मायाराम पिछवाड़े के आफिस में कृष्णामूर्ति के रूबरू था।

वह जानबूझ कर लेट वहां पहुंचा था।

“उस्ताद जी” — कृष्णामूर्ति शिकायतभरे लहजे से बोला — “तुम तो दस बजे आने वाले थे!”

“सॉरी!”

“अब तो साढ़े दस बज रहे हैं!”

“मेरी कोई मंशा नहीं थी लेट होने की लेकिन क्या करूं, कुत्ते पीछे पड़ गये। एक नहीं दो दो। भौंकने वाले ही नहीं, काटने वाले भी। चुप कराया न! टाइम लग गया।”

“चुप कराया! कैसे?”

मायाराम ने लापरवाही से उसे गन दिखाई।

कृष्णामूर्ति के नेत्र फैले।

“क्-क्या किया?” — वो बोला।

“सोचो।”

“शू-शूट कर दिया?”

“दोनों को। नाम दर्शन लाल। सुभाष। तुम्हें तो मालूम होगा!”

कृष्णामूर्ति खामोश रहा।

“क्यों? जवाब देते नहीं बन रहा?”

“तुमने सच में उन्हें मार डाला?”

“दोनों की लाशें आजू बाजू की दोनों बैरकों की छत पर पड़ी हैं। जाओ, जाके तसदीक करो।”

“लेकिन क्यों?”

“क्यों कि वो मुझे मारने के लिये घात लगाये बैठे थे।”

“ओह, नो!”

“ताकि मेरे से माल छीन पाते।”

“यकीन नहीं आता।”

“क्यों यकीन नहीं आता? तुम्हीं ने तो दिन में उन्हें मेरे पीछे लगाया था!”

“हरगिज नहीं।”

“झूठ!”

“अरे, कोई वजह तो होती ऐसा करने की! तुम मेरे दोस्त हो, मैं तुम्हारे साथ ऐसे पेश आने का खयाल भी नहीं कर सकता था।”

“वो तुम्हारे आदमी नहीं थे?”

“एक था, लेकिन उस सैंस में नहीं था जिस सैंस में तुम कह रहे हो। दर्शन लाल मेरा मुलाजिम था। बस। सुभाष मैं नहीं जानता कौन है।”

“एक ही सही, तुमने उसे मेरे पीछे नहीं लगाया था?”

“नहीं। बिलकुल नहीं।”

“तो फिर वो दोनों मेरे माल की ताक में क्योंकर मेरे पीछे थे?”

कृष्णामूर्ति ने बहुत संजीदगी से उस बात पर विचार किया।

“एक ही बात सूझती है।” — आखिर बोला।

“क्या?”

“दर्शन लाल नया मुलाजिम था। यहां स्टाफ की शार्टेज चल रही है। इस लिये मैंने उसे बिना कोई ज्यादा पड़ताल किये रख लिया था। हो सकता है किसी लैवल पर वो उसी राह का राही हो जिसके तुम... हम हैं और उसने तुम्हें पहचान लिया हो और इसलिये खुराफात में छुपकर दिन का हमारा डायलॉग सुना हो और फिर उसके तहत अपने किसी खास यार के साथ तुम्हारे पीछे लगा हो। तुम कहते हो तुम्हें अपने पीछे लगे उन की खबर लग गयी थी और तुम उन से पीछा छुड़ाने में कामयाब हो गये थे। लेकिन हमारी बातचीत सुनी होने की वजह से दर्शन लाल को मालूम था कि रात दस बजे तुम यहां लौट के आने वाले थे इसलिये उन्होंने तुम्हारे लिये यहां घात लगाई।”

“और तुम्हें खबर न हुई!”

“कैसे होती! वो चौबीस घन्टे का मुलाजिम तो नहीं! आठ बजे उस की यहां से छुट्टी हो जाती है, उसके बाद मेरे को कैसे पता चलता कि कमीना अपने किसी जोड़ीदार के साथ यहां छुपा बैठा रहा था!”

