हम नहीं जानते कि उस कागज में क्या लिखा था, जो बालिश्त-भर के मोखले में से उस कमसिन और नाजुक स्त्री ने नकली वन्दना अर्थात् शीलारानी को दिया था। वन्दना ने रात किस प्रकार व्यतीत की, यह भी हम नहीं जानते, क्योंकि इस बीच हम किन्हीं अन्य आवश्यक कार्यों में व्यस्त रहे। हम इस समय, जबकि अगला दिन शुरू हो चुका है, बेगम बेनजूर के दरबार में उपस्थित हैं। बेनजूर का दरबार लगा हुआ है। बेगम बेनजूर अपने सिंहासन पर उपस्थित है। उसके भाल पर हीरे से जड़ा एक मुकुट शोभा दे रहा है । सुन्दर जिस्म पर चमचमाता लिबास है। उसके सामने उसके पिता महादेवसिंह और माधोसिंह की बगल में ही एक नकाबपोश खड़ा हुआ है।


– “महारानी — आज मैं भरे दरबार में आपसे पूछना चाहता हूं कि महारानी बेनजूर कहां गई हैं ?"


—“महारानी हमें बताकर नहीं गईं कि वे कहां जा रही हैं।" 


“आप झूठ बोलती हैं।" क्रोध में चीख पड़ता है महादेव — “हम जानते हैं कि महारानी कहीं नहीं गई हैं। आपने उन्हें कैद कर रखा है। आप दुष्टा और पापिन हैं। सारी प्रजा को आप धोखा दे रही हैं। "


-"ये आप क्या कह रहे हैं पिताजी ?" कलावती ने कहा ।


– "हमें पिताजी मत कहो दुष्टा लड़की ।" महादेवसिंह गुर्रा उठता – "तुम महारानी के सिंहासन पर विराजमान हो, इसलिए मैं अभी तक तुमसे सम्मान के साथ बातें कर रहा हूं। लेकिन आज मैं तुम्हारा भांडा फोड़कर ही रहूंगा। भरे दरबार में बताऊंगा कि असली महारानी को तुमने कैद कर रखा है और तुम अपनी चालबाजी से हमको मूर्ख बना रही हो ।" इतना कहने के बाद महादेवसिंह जोर से दरबार में उपस्थित आदमियों को सम्बोधित करता है— “साथियों, मेरी लड़की कलावती अधर्मी, दुष्टा और पापिन है। असली महारानी को इसने कैद कर रखा है और हमसे झूठ बोलती है कि वे काम से गई हैं – इसे मार डालना हमारा धर्म है।”


– "ये गलत है, हमने महारानी को कैद नहीं कर रखा है। " कलावती चीखकर अपने पिता का विरोध करती है— “वे वास्तव में बाहर गई हैं और यहां का कार्यभार हमें सौंप गई हैं। पता नहीं किस लालच से हमारे पिता हमारे खिलाफ षड्यंत्र रचना चाहते हैं । "


— "लड़की ! जुबान को लगाम दे दुष्टा ।” महादेवसिंह चीख पड़ता है— “हम आज अपनी तलवार से तेरी गरदन काटकर ही रहेंगे।” कहने के साथ ही वह एक झटके से समीप ही खड़े नकाबपोश का नकाब उतार देते हैं— "देखो—कौन है ये ?"


– “महारानी... महारानी... महारानी !" दरबार में उपस्थित हर व्यक्ति आश्चर्य से उछल पड़ता है। स्वयं सिंहासन पर बैठी कलावती की आंखों में गहन आश्चर्य के भाव उभर आते हैं। उसके होंठ बुद्बुदा उठते हैं—“बेगम बेनजूर ।"  


और... वन्दना के मेकअप में शीला चुपचाप खड़ी है। पता नहीं उसके हृदय में क्या है !


"बेगम बेनजूर आप... आप तो बाहर गई थीं ?" कलावती कह उठती है।


वन्दना अभी कुछ· कह भी नहीं पाई थी कि-


—“बदकार लड़की !" कहते हुए क्रोध में महादेवसिंह म्यान से तलवार खींचकर सिंहासन की ओर बढ़ता है— "तू सोचती थी कि तेरे पाप का भांडा फोड़ने वाला इस रियासत में कोई नहीं है। हम खुद अपने हाथ से तुझे तेरे पाप की सजा देंगे।" दरबार में उपस्थित सभी व्यक्तियों को ये पता लग चुका है कि वास्तव में कलावती धोखेबाज है, अतः कोई उसकी रक्षा हेतु महादेवसिंह के सामने नहीं आता।


पल-भर में महादेवसिंह की तलवार कलावती की गरदन का सम्बन्ध धड़ से अलग कर देती है ।


महादेवसिंह की तलवार खून से रंग जाती है ——– किन्तु उसके चेहरे पर हल्की-सी शिकन भी नहीं आती। मुकुट उठाकर वह वन्दना ( शीला ) के सिर पर रख देता है और जोर से चीखता है— "बेगम बेनजूर !" 


