भुतहा पहाड़ी की हवा
हू—हूऊ-हूऊऊ, हिमालयी बर्फ़ से उतरकर आती हवा चीखी। यह तेज़ी से पहाड़ियों और दर्रों पर उतर रही थी और विशाल चीड़ और देवदार के पेड़ों पर गुनगुना और कराह रही थी।
भुतहा पहाड़ी पर हवा को रोकने के लिए बहुत कम चीज़ें थीं—सिर्फ़ कुछ छोटे कद के पेड़ और झाड़ियाँ, और खंडहर जो कभी एक छोटी रिहाइश रही होगी।
दूसरी पहाड़ी की ढलान पर एक छोटा गाँव था। लोग अपनी टिन की छत पर भारी पत्थर रखते थे ताकि वह उड़ने से बच सके। इस हिस्से में हमेशा ही हवा होती थी। यहाँ तक कि धूप निकली हो तब भी खिड़की, दरवाज़े बजते रहते, चिमनियाँ चोक हो जाती थीं, कपड़े उड़ जाते थे।
तीन बच्चे एक नीची पत्थर की दीवार के पास खड़े कपड़े सुखाने के लिए डाल रहे थे। हर कपड़े पर वे एक पत्थर डाल रहे थे। तब भी कपड़े यूँ उड़ रहे थे जैसे झंडे या पताका हों।
काले बालों और गुलाबी गालों वाली उषा अपने दादाजी के लम्बे, ढीले कुरते के साथ संघर्ष कर रही थी। वह ग्यारह या बारह साल की थी। उसका छोटा भाई, सुरेश एक बिस्तर की चादर को पकड़े रखने के लिए पूरा जतन कर रहा था जबकि बिन्या, जो थोड़ी बड़ी थी और उषा की सहेली और पड़ोसी थी, उन्हें एक-एक कर कपड़े थमा रही थी।
फिर जब वे निश्चिंत हो गये कि सब कपड़े दीवार पर हैं और पत्थरों के सहारे मज़बूती से टिके हैं, वे एक समतल पत्थर पर चढ़ गये और वहाँ कुछ देर बैठे रहे, हवा और धूप में, मैदान के पार भुतहा पहाड़ी के खंडहरों को घूरते हुए।
“आज मुझे बाज़ार ज़रूर जाना है,” उषा ने कहा।
“काश, मैं भी आ पाती,” बिन्या ने कहा, “लेकिन मुझे गाय और घर के कामों में सहायता करनी है। माँ की तबीयत ठीक नहीं।”
“मैं आ सकता हूँ!” सुरेश ने कहा। वह बाज़ार घूमने के लिए हमेशा तैयार रहता था। जो भुतहा पहाड़ी के दूसरी ओर तीन मील दूर था।
“नहीं, तुम नहीं जा सकते,” उषा ने कहा, “तुम्हें लकड़ियाँ काटने में दादाजी की मदद करनी होगी।”
उनके पिता सेना में थे, देश के किसी दूरस्थ इलाके में तैनात और सुरेश और उसके दादाजी उस घर के एकमात्र पुरुष थे। सुरेश आठ साल का था, गोलमटोल और बादाम जैसी आँखों वाला।
“क्या तुम अकेले लौटते हुए डरोगी नहीं?” उसने पूछा।
“मुझे क्यों डरना चाहिए?”
“पहाड़ी पर भूत हैं।”
“मैं जानती हूँ, लेकिन मैं अँधेरा होने से पहले ही लौट आऊँगी। भूत दिन में नहीं आते।”
“क्या खंडहर में बहुत सारे भूत हैं?” बिन्या ने पूछा।
“दादाजी कहते हैं ऐसा। वह कहते हैं कि कई साल पहले—लगभग सौ साल पहले—अंग्रेज़ पहाड़ियों पर रहा करते थे। लेकिन यह एक खराब जगह थी, हमेशा बिजलियाँ गिरती थीं यहाँ और उन्हें अगली पहाड़ी पर जाना पड़ा और दूसरी जगह बनानी पड़ी।”
“लेकिन अगर वे चले गये तो वहाँ कोई भूत क्यों होना चाहिए?”
