9 मई : शनिवार
सुबह सात बजे वैगन-आर शिवाजी चौक में ट्रस्ट के ऑफ़िस के सामने खड़ी उस वाॅचमैन को मिली जो तब सर्विस स्टाफ़ की आमद के लिए ट्रस्ट का मेन भीतर एक निगाह पड़ते ही उसके होश उड़ गए।
डोर खोलता था। उसने वैगन-आर को पहचाना तो उत्सुकतावश भीतर झांका।
दोनों सीटों के बीच एक-दूसरे में गड्ड मड्ड तीन अचेत शरीर यूँ पड़े थे कि उनकी सूरतें देखना मुहाल था। उसकी समझ में यही आया कि तीनों मरे पड़े थे। उससे अपेक्षित था कि वो तत्काल पुलिस को ख़बर करता लेकिन उसने अहसान कुर्ला का मोबाइल बजाया।
गोली की रफ्तार से अहसान कुर्ला और अनिल विनायक आगे-पीछे ही वहाँ पहुँचे।
तब जो काम आतंकित वाॅचमैन को करना नहीं सूझा था, वो उन दोनों को आते ही सूझा।
वैगन-आर की सैन्ट्रल लाकिंग ऑन नहीं थी। उसके सब दरवाज़े बाहर से ही खोले जा चुके थे और उसकी चाबी इग्नीशन में मौजूद थी।
भीतर अबरार बोगस, हरीश कोली और हसन टकला ही थे। हसन टकला के अधिकार में एक्सट्रा मैगजींस के साथ वो गन भी न पाई गई जो बतौर गनर पिछली रात उसे सौंपी गई थी।
वैबले स्कॉट पिस्टल, एकस्ट्रा मैगजींस नजरअन्दाज भी की जातीं तो, कीमत तीन लाख।
यानी पिछली रात का टोटल नुकसान तिरेपन लाख।
गाड़ी खोलकर उन तीनों का मुआयना करने की बारी आई तो सबसे पहले अबरार बोगस की पीठ पर – वो तीनों में सबसे ऊपर था – आलपिन से टंका एक पर्चा दिखाई दिया जिस पर मोटे मार्कर से दर्ज था :
एक और तोहफा
पत्थरबाज़ों की तरफ़ से
पत्थरबाज़ों की तरफ़ से
“देखा!” – अनिल विनायक बोला – “मैं नहीं कहता था . . .”
“चुप कर!” – अहसान कुर्ला डपट कर बोला – “पहले बड़ा काम सामने है। देखने दे, मर गए कि ज़िन्दा हैं!”
तीनों बेहोश पाए गए लेकिन मुआयने के दौरान उन्हें हिलाया-डुलाया गया तो कोई मुनमुनाने लगा, कोई कराहने लगा।
तत्काल उन्हें हस्पताल भिजवाए जाने का इन्तज़ाम किया गया।
उनके साथ क्या बीती थी, ये बताने की हालत में फिलहाल कोई नहीं था। लेकिन कैसे बीती थी, इसका अन्दाज़ा ख़ुद कुबेर पुजारी के दखल की वजह से आधी रात को ही हो चुका था।
आधी रात को पुजारी के पास हसन टकले की काल आई थी कि आॅन रोड एक्सीडेंट हो गया था और एक्सीडेंट में फंसी दोनों पार्टियों को गश्ती पुलिस खार वैस्ट थाने ले जा रही थी। बॉस वहाँ पहुँचा था तो मालूम पड़ा था कि उस थाने में न कुलकर्णी नाम का कोई इन्सपेक्टर था और न उनकी कोई गश्ती गाड़ी रात की उस घड़ी फ़ील्ड में थी। पुजारी तभी समझ गया था कि क्लैक्शन के लिए निकले उसके आदमी यूँ किसी बड़े धोखे का शिकार हो गए थे कि गनर भी किसी काम नहीं आया था। तब अहसान कुर्ला और अनिल विनायक को तमाम ज़िम्मेदारी सौंप कर वो घर चला आया था। वो दोनों और चार प्यादों के साथ मिलकर लोखंडवाला और खार के बीच की सड़कों पर सुबह चार बजे तक भटकते रहे थे लेकिन अपनी क्लैक्शन टीम का कोई सुराग नहीं पा सके थे। फिर इस आख़िरी उम्मीद के साथ लौटे कि बाज़रिया पुलिस कहीं से उनके भीषण अंजाम की – एक्सीडेंट की, ठुकाई की, कत्ल की – ख़बर आती तो आगे कोई हिल-डुल होती।
ये तो कुबेर पुजारी को भी थाने से घर लौटने से पहले गारन्टी थी कि रोकड़ा पिछली बार की तरह फिर हाथ से निकल गया था।
अपने-अपने घर पहुँच कर दोनों मुश्किल से दो घन्टे सो पाए थे कि शिवाजी चौक से वाॅचमैन का बुलावा आ गया था।
हसन टकले के पुजारी बॉस को खार के करीब चौराहे पर एक्सीडेंट की बाबत और गश्ती पुलिस की बाबत फोन से इतना तो साफ हो गया था कि एक्सीडेंट जानबूझकर स्टेज किया गया था और गश्ती पुलिस फर्ज़ी थी और फर्ज़ी एक्सीडेंट करने वालों ने और फर्ज़ी पुलिस ने मिलकर उन्हें भरपूर ठोका था और वसूली का रोकड़ा छीना था।
वो हस्पताल से फ़ारिग हुए तो अनिल विनायक बोला – “आख़िर पत्थरबाज़ों का ही वार निकला . . .”
“बकवास न कर!” – अहसान चिढ़ कर बोला – “करनी है तो अभी न कर। मेरा ख़ून खौल रहा है। मेरे को अभी का अभी लोखण्डवाला कम्पलैक्स दोनों सेठों के पास पहुँचने का है।”
“क्यों?”
“पूछता है क्यों! अरे, वही मिस्ट्री फिर खड़ी है कि किसी को वसूली की एडवांस में ख़बर कैसे लगी! कैसे मालूम पड़ा वसूली किधर से होनी थी और आगे कहीं पहुँचने के लिए किधर से गुज़रनी थी! पिछली बार तो कोलाबा में ज्वेलर से क्लैक्शन के बाद उसकी गली के बाहर ही लुटेरे पड़ गए थे लेकिन इस बार तो ऐसा वसूली की जगह से कई किलोमीटर दूर हुआ था! कैसे लुटेरों को सब मालूम था? क्यों हमारे भीड़ू विवेकानन्द रोड का करैक्ट और बिजी रास्ता छोड़ कर उजाड़ साइड रोड्स पर भटक रहे थे?”
“उन तीनों में से कोई” – अनिल दबे स्वर से बोला – “होश में आएगा तो मालूम पड़ेगा।”
“क्या! क्या मालूम पड़ेगा? कि वारदात पत्थरबाज़ों ने की?”
“साफ तो लिख के छोड़ के गए!”
“क्यों छोड़ के गए? पहली बार ऐसा कुछ क्यों न किया?”
अनिल को तत्काल जवाब न सूझा।
“कह . . . कह, पहली बार की कामयाबी से दिलेरी आ गई!”
“जान तो यही पड़ता है!”
“और जो उमर सुलतान रिपोर्ट लाया?”
“वो रिपोर्ट अभी अधूरी है। तेरे सामने फैसला हुआ था कि सुलतान भाई को अभी एक हफ्ता और पीछे जाने का था।”
“लाहौल! कहाँ बातों में उलझा दिया! मैं बोला मेरे को फौरन लोखण्डवाला पहुँचने का। अभी क्या हमेरे को वाॅक करके जाने का?”
“मैं . . . कैब बुलाता हूँ।”
अनिल फोन करने लगा।
उस दौरान अहसान जैसे अंगारों पर लोटता रहा।
इस बार वैगन-आर के तीनों सवार बेहोश ही हस्पताल पहुँचाए गए थे इसलिए वहाँ मैडिको-लीगल केस बना था जिसके नतीजे के तौर पर वैगन-आर भी सबूत के तौर पर पुलिस ने ये कह कर अपने कब्ज़े में कर ली थी कि फोरेंसिक लैब में फिंगरप्रिंट्स वग़ैरह के लिए उसका मुकम्मल चैक अप होना ज़रूरी था।
पाँच मिनट में ‘कूल कैब’ वहाँ पहुँच गई।
वो बाहर को बढ़े तो वाॅचमैन उन्हें दरवाज़े पर मिला।
“साहब, मैं चाय लाया।” – वो अदब से बोला।
“तशरीफ में ले।” – अहसान नाहक भड़का।
बिना हुक्म हुए चाय लाया, इसके लिए तारीफ का तालिब वाॅचमैन डरकर दो कदम पीछे हट गया।
टैक्सी लोखंडवाला कम्पलैक्स पहुँची
आपसी फैसले से दोनों ने मुलाकात के लिए पहले हीरा करनानी को चुना।
फिल्म वितरक माधव मेहता की तरह कार डीलर करनानी भी दोनों से रूबरू वाकिफ़ नहीं था। पहले से भड़के हुए अहसान कुर्ला ने इस बात पर भी तिलमिला कर दिखाया कि उसे अपना परिचय देना पड़ रहा था।
करनानी ने अनिच्छा से दोनों को ड्राई ंगरूम में रिसीव किया।
“कैसे आए सुबह सवेरे?” – करनानी अपनी अप्रसन्नता छुपाता बोला – “तुम्हारा आदमी रात पैसा ले तो गया!”
“हाँ।” – अहसान भुनभुनाया – “पण पैसा ‘भाई’ तक न पहुँचा।”
“क्यों? क्या हुआ?”
“कल लोखण्डवाला से ही तुम्हेरे जैसे एक दूसरे सेठ से भी चन्दा क्लैक्ट किया हमेरे भीड़ू।”
“दूसरा सेठ कौन?”
“नाम माधव मेहता। फिल्मों का कारोबार। जानता है तुम?”
“हाँ, पास ही सूर्या अपार्टमेंट्स में रहता है।”
“वही।”
“तो उससे भी कल रात ही वसूली की?”
“वसूली नहीं, बाप, चन्दा! चन्दा! धरम कारज!”
“रात धरम ने गलत कारज किया, डबल चन्दा उगाहा, ठीक!”
“हाँ।”
“अभी प्रॉब्लम क्या है?”
“रोकड़ा लुट गया।”
“झूलेलाल! फिर?”
“फिर बोला, बाप! बोले तो सोमवार रात की वारदात की तुम्हेरे को ख़बर है?”
“हाँ, है तो सही!”
“कौन बोला?”
“साईं, ऐसा बोलने वाले दो ही तो सिरे हैं, तुम लोग न बोले तो सोचो कौन बोला!”
“कालसेकर! ज्वेलर!”
“हाँ।”
“उससे भी वाकिफ़ हो?”
“क्लबमेट है, शाम को जिमखाना में अक्सर मुलाकात होती है।”
“वो क्यों बोला? ख़ासतौर से तुम्हेरे से?”
“भई, क्लब के बार में बातों-बातों में बात निकल आती है। बाकी उससे पूछना। अभी बोलो, पिछली रात क्या हुआ? पिछली रात तो क्लैक्शन के लिए तीन जने थे!”
“बता, भई।” – अहसान अपने जोड़ीदार से बोला।
अनिल विनायक ने धीरज से पिछली रात का तमाम किस्सा बयान किया।
“कमाल है!” – करनानी बोला – “चोरों को मोर पड़ गए!”
“जुबान पर काबू रखने का, सेठ।” – अहसान गुस्से से बोला – “मैं बहुत बुरे मूड में है।”
“वो तो दिखाई दे रहा है, साईं, पर तेरे बुरे मूड का मेरे से क्या मतलब?”
“हो सकता है।”
“हो सकता है, बोला?”
“हाँ।”
“कैसे? समझा मेरे को।”
“कल रोकड़े की अदायगी की बाबत ख़बर इधर से लीक हुई।”
“क्या बात करता है! इधर से कैसे लीक होगी? ये क्या कोई पब्लिक प्लेस है जहाँ कोई भी आ-जा सकता है?”
“कल तुम्हेरे बुलाए कोई इधर आया हो सकता है। तुम्हेरी ग़ैरहाजिरी में कोई इधर आया हो सकता है।”
“मेरी ग़ैरहाजिरी में किसी का इधर आना मना है। कोई भूला-भटका आ जाए तो उसे गेट से ही चलता कर दिया जाता है, दरवाज़ा तक नहीं खोला जाता। दो टूक बोला जाता है जब मैं घर हो, तब आए।”
“ऐसा कौन बोलता है?”
“लेखू बोलता है।”
“वो कौन है।”
“मेरा पर्सनल सर्वेंट है।”
“बुलाओ उसे।”
“क्यों?”
“क्योंकि” – अहसान फिर भड़का – “मैं ऐसा बोला।”
करनानी तिलमिलाया, बड़ी मुश्किल से उसने ख़ुद पर ज़ब्त किया फिर सोफे की साइड टेबल पर पड़ी कार्डलैस कालबैल का बटन दबाया।
तत्काल लेखू वहाँ पहुँचा।
“ये है मेरा पर्सनल सर्वेंट।” – करनानी ने परिचय दिया – “लेखू! लेखूमल! ये पहले कोई चाय पानी लाए?”
“नहीं।” – अहसान सख़्ती से बोला।
“साईं, इतनी सुबह आए! कोई नाश्ता . . .”
“नहीं माँगता। . . . और तू . . . लेखू! इधर मेरी तरफ देख।”
जवाब में लेखू दो कदम बढ़ के अहसान के सामने जा खड़ा हुआ।
“कल इधर की, दिन भर की, मुकम्मल आवाजाही बोल!”
“क्या बोलूं, सा' ब?” – लेखू के चेहरे पर उलझन के भाव आए।
“येड़ा है?” – अहसान गुर्राया – “ऊपर का माला खाली है? कनटॉप पर एक देगा तो समझेगा?”
“लेखू!” – अपने वफादार नौकर की हिमायत में करनानी दखलअन्दाज हुआ – “कल कोई मुलाकाती इधर आया तो बोल।”
“सा' ब, आपकी ग़ैरहाजिरी में तो कोई नहीं आया था” – नौकर ने जवाब फिर भी अपने मालिक को ही दिया – “पर कल सुबह एक टेलीफोन मकैनिक लैंडलाइन ठीक करने आया था जो . . .”
“हाँ, याद आया। वो तो सुबह नौ बजे मेरे सामने ही आया था!”
“बस, वही आया था जो दस मिनट ठहरा था और फोन चैक करके चला गया था।”
“फोन खराब था?” – अनिल ने जोड़ीदार के मुकाबले में सरल स्वर में पूछा।
“ठीक था, जी। पर मकैनिक बोलता था ख़राब था, एक्सचेंज में कम्पलेंट दर्ज थी। कम्पलेंट का डॉकेट दिखाता था।”
“आजकल लैंडलाइन” – करनानी बोला – “लोगबाग कम ही यूज़ करते हैं, करते हैं तो उतावले होकर करते हैं। आगे लाइन बिजी मिले तो दूसरे के बिजी मिलते फोन की कम्पलेंट ख़ुद दर्ज करा देते हैं जबकि अक्सर बात इतनी-सी होती है कि रिसीवर क्रेडल पर ठीक नहीं रखा गया होता।”
“ओह!”
“कम्पलेंट दर्ज हो गई होती है इसलिए मकैनिक को तो आना पड़ता है न!”
“वाकिफ़ मकैनिक था?”
करनानी ने लेखू की ओर देखा।
“नहीं, सा' ब” – लेखू बोला – “पहली बार आया था।”
“फोन कहाँ लगा है?”
“यहीं है।” – लेखू ने सीटिंग एरिया से परे विशाल ड्राईंगरूम के एक कोने की तरफ इशारा किया।
“मकैनिक को” – अहसान बोला – “फोन के साथ अकेला छोड़ दिया गया होगा ताकि वो विघ्न-बाधा के बिना अपना काम कर पाता?”
“नहीं, सा' ब। सेठ जी तब ड्राईंगरूम में ही बैठे अख़बार पढ़ते थे।”
“उनकी तवज्जो अख़बार की तरफ होगी?”
“दोनों तरफ थी। फिर मैं भी तो मकैनिक के साथ था?”
“ओह!” – नाउम्मीद-सा अहसान ख़ामोश हो गया।
“हर टाइम?” – अनिल ने पूछा।
“हर टाइम तो नहीं!” – लेखू याद करता-सा बोला – “एक टाइम मैं मकैनिक के लिए किचन से पानी लेने गया था।”
“मकैनिक ने माँगा था?”
“सेठ जी ने हुक्म दिया था कि सुबह-सवेरे आए मकैनिक से मैं कोई चाय-पानी पूछूँ। मकैनिक ने चाय को हामी नहीं भरी थी लेकिन पानी माँगा था, जो मैंने उसे ला के दिया था।”
“तब तूने उसे क्या करते पाया था?”
“वो रिसीवर चैक कर रहा था।”
“पहले तेरी मौजूदगी में क्या किया था?”
“फोन का नीचे का ढक्कन खोला था, भीतर दो-तीन पेच कसे थे और ढक्कन वापिस फिट किया था।”
“ये सब करते तूने उसे देखा था?”
“हाँ, जी।”
“लेकिन जब वो रिसीवर चैक कर रहा था, तब तू उसके करीब नहीं था, पानी लेने किचन में गया हुआ था?”
“सेठ जी थे न!”
“आपकी निगाह” – अनिल करनानी की तरफ घूमा – “अख़बार पर थी या मकैनिक पर थी?”
“लेखू की ग़ैरहाजिरी में मकैनिक पर भी।” – करनानी बोला।
“क्यों?”
“अपने काम में एक्सपर्ट किसी को काम करते देखना मेरे को अच्छा लगता है।”
“क्या देखा?”
“माउथपीस खोलते, बन्द करते देखा, फिर इयरपीस खोलते देखा, और जब वो वापिस उसकी चूड़ी चढ़ा रहा था तो पानी लेकर लेखू आ गया था।”
“फिर?”
“फिर, बस। उसका काम ख़त्म।”
“उसके फ़ारिग होने के बाद” – अनिल नौकर से मुख़ातिब हुआ – “तूने फोन चैक किया था?”
“हाँ, जी।” – लेखू बोला – “उसके सामने चैक किया था। बढ़िया चल रहा था।”
“पहले भी बढ़िया चल रहा था?”
“सा' ब, मिनट-मिनट तो चैक नहीं किया था। हो सकता है, बीच में बिगड़ गया हो – या, जैसा सेठ जी ने बोला – रिसीवर क्रेडल से सरक गया हो।”
“डॉकेट साइन किया था?”
“डॉकेट!”
“जो तू कहता है मकैनिक ने आते ही तेरे को दिखाया था! कम्पलेंट डॉकेट! फोन ठीक हो जाए तो मकैनिक लोग जिस पर सबस्क्राइबर से साइन कराते हैं, और यूँ तसदीक करते हैं कि फोन ठीक हो गया था। साइन किया था?”
“न-हीं।”
“क्यों?”
“उसने मेरे को साइन करने काे बोला ही नहीं था!”
“भूल गया होगा!” – करनानी बोला।
“तो लौट के आता!” – अहसान भुनभुनाया।
“क्या पता आए! अभी तो दिन चढ़ा है! क्या पता आए!”
“फोन दिखा।” – अनिल एकाएक उठ खड़ा हुआ।
लेखू उसे विशाल ड्राईं गरूम के दूसरे सिरे पर लेकर गया जहाँ कि वाल कैबिनेट पर फोन रखा था।
अनिल ने बेस यूनिट की तरफ फौरी तवज्जो दिए बिना पहले रिसीवर क्रेडल पर से उठाया और माउथपीस खोलने की कोशिश की जोकि उससे न खुला क्योंकि उसे ख़बर नहीं थी कि माउथपीस के भीतर लाॅकिंग होती थी जिसे रिलीज़ करने का ख़ास तरीका होता था जिसकी जानकारी प्रशिक्षित टैक्नीशियंस को ही होती थी।
हार मानकर उसने इयरपीस पर ज़ोर आज़मायश की तो चूड़ी फौरन घूम गई। पूरी चूड़ियां घुमा कर उसने रिसीवर पर से इयर पीस अलग किया और उसे कैबिनेट पर एक तरफ रखा। फिर उसकी पैनी निगाह खुले रिसीवर पर वहाँ पड़ी जहाँ से उसने इयरपीस हटाया था।
भीतर मिनियेचर ट्रांसमिटर मौजूद था।
उसने अहसान को करीब बुलाया और ट्रांसमिटर दिखाया।
“मकैनिक बोगस था!” – अहसान बड़बड़ाया।
“ये भी कोई पूछने की बात है!” – अनिल बोला।
“एकीच काम से आया! ट्रांसमिटर फिट करने!”
