प्रतापी के चेहरे पर खुशी और उत्तेजना भरी चमक थी।
वो वैन को दौड़ाये जा रहा था।
पव्वा उसकी बगल वाली सीट पर बैठा था।
"सबकुछ कितनी आसानी से हो गया।" पव्वा के होंठ भिंचे हुए थे।
"हमारे कब्जे में 60 करोड़ रुपया है।" प्रतापी ने हँसकर कहा।
"हमें साढ़े सात- साढ़े सात ही मिलना है।" पव्वे ने कहा।
"बहुत है। इतने में मेरी जिन्दगी आराम से कट जायेगी।" प्रतापी बोला।
"वैन को चलाने में ध्यान दे। कहीं ठोक मत देना।"
"चिन्ता मत कर। मेरे से कभी एक्सीडेंट नहीं होता। वैसे देवराज चौहान कमाल का बंदा है। वरना हम तो वैन पर कब्जा करने की सोच भी नहीं सकते थे। सच में सबकुछ आसानी से हो गया।"
"मैं सोच रहा था कि शायद लालसिंह लॉक न खोल सके।"
"डर तो मुझे भी था। परन्तु काम हो गया।" प्रतापी ने हँसकर कहा।
"ज्यादा खुश न हो अभी...।"
"क्यों?"
"पहले ठिकाने पर पहुँच। ये खबर फैल गई होगी कि कोई बैंक वैन ले भागा है। पुलिस चौकन्नी हो रही होगी। रास्ते में कहीं पुलिस से भिड़ गए तो लेने के देने पड़ जायेंगे। भागने भी नहीं देगी पुलिस। एकदम से फायरिंग शुरू हो जायेगी। अधिकतर लोग इस तरह मारे जाते हैं।"।पव्वे ने गम्भीर स्वर में कहा।
"जब तक स्टेयरिंग मेरे हाथ में है, तब तक सब ठीक रहेगा।" मैं एक्सपर्ट ड्राइवर हूँ।"
"जब गोलियाँ चलेंगी तो तब देखूँगा तेरी ड्राइविंग को।"
"ऐसी बात मत कह। सब ठीक रहेगा।"
वैन तेजी से दौड़ी जा रही थी।
अभी सूनसान सड़क वाला रास्ता ही चल रहा था। इस तरफ बहुत कम ट्रैफिक था।
तभी उनके कानों में आहट पड़ी।
पव्वा चौंका।
प्रतापी गाड़ी चलाता कह उठा---
"ये आवाज कहाँ से आई?"
"वैन में से ही आई है। पीछे से।"पव्वा बोला--- "पाँच स्टील के बॉक्स हैं नोटों से भरे। कोई आपस में टकराया होगा।"
"वैन को तेज भी तो दौड़ा रहा हूँ।" प्रतापी हँसा।
तभी पव्वे की निगाह, प्रतापी के सिर के पास बनी तीन इंची खिड़की पर पड़ी।
"पीछे बात करने के लिए खिड़की जैसा सुराख है।" पव्वे के होंठों से निकला।
"भीतर कोई है तो नहीं।"
"क्या पता...।" पव्वा अपनी जगह से उठा और उस नन्हीं सी खिड़की पर आँख लगाकर देखा।
परन्तु भीतर घुप्प अँधेरे के अलावा कुछ न दिखा।
पव्वे ने वहाँ से आँख हटाई और बोला---
"भीतर कोई है।"
जवाब में कुछ भी सुनने को नहीं मिला।
पव्वे ने खिड़की के ऊपर लगा ढक्कन सरका दिया। अब वो बंद हो गई।
"कोई नहीं है। पव्वा वापस अपनी सीट पर बैठता बोला--- "भीतर सिर्फ 60 करोड़ हैं। जो बात नहीं करते।"
प्रतापी हँस पड़ा।
तभी भीतर से पुनः मध्यम सी आहट उभरी।
दोनों की नजरें मिलीं।
"पव्वे!" प्रतापी का स्वर तेज हो गया--- "भीतर कोई है।" पव्वे के होंठ भिंच चुके थे।
"तू कुछ कहता क्यों नहीं?"