“दिन में जब वो मेरे पीछे था तो कैसे था?”

“वो... वो थोड़ी देर की छुट्टी के लिये बोल कर गया था लेकिन ढ़ाई घन्टे बाद आया था। मैंने बोला न, मुझे स्टाफ की शार्टेज है इसलिये मैंने उसे वार्निंग दे के छोड़ दिया था।”

“हूं।”

“उस्ताद जी, तुम मेरे पुराने वाकिफ हो, तुम सोच भी कैसे सकते हो कि मैं तुम्हारे साथ दगा कर सकता हूं?”

“तुम बताओ।”

“मैं बताऊं?”

“हां।”

कृष्णामूर्ति ने एक आह सी भरी और असहाय भाव से कन्धे उचकाये।

“मेरे काम की क्या पोजीशन है?”

“काम!” — कृष्णामूर्ति की भवें उठीं।

“अरे, भई, डालर की... डालर की क्या पोजीशन है?”

“उस्ताद जी, सॉरी के साथ बोलता हूं, तुम्हारा काम अभी नहीं हो सकता।”

“क्या!”

“कल सुबह होगा डेफीनिट कर के। सुबह नौ बजे के बाद किसी भी टाइम आना इधर।”

मायाराम ने घूर कर उसे देखा।

“उस्ताद जी, इत्तफाक है, महज इत्तफाक है कि इन्तजाम न हो सका, औना पौना हुआ पर मुक्कमल इन्तजाम न हो सका।”

“जब कि डालर के लिहाज से मामूली रकम थी।”

“इत्तफाक... इत्तफाक बोला न! लेकिन कल सुबह हर हाल में...”

“नहीं चाहिये।” — मायाराम एकाएक उठ खड़ा हुआ।

“क्या! क्या नहीं चाहिये?”

“डालर!”

“लेकिन...”

“अब छोड़ो वो किस्सा। जिस खीर में मक्खी पड़ जाये, उस से किनारा करना ही ठीक होता है।”

“अरे, उस्ताद जी, कोई मक्खी नहीं पड़ी। मैं बाई लार्ड मुरुगन बोलता हूं कल तुम्हारा काम जरूर होगा।”

“मैं कल तक इन्तजार नहीं कर सकता। मैं आज ही रात तुम्हारे शहर से किनारा करना चाहता हूं।”

“लेकिन... ”

“अब लेकिन वेकिन छोड़ो और मेरी दूसरी बात सुनो।”

“दूसरी बात!”

“सुनो और जवाब दो।”

“किस बात का?”

“बाहर दो लाशें पड़ी हैं, उन की सम्भाल कर सकोगे?”

“करनी ही पड़ेगी। जब वो मेरी प्रिमिसिज़ में हैं...”

“क्या करोगे?”

“वो यहां से बरामद नहीं होंगी। जब भी बरामद होंगी, यहां से दस मील के फासले पर से बरामद होंगी।”

“बढ़िया।”





अगले दिन के अखबार में उस वैन की तसवीर छपी जिसमें मायाराम भागा था। पुलिस को वह वैन व्यास के पुल के पास लावारिस खड़ी मिली थी। वैन की पुलिस लेबोरेटरी में हुई जांच पड़ताल से कई बातें प्रकट हुईं। जैसे:

वैन से किसी प्रकार के उंगलियों के निशान बरामद नहीं हुए थे। लगता था कि किसी ने वैन को छोड़ने से पहले उसे बड़ी सावधानी से झाड़ पोंछ दिया था।

वैन के पहियों पर, अगले पहियों पर ज्यादा और पिछलों पर कम, खून और खून में चिपके बालों के स्पष्ट अंश मिले थे। उनके लेबोरेटरी परीक्षण से जाहिर हुआ था कि खासा के पास बरामद हुई कुचली हुई लाशों के खून का ग्रुप वैन के टायरों पर से बरामद खून के सैम्पलों से मिलता था। पुलिस विशेषज्ञों ने बेहिचक घोषणा की थी कि उसी वैन के नीचे आकर वे दोनों आदमी कुचले गए थे।

