दरवाजे के आस-पास और पीछे तो बाग ही था परंतु दरवाजे की चौखट से सीधा देखने पर फर्श का बना खूबसूरत रास्ता नजर आ रहा था ।
"भीतर चलो ।" बेला की फुसफुसाहट कानों में पड़ी ।
देवराज चौहान आगे बढ़ा और चौखट पार करके दरवाजे से भीतर प्रवेश कर गया । दोनों कदम भीतर फर्श पर रखते ही उसे ऐसा लगा जैसे किसी स्प्रिंग पर उसके पांव आ गये हो । एकाएक उसका शरीर उछला । हवा में करीब पांच-छः फीट ऊपर उठ गया वो फिर जब नीचे आया तो पलभर के लिए उसे कुंए जैसी जगह नजर आई, जिसमें वो गिरने जा रहा था । उस रास्ते पर वो कुआं जाने कहां से आ गया था। देवराज चौहान समझ नहीं पाया कि कुंए में गिरने से कैसे बचे ?
वह कुएं में गिरने जा ही रहा था कि, तभी उसे महसूस हुआ कि जैसे कोई हवा का तीव्र झोंका उसके शरीर से टकराया और इससे पहले कि वो कुएं में समाता, हवा के झोंके ने उसे कुछ आगे ले जा गिराया।
देवराज चौहान समझ गया वो हवा का झोंका बेला ही थी ।
देवराज चौहान उठकर संभल गया । उस कुएं को देखा जो अब बंद होने जा रहा था। खूबसूरत फर्श ढक्कन की तरह उस पर आता जा रहा था । देवराज चौहान ने गहरी सांस ली।
"देखा देवा ।" बेला की फुसफुसाहट कानों में पड़ी--- "कुएं में गिरते तो फिर मैं तुम्हें बाहर न निकाल पाती । क्योंकि कुंए के भीतर तो जाया जा सकता है, बाहर नहीं निकला जा सकता । इस पर तिलस्म ही ऐसा बंधा है ।"
"शुक्रिया ।" देवराज चौहान के होठों पर मुस्कान उभरी।
"किस बात का ?"
"तुमने मुझे कई बार बचाया और एक बार फिर बचा लिया ।"
बेला की मध्यम सी हंसी उसके कानों में पड़ी ।
"तुम्हें मेरे लिए शुक्रिया जैसे शब्द इस्तेमाल नहीं करने चाहिये देवा । अगर तुम बीते जन्म पर नजरें दौड़ाओ तो शुक्रिया कहना तुम्हें भी ठीक नहीं लगेगा।"
देवराज चौहान ने सिर हिलाया और सामने जाकर रास्ते को देखा । रास्ते के दोनों तरफ कहीं-कहीं छोटे-छोटे खूबसूरत मकान बने हुए थे। परंतु रास्ता सीधा जा रहा था ।
"ये मकान कैसे हैं ?"
"इसलिए कि अगर कोई यहां आ जाये तो मकानों में प्रवेश करके उलझ जाये और आगे न बढ़ सके ।" बेला की फुसफुसाहट कानों में पड़ी--- "इन मकानों के भीतर प्रवेश किया जा सकता है । लेकिन बाहर नहीं निकला जा सकता । इस तरह का तिलस्म इन मकानों में बिछाया गया है ।"
"मुझे तो आगे ही बढ़ना है ?" देवराज चौहान बुदबुदाया ।
"हां ।"
देवराज चौहान आगे बढ़ गया ।
यहां कोई कॉलोनी जैसी जगह थी । कोई रास्ता किधर जा रहा था तो कोई किधर । जगह-जगह बहुत अच्छी तरह मकान बने थे । जैसे दिल से इस जगह का नक्शा बनाया गया हो । दस मिनट चलने के पश्चात भी अभी तक कोई जिंदा चीज देखने को नहीं मिली थी ।
"यहां कोई है नहीं ?"
"है, बहुत कुछ है । योद्धा, पहरेदार हैं । आने वाले की मौत का पूरा सामान है । जब तक कोई नजर नहीं आता, तब तक अपने आपको खुशकिस्मत समझते रहो ।" बेला की फुसफुसाहट में बेचैनी थी।
देवराज चौहान शांत भाव से आगे बढ़ता जा रहा । सतर्क निगाहें हर तरफ जा रही थी । पन्द्रह मिनट देवराज चौहान खामोशी से आगे बढ़ता रहा । फिर ठीक रास्ते के अंत पर एक छोटी सी हवेली जैसा मकान बना हुआ था । यानी कि वो रास्ता वहीं जाकर हवेली के लोहे के फाटक पर समाप्त होता था ।
"भीतर प्रवेश मत करना ।" बेला की फुसफुसाहट कानों में पड़ी--- "गेट पर ही रुक जाना ।"
देवराज चौहान गेट पर जा ठिठका।
"देवा।" बेला की फुसफुसाहट गंभीर थी--- "ये छोटी सी हवेली तुम्हारे लिए मौत का दरवाजा है । मैं नहीं जानती कि भीतर प्रवेश करने के बाद तुम जिंदा बच सकोगे भी या नहीं। ताज तक पहुंचने का रास्ता यहीं से है। कुछ आगे जाने पर तुम्हें पहरेदार मिलेंगे । पहले वाला योद्धा अकेला था । लेकिन इस रास्ते पर उनकी संख्या ज्यादा होगी । तुम किसी भी स्थिति में उनका मुकाबला नहीं कर सकते । किसी को भीतर प्रवेश पाकर वो फौरन उसे खत्म कर देंगे । उनसे मुकाबला करने के लिए तुम्हें चालाकी से काम लेना पड़ेगा ।"
"कैसी चालाकी ?"
"मैं तुम्हें वशीकरण मंत्र बताती हूं । उसे याद कर लो और होंठों ही होठों में बुदबुदाते हुए भीतर प्रवेश करो। जो भी नजर आये मंत्र को बराबर बुदबुदाते हुए उसकी तरफ उंगली उठा दो तो वो सुद-बुद खो बैठेगा । मात्र काठ का पुतला बनकर तुम्हारे साथ चल पड़ेगा । याद रखना वो तब तक सुध-बुध खोया रहेगा, जब तक कि तुम वशीकरण मंत्र को बुदबुदाते रहोगे । फिर रास्ते में हवा का भंवर आयेगा । जिसे तुम नहीं देख सकोगे । मैं तुम्हें भंवर के बारे में बता दूंगी । जब तुम्हें पहरेदारों को उस तरफ बढ़ने का इशारा करना है । इस तरह योद्धा हवा के भंवर में फंसकर अपनी जान गंवा बैठे और तुम बच जाओगे।"
देवराज चौहान होंठ भींचकर रह गया ।
"मेरी बात समझ गये देवा ?"
"हां, तुम मंत्र बताओ ।"
बेला ने मंत्र बताया ।
देवराज चौहान ने मंत्र को अच्छी तरह याद किया फिर बोला ।
"मंत्र याद हो गया है।"
"तो मन ही मन बुदबुदाते हुए आगे बढ़ो । मंत्र को बुदबुदाने का सिलसिला टूटना नहीं चाहिए ।"
देवराज चौहान ने मंत्र बुदबुदाना शुरू किया और भीतर प्रवेश करता चला गया । गेट के भीतर प्रवेश करने पर आठ फीट चौड़ा रास्ता सुंदर दरवाजे तक जा पहुंचा। वो रुका नहीं भीतर प्रवेश करता चला गया । यह विशाल बैठक थी । जहां उसे योद्धा के रूप में दो पहरेदार नजर आये ।
दोनों उसे देखकर चौंके । उन्होंने फौरन तलवारें निकालनी चाहीं । उसी पल देवराज चौहान ने उनकी तरफ उंगली उठाई तो उनके हरकत करते हाथ रुक गये । चेहरों के भाव बदले और वे सामान्य नजर आने लगे । अब उनके हाव-भाव में देवराज चौहान के प्रति कोई क्रोध या दुश्मनी का कोई भाव नजर नहीं आ रहा था ।
"बाईं तरफ वाली गैलरी में सीधे आगे बढ़ते चले जाओ ।" बेला की फुसफुसाहट कानों में पड़ी ।
होठों ही होठों में बेला का बताया मंत्र बुदबुदाना बराबर जारी था। देवराज चौहान बाईं तरफ वाली गैलरी में आगे बढ़ता चला गया । दोनों योद्धा की नहीं सेवकों की भांति उसके पीछे चलने लगे । देवराज चौहान की निगाहें हर तरफ जा रही थी । गैलरी की दीवारों पर सजावट का इंतिहाई खूबसूरत सामान लगा हुआ था । हवेली के भीतर की सुंदरता देखते ही बनती थी ।
गैलरी के मोड़ पर एक योद्धा पहरेदार खड़ा नजर आया ।
उससे निगाहें मिलते ही देवराज चौहान ने उसकी तरफ उंगली कर दी । उसी क्षण वो दुश्मनी के भाव भूलकर सामान्य हो गया। देवराज चौहान जब मोड़ मोड़ा तो वो भी अन्य दोनों योद्धाओं की तरह पीछे चल पड़ा । देवराज चौहान के होंठ बराबर मंत्र बुदबुदा रहे थे । वो जानता था कि बेला के कहे मुताबिक अगर उसने मंत्र को बुदबुदाना छोड़ा तो इन योद्धा पहरेदारों पर से काबू हट जायेगा और ये उसकी जान ले लेंगे ।
रास्ते में छः और योद्धा पहरेदार मिले । उनकी तरफ उंगली उठाकर उन्हें भी अपने वश में किया ।
वो सब साथ हो गये। देवराज चौहान के पीछे नौ योद्धा पहरेदार चल रहे थे ।
तभी बेला की फुसफुसाहट कानों में पड़ी ।
"रुक जाओ ।"
देवराज चौहान ठिठका ।
पीछे आ रहे नौ योद्धा पहरेदार रुक गये ।
"दाईं तरफ वाला दरवाजा खोलो और उसमें प्रवेश करने पर तुम्हें सामने एक और दरवाजा नजर आयेगा उस दरवाजे को खोलकर वहां से आगे बढ़ो ।"
"देवराज चौहान दरवाजे के पास पहुंचा । उसके पल्ले खोले और भीतर प्रवेश कर गया । ये चार फीट चौड़ा और आठ फीट लंबा रास्ता था। रास्ते के अंत में दरवाजा नजर आ रहा था । देवराज चौहान ने आगे बढ़कर उस दरवाजे को खोला और आगे बढ़ा ।
सभी योद्धा पहरेदार उसके पीछे थे ।
वहां गैलरी जैसा बेहद चौड़ा रास्ता था। रास्ते के किनारे पर खड़ी दीवारों पर भरपूर सजावट की गई थी । देवराज चौहान उस रास्ते पर आगे बढ़ गया। योद्धा पहरेदार बराबर उसके पीछे चल रहे थे । गैलरी में कुछ आगे ही गया होगा कि कानों में बेला की फुसफुसाहट पड़ी ।
"रुक जाओ । दस कदम आगे तिलस्मी हवा है । हवा के भंवर में जा फंसेगा वो जिंदा नहीं बच सकेगा ।"
देवराज चौहान ठिठका । होंठ बराबर मंत्र को बुदबुदा रहे थे ।
पीछे आते योद्धा पहरेदार भी रुके।
"देवा ! इशारे से उन पहरेदारों को आगे जाने को कहो । मंत्र को बुदबुदाते रहना ।"
देवराज चौहान एक तरफ हुआ और एक पहरेदार को देखकर आगे बढ़ने का इशारा किया । इशारा पाते ही वो आगे बढ़ा । देखते ही देखते दस कदम तय किए कि एकाएक उसका शरीर हवा में उछला और फिर नीचे नही आ सका । एक खास दायरे में रहकर योद्धा पहरेदार का शरीर हवा में इस तरह लहराने लगा, जैसे वो भाव-विहीन होकर अंतरिक्ष में फंस गया हो। कभी उसका सिर नीचे हो जाता तो कभी सीधा । कभी हवा में ही तेजी से घूमने लगता तो कभी बेहद धीमी रफ्तार से तैरने के अंदाज में उसका शरीर हिलने लगता । वो बचने के लिए हाथ-पांव मार रहा था। उसका मुंह बता रहा था कि चीख-चिल्ला रहा है । परंतु उसकी चीख-पुकार तिलस्मी हवा के दायरे से बाहर नहीं आ रही थी । होठों ही होठों में मंत्र बुदबुदाते देवराज चौहान ने हैरानी से ये सब देखा ।
फिर दूसरे पहरेदारों को एक-एक करके आगे बढ़ने का इशारा किया ।
सुध-बुध खोए पहरेदार आगे बढ़े और तिलस्मी हवा के घेरे में फंसते चले गये। अजीब सा दृश्य उसके सामने था । नौ के नौ पहरेदार एक खास दायरे में रहकर हवा में घूम रहे थे । तैर रहे थे। कभी उनकी रफ्तार तेज हो जाती तो कभी कम । कभी वो जोरों से आपस में टकराते ।
देवराज चौहान होठों ही होठों में अभी भी मंत्र बुदबुदा रहा था ।
"अब मंत्र को बुदबुदाना छोड़ दो ।"
देवराज चौहान के होंठ थमे और गहरी सांस ली ।
"ये अब यहां से बाहर नहीं निकल सकते ?" देवराज चौहान के होंठ हिले।
"नहीं, मरने के पश्चात भी इनके शरीर तिलस्मी हवा में तब तक फंसे रहेंगे, जब तक कि कोई तिलस्मी विद्या का विद्वान इस तिलस्मी हवा के भंवर को तोड़ नहीं देता ।" बेला की फुसफुसाहट कानों में पड़ी ।
"मतलब कि ये तुम्हारे बस के बाहर की बात है ?"
