देवराज चौहान दिन वाले मेकअप की अपेक्षा शाम को रेस्टोरेंट में नया मेकअप करके आया था कि कोई उसे पहचान न सके कि वो दिन में भी आया था। चेहरे पर काले- सफेद बालों की दाढ़ी और ऐसी ही विग सिर पर लगा रखी थी। वो पचास बरस के आसपास का व्यक्ति लग रहा था ।


रैस्टोरैंट में आते ही वो सीधा बार में जा पहुंचा था। भीड़ ज्यादा थी। ऐसे में बंसीलाल के उन आदमियों को ढूंढ पाना- देख पाना आसान नहीं था, जो उसके इन्तजार में वहां फैले हुए थे। बार में पहुंचकर देवराज चौहान ने हर तरफ नजर मारी। बैठने के लिये कोई जगह खाली नहीं थी। बार काउंटर पर जाकर उसने पेमेंट देकर बिगर का मग लिया और एक तरफ खड़ा होकर छोटे-छोटे घूंट लेते हुए उस दरवाजे की तरफ देखा, जिसके बारे में वो दिन में सोचकर गया था कि इस दरवाजे के पास ही बंसीलाल के बैठने की जगह होगी।


उधर नजर पड़ते ही उसकी आंखें सिकुड़ीं।


सोहनलाल को देखता रहा गया देवराज चौहान । सोहनलाल हाथ में पैग थामे, दरवाजे के पास मौजूद होटल के कर्मचारी के पास पहुंचा और उसे पिलाकर पुनः वापस बार काउंटर की तरफ चला गया। तीसरे मिनट ही वापस आया और पुनः पैग को पिला दिया।


देवराज चौहान दिलचस्पी के साथ सोहनलाल की हरकत को देखता रहा। वो समझ नहीं पाया कि सोहनलाल ये सब क्या कर रहा है। लेकिन इतना जानता था कि सोहनलाल अवश्य किसी के फेर में होगा।


और फिर आखिरकार कर्मचारी को स्टूल पर बैठते और सोहनलाल को दरवाजा खोलकर भीतर जाते देखा। देवराज चौहान के होंठ सिकुड़ गये। वो सोहनलाल के बाहर आने का इन्तजार करने लगा। बियर के घूंट भरता रहा। मग खाली हो गया तो उसे एक तरफ रख दिया।


पन्द्रह मिनट बीत गये ।


सोहनलाल वापस नहीं लौटा।


" देवराज चौहान समझ नहीं पाया कि सोहनलाल को भीतर क्या काम हो सकता है कि जो उसे वापस आने का इतना वक्त लग गया। वो कर्मचारी स्टूल पर बैठा दीवार से सिर टिकाये हुए था । सोहनलाल के भीतर जाने के बाद दो-तीन लोग भीतर आये गये थे, परन्तु किसी ने भी स्टूल पर बैठे कर्मचारी की तरफ ध्यान नहीं दिया था ।


देवराज चौहान ने अपनी जगह छोड़ी और उस तरफ बढ़ने लगा। भीड़ बहुत थी। फिर भी इस बात का ध्यान रखने की चेष्टा कर रहा था कि किसी की निगाह उस पर तो नहीं। लेकिन ऐसा कुछ नजर नहीं आया था। सामान्य चाल से चलकर देवराज चौहान दरवाजे के पास पहुंचा तो स्टूल पर बैठा नशे में धुत कर्मचारी कह उठा । 


“इधर नहीं जाना। ये नो एंट्री है ।” 


देवराज चौहान ने उसे देखा। “वो तो गया।” देवराज चौहान बोला । 


“वो कौन ?” 


“जो तुम्हें पिला रहा था ।” 


“वो तो मेरा यार है। तेरे को क्या?" नशे में वो हाथ हिलाकर कह उठा।


"सोहनलाल तुम्हारा यार है?" देवराज चौहान ने जानबूझकर नाम लिया।


"तुम-तुम जानते हो उसे "


"जानता!” देवराज चौहान ने जानबूझ कर हैरानी से कहा- “वो तो मेरा भी यार है। हम इकट्ठे ही यहां आये हैं। मैं रेस्टोरेंट में चला गया और वो पैग मारने यहां आ गया।"


“फिर तो बधाई हो तुम्हें ।" नशे में झूमता वो कह उठा। 


“बधाई ?”