“क्योंकि- दादाजी कहते हैं—एक भयंकर तूफ़ान के दौरान उनमें से एक घर पर बिजली गिर गयी और उसमें रहने वाले सभी मारे गये। सभी, बच्चों सहित।”
“क्या बहुत सारे बच्चे थे?”
“वहाँ दो बच्चे थे। एक भाई और बहन। दादाजी कहते हैं कि उन्होंने उन दोनों को कई बार देखा है जब भी वह देर रात उन खंडहरों से गुज़रे हैं। उन्होंने उन्हें चाँदनी रात में खेलते देखा है।
“क्या वह डरे नहीं?”
“नहीं। बूढ़े लोग भूत दिखने की परवाह नहीं करते।”
उषा दो बजे दोपहर में बाज़ार के लिए निकली। वह एक घंटे का पैदल रास्ता था। वह खेतों के बीच से गयी थी—जो सरसों के फूलने से पीले दिखने लगे थे, फिर पहाड़ी के साथ होते हुए ऊपर खंडहर तक।
यह रास्ता सीधा खंडहर के बीच से जाता था। उषा उसे अच्छे से जानती थी; साप्ताहिक खरीददारी के लिए बाज़ार जाने के लिए वह अक्सर इसी रास्ते का उपयोग करती थी, या अपनी चाची से मिलने के लिए, जो शहर में रहती थीं।
ढह चुकी दीवारों पर जंगली फूल खिले हुए थे। एक जंगली बेर सीधा फ़र्श पर उग आया था, जो कि कभी एक विशाल हॉल रहा होगा। उसके कोमल, सफ़ेद फूल गिरने लगे थे। छिपकलियाँ पत्थर पर भाग रही थीं, जबकि एक गाने वाली चिड़िया, अपने गाढ़े बैंगनी परों को नरम धूप में चमकाती, एक खाली खिड़की पर बैठी पूरे दिल से गा रही थी।
उषा खुद में ही गुनगुनाने लगी जब चलते-चलते वह रास्ते पर हल्का-सा लड़खड़ा गयी। जल्दी ही उसने खंडहरों को पीछे छोड़ दिया था। वह रास्ता नीचे की ओर तीव्र ढलान लिये हुए घाटी और उसके छोटे शहर के बिखरे हुए बाज़ार की ओर जाता था।
उषा ने बाज़ार में अपना समय लिया। उसने साबुन और माचिस, मसाले और चीनी खरीदी (इनमें से कोई भी चीज़ गाँव में नहीं मिलती थी, जहाँ कोई दुकान नहीं थी), और दादाजी के हुक्के के लिए नयी पाइप और सुरेश के गणित के सवाल हल करने के लिए एक अभ्यास पुस्तिका। थोड़ा सोचने के बाद उसने कुछ कंचे भी खरीद लिये। फिर वह मोची की दुकान पर गयी ताकि अपनी माँ की चप्पलें सिलवा सके। मोची व्यस्त था इसलिए उसने चप्पलें वहाँ छोड़ दीं और कहा कि वह एक घंटे में वापस आयेगी।
उसके पास अपने बचाये हुए दो रुपये थे, और उन पैसों का इस्तेमाल उसने अपने लिए एक बूढ़ी तिब्बती औरत जो ताबीज और नकली सस्ते गहने बेचती थी, से चमकते भूरे-पीले रंग की मोती की माला खरीदने के लिए किया।
वहाँ वह अपनी चाची लक्ष्मी से मिली जो उसे अपने घर चाय पिलाने के लिए ले गयीं।
उषा ने एक घंटा चाची लक्ष्मी की दुकान के ऊपर बने छोटे फ्लैट पर बिताया और चाची के बायें कन्धे में दर्द और जोड़ों में अकड़न की बातें सुनती रही। उसने गर्म मीठी चाय के दो कप पिये और जब उसने खिड़की के बाहर देखा तो काले बादल पहाड़ों पर घिर आये थे।
उषा मोची के पास भागी गयी और अपनी माँ की चप्पलें लीं। खरीददारी का झोला भरा हुआ था। उसने उसे अपने कन्धे पर रखा और गाँव की ओर चल पड़ी।