"हां ।" बेला की फुसफुसाहट में गंभीरता थी--- "यहां पर दालू ने कठिन तिलस्मी विद्या से रुकावटें पैदा कर रखी है अगर कोई यहां तक आ भी जाये तो ताज तक न पहुंच सके । अब तुम वापस पलटी, जिस रास्ते से आये हो, वो रास्ता वापस तय करो ।"
देवराज चौहान वापस पलटा और आगे बढ़ गया । सारे रास्ते को पुनः तय करते हुए, वो हवेली की बैठक में पहुंचा। हर तरफ गहरी शांति मौजूद थी ।
"यहां से ताज कितनी दूर है ?"
बेला हौले से हंसी ।
"क्या हुआ ?"
"देखते जाओ।" बेला की फुसफुसाहट कानों में पड़ी--- "अब तुम ऐसे कमरे में पहुंचोगे, जहां एक शेर मौजूद है । उस शेर से तुम लड़ोगे । वो तुम्हें मारने-खाने की पूरी कोशिश करेगा । लेकिन तुम्हें उसके पंजों के सारे नाखून उखाड़ने हैं । जाहिर है ये काम शेर की जान लेने के बाद ही हो सकेगा। वो तिलस्मी शेर है और उसका मस्तिष्क लोगों की तरह काम करता है । इसलिए तुम्हें सावधानी से उसका मुकाबला करना होगा ।"
"लेकिन शेर के नाखूनों का मैं क्या करूंगा ?" देवराज चौहान बुदबुदाया।
"वो नाखून एक तरह से चाबी की तरह है । ताज तक पहुंचने की कई रास्ते बंद हैं, जो कि शेर के नाखूनों की चाबी से ही खुलेंगे । अब तुम शेर के नाखूनों की अहमियत को समझ गये होगे ।"
"हां, परंतु तुम अपने तिलस्म से उस तिलस्मी शेर को खत्म करा सकती हो ।"
"नहीं, मेरा तिलस्म उस शेर पर काम नहीं करेगा । ये बैठक पार करके सामने नजर आ रहे सुनहरी दरवाजे को खोलकर भीतर प्रवेश कर जाओ ।" बेला की आवाज में गंभीरता आ गई।
देवराज चौहान ने कमर में फंसी कटार को टटोला फिर दरवाजे की तरफ बढ़ गया । दरवाजा या तो सोने का था या फिर उस पर सोने का पानी फेरा गया था । रह-रह कर वह तीव्र चमक मार रहा था ।
देवराज चौहान ने पल्लों पर हाथ रखा और उन्हें धक्का देने के साथ ही कमर में फंसी कटार हाथ में ले ली। दरवाजा खुलता चला गया । सामने ही छोटा सा शेर बैठा था । जो कि कठिनता से तीन फीट लंबा होगा । चौड़ाई में सामान्य से कम था । शेर ने देवराज चौहान को देखा फिर गर्दन झुका ली ।
कटार थामें देवराज चौहान ने भीतर प्रवेश किया ।
उसी पल शेर उछलकर खड़ा हो गया । देखते ही देखते वो बड़ा होता चला गया । उसके जबड़े में नजर आने वाले दांत किसी तेज चाकू की तरह बड़े हो गये थे ।
देवराज चौहान की आंखें सिकुड़ी । होंठ भिंच गये। वो सतर्क नजर आने लगा । कमरा ज्यादा बड़ा नहीं था कि शेर का मुकाबला खुलकर किया जा सके । तभी शेर का मुंह खुला और इतनी तेज दहाड़ उसके गले से निकली कि कमरे की दीवार, कांपती सी महसूस हुई। शेर की खतरनाक आंखें देवराज चौहान पर टिकी हुई थी और वो छलांग लगाने की मुद्रा में आ चुका था ।
कटार थामे देवराज चौहान सतर्क था ।
तभी शेर ने जम्प लगाई । परंतु वो धोखा था देवराज चौहान के लिये। देवराज चौहान ने फुर्ती के साथ कटार घुमाई । लेकिन जम्प लगाने में शेर ने जानबूझकर दो पल की देरी की । कटार घूमने पर ही उसने जम्प लगाई और अपने भारी शरीर के साथ देवराज चौहान से जा टकराया। देवराज चौहान के शरीर को तीव्र झटका लगा और शेर के साथ ही नीचे जा गिरा । कटार उसके हाथ से छूट गई । ये धोखा देवराज चौहान ने इसलिए खाया कि वो बेला की उस बात को भूल गया था कि शेर का मस्तिष्क लोगों की तरह काम करता है।
देवराज चौहान पीठ के बल नीचे गिरा। उसके ऊपर शेर था । उसी पल शेर ने अपना जबड़ा खोला और देवराज चौहान की तरफ बढ़ाया । उसके खतरनाक पैने दांत चमक उठे तो कुछ देवराज चौहान को सुझा नहीं । एक पल का वक्त था। उसने दोनों हाथों से शेर की गर्दन को थामते हुए उसका जबड़ा पीछे रखने का प्रयास किया फिर । शेर जोर से दहाड़ा और जबड़ा देवराज चौहान की तरफ ले जाने की चेष्टा की। परंतु देवराज चौहान की पकड़ भी मजबूत थी । उसने जबड़ा करीब नहीं आने दिया । शेर का जबड़ा इतना बड़ा था कि वो एक ही बार में देवराज चौहान के चेहरे को जबड़े में भींच लेता।
कई पल शेर और देवराज चौहान की जोर आजमाइश में ही बीत गये। देवराज चौहान स्पष्ट तौर पर महसूस कर रहा था कि इस तरह शेर के जबड़े को अपने से ज्यादा देर तक दूर नहीं रख सकेगा । परंतु वो समझ नहीं पा रहा था कि इन हालातों में शेर का मुकाबला कैसे करे?
तभी शेर ने अपने अगले पंजों का वार देवराज चौहान के चेहरे और छाती पर करना शुरू कर दिया। पंजों के बड़े-बड़े नाखूनों ने उसके चेहरे, गले और छाती का मांस उधेड़ना शुरू कर दिया । पीड़ा से देवराज चौहान तड़प उठा । उसने दांत भींच लिए। परंतु दोनों हाथों से गर्दन थामे, जबड़े को दूर ही रखा।
शेर के पंजे बराबर चल रहे थे ।
कई बार देवराज चौहान के होठों से पीड़ा से भरी चीख निकली। उसकी जगह कोई और होता तो अब तक हताश हो चुका होता। हर बीतते क्षण के साथ इस बात का अहसास होता जा रहा था कि यह स्थिति ज्यादा देर इस तरह नहीं ठहर सकती । उसे फौरन कुछ करना होगा और उसके पास करने के बचाव में कुछ नहीं था।
शेर के पंजे बराबर बदन की खाल उधेड़ रहे थे । रह-रहकर वो दहाड़ रहा था ।
मांस के नीचे का गोश्त भी टुकड़ों में झलकने लगा था ।
देवराज चौहान का चेहरा गुस्से और क्रोध से दहक रहा था । आंखें बिल्कुल लाल सुर्ख हो रही थी । पीड़ा से बदन कांप रहा था। एकाएक उसने दांत भींचकर अपनी टांगों को उमेठकर शेर के नीचे से निकाला और दोनों पांव शेर के पेट पर रखकर पूरी शक्ति से टांगों को झटका दिया।
गुर्राता हुआ शेर दो कदम दूर जा गिरा ।
गिरते ही वो उठा और जबड़ा फाड़कर देवराज चौहान की तरफ लपका । पीड़ा में डूबा तब तक देवराज चौहान खुद को संभाल न सका था । अभी उठ भी नहीं पाया था कि शेर पुनः सिर पर था ।
शेर दोबारा मुंह खोले उसकी गर्दन दबोचने जा रहा था ।
दो पल का ही वक्त बाकी बचा था ।
कोई और रास्ता न पाकर देवराज चौहान ने अपना हाथ घुमाया जो उसके खुले जबड़े के दांत से जा टकराया । इसके साथ ही सारी पीड़ा भूलकर देवराज चौहान उछल कर खड़ा हो गया । दांत पर हाथ टकराने से शेर मात्र एक क्षण के लिए अचकचाया । उसके बाद पुनः देवराज चौहान पर झपटा । अगले ही पल शेर के जबड़े में देवराज चौहान की पिंडली फंस गई। दांत पिंडली के बीच धंसते चले गये।
देवराज चौहान के होठों से चीख निकल गई । तड़प पर उसने पिंडली छुड़ानी चाहिए। परंतु वो पूरी तरह भिंच गई थी शेर के जबड़े में । पीड़ा की वजह से देवराज चौहान का चेहरा दहक उठा। खुद को बचाने के लिए उसके पास कोई रास्ता नहीं था ।
तभी उसकी निगाह कटार पर पड़ी जो तीन-चार कदम दूर फर्श पर पड़ी थी। अब वही एकमात्र सहारा थी, परंतु वो हद से दूर थी इस स्थिति में । शेर पिंडली को चबाने की चेष्टा करने लगा था । कोई और रास्ता न पाकर देवराज चौहान ने कटार की तरफ छलांग लगा दी । शेर के जबड़े में फंसी पिंडली में जोरों का खिंचाव हुआ। होठों से तीव्र चीख निकली । परंतु वो कटार तक नहीं पहुंच पाया। कटार अभी भी करीब डेढ़ कदम दूर थी।
देवराज चौहान को महसूस होने लगा कि शेर से वो जीत नहीं पायेगा। यहीं पर उसका अंत है । आखिरी दम पर भी देवराज चौहान ने हिम्मत नहीं हारी और कटार की तरफ सरकने की कोशिश की । साथ में शेर को भी खींचना जरूरी था, क्योंकि उसने पिंडली जबड़े में भींच रखी थी । पहली कोशिश में तो देवराज चौहान ने आधे कदम की दूरी तय कर ली ।
लेकिन साथ ही मानवीय मस्तिष्क वाला शेर समझ गया कि वो कटार पाना चाहता है तो शेर ने जबड़ों में पिंडली दबाये उसे पीछे खींचने का प्रयत्न किया।
जिंदगी और मौत का सवाल था ।
सांसों की डोर दांव पर लगी थी ।
देवराज चौहान ने दूसरे पैर की ठोकर जोरों से शेर के चेहरे पर मारी और इसके साथ ही कटार की तरफ सरका ऐसा करने से कुछ और फासला तय हो गया । पिंडली जबड़ों में दबाये-दबाये शेर गुर्राया और उसे पीछे खींचने की चेष्टा की । परंतु देवराज चौहान ने अपने शरीर को इस तरह फर्श से चिपका लिया था कि शेर आसानी से पीछे न खींच सके।
दर्द से उसका पूरा शरीर कांप रहा था । पूरा शरीर घायल हुआ पड़ा था । चेहरा, गला, छाती बांहें, शेर के पंजो ने उधेड़ दी थी और पिंडली तो जैसे शेर के जबड़े में पिपक रही थी । फर्श पर खून ही खून नजर आ रहा था । सच बात हो यह थी कि भीतर ही भीतर देवराज चौहान की हिम्मत साथ छोड़ने लगी थी । जैसे शरीर की जान निकल चुकी हो।
कई पलों तक देवराज चौहान उसी तरह फर्श पर पड़ा रहा । पीड़ा का अहसास इतना ज्यादा हो गया था कि अब जैसे उसका अहसास होना ही बहुत कम हो गया था । जैसे वो पीड़ा जिंदगी का ही हिस्सा हो । देवराज चौहान का चेहरा भट्टी की तरह तप रहा था।
शेर ने उसकी पिंडली को पूरी ताकत से जबड़े से भींच रखा था । वो जानता था कि इस बार दी गई जरा सी छूट, देवराज चौहान को कटार तक पहुंचा देगी । उधर देवराज चौहान ने आखिरी बार अपने शरीर की बची-कुची शक्ति इकट्ठी की और हाथ आगे बढ़ाते हुए कटार की तरफ बढ़ा । उधर शेर ने पूरी कोशिश कर ली कि वो आगे न सरक सके ।
देवराज चौहान थोड़ा सा और सरका हाथ तो कटार तक न पहुंच सका । परंतु उंगलियां कटार की नोक तक पहुंच गई । नोक को उंगलियों के कोने छूने लगे । देवराज चौहान की पीड़ा से दहक रहे चेहरे पर खूनी चमक आ गई । आंखों में क्रूरता भर आई । चमक और आशा भरी निगाह कटार पर जा लगी । जिसे उंगलियों के कोने छू रहे थे । यह देखकर शेर ने उसे पीछे खींचने की चेष्टा की तो देवराज चौहान ने खुद को फर्श से चिपका लिया। शेर अपनी कोशिश में कामयाब नहीं हो सका।
उसी पल देवराज चौहान ने अपने शरीर को तीव्रता से झटका दिया । मात्र एक इंच वो आगे हुआ और ये एक इंच जैसे उसकी जिंदगी के लिए वरदान बन गया । हाथ की उंगलियों के कोने में कटार की नोक को जरा सा फंसाया और अपनी तरफ सरकाया । कटार थोड़ा सा करीब आई देवराज चौहान की सांसें अब तेज चलने लगी थी । कटार की नोक को अंगूठे और उंगली में फंसकर पकड़ा और अपनी तरफ झटका दिया।