“अरे भाई, अपने यार सोहनलाल के जुड़वां बच्चे होने की। दस साल बाद वो बाप बना है। एक साथ दो बच्चों का ।” 


देवराज चौहान समझ गया कि सोहनलाल ने इससे किस तरह यारी गांठी ।


“तभी तो खुशी में मुझे यहां ले आया। खाने-पीने के लिये“


"सुना है एक बार उसने भिखारी को ढाई मंजिला मकान बनवाकर दिया।"


“बनवा दिया होगा। बहुत पैसा है उसके पास।" देवराज चौहान मुस्कराया - "ऐसे काम वो करता रहता है।”


“मेरी सारी उम्र बीत गई। मैं आज तक मकान नहीं बना पाया। वो एक, मेरे को बना देगा मकान ?”


“बात कर लेना ।”


“तुम सिफारिश लगा देना।"


“जरूर । मैं जरा भीतर होकर- ।”


"वो बंसी भाई के शानदार बाधरूम में गया है। अभी तक नहीं लौटा तो दूसरे काम में लग गया। जाओ तुम भी बढ़िया बाथरूम का मजा ले लेना । कुछ हो जाये तो मेरे को मत कहना।” 


“क्या होना है ?”


" पन्द्रह-बीस मिनट पहले बंसी भाई भीतर गये हैं। अपने ऑफिस में होंगे। ये तो अच्छा हुआ कि मेरे को देखकर पहचाना नहीं कि मैंने पी रखी है।" उसकी आवाज नशे में बहक रही थी -- "लगता है क्या मैंने पी रखी है?"


“नहीं। जरा नहीं लगता।" देवराज चौहान मुस्कराया- “मैं सोहनलाल के पास होकर आता हूं।" 


“जाओ।”


बंसी भाई का ऑफिस कौन-सा है। कहीं मैं दूसरी जगह न चला जाऊं - ।"


“आगे जाकर बाईं तरफ का दूसरा दरवाजा है, बंसी भाई का । ” 


देवराज चौहान दरवाजा धकेलकर भीतर प्रवेश कर गया। गैलरी खाली थी।


देवराज चौहान आगे बढ़ने लगा। हाथ जेब में पड़ी रिवाल्वर पर पहुंच गया। आंखों में सख्ती उभरी स्पष्ट नजर आ आने लगी थी। बाररूम का मध्यम-सा शोर कानों में पड़ रहा था ।


बाईं तरफ के दूसरे दरवाजे के पास पहुंचते ही देवराज चौहान ठिठका। गैलरी में अभी भी कोई नजर नहीं आया था। देवराज चौहान ने फुर्ती से रिवाल्चर निकाली और दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश कर गया। इसके साथ ही भीतर से दरवाजा बंद कर लिया।


बंसीलाल कुर्सी की पुश्त से पीठ टिकाये, उंगलियों में फंसी सिगरेट के कश ले रहा था। चेहरे पर सोच के भाव थे। दरवाजा खुलते पाकर उसने फौरन उधर देखा।


रिवाल्वर थामे देवराज चौहान को भीतर आता पाकर उसकी आंखें सिकुड़ीं। दूसरे ही पल फुर्ती के साथ उसने अपना हाथ टेबल के नीचे की तरफ बढ़ाया।


"कोई हरकत मत करना।" देवराज चौहान दरिन्दगी भरे स्वर में गुराया- "हाथ रोको ।”


बंसीलाल का हाथ रुक गया। नजरें देवराज चौहान पर ही रहीं।


“कौन हो तुम?" बंसीलाल के होंठों से कठोर स्वर निकला"यहां तक कैसे पहुंच गये?"