“हाँ।”
“ताकि फोन पर बात हो तो सुनी जा सके!”
“ताकि सारे ड्राईंगरूम में क्या, सारे पैंथाउस में होती कोई भी बात सुनी जा सके।”
“ओह!”
“क्या बात है, साईं लोगो!” – करनानी ने उच्च स्वर में पूछा – “खुसर-पुसर क्यों होने लगी?”
“अभी बोलते हैं, बाप।” – अहसान का स्वर मेज़बान के लिए ऊंचा हुआ फिर जोड़ीदार से मुख़ातिब होते वक्त पहले की तरह दब गया – “सूर्या अपार्टमेंट्स जा और वहाँ की लैंडलाइन का हाल पता करके आ। पता करके आ कि क्या फर्ज़ी मकैनिक वहाँ भी पहुँचा था। मैं इधरीच ठहरता है। बरोबर?”
अनिल ने सहमति में सिर हिलाया।
“जल्दी लौटना। कूल कैब अभी भी नीचे ही है वेटिंग में।”
अनिल ने वक्त जाया न किया, तत्काल वो वहाँ से विदा हो गया।
अहसान वापिस करनानी के सामने आकर बैठा।
“क्या बात थी उधर?” – करनानी उत्सुक भाव से बोला – “फोन में फिर कोई प्रॉब्लम?”
“हाँ।” – अहसान संजीदगी से बोला।
“क्या?”
“अभी मेरा जोड़ीदार वापिस आके बोलता है।”
“किधर गया? किधर से वापिस आके बोलता है?”
“वो बोलेगा न, तब तक मेरी बात सुनो।”
“बोलो।”
“तुम्हेरे को सोमवार की वारदात की ख़बर है . . .”
“कालसेकर बोला न!”
“. . . इस वास्ते मेरी बात सुनो। सोमवार की लूट के बाद अगली सुबह मैं कालसेकर से मिला था और उससे लूट की बाबत पूछताछ की थी . . . बोले तो मशवरा किया था तो सोमवार रात की वारदात की उसने अनोखी थ्योरी पेश की थी। बोलता था रोकड़ा लूटने जैसी कोई वारदात हुई ही नहीं थी, जो दो भीड़ू कलैक्शन के लिए अाए थे, रोकड़ा कब्ज़े में देखा तो उनकी नीयत बद् हो गई, उन्होंने रोकड़ा ख़ुद हज़म कर लिया और ख़ुद ही एक-दूसरे को ठोका ताकि वो लूट की वारदात लगती!”
“झूलेलाल! इतनी दूर की सोच ली!”
“पिछली रात की वारदात की बाबत तुम इस लाइन पर कोई दावा खड़ा करना माँगता है?”
“तुम्हारे तीन आदमियों ने कलैक्शन का पचास लाख रुपया आपस में बांट लिया और लूट साबित करने के लिए ख़ुद आपस में एक-दूसरे को मार लगाई?”
“हाँ।”
“अरे, अभी तो तेरा साथी बोल के गया कि जो किया, पुलिस ने किया जो कि नकली थी! तेरा साथी अभी ख़ुद बोला कि कलैक्टर्स के लीडर ने – जो रात अकेला इधर घुसा था . . .”
“अबरार बोगस!”
“जो भी नाम था उसका। तेरा साथी बोलता था कि ‘पुलिस’ के सामने उसने तेरे से ऊपर के साईं से बात की थी और वो मामला संभालने के लिए आधी रात को थाने भी पहुँचा था।”
“बाप, या तो अबरार बोगस को वैसी काल के लिए मजबूर किया गया था या काल करने वाला अबरार बोगस था ही नहीं।”
“कोई पुलिस नहीं थी – असली क्या नकली क्या, कोई पुलिस नहीं थी, खाली कहानी की माल ख़ुद हज़म कर जाने के लिए?”
“तुम्हेरे को जमती है ये स्टोरी?”
“वो तीनों मर तो नहीं गए! यही तो बोला न, कि हस्पताल में हैं! अक्कल की बात ये होती, साईं, कि पहले उनसे सवाल करते और फिर मेरे से ये स्टोरी करते!”
“ये स्टोरी तुम्हेरे को मुमकिन जान पड़ती है?”
“जब कालसेकर ने ये स्टोरी की थी तो वो तुम्हें कबूल हो गई थी?”
“नहीं।”
“तो मेरे को कैसे कुबूल होगी?”
“चन्दे को लेकर कल जो भी ड्रिल हुई, वो बहुत खुफ़िया थी, किसी को उसकी कानोंकान ख़बर नहीं हो सकती थी, फिर भी हुई। कैसे हुई?”
“मेरे को क्या मालूम कैसे हुई! तुम्हारे मिस्टर बिग ने चन्दा माँगा, मैंने देना मंज़ूर किया और जैसे हुक्म हुआ, वैसे दिया। इतना कर चुकने के बाद मेरा कहीं कोई रोल नहीं था। आगे जो हुआ, वो तुम जानो।”
तभी अनिल विनायक लौट आया। दोनों की निगाह मिली तो अनिल ने चिन्तित भाव से सहमति में सिर हिलाया। अनिल उसके पहलू में बैठ गया तो अहसान फिर मेजबान की तरफ मुख़ातिब हुआ।
“कलैक्शन की बाबत ख़बर इधर से लीक हुई।”
“फेंकता है, साईं।”
अहसान ने जोड़ीदार को इशारा किया।
अनिल लाइन पर से फोन उठा कर वहाँ ले आया। उसने इयरपीस की चूड़ियां घुमाकर उसे रिसीवर से अलग किया और भीतर मौजूद ट्रांसमिटर निकाल कर करनानी को दिखाया।
“ये ट्रांसमिटर है” – वो बोला – “जो, अब साफ ज़ाहिर है कि, वो नकली टेलीफोन मकैनिक यहाँ फोन में लगा कर गया। जहाँ ये ट्रांसमिटर हो, वहाँ ऐसे ही एक रिसीवर के ज़रिए इसके इर्द-गिर्द आधा किलोमीटर तक की हर बात सुनी जा सकती है . . .”
“सुनी गई है।” – अहसान बोला।
“झूलेलाल!” – करनानी के मुँह से निकला – “इतना बड़ा फ़्राॅड!”
“माधव मेहता के साथ भी हुआ” – अनिल बोला – “उसके लैंडलाइन फोन में भी ऐसा ही ट्रांसमिटर फिट पाया गया था और वो उसी फर्ज़ी टेलीफोन मकैनिक का कारनामा था जो पहले इसी नापाक काम के लिए आपके यहाँ आया था।”
“यूँ दुश्मनों को” – अहसान बोला – “कल रोकड़े की – चन्दे के रोकड़े की – दो जगह से डिलीवरी की ख़बर लगी, उन्होंने हमारे कलैक्टर्स पर घात लगाई, शिवाजी चौक, चैम्बूर के रास्ते में उनको थाम कर रोकड़ा भी लूट लिया और तीनों कलैक्टर्स को बेतहाशा मार भी लगाई।”
“मार क्यों”
“बदला लेने के लिए।” – अनिल बोला – “कभी उन दुश्मनों को शिवाजी चौक पर बेतहाशा मार पड़ी थी, उसका बदला लेने के लिए।”
“इसका तो ये मतलब हुआ कि तुम लोगों को दुश्मन की ख़बर है, शिनाख़्त है!”
“अभी सिर्फ अन्दाज़ा है।” – अहसान जल्दी से बोला।
“आख़िर तो पता लगा ही लोगे! ये तो नहीं हो सकता न, कि मिस्टर बिग की आॅर्गेनाइजे़शन इतना भी न कर सके!”
“देखेंगे।”
“अभी मेरे को क्या हुक्म है?”
“कुबेर भाई तुम्हेरे से बात करना माँगता होयेंगा।”
“करें। जहाँ बोलेंगे, हाजि़र हो जाऊँगा।”
“माधव मेहता से भी।”
“दोनों इकट्ठे हाजिर हो जाएंगे।”
“मैं बोलेगा।” – अहसान उठ खड़ा हुआ – “फोन का प्लग उसकी सॉकेट में वापिस लगा लेना।”
दोनों वहाँ से रुख़सत हुए।
दो शक्तिशाली ट्रांसमिटर्स से साथ जो उनके किसी काम के नहीं थे क्योंकि वो नहीं जानते थे वो किस रिसीवर के साथ ट्यूंड थे और रिसीवर का मुकाम कहाँ था!
दो बजे के बाद कुबेर पुजारी शिवाजी चौक पहुँचा।
ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। उसने जिससे मिलना होता था, उसे वो तलब करता था लेकिन इस बार न सिर्फ वो ख़ुद पहुँचा था, बिना ख़बर किए पहुँचा था।
उसके साथ उससे एक कदम पीछे चलता उमर सुलतान था।
बॉस को आया देखकर अनिल विनायक और अहसान कुर्ला स्प्रिंग लगे गुड्डों की तरह उछलकर खड़े हुए। दोनों ने पुजारी का अभिवादन किया और मेज के पीछे से निकलकर मेज के सामने पहुँचे।
कुबेर पुजारी ख़ामोशी से एक एग्जीक्यूटिव चेयर पर बैठा, उसने उमर सुलतान को इकलौती विज़िटर्स चेयर पर बैठने का इशारा किया।
अनिल और अहसान के लिए ये पर्याप्त इशारा था कि उनकी कोई ख़ास ख़ातिर होने वाली थी।
“टेबल का ग्लास नया मालूम होता है!” – पुजारी सहज भाव से बोला।
“सर,” – अहसान अदब से बोला – “परसों फरियादी बन के एक दीवाना घुस आया, पद् मा तो कहती है नशे में भी था . . .”
“दिन चढ़ते ही?”
“अब क्या बोलें, सर! यहाँ हर तरह के लोग आते हैं . . .”
“मेरा सवाल शीशे की बाबत था।”
“उसी ने तोड़ा। जैसी मदद वो चाहता था, उसे समझाया कि वो हम नहीं कर सकते थे। बात को समझने की जगह भड़क गया, यहाँ पड़ा पीतल का फूलदान उठा कर टेबल पर दे मारा। शीशा चूर चूर हो गया। सवाल किया, ऐसा क्यों किया वो बोला मन की भड़ास निकाली।”
“फिर तुमने क्या किया?”
अहसान ने जवाब न दिया, उसने बेचैनी से पहलू बदला।
“फिर तुमने अपने मन की भड़ास निकाली! नो?”
“सर, वो वायलेंट हो सकता था इसलिए . . .”
“उसे मार-मार के अधमरा किया और यहाँ से बाहर फिंकवा दिया। राइट?”
“सर, मैंने बोला न, वो वायलेंट . . .”
“हो सकता था, बोला। हो नहीं गया था!”
“हो ही गया था, सर। फूलदान मार के शीशा तोड़ दिया। बोलता था फूलदान से मेरा मुँह तोड़ना माँगता था पण शीशा तोड़ कर सब्र किया। अनिल से पूछिए वो . . .”
“इस वक्त मैं किससे बात करता है?”
“सॉरी, सर।”
“दिन-दहाड़े, सरेराह चौक में पड़ा था। इतने बुरे हाल में कि उठके खड़ा नहीं हो सकता था। इतना मारना था?”
“सर, रात हमारे आदमियों को क्या कम मारा गया? अभी तक तीनों हस्पताल में हैं।”
“वो जानते हैं वो किस कारोबार में हैं! अपने हर अंजाम के लिए तैयार रहना भी जानते हैं। कभी मरते हैं, कभी मारते हैं। ऐसा ही है ये कारोबार। क्या!”
“हं-हाँ।”
“तुम्हारे आदमियों को फरियादी ने मारा था?”
“न-नहीं।”
“तो उसका हवाला किसलिए? फरियादी क्योंकर ज़िम्मेदार हुआ उनके बुरे अंजाम के लिए?”
अहसान ख़ामोश रहा, उसने बेचैनी से पहलू बदला।
“कुम्हार का गुस्सा गधे पर। कभी सुनी है ये मसल?”
“हाँ।”
“समझ में आती है?”
“हाँ।”
“यानी अपने आदमियों की धुनाई का गुस्सा फरियादी को धुन कर उतारा।”
“सर, वो बात नहीं . . .”
“वो बात नहीं तो अपने आदमियों की धुनाई का हवाला क्यों दिया?”
अहसान से जवाब देते न बना।
“जिन लोगों ने हमारे आदमियों को धुना, तुम उनकी खोज-ख़बर निकाल कर उन्हें हमारे आदमियों से ज़्यादा धुनकर आए होते तो कोई बात थी?”
“सर, वो अभी सुबह का तो वाकया है, सुबह ही तो हमें उसकी ख़बर लगी! वक्त मिलेगा तो वो भी करके दिखाएंगे . . . ”
“कुछ नहीं कर पाओगे। सरकारी अफ़सर हो गए हो, कुर्सी तोड़ने की आदत पड़ गई है, इसलिए कुछ कर दिखाना कहाँ मुमकिन रहा है तुम्हारे लिए?”
“सर, ऐसा नहीं है।”
“तो कैसा है? जानते हो, समझते हो या भूल गए कि दो बार हमारे आदमियों पर वार हुआ – ऐसा नफीस वार हुआ जिसका तसव्वुर मुहाल है। कल को ऐसा वार मेरे पर हो सकता है, मैं किसी बुरे अंजाम तक पहुँच सकता हूँ। मिस्टर बिग किसी बुरे अंजाम तक पहुँच सकते हैं।”
“वो भी?”
“क्या पता लगता है?”
अहसान ख़ामोश हो गया।
“बहरहाल बात उस फरियादी की हो रही थी जिसे तुमने अधमरा करके यहाँ से बाहर फिंकवाया। वो यहाँ, हमारे ट्रस्ट के ऑफ़िस के दरवाज़े के आगे मर गया होता – पुलिस को अपना बयान दर्ज कराके मर गया होता – तो फौजदारी भुगत लेते?”
“सर, इतना नहीं मा . . . ठोका था!”
“कैसे मालूम? तुम्हारे पास कोई पैमाना है नापने का कि कोई कितना ठुका था?”
अहसान से जवाब देते न बना। वो बार-बार थूक निगलने लगा।
“बात लम्बी चलेगी।” – पुजारी बोला – “अपने लिए बाहर से कुर्सी लेकर आओ।” – वो अनिल की ओर घूमा – “तुम भी।”
उस काम के लिए बॉस चाहता तो चपरासी को भी आदेश दे सकता था लेकिन, ज़ाहिर था कि, उसने जानबूझ कर ऐसा नहीं किया था। अपने मातहत पर अपनी नाखुशी ज़ाहिर करने का ये भी एक तरीका था।
दोनों कुर्सी उठा लाए लेकिन बैठने का हुक्म जानबूझ कर ग़ैरमामूली देरी के बाद हुआ।
“बैठो!” – आख़िर पुजारी बोला।
दोनों उमर सुलतान के बाजू में कुर्सी लगा कर बैठे।
“वो फरियादी” – पुजारी बोला – “जिसको ठोका! नाम मालूम?”
“सर, मालूम तो था” – खेदप्रकाश करता अहसान बोला – “लेकिन . . .”
“लोहकर” – अनिल विनायक दबे स्वर में बोला – “हनुमन्तराव लोहकर।”
“ओके, लोहकर। तुम्हारे से बेतहाशा मार खाने के बाद वो कूपर कम्पाउन्ड पहुँच गया। मालूम?”
अहसान चौंका, उसका सिर स्वयमेव इनकार में हिला।
“क-कैसे मालूम, सर?” – फिर अनायास उसके मुँह से निकला।
“कैब ड्राइवर को बोला कूपर कम्पाउन्ड जाने का। चपरासी ने उसे कैब में लादा था तो सुना था।”
“ओह! लेकिन, सर, वहाँ अब क्या रखा है!”
“कुछ रखा ही होगा जो उस बुरे हाल में घर या हस्पताल जाने की जगह कूपर कम्पाउन्ड जाने को तरजीह दी! क्यों गया वो वहाँ?”
“क्या बोलूँ, सर, मेरे को तो कोई वजह सूझती नहीं!”
“तुम्हारे को?” – उसने अनिल से पूछा।
अनिल एकाएक सवाल पूछे जाने से गड़बड़ाया, जल्दी से उसने इंकार में सिर हिलाया।
“मेरे को मुतवातर शिकायतें मिली हैं कि” – पुजारी नाखुश लहज़े से बोला – “यहाँ आने वाले फरियादियों से गलत, नाजायज़ व्यवहार होता है। फरियादी की कैसी भी हैसियत हो, चपरासी से लेकर ख़ुद तुम्हारे तक कोई उससे अदब से पेश नहीं आता। सबको समझाया जा चुका है फरियादियों की हमारे लिए क्या अहमियत है, कैसे हमने अपने, ट्रस्ट के, किसी ख़ास फायदे के लिए उनका इस्तेमाल करना है। किसी को डांट कर भगाया जाता है तो किसी को दुत्कार कर – लोहकर जैसे बद् नसीबों को जानवर की तरह मार लगा कर . . .”
“सर” – अहसान बोला – “ऐसा नहीं है . . .”
“थोबड़ा बन्द!” – पुजारी इतनी ज़ोर से गर्जा कि अहसान के जिस्म में सिर से पांव तक सिहरन दौड़ गई – “जब बोलने को बोला जाए, तब बोलने का। अभी मैं बात करता है। क्या!”
“जी, सर।”
“तुम्हें जवाब देने की जल्दी है तो मैं पूछता हूँ सवाल। जो मैंने अभी कहा, उसके बारे में क्या कहते हो? मैंने गलत कहा कि यहाँ फरियादियों से बद्सलूकी होती है! उनके साथ हकारत से पेश आया जाता है! यूँ ज़ाहिर किया जाता है जैसे कोई फरियादी न हो, धर्मशाला के लिए चंदा माँगने वाला हो! मुश्किल से ही कोई फरियादी यहाँ से राज़ी जाता है . . .”
“सर, इजाज़त ले के बोलता हूँ, गुस्ताखी की माफी माँग के अर्ज़ करता हूँ, आप ही का हुक्म है फरियादियों को डिसकरेज किया जाए।”
“तमाम के तमाम को?”
“तमाम को तो . . . नहीं।”
“फिर डिसकरेज कैसे करते हो? ऐसी बद्सलूकी से पेश आकर कि उसकी दोबारा यहाँ कदम रखने की हिम्मत न हो! किसी को ट्रस्ट के मौजूदा निजाम से शिकायत हो, वो अपनी शिकायत को जुबान पर लाए तो यूँ आपे से बाहर होकर दिखाते हो जैसे कोई दुश्मन सामने बैठा हो! फिर उसकी जुर्रत का अपने स्टाइल से उसको मजा चखाते हो!”
“न-नहीं।”
“नहीं?”
“सर, अब क्या बोलूं?”
“नहीं बोलने का। अभी ख़ामोश ही रहने का।” – वो उमर सुलतान से बोला – “रिसैप्शनिस्ट को बुला, चपरासी को बुला।”
ये काम बॉस घंटी बजाकर कर सकता था लेकिन सुलतान को हुक्म दिया।
सुलतान बाहर गया और वापिस लौटा।
रिसैप्शनिस्ट पद् मा और चपरासी झिझकते-सकुचाते वहाँ पहुँचे – कुबेर पुजारी से उनका वास्ता पहली बार जो पड़ रहा था!
“तुम्हारा नाम पद् मा है” – पुजारी बोला – “और तुम्हारा?”
“मम-मानक।” – चपरासी हकलाया।
“ठीक बोलो। साफ बोलो।”
“मानक।”
“मैं एक सवाल पूछूंगा जो तुम्हारे बारे में होगा लेकिन जवाब तुमने नहीं देना। जवाब पद् मा देगी, तुम जवाब सुनोगे और उसकी तसदीक करोगे या उससे इंकार करोगे। समझ गए?”
“जी . . . जी हाँ।”
“तुम्हारे साथ यही काम रिवर्स में होगा।” – वो पद् मा की तरफ घूमा – “तुम्हारी बाबत सवाल होगा, जवाब मानक देगा। समझ गईं तुम भी?”