कटारे एकाएक बेहद करीब आ गई।
देवराज चौहान की आंखों में खूंखारता भर आई । हाथ फुर्ती के साथ कटार की मुठ पर जा टिका । होठों से दरिंदगी की गुर्राहट निकली। यह देखकर शेर ने पिंडली छोड़ी और खून से सना जबड़ा फाड़े उसकी गर्दन पर झपटा ।
उसी पल देवराज चौहान कटार सहित लेटे ही लेटे घूमा । आंखों के सामने शेर का खून से सना जबाड़ा चमका, जो कि उसकी गर्दन को दबोचने जा रहा था । तब तक देवराज चौहान का कटार वाला हाथ भी उठ चुका था । इससे पहले कि शेर अपने जबड़े में उसकी गर्दन को दबोचता, कटार शेर की गर्दन को काटती चली गई।
शेर के होठों से दिल-दहला देने वाली दहाड़ निकली । उसका ढेर सारा खून देवराज चौहान पर आ गिरा । साथ ही शेर का तड़पता शरीर जोरों से उस पर आ गिरा। देवराज चौहान वहीं फर्श पर हाथ फैलाकर लेट गया । गहरी-गहरी सांसें लेने लगा । उसमें इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि अपने ऊपर पड़े शेर को अपने से हटा पाता । शेर का तड़पना धीरे-धीरे कम होता जा रहा था ।
वहीं लेटे-लेटे देवराज चौहान बेहोशी में डूबता चला गया । उसके ऊपर पड़े शेर का तड़पना बंद हो चुका था। आधी कटी गर्दन शेर की लुढ़की पड़ी थी । वो मर चुका था । देवराज चौहान का जख्मों वाला हिस्सा जो नजर आ रहा था । उस पर एकाएक ऊपर से पानी की बूंदें गिरने लगी थी। जो यकीनन बेला ही गिरा रही थी और वो बेला थी। पिंडली जो कि शेर के जबड़े में जैसे पिचक सी गई थी, उस पर नीले रंग की दवा गिरने लगी । दवा के बाद जख्मों पर कुछ सूखी गाढ़ी दवा गिरने लगी । शरीर का जो जख्मी हिस्सा शेर के नीचे दबा था उस पर दवा नहीं डाली जा सकती थी । देवराज चौहान गहरी बेहोशी में डूबा पड़ा रहा।
ठीक इसी पल कमरे के खुले दरवाजे पर फकीर बाबा नजर आया । कमर में लिपटी धोती, गले में मालाएं, माथे पर तिलक, चेहरे पर असीम शांति, होंठों के बीच फंसी मधुर मुस्कान।
■■■
करीब पहुंचकर फकीर बाबा ने देवराज चौहान के बेहोश शरीर पर निगाह मारी । जख्मों पर मौजूद दवा को देखकर उसके चेहरे पर मुस्कान उभरी । फकीर बाबा ने उस भारी-भरकम शेर को देवराज चौहान के ऊपर से हटाया । देवराज चौहान के शरीर पर कहीं अन्य जख्म नजर आये तो फकीर बाबा ने होठों की होठों में कुछ बुदबुदाकर जख्मों पर हाथ फेरा तो वे एकाएक गायब हो गये। शरीर का वो हिस्सा पहले की ही तरह बिल्कुल सामान्य हो गया।
फकीर बाबा ने अपनी शक्ति के दम पर देवराज चौहान के शरीर पर मौजूद सारे जख्मों को चंद क्षणों में ही ठीक करके उसके शरीर को सामान्य अवस्था में ला दिया । पिंडली जो कि शेर के जबड़े में पूरी तरह पिस गई थी वो सब कुछ ठीक हो गया था।
उसके बाद फकीर बाबा ने हथेली सामने करके बुदबुदाया । तो हथेली पर पड़ा तांबे का कटोरा नजर आया । जिसमें काले रंग का कोई तरल पदार्थ था । नीचे झुककर फकीर बाबा ने एक हाथ से देवराज चौहान के हाथ खोले और कटोरे में मौजूद काले रंग का द्रव्य पदार्थ उसके मुंह में डालने लगे । इस काम से निपट कर फकीर बाबा उठे और शांत भाव से कमरे में चहलकदमी करने लगे।
मिनट भर ही बीता होगा कि देवराज चौहान के होठों से निकलने वाली कराह पर वो ठिठका ।
देवराज चौहान को अब होश आने लगा था । कुछ ही क्षणों में उसे पूरी तरह होश आया तो उठ बैठा । उसके पास ही शेर को मरे पाया । कटार अभी भी शेर की गर्दन में फंसी हुई थी। तभी उसकी नजरें अपनी पिंडली पर गई तो आंखें हैरानी से फैल गई ।
पिंडली तो पूरी तरह शेर के जबड़े में पिस गई थी। फिर ये बिल्कुल ठीक कैसे हो गई । देवराज चौहान की निगाह शरीर के अन्य हिस्सों पर गई जहां जख्म थे । परंतु अब वहां कोई जख्म नहीं था।
"कैसा है देवा ?"
फकीर बाबा के स्वर पर देवराज चौहान ने फौरन सिर घुमाया तो बाबा को मुस्कुराते पाया ।
"पेशीराम ।" देवराज चौहान के होठों से निकला--- "तुम ।"
"हां, मैं ।"
"तुमने ही मेरे जख्म ठीक किए ?"
"हां, अपनी शक्ति को जरा सा इस्तेमाल करके तुम्हें ठीक कर दिया ।"
देवराज चौहान उठ खड़ा हुआ । बदन पर पड़ी कमीज शेर के पंजे से चीथड़े-चीथड़े होकर झूल रही थी । पसीने से भरे बाल बिखरे पड़े थे ।
"तुम यहां कैसे आये ?" देवराज चौहान अपने पर काबू पाता जा रहा था ।
"जब मुझे खबर मिली कि तुम बेला के साथ तिलस्मी ताज लेने गए हो तो मुझे आना पड़ा । क्योंकि ताज की सुरक्षा में दालू ने कोटि का तिलस्म इस्तेमाल किया है, बेला यहां के तिलस्म को काटने की ताकत नहीं रखती। तिलस्म का विद्वान ही यहां के तिलस्म को काट सकता है ।" फकीर बाबा गंभीर स्वर में कह रहा था--- "लेकिन इस जगह में आने का रास्ता मुझे मालूम नहीं था । जिस रास्ते से तुम और बेला आये, उसे बेला ने जाने कैसा मंत्र पढ़कर बंद कर दिया कि वो नहीं खुला । तब केसरसिंह ने दूसरा रास्ता मुझे बताया जो नगरी की गुप्त जगह से यहां तक आता है । तो मैं वहां से भीतर प्रवेश हुआ था कि यहां के मौत से भरे खतरों से तुम्हें बचा सकूं।"
तभी बेला की फुसफुसाहट देवराज चौहान के कानों में पड़ी।
"इससे हाकिम के बारे में पूछो ।"
"हाकिम ।" देवराज चौहान के होठों से निकला--- "वो...।"
"मिन्नो ने हाकिम को खत्म कर दिया ।" फकीर बाबा ने मुस्कुरा कर कहा ।
"क्या ?" देवराज चौहान के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई--- "मिन्नो बच गई पेशीराम।"
"हां ।" फकीर बाबा के चेहरे पर चैन के भाव थे--- "मिन्नो बिल्कुल ठीक है । अगर तुम बेला के साथ यहां आने की जल्दी न करते । अब तक मिन्नो उस ताज को हासिल कर चुकी होती ।"
"उस वक्त हमें लग रहा था कि हमारा आना जरूरी है, यह सोचकर कि हाकिम, मिन्नो को खत्म कर देगा । ऐसे में उससे मुकाबला करने के लिए वो सिद्धियों से भरा तिलस्मी ताज काम आयेगा ।" देवराज चौहान ने कहा--- "मैंने तो ये सोचा भी नहीं था कि मिन्नो, हाकिम पर विजय प्राप्त कर लेगी ।"
फकीर बाबा पुनः मुस्कुराए।
"मैं आ गया हूं देवा । अब किसी भी तरह के खतरे से तुम्हारा सामना नहीं होगा । हम आसानी से ताज तक पहुंच जाएंगे । गुरुवर का आशीर्वाद और मेरी शक्तियों के सामने यहां बिछे तिलस्म की शक्ति बेकार हो जायेगी ।" फकीर बाबा के स्वर में विश्वास के भाव थे ।
देवराज चौहान की निगाह शेर के मृत शरीर पर गई ।
"लेकिन बेला ने तो बताया था कि इस शेर के पंजों के नाखून यहां के तिलस्म में चाबी का काम ।"
"बेला ने ठीक कहा था । सिलसिलेवार यहां के तिलस्म को तोड़ते हुए आगे बढ़ने के लिए शेर के पंजों के नाखून अवश्य चाबी का ही काम करेंगे । लेकिन गुरुवर के आशीर्वाद और अपनी शक्तियों के दम पर मैं यहां बिछे तिलस्म को प्रभावहीन कर चुका हूं । आओ मेरा हाथ पकड़ो । ताकि हम ताज तक पहुंच सकें।"
"लेकिन बेला ?" देवराज चौहान के होठों से निकला ।
तभी बेला की फुसफुसाहट देवराज चौहान के कानों में पड़ी ।
"पेशीराम जो कहता है, वही करो देवा । मैं हवा के रूप में तुम्हारे सिर पर सवार हूं, जहां तुम होगे, मैं वही हूं ।"
"ठीक है।" देवराज चौहान के होंठ हिले ।
फकीर बाबा मुस्कुराता हुआ, देवराज चौहान को देख रहा था । देवराज चौहान भी मुस्कुराया ।
"चलो पेशीराम ।"
"मेरा हाथ पकड़ो ।" कहने के साथ ही फकीर बाबा ने हाथ आगे बढ़ाया ।
देवराज चौहान आगे बढ़ा और फकीर बाबा का हाथ थाम लिया । अगले ही पल फकीर बाबा ने आंखें बंद की और होठों ही होठों में कुछ बुदबुदाया तो देखते ही देखते वो और देवराज चौहान नजरों से अदृश्य होते चले गये । कमरे में मृत शेर और बिखरा लहू ही नजर आ रहा था।
■■■
देवराज चौहान ने खुद को एक खूबसूरत कमरे में पाया । कमरे की दीवारों पर लाजवाब नक्काशी की गई थी । दीवार का रंग नीला था और उसमें लगा दरवाजा विशुद्ध सोने का था । जिस पर की गई नक्काशी देखने लायक थी । छोटे-छोटे फूल इस खूबसूरती के साथ बंधे हुए थे कि उनकी छटा देखते ही बनती थी। वहां मध्यम सा प्रकाश जाने कहां से फूट रहा था।
देवराज चौहान ने साथ खड़े फकीर बाबा को देखा ।
"ताज कहां है पेशीराम ?" देवराज चौहान ने पूछा ।
"कमरे में जाओ, यहां मौजूद हर तिलस्मी पेहरे को बेअसर कर दिया है । अब कोई खतरा तुम्हारे सामने नहीं आयेगा ।" कहने के साथ ही फकीर बाबा आगे बढ़ा और सोने के दरवाजे के दोनों भारी पल्लों को धकेल कर खोल दिया ।
पल्ले खुलते ही कमरे में मध्यम सा मीठा-मीठा प्रकाश फैला नजर आया ।
फकीर बाबा ने देवराज चौहान को देखा ।
"आओ देवा ।" फकीर बाबा ने मुस्कुरा कर कहा और कमरे में प्रवेश कर गया ।
देवराज चौहान भी कमरे में आ गया । भीतर का दृश्य देखते ही उसके होंठ सिकुड़े ।
कमरे के ठीक बीचो-बीच सामान्य नजर आने वाला ताज फर्श से पांच फीट ऊपर हवा में स्थित मौजूद था। वो किसी मुकुट जैसा था । उसके ऊपर दायें से बायें तरफ जाते, लाल, पीले, हरे, नीले सफेद, गुलाबी और भूरे रंग के खूबसूरत नगीने लगे थे । उन्हीं नगीनों में से एक पीले रंग का नगीना ताज से निकल कर पास ही हवा में अकेला मौजूद था । ताज में उस पीले नगीने की खाली जगह स्पष्ट नजर आ रही थी और वो जगह ताज की ऊपरी चोंच के हिस्से में थी। यानी कि वो पीला नगीना कोई खास ही महत्व रखता था तभी तो उसकी जगह सबसे ऊपर थी।
देवराज चौहान ने फकीर बाबा को देखा ।
"ये ही है, सिद्दियों से भरपूर वो तिलस्मी ताज ।" फकीर बाबा ने गंभीर स्वर में कहा--- "जिसकी ताकत के दम पर दालू ने नगरी और तिलस्म को अपने कब्जे में ले रखा था। इस ताज में मौजूद शक्तियों के दम पर डेढ़ सौ बरस तक हर जगह पर अपना कब्जा जमाये रहा । नगरी का समय चक्र रोककर उसने सृष्टि की संरचना को छेड़ा । ऊपर वाले के बनाये नियमों को भी तोड़ दिया । लेकिन एक दिन तो सब ठीक होना ही था । और वो दिन आ गया ।"