“खड़े हो जाओ।” देवराज चौहान का स्वर पहले जैसा ही था। 


"क्या?” बंसीलाल की आखें सिकुड़ीं-“तुम मेरे यहां आकर मुझ पर हुक्म चला।"


“मैंने कहा है खड़े हो जाओ।" देवराज चौहान ने एक-एक शब्द चबाकर कहा।


बंसीलाल देवराज चौहान के चेहरे के भाव देखने के बाद उसके हाथ में दवी रिवाल्वर पर नजर मारते हुए खड़ा हो गया। चेहरा गुस्से से भरा पड़ा था।


"टेबल के इस तरफ आकर कुर्सी पर बैठ जाओ।" देवराज चौहान ने उसी लहजे में कहा।


“तुम जो भी कर रहे हो। बहुत गलत कर रहे -- " 


“चुप रहो। जो कह रहा हू सिर्फ वही करो।" देवराज चौहान का खतरनाक स्वर बेहद कठोर हो गया।


खा जाने वाली नजरों से देवराज चौहान को घूरते हुए बंसीलाल टेबल के पीछे से निकला और उसके पास से होते हुए दूसरी तरफ वाली कुर्सी पर बैठते हुए सख्त स्वर में कहा उठा। 


"तुम्हारी आवाज से पहचान चुका हूं। तुम सुरेन्द्र पाल हो। मैंने फोन पर तुमसे बात की थी।"


देवराज चौहान के चेहरे पर खतरनाक मुस्कान उभरी । वो बंसीलाल वाली कुर्सी पर जा बैठा। रिवाल्वर हाथ में थी और रुख बंसीलाल की तरफ था।


"देर में पहचाना। मैंने तुम्हारी आवाज सुनते ही तुम्हें पहचान लिया था।" देवराज चौहान शब्दों को चबाकर बोला।


“बाहर मेरे आदमी तुम्हारे आने का इन्तजार कर रहे हैं। हैरानी है कि तुम बचकर यहां तक आ गये।”


" हैरानी को कोई बात नहीं। तुम्हारे आदमियों की भी गलती नहीं।" देवराज चौहान रिवाल्वर उंगलियों में घुमाते हुए कह उठा" भीड़ में तुम्हारे आदमियों का धोखा खा जाना मामूली बात है। " 


“तुम बच नहीं सकोगे।" बंसीलाल ने खतरनाक स्वर में कहा- “मेरे बारे में शायद तुम ठीक से जानते नहीं कि - "


“तुम्हारे बारे में बहुत अच्छी तरह जानने के बाद ही यहां आया हूं।" कहते हुए देवराज चौहान के दांत भिंचते चले गये- "तुमने दिव्या का अपहरण किया। उससे बलात्कार किया और-।"


“बहुत खूबसूरत थी वो।" कहर भरे ढंग से वो मुस्कराया -- “तुम उसे देखते तो-i"


“उसके बाद


उसकी हत्या कर दी - i"


“वो उसकी गलती थी। मेरे पास मजे में थी। उसे भागने की कोशिश नहीं करनी चाहिये थी।”


“अब थापर तुम्हारी कैद में है ?”


“हां ।” उसी ढंग से मुस्कराया बंसीलाल- “तुम उसी के कहने पर मेरे पीछे पड़े हो । मोटा माल लिया होगा उससे"


“कहां है थापर ?” देवराज चौहान का चेहरा क्रूरता से भर उठा ।


“मेरी कैद में मजे से है। उसकी तुम चिन्ता न करो।” 


“दिन में तुम्हारे आदमी ने मेरी जान लेने की कोशिश की-" 


“हां । मुरली की किस्मत खराब थी। तुमने निशाना ले लिया उसका।"


“मुझे थापर के पास ले चलो।” ! 


" ये सब बाद की बातें हैं।" बंसीलाल जहर भरे ढंग में हंसा- “पहले ये बताओ कि तुम कौन हो?”


"सुरेन्द्र पाल - ।"


"असली नाम बताने का अभी वक्त नहीं आया ।” 


“कब आयेगा ?" 