अब फिएट कार की दुर्घटना में, सड़क पर कुचली पड़ी मिली दो लाशों में और बैंक डकैती में तारतम्य स्थापित होने लगा था। यह संकेत दिया जाने लगा था कि वे तीनों लाशें उन पांच व्यक्तियों में से तीन की थीं जो डकैती में शामिल थे। बाकी दो का पता नहीं था लेकिन शायद उन्हीं दोनों ने अपने तीन साथियों को मारा था।

अपराधियों की उंगलियों के निशानों की शिनाख्त अभी नहीं हो पाई थी लेकिन पुलिस के एक प्रवक्ता ने कहा था कि वह रिपोर्ट किसी भी क्षण अपेक्षित थी।

विमल जानता था कि उसकी और मायाराम की शिनाख्त तो देर सबेर हो जाना निश्चित था क्योंकि दोनों सजायाफ्ता मुजरिम थे इसलिए पुलिस के पास उनका पूरा रिकॉर्ड था। कर्मचंद, गुरांदित्ता और लाभसिंह ‘मटर पनीर’ में से कोई जेल गया था या नहीं, यह उसे मालूम नहीं था।

अखबार में छपी खबरों से इतना साफ जाहिर हो रहा था कि पुलिस उस केस की तफतीश में भारी दक्षता और तत्परता का परिचय दे रही थी और बड़ी तेजी से आगे बढ़ रही थी।

उस रोज विमल ने नगर के उन तमाम ठिकानों पर लाभसिंह के बारे में पूछताछ की जहां उसने मायाराम और गरेवाल के बारे में पूछा था। उसे मालूम हुआ कि लाभसिंह को उसके उपनाम मटर पनीर की वजह से बहुत दुनिया जानती थी। वह लाभसिंह के बारे में पूछता था तो आगे से अक्सर सवाल पूछा जाता था — ‘कौन लाभसिंह? मटर पनीर?’

लाभसिंह ‘मटर पनीर’ का नाम तो बहुत लोगों ने सुना हुआ था लेकिन ऐसा उसे बड़ी मुश्किल से एक आदमी मिला जो उसके बारे में कोई लाभदायक जानकारी रखता था। उस आदमी से उसे मालूम हुआ कि लाभसिंह जालंधर का रहने वाला था, विवाहित, बालबच्चेदार आदमी था और जालंधर में भैरों बाजार की एक गली में उसका अपना मकान था। उसने लाभसिंह का पता नोट कर लिया और उसी रोज लाला हवेलीराम से छुट्टी ले कर बस पर सवार होकर जालंधर के लिए रवाना हो गया।

बस व्यास के पुल पर से गुजरी तो उसे फिर मायाराम का खयाल आया। अगर उसने वैन वहां छोड़ी थी तो मुमकिन था, वह उधर ही भागा हो। लेकिन उस दिशा में तो सारा हिंदुस्तान पड़ा था। क्या पता कहां भागा था?

जालंधर में भैरों बाजार पहुंच कर उसने मामूली पूछताछ से ही लाभसिंह का घर तलाश कर लिया। वह एक निहायत पुराना घर था। घर के सामने गली में बच्चों की चिल्ल पों मची हुई थी। उसने दरवाजा खटखटाया तो बच्चों का शोर एक क्षण को रुक गया।

“ओए, स्वीटी” — एक बच्चा फुसफुसाता हुआ बोला — “तुहाडे घर कोई आया ई।”

स्वीटी के नाम से पुकारा जाने वाला बच्चा एक लगभग दस साल का सिख था। उसने एक उड़ती-सी निगाह विमल पर डाली और फिर गला फाड़ कर चिल्लाया — “बीबी, कोई आया ई।” — फिर यह सोच कर कि उसने अपना कर्तव्य निभा दिया था, उसने विमल की ओर पीठ फेर ली और फिर खेलने में जुट गया।