“यस, सर।” – पद् मा बोली।
“लम्बी-लम्बी नहीं छोड़ने का। जो दुरुस्त है, उसकी हामी भरने का, जो दुरुस्त नहीं है, उसकी बाबत सफाइयां देने नहीं लग जाने का कि क्यों दुरुस्त नहीं है। ओके?”
“यस, सर।”
“कोई भी होशियारी दिखाने की कोशिश की तो इसी वक्त डिसमिस की जाओगी। कोई और बड़ी सज़ा भी मिल सकती है।”
“औ-और बड़ी सज़ा!” – पद् मा मुश्किल से बोल पाई।
“जिसका हमारा ये ओहदेदार” – उसने अहसान की तरफ इशारा किया – “स्पैशलिस्ट है।”
पद् मा और भयभीत दिखाई देने लगी।
अहसान ने बेचैनी से पहलू बदला, होंठों पर जुबान फेरी।
“कोई फरियादी यहाँ आता है” – पुजारी ने पद् मा से सवाल किया – “तो क्या मानक उसके साथ अदब से पेश आता है?”
भयभीत भाव से उसने इंकार में सिर हिलाया।
“मुंडी नहीं हिलाने का। मुँह से जवाब देने का।”
“न-नहीं।”
“वेटिंग एरिया में उसे कुर्सी पेश करता है?”
“नहीं।”
“कोई पानी-वानी पूछता है?”
“नहीं।”
“वो रुख़सत होता है तो उसके लिए दरवाज़ा खोलता है?”
“नहीं।”
पुजारी चपरासी की तरफ घूमा – “अब पद् मा की बाबत सवाल हैं लेकिन जवाब तेरे को देने का। बरोबर?”
चपरासी के तब तक होश उड़े हुए थे। मुंडी हिलाने पर उसने पद् मा को फटकार पड़ती देखी थी इसलिए बड़ी मुश्किल से उसने ‘हाँ’ मुँह से निकाली।
“फरियादी रिसैप्शन पर पहुँचता है तो पद् मा उसके साथ अदब से पेश आती है? फरियादी को ‘गुड मार्निंग, सर’ बोलती है? ‘हाउ मे आई हैल्प यू, सर’ बोलती है?”
“न-हीं?”
“फरियादी को फॉर्म देती है तो फॉर्म एक्सप्लेन करती है?”
“नहीं।”
“क्या करती है?”
जवाब देने से पहले उसने सहम कर पद् मा की तरफ देखा जो ख़ुद सहमी हुई थी।
“क्या करती है?” – पुजारी ने सख़्ती से अपना सवाल दोहराया।
“फॉर्म देती है और बोलती है इधर नहीं खड़ा होने का, उधर जाकर भरो।”
“कैसे बोलती है? अदब से?”
“नहीं। डांट कर। फटकार लगा कर।”
“फॉर्म में कोई गलती हो?”
“तो फरियादी की ख़ैर नहीं। उसकी गलती पर, नादानी पर बुरे से बुरा बोल बोलती है।”
“सुना तुमने?” – पुजारी पद् मा से बोला।
“सर, जब हमें” – पद् मा हिम्मत करके बोली – “रिज़वी साहब का हुक्म है कि अमूमन फरियादियों को डिसकरेज करना है तो . . .”
“डिसकरेज ऐसे करते हैं?”
“हमें हुक्म है” – चपरासी ने भी हिम्मत की – “कि फरियादियों को ज़्यादा भाव नहीं देने का। उनके साथ रुखाई से पेश आने का . . .”
“ऐसा हुक्म है?”
“हाँ, जी।”
“अहसान का या अनिल का?”
“अहसान भाई का।”
पुजारी ने अहसान की तरफ देखा।
“क्या कहते हो?” – फिर पूछा।
“सर” – अहसान फंसे कण्ठ से बोला – “कुछ कहने-सुनने में कमी-बेशी हुई लगती है!”
“क्यों होने दी? जो कहना था साफ क्यों न कहा? कमी-बेशी की गुंजायश क्यों छोड़ी?”
अहसान से जवाब देते न बना।
“बाहर जाओ।” – पुजारी ने रिसैप्शनिस्ट और चपरासी को हुक्म दिया।
फौरन दोनों वहाँ से हवा हुए।
“यहाँ का निजाम िबल्कुल ठीक नहीं चल रहा।” – पुजारी अब अहसान से मुख़ातिब था – “और इसको बिगाड़ने वाले तुम हो। मैंने बहुत नोटिस लिया है तुम्हारा। उसके बाद ही यहाँ आया हूँ। पत्थरबाज़ी की वारदात से ही ज़ाहिर हो गया था कि तुम्हारे बस का कुछ नहीं। क्यों हुई पत्थरबाज़ी की वारदात? क्योंकि करने वालों को तुम्हारी बद् मिज़ाजी का भरपूर मजा चखना पड़ा। उन्हें इतना ज़लील किया कि भड़क कर जो उन्हें अपने बस का लगा, वो उन्होंने किया। चार जनों ने अपने मन की भड़ास यहाँ ऑफ़िस पर पत्थर बरसा कर निकाली, पता नहीं तुम्हारे दुत्कारे हुए कितने और थे जो तौहीन का ग़म खाकर ख़ामोश बैठ गए। परसों की वारदात ही तुम्हारे चंगेज़ी मिज़ाज का काफी से ज़्यादा सबूत है।”
“सर, मैं क्या करता? वो शख़्स वायलेंट हो उठा था, मेरे पर हमला करने वाला था . . .”
“तोप से?”
“जी?”
“तोप थी उसके पास?”
अहसान के मुँह से बोल न फूटा।
“एक मामूली आदमी के हमले से तुम्हें खतरा था! जिसे तुमने रूई की तरह धुना तो अपने बचाव में जिससे उंगली न हिलाई गई, उससे तुम्हें खतरा था! कैसा खतरा था? तुम्हारा उतना बुरा हाल कर देता जितना तुमने उसका किया?”
“सर, गुस्ताखी माफ़, आप नाहक उसकी हिमायत कर रहे हैं . . .”
“वो शख़्स पहुँचते ही वायलेंट हो उठा था?”
“नहीं, सर, पहुँचते ही तो नहीं!”
“आया ही, भड़के मिज़ाज के साथ था?”
“न-नहीं।”
“तो बाद में क्यों भड़का?”
जवाब नदारद!
“नहीं सूझता जवाब! कहते नहीं बनता कि तुमने भड़काया। उसे इतना ज़लील किया कि वो अपना आपा खो बैठा लेकिन फिर भी उसने अपना गुस्सा शीशे पर उतारा, तुम्हारे पर न उतारा। फिर भी तुम्हारा दावा है कि वो तुम्हारे पर हमला करने वाला था, ऐसा हमला करने वाला था जिससे अपना बचाव करने के भी तुम नाकाबिल थे। तुम्हें अन्देशा था, बल्कि दहशत थी, कि उसका हमला तुम्हें मार ही डालता। हमले से खौफ़ खाए तुम्हारे जोड़ीदार के भी ऐसे हाथ-पांव फूल जाते कि वो तुम्हें बचा भी न पाता। ठीक?”
अहसान से जवाब देते न बना।
“भाईगिरी के जिस धंधे में हम हैं, उसके भी कुछ रूल होते हैं, कुछ पाबन्दियाँ होती हैं। अंधी ताकत हाथ में आ जाए तो अंधे की तरह ही इस्तेमाल नहीं की जाती। हाथ में हथौड़ा आ जाए तो जो सामने पड़ जाए वही कील! ऐसे मिज़ाज से काम करोगे तो कौन आएगा यहाँ? पहले फरियादियों की भीड़ होती थी, इतनी कि रूल बनाना पड़ा कि एक दिन में पाँच से ज़्यादा नहीं, अब अक्सर पाँच भी पूरे नहीं होते। आख़िर क्या होगा? सारे जने बैठकर उन्हीं लोगों का इन्तज़ार करोगे जिन्हें यहाँ से खुशामदीद की जगह फटकार हासिल होती थी। कोई नहीं आएगा। घर-घर बुलाने जाओगे तो भी नहीं आएगा। जिनकी आस ही टूट गई, वो भला क्यों आएँगे! नतीजतन ट्रस्ट के इस ऑफ़िस को जब ताला लगाने की नौबत आ जाएगी तो कौन ज़िम्मेदार होगा?”
अहसान ने बेचैनी से पहलू बदला।
“नहीं है जवाब तुम्हारे पास। मालूम मेरे को। ख़ैर, अब लूट की उन दो वारदातों पर आओ जो कल और सोमवार को हुईं । कैसे हुईंं? किसने अंजाम दिया?”
“सर, अनिल कहता है . . .”
“मैंने सवाल अनिल से किया?”
“सर, उन वारदातों के लिए पत्थरबाज़ ही ज़िम्मेदार जान पड़ते हैं।”
“पत्थरबाज़, यानी कि यहाँ से खता खाकर भड़के हुए फरियादी?”
“हाँ।”
“पत्थरबाज़ी करके, इस ऑफ़िस में तोड़-फोड़ मचा के उन्होंने अपने मन की भड़ास निकाल तो ली थी! फिर किसलिए भड़के हुए थे?”
“सर, वो चार ही तो नहीं थे! चार तो सामने आए थे जिन्होंने पत्थरबाज़ी का हौसला दिखाया था। उन जैसे और भी तो थे!”
“थे?”
“होंगे ही!”
“यहाँ सब कारोबार अंदाजों से चलता है?”
अहसान को फिर चुप हो जाना पड़ा।
“तुम क्या कहते हो?” – पुजारी अनिल विनायक की ओर घूमा – “इस बारे में तुम क्या कहते हो जिसका रौब तुम्हारे जोड़ीदार पर ग़ालिब हो भी चुका है?”
अनिल विनायक ने डरते-डरते अपनी थ्योरी बयान की।
“क्या कहने!” – वो ख़ामोश हुआ तो पुजारी व्यंग्यपूर्ण भाव से बोला – “पत्थरबाज़ों ने यूनियन बना ली! चार से चालीस हो गए, चालीस से चार सौ हो गए और सरपरस्ती के लिए किसी ताकतवर अन्डरवर्ल्ड डॉन के पास पहुँच गए! हाथी का मुकाबला करने लायक बनने के लिए चींटी ने दूसरे हाथी से मदद की अर्ज़ी लगाई ताकि उसमें – चींटी में – दुश्मन हाथी के मुकाबिल होने का हौसला और सलाहियात पैदा हो पातीं। ये है तुम्हारी थ्योरी की समरी। ठीक?”
अनिल ने फंसे कंठ से ‘हाँ’ उचरी।
“सब बंडल! बकवास! ऐसी कोई यूनियन नहीं, ऐसे कोई पत्थरबाज़ नहीं, उनका ऐसा कोई मिज़ाज-मंसूबा नहीं कि कल की और सोमवार की वारदातों को अंजाम देने का ख़याल करते। वो चार ही थे जो चार से चालीस क्या, पाँच भी नहीं हुए थे। उन चार जनों ने जो किया था, इसलिए किया था कि यहाँ से हासिल बद्सलूकी ने भड़काया था, न कि वो ख़ुद भड़के थे। वो वन टाइम वेंचर थी। यहाँ पत्थर बरसा कर उनका गुस्सा उतर जाता, बात ख़त्म हो जाती। लेकिन तुमने उनको, तुम्हारी जुबान में, ‘मजा चखा कर’ बात को बढ़ा दिया, इतना बढ़ा दिया कि पुलिस को दखलअंदाज़ होना पड़ा और उन्हें गिरफ़्तार करके थाने ले जाना पड़ा। कोई कम्पलेंट न हुई, कोई केस न बना, इसलिए उन्हें छोड़ देना पड़ा। इतने पर वो किस्सा ख़त्म था। आगे उनकी बाबत – लूट की दो वारदातों के बाद – अनिल ने जो थ्योरी गढ़ी और तुमने जिसकी हामी भरी, वो सब बेबुनियाद है, उमर ने ख़ुद इस बात की तसदीक की है। तुम्हारी राय पर पत्थरबाज़ी की वारदात से एक हफ्ता और पीछे जाकर भी तसदीक की है कि जैसी यूनियन का हौवा तुम लोगों ने खड़ा किया, उसका कोई वजूद नहीं, उन बिखरे हुए, नाउम्मीद फरियादियों ने कोई गंठजोड़ खड़ा न किया जो ताकत बताने और हमारा माल लूट लेने लायक हौसलामंद होता। अब फाइनल बात ये है कि अनिल की थ्योरी बंडल है और अब मुकम्मल तौर से खारिज है। कोई ऐतराज़?”
दोनों के सिर इंकार में हिले।
“गनीमत है” – पुजारी आगे बढ़ा – “अनिल की थ्योरी के हक में तुम दोनों ने उस पर्ची का हवाला न दिया जो वैगन-आर में हमारे पिटे हुए मोहरों पर नत्थी पाई गई थी और जो लूट के तमाम वाकये को पत्थरबाज़ों की वारदात बताती थी। वो पर्ची फ़्रॉड था, ब्लफ़ था जो ब्लेम पत्थरबाज़ों पर शिफ़्ट करने के लिए खेला गया था। अनिल की पत्थरबाज़ों वाली थ्योरी से कौन वाकिफ़ था?”
दोनों एक-दूसरे का मुँह देखने लगे।
“जवाब दो!” – पुजारी गुर्राया।
“हम दोनों के सिवा कोई नहीं।” – अहसान दबे स्वर में बोला।
“पक्की बात?”
“हाँ। पण बाद में उमर भाई भी . . .”
“बाद में। बाद में। मैं शुरुआती बात करता है।”
“स-सॉरी।”
“अभी बोलो, ये बात तुम दो जनों से बाहर कैसे गई?”
दोनों के पास जवाब नहीं था।
“मालूम करो।” – पुजारी सख़्ती से बोला – “मालूम करो किसी ने ये इतनी खुफ़िया बात, जो सिर्फ दो जनों के बीच थी, कैसे जानी और आगे कहाँ पहुँचाई! ये एक बड़ा काम होगा जो तुम करोगे क्योंकि इससे ये बात भी ज़ाहिर होगी कि कल और सोमवार की घात लगा कर हुई लूट के पीछे कौन लोग थे! आई बात समझ में? पड़ा कुछ मगज में?”
दोनों सम्वेत् स्वर में हाँ बोले।
“इस सिलसिले में अगर कूपर कम्पाउन्ड की तरफ तवज्जो दोगे तो जल्दी कुछ कर गुज़रोगे। और ख़बरदार जो कहा कि अब वहाँ क्या रखा है!”
दोनों ने बेचैनी से पहलू बदला।
“तरस आता है मुझे तुम्हारी अक्ल पर कि ये मुद्दा मेरे उठाने से पहले तुम लोगों को कूपर कम्पाउन्ड का ख़याल तक न आया। तुम्हारी जगह मैं होता तो सबसे पहले कूपर कम्पाउन्ड के बारे में ही सोचता, भले ही नतीजा ये निकलता कि वहाँ की शह से कुछ हुआ होना मुमकिन नहीं था। तुम्हारी तो एक ही तोता रटन्त है, वहाँ क्या रखा है! नहीं रखा। तसदीक की कि वहाँ कुछ नहीं रखा?”
“न-नहीं।”
“क्योंकि कूपर कम्पाउन्ड का ख़याल ही न आया। ठीक?”
“हाँ।”
“उस जगह को भूल गए जहाँ से बखिया के और उसके एम्पायर के खिलाफ जंग लड़ी गई थी! उस जगह को अहमियत न दी जहाँ से ‘कम्पनी’ का नामोनिशान हमेशा के लिए मिटा देने वाली सुनामी उठी थी! शर्म आनी चाहिए!”
कोई कुछ न बोला।
“अब जो मैं कहने जा रहा हूँ, उसकी तरफ ख़ास तवज्जो दो। या तो मेरे कहे मुताबिक कूपर कम्पाउन्ड की तरफ ख़ास तवज्जो दो या पत्थरबाज़ों के अलावा कोई दुश्मन सुझाओ जिसने दो बार हमारा रोकड़ा लूटने की जुर्रत की!”
“सर, आपकी हर बात दुरुस्त है लेकिन मेरी अभी भी यही अर्ज़ है कि कूपर कम्पाउन्ड में कुछ नहीं रखा। वहाँ की ताकत का धुरा पहले तुकाराम था जो मर गया, फिर सोहल था जो यकायक हमेशा के लिए मुम्बई छोड़ गया, बाकी अब वहाँ क्या रखा है?”
“जो चला जाए वो लौट तो सकता नहीं! ठीक?”
“आपका मतलब है सोहल लौट आया होगा!”
“नहीं, मेरा ये मतलब नहीं। मेरे पास ये बड़ा बोल बोलने की कोई बुनियाद नहीं कि सोहल लौट आया होगा क्योंकि अन्डरवर्ल्ड में ये बात पूरे ऐतबार और भरोसे से कही जाती है कि सोहल हमेशा के लिए मुम्बई छोड़ कर किसी नामालूम जगह चला गया था और उसके लौटने की न इधर कोई ख़बर है, न ज़ाती तौर पर मुझे उम्मीद है कि वो लौट आया होगा। ऐसे लौट आना होता, इतनी जल्दी लौट आना होता तो जाने की ही क्या ज़रूरत थी? ये ऐलान करके जाने की क्या ज़रूरत थी कि एक बार का गया वो कभी लौट कर नहीं आएगा?”
“वही तो!”
“लेकिन अब जब तुम्हें – अहसान, ख़ासतौर से तुम्हें – कूपर कम्पाउन्ड की तरफ तवज्जो देने का हुक्म है तो सोहल की सूँघ लगती हो तो लगाने में कोई हर्ज है?”
“न-हीं।”
“यूँ वहाँ सोहल की हाजिरी की नहीं तो ग़ैरहाजिरी की तो तसदीक होगी या वो भी नहीं होगी?”
“वो . . . वो तो होगी!”
“मुझे मंज़ूर होगा वो नतीजा। अब कोई और मसला हो तो बोलो!”
“और कोई नहीं।”
“पक्की बात?”
“हाँ।”
“तो फिर मेरी सुनो। यहाँ की ड्यूटी के लिए तुम नाकाबिल ओहदेदार साबित हुए हो इसलिए अभी, इसी मिनट से तुम्हें यहाँ की ड्यूटी से आजाद किया जाता है।”
अहसान जैसे आसमान से गिरा।
“आ-आप” – वो यूँ बोला जैसे जो सुना, उस पर यकीन न आ रहा हो – “मुझे . . . मुझे यहाँ से हमेशा के लिए हटा रहे हैं?”
“नहीं। एक घंटे बाद बहाल करने के लिए। या ज्यास्ती है एक घंटा! आधा घंटा करे मैं उसे?”
“स-सॉरी!”
“बात करता है हठेला!”
“म-मैं क्या क-करूँगा?”
“फ़ील्ड वर्क करोगे। अभी इतने काम बताए तो हैं तुम्हें?”
“अनिल मेरे साथ होगा न?”
“नहीं।”
अहसान को और भी बड़ा झटका लगा।
“ये यहाँ पहले की तरह उमर सुलतान के साथ काम करेगा।”
“सर, हमारी जोड़ी बनी हुई है, हमेशा हमने एक साथ काम किया है।”
“फ़ील्ड में कुछ करके दिखाओ, जोड़ी फिर बन जाएगी।”
“अनिल की जगह अनिल जैसा कोई साथ . . .”
“अभी नहीं।”
“कोई मदद?”
“जो ज़रूरी समझोगे, हाजिर पाओगे।”
“आपको बोलना होगा?”
“सुलतान को।”
“ओह! सुलतान को।”
ये उसके लिए और भी तौहीन की बात थी।
पुजारी एकाएक उठ खड़ा हुआ।
मातहत भी फौरन उठे।
पुजारी मेज के पीछे से निकल कर उनके करीब पहुँचा।
“जाने से पहले” – वो गंभीरता से बोला – “एक आख़िरी बात, एक पते की बात सबक के तौर पर कहना चाहता हूँ अगरचे कि किसी के मिज़ाज में आए। दुश्मन को कभी कमज़ोर न समझो। कभी भाव न खाओ कि फलां तुम्हारे सामने क्या चीज़ है, तुम तो बहुत ताकतवर हो, कुछ भी कर सकते हो। यही सोच बनाए रखोगे तो अपने बुरे अंजाम तक, बल्कि आख़िरी अंजाम तक, जल्दी पहुँचोगे।”
वो घूमा और बाहर को बढ़ चला!