"जब तुम्हें शूट करूंगा।" देवराज चौहान ने सर्द स्वर में कहा। 


“फिर वो वक्त नहीं आने वाला।" बंसीलाल पहले वाले ढंग में हंसा- "मतलब कि तुम्हारा असली नाम नहीं जान पाऊंगा। क्योंकि तुम यहां से जिन्दा बचकर नहीं जा सकते। अकेले हो या साथी भी हैं तुम्हारे साथ | साथी तो जरूरी होंगे। शेर की मांद में आने के लिये कुत्ते-बिल्लियों के साथ की जरूरत पड़ती ही है।” ।


"ये तुम्हारा असली नाम नहीं हो सकता ।”


देवराज चैहान दांत भींचे कुछ कहने लगा कि तभी-हवा के तेज झोंके की तरह दरवाजा खुला और रिवाल्वर थामे नगीना नजर आई।


दोनों की नजरें दरवाजे पर गईं । नगीना को इस तरह सामने पाकर देवराज चौहान, चौंका । 


“तुम ?” उसके होंठों से निकला। 


पल भर के लिये तो नगीना भी ठगी-सी रह गई। देवराज चौहान बंसीलाल के प्रति लापरवाह नहीं हुआ। 


नगीना ने फौरन खुद को संभाला और कह उठी। “इसने बताया कि थापर को कहां कैद कर रखा है। थापर यहां बेसमैंट में कैद है।"


देवराज चौहान की खतरनाक निगाह पुनः बंसीलाल पर गई । 


तभी कदमों की आहट के साथ नगीना के पीछे रुस्तम राव की आवाज कानों में पड़ी । 


“बाप आपुन है। रुस्तम राव। दीदी यहां खड़े होने की जरूरत नहीं होएला। आपुन को मालूम है थापर साहब किधर को है ?"


नगीना फौरन पलटी। कदम उठाकर बाहर निकल गई। 


“बाप - ।" दरवाजे से रुस्तम राव ने देवराज चौहान को देखा - "ये बोत हरामी होएला। संभालेना इसे । आपुन थापर साहब को लेकर अभ्भी का अभ्भी आएला।” 

इसके साथ ही दरवाजे से रुस्तम राव हट गया।


“दरवाजा बंद करो।" देवराज चौहान ने रिवाल्वर हिलाकर बंसीलाल से सख्त स्वर में कहा ।


बंसीलाल कड़ी मुस्कान के साथ उठा और दरवाजा बंद करके वापस कुर्सी पर जा बैठा। 


“तगड़ी तैयारी के साथ आये हो।”


देवराज चौहान कुछ नहीं बोला। 


“लेकिन कोई फायदा नहीं होगा। तुम लोग यहां से सलामत बाहर नहीं निकल सकते।"


“आना कठिन होता है। जाना नहीं। कोई भी काम करके निकल जाना बहुत आसान होता है।" देवराज चौहान ने शब्दों को चबाकर कहा- "जाने के लिये रास्ते खुद-ब-खुद बन जाते हैं।" 


“एक रास्ता ऊपर को भी जाता है।" बंसीलाल ने जहरीले स्वर में कहा ।


“हां। वो रास्ता मैंने तुम्हारे लिये चुन रखा है।” देवराज चौहान ने उसकी आंखों में झांका।


“कुछ देर ठहरो अभी मालूम हो जायेगा।" वंसीलाल का लहजा वहशी होने लगा था।


“अपने दोनों हाथ टेबल पर रख लो।” देवराज चौहान ने भिंचे स्वर में कहा - " मैं नहीं चाहता कि ऐसी कोई शरारत करो कि मुझे वक्त से पहले तुम्हारी जान लेनी पड़े।”


खा जाने वाली निगाहों से देवराज चौहान को देखते हुए बंसीलाल ने अपने दोनों हाथ टेबल पर रख लिए।


दस मिनट के पश्चात् ही रुस्तम राव ने दरवाजा खोलकर भीतर झांका ।


“बाप काम होएला । थापर साहब के साथ-साथ सोहनलाल भी इधर से मिएला । वो इधर को, बंसीलाल की तिजोरी साफ करने को आएला और बंसीलाल के हाथों फंसेला ।” देवराज चौहान का चेहरा कठोर था ।


“जगमोहन किधर है?"


