ?"
"नहीं । आमगाम में । यहां से पचास किलोमीटर का फासला है।"
"वो वहां कहां है ?"
"तुम कहां की फिक्र न करो। मैं तुम्हें वहां ले चलूंगा ।"
"तुम क्यों जहमत उठाओगे ?"
"कोई जहमत नहीं । आपसदारी में कोई जहमत होती है ? "
जीतसिंह सोचने लगा ।
"तुमने कहा था तुमने उसका हिसाब चुकाना है ।" - आगाशे बोला - "तुमने उसकी कोई अमानत उसे सौंपनी है । ऐसा अगर मेरे जरिए हुआ तो वो मेरा अहसान मानेगा और यूं मेरी उससे आइन्दा होने वाली जुगलबन्दी मजबूत होगी ।"
"हूं । वो कब तक वहां टिकेगा ?"
"दो तीन दिन की तो गारंटी है। आगे का पता नहीं ।"
"मैं आज ही आता हूं।"
"बढ़िया | "
"दोपहर तक मैं तुम्हारे पास पहुंच जाऊंगा । घर पर ही रहना ।”
"ठीक है ।"
***
दोपहर से पहले ही जीतसिंह बेलगाम पहुंच गया ।
उसने आगाशे के बंगले की कालबैल बजाई ।
दरवाजा इला ने खोला । जीतसिंह को देखकर उसने चौखट से एक कन्धा लगाकर बड़ा चित्ताकर्षक पोज बनाया और बड़ी अदा से मुस्कराई ।
जीतसिंह ने बड़े भावहीन ढंग से उसकी तरफ देखा ।
तत्काल मुस्कराहट यूं गायब हुई जैसे बिजली का स्विच ऑफ करने से बल्ब बुझ जाता है ।
"क्या है ?" - वो शुष्क स्वर में बोली ।
"आगाशे से मिलना है ।"
"यहीं ठहरो । बुलाती हूं।"
और उसने उसके मुंह पर दरवाजा बंद कर दिया ।
साली ! - जीतसिंह मन ही मन भुनभुनाया कुत्ती ! -
दो मिनट बाद दरवाजा फिर खुला और एक चमड़े की जैकेट की जिप चढ़ाता आगाशे बाहर निकला |
" पहुंच गए ?" - उसने मुस्कराते हुए निरर्थक सा प्रश्न किया ।
"हां।" - जीतसिंह सहमति में सिर हिलाता हुआ बोला ।
"अभी चलें या कोई चाय वाय पीना पसंद करोगे ?"
" अभी चलो ।"
"ठीक है । माल लाए हो ?"
"माल ?" - जीतसिंह के माथे पर बल पड़े ।
"उसका । अमानत । जो तुमने उसे सौंपनी है। "
"ये मैंने कब कहा कि अमानत माल है ?"
"हर बात कहने की जरूरत नहीं होती।" - वो हंसता हुआ बोला- "इधर भी" - उसने एक उंगली से अपनी कनपटी ठकठकाई - “भेजे में कुछ है ।"
"हूं। हां, माल लाया हूं।"
"बढ़िया | आओ ।"
वो ड्राइव वे में खड़ी नीली मारुति में जा सवार हुआ । आगाशे ने कार को कंम्पाउन्ड में से निकाला और सड़क पर डाल दिया । ड्राइव करता वो कभी होंठों में हौले-हौले गुनगुनाने लगता था तो कभी सीटी बजाने लगता था ।
"हम आमगाम चल रहे हैं ?" - जीतसिंह बोला ।
"हां।" - उसने तत्काल गुनगुनाना बन्द किया और तनिक सकपकाया सा बोला- "और कहां ?"
"हूं। और क्या खबर है ?"
" और खबर ठीक ही है । यूं समझ लो कि तुम्हारे लिए ।"
"मेरे लिये ?"
"मैं तुम्हारे से खफा नहीं हूं।"
"खफा !"
"उस रात तुमने मेरे मुंह पर घूंसा जड़ दिया था । दांत निकालने में कसर नहीं छोड़ी थी ।"
"अच्छा, वो।"
"मुझे गुस्सा बहुत आता है। गुस्से में भड़कता हूं तो आगा पीछा नहीं देखता । बात कुछ भी नहीं होती लेकिन मैं गुस्से में उसे तूल देकर बहुत बड़ा बना देता हूं। अब उस रात को ही देखो कि...
"होता है । होता है । सबके साथ होता है ।" - जीतसिंह ने नोट किया कि उस सन्दर्भ में अपनी बीवी के जिक्र से वो खास परहेज करता मालूम हो रहा था- "देवरे कैसे मिल गया ?"
"मिल गया इत्तफाक से। अपने सिन्धी भाई से टकरा गया कहीं वो ।”
"सिन्धी भाई !”