सिर्फ सुलतान उसके साथ चला।
पुजारी की आधे घंटे की विज़िट ने अहसान को अन्दर-बाहर से हिला दिया था। सबसे बड़ा झटका उसे ये लगा था कि अब अनिल विनायक उसका जोड़ीदार नहीं रहने वाला था।
पास्कल्ज़ बार धारावी में एक्रेजी के इलाके में था, उसकी एक ख़ास तरह की क्लायंटेल थी जिसकी वजह से आस-पास से ही नहीं, फासले से भी ग्राहक वहाँ आते थे। मालिक पास्कल का ड्यूटी फ़्री व्हिस्की हासिल करने का कोई साधन था जिसकी वजह से उस जैसे मध्यम दर्जे के बारों के मुकाबले में वहाँ ड्रिंक्स के रेट कम थे। दूसरे, कॉलगर्ल्ज़ की आमद पर वहाँ कोई पाबन्दी नहीं थी इसलिए लेट आवर्स में बार की रौनक और बढ़ जाती थी। पास्कल ख़ुद इस बात पर घाघ की तरह निगाह रखता था कि वहाँ से आॅपरेट करने वाली लड़कियाँ डीसेंट हों, डिस्क्रीट हों और लिमिटेड हों।
उस घड़ी शाम के साढ़े सात बजे थे जबकि विमल ने वहाँ कदम रखा। इरफ़ान के सदके उसे पूर्वसूचना थी कि अहसान कुर्ला बार में मौजूद था। तब बैक अप के तौर पर इरफ़ान और शोहाब दोनों उसके साथ थे लेकिन उन्होंने विमल से पाँच मिनट बाद भीतर कदम रखना था। दोनों ने तसदीक की थी कि अहसान कुर्ला उन्हें नहीं पहचानता था, उन्हें यकीन था, वो दोनों कभी उसके रूबरू नहीं हुए थे।
बार का हाल उस घड़ी भी मेहमानों से भरा हुआ था। विमल की सतर्क निगाह टेबल टु टेबल घूमी तो एक टेबल पर उसे अहसान दिखाई दिया जो उस घड़ी तीन जनों की सोहबत में था और चारों का ड्रिंक्स पर ज़ोर था।
विमल के चेहरे पर तब फ़्रेंच कट दाढ़ी-मूँछ थी, आँखों पर बड़े-बड़े लैंसों वाला चश्मा और सिर पर चौड़े रिम वाला फैशनेबेल हैट था।
फासले से ही उसे दिखाई दे गया था कि अहसान की टेबल पर एक चेयर खाली थी – न होती तो बाज़रिया वेटर उसे वहाँ चेयर का इन्तज़ाम करना पड़ता।
मेजों के बीच से गुज़रता विमल वहाँ पहुँचा। बेतकल्लुफ़ वो खाली कुर्सी पर बैठ गया।
“सॉरी, बिरादरान!” – वो बोला – “और कहीं कोई सीट खाली दिखाई न दी। दिन भर का थका हुआ हूँ, बैठ लेने दो। परमिशन के बदले अगला राउन्ड मेरी तरफ से।”
“हो कौन?” – अहसान का एक साथी बोला जो नीली जींस, काली टी-शर्ट और टी-शर्ट पर काॅलर वाली लाल चैक की कमीज पहने था जिसके आगे के सारे बटन खुले थे।
“दोस्त!”
“दोस्त इधर क्या करता है?”
“अभी कुछ नहीं करता, कुछ करने दोगे तो करूँगा।”
“सीट की फीस भरोगे?”
“फीस! कैसी फीस!”
“सबके लिए ड्रिंक आॅर्डर करोगे! जो बिल भरो, समझ लो वो फीस!”
“मंज़ूर। पहले ही बोला। आते ही बोला।”
“आॅर्डर करेगा” – अहसान मुँह बिगाड़ कर बोला – “ड्रिंक लेगा और उठके चल देगा।”
लाल कमीज ने संदिग्ध भाव से विमल को देखा।
“मैं एडवांस पेमेंट करता है।”
“फिर क्या वान्दा है! अभी वेटर आता है, ड्रिंक्स आॅर्डर करना, पेमेंट करना और फिर हमारे साथ चियर्स बोलना।”
“वो तो तुम बोल चुके!” – विमल ने सबके व्हिस्की के गिलासों की तरफ इशारा किया।
“वान्दा नहीं। दोस्त बोला न, दोस्त के साथ फिर बोलेंगे।”
“ओके?”
“हैट क्यों लगाए है? उतार के मेज पर रख।”
“एटीकेट का सवाल है।” – दूसरा, शायद पढ़ा-लिखा, साथी बोला।
“नहीं उतार सकता।” – विमल बोला – “ऐटीकेट मेरे को मालूम पण मेरा पर्सनल प्रॉब्लम! इस वास्ते नहीं उतार सकता।”
“वाट पर्सनल प्रॉब्लम?”
“नहीं बोल सकता।”
“पर्सनल प्रॉब्लम गई तेल लेने!”
उसने एकाएक हैट के रिम को हाथ मारा तो हैट विमल के सिर से उतर कर नीचे फ़र्श पर जा गिरा।
सबने देखा वो सिर से गंजा था।
इस्साभाई विग वाला का बनाया गंजा विग विमल का आज़माया हुआ था, उससे उसे कभी धोखा नहीं हुआ था। कोई नहीं कह सकता था कि वो विग था।
“ओह! सॉरी!” – पढ़ा-लिखा बोला – “अब मुझे क्या पता था . . .”
“नहीं पता था तो नहीं पता था।” – विमल बोला – “अब मालूम पड़ गया न, मेरे को हैट क्यों नहीं उतारने का था!”
“सॉरी! पहन ले, यार।”
“अभी। अच्छी तरह मेरे गंजेपन का मज़ाक उड़ा लो, फिर पहन लेता हूँ।”
“काला चश्मा!” – तीसरा, नीली टी-शर्ट वाला, बोला – “रात को कौन लगाता है! उसकी भी कोई स्टोरी?”
विमल ख़ामोश रहा।
नीली टी-शर्ट ने हाथ बढ़ाकर ख़ुद उसका चश्मा उतार लिया।
सबने देखा, विमल की आँखें बटेर की तरह लाल थीं।
नीली टी-शर्ट बौखला गया, उसने फौरन चश्मा वापिस विमल की आँखों पर चढ़ा दिया।
“बोले तो” – लाल कमीज बोला – “आके बैठा था तो बड़ी हद चालीस का जान पड़ता था। हैट के नीचे से टकली खोपड़ी निकली तो अब दस साल बड़ा लगता है।”
“मैं अड़तीस का हूँ” – विमल बोला।
“होगा, यार। हमने उम्र से क्या लेना है!”
“ज़िक्र तो तुम्हीं ने छेड़ा!”
तभी वेटर उनकी टेबल पर पहुँचा।
पूछने पर पता लगा वो ब्लैंडर्स प्राइड पी रहे थे।
“मैं अपने लिए” – विमल बोला – “कोई और ब्रांड ऑर्डर करे तो कोई वान्दा?”
सबने इंकार में सिर हिलाया।
विमल ने चार लार्ज ब्लैंडर्स प्राइड और एक लार्ज ग्लैनफिडिक का ऑर्डर दिया और वेटर को ख़ास ताकीद की कि उस राउन्ड का बिल साथ लेकर आए।
अहसान को छोड़कर बाकी एक-दूसरे का मुँह देखते यूँ मुस्कराने लगे जैसे तब श्याने के पूरी तरह से फंस गए होने की तसदीक हो गई थी।
अहसान बहुत ही बुरे मूड में लग रहा था, चेहरे पर फटकार बरस रही थी और नहीं लगता था कि घूंट लगा कर भी उसके मिज़ाज में कोई फर्क आया था। दोस्तों के साथ बार में था लेकिन तवज्जो का रुख कहीं और ही जान पड़ता था।
दोस्त इतने कमीने थे – अहसान तो था ही – कि किसी ने भी फ़र्श पर गिरे पड़े हैट को उठा कर वापिस विमल के हवाले करने की कोशिश नहीं की थी।
वेटर ड्रिंक्स के साथ लौटा, वो सर्व करने लगा तो लाल कमीज ने उसके हाथ से ट्रे ले ली – ले क्या ली, छीन ली।
“मैं सर्व करता हूँ।” – लाल कमीज बोला।
“साहब” – वेटर व्यग्र भाव से बोला – “मेरे को मालूम कि . . .”
“हमेरे को भी मालूम। तू पेमेंट ले।”
विमल ने पेमेंट के लिए जेब से दो हज़ार के नोटों का इतना मोटा पुलन्दा निकाला कि सबकी – अहसान की भी – आँखें फट पड़ीं।
विमल ने बिल पर निगाह डाली तो पाया चौदह सौ रुपये का बिल था। उसने वो पुलन्दा जेब में वापिस रखा और जेब से वैसा ही दूसरा पुलन्दा पाँच सौ के नोटों का निकाला, उसमें से तीन नोट अलग किए और ख़ुशी से बाग-बाग वेटर को रुख़सत किया।
आख़िर बार का एक फेरा भर लगाने की एवज़ में उसे सौ रुपये टिप मिली थी।
लाल कमीज के इशारे पर सबने, ख़ुद उसने भी, अपने मौजूदा जाम निपटाए। फिर उसने नए पाँच गिलास आवंटित किए।
विमल अपना गिलास उठाकर नाक तक लेकर गया।
“ये ग्लैनफिडिक नहीं है।” – वो तत्काल बोला।
“कैसे मालूम?” – लाल कमीज बोला।
“जब ग्लैनफिडिक पीना शुरू करेगा तो समझेगा कैसे मालूम!”
“अरे, भाव क्यों खाता है, ख़ुद मालूम कर ले कौन से गिलास में तेरा ब्रांड है।”
विमल ने वही किया।
ग्लैनफिडिक लाल कमीज के सामने पड़े गिलास में थी।
विमल ने घूर कर उसे देखा।
लाल कमीज बेशर्मी से हँसा।
विमल ने गिलास तब्दील किए।
“चियर्स!” – फिर अपना गिलास ऊंचा करता बोला।
सबने चियर्स बोला।
अहसान ने यूँ जैसे अहसान कर रहा हो।
“अक्सर इधर आता है, भीड़ू?” – पढ़े-लिखे ने पूछा।
“नहीं।” – विमल इत्मीनान से बोला – “लेकिन अब आया करूँगा।”
“ऐसा, क्यों?”
“इतने अच्छे दोस्त जो मिल गए!”
“ओह! बढ़िया।”
विमल कनखी आँखों से नोट कर रहा था कि अहसान ने अपने जाम की बहुत छोटी-सी चुस्की मारी थी और उसे यूँ वापिस मेज पर रखा था जैसे वो उसे बद् मज़ा लगा हो।
निश्चय ही वो बहुत बुरे मूड में था, इतने कि फिलहाल व्हिस्की भी कोई मदद नहीं कर रही थी।
पढ़ेे लिखे पर से ध्यान हटा कर विमल अहसान की तरफ आकृष्ट हुआ।
“मूड ठीक नहीं तुम्हारा।” – वो अहसान से बोला – “नाम बोले तो?”
अच्छे मूड में होता तो अहसान दस हुज्जत करता कि उसने उसके मूड से क्या लेना था, वो नाम क्यों पूछता था, वग़ैरह लेकिन तब वो अनमने भाव से बोला – “अहसान!”
“मैं गिरीश।” – विमल बोला – “बोले तो, भीड़ू, तेरा मूड ठीक करे मैं?”
“तू?”
“हाँ।”
“क्या करेगा? कैसे करेगा?”
“अभी एक गेम करेगा न? तू जीत गया तो बाग-बाग हो जाएगा।”
“कैसा गेम?”
विमल ने जेब से एक चमचम सिक्का बरामद किया और अहसान को उलट- पलट कर दिखाया।
“सोने का है।” – फिर बोला – “दस ग्राम का! तेईस कैरेट का। कीमत पचास हज़ार। ये सिक्का ये . . . मैंने तेरे जाम में डाला . . .”
अहसान हड़बड़ाया। सिक्का अब उसके सामने पड़े जाम के बाॅटम में था।
“ये . . . ये क्या किया!” – उसके मुँह से निकला।
“बैटिंग मेरा शौक है, शगल है। अहसान भाई, अभी मेरी तेरे से बैट है कि अपने सामने पड़ा ड्रिंक तू फिनिश नहीं कर पाएगा।”
“येड़ा!”
“कर पाया तो सिक्का तेरा।”
अहसान और हड़बड़ाया। स्वयमेव उसकी निगाह गिलास पर झुक गई।
“सोने का नहीं होगा!” – वो बोला।
“कोई परखने का तरीका हो तो परख लेना लेकिन बैट के बाद।”
“बैट दोहरा के बोले तो?”
“ये ड्रिंक तू फिनिश नहीं कर पाएगा।”
“कर पाया तो कॉयन मेरा?”
“हाँ।”
“न कर पाया तो? तो मैं क्या हारेगा, तू क्या जीतेगा?”
“तो अगला राउन्ड तू ऑर्डर करना और पेमेंट करना।”
“यानी चौदह सौ के बदले में पचास हज़ार की शर्त!”
“हाँ।”
“क्यों?”
“क्योंकि ऐसी बैट्स की थ्रिल्स में मुझे बेतहाशा मज़ा आता है। रगों में ख़ून की रफ्तार बढ़ जाती है।”
“क्या कहने! मैं ड्रिंक फि़निश क्यों नहीं कर पाएगा?”
“ये तू जाने, तेरा काम जाने। मैं कुछ नहीं बता सकता।”
“ड्रिंक ख़त्म होने को होगा तो ग्लास मेरे हाथ से छीन लेगा।”
“नाॅनसेंस! तेरे साथ तीन भीड़ू। इन्हें ख़बरदार करके रखना।”
“ठीक है! देखता है क्या भेद है तेरी बैट में।”
“एक बात और है।”
“वो भी बोल!”
“एक साँस में न पीना, घूँट-घूँट करके पीना वर्ना सिक्का निगल जाएगा।”
“ठीक है।”
उसने हाथ बढ़ा कर जाम उठाया, थोड़ी देर उसे उंगलियों में घुमाया, भीतर झांका, फिर ख़ामख़ाह झिझकते हुए एक घूँट पिया।
उसने अपने दोस्तों की तरफ देखा, होंठ चटकाए और एक घूंट और पिया।
केवल विमल ने नोट किया उसकी निगाह गहराने लगी थी और चेहरे का रंग बदरंग होने लगा था।
उसने एक ही घूंट और पिया।
गिलास उसने यूँ हाथ से रखा कि ठक से गिलास का पेंदा मेज से टकराया। उसकी आँखें बंद होने लगीं, सिर धीरे-धीरे यूँ झुकने लगा कि आख़िर माथा मेज़ से जा लगा।
तीनों दोस्त असमंजस के भाव से उसकी तरफ देखने लगे।
विमल ने एक बार में अपना गिलास खाली किया और उठ खड़ा हुआ।
“मैं जीता!” – दो उंगलियों से अहसान के गिलास से सिक्का निकालता वो बोला।
“इसे क्या हुआ?” – लाल कमीज बोला।
“कुछ नहीं हुआ। क्या होना है! खाली शर्त हारा। ड्रिंक फि़निश न कर सका।”
“रुक जा। तू अभी नहीं जा सकता।”
तभी इरफ़ान शोहाब वहाँ पहुँच गए।
“चलें?” – शोहाब बोला।
“शर्त का फैसला हो गया?” – इरफ़ान बोला।
“हाँ।” – विमल बोला – “ड्रिंक फि़निश न कर सका। हार कर ड्रिंक्स का राउन्ड मंगाना था, चौदह सौ का बिल भरना था कि नींद आ गई। खर्चे की ज़िम्मेदारी से बच गया। चलो।”
“तू नहीं जा सकता।” – लाल कमीज ने उसकी बाँह थाम ली।
बाँह विमल ने न छुड़ाई, इरफ़ान ने छुड़ाई और यूँ छुड़ाई कि लाल कमीज की बाँह कंधे से उखाड़ देने में कसर न छोड़ी।
“कौन रोकेगा?” – वो कड़क कर बोला।
लाल कमीज ही नहीं, बाकी दो भी सहम गए।
विमल ने तब भी फ़र्श पर पड़ा अपना हैट उठाया, उसे थोड़ा झाड़ा और सिर पर टिका लिया।
“अभी उठ जाएगा।” – विमल ने मीठे स्वर में लाल कमीज को तसल्ली दी – “न उठा तो . . . उठ ही जाएगा। गुड नाइट।”
तीनों को मुँह बाए बैठा छोड़ कर इरफ़ान, शोहाब के साथ विमल वहाँ से रुख़सत हुआ।
सिक्का सच में सोने का था, उस पर ऐसे घुलनशील ज़हर की कोटिंग थी जो एकाएक नहीं, धीरे-धीरे असर करता था, स्लो प्वायज़न कहलाता था।
“क्या होगा उसका?” – कैब चलाता इरफ़ान रास्ते में बोला।
शोहाब उसके बाजू में पैसेंजर सीट पर था और विमल पीछे था।
“क्या होगा!” – विमल लापरवाही से बोला – “दोस्त हस्पताल ले जाएंगे तो कुछ नहीं होगा। नादान निकले, नालायक निकले, यही सोचते रहे कि टुन्न है तो भी मरेगा तो नहीं, लेकिन बद्हाल काफी अरसा रहेगा।”
“ठीक!”
“यानी” – शोहाब बोला – “जान लेने का कोई इरादा नहीं था?”
“अभी नहीं। अभी जो हुआ, वो उसके लिए वॉर्निंग था और अहसान कुर्ला जैसे मवाली ऐसी वॉर्निंग को बाखूबी समझते हैं। लेकिन आइन्दा उसका मिज़ाज न बदला तो ख़ता खाएगा।”
“अरे, उठ जाने देना था खजूर को!” – इरफ़ान बोला।
“इरफ़ान भाई, ख़ून का बदला ख़ून होता है। लोहकर ज़िन्दा है, सही सलामत है।”
“ऐसा था तो हम वैसे ही उसे लोहकर जितना ठोक देते! इतना ड्रामा करने की क्या ज़रूरत थी?”
“मुझे ड्रामा पसंद है। ड्रामे का देखने वालों पर असर होता है। ठोक देते बराबर, लेकिन क्या मजमा लगा के ठोकते?”
इरफ़ान फिर न बोला।
तभी विमल के मोबाइल पर सिग्नल आया।
‘शंघाई मून’ की होस्टेस शेफाली का एसएमएस। दर्ज था :
रैड टेबल क्लॉथ टेबल मेक्स एन अपीयरेंस
विमल ने मैसेज की बाबत साथियों को बताया।
“जाएगा?” – इरफ़ान ने पूछा।
“ये भी कोई पूछने की बात है! तीन दिन से इसी दिन का तो इन्तज़ार था!”
इरफ़ान ने घड़ी देखी : साढ़े आठ बजने को थे।
“अभी?” – वो बोला।
“अभी कैसे?” – विमल बोला – “ड्रैस चेंज करनी होगी। पिछली बार वाला – जेम्स दयाल जैसा – हुलिया बनाना होगा। पहले चैम्बूर चल।”
“वहाँ तो जा ही रहे हैं!”
“बढ़िया।”
“शोहाब ने अपनी रात पाली पर निकलना है। रोकें इसे?”
“कोई ज़रूरत नहीं।”
“एक से दो भले!”
“होंगे न दो! एक तू, एक मैं।”
“मेरा मतलब था बैकअप में दो भले। शोहाब को जाने दें, विक्टर को बुला लें?”
“अरे, नहीं ज़रूरत।”
“तेरी मर्ज़ी।”
साढ़े नौ बजे विमल ‘शंघाई मून’ पहुँचा।
अपने पिछली बार वाले जेम्स दयाल के बहुरूप में।
कोई फर्क था तो ये कि पिछली बार उसकी जींस और पीक-कैप का रंग काला था, इस बार नीला था।
स्टीवॉर्ड कौशिक ने उसे तत्काल पहचाना। वो लपकता हुआ उसके रूबरू हुआ।
“वैलकम, सर।” – वो फरमायशी मुस्कुराहट से मुँह सजाता बोला।
“थैंक्यू!” – विमल बोला – “सो यू रिकग्नाइज़्ड मी!”