“जगमोहन और बांके गैलरी के बाहर पहरे पर होएला बाप ।” 


“तुम सब चलो। यहां से निकल जाना। मैं बंगले पर पहुंच जाऊंगा।" देवराज चौहान ने एक-एक शब्द चबाकर कहा- “कोई रास्ता रोकने की कोशिश करे तो बोलना बंसीलाल रिवाल्वर पर है।"


“समझेला बाप - ।" इसके साथ ही रुस्तम राव दरवाजे से पलट गया ।


देवराज चौहान की नजरें पुनः बंसीलाल पर गईं। 


बंसीलाल अब व्याकुल-सा नजर आने लगा था। 


“तो तुम मेरा असली नाम जानना चाहते थे- ।" 


"हां।" बंसीलाल का चेहरा कठोर और आंखें पूरी तरह सिकुड़ चुकी थीं।


"देवराज चौहान । ”


"क्या देवराज चौहान?" बंसीलाल के होंठ खुले। 


“नाम है मेरा।”


बंसीलाल न समझने वाले भाव में उसे देखता रहा फिर चेहरे पर अजीब-से भाव आये ।


"एक देवराज चौहान तो डकैती मास्टर है।" उसके होंठों से निकला।


“वो ही हूं मैं- ।” 


बंसीलाल के चेहरे पर हैरानी के भाव नजर आने लगे। 


“तुम तुम डकैती मास्टर - देवराज चौहान हो ?”


“मैं वो ही देवराज चौहान हूं, जो तुम समझ रहे हो ।” देवराज चौहान शब्दों पर जोर देकर बोला।


“ओह! मुझे तो पता ही नहीं था कि मेरे सामने देवराज चौहान बैठा है।" खुद को अजीब-सी स्थिति में महसूस करता हुआ बंसीलाल कह उठा- “लेकिन तुम्हारी मेरी क्या दुश्मनी। पहले मुझे नहीं मालूम था कि तुम देवराज चौहान हो ।"


“थापर मेरी खास-खास पहचान वाला है ।”


“ये भी मुझे नहीं मालूम था।" बंसीलाल मे जल्दी से कहा- "बात खत्म करो यहीं पर। अगर थापर को मैंने कुछ कहा तो समझो अंजाने में कहा। मैं अपनी गलती मान लेता हूं।”


“दिव्या की वजह से थापर तुम्हारे सामने आया।” देवराज चौहान खतरनाक स्वर में बोला- "तुमने दिव्या के साथ जो किया उसके बाद तुम्हें जिन्दा रहने का कोई हक नहीं। थापर ने यह मामला मुझे निपटाने को कहा है। "


“देवराज चौहान तुम - " 


“खामोशी से बैठे रहो।” देवराज चौहान ने दांत भींचकर कहा- “वरना वक्त से पहले मर जाओगे ।”


***

जगमोहन, नगीना, सोहनलाल, थापर, रुस्तमराव, बांकेलाल राठौर गैलरी पार करने के बाद, बार से गुजरते हुए, बाहर निकले। बार एण्ड रैस्टोरैंट के छोटे से रिसेप्शन हॉल में पहुंचे ही थे कि उन्हें अपने घिरे जाने का एहसास हुआ।

सब ठिठके।

घिराव तंग होता चला गया। उन लोगों के चेहरे स्पष्ट नजर आने लगे। वो करीब दस थे और इतने ही उन पर नजर रखे इधर-उधर फैले थे।

उन दस में दोसा और बाटला भी थे। उनके हाथ जेबों में पड़ी रिवाल्वरों पर थे।

इनके हाथ भी रिवाल्वरों पर पहुंचने लगे।

दोसा दो कदम उठाकर पास पहुंचा। सबको देखते हुए क्रूरता से मुस्कराया तो टूटे दांतों की वजह से उसका चेहरा भयानक सा दिखने लगा। फिर उसकी नजरें थापर पर टिक गईं।

“इतना आसान नहीं है यहां से निकलना, जितनी आसानी से तुम निकल रहे थे ।” दोसा की आवाज में खतरनाक भाव थे- "तुम् लोगों के लिये ही तो हम यहां बिछे पड़े हैं। तू तो डूबा इन्हें भी ले डूबा ।”

“थारी खोपड़ी पाणी में डूबन जा रईओ नजर नेई आवे का ?" बांकेलाल राठौर का चेहरा सख्त था। बाटला पास आ पहुंचा और बोला । 

“तुम में सुरेन्द्र पाल कौन है?" 