विचित्र बात थी कि हवा रुक चुकी थी। पेड़ शान्त थे, एक पत्ता भी हिल नहीं रहा था। घास में झींगुर शान्त थे। कौवे गोल चक्कर काटकर फिर रात के लिए सिन्दूर के पेड़ पर बैठ चुके थे।
“मुझे अँधेरा होने से पहले घर पहुँचना ही होगा,” उषा ने खुद से कहा, जब वह रास्ते पर तेज़ कदम बढ़ा रही थी। काले और डरावने बादल भुतहा पहाड़ी पर घिर आये थे। यह मार्च था, तूफ़ान का महीना।
एक तेज़ गड़गड़ाहट पहाड़ी पर प्रतिध्वनित हुई और उषा ने अपने गालों पर वर्षा की पहली भारी बूँद महसूस की।
उसके पास कोई छाता नहीं था; कुछ ही घंटों पहले मौसम बिलकुल साफ़ प्रतीत हो रहा था। अब वह अपने पुराने स्कार्फ़ को अपने माथे के ऊपर बाँधने और शॉल को मज़बूती से कन्धे के चारों ओर लपेटने के अलावा कुछ नहीं कर सकी। अपने खरीददारी के झोले को अपने शरीर के पास चिपका कर, उसने अपनी चाल तेज़ कर दी। वह लगभग दौड़ रही थी। वर्षा की भारी, विशाल बूँदें।
अचानक एक तेज़ चमकती बिजली से पूरी पहाड़ी प्रकाशित हो गयी। खंडहर अपनी स्पष्ट आकृति के साथ खड़ा था। फिर पूरा अंधकार छा गया। रात घिर चुकी थी।
‘मैं तूफ़ान आने से पहले घर नहीं पहुँच पाऊँगी,’ उषा ने सोचा। ‘मुझे खंडहर में ही शरण लेनी होगी।’ वह आगे बस कुछ फीट तक ही देख पा रही थी, लेकिन वह रास्ते को अच्छे से जानती थी और वह दौड़ने लगी।
अचानक, हवा फिर तेज़ हुई और बारिश को तीव्रता से उसके चेहरे के ऊपर डालने लगी। यह ठंडी, चुभने वाली बारिश थी। वह मुश्किल से अपनी आँखें खोल पा रही थी।
हवा अपने पूरे वेग में थी। वह गुनगुना रही थी और सीटियाँ बजा रही थी। उषा को उससे संघर्ष करने की ज़रूरत नहीं पड़ी। वह अब उसके पीछे थी और तीव्र ढलान वाले रास्ते पर और पहाड़ी के शीर्ष पर उसकी मदद कर रही थी।
बिजली दूसरी बार चमकी और उसके बाद एक तेज़ गर्जना हुई। खंडहर उसके आगे फिर उभर आया, कठोर और भयावह।
∼
वह जानती थी कि वहाँ एक कोना है, जिस पर एक पुरानी छत बची हुई है। वह कुछ छाया दे सकेगी। यह आगे चलते जाने से बेहतर होगा। अँधेरे में, गरजती हवा में, उसे पहाड़ी की चोटी के किनारे पर पहुँचने के लिए बस थोड़ा-सा रास्ता पार करना था।
हू-हूऊ-हूऊऊऊ, हवा फिर गरजी। उसने जंगली बेर के पेड़ को झूमते, आधा झूमते देखा, उसकी पत्तियाँ ज़मीन पर टूटी पड़ी थीं। टूटी हुई दीवार हवा को रोक पाने के लिए कुछ कर नहीं पा रही थी।
उषा खंडहर हो चुकी इमारत में अपना रास्ता खोजने लगी, उस जगह की अपनी स्मृति और लगातार चमकती बिजली की रोशनी की मदद से। वह दीवार के सहारे चलने लगी, इस उम्मीद में कि उस छत वाले कोने तक पहुँच जायेगी। उसने अपना हाथ एक समतल पत्थर पर रखा और किनारे से निकल गयी। उसके हाथ ने कुछ मुलायम और रोयेंदार चीज़ छूयी। उसने एक चौंकने वाली चीख मारी और अपना हाथ हटा लिया। उसकी चीख का उत्तर एक और चीख ने दिया—आधी गुर्राहट, आधी चीख—और कुछ अँधेरे में लपका।