“यस, सर। यू वर हेयर ऑन वैडनसडे ईवनिंग।”
“यस, राइट।”
“बाद में शेफाली ने मुझे आपका नाम भी बताया। मिस्टर जेम्स दयाल, इजं़ट इट?”
“यस। बाई दि वे, मेरा क्रेडिट कार्ड आज भी घर रह गया है।”
“नो प्रॉब्लम, सर। पर आप आज भी अकेले हैं?”
“हाँ, लेकिन आज मुझे मेरी डेट ने डिच नहीं किया, मर्ज़ी से अकेला हूँ। आज तनहाई का मूड है।”
“होता है ऐसा कभी-कभी।”
“लीड मी टु कैश काउन्टर।”
“ज़रूरत नहीं, सर। आप अब नोन कस्टमर हैं। आइए, आपको टेबल पर ले के चलता हूँ।”
“थैंक्यू।”
इस बार बिना फरमायश के स्टीवॉर्ड ने उसे ऐसी टेबल पर पहुँचाया जो डांस फ्लोर के करीब थी।
विमल ने पहले की तरह उसकी मुट्ठी में दो सौ का नोट सरकाया।
“ड्रिंक ऐज़ यूजुअल, सर?” – स्टीवॉर्ड बोला।
“यस” – विमल बोला – “ग्लैनफ़िडिक विद वाटर एण्ड आइस।”
“आई रिमेम्बर, सर। युअर ड्रिंक इज़ कमिंग अप राइट अवे।”
स्टीवॉर्ड ने उसे वेटर के हवाले किया और रुख़सत हो गया।
वेटर ने ड्रिंक सर्व किया।
विमल ने अचरज से नोट किया कि इस बार पोटेटो चिप्स के कटोरे के साथ पीनट्स की जगह काजू का कटोरा था।
वेटर रुख़सत हुआ तो उसने सबसे पहले डांस फ्लोर के गिर्द की तमाम टेबलों पर बारी-बारी निगाह डाली। सब आकूपाइड थीं, सिर्फ एक खाली टेबल थी जिस पर उसकी निगाह अटकी।
वो बाकी टेबल्स से साइज में जुदा थी, उस पर सिर्फ दो कुर्सियाँ थीं और टेबल पर लाल मेज़पोश बिछा हुआ था।
गुड।
उसने व्हिस्की की एक चुस्की ली, फिर उसकी निगाह पैन होती सारे हाल में घूमी।
शेफाली उसे कहीं दिखाई न दी।
होगी कहीं। – उसने मन ही मन सोचा – उसे पहुँचा देखेगी तो आ जाएगी।
बैंड बज रहा था लेकिन डांस फ्लोर उस घड़ी खाली था।
यानी पैट्रंस का अभी वर्टीकल सैक्स का मूड नहीं बना था।
वो प्रतीक्षा करता रहा।
“हल्लो!”
मखमली आवाज़ से उसकी तन्द्रा टूटी।
“हल्लो, शेफाली!” – उसके मुँह से निकला।
वो हँसी। बिलौरी हँसी।
विमल ने सिर उठाया तो पाया वो शेफाली नहीं थी।
“आई वाज़ एक्सपैक्टिंग शेफाली।” – वो बोला।
“मेरे में कोई कमी पाई?” – वो बोली।
“नहीं, माई डियर, बिल्कुल नहीं, लेकिन शेफाली . . .”
“बिज़ी है, नहीं आ सकती।”
“बाद में?”
“मुमकिन है।”
“आइल वेट फ़ॉर हर। थैंक्यू।”
उसने कोई बुरा न माना, जैसे इठलाती आई थी, वैसे इठलाती लौट गई।
आॅल पार्ट ऑफ़ ए गेम – विमल ने मन ही मन सोचा – नथिंग पर्सनल। ओनली प्रोफे़शनल।
उसका इन्तज़ार जारी रहा।
सवा दस बज गए।
वेटर ने उसका गिलास खाली देखा तो उसके करीब पहुँचा।
विमल ने रिपीट का ऑर्डर दिया।
जो कि तुरन्त सर्व हुआ।
कहाँ थी शेफाली! – नए जाम की तरफ तवज्जो देते उसने सोचा – उस जैसे किसी तनहा कस्टमर के साथ हाल में तो कहीं दिखाई नहीं दे रही थी! या शायद हाल बहुत बड़ा होने की वजह से वहाँ मौजूद सारे कस्टमर उसे नहीं दिखाई दे रहे थे।
उसे फोन का ख़याल आया। उसने मोबाइल निकाल कर उसका फोन बजाया।
‘दिस फोन इज़ टैम्परेरीली स्विच्ड ऑफ़’ की घोषणा सुनाई दी।
तभी उसे जो नजारा दिखाई दिया, उसने ड्रिंक की तरफ से उसकी तवज्जो हटा दी।
दो वेटर ‘स्पेशल’ टेबल के करीब पहुँचे, एक ने लाल कपड़ा मेज़ पर से उठा के तह किया और टेबल संभाली, दूसरे ने दोनों हाथों से दो कुर्सियाँ उठाईं और चुपचाप वो वहाँ से रुख़सत हो गए।
क्या माजरा था! क्या मतलब था उस हरकत का!
इसके सिवाय और क्या हो सकता था कि मिस्टर क्वीन की वहाँ आमद का प्रोग्राम कैंसल हो गया था। शेफाली इस बाबत शायद कुछ बता पाती लेकिन वो उपलब्ध नहीं थी। जमशेद कड़ावाला से दरयाफ़्त करता तो पहला सवाल यही होता कि उसे मालूम कैसे था कि उस शाम मिस्टर क्वीन वहाँ आने वाले थे!
क्या करे वो?
तभी स्टीवॉर्ड कौशिक उसके करीब पहुँचा। उसके हाथ में एक मोबाइल फोन था जो उसने विमल की तरफ बढ़ाया।
“सर” – वो बोला – “कोई आप से बात करना चाहता है।”
“इस फोन पर?” – विमल की भवें उठीं।
“यस, सर।”
“इस फोन पर मेरे लिए काल का क्या मतलब?”
“सर, काल आपके फोन पर आ सकती है। आप नम्बर दीजिए, अभी आएगी।”
विमल ने कुछ क्षण सोचा फिर हाथ बढ़ा कर स्टीवॉर्ड से फोन ले लिया। उसने उसे कान से लगाया और सावधान स्वर में बोला – “हल्लो!”
“आप हैं जो मिस्टर क्वीन से मिलना चाहते हैं?” – एक मधुर स्त्री स्वर उसके कान में पड़ा।
“हाँ।” – विमल पूर्ववत् सावधान स्वर से बोला।
“यहाँ आ जाइए, मुलाकात हो जाएगी।”
“यहाँ कहाँ?”
“जुहू रोड। बंगला नम्बर सात।”
लाइन कट गई।
विमल ने इनकमिंग काल का नम्बर जानने की कोशिश की लेकिन स्टीवॉर्ड ने फोन पहले ही उसके हाथ से ले लिया।
“थैंक्यू, सर।” – वो मधुर स्वर में बोला – “एनजाय युअर ड्रिंक।”
“थैंक्स फ़ॉर वाइज़ सजेशन।” – विमल बोला – “आज शेफाली नहीं दिखाई दे रही?”
“मुझे भी नहीं दिखाई दे रही।”
वो घूमा और लम्बे डग भरता वहाँ से विदा हो गया।
अब वहाँ कुछ नहीं रखा था। कर्टियस स्टाफ़ एकाएक बेरुखी से पेश आने लगा था।
विमल ने बिल मंगवाया, उसे चुकता किया, अपना गिलास खाली किया और बाहर का रास्ता पकड़ा।
पिछली बार की तरह उसको नतमस्तक होकर दरवाज़ा खोलने के लिए स्टीवॉर्ड वहाँ मौजूद नहीं था।
वो बाहर निकला। यार्ड की पार्किंग में उसने इरफ़ान को तलाश किया और उसके साथ, उसके पहलू में कैब में बैठा।
“बाप, पीछू बैठ!” – इरफ़ान बोला – “तू पैसेंजर . . .”
“अब छोड़ न!” – विमल तनिक झुंझलाए स्वर में बोला – “वो तकल्लुफ़ आती बार का था।”
“बोले तो . . . ओके! जल्दी आ गया!”
“जो सोचा था, वो न हुआ, इसलिए।”
“क्या हुआ?”
विमल ने बताया।
“ओह!” – विमल ख़ामोश हुआ तो इरफ़ान बोला – “जाएगा?”
“तू बोल।”
“फंदा है।”
“मेरे को भी यही जान पड़ता है। बुधवार को तो शेफाली नाम की होस्टेस ने इतना कोआॅपरेट करके दिखाया, जो वादा किया उस पर आज खरा उतर कर भी दिखाया। मैं यहाँ पहुँचा तो सब उलटा। लाल मेजपोश वाली टेबल दिखाई दी बराबर लेकिन इन्तज़ार के बावजूद उसको आकूपाई करने वाला कोई न आया। न मेरी वहाँ मौजूदगी के दौरान मेरे को होस्टेस शेफाली दिखाई दी, न उसका मोबाइल लगा। फिर लाल मेजपोश वाली टेबल भी गायब हो गई।”
“गायब हो गई?”
“मेरा मतलब है मेरी आँखों के सामने उठा ली गई।”
“क्योंकि आने वाला किसी वजह से नहीं आया था?”
“क्योंकि आने वाला कोई था ही नहीं। वो लाल मेजपोश वाली मेज मुझे भरमाने के लिए सजाई गई थी। उसको हटा के यूँ ज़ाहिर किया गया था कि मेज के स्पेशल आकूपेंट ने आना तो था लेकिन किसी वजह से नहीं आ सका था। फिर वो मिस्टीरियस काल आई कि मेरे को मिस्टर क्वीन से मिलना माँगता था तो मैं जुहू रोड, बंगला नम्बर सात पहुँचूँ। इरफ़ान, तेरी तरह मेरी अक्ल भी यही कहती है कि ट्रैप है।”
“तो ख़त्म कर किस्सा। मत जा।”
“एक चक्कर लगाने का, वहाँ का माहौल भांपने का इरादा फिर भी है।”
“क्या हाथ आएगा?”
“देखेंगे।”
“जब ख़ुद कुबूल करता है, ट्रैप है तो फंसने जाएगा ख़ास कर के?”
“एहतियात बरतूँगा तो वो नौबत नहीं आएगी।”
“अरे, किस बात की एहतियात बरतेगा? बंगले की शक्ल एहतियात से देखेगा?”
“तू चल न! एक राउन्ड मार आने में क्या हर्ज है?”
“इसीलिए बोला था, विक्टर को बुला लें।”
“अरे, मौलाना चंगेज़ी, जब एक जना कुछ नहीं कर सकेगा तो दो के किए भी कुछ नहीं होगा। क्या!”
“मालिक है, बाप। तेरी मर्ज़ी, पण कहना मान, पीछे फिर भी बैठ।”
विमल कैब से निकल कर पीछे बैठा।
कैब यार्ड से निकली और अपनी मंजिल के लिए रवाना हुई।
जुहू रोड का सफर ख़ामोशी से कटा।
दोनों ने सड़क के पार से बंगला नम्बर सात का मुआयना किया।
वो एक बड़े प्लॉट में बना बंगला था जिसके सामने की दीवार के साथ लगा सिर्फ एक बल्ब जल रहा था, जिसके लिए बंगले के विशाल फ़्रंट-यार्ड को रौशन कर पाना मुमकिन नहीं था। भीतर दो-तीन खिड़कियों के भारी पर्दों के पीछे रौशनी थी लेकिन वो खिड़कियों को रौशन करने के लिए ही काफी थी, बाहर उसकी पहुँच नहीं थी। विशाल एकमंजिला इमारत की छत पर उसके मिडल में एक विशाल, चौकोर चबूतरा-सा था जिसके नीचे फ़र्श पर रंगीन शीशों वाली खिड़कियाँ थी। उन खिड़कियों की फ़्रंट और दाएँ पहलू पर तो साफ हाजिरी थी, सिमिट्री के लिए उनका बाएँ और पीछे होना भी लाजमी जान पड़ता था। चबूतरे की छत पर फ़ाइबर ग्लास का एक डोम था जो यूँ स्थापित था कि छत के सिरों तक पहुँचा होने की जगह छत के बीच में बना जान पड़ता था। यानी छत की मुंडेर और उसके बीच में संकरा-सा परकोटा था।
खिड़कियाँ और डोम बहुत कम रौशन थे – बस इतने कि सड़क पर से उनके वजूद की हाजिरी लग जाती। शायद डोम के नीचे गोल हाल था, जो बंगले के कॉलोनियल आर्कीटेक्ट के हिसाब से ड्राइंगरूम ही हो सकता था, जिसमें इतनी रौशनी उस घड़ी नहीं थी कि डोम तक पहुँच पाती।
दाईं तरफ बंगले का लोहे का, दो पल्लों वाला इतना बड़ा आउटर गेट था कि उसमें से बड़ी से बड़ी गाड़ी गुज़र सकती थी। आगे उतना ही चौड़ा ड्राइव-वे था जो बंगले के आख़िर तक वहाँ पहुँचता था जहाँ एक बहुत बड़ा शटर लगा दिखाई दे रहा था और उसके पीछे नििश्चत रूप से गैराज था। उसके ऊपर खिड़कियों वाले कमरे थे जिन तक ग़ैराज के कोने से फ़ायर एस्केप जैसी गोल सीढ़ियाँ पहुँचती थीं। ऐसी जगह सर्वेंट क्वार्टर ही हो सकती थी लेकिन ऊपर उस घड़ी बिल्कुल अंधेरा था।
आयरन गेट के बाएं बाजू में बाहर की तरफ एक वाचमैन बॉक्स था। वो उस घड़ी रौशन था जिससे लगता था भीतर कोई मौजूद था।
बंगले के बाईं तरफ एक अंधेरी गली थी जिसकी तरफ विमल ने ख़ास तवज्जो दी।
“पुराना बना बंगला है।” – इरफ़ान धीरे से बोला – “इसीलिए बनावट में पुराने अन्दाज़ का है। तब का बना जान पड़ता है जब जुहू उजाड़ जगह थी और यहाँ जमीन बहुत सस्ती थी। तब व्यापारियों ने, फिल्म स्टार्स ने यहाँ बड़े-बड़े प्लाॅट खरीदे थे। कुछ ने जुहू बसने लगने पर मुनाफा कमाने के लिए प्लॉट बेच दिए थे, कुछ ने तब बंगले खड़े कर लिए थे।”
“सब तो पुराने – जैसा कि हमारे सामने वाला है – स्टाइल के नहीं दिखाई देते!”
“बिक के, टूट के कई फिर बने, इसलिए।”
“ठीक! जैसे आस-पास के बंगले रौशन हैं, वैसे इसमें रौशनी का माहौल क्यों नहीं है?”
“कम लोग रहते होंगे! शाम के रूटीन कामकाज से जल्दी निपट जाते होंगे!”
“अर्ली स्लीपर होंगे!”
“क्या बोला, बाप?”
“जल्दी सोओ, जल्दी जागो वाले मिज़ाज के होंगे!”
“हो सकता है।”
“ट्रैप वाला कोई हाल दिखाई तो नहीं देता!”
“दिखाई दे जाएगा तो फंसेगा कैसे?”
“ये बात तो ठीक कहीं तूने!”
“अब?”
“बंगले के बाएं बाजू में अंधेरी गली है, उसमें चल।”
इरफ़ान ने आदेश का पालन किया।
वो डबल रोड थी जिसके बीच में ऊंचा डिवाइडर था। परली सड़क पर पहुँचने के लिए आगे से घूमकर आना ज़रूरी था। कैब गली में दाखिल होने लगी तो इरफ़ान ने इंजन बंद कर दिया और हैडलाइट्स ऑफ कर दीं। कैब, निशब्द लुढ़कती हुई गली के मिडल में जाकर स्थिर हुई।
विमल ने इरफ़ान को इशारा किया, दोनों ख़ामोशी से बाहर निकले और सावधानी से निशब्द चलते बंगले के परले सिरे तक पहुँचे और पिछवाड़े की ओर की संकरी गली में घूम कर आए।
सर्वत्र सन्नाटा था। कहीं कोई कुत्ता भी नहीं भौंक रहा था।
वैसे ही चुपचाप वो वापिस कैब तक पहुँचे।
तब विमल ने इरफ़ान को अपने खतरनाक इरादे से आगाह किया।
“सोच ले, बाप।” – इरफ़ान चिन्तापूर्ण भाव से बोला।
“जो बोला है, सोच के ही बोला है।” – विमल बोला।
“ठीक है फिर।”
“अंधेरे में भी दिख रहा है कि बंगले की मुंडेर ऊंची है। टैक्सी की छत पर चढ़ कर भी उस तक मेरे हाथ नहीं पहुँचेंगे। हम दोनों को टैक्सी की छत पर पहुँचना होगा, छत बैठ तो नहीं जाएगी।”
“नहीं, बाप। फियेट है, आजकल की पापड़ छत नहीं है।”
“गुड। तेरे को मेरे को उठाकर ऊपर हूलना होगा, तभी मेरे हाथ मुंडेर तक पहुँचेंगे।”
“बरोबर! पण छत पर पहुँच कर करेगा क्या?”
“डोम के रोशनदानों में से किसी से भीतर झाकूँगा।”
“हासिल?”
“अभी क्या पता! सामने आएगा।”
इरफ़ान ख़ामोश हो गया।
पाँच मिनट बाद विमल बंगले की छत पर था।
उसने इरफ़ान को टैक्सी की छत पर न टिकने का इशारा किया तो इरफ़ान टैक्सी के भीतर जा बैठा।
विमल ने देखा छत की मुंडेर और डोम के बीच का परकोटा कोई बारह फुट चौड़ा था और अंधेरा और सुनसान था। दबे पांव उसने डोम तक पहुँच बनाई। जो खिड़की सामने थी, सावधानी से उसने उसमें से नीचे झांका तो पाया कि नीचे एक बहुत स्टाइलिश गोल ड्राईंगरूम था जिसकी डबल हाइट की छत वो चौतरफा खिड़कियों वाला डोम था। ड्राईंगरूम रौशन था और उसमें एक महिला और एक पुरुष अगल-बगल बैठे थे। दोनों के सामने एक टेबल थी जिस पर ड्रिंक्स का सब साजोसामान मौजूद था। पुरुष का गिलास उसके हाथ में था, महिला का उसके सामने रखा था।
वो ऐन उनके ऊपर था इसलिए उसे उन दोनों के सिर ही दिखाई दे रहे थे, उनकी उम्र या शक्ल-सूरत का अंदाज़ा लगा पाना मुमकिन नहीं था। हर खिड़की के दो पल्ले थे जो, फ्रेम से ज़ाहिर होता था कि, भीतर को खुलते थे। उसने हैंडल घुमाकर एक पल्ले को धीरे से, बाल-बाल करके भीतर को सरकाया।
पल्ला चौखट से अलग होकर थोड़ा परे सरक गया।
उसने जेब से एक ट्रांसमिटर बरामद किया जो लम्बे धागे के सिरे के साथ बंधा हुआ था। खिड़की के पल्ले और चौखट के बीच बनी कोई एक इंच की झिरी में से उसने ट्रांसमिटर को नीचे लटकाया और धागे को धीरे-धीरे ढील देनी शुरू की। ट्रांसमिटर यूँ नीचे आधे रास्ते पहुँचा तो उसने उसे और ढील देना बंद कर दिया और कान में इयरप्लग जैसा रिसीवर फिट किया।
नीचे से आती वार्तालाप की आवाजें उसे साफ सुनाई देने लगीं।
“क्या ख़याल है?” – महिला कह रही थी – “आएगा?”
आवाज़ की खनक से वो कोई नौजवान लड़की जान पड़ती थी।
“उम्मीद तो है!” – पुरुष बोला।
“कब तक इंतज़ार करोगे?”
“जब तक अाजिज़ नहीं आ जाऊँगा।”
“इतना इम्पॉर्टेंट है तुम्हारे लिए उससे मिलना?”
“हाँ!”
“क्यों?”
“जमशेद कड़ावाला की रिपोर्ट के मुताबिक उसकी पहुँच में जो है, आठ किलो प्योर, अनकट हेरोइन है। मेरा इरादा उसको थामने का है और उससे हेरोइन छीन लेने का है।”
“ऐसा यकीनन तुम हेरोइन के लालच में तो नहीं करोगे! ज़रूर कोई और प्लान है तुम्हारे ज़ेहन में!”