- " जिन्दाबाद !" दरबार में उपस्थित सभी व्यक्तियों का समूह कह उठता है। इसके बाद इन्हीं नारों से सारा दरबार गूंज उठता है। वन्दना (शीला) चुपचाप-सी तरद (सोच) में फंसी है। 


उसी समय यहां एक नया नकाबपोश दाखिल होता है ।


***


हम नहीं कह सकते कि विजय, गौरवसिंह, वन्दना, विकास, निर्भयसिंह, रघुनाथ, रैना, ब्लैक ब्वॉय इत्यादि एक साथ किस प्रकार एकत्रित हो जाते हैं। फिलहाल हम केवल वह लिखते हैं, जो इस समय हम देखते हैं और सुनते हैं कि इस समय ये सब लोग साथ है और विजय उन्हें कुछ सुना रहा है। यह रहस्य दूसरे भाग में स्पष्ट होगा कि ये सब एक स्थान पर किस प्रकार एकत्रित हो गए और दोनों में से कौन-सा गौरवसिंह असली है। खैर ! फिलहाल आप इस थोड़े-से भाग को पढ़कर मुख्य कहानी का अंश जानिए ।


-" चार दिन पहले ही की तो बात है। विकास का जन्मदिन था । रात के एक बजे तक पार्टी चली थी। मैं अपनी कोठी पर जाने के स्थान पर यहीं सो गया था । तुम कोठी के हॉल कमरे में सो रहे थे। मेरे दाई तरफ विकास की खाट थी । विकास के समीप ही रैना का बिस्तर | मेरे बाईं ओर रघुनाथ और ब्लैक ब्वॉय सोए हुए थे । बन्दर धनुषटंकार अपने शाही राजमहल यानी अपने कमरे में सोया था । जैसा कि विकास के प्रत्येक जन्म-दिवस पर होता था... सिंगही, प्रिंसेज जैक्सन, टुम्बकटू और अलफांसे आते थे, किन्तु इस बार आश्चर्य की बात ये हुई कि अलफांसे जन्म दिन पर नहीं आया । "


—“अलफांसे !" चौंक पड़ा गौरव —"वही, जो अन्तर्राष्ट्रीय अपराधी है ?”


-" बिल्कुल


"वही ।” विजय ने कहा – “लेकिन तुम उसे कैसे जानते हो ?"


- "बाद में बताऊंगा... पहले आप अपनी बात पूरी कीजिए । " सम्मान के साथ कहा गौरव ने ।


—" हां तो प्यारे !" विजय बोला— “हम कह रहे थे कि अलफांसे नहीं आया...रैना बहन इत्यादि को इस बात का दुःख था, किन्तु मैं जानता था कि अलफांसे हरफनमौला आदमी है, दुनिया के किसी अन्य देश में टहल रहा होगा अथवा किसी देश की जेल में रोटियां तोड़ रहा होगा । अतः मैं निश्चिन्त होकर सो गया। मैं नहीं जानता था कि मुझे सोए हुए कितना समय गुजर गया ।" और विजय आपबीती सुनाने लगा-


मैं बिस्तर पर लेटा था— और मेरी आंखों के सामने कुछ दृश्य तैरने लगे ।


एक लड़की ... बेहद सुन्दर... वह जुल्मों से घिरी हुई है... मेरे पास आना चाहती है...लेकिन... लेकिन बीच में बहुत से लोग हैं। अनेक दुश्मन... अनेक दोस्त... उसी समय मेरे मस्तिष्क में एक नाम टकराता है... कांता !


कांता... कांता... कांता...!