"ठिकाने पर पहुँच। वहीं पर कुछ सोचेंगे।" पव्वे ने सख्त स्वर में कहा।
"नोट निकालने के लिए वैन का पिछला दरवाजा खोला तो वो गोलियाँ चला देगा।"
"बोला तो, ठिकाने पर पहुँच। वहीं चल कर इसका कोई इलाज सोचेंगें।"
"खामखाह की मुसीबत आ गई...।" प्रतापी स्टेयरिंग पर हाथ मारता कह उठा।
"मैंने पहले ही कहा था कि ज्यादा खुश मत हो। मुसीबतें इसी तरह चुपके से आ जाती हैं और...।"
"वो देख--- जगमोहन!" प्रतापी के होंठों से तेज स्वर निकला।
तब तक पव्वा भी जगमोहन को देख चुका था।
जगमोहन सड़क के बीचो-बीच खड़ा वैन रोकने का इशारा कर रहा था।
पव्वे की आँखें सिकुड़ गईं।
प्रतापी वैन की रफ्तार कम करने लग गया।
"इसे कैसे पता कि हम इधर से वैन लेकर आ रहे हैं?" पव्वा कह उठा।
"क्यों नहीं पता होगा...।" प्रतापी ने वैन धीमी करते हुए कहा--- "सब योजना इसे तो पता थी।"
"लेकिन ये कल कहाँ गायब हो गया... और अब मौके पर सामने आ गया।" पव्वे की निगाह हर तरफ गई।
जगमोहन अकेला ही लगा उसे।
वैन अब बेहद धीमी हो गई थी और जगमोहन के पास पहुँचने जा रही थी। जगमोहन दोनों हाथ ऊपर उठाये अभी तक वैन को रुकने का इशारा किए जा रहा था।
"ये हमारी योजना में शामिल नहीं है प्रतापी।" पव्वा कह उठा।
"क्या मतलब?"
"जगमोहन का इस तरह रास्ते में मिलना और उसे वैन में बिठाना... हमारी योजना में शामिल नहीं है।"
"कैसी अजीब बात कर रहा है? ये जगमोहन है। देवराज चौहान का साथी। देवराज चौहान जगमोहन को देखकर खुश हो जायेगा। हमारा वक्त भी बचा। वरना हमने इस काम के बाद जगमोहन की तलाश में लग जाना था।"
पव्वे की एकटक निगाह जगमोहन पर थी।
"मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा...।"
तब तक प्रतापी ने जगमोहन के पास सड़क किनारे वैन रोक दी थी और बोला---"तू पागल है। जगमोहन पर शक कर रहा है?"
जगमोहन जल्दी से वैन के दरवाजे के पास पहुँचा।
पव्वे ने दरवाजा खोला और कह उठा---
"तू कल कहाँ गायब हो गया था?"
"मुसीबत में पड़ गया था...।"
"कैसी मुसीबत?"
"जल्दी से नीचे उतर--- बाहर आ।"
"बाहर?" पव्वे के चेहरे पर अजीब से भाव उभरे--- "वक्त नहीं है, तू अन्दर आ जा... जल्दी कर।"
तभी जगमोहन ने पव्वे की बाँह पकड़ी और तीव्रता से अपनी तरफ खींचा उसे।
ये सब अचानक हुआ।
पव्वा खुद को संभाल नहीं सका और वैन के बाहर आ गिरा।
"ये क्या कर रहा है?" स्टेयरिंग सीट पर बैठा प्रतापी ऊँचे स्वर में कह उठा।
तभी प्रतापी की तरफ का दरवाजा खुला। प्रतापी ने चौंककर उधर देखा।
वहाँ सुदेश खड़ा था। सुदेश के पीछे अम्बा हाथ में रिवाल्वर लिए था।
प्रतापी की आँख फैल गई।
सुदेश ने प्रतापी को मौका दिए बिना बाहर खींच लिया और फौरन वैन में प्रवेश कर गया और स्टेयरिंग सीट पर जा बैठा। वैन बंद हो चुकी थी। उसे पुनः स्टार्ट किया।
उधर पव्वा नीचे गिरते ही उछल कर खड़ा हुआ। वो हड़बड़ाहट में था।
"तू...तू क्या कर रहा है जगमोहन...।" पव्वा चीखा।
जगमोहन का हाथ जोरों से घूमा और पव्वे के चेहरे से जा टकराया।
पव्वे का सिर घूम गया।
जगमोहन फुर्ती से उछल कर वैन के भीतर जा बैठा।
सुदेश ने वैन आगे बढ़ा दी।
पव्वा ठगा सा वैन को जाते देखता रहा। उसे समझ नहीं आया कि क्या करूँ? कम से कम जगमोहन से तो उसने ऐसी हरकत की आशा नहीं की थी। क्या हो गया ये?