देवराज चौहान की निगाह पुनः ताज पर जा टिकी ।
"आगे बढ़ो देवा ! ताज पर अधिकार करो ।" फकीर बाबा ने कहा ।
"तुम क्यों नहीं ताज को लेते ?" देवराज चौहान ने फकीर बाबा को देखा।
फकीर बाबा मुस्कुराया।
"पेशीराम अपनी औकात की हद जानता है देवा । अगर तुम पास न होते और मजबूरी होती तो मैं अवश्य ताज पर अधिकार कर लेता । तुम्हारे होते हुए मेरी इतनी जुर्रत कहां कि ताज पाने का ख्याल भी मन में ला सकूं ।"
देवराज चौहान ने गहरी सांस ली और आगे बढ़ा ।
तभी फकीर बाबा ने टोका ।
"ठहरो देवा, ताज को हाथ से छूने की चेष्टा मत करना ।"
देवराज चौहान ने ठिठक कर फकीर बाबा को देखा ।
"ये कोई सामान्य ताज नहीं है। इस पर अधिकार पाने के लिए इसे पूरी इज्जत देनी पड़ेगी । तुम्हें इसके आगे झुकना पड़ेगा। सिर झुकाकर इस ताज को तुम सीधे-सीधे अपने सिर-माथे पर बिना हाथ लगाये ग्रहण करोगे । जब ये तुम्हारे सिर माथे पर आ जायेगा तो तब तुम इसे हाथ लगा सकते हो।"
देवराज चौहान ने समझने वाले भाव में सिर हिलाया ।
तभी बेला की फुसफुसाहट कानों में पड़ी ।
"देवा मैं तुम्हारे सिर से हट रही हूं । परंतु साथ ही रहूंगी ।"
"ठीक है ।" देवराज चौहान के होंठ हिले ।
दो पलों की खामोशी के बाद देवराज चौहान आगे बढ़ा और ताज के पास पहुंचकर ठिठका । वो पांच फीट की ऊंचाई पर हवा में स्थिर था । देवराज चौहान नीचे झुका । आगे बढ़ा और ठीक हवा में स्थिर ताज के नीचे पहुंच गया । फिर सीधा होकर सिर को ताज की तरफ बढ़ाया। धीरे-धीरे सिर ताज के करीब पहुंचता चला गया और फिर सिर ताज में जा फंसा । देवराज चौहान सीधा खड़ा होता चला गया ।
ताज के सिर पर आते ही देवराज चौहान ने खुद में असाधारण बदलाव महसूस किया । वो बदलाव कैसा था । ये बात वो ठीक तरह से न समझ पाया । उसने फकीर बाबा को देखा ।
फकीर बाबा की आंखों में तीव्र चमक आ ठहरी थी । चेहरे पर खुशी थी ।
"अब सब ठीक हो जायेगा ।" फकीर बाबा के होठों से निकला--- "देवा ।"
"हां ।"
"पीले रंग का जो नग हवा में स्थिर है, उसे थामो और ताज के ऊपरी हिस्से में जो जगह खाली है नग को वहां लगा दो ।" कहते हुए फकीर बाबा के स्वर में खुशी से भरा कम्पन मौजूद था।
देवराज चौहान ने हाथ बढ़ाकर नग को थामा और सावधानी से सिर पर मौजूद ताज के ऊपरी हिस्से में नग लगा दिया । जहां उसकी जगह मौजूद थी । ज्योंहि वो ताज में पीले रंग का नग लगाकर हटा, उसी समय जमीन में ऐसा कंपन हुआ जैसे भूचाल आ गया हो। गड़गड़ाहट का स्वर जोरों से गूंजने लगा। देवराज चौहान और फकीर बाबा लड़खड़ाकर रह गये । रुक-रुक कर ऐसा कई बार हुआ, फिर धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होने लगा ।
"ये क्या हुआ पेशीराम ?" देवराज चौहान के होंठों से निकला ।
फकीर बाबा हंस पड़ा ।
"आज बहुत खुशी का दिन है देवा, नगरी का समय चक्र पुनः चालू हो गया है। दालू ने वक्त को कैद करके नगरी वालों को बेबस बना दिया था । वो सब सामान्य जीवन में पुनः प्रवेश कर गये हैं ।"
"तो क्या इस पीले नग को निकालने पर नगरी का समय चक्र रुक गया था ।" देवराज चौहान ने पूछा ।
"हां, ये नग मात्र नगीना नहीं । इसमें सिद्दियों के दम पर शक्ति भरी हुई है। ताज पर लगे हर नग में अलग-अलग तरह की सिद्धियों का असर है । ये ताज दालू जैसे गलत इंसान के पास पहुंच गया था । इस ताज के दम पर दालू और भी बहुत कुछ कर सकता था । लेकिन अब सब ठीक है कुछ भी गलत नहीं । मैंने तुम लोगों को नगरी में लाकर कोई गलती नहीं की। मेरे सारे मकसद पूरे हुए । मैं खुश हूं । नगरी वाले तो खुशी से पागल हो जाएंगे । अनचाही सजा से सब मुक्त हो गये । नगरी वाले अपने जीवन का समय पूरा करके मृत्यु को प्राप्त हो सकेंगे । नये बच्चे पैदा होंगे। नगरी में अब सब कुछ सृष्टि के अनुसार ही होगा।
"पेशीराम।" देवराज चौहान के होठों से निकला--- "मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि मैं तिलस्मी विद्या का ज्ञानी हूं । मुझे तिलस्म का जर्रा-जर्रा आता है ।"
फकीर बाबा मुस्कुराया ।
"ये तिलस्मी ताज है । जिसके सिर पर होगा । वो तिलस्म का सबसे बड़ा विद्वान होगा । जब तक ये ताज तुम्हारे सिर पर है तिलस्म का कोई मंत्र तुम पर असर नहीं कर सकता । अब चलें देवा ।"
"कहां ?"
"वापस नगरी में। यहां पर हमारा काम पूर्ण हो चुका है ।" फकीर बाबा ने कहा ।
"हां, लेकिन बेला...।"
"उसकी फिक्र मत करो ।" फकीर बाबा मुस्कुराया--- "वो हर क्षण, हर स्थिति में हमारे साथ ही रहेगी ।"
■■■
नगरी में पहले हाकिम और दालू के मृत शरीर पहुंचे फिर मोना चौधरी।
नगरी के मुख्य चौराहे पर, हाकिम और दालू के शरीरों को रखा गया । जिसे भी इन दोनों के मरने की खबर मिलती, वो अविश्वास भरे ढंग से चौराहे की तरफ दौड़ा आता। दालू और हाकिम की मौत के साथ-साथ नगरी की कुलदेवी (मोना चौधरी ) के आने का भी ढिंढोरा पिटवा दिया गया ।
अचानक सुनी खबर पर किसी को विश्वास कहां, जब तक कि ये सब कोई आंखों से न देख ले । हाकिम की मौत किसी के गले से नीचे नहीं उतर रही थी । हाकिम और दालू जिनका खौफ पूरी नगरी के सिर पर तलवार की तरह लटक रहा था वे कैसे मारे जा सकते हैं ? और फिर देवी भी नगरी में आ पहुंची है । हर बात अविश्वसनीय थी।
नगरी के मुख्य चौराहे पर पांव रखने की जगह नहीं थी ।
दालू और हाकिम के शरीरों को ऊंची जगह लटकाया गया था । ताकि दूर से ही नगरी वाले इस बात की सत्यता की जांच कर लें। सच को सामने देखकर भी विश्वास नहीं आ रहा था कि ये ही सच है । दालू और हाकिम अभी जिंदा हो उठेगा ।
ऊंचे चबूतरे पर चढ़कर उनकी देवी (मोना चौधरी) ने नगरी वालों को दर्शन दिए । अपने देवी को सामने पाकर वहां खुशी का माहौल बन गया । हर कोई झुककर, लेटकर देवी को प्रणाम कर रहा था । लोग चिल्ला-चिल्ला कर जाने क्या कह रहे थे । शोर-शराबा इतना था कि कुछ भी समझ नहीं आ रहा था । जिधर नजर जाती उधर सिर ही सिर थे।
मोना चौधरी के साथ चबूतरे पर महाजन, पारसनाथ, जगमोहन, पाली, सोहनलाल, कर्मपाल सिंह, बांकेलाल राठौर, रुस्तम राव, शुभसिंह, कीरतलाल, केसरसिंह और प्रतापसिंह मौजूद थे।
महाजन, रुस्तम राव तो सारे माहौल से वाकिफ थे । परंतु अन्य सब उलझन में थे कि ये सब क्या मामला है । यूं तो उन्हें हर बात का पता था, परंतु पूर्वजन्म की बातें याद न आने की वजह से वे सब कुछ-कुछ उलझन में थे।
"सोहनलाल ।" बांकेलाल राठौर ने भीड़ के सिरों पर निगाह मारते हुए कहा ।
"हां ।"
"म्हारे को तो लगो की अंम भी हिन्दुस्तान के मशहूर नेता बनो हो । देखो तो, म्हारे को देखने वास्ते कित्ते लोग आईये हो ।" बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर जा पहुंचा ।
"तेरी मूंछों को देखने आये हैं ।" सोहनलाल बड़बड़ाकर रह गया।
"म्हारे को एको बात तो बताओ ।" बांकेलाल राठौर सोहनलाल के पास सरक आया ।
"क्या ?"
"म्हारे को मालूम लगो कि म्हारी पैले जन्मों की पत्नी भी होवो । वो होवो तो ईब भीड़ में म्हारे को यों देखोकर म्हारे चरणों में क्यों न आयो। मालूम होवो थारे को कुछ ?"
"मुझे तो अपना कुछ नहीं पता तेरे को क्या कहूं ।" सोहनलाल ने मुंह बनाया--- "कहते हैं पहले जन्म में मेरा नाम गुलचंद था । रहा होता तो मेरा कोई सगा वाला भी तो होगा । यहां पर भी तो पहुंच सकता होता।"
रुस्तम राव उनके पास आ पहुंचा।
"बाप ।" वो बांकेलाल राठौर से बोला--- "तुम्हारी पत्नी इधर नेई होएला ।"
"ईब तो म्हारे को बापो न बोलो । यां तो म्हारी पत्नी भी हौवे । बता छोरे वो किधर हौवे ?"
"बस्ती में होएला बाप ।"
"ये बस्ती किधर हो हौवे ?"
"नगरी से बाहर को होएला ।" रूस्तम राव ने कहा--- "नगरी के बाहर बोत बस्ती होएला बाप । उधर को एक बस्ती में देवराज चौहान का बस्ती-परिवार होएला । एक बस्ती में मोना चौधरी का परिवार होएला । एक तरफ गुरुवर का मठ होएला।"
"थारे को सबो पतो हौवे ?"
"हां बाप ।"
"फिर बाप बोलो हो म्हारे को । एको बात तो बतायो कि म्हारी पत्नी कैसे होवे ?"
"क्या बात करेला है बाप, अपुन किसी की बीवी की तारीफ कैसे करेला । अपुन ने तो तुम्हारी बीवी के पास देखेला न चेहरा । अपुन तो बच्चा होएला।"
"यो छोरा तो म्हारे को बाप बोलो और होवे म्हारा बापो ।"
मोना चौधरी ने देवी होने के नाते नगरी वालों को तसल्ली दी कि अब उन्हें किसी का डर नहीं है । वे पहले की तरह चैन अमन से जिंदगी बिता सकते हैं।
नगरी वालों की भीड़-पल-प्रतिपल बढ़ती जा रही थी ।
शोर बढ़ता जा रहा था ।
महाजन, मोना चौधरी से बोला ।
"तुम्हारे बापू कहीं नजर नहीं आ रहे ?"
"मालूम नहीं वो कहां है ?"
"उन्हें खबर तो मिल गई होगी कि हाकिम और दालू खत्म हो चुके हैं।" महाजन बोला ।
"ये बात तो उन्हें पक्का मालूम हो गई होगी ।"
"तुमने कहा था कि तुम मुझे मां से मिलवाओगी--- "महाजन ने आशा भरी निगाहों से उसे देखा ।
"हां महाजन ।" मोना चौधरी मुस्कुराई--- "तुम मौसी से अवश्य मिलोगे । नगरी का अधिकतर तिलस्म टूट चुका है। यहां से बस्ती का रास्ता तुम्हें याद ही होगा ।"
"हां । " महाजन के होठों से निकला--- "मुझे याद है, याद है सब मुझे । मैं बस्ती में जा रहा हूं । अपनी मां के पास जा सकता हूं । तुम-तुम चलोगी ?"
मोना चौधरी के चेहरे पर गंभीरता के भाव उभरे ।
"मैं अभी नहीं जा सकती ।"
"क्यों बेबी ?"
"मुझे देवराज चौहान और बेला का इंतजार है, जो तिलस्मी ताज लेने गये हैं । न जाने उनके साथ क्या हुआ होगा । ताज तक पहुंचने का रास्ता बहुत खतरनाक है । दालू ने ताज को बहुत ज्यादा सुरक्षा में रखा होगा और बेला तिलस्मी विद्या में इतनी माहिर नहीं कि देवराज चौहान को हर जगह से बचा सके । जब तक उनकी कोई खबर नहीं आती मैं कहीं नहीं जा सकती ।"
"मेरे ख्याल में से कुछ देर पहले ही पेशीराम उनके पीछे गया है ।"
"ये तुम कैसे कह सकते हो ?"