“सही पहचाना। वैसे तो दस करोड़ की हेरोहन का लालच जो है, भी अपने आप में कोई कम नहीं लेकिन मेरे ज़ेहन में जो है, उसका दूसरा इस्तेमाल है।”
“क्या?”
“जो काम मैं नहीं कर सकता, वो मैं जो है, उससे करवाऊंगा। उससे सौदा करूँगा कि वो मेरा काम करेगा, मैं उसकी हेरोइन लौटाऊंगा, या उसकी सेल का जो है, इंतज़ाम उसे करके दूँगा जैसा कि वो चाहता है।”
“इतने बखेड़ों की ज़रूरत क्या है? अपना काम ख़ुद क्यों नहीं करते हो?”
“नहीं कर सकता और तेरे को समझा भी नहीं सकता जो है, कि क्यों नहीं कर सकता!”
“ऐसी क्या बात है?”
“है कोई बात जो तेरे को नहीं बताई जा सकती। मैं ये जो है, काम ख़ुद नहीं कर सकता। एण्ड दैट्स फाइनल। लेकिन अगर कोई दूसरा जो है, इस काम को अंजाम देने का बीड़ा उठाए तो मैं उसकी हरचन्द मदद करूँगा।”
“जो आ रहा है, उसे ब्लैकमेल करोगे अपने काम की ख़ातिर?”
“फिलहाल तो यही इरादा है!”
“क्या करोगे? कैसे करोगे?”
“कड़ावाला पर वो पुरइसरार ज़ाहिर कर चुका है कि हेरोइन के किसी इमीजियेट डील का वो जो है, ख़ुद तमन्नाई है। वो डील मैं उससे करूँगा, जो रेट वो माँगेगा, थोड़ी हील-हुज्जत के बाद मैं उसे कुबूल कर लूंगा। जब डील के कनक्लूज़न का वक्त आएगा, इस हाथ दे, उस हाथ ले का वक्त आएगा तो हेरोइन जो है, मैं उस से छीन लूंगा, जो कि कोई मुश्किल काम नहीं होगा। वो इधर अकेला है। क्या करेगा अकेला? दस करोड़ की हेरोइन का ग़म खाएगा या मेरे इसरार पर जो है, मेरा काम करना कबूल करेगा?”
“दूसरी ऑप्शन ही कुबूल करेगा लेकिन उस आप्शन के तहत जो उसे करना होगा, वो कर सकेगा?”
“जब उसे हर मुमकिन मदद हासिल होगी तो क्यों नहीं कर सकेगा?”
“मदद तुम्हारे से?”
“ज़ाहिर है।”
“मदद कर सकते हो, मदद जो करोगे उसे ख़ुद अमली जामा नहीं पहना सकते!”
“अब एक ही बात के पीछे न पड़ी रह वर्ना मुझे जो है, गुस्सा आ जाएगा। एक बार कहा, हज़ार बार कहा, ये काम हरगिज़ हरगिज़ मैं जो है, ख़ुद नहीं कर सकता। क्यों नहीं कर सकता, तू मेरी जान है, फिर भी तुझे नहीं बता सकता। अब फिर जो है, वजह जानने की जि़द की तो पेंदा ठोक दूँगा।”
“सॉरी, डार्लिंग। सॉरी फ़्रॉम कोर ऑफ़ माई हार्ट।”
“दिखा।”
“क्या?”
“अपने हार्ट की कोर!”
वो ज़ोर से हँसी। अश्लील हँसी।
“एक बार ये मौजूदा बखेड़ा निपट जाए, फिर जो जी में आए, देखना।”
“ठीक है।”
“डील के तहत अपने हिस्से का काम करता अगर वो पकड़ा गया?”
“पकड़ा ही जाएगा। फिर निकल भागने की कोशिश में जो है, जान से जाएगा।”
“तो ये इरादे हैं?”
“हाँ। लेकिन जो सोचा है, वो तभी अमल में आएगा जबकि उसके यहाँ कदम पड़ेंगे।”
“अभी तक उसे आ नहीं जाना चाहिए था?”
“आ जाएगा। कहीं ट्रैफि़क में फंस गया होगा।”
“मैं तो बोर हो गई! मेरे से इंतज़ार नहीं होता।”
“तेरे से कुछ भी नहीं होता। हार्ट की कोर भी जो है, नहीं दिखाई जाती।”
“कोर देखनी है या” – वो इठलाई – “कोर के बहाने वो ग्लोबल कन्टेनर देखना है जिसमें हार्ट का मुकाम होता है? हार्ट की कोर का मुकाम होता है?”
वो हँसा।
“साली लुच्ची!” – फिर प्रशंसात्मक स्वर में बोला।
युवती ने हँसी में उसका साथ दिया, फिर – जैसे उसको रिझाने के लिए – दोनों हाथ सिर से ऊपर उठाकर, धनुष की तरह जिस्म को खम देकर ज़ोर से अंगड़ाई ली। यूँ उसका सिर स्वयमेव ही ऊपर को उठ गया।
“वो ऊपर क्या है?” – एकाएक वो बोली।
“कहाँ?” – पुरुष ने तनिक सकपकाते हुए पूछा।
“ऐन हमारे सिरों के ऊपर!”
“क्या है?”
“मैं तुमसे पूछ रही हूँ। कुछ हवा में लटका-सा जान पड़ रहा है!”
“मकड़ी है।”
“इतनी छोटी नहीं होती मकड़ी।”
“उसका बच्चा होगा! अपनी लार से जो है, यूँ ही लटकता है।”
“डोंट टाॅक नाॅनसेंस! ऊपर एक खिड़की का एक पल्ला खुला है। उसी में से धागे से बंधा कुछ लटक रहा है। ऊपर कोई है।”
पुरुष को युवती की बात पर ऐतबार आता न लगा।
“काल्या! नित्या!” – एकाएक युवती उच्च स्वर में बोली – “ऊपर कोई है। दौड़ कर ऊपर जाओ। जो दिखाई दे, उसे शूट कर दो। जो होगा, साहब भुगत लेंगे।”
पुरुष ने सहमति में सिर हिलाया
विमल को सीढ़ियों पर धम्म-धम्म पड़ते भारी कदमों की आवाज़ सुनाई दी।
उसने फुर्ती से धागा वापिस खींचा, ट्रांसमिटर समेत उसे जेब के हवाले किया और िखड़की को पूर्ववत् बंद किया।
वो उठ कर सीधा हुआ, उसने व्याकुल भाव से परे मुंडेर की तरफ देखा। सीढ़ियों पर पड़ते कदमों की आवाज़ बता रही थी कि कोई छत पर पहुँचा कि पहुँचा। मुंडेर तक पहुँचने का ख़याल छोड़ कर तुरन्त वो खिड़कियों वाले चबूतरे की छत पर चढ़ गया और डोम और छत के सिरे के बीच की परकोटे जैसी कोई दो-ढाई फुट चौड़ी राहदारी में औंधे मुँह लेट गया।
सीढ़ियाँ दायीं ओर थीं, भड़ाक से उनके दहाने का दरवाज़ा खुला। रौशनी की एक आयत उसके सामने चौड़ी छत पर पड़ी। फिर दो आदमियों ने वहाँ कदम रखा। रौशनी का साधन क्योंकि उनके पीछे था इसलिए वो हिलते-डुलते काले साये ही जान पड़ते थे। उस हाल में विमल उनके हाथ न देख पाया लेकिन जब नीचे मौजूद औरत का जो दिखाई दे, उसे शूट कर देने का हुक्म था तो उनमें से एक का, या दोनों का, हथियारबंद होना लाज़मी था।
दोनों कुछ क्षण ठिठके खड़े माहौल का जायज़ा लेते रहे फिर एक डोम के दाएं से और दूसरा बाएं से आगे बढ़ा। वो फ़र्श पर पड़ती रौशनी की आयत से बाहर निकले तो छत के फ़र्श से प्रतिबिम्बित होती रौशनी में विमल को लगा कि दोनों के हाथों में गन थी। फिर जैसे वो सावधानी से कदम-कदम आगे बढ़ते रहे, वैसे विमल संकरी छत पर उनसे विपरीत दिशा में आगे रेंगता रहा। यूँ वो छत के खुले दरवाज़े के सामने तक पहुँच गया। वो गर्दन घुमा कर दाएं वाले गनर की तसदीक कर सकता था कि वो अभी चौड़ी छत पर लम्बाई के रुख ही था या आगे मोड़ काट गया था! वो कुछ क्षण उसे चौड़ी छत के आखिरी सिरे पर दिखाई दिया फिर दिखना बंद हो गया।
विमल संकरी छत पर से निशब्द नीचे चौड़ी छत पर कूद गया।
अब उसके सामने फ़र्श पर पड़ती रौशनी की आयत थी और सीढ़ियों का खुला दरवाज़ा था।
रौशनी की आयत से बचता वो दरवाज़े के बाजू की दीवार तक पहुँचा।
आगे आर या पार जैसा काम था।
दोनों गनर्स में से किसी को वो सीढ़ियों के दहाने पर दिखाई दे जाता तो निशानेबाज़ी के लिहाज़ से उसका दर्जा ‘सिटिंग डक’ का होता।
दूसरा कोई चारा नहीं था।
उसने सावधानी से पीछे देखते आगे कदम बढ़ाया, दरवाज़े की चौखट पर पहुँचा और निशब्द सीढ़ियाँ उतर गया।
ज़ाहिर था कि पुरुष ने या महिला ने अपने गनर्स को मॉनीटर करने के लिए उनके पीछे आना ज़रूरी नहीं समझा था।
उसने अपने आजू-बाजू, सामने देखा तो ख़ुद को एक बहुत बड़े बरामदे में पाया जिसमें कई बंद दरवाज़े थे। उनमें से एक दरवाज़ा अधखुला था, रौशन था और ज़रूर वही डोम के नीचे के गोल ड्राईंगरूम का था। बड़े बरामदे के सामने एक लॉन था जिसके बाएं कोने में बंगले का लोहे का आयरन गेट था। आयरन गेट के बाजू में वाचमैन बॉक्स के भीतर कोई था या नहीं, कहना मुहाल था।
वहाँ से बाहर निकलने की कोशिश करना आत्मघाती कदम होता। औरत का प्यादों काे हुक्म अभी भी उसके कानों में गूँज रहा था – ‘जो दिखाई दे, उसे शूट कर दो’। वाचमैन बॉक्स में कोई वाचमैन होता और बाकी दो मवालियों के अंदाज़ से हथियारबंद होता और वो विमल को वहाँ से बाहर निकला जाता देखता तो यकीनन उस पर गोली चला देता। फिर जो होता, ‘साहब’ भुगत लेते।
वैसे भी, उसे याद आया, जब वो इरफ़ान के साथ बाहर सड़क पर था तो उसे अहसास हुआ था कि रौशन वाचमैन बॉक्स में कोई था – कोई था इसीलिए बॉक्स रौशन था।
उसने अपने कपड़े व्यवस्थित किए और मज़बूत कदमों से चलता रौशन दरवाज़े पर पहुँचा।
वो दोनों वैसे ही वहाँ विराजमान थे जैसे उसने उन्हें ऊपर रौशनदान से देखा था। अलबत्ता अब ड्रिंक्स की तरफ उनकी कोई तवज्जो नहीं थी।
विमल ने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ भीतर कदम रखा और चहकता-सा बोला – “हल्लो! सॉरी, आयम लेट!”
दोनों बुरी तरह से चौंके, उन्होंने मुँह बाए आगन्तुक की ओर देखा।
“जाम में फंस गया इसलिए लेट हो गया।”
“तुम” – महिला के मुँह से निकला – “तुम . . .”
“जेम्स दयाल!”
“. . . भीतर कैसे आए?”
“आउटर गेट खुला था। उसके एक पिलर पर मेरे को कालबैल का बटन दिखाई दिया। मैंने कालबैल बजाई तो कोई गेट पर न आया। वाचमैन का बॉक्स भी मैंने खाली पाया . . .”
“वो . . . वो किसी काम से छत पर गया था।”
यानी ऊपर पहुँचे दो गनर्स में से एक वाचमैन था! वाचमैन बॉक्स खाली था।
“. . . मैं भीतर आ गया। भीतर आकर ‘कोई है’ की पुकार लगाई . . .”
“हमें तो न सुनाई दी!” – वो पुरुष की तरफ घूमी – “क्यों, जी?”
पुरुष ने इंकार में सिर हिलाया।
“. . . फिर मैंने ये दरवाज़ा भी खुला पाया जिसमें मैंने अभी यहाँ कदम रखा। सो हेयर आई एम। जेम्स दयाल ऐट युअर सर्विस।”
दोनों ने फिर एक-दूसरे का मुँह देखा।
“क्या बात है?”– विमल हैरानी जताता बोला – “मेरे को फोन करके किसी ने यहाँ आने को बोला। बोला, अगर मैं मिस्टर क्वीन से मिलना चाहता था तो मैं यहाँ आ जाऊं। मैं मिलना चाहता था, मैं यहाँ आ गया।”
“काल कैसे पहुँची थी तुम्हारे पास?” – महिला बोली।
परख रही थी। इम्तहान ले रही थी।
“मेरे पास नहीं पहुँची थी। स्टीवॉर्ड कौशिक ने मेरे को एक मोबाइल सौंपा था और बोला था उस पर मेरे लिए काल थी।”
“तुम वो आदमी हो जो बुधवार रात को ‘शंघाई मून’ में जमशेद कड़ावाला से मिले थे?”
“हाँ।”
“जेम्स दयाल!”
“अभी बोला न मैं! जेम्स दयाल!”
फिर ख़ामोशी छा गई।
‘‘मैं’’ – विमल शुष्क स्वर में बोला – ‘‘इधर खड़ा होने को आया?’
महिला हड़बड़ाई – “नहीं। नहीं। प्लीज़ कम टेक ए सीट।”
“थैंक्यू!”
विमल संतुलित कदमों से चलता आगे बढ़ा और उनके सामने उन जैसे एक अर्धवृताकार सोफ़े पर बैठा।
तब उसने गौर से दोनों का मुआयना किया।
ख़ासतौर से महिला का जो कि मुजस्सम हुस्न की मिसाल थी। उसे बनाते वक्त ख़ुदा ज़रूर ही उस पर ख़ास मेहरबान रहा था। मजाल थी कि नख से शिख तक कहीं भी कोई नुक्स होता। आवर ग्लास फिगर की मलिका वो कद में कम से कम पौने छ: फुट थी – बैठी हुई थी फिर भी कद का अंदाज़ा उसकी फुट लम्बी गर्दन से हो रहा था। नयन-नक्श ऐसे थे कि फिल्म अभिनेत्रियों को शर्मिंदा करती जान पड़ती थी। रेशमी भूरे बाल चेहरे की खूबसूरती को दोबाला करते जान पड़ते थे। स्लीवलेस, लो-कट ब्लाउज़ के साथ शिफॉन की साड़ी पहने थी और गले, कानों, कलाइयों में सुरुचिपूर्ण, कीमती जे़वर पहने थी।
पुरुष विमल की ख़ुद की उम्र से थोड़ा ही बड़ा था जो पोशाक और रखरखाव में महिला जैसा ही माॅडर्न, फै़शनेबल और शौकीन जान पड़ता था। वो सफेद लिनन के किसी आला टेलर के बनाए सूट के साथ लाल टाई लगाए था और वैसे ही लाल रूमाल की तिकोण उसके कोट की ऊपरी जेब में मौजूद थी। टाई में क्लिप लगाने का रिवाज़ कब का रुख़सत हो चुका था पर वो टाई में डायमंड-स्टडिड सोने का क्लिप लगाए था। उसके पैरों में सूट से मैच करते पेटेंट लैदर के सफेद जूते थे जिन्हें वो सफेद जुर्राबों के साथ पहने था। उसकी बाईं कलाई में रौलेक्स की घड़ी थी और दाईं कलाई में सोने का, जंजीर के डिजाइन का भारी आइडेंटिटी ब्रेसलेट था।
विमल को वो बाराती डिस्पले खटका।
दोनों के कपड़े घर बैठ के पहनने वाले नहीं थे। ऐसी सजधज में कोई तभी दिखाई देता था जब कहीं जाने की तैयारी हो या कहीं से लौटकर आया हो।
“मिस्टर दयाल” – बिग ब्रेस्ट्स बोली – “वुड यू जाॅयन अस फ़ॉर ए ड्रिंक!”
“आई वोंट माइन्ड, मैडम।” – विमल बोला – “लेकिन पहले मुझे पता तो लगे कि मैं किनके साथ ये फ़ख्र हासिल करने जा रहा हूँ!”
इससे पहले महिला जवाब में कुछ कह पाती, दो लंबे-तड़ंगे कड़ियल जवान, जो शक्ल से ही मवाली लग रहे थे, भीतर आए।
“मैडम” – एक बोला – “ऊपर तो . . .”
वो एकाएक ख़ामोश हो गया।
प्रत्यक्षत: ख़ामोशी की ताकीद करता कोई गुप्त इशारा उसे मिला था।
“एक्सक्यूज़ मी” – महिला अपने स्थान से उठती बोली – “प्लीज़़ मेक ए ड्रिंक फ़ॉर युअरसैल्फ़।”
पुरुष भी उसके साथ उठा, दोनों मुख्यद्वार की ओर बढ़े जिससे ज़रा भीतर वो दोनों खड़े थे। वो प्रवेशद्वार से आधे रास्ते में थे कि दोनों मवाली बाहर निकल गए, फिर पुरुष और महिला भी उनके पीछे चले तो चारों निगाह से ओझल हो गए।
प्रवेशद्वार का एक पट तब भी खुला था।
बंद पट के पहलू में हुसैन की एक पेंटिंग टंगी हुई थी जो विमल के वहाँ मौजूद होने का माकूल बहाना था।
वो उठकर बंद पट के करीब पहुँचा।
उसे अहसास हुआ कि वो चारों द्वार के परली तरफ उससे ज़्यादा दूर नहीं थे।
“अब बोल, काल्या।” – उसे महिला की आवाज़ सुनाई दी।
“मैडम, ऊपर कोई नहीं था।” – काल्या के नाम से पुकारा जाने वाला शख़्स बोला।
“था ही नहीं या तुम दोनों के ऊपर पहुँचने से पहले निकल गया?”
“था ही नहीं। सारे रोशनदान भी मज़बूती से बंद थे और नहीं लगता था कि कोई खोला गया था।”
“तो वो धागा! उससे बंधी कोई काली-सी चीज़!”
“ऐसा कुछ भी वहाँ नहीं था। मैं बोले तो आपको वहम हुआ!”
“शट अप! जाओ, अपना काम करो।”
दरवाज़े से सोफ़ासैट्स का बहुत फासला था। बाहर से वार्तालाप के एकाएक समापन का जो इशारा मिला था, उसे पाने के बाद वो अपनी सीट तक नहीं पहुँच सकता था, वो आधे रास्ते में ही होता तो दरवाज़े पर से देख लिया जाता। लिहाज़ा वो पूरी तल्लीनता से हुसैन की पेंटिंग का मुआयना करने लगा।
“हल्लो!” – उसे युवती का नाराज़ स्वर सुनाई दिया – “वाट आर यू डूई ंग हेयर?”
“आई वाज़ एडमायरिंग हुसैन, मैम!” – विमल उसकी तरफ घूमकर मीठे स्वर में बोला।
“तुम्हें मैंने उधर बैठकर अपने लिए ड्रिंक बनाने को बोला था!”
“यस, मैम। लेकिन हुसैन की पेंटिंग पर निगाह पड़ी तो मैं अपने आप को रोक न सका पेंटिंग को करीब से देखने से। आई जस्ट कुड नॉट रिज़िस्ट दि टैम्पटेशन टु हैव ए क्लोज़ लुक।”
“इतने फासले से पहचान लिया कि पेंटिंग हुसैन की थी?”
“ये फासला तो कुछ भी नहीं, हुसैन के वर्क को तो मैं मील से पहचान सकता हूँ।”
“बड़े गुणी आदमी हो!”
“ज्ञानी भी।”
“फिर भी स्मगलिंग के कारोबार में हो!”