वैन के सामने से निकल जाने के पश्चात् उसे प्रतापी दिखा, जो कि अम्बा के काबू में खड़ा था। अम्बा के हाथ में रिवाल्वर थी। अम्बा सावधानी से, प्रतापी पर रिवाल्वर लगाये, उसे पव्वे के पास ले आया।
"कौन हो तुम?" प्रतापी गुस्से से चीखा।
"ये कमीने देवराज चौहान के ही साथी हैं...।" पव्वे ने कहना चाहा--- "वो...।"
तभी पीछे से आकर एक कार उनके पास रुकी।
ड्राइविंग सीट पर जगदीश बैठा था।
अम्बा ने प्रतापी को धक्का दिया और कार का दरवाजा खोलकर भीतर बैठने लगा कि तभी पव्वे का हाथ तेजी से अपनी जेब में गया तो अम्बा गुर्रा उठा---
"हाथ बाहर निकाल ले, वरना अभी शूट कर दूँगा।"
पव्वे ने होंठ भींचकर, ठिठककर अम्बा को देखा।
अम्बा के चेहरे पर दरिंदगी के भाव थे।
"रहने दो।" प्रतापी ने दबे स्वर में, पव्वे से कहा।
पव्वे ने खाली हाथ जेब से निकाला और गुर्राया---
"तुम लोग जगमोहन के साथ...।"
"चुप कर।" अम्बा गुर्राया और कार में बैठ गया।
अगले ही पल कार को जगदीश ने दौड़ा दिया।
पव्वा और प्रतापी ठगे से खड़े रह गए।
चेहरों की खुशी तो कब की हवा हो चुकी थी।
60 करोड़ हाथ में आया और दस मिनटों में हाथ से निकल गया।
उन्हें विश्वास नहीं आ रहा था कि जगमोहन ने ऐसा किया है।
पव्वे ने प्रतापी को देखा।
प्रतापी पहले से ही पव्वा को देख रहा था।
"मैंने तेरे से कहा था कि वैन मत रोक। ऐसे मौके पर जगमोहन का नजर आना मुझे ठीक नहीं लगा। परन्तु तूने...।"
"मैं अपनी जगह ठीक था। भला जगमोहन गड़बड़ क्यों करेगा, मैंने तो यही सोचा...।"
"कर दी ना।"
"मुझे अभी भी विश्वाश नहीं आ रहा।" प्रतापी परेशान था।
"60 करोड़ वो ले उड़ा...।" पव्वा खा जाने स्वर में बोला--- "और तेरे को अभी भी विश्वास नहीं आ रहा था कि...।"
"ये सब क्या हो गया पव्वे?"
"देवराज चौहान हमसे चाल खेल गया...।" पव्वे ने दाँत किटकिटाकर कहा।
"चाल?"