ऊपर की मंजिल की खिड़की में से सिर निकाल कर किसी ने नीचे झांका, फिर थोड़ी देर बाद दरवाजा खुला और एक खुले खुले हाथ पांव वाली, विशालकाय औरत दरवाजे पर प्रकट हुई।

विमल ने हाथ जोड़ कर नमस्ते की और पंजाबी में बोला — “मेरा नाम विमल है। मैं लाभसिंह का दोस्त हूं।”

महिला के चेहरे पर एक उलझनपूर्ण मुस्कराहट उभरी।

“वो तो घर नहीं!” — वह बोली।

“मुझे मालूम है। मैं आपसे बात करने आया हूं।”

“काका भी घर नहीं है।” — वह अनिश्चयपूर्ण स्वर में बोली — “वह मेरा बड़ा लड़का है, वह...”

“वह अगर घर होता भी तो भी मैंने आपसे ही बात करनी थी।”

“ओह! आओ फेर, लंग आओ।”

विमल भीतर दाखिल हुआ। भीतर से मकान साफ सुथरा था और बाहर के मुकाबले में अच्छी हालत में था। महिला उसे एक बैठक में ले आयी। उसके संकेत पर विमल एक बेंत की कुर्सी पर बैठ गया।

“कोई चा पानी?” — वह बोली।

“नहीं। जरूरत नहीं। आप जरा बैठिए।”

वह एक मूड़ा खींच कर उस पर बैठ गयी।

“आप लाभसिंह की धर्मपत्नी हैं न?” — विमल ने पूछा।

महिला ने सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाया।

“मुझे अफसोस है, मैं आपके लिए बहुत बुरी खबर ले कर आया हूं।” — विमल धीरे से बोला।

“लाभसिंह मर गया?”

वह हैरानी से उसका मुंह देखने लगा। उसके चेहरे पर अजीब-से, न समझ में आने वाले भाव थे, उसकी आंखें खाली खाली लग रही थीं और ऐसा मालूम हो रहा था जैसे वह विमल के आर-पार देख रही हो।

“हैरान होने की कोई बात नहीं है।” — वह धीरे से बोली — “बाइस साल हो गए हैं मेरी शादी को। जब से मुझे पता लगा है कि मेरे सरदारजी का रोजी रोटी का क्या जरिया है, तभी से मैं हर घड़ी कोई ऐसी ही बुरी खबर सुनने के लिए तैयार बैठी रहती हूं। वह जब भी किसी काम के लिए जाता था, मुझे यह नामुराद खयाल सताने लगता था कि इस बार वह वापिस नहीं लौटेगा। कभी तो यह बात सही होनी ही थी।” — उसने एक गहरी सांस ली — “बुरे कामों के बुरे नतीजे, भ्राजी! कभी तो यह घड़ी आनी ही थी। रुडजाना मेरे बच्चों को अनाथ कर गया।”

उसकी आंखों से दो मोटे आंसू टपके और उसकी गोद में एक दूसरे के ऊपर रखे हाथों पर पड़े।

विमल ने बेचैनी से पहलू बदला।

महिला ने दुपट्टे के कोने से आंसू पोंछे तो पहले से ज्यादा आंसू उबल पड़े। कुछ देर बाद बड़ी मेहनत से उसने स्वयं पर काबू किया और रुंधे स्वर में पूछा — “क्या हुआ था?”

“एक दोस्त की दगाबाजी का शिकार हो गया था। आप अखबार पढ़ती हैं?”

“हां।”

“तो फिर अमृतसर के भारत बैंक पर पड़ी डकैती की खबर तो आपने पढ़ी ही होगी?”

“उसमें लाभसिंह भी शामिल था?”

“हां।”

“और तुम भी?”

विमल एक क्षण हिचकिचाया और फिर बोला — “हां।”

“लेकिन अखबार में मेरे सरदारजी की मौत की खबर तो नहीं छपी!”