"पेशीराम, केसरसिंह से उस रास्ते के बारे में पूछ रहा था । शायद केसरसिंह ने पेशीराम को वो रास्ता भी दिखाया है, जो ताज तक जाता है ।" महाजन ने कहा।
"ओह, मुझे इसकी खबर नहीं, केसरसिंह से पूरी बात मालूम करो ।"
महाजन, केसरसिंह की तरफ बढ़ गया ।
वापस आकर बोला ।
"केसरसिंह कहता है कि उसकी आंखों के सामने पेशीराम को उस रास्ते में प्रवेश करते देखा है, जो ताज तक जाता है। केसरसिंह ने ही वो रास्ता पेशीराम को बताया है। पेशीराम देवराज चौहान के पीछे गया है तो हमें निश्चिंत हो जाना चाहिये । पेशीराम तिलस्म की सब चालों से वाकिफ हैं ।"
"ठीक कहते हो ।" मोना चौधरी ने सोच भरे ढंग से सिर हिलाया--- "लेकिन पेशीराम बहुत देर बाद पीछे गया है । अगर उससे पहले ही कोई अनहोनी हो गई हो तो ?"
महाजन जवाब में कुछ नहीं कह सका ।
नगरी में हर तरफ खुशी का माहौल था । जो चेहरे सहमे-सहमे, डरे-डरे रहते थे, वो आज इस तरह खिले थे कि जैसे डेढ़ सौ बरस बाद सुबह हुई हो । देवी को छोड़ने को वे तैयार नहीं थे । परंतु मोना चौधरी ने नगरी वालों से पुनः मिलने का वायदा करके, नगरी वालों से विदा ली और उन्हें कहा कि वे दालू और हाकिम के शरीरों को पवित्र अग्नि के हवाले कर दें ।
उसके बाद मोना चौधरी सबके साथ अपने उसी पुराने महल में जा पहुंची जो खंडहर जैसा हुआ पड़ा था । जगमोहन, मोना चौधरी के पास पहुंचा ।
"मुझे बताओ देवराज चौहान कहां गया है । मैं उसके पास जाना चाहता हूं ।" जगमोहन ने दृढ़ स्वर में कहा ।
"वो बहुत खतरनाक रास्ता है ।" मोना चौधरी ने व्याकुल स्वर में कहा ।
"मुझे खतरे का अहसास ना कराओ । मैं देवराज चौहान के पास जाना चाहता हूं ।" जगमोहन के दांत भिंच गये ।
"जगमोहन ।" मोना चौधरी गंभीर स्वर में बोली--- "तुम्हारा वहां जाना या न जाना एक ही बात है । क्योंकि तुम देवराज चौहान की कोई सहायता नहीं कर सकते । वहां तिलस्म की चालों से लड़ना पड़ेगा और तुम्हें तिलस्म का कोई ज्ञान नहीं। वैसे भी देवराज चौहान को उस रास्ते पर गये बहुत वक्त हो चुका है । इसलिए उसके पीछे जाने का कोई फायदा नहीं ।"
जगमोहन दांत पीसकर रह गया ।
"अगर मुझे तिलस्म का ज्ञान नहीं, तो तुम्हें तो है । तुम क्यों नहीं जाती, देवराज चौहान की सहायता करने या उसकी मौत के इंतजार में यहीं वक्त बिता रही हो ।" जगमोहन सख्त स्वर में कह उठा ।
"जगमोहन ठीको तो बोलो हो ।"
मोना चौधरी मुस्कुराई ।
"देवराज चौहान की जितनी चिंता तुम लोगों को है । उतनी मुझे भी है । देवराज चौहान की सहायता के लिए मैं अवश्य जाती । परंतु इस काम के लिए पेशीराम पहले ही जा चुका है और पेशीराम तिलस्मी शक्तियों का ही नहीं, अन्य कई शक्तियों का भी मालिक है । अगर वो देवराज चौहान को नहीं बचा सका तो समझो, मैं तो उसे बचाने के लिए बिल्कुल ही दम नहीं रखती ।"
"बेबी ठीक कह रही है ।" महाजन का स्वर गंभीर था ।
तभी कर्मपाल सिंह कह उठा ।
"मुझे भूख लग रही है । सुबह से कुछ भी नहीं खाया और दोपहर हो चुकी है ।"
कर्मपाल सिंह के शब्दों पर दूसरों को भी भूख का अहसास हुआ ।
"शुभसिंह, सबके लिए खाने का इंतजाम करो ।"
"अवश्य देवी ।"
■■■
खाना खाने के बाद उनमें से अधिकतर सुस्ताने लगे थे । रात को नींद न ले पाने की वजह से आंखें भारी हो रही थी ।
परंतु मोना चौधरी, जगमोहन, रुस्तम राव महाजन व्याकुल से नजर आ रहे थे। व्याकुल तो अन्य भी थे । परंतु ये चारों कुछ ज्यादा ही थे । चिन्ता थी देवराज चौहान की ।
तब शाम के करीब चार बज रहे थे ।
जब जमीन-महल जोरों से कांप उठे थे ।
गर्जना ऐसी हुई कि जैसे पहाड़ आपस में टकरा गये हो ।
बार-बार ये ही होता रहा । उनमें से कई चिल्लाते हुए हड़बड़ा कर महल से बाहर की तरफ दौड़े । करीब तीन-चार मिनट तक यही आलम रहा । ऐसा लग रहा था जैसे धरती को कोई नीचे से पकड़कर जोरों से हिला रहा हो । बड़े-बड़े पहाड़ आपस में टकरा रहे हो ।
फिर धीरे-धीरे ये भूचाल जैसी स्थिति थमती चली गई ।
सबकी रुकी सांसें धीरे-धीरे लौटने लगी ।
"ये...ये क्या हुआ था ?" जगमोहन के होठों से निकला ।
मोना चौधरी के चेहरे पर अजीब से भाव ठहरे थे ।
"मैं नही जानती ।" मोना चौधरी के स्वर में उलझन थी ।
"म्हारे को तो यो भूचाल लगो हो ?"
हर कोई हक्का-बक्का था ।
इस बात को अभी दस मिनट ही बीते थे कि उन्होंने कुछ ही दूरी पर फकीर बाबा और देवराज चौहान को मौजूद पाया । फकीर बाबा के चेहरे पर शांतमय मुस्कान छाई हुई थी और देवराज चौहान की कमीज चीथड़े-चीथड़े होकर झूल रही थी । बाल बिखरे हुए थे और सिर-माथे पर नगों से चमकता ताज मौजूद था ।
देवराज चौहान को सही सलामत पाकर सबके चेहरों पर खुशी की लहर दौड़ गई ।
सिर पर मौजूद ताज को देखते ही मोना चौधरी की आंखों में तीव्र चमक लहरा उठी ।
जगमोहन भागकर देवराज चौहान के गले जा लगा ।
"तुम...तुम ठीक हो ?" जगमोहन की आंखें छलछला उठी ।
"हां, पेशीराम ने मुझे कुछ नहीं होने दिया ।" देवराज चौहान मुस्कुराया ।
तभी चार कदम दूर बेला खड़ी नजर आने लगी ।
सबकी निगाह उस पर गई ।
बेला मुस्कान भरी निगाहों से सबको देखने लगी।
"छोरे ।" बांकेलाल राठौर रुस्तम राव के कान में बोला--- "येई तो म्हारी पत्नी न होवो ?"
"चुप्प होएला बाप । ये बेला होएला । मोना चौधरी की बहन ।"
"ओह, म्हारी खोपड़ी को मालूम नेई का हो जावे, जबसे सुनो कि यां पे म्हारी पत्नी न होवो ? बेला को अंम खूब जानो हो ।" बांकेलाल राठौर ने गहरी सांस ली ।
तभी फकीरबाबा ने मोना चौधरी से कहा ।
"सबसे पहले तो मैं खुशी की ये खबर देना चाहता हूं कि नगरी का समय चक्र सामान्य होकर पुनः आरंभ हो चुका है । नगरी को हर तरह की कैद से मुक्ति मिल चुकी है ।"
"सच ।" मोना चौधरी का स्वर खुशी से कांप उठा--- "नगरी में सब कुछ सामान्य होकर पुनः आरंभ हो चुका है ।"
"हां । सिद्धियों से भरपूर ताज कब्जे में आते ही सबसे पहले नगरी के समय चक्र को चालू किया गया ।"
महाजन कह उठा ।
"कुछ देर पहले जमीन कांपी थी । जैसे भूचाल आया हो। वो नगरी के समय चक्र को चालू करने की प्रक्रिया तो नहीं थी । तब बहुत तेज पहाड़ों की टकराने की जैसी आवाज भी आई थी ।"
"हां, वो भूचाल जैसी हलचल वो गड़गड़ाहट की आवाजें नगरी के समय चक्र को चालू करने की ही प्रक्रिया थी ।"
"पेशीराम ।" मोना चौधरी का स्वर खुशी में डूबा हुआ था--- "इसका मतलब अब नगरी में कोई खौफ-डर नहीं रहा । सब कुछ सामान्य हो चुका है । पहले जैसा ?"
"हां ।" पेशीराम ने सिर हिलाया---- "सब कुछ सामान्य हो चुका है । सब बस्तियां तिलस्म और समय चक्र से मुक्त हो चुकी हैं । हर कोई विधि के नियमानुसार ही अब सामान्य जीवन व्यतीत करेगा। डेढ़ सौ बरस से दालू ने बस्तियों और नगरी को कुचलने का जो चक्र चलाया हुआ था । वो ठीक हो चुका है । अब तुम लोग अपने-अपने परिवार वालों से मिलने जा सकते हो। उन्हें तुम लोगों के आ पहुंचने की खबर है और वो बेसब्री से तुम सबका इंतजार भी कर रहे हैं । तुम्हारा बापू मुद्रानाथ अपने घर, तुम्हारी मां रौनक देवी के पास पहुंच चुका है।"
मोना चौधरी तो सिर से पांव तक खुशी में डूबी थी ।
"मिन्नो ।" बेला के होठों पर गहरी मुस्कान थी ।
मोना चौधरी ने बेला को देखा ।
"अब तुम देवा से शादी कर सकती हो । मैं अपने हाथों से तुम्हें दुल्हन बनाऊंगी ।" बेला के स्वर में मीठे भाव थे। चेहरे पर चैन नजर आ रहा था--- "देवा तेरा है और तेरा ही रहेगा ।"
"नहीं बेला ।" मोना चौधरी ने कहा--- "देवा पर तेरा हक बनता है, मैं तो तब...।"
"मिन्नो ।" बेला का स्वर शांत था--- "देवा से पूछ ले मैं उसे ज्यादा चाहती हूं या तुम।"
मोना चौधरी की निगाह देवराज चौहान की तरफ उठी और नजरें उसके सिर पर मौजूद ताज पर जा टिकी । मोना चौधरी के होंठ सिकुड़े । अगले ही पल मोना चौधरी कह उठी ।
"देवराज चौहान । ताज पर तुम्हारा हक नहीं बनता । इसे अपने सिर से उतार दो।"
देवराज चौहान के चेहरे पर मुस्कान नाच उठी ।
"हममें ये बातें हुई थी कि दालू और हाकिम का मुकाबला करते हुए ताज जिसके हाथ भी आयेगा। वो उसका मालिक नहीं होगा। तब ताज को बीच में रखकर आपस में फैसला कर लेंगे कि ताज का असली हकदार कौन है ।" मोना चौधरी का स्वर शांत था।
"मोना चौधरी ताज मेरे सिर पर है और इस सिद्धियों से भरे तिलस्मी ताज में इतनी शक्ति है कि दालू भी अगर जिंदा होकर आ जाये तो मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकता ।" देवराज चौहान ने एक-एक शब्द पर जोर देकर कहा--- "ऐसे में तुम मेरा मुकाबला करने लायक नहीं रही ।"
ठीक उसी पल ही गुरुवर एकाएक उनके बीच प्रकट हुए।
शांत, आभा से भरा, तेजस्वी चेहरा सिर के बाल पीछे को होते हुए गर्दन तक जा रहे थे। माथे पर तिलक, कमर में लिपटी सफेद धोती जिसका किनारा कंधे तक जा रहा था । चमक से भरी आंखें, गले में कई तरह की मालाएं ।
पेशीराम महाजन और रुस्तम राव ने तुरंत जमीन पर लेटकर प्रणाम किया । मोना चौधरी और बेला ने दोनों हाथ जोड़ कर सिर झुकाया ।
गुरुवर ने आशीर्वाद देने के अंदाज में हौले से सिर हिलाया ।
देवराज चौहान गुरुवर के पांवों को छूने लगा तो गुरुवर ने टोका ।
"नहीं देवा, रुक जाओ ।"
देवराज चौहान ठिठका ।
"क्यों गुरुवर, मैं आपके पांव छूने का हक खो बैठा हूं क्या ?" देवराज चौहान कह उठा ।
"नहीं देवा, ये हक मैं तुमसे कैसे छीन सकता हूं ।" गुरुवार ने शांत मुस्कान के साथ कहा--- "तुम्हारे सिर पर वो ताज है, जिसे किसी के कदमों में झुकाना ठीक नहीं । इसलिए अभी सिर मत झुकाओ ।"
"मैं ताज सिर से उतार देता हूं । गुरुवर तब...।"
"नहीं, अभी तक ताज उतारने का वक्त नहीं आया ।"
"मैं समझा नहीं गुरुवर ।" देवराज चौहान के चेहरे पर उलझन उभरी ।
"तुमने मिन्नो से वायदा किया था कि पवित्र तिलस्मी ताज के बारे में फैसला मुनासिब वक्त आने पर किया जायेगा ।" गुरुवर के चेहरे पर मुस्कुराहट थी--- अब वो मुनासिब वक्त आ चुका है । तुम और मिन्नो पहले ताज के बारे में फैसला कर लो । उसके बाद मैं तुम्हें किसी भी कार्य के लिए नहीं रोकूंगा ।"
"जो आज्ञा गुरुवर ।" देवा ने कहने के साथ ही मोना चौधरी को देखा--- "किस तरह का मुकाबला करना चाहोगी तुम ?"