यह एक जंगली बिल्ली थी। उषा को यह तब पता चला जब उसने उसकी आवाज़ सुनी। यह बिल्ली खंडहरों में रहती थी और उसने कई बार उसे देखा था, लेकिन कुछ पलों के लिए वह बहुत भयभीत हुई थी। अब वह सिर्फ़ दीवार से लगकर तेज़ी से आगे बढ़ रही थी जब तक उसने टूटी टिन की छत पर बारिश की आवाज़ नहीं सुन ली।
जैसे ही वह उसके अन्दर पहुँची, कोने में दुबककर, उसे हवा और बारिश से थोड़ी राहत मिली। उसके ऊपर टिन की चादरेंचीख और झनझनाहट की आवाज़ें निकाल रही थीं, जैसे किसी भी क्षण उड़ जायेंगी। लेकिन उन्हें एक सिन्दूर के पेड़ की मज़बूत फैली हुई शाख ने सँभाला हुआ था।
उषा को याद आया कि उस खाली कमरे के पार एक पुराना चूल्हा था और शायद उसकी अवरुद्ध चिमनी में कोई आश्रय हो। शायद वह इस कोने से अधिक सूखा हो; लेकिन वह उसे पाने का अभी कोई प्रयास नहीं करेगी। उसके रास्ता भटक जाने की पूरी सम्भावना है।
उसके कपड़े गीले थे और पानी उसके लम्बे काले बालों से चूता हुआ उसके तलवों के पास एक तलैया बना रहा था। उसने अपने पैरों को गर्म रखने के लिए पटका। उसे लगा कि उसने एक हल्की चीख सुनी है—क्या वह फिर बिल्ली थी, या कि एक उल्लू?—लेकिन तूफ़ान की आवाज़ से हर आवाज़ दब गयी थी।
भूतों के बारे में सोचने का समय नहीं था, लेकिन अब जबकि वह वहाँ थी और दोबारा जोखिम उठाने के किसी भी विचार में नहीं थी, उसे दादाजी की सुनायी, खंडहर के बिजली से ध्वस्त होने की कहानी याद आयी। उसने उम्मीद और प्रार्थना की कि वह जब तक वहाँ आश्रय ले रही है तब तक बिजली नहीं गिरे।
बादल पहाड़ी पर गरजे और बिजली तीव्रता से चमकने लगी, बिजली की कौंध के बीच कुछ क्षणों का ही अन्तराल था।
फिर वह सबसे अधिक तीव्रता से चमकी और एक-दो सेकेंड के लिए पूरा खंडहर जगमगा गया। एक नीली रेखा इमारत के फ़र्श के साथ चमक पड़ी, इस किनारे से बाहरी किनारे तक। उषा अपने बिलकुल आगे घूर रही थी। जब उसकी विपरीत दीवार चमकी, उसने देखा कि बेकार पड़े चूल्हे में दुबकी हुई, दो छोटी आकृतियाँ—वे बस बच्चे ही हो सकते थे!
भुतहा आकृतियों ने ऊपर देखा, उषा को घूरा। और फिर सब ओर अँधेरा हो गया।
उषा का हृदय उसके मुँह को आ गया। उसने बिना शक दो भुतहा आकृतियों को कमरे के दूसरे किनारे पर देखा था, और वह अब उस खंडहर में एक मिनट भी और नहीं रहने वाली थी।
वह अपने कोने से भागी, दीवार के उस बड़े छेद की ओर भागी जहाँ से उसने प्रवेश किया था। वह उस खुले रास्ते की तरफ़ आधी ही पहुँची थी कि कोई चीज़—कोई और उससे टकरा कर गिरा। वह लड़खड़ायी, उठी, और फिर किसी और चीज़ से टकरा गयी। उसने एक डरी हुई चीख मारी। कोई और भी चीखा। और फिर एक चीख, एक लड़के की चीख और उषा ने उस आवाज़ को तुरन्त पहचान लिया।
“सुरेश!”