"हरामी ने हमें इकट्ठा किया बैंक वैन पर हाथ डालने के लिए। सबकुछ तैयार करके जगमोहन को गायब कर दिया और अब वो वैन छीनने के लिए हमारे सामने आ गया।" पव्वा पागल हो रहा था।
"मुझे तेरी बात ठीक नहीं लगती।" प्रतापी ने परेशान स्वर में कहा।
"क्यों नहीं...।"
"देवराज चौहान ने ये काम करना होता तो वो जगमोहन को हमारे सामने ही क्यों लाता? उसे छिपाकर रखता और...।"
"उसे छिपाकर रखता तो तू उसे देखकर वैन कैसे रोकता? अब जगमोहन वैन ले जाने में सफल कैसे होता।"
प्रतापी पव्वे को देखने लगा।
पव्वे का चेहरा सुलग रहा था।
"साला... कुत्ता देवराज चौहान!"
"नहीं! प्रतापी गम्भीर स्वर में बोला--- "तू गलत लगता है मुझे...।"
"बकवास मत कर।"
"देवराज चौहान इस तरह की गद्दारी नहीं कर सकता।"
"क्यों, उसने क्या भगवान के दरबार में जाकर कसम खा रखी है कि वो ऐसा नहीं करेगा?" पव्वा खा जाने वाले स्वर में, प्रतापी को घूरता बोला--- "ये तेरे को पक्का ही पता था कि वो जगमोहन था?"
"हाँ...हाँ, वो जगमोहन था।"
"जगमोहन, देवराज चौहान का पक्का साथी है?"
"हाँ... है।"
"और अब जगमोहन ही हमसे वैन छीनकर ले गया। मेरे को घूंसा भी मारा।"
प्रतापी ने होंठ भींचकर पव्वे को देखा।
"और तू कहता है कि देवराज चौहान गद्दारी नहीं कर सकता।" प्रतापी के होंठ भिंचे रहे।
"जगमोहन ऐसा काम, देवराज चौहान की हामी के बाद ही करेगा। इधर देवराज चौहान ने हमें अपने साथ लगाये रखा और उधर जगमोहन से वैन छीनने की तैयारी करवाता रहा और हमें कह दिया कि जगमोहन गायब हो गया...।"
"मुझे कुछ समझ नहीं आता।"
"दो-चार जुतियाँ और पड़ेंगी तो सब समझ आ जायेगा।" पव्वे ने कड़वे स्वर में कहा।
"मैं...मैंने पूरा विश्वास किया था देवराज चौहान पर।"
"सबने ही किया था।" पव्वे ने गहरी साँस ली।
"अब क्या होगा पव्वे...?"
"खेल खत्म!"
"ये तो गलत बात है।" प्रतापी ने कहा--- "इस तरह देवराज चौहान सारे साठ करोड़ हजम नहीं कर सकता।"
"तू उसे रोकेगा?"
प्रतापी ने पव्वे को देखा।
"वो खतरनाक है। हम उसके सामने पानी भरते हैं प्रतापी।"
"जो भी हो, इस तरह धोखा देकर वो साठ करोड़ हजम नहीं कर सकता।"
"देवराज चौहान तो कहेगा कि जगमोहन ने जो किया, उसकी मर्जी से नहीं किया।"
"इस तरह वो बच नहीं सकता।" प्रतापी के चेहरे पर गुस्सा नाचा--- "जगमोहन उसका खास आदमी है। हमें ठिकाने पर पहुँचना चाहिए। तेरा क्या ख्याल है कि वो वहाँ पहुँचेगा?" पव्वे ने जहरीले स्वर में कहा।
"नहीं पहुँचेगा।"
"कभी नहीं। जगमोहन उसे खबर दे देगा कि काम हो गया है। ऐसे में देवराज चौहान टिड्डे और शेख को जुल देकर निकल जायेगा। नम्बरी हरामी है वो। यूँ ही उसने नाम नहीं कमा रखा अंडरवर्ल्ड में।"
"मेरे साढ़े सात करोड़ गए...।" प्रतापी ने अपने सिर को झटका दिया।
"मैं साठ करोड़ के बारे में सोच...।"
तभी पीछे से आती कार उनके पास आ रुकी।
दोनों की निगाह घूमी।
कार में देवराज चौहान, शेख और टिड्डा बैठे थे।
तीनों आनन-फानन दरवाजे खोलकर बाहर निकले।
"वैन कहाँ है?" टिड्डा गला फाड़कर चीखा--- "तुम लोग, यहाँ क्या कर रहे हो?"