“इंसानी ज़रूरियात किसी को किसी भी नामुराद कारोबार में धकेल सकती हैं।”
“हम्म! कम, लैट्स सिट।”
तीनों फिर पहले की तरह बैठे। इस बार युवती ने उसके लिए ड्रिंक तैयार किया।
विमल ने ड्रिंक कुबूल किया और गिलास उठाकर चियर्स का इशारा किया।
उन दोनों ने भी मेज पर तिरस्कृत-से पड़े अपने गिलास उठाए।
कुछ क्षण ख़ामोशी रही।
“मैं एक बात अर्ज़ करने की गुस्ताखी करना चाहता हूँ।”
युवती की भवें उठीं।
“मैं यहा ड्रिंक के लिए नहीं आया था। मुझे जहाँ से यहाँ आने को बोला गया था, वहाँ ये काम मैं बड़ा अच्छा-अच्छा कर रहा था। मुझे फोन पर बोला गया था कि अगर मैंने मिस्टर क्वीन से मिलना हो तो मैं यहाँ आ जाऊँ। मैं हाजिर हूँ। बरायमेहरबानी करवाइए मुलाकात मिस्टर क्वीन से।”
“आई एम सॉरी, मिस्टर दयाल।” – युवती खेद प्रकट करती बोली – “आज ये काम मुमकिन नहीं हो पाएगा।”
“दैट्स स्ट्रेंज! ख़ुद बुलाया और ख़ुद ही मुलाकात में फच्चर डाल दिया!”
“हालात ही ऐसे बन गए कि . . .”
“बाई दि वे, फोन मुझे आपने किया था?”
“हाँ।”
“मे आई नो युअर नेम?”
“आयम मिसेज जाधव।”
“मिसेज! श्योर, यू आर नॉट किडिंग?”
वो हँसी। ख़ुश होती हँसी। काॅम्पलीमेंट जो मिला था।
विमल ने पुरुष की तरफ देखा।
“एंड ही इज़ माई हसबैंड।”
“हल्लो, मिस्टर जाधव।”
“हल्लो, युअरसैल्फ।” – वो भावहीन लहज़े से बोला।
“आप हालात के बारे में कुछ कह रही थीं!” – विमल युवती की ओर घूमा – “कैसे बन गए?”
“वो क्या है कि” – युवती बोली – “आपकी तरह मिस्टर क्वीन ने भी यहाँ फासले से आना था। उनके पहुँचने से पहले यहाँ कुछ ऐसा वाकया हुआ कि फाॅर सिक्योरिटी रीज़ंस हमें उनको ख़बरदार करना पड़ा कि वो अपना यहाँ आना कैंसल कर दें।”
“क्या हुआ?”
“यहाँ कोई चोर घुस आया जो कि असासिन भी हो सकता था।”
“मिस्टर क्वीन की जान लेने के लिए?”
“हाँ।”
“मिस्टर क्वीन इतनी ख़तरनाक जिंदगी जीते हैं कि उनको हर वक्त जान का ख़तरा होता है?”
“यही समझ लीजिए।”
“चोर पकड़ा गया?”
“नहीं। लेकिन हैरानी है कि निकल भागने में कामयाब हो गया।”
“आई सी। तो इस वजह से मिस्टर क्वीन का यहाँ आना कैंसल हो गया?”
“जी हाँ।”
“और मेरा आना बेकार गया!”
“इस बार तो ऐसा ही हुआ लेकिन मुलाकात का इन्तज़ाम फिर कर दिया जाएगा।”
“फिर कब?”
“जल्दी ही। दरअसल वो चोर, जिसको हम असासिन समझ रहे हैं, हमें सस्पेंस में डाल रहा है। इसलिए फिलहाल मुलाकात की बाबत कुछ न करना ही मुनासिब कदम जान पड़ता है।”
“आई सी। कुछ करना कब मुनासिब कदम जान पड़ेगा?”
उसने उस बात पर विचार किया। निगाहों में पुरुष से भी मशवरा किया।
“ख़बर आप तक पहुँच जाएगी।” – फिर बोली।
“कैसे?” – विमल ने पूछा।
“कड़ावाला के ज़रिए। उससे कॉन्टैक्ट बनाए रख के।”
“लिहाज़ा आइन्दा मुलाकात होगी तो कड़ावाला की मार्फ़त होगी?”
“नहीं, भई। कड़ावाला से तुम्हें मुलाकात के शेड्यूल की ख़बर लगेगी। उससे उस बाबत गाहेबगाहे पूछताछ करते रहना।”
जैसे लाल मेजपोश वाली टेबल को निगाह में रखते रहना था।
“अन्दाज़न कब मुलाकात का सबब बनेगा?”
“ज़्यादा वक्त नहीं लगेगा। बस तीन या चार दिन।”
“ये ज़्यादा वक्त नहीं?”
“नहीं।”
“इतने बिज़ी रहते हैं मिस्टर क्वीन!”
“हाँ।”
“लेकिन मेरे को तो अप्वायंटमेंट दे चुके थे! ख़ुद उन्होंने पोस्टपोन की! इस लिहाज़ से तो मुलाकात में – पहले से प्लांड मुलाकात में – इतना टाइम नहीं लगना चाहिए!”
“मिस्टर क्वीन की कल के लिए या परसों के लिए पहले से कमिटिड और ऐंगेजमेंट्स हो सकती हैं . . .”
साली मवाली को अम्बानी साबित करने की कोशिश कर रही थी।
“हो सकती हैं। लेकिन कोई एकाध कैंसल भी तो हो सकती है, जैसे अभी मेरी हो रही है! कल किसी कैंसल्ड अप्वायंटमेंट की जगह वो मुझे अकामोडेट कर सकते हैं!”
“उनके ऐसे शेल्यूल्ज़ की इधर ख़बर नहीं होती।”
“आई सी। बाई दि वे, मिस्टर क्वीन की गैंग में क्या हैसियत है?”
“जब मुलाकात होगी तो वो ख़ुद बोलेंगे।”
“कोई बड़ी हैसियत ही होगी! तभी तो इतने बिज़ी रहते हैं?”
“यू सैड इट।”
“किनसे मिलने में इतने बिजी रहते हैं? मेरे जैसे किसी स्मगलर से, किसी एक्सटॉर्शनिस्ट से . . .”
“मिस्टर दयाल!” – उसने गुस्से से विमल की बात काटी।
“नाराज़ होने की क्या बात है! कोई कारपोरेट बिग बॉस तो नहीं है न मिस्टर क्वीन!”
“तुम्हें क्या मालूम!”
“यू आर राइट देयर। आई टेक माई वर्ड्स बैक।”
“यस, यू डिड राइट। किसी के बारे में ऐसा बेमुरव्वत होकर बोलना आपके लिए प्रॉब्लम खड़ी कर सकता है।”
“आयम सॉरी आॅलरेडी!”
“यस, ओके।”
“आपने फरमाया मेरी मिस्टर क्वीन से मुलाकात होगी तो वो ख़ुद बोलेंगे कि गैंग में उनकी क्या हैसियत थी। नो?”
“यस।”
“आपसे तो हो रही है! मिस्टर जाधव से तो हो रही है!”
“तो?”
“आप तो रूबरू हैं, आप तो बता सकती हैं आपकी गैंग में क्या हैसियत है! आपके हसबैंड की गैंग में क्या हैसियत है!”
“मिस्टर क्वीन के मुकाबले में हमारी हैसियत मामूली है, ज़िक्र के काबिल नहीं।”
“आई सी। मुझे ख़ुशी होती अगरचे कि मिस्टर क्वीन से मेरी मुलाकात जल्दी हो पाती।”
“मुमकिन नहीं।”
“मसलन कल ही। इसी जगह। इसी वक्त।”
“बोला न, मुमकिन नहीं!”
“क्यों मुमकिन नहीं? मिस्टर क्वीन की मुलाकातों की मसरूफ़ियात तो दिन में चलती होंगी न! इतनी रात गए मुलाकात में क्या प्रॉब्लम है!”
“है एक प्रॉब्लम! जुदा किस्म की प्रॉब्लम!”
“क्या?”
“समझो, महूर्त बिगड़ गया। खीर में मक्खी पड़ गई।”
“यानी मुलाकात आख़िर होगी तो किसी नई जगह होगी!”
“करैक्ट।”
“मुलाकात जल्दी हो पाती तो अहसान होता . . .”
“अब एक ही बात बार-बार मत दोहराते जाओ।”
“. . . मैं जितनी देर हेरोइन को ठिकाने लगाने में लगाऊंगा, उतना ही माल के पकड़े जाने का रिस्क बढ़ेगा।”
“हमें ख़ुद जल्दी है। आख़िर एक ही डील के हवाले बने रहना तो ठीक नहीं होता न!”
“ओके। आइल वेट।”
“दि बैस्ट।”
“एक सवाल पूछ सकता हूँ?”
“पूछो।”
“आपके हसबैंड अजनबियों से बात करना पसंद नहीं करते?”
“मतलब?”
“जब से आया हूँ, मेरे से ‘हल्लो’ के अलावा एक अक्षर नहीं बोले!”
“अच्छा! वो, भई, आज ही शाम दाढ़ निकलवा के आए हैं। इसलिए . . .”
वो ख़ामोश हो गई।
दो मवालियों में से एक भीतर दाखिल हो रहा था।
“क्या है, काल्या?”
“बाहर एक टैक्सी ड्राइवर है।” – मवाली काल्या बोला – “बोलता है इधर पैसेंजर लेकर आया। पैसेंजर से बात करना माँगता है।”
युवती ने विमल की तरफ देखा।
“बुला।” – विमल अधिकारपूर्ण स्वर में बोला।
काल्या गया और इरफ़ान के साथ लौटा।
इरफ़ान ने अपने सामने जनरल अभिवादन उछाला फिर विमल से बोला – “बाप, अगर इधर तुम्हेरे को टेम लगने का तो मैं खाना खाके आए?”
“नहीं।” – विमल ने गिलास खाली किया और उठ खड़ा हुआ – “मैं चल रहा हूँ।”
“वन फ़ॉर दि रोड, मिस्टर दयाल?” – युवती बोली।
“नो, मैम, वन इज़ इनफ़। आई आॅलरेडी टुक ए कपल ऐट युअर नाइट क्लब।”
“आई सी।”
“थैंक्यू, मैम। थैंक्यू, मिस्टर जाधव।”
पुरुष ने तब भी जवाब न दिया।
विमल बाहर की ओर बढ़ा और दरवाज़े पर पहुँच कर इरफ़ान के साथ हो लिया।
“वाट द हैल!” – पीछे युवती भुनभुनाई – “ये क्या किया तुमने?”
“ठीक किया।” – पुरुष संजीदा लहज़े से बोला, उस घड़ी उसकी सूरत भी संजीदा थी।
“क्या ठीक किया! जिस शख़्स से मुलाकात के लिए यहाँ मौजूद थे, जिसके सदके तुम इतनी बड़ी स्कीम कारगर करने वाले थे, तुम्हारे ही लिए वो इधर बुलाया गया तो तुमने मुँह में दही जमा ली! उसने इस बाबत तुम्हें टोका तो मुझे झूठ कहना पड़ा कि तुमने दाढ़ निकलवाई थी।”
“नहीं कहना था। कोई इम्पॉर्टेंट मीटिंग के लिए कहीं पहुँचता है तो पहले जो है, डेंटिस्ट से दाढ़ निकलवाने जाता है!”
“चलो, वो मेरी गलती सही, मुझे कोई और वजह सोचनी चाहिए थी लेकिन बात क्यों न की? उसकी हेरोइन छीनने के मंसूबे के तहत पहला कदम क्यों न उठाया?”
“बोलता हूँ। पहले तुम बोलो, ऊपर कोई था या नहीं था?”
“काल्या कहता है नहीं था।”
“तुम्हें उसकी रिपोर्ट से इत्तफ़ाक है?”
“जब सीढ़ियों के अलावा ऊपर से निकल जाने का कोई रास्ता ही नहीं तो काल्या की बात पर ऐतबार लाना पड़ा न!”
“वो काली-सी चीज जो धागे के सहारे रोशनदान से जो है, नीचे लटकी तुमने देखी थी, उसके बारे में क्या कहती हो?”
उसने कुछ क्षण उस बात पर विचार किया।
“डोम बहुत ऊंचा है।” – फिर बोली – “नीचे की रौशनी ऊपर तक नहीं पहुँचती और जब काल्या कहता है कि उसने ऊपर की तमाम खिड़कियाँ बंद पाई थीं तो हो सकता है जो मैंने देखा, समझा, वो मेरा वहम हो।”
“खिड़की पूरी न खुली हो, ज़रा सा उसका पल्ला, जो है अपने फ्रेम से सरका हुआ हो तो इतनी हाइट से ऐसा हुआ होना जो है, तुझे पता लगेगा?”
“मुश्किल है।”
“कोई धागा नीचे लटकाना हो तो खिड़की जो है, कितनी खोलनी पड़ती है?”
“मामूली-सी!”
“फिर भी तारीफ है तेरी तीखी निगाह की कि वो ज़रा सी खुली खिड़की जो है, तेरे नोटिस में आई!”
“अरे, क्यों कलपा रहे हो? साफ बोलो, क्या कहना चाहते हो?”
“कह चुका। तुम्हारी तीखी निगाह की तारीफ़ कर चुका।”
“खिड़की खुली थी? वहाँ से धागे के सहारे कोई छोटी-सी, काली-सी चीज़ नीचे लटकाई गई थी?”
“हाँ।”
“तुम तो कहते थे मकड़ी का बच्चा था, अपनी लार के सहारे नीचे लटक रहा था!”
“अब नहीं कहता।”
“अब क्या कहते हो?”
“ऊपर कोई था। और वो उसी का कोई करतब था।”
“कैसा करतब?”
“नहीं मालूम। मेरी समझ से बाहर है।”
“शुक्र है कोई तो चीज़ है जो तुम्हारी समझ से बाहर है। लेकिन ये समझ के अंदर है कि ऊपर कोई था!”
“हाँ।”
“जब सीढ़ियों के अलावा छत से निकासी का कोई रास्ता ही नहीं तो किधर से निकला?”
“सीढ़ियों से ही निकला।”
“क्या!”
“जब काल्या और नित्या उसे छत पर तलाश कर रहे थे तो उनकी पीठ पीछे सीढ़ियाँ उतर गया।”
“इतनी दिलेरी!”
“और आकर जो है, हमारे सामने बैठ गया।”
युवती के मुँह से बोल न फूटा, वो भौंचक्की-सी पुरुष का मुँह देखने लगी।
“उसकी यहाँ एेंट्री को रीकंस्ट्रक्ट करके देख, उसकी यहाँ ऐंट्री का अक्स जो है, अपने ज़ेहन पर उबार कर देख, फिर तेरे को अहसास होगा कि वो टैक्सी में उतर कर जो है, आउटर गेट से भीतर आया हो ही नहीं सकता था। इस इलाके के रात के सन्नाटे में टैक्सी के यहाँ पहुँचने की, आउटर गेट पर आकर रुकने की जो है, आवाज़ आती है। तुझे आई?”
उसका सिर स्वयमेव इंकार में हिला।
“नहीं आई। क्योंकि वो टैक्सी से उतर कर एक्सपैक्टिड गैस्ट की तरह जो है, अपनी आमद की हाजिरी लगाता यहाँ नहीं आया था, छत पर से दबे पांव सीढ़ियां उतर कर यहाँ आया था।”
“पहुँचा कैसे?” – युवती के मुँह से निकला।
“तफ़्तीश का मुद्दा है।”
“फ़्रंट से। रेगुलर ऐन्ट्रेंस से?”
“नहीं। तब काल्या गेट पर था और नित्या जो है, बाहर बरामदे में था।”
“तो?”
“उसकी छत पर अप्रोच अभी समझ से बाहर है। बहुत मुमकिन है बैक अप के साथ आया हो और बैक अप ने उसे छत पर जो है, पहुँचाने की कोई जुगत की हो!”
“एक मामूली हेरोइन स्मगलर, एक भगोड़ा हेरोइन स्मगलर बैक अप के साथ इधर आया!”
“उड़कर तो छत पर न पहुँचा!”
“कौशिक कहता था वो नाइट क्लब में अकेला था!”
“भीतर अकेला था। बाहर का उसे क्या पता!”
“तुम मुझे सस्पेंस में डाल रहे हो।”
“मैं ख़ुद सस्पेंस में हूँ।”
“ओके, वो बैक अप के साथ आया, बैक अप की मदद से छत पर पहुँचा। ऊपर के रोशनदानों के ज़रिए हमारे पर जासूसी करने की कोशिश की क्योंकि वो हमारी बाबत कुछ जानकर, कुछ समझ कर मुलाकात के लिए हाजि़र होना चाहता था। अब वो कैसे भी हुआ, हाजि़र तो हुआ न! स्टीवॉर्ड कौशिक ने तसदीक की कि वो वही शख़्स था जो बुधवार रात को भी क्लब में आया था और तभी उसे यहाँ बात करने के लिए मोबाइल थमाया था। वो शख़्स तुम्हारे सामने बैठा था, उससे अपने मतलब की बात करने में क्या हर्ज था?”
“हर्ज था।”
“क्या?”
“वो जो कहता था वो था, वो नहीं था।”
“पहेलियाँ बुझा रहे हो।”
“वो सोहल था।”
युवती जैसे आसमान से गिरी। उसका मुँह खुले का खुला रह गया।
कई क्षण उसका यही हाल रहा, फिर वो संभली और बोली – “फेंक रहे हो!”
“तू कुछ भी कह लेकिन जो मैं बोला, वही दुरुस्त है।”
“देखो, सोहल से और उसकी मशहूरी से मैं भी वाकिफ़ हूँ क्योंकि तुम्हारी सोहबत में, तुम लोगों की भद्दी जुबान में गैंगस्टर्स मौल कहलाती हूँ। मेरे को तो वो किधर से भी सोहल न लगा!”
“हमारे रूबरू होने के मामले में जो दिलेर हरकत उसने की थी, वो सोहल जैसा ही कोई शख़्स कर सकता था।”
“छ:-सात महीने से अंडरवर्ल्ड में अफवाह है कि सोहल हमेशा के लिए मुम्बई छोड़ गया था।”
“या वो अफवाह गलत थी या वो जो है, जा के लौट आया था।”
“फिर ‘हमेशा के लिए’ का क्या मतलब हुआ?”
“गया इसी मंसूबे के साथ होगा लेकिन कोई ख़ास वजह होगी लौट आने की!”
“ ‘कम्पनी’ ने कभी सोहल की अंडरवर्ल्ड में तस्वीरें बंटवाई थीं जिसके तहत सोहल को पकड़वाने या उसका अता-पता बताने वाले या वालों के लिए बड़े-बड़े ईनामों का ऐलान किया गया था। वैसी एक तस्वीर मैंने भी देखी थी। उसके लिहाज़ से तो ये जेम्स दयाल किधर से भी सोहल नहीं लगता था!”
“क्योंकि बहुरूप अपनाए था। अंडरवर्ल्ड में सोहल की ये खूबी भी जो है, मशहूर है कि वो भेष बदलने में माहिर है। इस वक्त भी वो जो है, भेष बदले जेम्स दयाल बना हुआ था।”
“कमाल है! तुम कैसे पहचानते हो उसे? कभी रूबरू देखा?”
“एक बार, एक बार देखा।”
“कब? कैसे?”
“पहले ये बात समझ कि वैसी नौबत जो है, मेरे साथ क्योंकर आई! वो क्या है कि मेरा पिता मवाली था। ‘कम्पनी’ के तब के बॉस व्यासशंकर गजरे के निजाम में जो है, छोटा-मोटा ओहदेदार था। मेरी माँ नहीं थी, मुझे जन्म देते ही मर गई थी। मैं अपने पिता की इकलौती औलाद था, क्योंकि मेरे पिता ने दोबारा कभी शादी नहीं की थी। तब मेरे पिता के करीबी क्या, दूरदराज़ के भी कोई रिश्तेदार मुम्बई में नहीं रहते थे इसलिए मेरा पिता हमेशा मेरे को अपने साथ रखता था। गजरे के निजाम के दौर में – उससे पहले भी – चर्च गेट पर जो है, ‘बापू बाल घर’ नाम का एक यतीमखाना था जिसे नौशेरवानजी और फिरोज़ा नाम के पारसी पति-पत्नी चलाते थे जिनसे सोहल का जो है, कोई ऐसा मुलाहजा था कि जब भी सोहल को मुम्बई में किसी सेफ़ पनाहगाह की ज़रूरत होती थी, वो जो है, उस यतीमखाने में जाकर छुपता था। ‘कम्पनी’ के टॉप बॉस व्यास शंकर गजरे को इस बात की ख़बर लग गई थी और एक बड़ी फ़ोर्स के साथ जो है, उसने उस अनाथालय पर धावा बोल दिया था। उस बड़ी फ़ोर्स का एक नग जो है, मेरा पिता भी था और उसके हमेशा के दस्तूर की तरह मैं उसके साथ था।”
“कमाल है! तुम्हारे पिता समेत तुम्हें कुछ हो जाता?”