"मेरे ख्याल में हम हाथों से ही फैसला कर लें तो ज्यादा ठीक रहेगा ।" मोना चौधरी बोली ।
"मुझे कोई एतराज नहीं ।"
तभी बेला ने टोका ।
"मिन्नो क्या कर रही है तू । देवा से तुमने ब्याह करना है । जिससे ब्याह करना है, उसे मुकाबले के लिए ललकार रही हो । इस बात को तो बापू और मां भी पसंद नहीं करेंगे ।"
"बेला ।" मोना चौधरी का स्वर शांत था--- "इस बात से मां और बापू का कोई वास्ता नहीं । ये पूर्वजन्म का मामला नहीं, ये इसी जन्म का मामला है ।
"लेकिन मिन्नो...।" बेला ने कहना चाहा ।
"चुप रह बेला। इस मामले में तेरा दखल देना ठीक नहीं ।" मोना चौधरी ने बेला को देखा--- "सच बात तो यह है कि पेशीराम इसी ताज की वजह से हमें पाताल नगरी में लाया । ये ताज हमारी हार-जीत तय करेगा । बाकी जो होगा, उसके बाद ही होगा ।"
बेला ने मोना चौधरी को नापसन्दगी भरी निगाहों से देखा ।
"देवा, तुम ही से समझाओ कि यह सब...।"
"बेला ये जो करना चाहती है, इसे कर लेने दो ।" देवराज चौहान मुस्कुराया--- "इसकी जिद्द ने ही पूर्वजन्म में सबको मुसीबत में डाला था । ये मानने वाली होती तो मैं अवश्य इसे समझाता ।"
तभी महाजन ने टोका ।
"बेबी, रहने दो । अब ये मामला यहीं खत्म कर दो ।"
मोना चौधरी ने मुस्कुराकर महाजन को देखा ।
"मामला अब खत्म ही होने जा रहा है । पांच-दस मिनट की ही तो बात है ।"
"पारसनाथ ।" महाजन बोला--- "तुम ही 'बेबी' को समझाओ ।"
पारसनाथ ने मोना चौधरी को देखा और अपने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरकर रह गया । बोला कुछ नहीं।
मोना चौधरी की निगाह देवा पर जा ठहरी । फिर गुरुवर को देखा ।
"आज्ञा है गुरुवर ?" मोना चौधरी का स्वर शांत था ।
"यह तुम दोनों की व्यक्तिगत बात है । इसलिए मेरी आज्ञा की आवश्यकता ही नहीं ।" गुरुवर मुस्कुराये।
"गुरुवर मैं क्षमा चाहती हूं कि मेरे हाथों से हाकिम की मौत हुई, वो आपका बेटा...।"
"तुमने मेरे बेटे को नहीं, बुराई को मारा है । जिसमें मेरी पूर्ण सहमति थी कि बुराई खत्म हो जाये । मुझे खुशी है कि बुराई पर तुमने विजय पाई ।" गुरुवर ने कहा ।
मोना चौधरी ने हाथ जोड़कर गुरुवर को प्रणाम किया फिर देवराज चौहान को देखा ।
"ताज सिर से उतार दो देवराज चौहान ।" मोना चौधरी बोली ।
देवराज चौहान ने दोनों हाथों से ताज को सिर से उतारा । ताज के सिर से हटते ही खुद को वो बेहद हल्का महसूस करने लगा । जैसे कोई भारी बोझ हट गया हो ।
"बेला ।" देवराज चौहान के पास खड़ी थी। बेला ने कहा--- "ताज को थाम लो ।"
बेला आगे बढ़ने को हुई थी मोना चौधरी ने टोका ।
"नहीं, ताज को हम दोनों के अलावा कोई तीसरा हाथ नहीं लगायेगा। तीसरा किसी भी हाल में बीच में नहीं आयेगा । बेहतर यही होगा कि तुम ताज को बीच में रखकर मुकाबला करो ।"
"मुझे कोई इनकार नहीं ।" कहकर देवराज चौहान आगे बढ़ा ।
गुरुवर और पेशीराम की नजरें मिली । उनकी आंखों में भेद भरे भाव थे । होठों पर अजीब सी मीठी मुस्कान उभर आई थी ।
अन्य सब देवराज चौहान और मोना चौधरी के बीच होने वाले मुकाबले का इंतजार कर रहे थे ।
"छोरे ।" बांके लाल राठौर बोला--- "म्हारे से शर्तो लगायो का। बिना काम धंधों के थोड़ी सी इनकम हो जायो।"
"का शर्त लगाएला बाप ?"
"म्हारे को ये पक्को होवे कि देवराज चौहान इसो मुकाबलों में जीतो। कित्तों की लगायो हो शर्त ।"
रुस्तम राव खामोश रहा ।
"का बात है, थारो तो ढक्कनों ही बंद हो गयो ।" बांकेलाल राठौर ने मूंछ पर हाथ फेरा ।
"अपुन को गड़बड़ लगेला बाप ।"
"काहे की गड़बड़ों ?"
"बाप, गुरुवर और पेशीराम के चेहरे पर भेदभरी मुस्कान उभरेला । पक्को कई पे गड़बड़ होएला ।"
"थारो को तो ये ही शक्को हौवे । म्हारे से शर्त न लगानो हो तो सीधा बोलो ।"
उसकी बात सुन रहा सोहनलाल दो कदम उठाकर पास आ गया ।
"मेरे से शर्त लगा ले ।"
बांकेलाल राठौर ने उसे देखा।
"तंम तो ठन-ठन गोपाल हो वो । थारे पास हौवे ही का शर्त लगाने को ।"
"बहुत कुछ है ।" सोहनलाल धीमे स्वर में कह उठा--- "मैंने किसी को नहीं बताया, सब कुछ छुपा कर रखा है ।"
"सच बोलो हो तुम ?" बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर पहुंचा ।
"बिल्कुल सच, तुम्हारी गुरूदासपुर वाली की कसम ।"
"वो यो म्हारी होवो। थारे को कौन हक दयो उसो की कसम खाने को ।" बांकेलाल राठौर ने उसे घूरा।
"अब तू ही बता मैं किसकी कसम खाकर तुझे विश्वास दिलाऊं ?"
"ओ.के. अंमने थारी बात मानो । बतायो हारनो पर म्हारे को का दयो ?"
"दस लाख ठीक रहेगा।
"मंजूर म्हारे को ।"
"लेकिन मैं नहीं लूंगा ।" सोहनलाल ने कहा ।
"ज्यादा मांगों का ?"
"नहीं, मैं हारा तो लाख दूंगा, तू हारा तो गोली वाली सिगरेट पिएगा ।"
बांकेलाल राठौर ने घूरकर सोहनलाल को देखा ।
"तुम म्हारे को नशा करने को कहो हो । कानों को खोलो और सुनो म्हारी बात । तुम म्हारे से करोड़ों भी दयो तो तबो भी अंम नशों को हाथ नेई लगाये । अंम दसो गिलासों मक्खन वाले गोलों को लस्सी पी लयो । पर अंम नशों कभो न करियो ।"
"फिर तो तेरे से कोई शर्त नहीं लगायेगा ।" सोहनलाल ने गहरी सांस लेकर कहा ।
सबकी निगाहें देवराज चौहान और मोना चौधरी पर थी ।
चंद कदम तय करके देवराज चौहान ने ठीक बीचो-बीच खाली जगह पर ताज रखा और पुनः पीछे हटने लगा । अन्य सभी पीछे हटे, ताकि देवराज चौहान और मोना चौधरी को मुकाबला करने के लिए खाली जगह मिल सके । वहां गहरी खामोशी छा चुकी थी।
मोना चौधरी भी पीछे हटी । ठिठकी ।
देवराज चौहान भी रुका ।
दोनों की निगाहें मिली । दोनों की ही आंखों में ये भाव स्पष्ट तौर पर छिड़क रहे थे कि जीत उसकी होगी । जीत के रूप में ताज उसी के सिर पर ही रखा जायेगा ।
इससे पहले कि वे दोनों या उन दोनों में से कोई हरकत में आता ।
एकाएक नीचे पड़े ताज में से धुआं उठने लगा ।
सब चौंके ।
हैरानी से भरी आंखें सुलगते ताज पर जा टिकी ।
गुरुवर और पेशीराम के चेहरों पर छाई भेद भरी मुस्कान गहरी हो गई । रुस्तम राव ने उन दोनों की मुस्कानों को देखा तो उसके होंठ सिकुड़ कर रहे गये।
"यो ताज तो सुलगो हो ।"
एकाएक मोना चौधरी के होंठ भिंच गये । मुट्ठियां भिंच गई।
जबकि देवराज चौहान के चेहरे पर उलझन नजर आने लगी ।
"ताज को क्या हुआ ?" जगमोहन के होठों से निकला ।
उसी पल थोड़ी सी आग भड़की और ताज को अपने घेरे में ले लिया ।
ताज जलने लगा।
"इसो का काम तो हो गवो ।" मूंछ पर हाथ फेरते हुए बांकेलाल राठौर बड़बड़ा उठा ।
देवराज चौहान ने मोना चौधरी को देखा फिर पेशीराम और गुरुवर को।
"ये ताज क्यों जलने लगा ?"