प्रतापी और पव्वे की नजरें मिलीं, फिर वो देवराज चौहान को देखने लगे।
"वैन कहाँ है?" शेख घबराये स्वर में बोला--- "क्या हुआ जो...।"
"देवराज चौहान से पूछो। पव्वा कड़वे स्वर में बोला--- "ये वैन के बारे में बताएगा।"
देवराज चौहान के माथे पर बल पड़े।
"देवराज चौहान बताएगा? इसे कैसे पता कि वैन किधर है। ये तो हमारे साथ था।"
"लेकिन वैन कहाँ है?" टिड्डा ने पव्वे की बाँह पकड़कर हिलाया।
"जगमोहन ले गया।"
"क्या?" शेख बुरी तरह चौंका।
टिड्डा, पव्वे को देखने लगा।
देवराज चौहान की आँखें सिकुड़ गईं।
"जगमोहन यहाँ कहाँ?" शेख के होंठों से निकला।
"उसके साथ तीन लोग और भी थे।" प्रतापी ने देवराज चौहान को देखते कड़वे स्वर में कहा--- "हम से क्या पूछते हो--- देवराज चौहान से पूछ लो। इसे सब मालूम है, ये बताएगा।"
टिड्डे ने देवराज चौहान को देखा।
"इसे कैसे मालूम है?" शेख अभी तक हक्का-बक्का था।
"जगमोहन ने जो किया, इसी के कहने पर किया है। इसकी एक योजना हमारे साथ थी तो दूसरी जगमोहन के साथ...।"
"ये सब कैसे हुआ, मुझे बताओ।" देवराज चौहान कह उठा।
"तुम तो इस तरह कह रहे हो कि जैसे तुम्हें पता ही न हो?" प्रतापी ने तीखे गुस्से से भरे स्वर में कहा।
"नहीं पता। खामखाह मुझ पर ऊँगली मत उठाओ।"
"तुम्हें सब पता है।" पव्वे ने क्रोध से कहा।
देवराज चौहान ने सिग्रेट सुलगाई।
शेख और टिड्डे की नजरें मिलीं।
"इधर तो आ...।" टिड्डा शेख का हाथ थामे, चार कदम दूर ले गया।
"तेरे को क्या लगता है?" शेख ने पूछा--- "देवराज चौहान ने गड़बड़ी की है?"
"नहीं। देवराज चौहान ऐसा नहीं कर सकता।"टिड्डे ने इन्कार में गर्दन हिलाई।
"परन्तु बैंक वैन को जगमोहन ले भागा है।"
टिड्डे ने होंठ भींच लिए।
"देवराज चौहान ऐसा घटिया काम नहीं करेगा। मैंने इसके बारे में बहुत कुछ सुन रखा है।"
"तेरा मतलब कि जगमोहन ने अपने तौर पर गडबड़ की?"