“ऐसी कोई बात तब नहीं थी, क्योंकि सोहल वहाँ अकेला था और गजरे अपनी पूरी फौज के साथ वहाँ पहुँचा था।”
“फौज में तुम्हारा पिता ओहदेदार था और तुम उसके साथ थे। यही बोला न?”
“हाँ।”
“तभी!”
“क्या तभी!”
“तुम्हें ट्रेनिंग दे रहा था अपने जैसा बनाने की! प्रैक्टीकल ट्रेनिंग! आॅन द स्पॉट ट्रेनिंग!”
“क्या बक रही है?”
“पैदायशी मवाली हो।”
“बकवास न कर।”
“अभी भी हो।”
“बोला न, बकवास न कर।”
“ओके, बॉस। आगे?”
“यतीमखाने के कम्पाउन्ड में, जबकि सोहल जो है, निहत्था, बेयारोमददगार गजरे के सामने खड़ा था तो तब मैंने सोहल की सूरत देखी थी जो मैं आज तक नहीं भूला।”
“इस वजह से तुम्हारा दावा है कि जो शख़्स अपने आपको जेम्स दयाल नाम का स्माल टाइम हेरोइन स्मगलर बताता था, जो हमारे साथ ड्रिंक शेयर करके गया, वो सोहल था?”
“हाँ।”
“फ़र्ज करो तुम्हें ये बात नहीं मालूम थी कि असल में वो सोहल था। तब तुम जेम्स दयाल से जो कारोबारी बात करना चाहते थे, जिसके तहत तुम्हारे इरादे बद् थे, वो असल में सोहल से कर रहे होते। नहीं?”
“हाँ।”
“सोहल आठ किलो हेरोइन कहाँ से लाता? इस बात का जवाब ये सोच के देना कि अंडरवर्ल्ड का बच्चा-बच्चा जानता है कि सोहल ड्रग्स के ट्रेड के खिलाफ है।”
वो लाजवाब हो गया।
“यहीं तुम मात खा गए। सोहल को पहचान गए थे तो भी तुम जेम्स दयाल से ही बात करते, उस लाइन पर बात करते जिसका खाका तुम्हारे ज़ेहन में था। जेम्स दयाल आठ किलो हेरोइन के साथ उसका सौदा करने लौट आता तो वो जेम्स दयाल। तब तुम करते उसे मजबूर कि पहले वो तुम्हारा वो काम करता जिसे, बकौल ख़ुद, तुम नहीं कर सकते थे। लेकिन तुम तो मुँह सीके बैठ गए!”
“अरी, मेरी चिड़िया, तू मेरी जो है, तब की हालत न समझी। मेरे को तो जो है, इस ख़याल ने ही सकते में ला दिया था कि मेरे सामने सोहल बैठा था।”
“ये वो शख़्स कह रहा है जो ख़ुद अपनी निगाह में अंडरवर्ल्ड डॉन है, बड़ा गैंगस्टर है!”
“बकवास न कर। सोहल के सामने बड़ों-बड़ों की बोलती बंद हो जाती है।”
वो हँसी।
“फिर वो बैक अप के बिना यहाँ नहीं आया हो सकता था। अब सोचता हूँ तो मेरे को तो वो टैक्सी ड्राइवर भी जो है, उसके बैक अप का हिस्सा जान पड़ता था।”
“टैक्सी ड्राइवर नहीं था, सोहल का प्यादा था?”
“क्या पता लगता है! टैक्सी की ड्राईविंग सीट पर जो है, कोई भी जा बैठे तो टैक्सी ड्राइवर ही तो जान पड़ेगा!”
“वो टैक्सी ड्राइवर की वर्दी पहने था!”
“ये फिल्मों की नगरी है, यहाँ ऐसे साजोसामान चुटकियों में मिलते हैं।”
“ठीक। चलो, माना वो सोहल था, जेम्स दयाल के बहुरूप में सोहल था, तो असल में चाहता क्या था? जवाब हेरोइन के सौदे को फ़्रॉड समझ कर देना।”
“क्या जवाब दूँ? ये बड़ी मिस्ट्री है जिसका कोई हल मेरे को जो है, नहीं सूझ रहा। क्यों सोहल, जिसके नाम की अंडरवर्ल्ड में तूती बोलती है, जिसने बखिया और उसके एम्पायर को खाक में मिला दिया, यहाँ आया? क्यों वो मिस्टन क्वीन से जो है, मिलने को बेकरार था। मेरे को तो बुरे आसार नजर आते हैं।”
“क्या बुरे आसार?”
“वजह कोई भी बने, सोहल जिसके पीछे पड़ जाए, उसकी ख़ैर नहीं।”
“तुम्हारा मतलब है बड़ा बाप उसका मुकाबला नहीं कर सकेगा?”
“अब . . . है तो नहीं ऐसा। लेकिन क्या पता लगता है!”
“तो क्या करोगे?”
“ ‘वेट एण्ड वाॅच’ वाली पॉलिसी अख़्तियार करेंगे और आइन्दा जेम्स दयाल जैसी इनफिल्ट्रेशन की बाबत जो है, ख़बरदार रहेंगे।”
“बिल्कुल सही फैसला किया तुमने।”
“अब ड्रिंक बना। पहले की पी तो पता हीन न लगा, कहाँ गई!”
“यस, सर। वन लार्ज कमिंग अप राइट अवे, सर।”
“कमाल का है, बाप!” – इरफ़ान प्रशंसात्मक स्वर में बोला – “तेरा कोई जोड़ नहीं, तू बेजोड़ है।”
दोनों टैक्सी में फ़्रंट में सवार थे और घर वापिसी की राह पर थे।
विमल हँसा।
“जिस घर में चोरों की तरह घुसा, उसमें घर वालों के साथ बैठा ड्रिंक शेयर कर रयेला था।”
विमल फिर हँसा।
“अल्लाह! इतनी दिलेरी!”
“एकाएक गले पड़ी मुसीबत भी कभी-कभी आदमजात को दिलेर बना देती है।”
“मुसीबत गले पड़ी?”
“हाँ। और ऐसी वैसी नहीं, जान लेकर मानने वाली। मैं छत पर था तो दो ऐसे हथियारबंद मवाली ऊपर आ गए थे जिन्हें जो कोई ऊपर हो, उसे देखते ही शूट कर देने का हुक्म था।”
“कैसे बचा? तमाम किस्सा बयान कर।”
विमल ने किया।
“क्या पहेली सरकाई, बाप!” – वो ख़ामोश हुआ तो इरफ़ान बोला – “नीचू वाला भीड़ू तेरे से कोई ऐसा काम करवाना माँगता था जो वो ख़ुद नहीं कर सकता था पण उसकी जगह वो काम करने वाले की हर मुमकिन मदद करने को तैयार था?”
“हाँ।”
“ऐसा क्या काम था और क्यों ख़ुद वो उसे नहीं कर सकता था?”
“हालांकि उसने कत्ल का नाम नहीं लिया था लेकिन मेरी अक्ल यही कहती है कि वो किसी का कत्ल कराना चाहता था।”
“फिर तो कोई बड़ी बात नहीं कि कत्ल वो ख़ुद नहीं करना चाहता था!”
“क्यों? क्यों नहीं करना चाहता था? वो इतना बड़ा मवाली था, मवालियों के गैंग की बड़ी हस्ती था, कैसे बड़ा बन गया! सरकारी मुलाजमत में था जो वक्त-वक्त पर प्रोमोशन मिलती गईं तो बिग बॉस बन गया!”
“तेरे को क्या मालूम वो बड़ा मवाली था, बिग बॉस था?”
“क्योंकि वो ही मिस्टर क्वीन था।”
“फेंक रहा है। जैसे तूने तमाम किस्सा बयान किया, उस लिहाज़ से यूँ ख़ामोश बैठा भीड़ू, जैसे सांप सूंघ गया हो, किसी गैंग का बड़ा बाप नहीं हो सकता था।”
“साथ मौजूद लड़की कहती थी कि उसने दाढ़ निकलवाई थी।”
“बंडल! तू उसे ख़ुद की उम्र से ज़रा बड़ा भीड़ू बोला। अव्वल तो इतनी कम उम्र में दाढ़ को कुछ होता नहीं, हो तो यही बात तड़पा देती है कि कमउम्री में दाढ़ निकलवानी पड़ी। जिधर की दाढ़ हो, उधर का गाल फूल के बेकरी का पाव हो जाता है। और तू कहता है कि वो तेरे सामने इत्मीनान से बैठा डिरिंक कर रयेला था!”
“वो लड़की ऐसा बोली।”
“झूठ बोली। जब तू कहता है कि वही भीड़ू मिस्टर क्वीन था तो कोई ख़ास वजह थी जो इस्पेशल करके तेरे को बुलाने के बावजूद उसने तेरे से – स्मगलर जेम्स दयाल से – अपने मतलब की कोई बात न की। जब उसके आने से पहले बाई को अपनी स्कीम का खाका खींचकर बताया तो उसको तेरे आने पर तेरे सामने उसे दोहराने में क्या वान्दा था?”
“मालूम नहीं। लेकिन ये बात पक्की है कि मेरे वहाँ पहुँचने पर ही मर्द का ख़याल बदला था वर्ना वो दोनों तो बैठे मेरा इन्तज़ार कर रहे थे और मेरे लेट हो जाने पर फि़क्रमंद होकर दिखा रहे थे। काम उस आदमी का, मुलाकात के लिए मरा वो जा रहा, फिर भी मुलाकात में फच्चर! बोल दिया मेरी तरह मिस्टर क्वीन ने भी फासले से आना था। वो आ रहे थे लेकिन उन्हें रास्ते में ख़बरदार किया जाना पड़ा था कि वो न आएं, मीटिंग को कैंसल जानें क्योंकि एकाएक वो बंगला सिक्योरिटी रिस्क बन गया था। कैसे सिक्योरिटी रिस्क बन गया था? उस युवती को लगा था कि घर में कोई चोर घुस आया था, ऐसे सिक्योरिटी रिस्क बन गया था। गौरतलब बात है कि एक चोर इतने बड़े मवाली के लिए – मिस्टर क्वीन के लिए – सिक्योरिटी रिस्क था . . .”
“जैसे मिस्टर क्वीन शाहरुख था, बिग बी था।”
“. . . जबकि वहाँ दो हथियारबंद प्यादे मौजूद थे जो चोर की तिक्का-बोटी एक कर सकते थे।”
“तिक्का-बोटी! बाप, भूख लगी है ज़ोर की!”
“मेरे को भी लगी है। जहाँ तेरा दिल करे, रोकना।”
“ठीक! मैंने बीच में टोका। क्या कह रहा था?”
“ये कि वो हाथ के हाथ बनाई हुई कहानी थी, असल में कोई नहीं आने वाला था। जिसने आना था, वो आ चुका था, मेरे सामने बैठा था।”
“मिस्टर क्वीन?”
“हाँ।”
“बाहर से आया! उस बंगले में नहीं रहता था!”
“न रहता था, न रहता हो सकता था।”
“बोले तो?”
“वो वहाँ यूँ शान से सूटबूट डाटे बैठा था जैसे किसी बड़ी कम्पनी का सीईओ अपने एग्जीक्यूटिव ऑफ़िस में बैठा हो। रात के वक्त अपने ही घर में कोई यूँ सज के नहीं बैठता, भले ही किसी कितने ही मुअज्जि़ज़ मेहमान को रिसीव करना हो। ये इकलौती बात ही ज़ाहिर करने के लिए काफी थी कि वो कहीं बाहर से वहाँ पहुँचा था।”
“मिस्टर क्वीन?”
“हाँ।”
“गैंग का कोई बड़ा ओहदेदार?”
“हाँ।”
“इतने बड़े गैंगस्टर को भी अपने लिए भाड़े का कातिल, सुपारी किलर अरेंज करने में पिराबलम?”
“कोई प्रॉब्लम नहीं। उसका ऐसी कोई कोशिश न करना ही साबित करता है कि टार्गेट कोई स्पैशल। उसने दस बार ज़ोर देकर युवती को कहा कि कोई ऐसा काम था जिसे वो ख़ुद नहीं कर सकता था लेकिन किसी दूसरे को उसके लिए वो काम करने को तैयार कर सकता था – जैसे मेरी हेरोइन कब्ज़ा कर वो मुझे वो काम करने को मजबूर कर सकता था।”
“काम कत्ल?”
“मेरे को तो यही सूझता है। ये बात भी गौरतलब है कि उसने हर बार कहा कि वो काम वो ख़ुद नहीं कर सकता था, एक बार भी उसके मुँह से ये न निकला कि वो – बड़ा गैंगस्टर – काम कर सकता था, करना नहीं चाहता था, ख़ुद . . . ख़ुद करना नहीं चाहता था।”
“क्यों?”
“वजह तो वही जानता है!”
“हम्म!”
“दूसरी घुंडी ये है कि ख़ुद मुझे बुलाया और फिर मेरे से बात न की। ज़ाहिर किया कि वो और वहाँ उसके साथ मौजूद युवती तो गैंग का छोटा-मोटा हिस्सा थे – मिस्टर और मिसेज़ जाधव थे – मिस्टर क्वीन ने तो अभी वहाँ पहुँचना था।”
“था वही मिस्टर क्वीन जो उधर पहले से बैठेला था? मिस्टर जाधव?”
“मेरी अक्ल तो यही गवाही देती है!”
“आगे बोल। दूसरी घुंडी क्या?”
“दूसरी घुंडी ये कि मुझे सामने पाकर ऐसा क्या – तेरी जुबान में – उसे सांप सूंघ गया था कि जिस मुलाकात की, जिस गुफ़्तगू की इतनी शिद्दत से तैयारी किए बैठा था, उसका आगाज़ तक न किया! जब वो दोनों जने अपने प्यादों काल्या और नित्या से बात करने के लिए ड्राईंगरूम से बाहर चले गए थे तो ज़रूर तभी मर्द ने युवती को ब्रीफ़ किया था कि आइन्दा जो करना था, उसी ने करना था और कैसे करना था। युवती काबिल थी, उसने अपना रोल बड़ी दक्षता से निभाया, मुझे यकीन दिलाया कि उसके साथ बैठा मर्द तो उसका खाविन्द मिस्टर जाधव था। मुझे उस बात पर कतई ऐतबार नहीं आया था क्योंकि लड़की मुझे किसी भी सूरत में शादीशुदा नहीं लगी थी। और ‘जाधव’ नाम भी फर्ज़ी था जो उसने हाथ के हाथ गढ़ लिया था।”
“बोले तो, अगर वो भीड़ू मिस्टर क्वीन नहीं था तो इतना टेम उनके साथ गुज़ार आने के बावजूद तू उनके बारे में कुछ नहीं जानता।”
“कतई कुछ नहीं जानता। इसी वजह से मेरा इरादा कल फिर जुहू के उस बंगले का चक्कर लगाने का है और कुछ खुफ़िया तांक-झांक करके आने का है।”
“वान्दा नहीं। चलेंगे। आगे और क्या करेगा? मिस्टर क्वीन से फिर मुलाकात का इन्तज़ार करेगा?”
“वो मुलाकात अब कभी नहीं होने वाली।”
“तू कहता है ‘शंघाई मून’ के मैनेजर से तेरे को इस बाबत ख़बर मिलेगी!”
“मेरे को ऐसा बोला गया था। लेकिन टालने के लिए बोला गया था। जो मुलाकात अभी कैंसल हो गई थी, उसके फिर वाकया होने की बाबत उसने कुछ तो कहना था, कह दिया मैनेजर जमशेद कड़ावाला से दरयाफ़्त करता रहूँ, मालूम पड़ जाएगा अगली मीटिंग कबकी मुकर्रर हुई!”
“रहेगा दरयाफ़्त करता?”
“नहीं। क्योंकि अब मिस्टर क्वीन फिर मेरे रूबरू नहीं होने वाला होगा। तो मुझे उसकी जगह मिस्टर जाधव दिखाई देगा। तब मेरा – जेम्स दयाल का – कैसे उस पर ऐतबार बनेगा!”
“तो?”
“तो ये कि जेम्स दयाल वाली कहानी को अब किल करना होगा। ‘शंघाई मून’ में फिर कदम रखना भी मेरे लिए भारी पड़ सकता है। अब मिस्टर क्वीन तक पहुँच बनाने की कोई नई तरकीब सोचनी होगी।”
“कहीं मिस्टर क्वीन भी कहानी ही न निकल आए!”
“मुझे उम्मीद नहीं। वहाँ की होस्टेस शेफाली की बाबत मैंने तेरे को बताया था जो बहुत सिंसियरली मेरे से पेश आई थी। मुझे उम्मीद नहीं कि उसने मेरे से कोई झूठ बोला हो। ऐसा होता तो लाल मेजपोश वाली टेबल की बाबत वो मेरे को एसएमएस न करती।”
“यानी मिस्टर क्वीन फर्ज़ी नहीं?”
“नहीं। मैनेजर कड़ावाला से भी इस बात की तसदीक हुई थी।”
“उसका वजूद है! वो गैंग का बिग बॉस है लेकिन कितना बिग है, ये तेरे को मालूम नहीं!”
“हाँ।”
“टॉप बॉस हो सकता है?”
“नहीं। टॉप बॉस का काम हुक्म देना होता है। उसे किसी से कोई काम कराने की मोहताजी नहीं होती। उसका ये कहना नहीं बनता कि फलां काम मैं नहीं कर सकता, उसे कोई दूसरा करे। वो बिना वजह बताए काम किया जाने का हुक्म देगा।”
“ठीक! तो मिस्टर क्वीन टॉप बॉस से नीचे का कोई ओहदेदार?”
“हाँ।”
“पण ज्यास्ती नीचे का नहीं! बोले तो टॉप बॉस के आस-पास की हैसियत वाला भीड़ू?”
“हो सकता है। अब बोल, तू बंगले के भीतर कैसे पहुँच गया था?”
“बाप, मेरे को तेरी फिकर। तू छत पर गया तो उधर तूने बहुत ज्यास्ती टेम लगाया। मैंने फोन इस वास्ते न किया कि घंटी की आवाज़ से तेरी ऊपर मौजूदगी का राज खुलने का खतरा था। मैं छत पर पहुँच नहीं सकता था क्योंकि इस मामले में जैसे मैंने तेरी हैल्प की थी, मेरी हैल्प करने वाला कोई नहीं था। बहुत परेशान हो उठा तो चुपचाप फ़्रंट का चक्कर लगाने निकला। उधर सड़क सुनसान थी और बंगला भी सुनसान ही लगता था पण जब मैंने चारदीवारी से उचक कर भीतर झांका तो वहीं से वहाँ के गोल कमरे में बैठा मेरे को तू दिखाई दिया। चारदीवारी के आगे लॉन था, लॉन के आगे बड़ा बरामदा था, बरामदे के आगे वो गोल कमरा था जिसके दाखिले के रास्ते का एक पट खुला था और आगे वो बहुत बड़ा, रौशन गोल कमरा था। फासला इतना था कि मैंने तेरे को तेरी शक्ल से नहीं, तेरी ड्रैस से और इस्पेशल करके पीक-कैप से पहचाना। तब मेरे को वो इस्टोरी करना सूझा जो मैंने मेन गेट पर वाचमैन बॉक्स में बैैठेले भीड़ू से किया। वो भीतर ख़बर करने गया फिर लौट कर मेरे को साथ ले गया। बाप” – इरफ़ान ने सड़क पर से नज़र हटा कर विमल पर एक तारीफ़ी निगाह डाली – “कोई हौसलामंद हो तो तेरे जैसा! तू उधर गोल कमरे में ऐसे इत्मीनान से बैठेला था जैसे तू बंगले का मालिक था और वो भीड़ू और बाई – बोले तो मिस्टर और मिसेज़ जाधव – तेरे मेहमान थे।”
विमल हँसा।
तभी कैब की रफ्तार घटने लगी।
आगे एक रेस्टोरेंट का साइन बोर्ड चमक रहा था।
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