"मुझसे गलती हो गई ।" दांत भींचे मोना चौधरी कह उठी ।
"क्या मतलब ?" देवराज चौहान ने उसे देखा ।
"सारी भूल मेरी रही ।" मोना चौधरी के क्रोध भरे स्वर में पश्चाताप के भाव थे--- "दैविक ताकतों से भरपूर ताज को इस तरह जमीन पर नहीं रखना था। जब मैं देवी बनी तो ताज के बारे में मुझे खासतौर से हिदायत दी गई थी । लेकिन जाने कैसे ये बात मेरे मस्तिष्क से निकल गई । इसे बेला ही थाम लेती तो बेहतर रहता । इस ताज की जगह सिर पर होती है, पैरों में नहीं । अब इसे पैरों वाली जगह पर नीचे रखा तो ये अपवित्र होकर जलकर नष्ट हो गया।"
"ओह ।"
मोना चौधरी ने गुरुवर को देखा ।
"गुरुवर ।" चेहरे पर उखड़ेपन के भाव थे ।
"बोल मिन्नो ।" गुरुवर के चेहरे पर मीठी मुस्कान थी ।
"जब ताज नीचे रखा जा रहा था तो आपको अवश्य मालूम होगा कि ताज का अब क्या अंजाम होगा ।"
गुरुवर ने सहमति में सिर हिलाया ।
"अवश्य मिन्नो । मुझे आने वाले पलों का पूरी तरह एहसास था ।" गुरुवर ने शांत स्वर में कहा ।
"तो आप इस बात से आगाह कर देते कि...।"
"जिस तरह तुम्हें बाद में याद आया कि ताज को नष्ट हुआ, उसी तरह तुम्हें पहले ही मालूम हो जाना चाहिये था और पेशीराम देवा को पहले ही इशारा दे चुका था कि ताज सिर पर रखने के लिए होता है । परंतु तुम दोनो ही भूल गये। अपनी बातों के बीच मुझे मत लाओ मिन्नो।"
"फिर भी गुरुवर आपको याद दिला देना चाहिए था कि...।"
"अवश्य दिलाता अगर मेरी ख्वाहिश ताज को सलामत रखने की होती ।"
"मैं समझी नहीं ।"
"सिद्दियों से भरा तिलस्मी ताज दालू जैसे गलत इंसान के हाथों में जा पहुंचा तो तुमने देखा ही कि दालू ने किस तरह इसका गलत इस्तेमाल किया ।" गुरुवर का स्वर गंभीर था--- "इस बात की जिम्मेदारी कौन ले सकता है कि दोबारा ताज गलत हाथों में नहीं पड़ता ।"
मोना चौधरी खामोश रही ।
"यही वजह थी कि मैं खामोश रहा था । ताज का नष्ट हो जाना ही ठीक था। नगरी में जो हादसे हुए उससे ये बात हुई स्पष्ट हो गई कि इंसान-इंसान ही होता है । वो कभी भी भगवान जैसा नहीं बन सकता । इंसान के हाथ में जब अधिक शक्तियां आ जाती हैं तो घमंड में चूर होकर, गलत रास्ते पर चल देता है । जैसे कि हाकिम, इसलिए आज के बाद मैं किसी को भी द्वंद युद्ध के अलावा और कोई विद्या नहीं दूंगा । जिसकी वजह से सामान्य लोग नर्क की तरह से जिंदगी न बितायें, नगरी का समय चक्र चालू हो चुका है। हाकिम अब नहीं रहा । बुराई समाप्त हो गई । ताज जो फिर कभी नगरी के लिए खतरा बन सकता था । वो भी नहीं रहा । दालू भी नहीं रहा । सब कुछ सामान्य हो गया । इसलिए मैं अज्ञातवास छोड़ कर वापस अपनी पुरानी जगह, उसी मठ में जा रहा हूं । जहां मैं पहले रहता था ।"
कोई कुछ नहीं बोला ।
"मिन्नो ।" गुरुवर ने कहा--- "नगरी में कई जगह तिलस्म बिछा है । कुछ जगहों पर तुमने देवा के नाम से तिलस्म बांध रखा है। देवा को साथ लेकर वो सारा तिलस्म तोड़ दो ।"
"अवश्य गुरुवर ।" मोना चौधरी कह उठी ।
तब पेशीराम ने हाथ जोड़कर गुरुवर से कहा ।
"गुरुवर, अब तो मुझे श्राप से मुक्त कर दीजिये । देवा और मिन्नो एक हो गये हैं । नगरी में पुनः शांति-व्यवस्था बहाल हो गई है । सब कुछ तो ठीक हो गया है ।"
गुरुवर के होठों पर मुस्कान उभरी ।
"अवश्य पेशीराम, परन्तु एक बार तुम देवा और मिन्नो से पूछ लो कि उनके मन में एक-दूसरे के प्रति कोई द्वेष भाव तो नहीं ।" गुरुवर ने कहा।
पेशीराम ने देवराज चौहान और मोना चौधरी को देखा ।
"अब तो तुम दोनों गुरुवर से मेरी मुक्ति के लिए कह सकते हो ।" पेशीराम ने कहा ।
मोना चौधरी ने देवराज चौहान को देखा फिर शांत स्वर में पेशीराम से बोली ।
"अवश्य पेशीराम, लेकिन ताज के नष्ट हो जाने की वजह से देवा और मेरे बीच इस बात का फैसला नहीं हो सका कि हममें जीत किसकी हुई । जबकि मैं एक बार देवा से या तो हारना चाहती हूं या फिर इसे जीतना चाहती हूं । जब इस बात का फैसला हो जायेगा, मैं स्वयं गुरुवर के पास पहुंच जाऊंगी ।"
पेशीराम ने देवराज चौहान से कहा ।
"देवा, तुम ही कहो ।"
"पेशीराम, मोना चौधरी के जवाब के पश्चात मेरा कुछ भी कहना मायने नहीं रखता । अगर सिर्फ मेरे कहने से गुरुवर तुम्हें श्राप से मुक्त कर दे तो मैं गुरुवर से कह देता हूं ।" देवराज चौहान बोला ।
गुरुवर के चेहरे पर शांत मुस्कान छाई रही ।
"मिन्नो ।" पेशीराम कुछ बेचैन हो उठा था--- "गुस्से वाली बातें छोड़ दे । तुम देख ही चुकी हो कि इन बातों में कुछ नहीं रखा । देवा को हारकर या जीत कर तुझे क्या हासिल होगा जो...।"
"मन की शांति मिलेगी ।" मोना चौधरी कह उठी ।
"इसका मतलब तू अपनी जिद नहीं छोड़ेगी ।"
मोना चौधरी ने कोई जवाब नहीं दिया ।
गुरुवर मधुर मुस्कान से मुस्कुराते रहे।
"मोना चौधरी ।" रूस्तम राव की आवाज में तीखापन था--- "पेशीराम ने अपुन लोगों की कदम-कदम पर हेल्प किएला है । नेई तो कई मरेला। डेढ़ सौ बरस से श्राप के बोझ में दबेला है। नगरी वाले आजाद होएला । समय चक्र चालू होएला। इसकी सजा खत्म कराएला बाप। बोल दे गुरुवर को, देवराज चौहान की गारंटी अपुन लेता है । वो पक्का गुरुवर को बोएला बाप।"
परन्तु मोना चौधरी ने होंठ नहीं खोले ।
"मिन्नो ।" बेला के माथे पर बल नजर आ रहे थे--- "गुरुवर से कह दे कि वे पेशीराम को श्राप से मुक्त कर दें, ये पेशीराम ही है जो तुम लोगों को दोबारा हमारे बीच लाया । जो...।"
"पेशीराम से मेरी कोई दुश्मनी नहीं है बेला ।" मोना चौधरी ने गंभीर स्वर में कहा--- "मेरी बात तो देवा के साथ है। एक बार मैं देवा से हारना चाहती हूं या फिर जीतना चाहती हूं ।"
"मुझे तेरी ये बात पसंद नहीं आई मिन्नो । जिससे ब्याह करना हो, उससे मुकाबले की बात नहीं करते ।"
मोना चौधरी ने बेला को देखा ।
"तेरे को किसने बोला कि मैंने देवा से ब्याह करना है ।"
"तो क्या नहीं करना ?" बेला अजीब से स्वर में कह उठी ।
"नहीं ।"
"ये तू कह रही है मिन्नो । जबकि पहले तो...।"
"पहले जन्म की बातें मत कर। मैं आज की बात कर रही हूं ।" मोना चौधरी ने शांत स्वर में कहा--- "तेरे को पूरी छूट है मेरी तरफ से तू देवा से ब्याह कर सकती है ।"
बेला से कुछ कहते न बना ।
महाजन और रुस्तम राव की नजरें मिली । बोले कुछ नहीं ।
तभी गुरुवर ने फकीर बाबा से कहा ।
"मैं जा रहा हूं पेशीराम ।" कहने के साथ ही गुरुवर ने सबकी तरफ आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ उठाया और फिर उसी मुद्रा में सबकी निगाहों के सामने से ओझल होते चले गये ।
फकीर बाबा ने गहरी सांस लेकर मोना चौधरी को देखा ।
"बहुत जिद्दी है तू मिन्नो । तेरा मन नहीं चाहता कि मैं गुरुवर के श्राप से मुक्त हो जाऊं ।"
मोना चौधरी कुछ नहीं बोली।
"देवा ।" फकीर बाबा ने कहा--- "तू ही मिन्नो से हार जा, मेरे लिए हार जा ।"
"मैं हारने को तैयार हूं पेशीराम ।" देवराज चौहान कह उठा--- "लेकिन हारने की कोई वजह तो हो । मेरे हां कह देने से कि मैं हार गया बात बन जाती है तो मैं ये कह देता हूं ।"
फकीर बाबा गहरी सांस लेकर कह उठा ।
"जाने तुम लोगों की हार-जीत का फैसला कब होगा ।"
तभी जगमोहन कह उठा ।
"बाबा, हम लोगों को क्यों नहीं याद आ रहा पूर्वजन्म ।"
"आयेगा सबको याद आयेगा पहला जन्म ।" फकीर बाबा ने शांत स्वर में कहा ।
"लेकिन कैसे ?"
"गुरुवर वापस मठ में आकर छोटे से यज्ञ का आरंभ करने जा रहे हैं । यज्ञ के अंत में अग्नि में तुम लोगों को शुद्ध सामग्री की आहुति देनी होगी । तब तुम लोगों को पूर्व जन्म के बारे में सब याद आ जायेगा । तब तक तुम सब अपनी बस्तियों में जाकर अपने पूर्वजन्म के परिवार वालों से मिल सकते हो।"
"परिवार वालों से मिलने का मजा तो तभ्भी हौवे, जब म्हारे को कुछ पता कुछ हौवो ।"
"कुछ दिनों की बात है। सबको सब याद आ जायेगा । लेकिन अभी कोई भी बस्ती की तरफ नहीं जायेगा पहले गुरुवर के आदेश का पालन होगा ।"
"कैसा आदेश ?"
फकीर बाबा ने देवराज चौहान और मोना चौधरी को देखा ।
"तुम दोनों नगरी में मौजूद सारे तिलस्म को खत्म करो। ये काम करके जब यहां आओगे तो हम सब यहीं मिलेंगे ।" फकीर बाबा ने कहा ।
देवराज चौहान और मोना चौधरी की निगाहें मिली ।
"ठीक है।" मोना चौधरी ने कहकर देवराज चौहान को देखा--- "तुम चलने को तैयार हो ?"
"जरूर ।" देवराज चौहान के होठों पर मुस्कान उभरी ।
"इस काम में कितनी देर लगेगी ?" पारसनाथ ने पूछा ।
"एक दिन भी लग सकता है और पांच दिन भी ।" फकीर बाबा ने कहा--- "यहां तो मिन्नो को ही मालूम होगा कि कितना तिलस्म समाप्त कर चुकी है और कितना शेष है ।"
मोना चौधरी ने सोच भरे स्वर में कहा ।
"ज्यादा तिलस्म नहीं बचा। चार-पांच दिन का समय तो अवश्य लगेगा।"
"जितना भी वक्त लगे । काम समाप्त होने पर यहीं लौटना । हम यहां तुम दोनों का इंतजार कर रहे हैं ।" फकीर बाबा ने शांत स्वर में कहा--- "यहां से हम बस्ती की तरफ रवाना होंगे । गुरुवर का आदेश पूरा करने के पश्चात ।"
कुछ ही देर में देवराज चौहान और मोना चौधरी बचे-खुचे तिलस्म को नष्ट करने के लिए वहां से रवाना हो गये।
■■■
देवराज चौहान और मोना चौधरी के जाने के बाद सब नहाने-धोने में व्यस्त हो गये । शुभसिंह, प्रतापसिंह, कीरतलाल और केसरसिंह उनकी जरूरत की वस्तुएं मुहैया करा रहे थे । फकीर बाबा एक तरफ पेड़ के नीचे घास पर बैठे थे बेला पास पहुंची ।
"पेशीराम ।"
फकीर बाबा ने बेला को देखा । बेला उसके पास ही नीचे बैठ गई ।
"मुझे दुख हुआ कि मिन्नो ने तेरी बात नहीं मानी । गुरुवर से उसने..।"
"बेला ।" फकीर बाबा मुस्कुरा पड़ा--- "अभी बहुत मौके हैं, मिन्नो के मान जाने में।"
"वो कैसे पेशीराम ?"
"मिन्नो घर जायेगी । मुद्रानाथ से मिलेगी । मां से मिलेगी । तू भी वहां होगी । नीलसिंह होगा । मौसी होगा । परसू और उसके परिवार वाले होंगे । उन सबको भी पता चल जायेगा कि मिन्नो अपनी जिद पर अड़ी हुई है । वो सब भी मिन्नो को मनवाने के लिए जोर मारेंगे । परसू को तो अभी तक पूर्वजन्म की बातों का पता ही नहीं है । ये सारे हालात कभी भी मेरे हक में हो सकते हैं ।"
"हां पेशीराम, हम सब मिन्नो को मजबूर करेंगे कि देवा से हार-जीत का मतलब छोड़ दे ।" बेला ने कहा ।
"मिन्नो के सामने जो मजबूरी आ रही है, वो मैं समझ रहा हूं ।"
"क्या मतलब ?"
"मिन्नो, पूर्वजन्म में हुई देवा से दुश्मनी को छोड़ चुकी है । उसने यह महसूस करके समझौता कर लिया कि उसकी गलतियां थी।" पेशी राम ने कहा--- "परंतु अब वो जिद पर इसलिए है कि देवा के साथ दुश्मनी की बुनियाद इस जनम में पृथ्वी पर पड़ी है । पहले जन्म की तरह मिन्नो इस जन्म में भी जिद्दी तो है ही । देवा के लिए मिन्नो के मन में कोई नफरत या दुश्मनी नहीं, वो सिर्फ ये चाहती है कि एक बार देवा के साथ फैसला हो जाये, बेशक उसमें हार उसी की ही क्यों न हो । मेरे ख्याल में मिन्नो के नजरिये से देखा जाये तो मैं मिन्नो को गलत नहीं कह सकता। वह नहीं चाहती कि भविष्य में ये बात उसके मन में खटकती रहे ।"
बेला खामोश रही ।
फकीर बाबा ने बेला को देखा ।
"तू कुछ सोच रही है बेला ?" फकीर बाबा ने पूछा ।
बेला ने निगाहें उठाकर पेशीराम को देखा ।
"उलझन में हूं पेशीराम ।" बेला का स्वर धीमा था ।
"कैसी उलझन ?"
बेला ने कुछ दूरी पर मौजूद अपने कामों में व्यस्त, सब पर निगाह मारी।
"पेशीराम, मिन्नो स्पष्ट तौर पर देवा से ब्याह करने को इनकार कर चुकी है ।
"हां । फकीर बाबा ने सिर हिलाया--- "मेरे ख्याल में वो किसी भी हाले-सूरत में देवा ब्याह नहीं करेगी ।"
"वो क्यों पेशीराम ?"