"लगता तो ऐसा ही है।" शेख सोच भरे गम्भीर स्वर में बोला।
"ये साठ करोड़ का मामला है। थोड़ा-बहुत पैसा होता तो परवाह भी न होती।" टिड्डा होंठ भींचकर बोला।
"अब तो पैसा हाथ से गया।"
"बिल्कुल गया। आ जरा सुनें कि देवराज चौहान क्या कहता है।"
"मेरा तो दिमाग घूमा हुआ है।" शेख ने अपने सिर पर हाथ मारकर बोला।
दोनों वापस उनके बीच जा खड़े हुए।
प्रतापी देवराज चौहान को बता रहा था कि जगमोहन ने कैसे सबकुछ किया।
देवराज चौहान गम्भीर था।
पव्वा दाँत भींचे देवराज चौहान को घूरे जा रहा था।
देवराज चौहान को घूरे जाने का एहसास था।
प्रतापी सबकुछ बताकर खामोश हुआ।
देवराज चौहान ने कश लिया।
"तुम अब हमारे जख्मों पर मरहम लगाने का काम करोगे।" पव्वे ने जले-भुने स्वर में कहा।
"तुम्हारा, मुझसे इस तरह नाराज होना गलत नहीं है क्योंकि ये काम जगमोहन ने किया है और तुम्हें ही सोचना पड़ेगा कि कहीं जगमोहन ने मेरे इशारे पर तो ये काम नहीं किया।" देवराज चौहान गम्भीर स्वर में बोला--- "तुम्हारा शक अपनी जगह जायज है। परन्तु मुझ पर भरोसा रखो। जगमोहन ने जो भी किया, उससे मैं खुद हैरान हूँ...।"
"तेरी बातें हम पर असर करने वाली नहीं देवराज चौहान।" पव्वे ने कड़वे स्वर में कहा।
"मुझे देवराज चौहान पर कोई शक नहीं है।" टिड्डा कह उठा।
"तेरा मतलब कि---।" पव्वा, टिड्डे को खा जाने वाले स्वर में बोला--- "देवराज चौहान को जगमोहन के बारे में कुछ नहीं पता कि...।"
" देवराज चौहान हमारे साथ इतनी घटिया चाल नहीं चल सकता।"
"ये 60 करोड़ का मामला है।" प्रतापी बोला।
"जो भी हो--- मैंने इसके बारे में काफी कुछ सुन रखा है। ये धोखा नहीं देगा।"
"तू अपनी जुबान...।" पव्वे ने दाँत किटकिटाकर कहना चाहा। कि देवराज चौहान ने टोका---
"आपस में यह बातें करके खामखाह तनाव को बढ़ाओ मत...।"
"तो क्या करें?" पव्वे ने दाँत पीसकर कहा--- "60 करोड़ तो गया, वो तो हमें मिलने से रहा।"
"सब ठीक है। अभी कुछ नहीं बिगड़ा।" देवराज चौहान ने कहा।
"क्या मतलब?"
"तुम लोग सोहनलाल को क्यों भूल रहे हो?"
चारों की निगाह देवराज जवान पर जा टिकी।
"वैन में पड़े उन बक्सों को सोहनलाल ही खोलेगा... और इस दौरान वह मुझे खबर कर देगा।"
"ओह...।" शेख कह उठा--- "ये बात तो हम भूल ही गये थे।"
"अगर सोहनलाल ने खबर न दी तो?" टिड्डा बोला।
"वो देगा।"
"लेकिन तुमने जगमोहन से ऐसा काम क्यों करवाया?"
"मैंने नहीं करवाया।" देवराज चौहान ने पव्वे को देखा--- "इस बात का शक करना छोड़ दो। इस मामले में जैसी हालत तुम सब की है, वैसी ही मेरी। तुम तो अपनी बातें मुझे कह रहे हो, परन्तु मैं किससे कहूँ?"
"देवराज चौहान!" टिड्डा गम्भीर स्वर में बोला--- इन हालातों में जगमोहन बीच में आया है कि पव्वे को गलत भी नहीं कहा जा सकता।"
"ये गलत नहीं है, लेकिन गलतफहमी का शिकार हो गया है।"
देवराज चौहान ने कश लेकर सिग्रेट एक तरफ उछाल दी--- "उसे देखते हुए यही सोचा जाएगा कि जगमोहन ने मेरे कहने पर ये सब किया। परन्तु ऐसा कुछ नहीं है।"
" तुम कुछ कहोगे जगमोहन की हरकत के बारे में?" शेख बोला।
"मेरे ख्याल में जगमोहन किन्हीं लोगों के कब्जे में है। किसी दबाव में जगमोहन से उन लोगों ने यह काम करवाया है। वरना आसानी से तो जगमोहन ये काम करने वाला नहीं।" देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा।
"वो बच्चा है जो दवाब में...।"
"कभी-कभी ऐसी मजबूरी हो जाती है कि सामने वाले की बात माननी पड़ती है। जगमोहन के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा... वरना वह मेरे मामले में इस तरह दखल देने का हौसला नहीं रखता।"
"तुम्हारी बात मेरी समझ से बाहर है।" पव्वा तीखे स्वर में बोला।
"तू चुप कर।" शेख ने पव्वे से कहा, फिर देवराज चौहान से बोला--- "अब क्या करना है?"