“नवलानी । भागचन्द । भूल भी गए ?" "उससे कैसे टकरा गया ?"
"तेरे जैसा एक सेफ क्रैकर उसने खोज निकाला था । उस सेफ क्रैकर का आगे वाकिफकार वो देवरे निकल आया था।
उसका नाम सुनते ही मैं समझ गया था कि वो वही दवरे था जो कभी तुम्हारा जोड़ीदार रह चुका था और जिसकी तुम्हें तलाश थी ।"
"था कहां वो ?"
"पणजी में ही था। "
“वहां से आमगाम कैसे पहुंच गया ?"
"कोई पुलिस का चक्कर बता रहा था । बोलता था कि उसने बम्बई में कोई हाथ मारा था जिसकी वजह से पुलिस उसके पीछे थी । पुलिस से बचने के लिए वो गोवा खिसक आया या लेकिन पुलिस को वहां भी उसकी भनक लग गई थी इसलिए वो अब वक्ती तौर पर आमगाम में जा छुपा है।"
"आमगाम में कहां ?"
"वहां एक फार्म हाउस है । वहां ।”
“और उस फार्म हाउस की खबर नवलानी को है ?"
" अब मुझे भी है ।"
"यानी कि वहां पहुंचने के लिए हम नवलानी के मोहताज नहीं है ?"
"जाहिर है । मैं जो हूं साथ ।"
"फार्म हाउस में उसके साथ और कौन है ?" "कोई नहीं । अकेला है वो वहां । "
"तुम्हें क्या मालूम ?"
"मेरा मतलब है वो वहां अकेला था ।"
"लेकिन अब वहां उसके पास कोई पहुंच गया हो सकता है ?"
"मुझे उम्मीद नहीं ।”
"मैं नहीं चाहता कि उसके साथ कोई हो। इसलिए पहले हमें इसी बात की तसदीक करनी होगी कि वो वहां अकेला है ।"
"क्यों ?"
"क्योंकि हो सकता है कि उसे ये अन्देशा हो कि मैं अमानत में ख्यानत कर भी चुका हूं। वो बहुत कड़क आदमी है । ऊपर से तुम्हारी तरह वो भी बहुत जल्दी भड़कता है इसलिए हो सकता है कि मेरी सूरत देखते ही वो मरने-मारने पर आमादा हो जाए। ऐसे में उसके साथ कोई और भी हुआ तो मश्किल हो जाएगी ।"
"क्या मुश्किल हो जाएगी ! उसके साथ कोई और होगा तो मैं भी तो तुम्हारे साथ हूं।"
"खुदा न करे लेकिन अगर वहां मारकाट की नौबत आ गई तो तुम किसका साथ दोगे ?"
“जाहिर है कि तुम्हारा ।"
"कैसे जाहिर है ?"
'भई, तुम मेरे साथ हो । मैं तुम्हें अपने साथ लेकर चल रहा हूं। ऐसे में तुम्हारे लिए मेरी कोई जिम्मेदारी बनती है या नहीं बनती ?"
" बात तो तुम सही कह रहे हो।" - जीतसिंह एक क्षण ठिठका और बोला- “वो हथियारबन्द हो सकता है। मुझे देखते ही वो अंधाधुंध गोलियां दागनी शुरू कर सकता है।"
"अच्छा ! ऐसा भी कर सकता है वो ?"
“कर सकता है ।”
"फिर भी तुम फिक्र न करो । ऐसी नौबत आई तो हम ईट का जवाब पत्थर से देंगे।"
"कैसे देंगे ? हमारे पास तो कोई हथियार है नहीं । "
"हथियार आ जाएगा।"
"कां से आ जाएगा।"
"आ जाएगा । बस देखते जाओ क्या होता है।" " मुझे इस बात की खुशी है कि तुम मेरी तरफ हो ।" "मुझे तुम्हारी खुशी की खुशी है । अब बोलो माल कितना है ?"
"माल ?"
"देवरे की अमानत ! जो तुम उसे सौंपना चाहते हो ।”
"वो?"
"हां | कितना है ?"
"एक लाख ।"
"बस ?" - आगाशे के स्वर में साफ-साफ मायूसी का पुट था ।
" और क्या कोई जेब में करोड़ रुपया रख के आ सकता है ?"
“लाख भी रखना मुश्किल ही है ऐसे तो !"
"पांच-पांच सौ के नोट हैं। दो गड्डियां । इधर ।" - जीतसिंह ने कोट के ऊपर से अपनी छाती ठकठकाई ।
"ये रकम तुम उसे न दो तो वो तुम्हारा क्या कर लेगा ?"
"वो मेरा खून कर देगा। बोला न बहुत कड़क आदमी है वो|"
" यानी कि डर के दे रहे हो ?"
"हां" "ऐसे डरपोक लगते तो नहीं हो ?"