“छपी है लेकिन पुलिस अभी लाश की शिनाख्त नहीं कर पाई है। खासा के पास जो दो कुचली हुई लाशें पायी गयी थीं, उनमें से एक लाभसिंह की थी और दूसरी कर्मचंद की। आप कर्मचंद को जानती हैं?”

महिला ने इनकार में सिर हिलाया।

“जिस आदमी ने धोखे से लाभसिंह को गाड़ी के नीचे कुचला था, उसका नाम मायाराम बावा है। वह अपने आप को लाभसिंह का बचपन का दोस्त बताता था। आप उसे जानती हैं?”

“जानती हूं। बावे ने ऐसा क्यों किया?”

“क्योंकि वह दौलत के लालच में अंधा हो गया था। क्योंकि उसके मन में बेईमानी आ गयी थी। क्योंकि डकैती से हासिल हुआ सारा माल वह खुद हड़प जाना चाहता था।”

“कितना?”

“पैंसठ लाख रुपया। आपने अखबार में पढ़ा होगा!”

“तुम बावे को क्यों तलाश कर रहे हो?”

“मैं उसे उसकी धोखाधड़ी का मजा चखाना चाहता हूं। मैं यह दौलत उससे वापिस हासिल करना चाहता हूं।”

“पर तुम उसे जानते नहीं?”

“हां। लेकिन आप जानती हैं — मुझे उम्मीद थी कि आप जानती होंगी — इसीलिए मैं आपके पास आया हूं।”

“अगर तुम्हारा काम किसी और माध्यम से हो गया होता तो तुम मेरे पास नहीं आते? मुझे खबर भी नहीं लगती कि सरदारजी के साथ क्या गुजरी?”

“आप ठीक कह रही हैं लेकिन इसमें मेरा कोई कसूर नहीं। लाभसिंह मेरा दोस्त नहीं था। पिछले चंद दिनों से पहले मैंने उसकी सूरत भी नहीं देखी थी। मैं तो यह तक नहीं जानता था कि वह यहां रहता था! मैं उसके लिये कोई जिम्मेदारी कैसे महसूस करता!”

“माल में उनका हिस्सा था?”

“हां।”

“कितना?”

“लगभग साढ़े ग्यारह लाख रुपए।”

“यह रुपया मुझे मिलना चाहिए।”

विमल के होंठों पर एक फीकी मुस्कराहट आयी।

“बहनजी” — वह बोला — “क्या चोरी का माल भी विरासत में हासिल होता है?”

वह चुप रही।

“और फिर माल रखा कहां है! उसे तो मायाराम ले उड़ा!”

“लेकिन तुम उससे माल वापिस हासिल करने की कोशिश तो कर रहे हो!”

“कर रहा हूं। क्यों कर रहा हूं, यह बात शायद आप न समझ पाएं। लेकिन इतना समझ लीजिए कि यह काम मैं दौलत की खातिर नहीं कर रहा। इसलिए मुझसे यह उम्मीद करना बेकार है कि बाद में मैं मर चुके साथियों के हिस्से उनके घर घर पहुंचा कर आऊंगा।”

“मेरी मदद के बिना तुम बावे तक नहीं पहुंच सकते।”

“आप उस मदद की कीमत के तौर पर लाभसिंह का हिस्सा चाहती हैं?”

“मेरे पांच बच्चे हैं।” — वह धीमे स्वर में बोली — “घर का कर्ता रहा नहीं और पीछे छोड़ कर कुछ गया नहीं। कमाई का कोई जरिया नहीं। मैं क्या करूंगी?”