रह-रहकर यह नाम हथौड़े की भांति मेरे दिमाग पर चोट करने लगता है ।


मुझे याद आता है... उस लड़की का नाम कांता है...कांता...। मुझे ऐसा लगता है...जैसे मैं कान्ता को पहचानता हूं... जैसे मैंने कहीं देखा है... मेरे मस्तिष्क की परतें जैसे उलटने लगती हैं। मुझे लगता है, जैसे मैं देख रहा हूं... कांता मेरे पास आना चाहती है... मगर कुछ लोग उसे रोक रहे हैं... वे... वे सैकड़ों आदमी हैं...उन्होंने कान्ता को घेर लिया है। मेरी हैसियत ऐसी नहीं है... मैं उस घेरे को तोड़कर कांता तक पहुंच सकूं... लेकिन कांता बराबर मुझे पुकार रही है... मैं... मैं भी उसके लिए दीवाना हो रहा हूं... लेकिन उस घेरे से बाहर खड़ा हूं... फिर... फिर मैं स्वयं को रोक नहीं पाता... मैं उस घेरे को तोड़ने के लिए आगे बढ़ जाता हूं...मैं उनसे टकराता हूं... लेकिन कमजोर हूं...तभी... तभी मेरे कुछ सहायक आते

हैं ।


एक भयंकर युद्ध का दृश्य मेरी आंखों के समक्ष खिंच जाता है। 


फिर !


जैसे एकदम दृश्य पलटा हो ।


कांता मेरी बांहों में समाई हुई है। वह खुश है... मैं भी खुश हूं। एक-दूसरे से लिपटे हुए हम... इस सारी दुनिया में घूम जाते हैं। इसके बाद... एकदम जैसे पुनः मेरे दिल में दर्द होने लगता है। मेरी आंखों के सामने एक बहुत बड़ा खण्डहर उभर आया है। मीलों में फैला हुआ वह खण्डहर... टूटी-फूटी दीवारें... जंगली घास... लम्बी लम्बी झाड़ियां...अनेकों बुर्ज... खण्डहर की ये बची हुई दीवारें भी जैसे मेरी आंखों के सामने टूट-टूटकर गिरने लगती हैं। मैं देखता हूं...जैसे मैं खण्डहर के सामने खड़ा हूं... पूरे खण्डहर में जोरदार विस्फोट हो रहे हैं... शेष दीवारें भी टूट-टूटकर बिखर रही हैं।


आग...आग...आग...!


सारा खण्डहर आग की लपटों में घिरता जा रहा है...धुआं...धुआं... चारों ओर काला धुआं फैलता जा रहा है। 


मेरी आंखों के सामने खण्डहर मलबे का ढेर बना जा रहा ... भयानक विस्फोटों के बीच फंसकर खण्डहर तबाह और बरबाद होता जा रहा है। और उस खण्डहर के बीचोबीच खड़ा वह ऊंचा बुर्ज... मैं देखता हूं... यह उस खण्डहर का सबसे अधिक ऊंचा बुर्ज है...। मैं सच कह रहा हूं... ऐसा लगता है, जैसे खण्डहर का ये सबसे ऊंचा बुर्ज आकाश से जाकर मिल गया है...भयानक धमाकों के कारण अब वह बुर्ज हिल भी रहा है...बुरी तरह वह बुर्ज डगमगाने लगता है... उसी समय मैं देखता हूं—खण्डहर के चारों ओर पानी है... दूर... बहुत दूर... दूर तक ।


मानो —मानो वह खण्डहर सागर के बीच खड़ा हो ।


खण्डहर में निरन्तर धमाके हो रहे हैं... मानो बम वर्षा हो रही हो। सारा खण्डहर —रह-रहकर कांप रहा है और ... और वह बुर्ज । 


मेरे ख्याल से दुनिया का सबसे ऊंचा...।


धमाकों के कारण वह ऐसे डगमगा रहा है, जैसे गन्ने के खेत में एक  बेहद लम्बा बांस गाड़ दिया गया हो और तेज तूफान चलने पर वह जोर-जोर से हिल रहा हो । प्रत्येक पल मुझे ऐसा लगता है जैसे थरथराकर वह बुर्ज गिर जाएगा। साथ ही मुझे ऐसा भी लगता है... जैसे इस बुर्ज के गिरते ही मेरे प्राण निकल जाएंगे, जैसे मेरे जिस्म में प्राण सिर्फ उस समय तक हैं...जब तक यह बुर्ज । बुर्ज अगर गिरेगा तो मेरी छाती पर...उसके गिरते ही मैं मर जाऊंगा... और... और वह बुर्ज डगमगा रहा है।


उसी समय धमाकों के शोर को चीरती हुई आवाज मेरे कानों में उतर जाती है।


मुझे लगता है — जैसे मेरे जिस्म का सारा खून निचोड़ा जा रहा हो। रह-रहकर चीखों की आवाज मेरे कानों में गूंजने लगती है...मैं पागल-सा हो जाता हूं... उस चीख को मैं सहन नहीं कर पाता। मेरी दृष्टि बुर्ज की जड़ पर स्थिर हो जाती है... उसके बाद... डगमगाते बुर्ज पर मेरी दृष्टि ऊपर तक चली जाती है । ऊपर... सबसे ऊपर ... बुर्ज के शीर्ष पर... |


मेरे दिल को तड़पा देने वाली वह चीख उस बुर्ज से निकल रही है। मैं तड़प उठता हूं...कराह उठता हूं। दीवाना-सा होकर मैं उस बुर्ज को देख रहा हूं... उसी समय... वो चीख शब्दों का रूप धारण करने लगती है... मुझे लगता है... जैसे वो चीख कह रही है –'देव... देव...देव...!'