"हूं भी नहीं । लेकिन जाबर के जबर से डरना ही पड़ता है। "
"मैं तो नहीं डरता।" - वो अकड़कर बोला ।
"किस से ?"
"किसी से भी ।"
"तुम्हारी क्या बात है ?"
"क्यों न हम... हम उसका काम ही कर दें ?"
"क्या मतलब ?"
"उस अकेले आदमी पर काबू पा लेना हम दोनों के लिए क्या मुश्किल काम होगा ? वो एक उजाड़ जगह है जहां हफ्ता दस दिन तो उसकी लाश की खबर नहीं लगेगी । तुम उसे कड़क दादा बताते हो । इस लिहाज से उसके पल्ले भी काफी माल-पानी हो सकता है जिसे हम आपस में बांट सकते हैं । उसे भी और जो तुम्हारी जेब में है उसे भी ।"
"उसे भी ?"
'भई, वो भी तो एक तरीके से देवरे का ही माल है । "
"बात तो तुम्हारी ठीक है।" "तो बोलो क्या कहते हो ?"
"लालच कर रहे हो ।”
"लालच ही सही, यार लेकिन क्यो करें । आजकल पैसे का तोड़ा है ।"
"हूं।"
"अब बोलो क्या कहते हो ?"
"पहले वहां तो पहुंचें । फिर जैसा माहौल होगा, देख लेंगे।"
***
वो एक खस्ताहाल इमारत थी जिस पर एक विशाल बोर्ड लगा था :
सुपर मोटर्स
सेल्स एण्ड सर्विस
इमारत के आगे एक कम्पाउंड था जिसमें चार-पांच गाड़ियां खड़ी थीं । कम्पाउंड में कोई नहीं था लेकिन भीतर से आती आवाजों से भीतर लोगों की मौजूदगी का अहसास मिल रहा था।
आगाशे ने अपनी गाड़ी कम्पाउंड में छोड़ दी ।
“क्या हुआ ?" - जीतसिंह सशंक स्वर में बोला ।
"कुछ नहीं ।" - आगाशे मारुति को एक बंद जीप के पहलू में रोकता हुआ बोला- "यहां गाड़ी बदलनी होगी ।"
"गाड़ी बदलनी होगी !" - जीतसिंह सकपकाया - "इसमें क्या खराबी है ?"
"चलने में कोई खराबी नहीं लेकिन कोई और खराबी है ।"
"क्या ?"
“उस फार्म हाउस तक पहुंचने के लिये जो सड़क है, वो कच्ची है । उस पर गाड़ी चलती है तो धूल का ऐसा गुबार उठता है कि मीलों दूर से पता चल जाता है कि फार्म हाउस की तरफ कोई आ रहा था, उस सड़क पर कार चलाते पहुंचना और ढोल बजाते पहुंचना एक ही बात है।"
"तो ?"
"तो ! अभी भी पूछ रहे हो तो ! क्या, तुम पसन्द करोगे कि देवरे को तुम्हारी आमद की एडवांस में खबर हो जाए ?"
"उसे क्या पता कौन आ रहा था !
"वो सावधान तो फिर भी हो जाएगा ।”
"हूं।"
"हमें ऐसे उस तक पहुंचना चाहिए कि उसे हमारी भनक तक न लगे ।”
"क्यों ?"
“भई तभी तो हम उसका काम करके उसका माल पार कर सकेंगे ।"
" यानी कि ऐसी करने की तुमने पक्की ही ठान ली हुई है ?"
"तुमने भी तो ।”
“मैने कब कहा था ? मैंने तो कहा था देखेंगे । सोचेंगे ।”
“अब सोच भी चुको, यार । जो बात अब तुम्हारे भी मन में है, जो बात तुम्हें जंच भी चुकी है, अब उसमें टालमटोल कैसी ?"
"हम उस तक ऐसे कैसे पहुंचेंगे कि उसे हमारी भनक तक न लगे ?"
"वो मेरा काम है ।"
"कैसे पहुंचेंगे।”
आगे हम" - उसने करीब खड़ी बन्द जीप की तरफ इशारा किया - "इस जीप पर जाएंगे।"
"जीप धूल नहीं उड़ाती ?"
"जीप पर हम उस धूल उड़ाने वाली कच्ची सड़क से नहीं जाएंगे जो सीधे फार्म हाउस तक पहुंचती है। फार्म हाउस के पहलू में एक पहाड़ी है । हम वहां की एक पहाड़ी सड़क से उसका घेरा काटकर पहाड़ी के पिछवाड़े में पहुंच जाएंगे । वहां से हम पहाड़ी के ऊपर पहुंचकर दूसरी तरफ झांकेंगे तो फार्म हाउस ऐन हमारे सामने होगा ।"
"तुम तो सब कुछ पहले से ही सोचे बैठे हो !”