विमल का दिल भर आया। कौल के फ्लैट से उसने जो नोटों का पुलंदा उठाया था, वह अभी भी उसकी जेब में था। उसने वह पुलंदा निकाल कर महिला की गोद में डाल दिया।

“ये चौबीस हज़ार रुपए हैं।” — वह बोला — “इनसे काम चलाइए। अगर मैं मायाराम से दौलत वापिस हासिल कर सका तो उसमें से भी आपको कुछ देने की कोशिश करूंगा लेकिन उसकी आस में मत रहिएगा।”

महिला ने नोटों को उपेक्षित-सा अपनी गोद में पड़ा रहने दिया।

“ये रुपए तुम अपने पल्ले से दे रहे हो?”

“मेरे पल्ले क्या रखा है!” — विमल उदास स्वर में बोला — “मैं तो बहुत गरीब आदमी हूं!”

“तो...”

“छोड़िये। आम खाने से मतलब रखिए। पेड़ मत गिनिये।”

वह चुप रही।

“अब जरा मतलब की बात पर आइए।”

“बावा आजकल कहां रह रहा है, मुझे नहीं मालूम।”

“फिर क्या फायदा हुआ!” — वह निराश स्वर में बोला।

“लेकिन मैं एक दो ऐसे लोगों को जानती हूं जो तुम्हें उसका पता बता सकते हैं।” — वह जल्दी से बोली। उसने गोद में पड़े नोटों के पुलंदे को मुट्ठी में भींच लिया।

“अच्छा” — विमल के स्वर में उत्साह का सर्वथा अभाव था — “उन्हीं के बारे में बताइए।”

“एक तो जालंधर में ही है।” — उसने बताया — “मामनासर के पास उसकी कपड़े की दुकान है — बाजवा क्लॉथ हाउस। उसका मालिक अतरसिंह बाजवा मायाराम का अच्छा दोस्त है। वह तुम्हें मायाराम का अता पता जरूर बता देगा।”

“और?”

“एक नीलम नाम की लड़की है। चंडीगढ़ में रहती है। पता है, 2244, सैक्टर बाइस सी, चंडीगढ़।”

“उसका मायाराम से क्या रिश्ता है?”

“कोई तीन साल पहले मायाराम उसे कहीं से भगा कर लाया था। यही रिश्ता है।”

“मायाराम इस लड़की के साथ रहता है?”

“अब नहीं रहता। पिछले साल से उसने लड़की के साथ रहना छोड़ दिया है लेकिन मुझे उम्मीद है कि यह लड़की उसका मौजूदा पता जरूर जानती होगी।”

“अच्छी बात है।” — वह बोला और उठ खड़ा हुआ। उसे स्थिति कोई भारी आशाजनक नहीं लग रही थी। गोल मोल जानकारी ही हासिल हो पाई थी जो पता नहीं किसी काम आने वाली भी थी या नहीं।

महिला सिर झुकाए बैठी रही।

“मैं जा रहा हूं।” — वह बोला — “मेरी आपसे एक प्रार्थना है। आप मेरे बारे में किसी से जिक्र मत कीजिएगा।”

“लेकिन मुझे सरदारजी की लाश की शिनाख्त करने के लिए अमृतसर जाना होगा, वरना मुझे लाश कैसे मिलेगी? वे लोग मुझसे पूछेंगे नहीं कि मुझे उनकी मौत की खबर कैसे लगी?”

“कह देना, आपने अखबार में ऐसी लाश की बरामदी की खबर पढ़ी थी जिसकी कि शिनाख्त नहीं हो पाई थी। आपके पति भी अमृतसर गए हुए थे और लौटे नहीं थे। आपका आशंकित मन आपको वहां ले आया था।”

“अच्छा!”

“और उन्हें यह मत बताइएगा कि आपको मालूम था कि लाभसिंह रोजी रोटी कमाने के लिए क्या करता था। नहीं तो वे आपको बहुत परेशान करेंगे।”

“अच्छा!”