और... मेरे मस्तिष्क का सन्तुलन एकदम खो जाता है। देव... देव... की ये आवाज मेरे कानों में उतरती चली जाती है । निरन्तर... सैकड़ों बार मैं... देव... देव की ये आवाज सुनता हूं...मेरे मस्तिष्क पर ये आवाज चोट करने लगती है...फिर... फिर मैं ऐसा महसूस करने लगता हूं, जैसे मैं देव को जानता हूं...पहचानता हूं... मेरे मस्तिष्क की कोई परत जैसे एकदम उलट जाती है। मेरी आंखों के सामने देव का चेहरा घूम उठता है । चीख एकदम तड़प-तड़पकर मुझे पुकार रही है ।


तभी...तभी मैं उस आवाज को पहचान लेता हूं...यह तो कांता की आवाज है...कांता, मेरी प्यारी, मेरी प्राण... मेरी सभी कुछ तो कांता है। मैं देव हूं...मेरी कांता उस बुर्ज में है... बुर्ज गिरने वाला है.... मेरी कांता मुझे पुकार रही है... दम तोड़ने से पहले वह मेरी बांहों में आना चाहती है।


मैं पागल सा हो जाता हूं— मेरी कांता वर्षों से उस बुर्ज में कैद है – वर्षों से वह मुझे पुकार रही है। मेरी दृष्टि उसी बुर्ज पर जमी हुई है। उस बुर्ज के शीर्ष से निकलकर निरन्तर मेरी कांता चीख रही है— 'देव ——देव !'


—'कान्ता ऽ — -ऽ !' मैं अपनी पूरी शक्ति से चीख पड़ता हूं। उस बुर्ज में पुनः आवाज उठती है— 'देव !' 


मैं फिर दीवानों की भांति चीख पड़ता हूं – 'कांताऽ–ऽ—ऽ कांता...S -ऽ!' 


उस बुर्ज से सिर्फ एक ही आवाज आती है— 'देव !'


–'कांता—–—कांता—कांता !' पागलों की तरह मैं चीखता ही चला जाता हूं।


अचानक मुझे एकदम तीव्र झटका लगता है। तुरन्त मेरी आंखें खुल जाती हैं। आंखें खुलते ही — एक बार पुनः मेरे मुंह से निकलता है— 'कांता', मगर उसी समय मैं चौंक पड़ा । मेरी आंखें खुल चुकी थीं। मैं रघुनाथ की कोठी के उसी हॉल में अपने बिस्तर पर था । अब न कोई खण्डहर है, न धमाके न दुश्मन है, न दोस्त । कोई बुर्ज नहीं है-- मेरी आंखों के सामने वही हॉल- कमरा था । दीवार पर टिक... टिक करता हुआ घण्टा। कमरे में भरपूर प्रकाश । विकास, रैना, ब्लैक ब्वॉय, रघुनाथ मुझ पर झुके हुए थे। सबके चेहरों पर आश्चर्य। सबने मुझे बुरी तरह झंझोड़कर जगाया था । मेरा चेहरा ही नहीं बल्कि सारा जिस्म पसीने से लथपथ हो चुका था। पागलों की तरह मैं अपने ऊपर झुके चारों को देख रहा था ।


-"क्या बात है, गुरु ?” विकास ने पूछा |


मैं हल्के से चौंका, एक बार पुनः उसकी सूरत देखी, बोला – “क्या बात है ?"


—“कोई सपना देख रहे थे, विजय भैया ?" रैना ने मुझसे पूछा । “सपना !" कहते-कहते मेरी आंखों के सामने सारा सपना घूम जाता है—‘‘हां, शायद सपना ही देख रहा था।'


–“गुरु !" बिस्तर पर मेरे समीप ही बैठता हुआ विकास बोला – “आज आपके सपने ने भांडा फोड़ दिया । "


– "कैसा भांडा ?” मैंने पूछा ।


-“ये कांता कौन है ? " शरारत के साथ आंख मारते हुए पूछा विकास ने।


सुनते ही मेरे मस्तिष्क में यह नाम पुनः हथौड़े की भांति चोट करने लगा। मुझे लगा जैसे मेरे दिमाग से कांता की चीख टकरा रही है...देव...देव...लेकिन मैंने स्वयं को सम्भाल लिया, मुस्कराने का प्रयास करता हुआ बोला


— "कौन कांता ?”