“उषा!”
“बिन्या!”
“यह मैं हूँ!”
“यह हम हैं!”
वे एक-दूसरे की बाँहों में समा गये, इतने चकित और चिन्तामुक्त कि वे बस हँसे जा रहे थे, खिलखिला रहे थे और एक-दूसरे का नाम दोहरा रहे थे।
फिर उषा बोली, “मैंने सोचा कि तुम लोग भूत हो।”
“छत के नीचे आ जाओ,” उषा ने कहा।
वे एक कोने में एकत्र हो उत्तेजित होकर चहचहा रहे थे।
“जब अँधेरा बढ़ गया तो हम तुम्हें खोजने निकले,” बिन्या ने कहा, “और फिर तूफ़ान आ गया।”
“क्या हम साथ मिलकर भागें?” उषा ने कहा, “मैं यहाँ अब ज़्यादा समय रुकना नहीं चाहती।”
“हमें इन्तज़ार करना पड़ेगा,” बिन्या ने कहा, “रास्ता एक जगह से टूटा हुआ है। यह अँधेरे में सुरक्षित नहीं होगा, इस बारिश में।”
“फिर हमें सुबह तक इन्तज़ार करना पड़ेगा,” सुरेश ने कहा, “और मुझे भूख लग रही है।”
हवा और बारिश चलती रही, और साथ ही बादल की गर्जन और बिजली की चमक भी, लेकिन अब वे भयभीत नहीं थे। वे एक-दूसरे को सौहार्द और दिलासा दे रहे थे। यहाँ तक कि खंडहर भी डरावने नहीं लग रहे थे।
एक घंटे बाद बारिश रुक गयी जबकि हवा लगातार बह रही थी, और यह बादल को अपने साथ बहा लिये जा रही थी, ताकि बादल की गर्जन दूर होती रहे। फिर हवा भी, बहकर शान्त हो गयी।
सुबह के करीब आते ही गाने वाली चिड़िया ने गीत गाना शुरू कर दिया। उसका मीठा, टूटा हुआ स्वर बारिश से धुले हुए खंडहर को संगीत से भर रहा था।
“आओ चलें,” उषा ने कहा।
“चलो,” सुरेश ने कहा, “मैं भूखा हूँ।”
जैसे उजाला हो रहा था, उन्होंने देखा कि बेर का पेड़ फिर से सीधा खड़ा हो गया था, हालाँकि उसके सारे फूल झड़ चुके थे।
वे खंडहर के बाहर खड़े थे, पहाड़ी के शीर्ष पर, आकाश को गुलाबी होता देखते हुए। हल्की हवा बहने लगी थी।
जब वे खंडहर से थोड़ा दूर आये, उषा ने पीछे देखा और कहा, “क्या वहाँ तुम कुछ देख सकते हो, दीवार के पीछे? ऐसा लग रहा है कि कोई हाथ हिला रहा है।”
“मैं कुछ नहीं देख सकता,” सुरेश ने कहा।
“वह बेर के पेड़ के ऊपर है,” बिन्या ने कहा।
वे उस रास्ते पर थे जो पहाड़ी के ऊपर से जाता था।
“गुड बाय, गुड बाय।”
आवाज़ें हवा में थीं।
“किसने बाय कहा?” उषा ने पूछा।
“मैंने नहीं,” सुरेश ने कहा।
“मैंने नहीं,” बिन्या ने कहा।
मैंने सुना कोई बुला रहा था।”
“यह बस हवा है।”
उषा ने खंडहर की ओर दोबारा मुड़कर देखा। सूरज ऊपर आ चुका था और दीवार के शीर्ष को छू रहा था। चीड़ की पत्तियाँ चमक रही थीं। वहाँ चिड़िया बैठी गा रही थी।
“आओ चलें,” सुरेश ने कहा, “मैं भूखा हूँ।”
“गुड बाय, गुड बाय, गुड बाय, गुड बाय…”
उषा ने उन्हें पुकारते सुना। या यह सिर्फ़ हवा थी।
0 Comments