देवराज चौहान ने सोच भरे स्वर में कहा---
"वैन की फिक्र मत करो। हम वैन को हासिल कर लेंगे।"
"खाली नहीं, नोटों से भरी वैन हमें चाहिए।" पव्वा कह उठा।
"भरी ही होगी परन्तु इसके लिए मुझ पर भरोसा रखो। जगमोहन ने जो किया, उससे मैं उसी तरह अंजान हूँ, जैसे कि तुम चारों। ये बात किसी और से सुनी होती तो शायद मैं यकीन भी नहीं करता।"
"मुझे नहीं लगता कि वैन हमें फिर मिल सकेगी।" प्रतापी का चेहरा उतरा हुआ था।
देवराज चौहान ने फोन निकाला और नंबर मिलाने लगा।
"किसे कर रहे हो?" टिड्डे ने पूछा।
"जगमोहन को...।"
परन्तु जगमोहन के फोन का स्विच ऑफ ही आया।
चारों के चेहरे पर लुटे-पिटे भाव थे। पव्वे का चेहरा अभी तक गुस्से से भरा था।
"सारी गलती तेरी है।" वह प्रतापी से कह उठा--- "मैंने तेरे को मना किया था वैन रोकने से।"
"मेरी कोई गलती नहीं। मुझे क्या सपना आएगा कि जगमोहन ये सब करने वाला है? वैसे भी वो तब अकेला नजर आ रहा था। हमें क्या पता था कि उसके साथी आसपास छिपे हुए हैं?"
पव्वा दाँत पीस कर रह गया।
तभी शेख आँखें सिकोड़े कह उठा---
"कहीं तुम दोनों ने तो गड़बड़ नहीं की?"
"हमने?" पव्वे के होठों से निकला।
"वैन को कहीं छिपा दिया गया हो और जगमोहन की आड़ लेकर हमें बेवकूफ बनाकर 60 करोड़ हजम करना चाहते हो...।"
"साले तेरा मुँह तोड़ दूँगा!" पव्वा गुर्रा उठा।
देवराज चौहान के चेहरे पर छोटी सी मुस्कान उभरी और लुप्त हो गई।
"तैश में मत आ--- शेख ने कुछ गलत भी नहीं कहा।" टिड्डा कह उठा।
पव्वे ने सुलगती नजरों से प्रतापी को देख कर कहा---
"सुना तूने?"
"सब सुन रहा हूँ। खामखाह मुँह काला हो रहा है।"
"एक तो करोड़ों रुपया हाथ से गया, ऊपर से मिलने वाली तोहमत अलग से।" पव्वे ने पाँव पटक कर कहा।
देवराज चौहान ने सोहनलाल का नम्बर मिलाया और फोन कान से लगा लिया।
"हैलो।" उधर से सोहनलाल की आवाज कानों में पड़ी।
"तुम उन लोगों के साथ हो सोहनलाल?" देवराज चौहान ने पूछा।
"हाँ।" उधर से आवाज आई।
चारों की निगाह देवराज चौहान पर जा टिकी।
"वो तेरे पास हैं?" देवराज चौहान ने पूछा।
"लगभग।" सोहनलाल की आवाज कानों में पड़ी।
"मेरी बात सुन। मैंने और मेरे चार साथियों ने उस बैंक वैन पर कब्जा पा लिया था। दो उस बैंक वैन को ले जा रहे थे कि उन्हें रास्ते में जगमोहन मिला और जगमोहन उनसे वह छीन कर भाग गया।"
सोहनलाल की आवाज नहीं आई।
"सुन रहा है?"