–“यही तो मैं भी पूछ रहा हूं गुरु, कांता कौन है...?" विकास शरारत पर उतर आया था— “जरूर कोई हमारी आंटी होगी।” मैं अभी कुछ कहने ही वाला था कि रघुनाथ बोला—“विजय, तुम सपने में कांता... कांता चीख रहे थे।" 


– “आज तो तुम्हारे ब्रह्मचर्य का भांडा फूट ही गया, गुरु।" विकास पूरे मौके का लाभ उठाता हुआ मुझे खींच रहा था। 


— "हमें मालूम हो चुका है कि हमारे अंकल कांता नामक किसी आंटी को दिल दे बैठे हैं। लेकिन कमाल है कि हमने अपनी ऑन्टी को कभी नहीं देखा... हमें तो गुरु लड़कियों से दूर रहने की शिक्षा देते हैं, लेकिन खुद आंटी के इतने दीवाने हैं कि सपने में भी आंटी का नाम ले-लेकर चीखते हैं... या तो बता दो गुरु कि हमारी कांता आंटी कौन हैं, वरना ठाकुर नाना से भी कह दूंगा और आशा आंटी से भी... हम सब जासूसी करके कांता आंटी का पता लगा लेंगे और जबरदस्ती आपकी गांठ उनके साथ बांध देंगे, लेकिन एक बात याद रखना कि आशा आंटी अवश्य ही आत्महत्या कर लेंगी।"


- "बेटा दिलजले ।" मैं भी स्वयं को सम्भालकर बोला – “कोई कांता-वांता नहीं है... सब बकवास है । "


" है तो सही, भैया । अब अधिक दिन तक आप हमसे छुपा नहीं सकोगे।” अब रैना ने भी चुटकी ली ।


“रैना बहन —तुम भी...!"


–‘रैना बहन ही क्या ?” रघुनाथ ने कहा – “अब हम सबको ही यकीन हो गया है कि कोई कांता नाम की लड़की है जरूर । "


-“अबे तुला राशि | " मैंने कहा – “अबे साले रैना हमारी बहन है, तुम्हारी नहीं... तुम भी बहन कहोगे तो पत्नी कहां से लाओगे ?’


और इस बात पर सभी ने ठहाका लगा दिया ।


–“विजय भैया...!” अपनी हंसी पर शीघ्र ही काबू पाकर रैना ने कहा – “अब तो मुझे भी मेरी भाभी से एक बार मिला दो । "


– “आप लोग शायद मेरे सपने के बारे में सुनना चाहते हैं।" मैंने - कहा ।


-"नहीं गुरु... केवल आंटी के बारे में।" विकास की शरारत बढ़ती जा रही थी ।


– "प्यारे दिलजले... सपने में ही तो कांता का रहस्य छुपा है । " मैंने भी बात को मजाक में ही उड़ाते हुए कहा – “हमने देखा कि एक भैंस है। हमारी उससे बातचीत होती है तो वह अपना नाम कांता बताती है। बात दरअसल यूं शुरू होती है, चेले प्यारे कि तुम्हारी बर्थ-डे पार्टी चल रही है और वहां वह कांता नामक भैंस घुस आती है...देखते क्या हैं प्यारे कि वह तुम्हारा केक खाने लगती है, सब उसे भगाना चाहते हैं—वह केक मुंह में दबा लेती है, लेकिन अभी तक खाया नहीं है वह भाग रही है हम उसके पीछे भाग रहे हैं साथ ही चीखते जा रहे हैं –कांता —–कांता—यार दिलजले, उसी समय तुम सबने मुझे जगा दिया— थोड़ी देर और न जगाते तो हम कांता से केक छीन ही लाते — मगर यार...।"


- "असली बात को हवा में उड़ाने की कोशिश मत करो गुरु | " विकास बोला – "हमें तुम इतनी आसानी से मूर्ख नहीं बना सकते तुम नहीं बताओगे तो हम खुद ही पता लगा लेंगे कि कांता कौन है । कल से हम सारे केस छोड़कर इसी केस पर काम करेंगे।"


मैंने उन सबको बहुत समझाने की कोशिश की, किन्तु सब विफल ।


*****