“मैं चला। सत श्री अकाल।”

“सत श्री अकाल।”

वह घर से बाहर निकल गया।

वह वापिस भैरों बाजार में आया और पैदल ही मामनासर की ओर चल दिया। वह उसका देखा भाला इलाका था। मामनासर वहां से ज्यादा दूर नहीं था।

बाजवा क्लॉथ हाउस एक कपड़े की आधुनिक दुकान थी जिसके लम्बे काउंटरों के पीछे दो तीन सेल्समैन मौजूद थे। उसने एक अपेक्षाकृत कम व्यस्त सेल्समैन से अतरसिंह बाजवा के बारे में पूछा।

सेल्समैन ने कैश काउंटर के पिंजरे में बैठे एक अधेड़ आयु के सिख की ओर संकेत कर दिया।

विमल कैश काउंटर के पास पहुंचा और उस सरदार से सम्बोधित हुआ — “बाजवा साहब?”

उसने सिर उठा कर देखा और बोला — “जी हां। फरमाइए!”

“मेरा नाम विमल है। आपसे एक मिनट बात करना चाहता हूं।”

“किस बारे में?”

“मायाराम बावा के बारे में।”

“भीतर आओ।”

विमल काउंटर का पल्ला उठा कर भीतर दाखिल हो गया।

बाजवा के संकेत पर वह उसकी बगल में एक स्टूल पर बैठ गया।

“बावे के बारे में क्या बात करना चाहते हैं आप?”

“आप नीलम को जानते हैं?”

बाजवा ने संदिग्ध भाव से उसकी ओर देखा और सहमतिसूचक ढंग से सिर हिलाया।

“मैं उसका भाई हूं।”

“ओह!” — बाजवा ने नई दिलचस्पी से उसकी ओर देखा।

“मायाराम उसे छोड़ कर चला गया है जो कि लड़की के साथ बहुत ज्यादती है। मैं उसे तलाश कर रहा हूं लेकिन मैं उसका पता नहीं जानता। मुझे पता लगा है कि मायाराम का पता आपसे हासिल हो सकता है।”

“तुम्हें मेरे बारे में किसने बताया?”

“लाभसिंह ने।”

“ ‘मटर पनीर’ ने?”

“हां।”

“तुम उसे जानते हो?”

“मैं नहीं, नीलम जानती है। वह हमें चंडीगढ़ में मिला था।”

“हूं।” — बाजवा बोला। वह कई क्षण विचारपूर्ण मुद्रा बनाए चुपचाप बैठा रहा।

“मैं तो मायाराम का पता जानता नहीं!” — अंत में वह बोला।

“मैं आपके पास बड़ी उम्मीद ले कर आया था।” — विमल दीन हीन स्वर में बोला।

“मुझे अफसोस है कि मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता।”

“आप किसी ऐसे आदमी को जानते हैं जिसे मायाराम का पता मालूम हो?”

“मैं नहीं जानता।”

“ओह!”

“आप अगर उसके लिए कोई संदेशा छोड़ना चाहते हैं तो मुझे बता दीजिए। अगर मेरा कभी उससे संपर्क हुआ तो मैं उसे खबर कर दूंगा।”

“नहीं। संदेशा कोई नहीं। मेरा उससे जाती तौर पर मिलना जरूरी है।”

“फिर तो सॉरी।”

विमल ने उसका धन्यवाद किया, अभिवादन किया और वहां से विदा हो गया।

उसके जाते ही बाजवा ने फोन उठाया और करनाल के एक नम्बर पर अमृत लाल के नाम एक पीपी ट्रंककाल बुक कर दी।

दस मिनट बाद उसका इच्छित व्यक्ति से संपर्क स्थापित हो गया।

“अमृत लाल, मैं बाजवा बोल रहा हूं।” — बाजवा बोला — “मायाराम बावे के लिए एक संदेशा है।”

“बोलो, जी।” — दूसरी ओर से आवाज आयी।

“उसे कह देना कि कोई विमल नाम का आदमी उसका पता पूछ रहा था। वह अपने आपको चंडीगढ़ वाली नीलम का भाई बता रहा था।”

“कह दूंगा। और कुछ?”

“बस।” — बाजवा बोला और उसने सम्बन्धविच्छेद कर दिया।