"हाँ...।" सोहनलाल की छोटी सी हाँ कानों में पड़ी।
"जगमोहन क्या कर रहा है, मैं नहीं जानता। परन्तु तू जहाँ है, वहाँ जगमोहन वैन लेकर पहुँचेगा।"
"मैं भी यही सोच रहा हूँ।"
"तू इस वक्त कहाँ है?"
"अभी नहीं बता सकता।"
"वैन वहीं पर आएगी जहाँ इस वक्त तू है?"
"कहा तो यही जा रहा है।"
"तो मुझे मौका मिलते ही बताना कि तुम कहाँ पर हो। वैन हमारे हाथों से निकल चुकी है, वह कभी भी तुझ तक पहुँच जाएगी। मुंबई में ही है तू?"
"हाँ।"
"सावधान रहना और जल्दी से मुझे हालातों की खबर करना।"
उधर से सोहनलाल ने फोन बंद कर दिया।
चारों देवराज चौहान को ही देख रहे थे। प्रतापी बोला---
"वैन के बारे में कोई खबर?"
"वो किसी भी वक्त सोहनलाल के पास पहुँच सकती है।"
"सोहनलाल कहाँ है?"
"उसे मौका नहीं मिला यह बताने का। उसके पास और लोग भी थे।"
"तो हमें कैसे पता चलेगा कि वैन कहाँ पर...।"
"मौका ढूंढ कर सोहनलाल फोन करेगा।"
"उसने नहीं किया तो?"
"वह करेगा।" देवराज चौहान ने शांत स्वर में कहा--- "हमें उसके फोन का इंतजार करना है।"
"सोहनलाल ने वैन में पड़े उन बक्सों के ताले खोल दिए और वह नोट लेकर भाग गए तो?"
"सोहनलाल बेवकूफ नहीं है। वह जो करेगा,सोच-समझ कर करेगा।" देवराज चौहान बोला।
"क्या हमें सच में नोट मिल जाएंगे?" प्रतापी बेचैनी से उठा।
"आशा तो है परन्तु गारण्टी नहीं।"
तभी पव्वा कह उठा---
"एक बात बताना भूल गया मैं। वैन के पीछे वाले हिस्से में बंद था कोई।"
देवराज चौहान की आँखें सिकुड़ी।
"बंद था?" टिड्डा बोला--- "तुम्हारा मतलब नोटों वाले बक्सों कि साथ में कोई था?"
"हाँ हमें भीतर से किसी की आहट आई थी।"
देवराज चौहान के होंठों से गहरी साँस निकली। वो कह उठा---"ये खतरनाक बात है। अंजाने में वैन खोली गई तो भीतर वाला गोलियों की बौछार कर देगा।" देवराज चौहान कहने के साथ ही हाथ में दबे फोन से नंबर मिलाने लगा ।
फौरन ही सोहनलाल से बात हो गई । देवराज चौहान ने कहा---
"सावधान रहना। वैन में स्टील के बक्सों के साथ गनमैन भी हैं भीतर।"
"ठीक है।" सोहनलाल की आवाज कानों में पड़ी।
देवराज चौहान ने फोन बंद करके जेब में रखा और सब से उठा---
"कार में बैठो और यहाँ से निकलो। बैंक वैन को ले जाने की खबर फैल चुकी होगी। जल्दी ही सड़क पर पुलिस ही पुलिस होगी...।"
वे पांचों उस डिग्गी पिचकी कार में बैठे और कार आगे बढ़ गई।
"बहुत बुरा हुआ...।" कार की ड्राइविंग सीट पर प्रतापी ही था--- "कुछ देर पहले मैं 60 करोड़ के नोटों से भरी वैन को चला रहा था और अब इस टूटी हुई कार को चला रहा हूँ...।"
बाकी तीनों भी चार करोड़ में उलझे हुए थे।
जबकि देवराज चौहान का दिल-दिमाग, जगमोहन की तरफ था।
◆◆◆
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