"जन्म का असर है । ग्रह का असर है ।" फकीर बाबा ने गहरी सांस ली--- "पृथ्वी पर देवा और मिन्नो जिन हालातों में रह रहे हैं । उन हालातों को सामने रखें तो वो कभी भी एक दूसरे से ब्याह नहीं करेंगे । मिन्नो देवा से ब्याह करने को पागल थी तो वो उसका पहला जन्म था । वो जन्म गया तो बातें भी गई । नया जन्म, नई बातें, नये हालात । जरूरी तो नहीं कि जो एक में हो वो बात दूसरे जन्म में भी हो ।"
बेला ने गंभीर निगाहों से पेशीराम को देखा ।
"अगर ऐसी बात है तो पेशीराम मैं देवा से ब्याह कर लूं तो मिन्नो को गुस्सा नहीं आयेगा ।" बेला ने कहा ।
"मिन्नो को इस जनम में इस ब्याह पर कोई एतराज नहीं होगा ।" फकीर बाबा मुस्कुरा पड़ा--- "लेकिन...।"
"लेकिन क्या पेशीराम ?"
दो पल की चुप्पी के बाद फकीर बाबा ने कहा ।
"तुम ये बात कैसे कह सकती हो कि देवा तुमसे ब्याह कर लेगा ।"
बेला के माथे पर बल पड़े ।
"देवा ने ऐसा बोला पेशीराम ?"
"नहीं, देवा से मेरी कोई बात नहीं हुई । मैं तो अपनी सोच जाहिर कर रहा हूं । हो सकता है देवा खुद ही पिछले जन्म की बातों को सोचकर तुमसे ब्याह करने को कह दे । ये तुम दोनों की बात है, किसी तीसरे का कोई मतलब नही ।"
बेला कशमकश में फंसी फकीर बाबा को देखने लगी ।
"तुम्हारा ख्याल क्या कहता है पेशीराम । देवा मेरे से ब्याह करेगा या नहीं ?" बेला के स्वर में न महसूस होने वाली तड़प थी, जिसे फकीर बाबा ने महसूस कर लिया था ।
"बेला, मैं इस बारे में कुछ भी नहीं कह सकता । ये सब पृथ्वी वासी हैं । जहां पर कोई अपने मतलब को सामने रखकर ही काम करता है ।" फकीर बाबा ने गंभीर स्वर में कहा--- "मैं जानता हूं ये सब अपने पूर्वजन्मों के परिवार वालों से मिलने के पश्चात वापास पृथ्वी पर जाना चाहेंगे और वायदेनुसार मुझे इन सबको पृथ्वी पर ले जाना होगा । ज्यादा वक्त नहीं बचा । इसलिए देवा के साथ ब्याह की बात करनी हो तो जल्दी ही कर लेना । वह माने या न माने यह तो ऊपर वाले के हाथ में है । गुरुवर के अलावा भविष्य के बारे में कोई नहीं जान सकता कि अब क्या होगा ।"
इससे पहले बेला कुछ कहती रुस्तम राव वहां आ पहुंचा ।
"बाबा ।" रूस्तम राव पास बैठता हुआ बोला--- "अपुन बस्ती में किधर जाएगा । अपुन का तो घर नेई होएला।"
फकीर बाबा मुस्कुराया ।
"तेरा वही घर है त्रिवेणी । जो पहले था।"
"वो जो तुम्हारा घर होएला ?" रूस्तम राव मुस्कुराया ।
"हां, जहां मैं रह रहा था । जहां तुम लाडो से मिले थे । वो तिलस्मी आवास था। जो कि तिलस्म के साथ ही समाप्त हो गया है । अब सबको नगरी और बस्तियों में रहना होगा । पहले की तरह । लाडो वहां तेरा इंतजार कर रही है ।"
"लाडो---सच बाबा ।" रूस्तम राव का चेहरा खिल उठा ।
"हां, सब कुछ तो अब पहले जैसा हो चुका है । वैसा ही, जैसा छोड़ कर गये थे ।"
"समझेएला बाबा ।" करने के साथ ही रुस्तम राव ने बेला को देखा--- "क्यों बेला, तेरा ब्याह देवा से होएला क्या ?"
बेला मुस्कुरा पड़ी ।
"देवा क्या कहता है ब्याह के बारे में ?"
"अपुन की देवा से बात नेई होएला । पण एक बात सच कहेला कि अगर तू देवा से ब्याह करेला तो मिन्नो पक्का कोई पंगेएला पाएला।" रूस्तम राव का स्वर गंभीर होता चला गया ।
बेला के चेहरे पर भी गंभीरता उभरी ।
"इस बार ऐसा नहीं हो पायेगा त्रिवेणी ।" बेला के स्वर में दृढ़ता थी--- "देवा से ब्याह करने का पहला मौका मिन्नो को होगा । उसके बार-बार इंकार करने पर ही मैं देवा से ब्याह करूंगी।"
"पण इस बात का भी क्या भरोसा होएला कि देवा ब्याह को तैयार होएला ?"
बेला ने फकीर बाबा को देखा, कहा कुछ नहीं ।
पाठकों, जैसा कि आपने पढ़ा कि ताज का मसला जो की "जीत का ताज" से आरंभ होकर "ताज के दावेदार" से होता हुआ "कौन लेगा ताज" में आकर समाप्त हो गया। परंतु जिस फैसले की खातिर देवराज चौहान और मोना चौधरी इस नगरी में आये थे वो अभी तक हल नहीं हो सका। दोनों में से कौन बड़ा है, तय नहीं हो पाया । इसके अलावा भी कई सवाल और कई बातें अब आपके मस्तिष्क में अवश्य होगी, जैसे कि आपने देवराज चौहान मोना चौधरी, महाजन, रूस्तम राव के पूर्वजन्मों की बातों को टुकड़ों में पढ़ा। यकीनन ये सब दिलचस्प लगा होगा और मन में ये इच्छा भी अवश्य होगी कि पूर्वजन्म में क्या हुआ था । देवराज चौहान, मोना चौधरी, जगमोहन, महाजन, सोहनलाल, पारसनाथ, बांकेलाल राठौर, रूस्तम राव के पूर्वजन्म के परिवार वाले कौन थे, तब कैसा माहौल, कैसा वक्त हुआ करता था । फिर खास बात यह कि बेला या मोना चौधरी में से कौन ब्याह कर पाया देवराज चौहान से या कोई भी नहीं कर पाया ? रूस्तम राव ने लाडो से ब्याह किया या नहीं ? क्या मोना चौधरी ने फकीर बाबा के श्राप से मुक्ति की खातिर अपनी जिद छोड़ दी ? ऐसी और भी कई बातें हैं जो इन उपन्यासों से पैदा हुई है, जिसके बारे में आप लोग अवश्य जानना चाहेंगे । तो पाठकों देवराज चौहान मोना चौधरी का जो भी उपन्यास अब प्रकाशित होगा, उसमें आपको हर सवाल का जवाब मिलेगा और इस उपन्यास को प्रकाशित होने में ज्यादा समय नहीं है । सब पात्रों के पूर्वजन्म की बातें आपके सामने होंगी ।
इधर पारसनाथ महाजन के पास पहुंचा ।
महाजन नहा-धोकर फ्रेश होने के बाद बोतल से घूंट भरने में व्यस्त था ।
"क्या सोच रहा है महाजन ?" पारसनाथ बोला ।
"मां के बारे में ।" महाजन मुस्कुराया--- "जब मां के सामने जाकर खड़ा हो जाऊंगा तो उसकी क्या हालत होगी ।"
पारसनाथ ने खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरा ।
"मेरा परिवार भी है वहां पहले जन्म का ?" पारसनाथ ने पूछा ।
"हां ।"
"कौन है मेरे परिवार में ?"
महाजन ने पारसनाथ को देखा फिर घूंट मार कर मुस्कुराया ।
"पहले की बता दिया तो, फिर मजा आ रहा ।" महाजन बोला--- "तेरे में तो सब्र बहुत है परसू भाई । एक-दो दिन और सब्र कर ले । फिर सब कुछ तुम्हारे सामने ही होगा ।"
जवाब में पारसनाथ महाजन को घूरता अपनी खुरदरे चेहरे पर हाथ फेरने लगा ।
महाजन मुस्कुरा कर रह गया।
देवराज चौहान और मोना चौधरी दो दिन बाद वापस लौटे। नगरी में से, बस्तियों में थे और जहां तिलस्म बनाया हुआ था । हर जगह से वो तिलस्म का नामोनिशान मिटा आये थे । अब कहीं भी तिलस्म नहीं था । हाकिम नहीं था, दालू नहीं था । समय चक्र चालू हो चुका था । हर कोई डेढ़ सौ बरस से सिर पर मंडराते अनजाने खौफ से मुक्त हो चुका था । नगरी का जर्रा-जर्रा सामान्य स्थिति में आ गया था।
नगरी और बस्तियों के लोग खुश थे । जश्न मना रहे थे । खुशियां बांट रहे थे । हर तरफ देवा और मिन्नो का ही जिक्र था । अमरु और गुलाब लाल भय से जाने कहां छिपे थे । वो किसी की नजर नहीं आये। मोना चौधरी, केसरसिंह, शुभसिंह, प्रतापसिंह और कीरतलाल से बोली।
"तुम नगरी को सामान्य हालत में लाओ । नगरवासियों की जरूरतों का पूरा ख्याल रखो । अच्छे लोगों को अपने साथ लगा लो । किसी भी तरह की शिकायत मुझे न मिले । सबके दिलों से भय पूरी तरह निकाल कर वहां प्यार भरना है । ताकि सबको विश्वास हो जाये कि अब कभी डर उन्हें नहीं घेरेगा ।"
"ऐसा ही होगा देवी ।" शुभसिंह तुरंत बोला ।
केसरसिंह, कीरतसिंह और प्रतापसिंह ने भी सहमति से सिर हिलाया ।
"मैं अपने बापू के पास बस्ती में जा रही हूं । कुछ दिनों बाद लौटकर नगरी को देखूंगी कि मेरे कहने के अनुसार नगरी में बदलाव आया है कि नहीं ।" मोना चौधरी बोली ।
"आपका कहा खाली नहीं जायेगा देवी ।" शुभसिंह ने आदर भरे स्वर में कहा ।
"तुम चारों अभी नगरी की तरफ रवाना हो जाओ ।"
शुभसिंह, केसरसिंह, कीरातलाल और प्रतापसिंह वहां से चले गये ।
"पेशीराम।" मोना चौधरी की निगाह पाली और कर्मपाल सिंह पर जा टिकी ।
फकीर बाबा पास आया ।
"पाली और कर्मपाल सिंह के रहने का प्रबंध किसी अच्छी जगह कर दो ।" मोना चौधरी ने कहा ।
"मैं इंतजाम कर दूंगा ।" फकीर बाबा ने कहा।
देवराज चौहान, जगमोहन के पास पहुंचकर मुस्कुरा कर बोला ।
"अब तुम बस्ती में अपने परिवार वालों के पास जा रहे हो । वो बेसब्री से तुम्हारा इंतजार कर रहे होंगे । जग्गू का इंतजार । उनसे मिलकर तुम्हें भी बहुत खुशी होगी ।"
"लेकिन मुझे तो अपने पहले जन्म के बारे में कुछ भी याद नहीं ।" जगमोहन बोला ।
"सब याद आ जायेगा । जल्दी याद आयेगा ।"
तभी बांकेलाल राठौर पास आते हुए बोला ।
"म्हारी बातों का जवाब भी दयो की म्हारी पत्नी देखने में कैसी हौवे ?"
देवराज चौहान ने मुस्कुरा कर उसे देखा ।
तभी चंद कदम दूर खड़ा रुस्तम राव कह उठा ।
"बाप, अभ्भी चलने का है । अपणी अंखियों को देखेएला बाप ।"
"छोरे । उसे के सामने म्हारे को बाप मत बोलियो । म्हारे को उसे के सामने पूर्व इज्जत बनानो हौवे ।" कहते हुए बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर जा पहुंचा ।
सोहनलाल अपने आप में मस्त गोली वाली सिगरेट फूंकने में व्यस्त था ।
मोना चौधरी ने फकीर बाबा को देखा ।
"पेशीराम, गुरुवर के आदेश का पालन हो चुका है । अब हमें अपनी-अपनी बस्ती की तरफ चल देना चाहिये ।"
"अवश्य मिन्नो ।" पेशीराम मुस्कुराया।
मोना चौधरी ने बेला को देखा ।
"आ बेला ! महाजन, पारसनाथ चलो ।"
बेला ने देवराज चौहान को देखा । देवराज चौहान ने उसे। बेला मुस्कुराई । अपनेपन से भरी, मीठी, मधुर मुस्कान । जवाब में देवराज चौहान भी मुस्कुराया ।
मोना चौधरी उन तीनों को लिए महल से बाहर निकली और आगे बढ़ती चली गई ।
देवराज चौहान ने सबको देखा तो फकीर बाबा कह उठा ।
"त्रिवेणी मेरे साथ जायेगा देवा ।"
देवराज चौहान ने रूस्तम राव को देखा ।
"पक्का जाएला बाप, उधर लाड़ो अपुन का इंतजार करेला ।" रुस्तम राव खुशी भरे स्वर में कह उठा।
देवराज चौहान मुस्कुराया । फिर जगमोहन, सोहनलाल, बांकेलाल राठौर को साथ लिए, सब से विदा ली और महल से बाहर निकल गया। फकीर बाबा ने रूस्तम राव, कर्मपाल सिंह और पाली को देखा । कर्मपाल सिंह और पाली का कहीं रहने का इंतजाम करके फकीर बाबा रुस्तम राव के साथ फौरन लाडो के पास पहुंच जाना चाहता था।
समाप्त
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