"मैं उस इलाके से बहुत अच्छी तरह से वाकिफ हूं।" - वो हंसता हुआ बोला - "एक बार मुझे खुद वहां आठ नौ दिन छुप के रहना पड़ा था ।”
“तभी तो !”
"तुम यहीं ठहरो, मैं भीतर हो के आता हूं।"
"जीप किसकी है ?"
"मेरे दोस्तों की । जो ये गैरेज चलाते हैं।"
"ओह !"
"मैं बस गया और आया ।"
जीतसिंह ने सहमति में सिर हिलाया ।
आगाशे इमारत में दाखिल होकर निगाहों से ओझल हो गया तो जीतसिंह कार से बाहर निकला उसने जीप का पूरा घेरा काटकर गौर से उसका मुआयना किया। उसने उसका ड्राइविंग सीट की ओर का दरवाजा ट्राई किया तो पाया कि वो खुला था । उसने दरवाजे से भीतर गर्दन डालकर जीप के पृष्ठभाग का मुआयना किया तो पाया कि पृष्ठभाग में सीटें नहीं थीं और उसको जगह फर्श पर कई तरह के डिब्बे, टीन कनस्तर, वाहनों के पुर्जे, स्पेयर व्हील और एक तिरपाल पड़ी थी।
वो जीप के पृष्ठभाग में पहुंचा तो उसने पाया कि पिछला दरवाजा मजबूती से बंद था ।
वो उसके पैसेंजर साइड वाले पहलू में पहुंचा । उधर का दरवाजा सामने दूसरे दरवाजे की तरह खुला था । वो उसे खोलकर भीतर सीट पर जा बैठा । फिर उसने वापिस घूमकर, हाध बढ़ाकर तिरपाल का एक कोना थामा और उसे उठाकर उसके नीचे झांका ।
तिरपाल के नीचे एक रायफल मौजूद थी जिसका दस्ता उसे दिखाई दे रहा था ।
तभी उसे कम्पाउंड में पड़ते कदमों की आहट मिली ।
उसऐ तिरपाल छोड़ दी और सीधा हो के बैठ गया । आगाशे करीब पहुंचा । जीतसिंह को जीप के भीतर बैठा पाकर वो तनिक सकपकाया, फिर वो ड्राइविंग सीट पर स्टियरिंग के पीछे जा बैठा ।
"चाबी लेने गया था ।" - वो इग्रीशन में चाबी लगाता हुआ बोला ।
जीतसिंह ने सहमति में सिर हिलाया और फिर बोला "हथियार ?"
"क्या ?"
"जो तुम कहते थे आ जाएगा ?"
"अच्छा, वो समझ लो कि आ गया है । बल्कि आ गए हैं।"
" कहां हैं ?"
"जीप में ।"
" जीप में कहां ?"
"पीछे । तिरपाल के नीचे । एक रायफल । टेलीस्कोपिक साइट वाली । और एक रिवॉल्वर । दोनों के साथ एक्स्ट्रा गोलियां ।”
"जरा देखें ?"
"देख लो ।"
" पीछे का दरवाजा बंद है । "
"मैं खोलता हूं।"
उसने इग्नीशन में से चाबियां निकालीं । दोनों जीप के पिछवाड़े में पहुंचे । अगाशे ने चाबी लगाकर पिछला दरवाजा खोला और तिरपाल पलटा । नीचे से एक रायफल और एक रिवॉल्वर उजागर हुई ।
जीतसिंह ने बारी बारी दोनों का मुआयना किया।
"फायरआर्म्स की काफी समझ मालूम होती है तुम्हें !" आगाशे बोला ।
"नहीं ।" - जीतसिंह गम्भीरता से बोला- "काफी नहीं ।” "लेकिन समझ है ?"
"मामूली ।"
"हथियार जंचे ?"
"हां । ये जीप में ही पड़े रहते हैं ?"
"हां । सेफ हैं यहां । "
"जब कि जीप के अगले दोनों दरवाजे खुले थे !”
" ऐसा होना नही चाहिए था, इत्तफाक से हुआ । नालायकी है मेरे दोस्तों की ।"
"जीप तुम्हारी है ?"
"हां"
"यहां क्यों खड़ी करते हो?"
"खस्ताहाल गाड़ी है। मेरा मतलब है शक्लसूरत में । शहर में चलाने के लायक नहीं । फिर इसका ऐसा- वैसा इस्तेमाल भी होता है इसलिए मेरा इससे दूर रहना ही ठीक है।"
“ऐसा-वैसा इस्तेमाल ?" - जीतसिह की भवें उठीं ।
"समझो ।"
"ओह ! ओह !"
" अब चलें ?"
“हां | जरूर ।”
दोनों वापिस जीप में सवार हो गए ।
***
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