“वो अभी अन्दर है।" जगमोहन व्यंग्य से मुस्कराया। 

“अन्दर ?” बाटला की नजरें जगमोहन पर टिकीं । 

"हां" 

“अन्दर क्या कर रहा है वो ?” कहते हुए बाटला ने एक निगाह दोसा पर भी मारी।

“थारे बापों की मुंडी पकड़ो, बैठो हो वो ।”

“क्या मतलब?” 

"बंसीलाल के पास है सुरेन्द्र पाल ।” 

"बंसी भाई आ गये क्या?" दोसा के होठों से निकला। 

“हमारा रास्ता रोकने की कोशिश की तो बंसीलाल जिन्दा नहीं बचेगा।" जगमोहन कठोर स्वर में कह उठा। 

बाटला और दोसा की नजरें मिलीं। 

“रास्ता छोड़ो- ।" जगमोहन पुनः बोला । 

बाटला अपने आदमियों को देखता कह उठा । 

"इन पर नजर रखो। यहां से जाने की कोशिश करें तो हथियारों का इस्तेमाल करना | शराफत से खड़े रहें तो इन्हें कुछ भी कहने की जरूरत नहीं। हम बंसी भाई से बात करते हैं।" बाटला और दोसा भीतर की तरफ बढ़ गये।

दरवाजा खोलकर भीतर प्रवेश करते ही दोनों ठिठके। देवराज चौहान आराम से बंसीलाल की कुर्सी पर जा बैठा था और रिवाल्वर बंसीलाल की तरफ कर रखी थी। बंसीलाल दूसरी कुर्सी पर मौजूद था। दोनों हाथों को फैलाकर टेबल पर रखा हुआ था। दोनों फौरन सारे हालातों को समझ गये ।

“ये क्या हो रहा है बंसी भाई?” बाटला के होठों से निकला। चेहरा सख्त हो गया था ।

“जो हो रहा है वो तो नज़र आ ही रहा है।" दोसा सुलग उठा था। बंसी भाई होंठ भींचे दोनों को देखने लगा।

देवराज चौहान रिवाल्वर थामे उनके प्रति भी सतर्क था। "इसके साथियों को बाहर हमने घेर रखा है।” बाटला बोला- "क्या करना है?"

बंसीलाल ने बेचैनी से देवराज चौहान को देखा फिर दोनों को । 

“जाने दो उन्हें - "

“वो थापर को छुड़ाकर ले जा रहे हैं।" दोसा ने देवराज चौहान को घूरा ।

" ले जाने दो। उन लोगों को कुछ मत कहना।" बंसीलाल बोला – “मैं फंसा पड़ा हूं।"

“चल बाटला ।”

दोनों दरवाजा खोलकर बाहर निकल गये । “देवराज चौहान!" बंसीलाल धीमे स्वर में कह उठा- "दिव्या के साथ जो हुआ, उसका मुझे अफसोस है। मैं उसके बाप को इतना पैसा दे दूंगा कि सारी जिन्दगी वो ऐश करेगा। मुझे मार कर किसी को कुछ नहीं मिलेगा।"

“खामोश रहो।” देवराज चौहान सर्द लहजे में बोला ।

दोसा-बाटला और सब आदमियों के देखते-देखते थापर के साथ वो सब बाहर निकल गये। कोई भी उनके पीछे नहीं गया। दोसा और बाटला के चेहरे गुस्से से सुलग रहे थे ।

- “बाटला - !" दोसा गुराया- “जल्दी ही सुरेन्द्र पाल बाहर निकलेगा। जिन्दगी भर तो वहां जमने से रहा।" 

“मैं भी यहीं सोच रहा हूं।" वाटला ने दरिन्दगी भरे स्वर में कहा। "उसे यहां से बाहर निकल जाने देना। रैस्टोरैंट में कोई हंगामा नहीं करना है।" दोसा की आवाज में वहशी भाव थे-“यहां से जब दूर पहुंच जाये, तब उसे खत्म कर देना है।" 

“चल ।” बाटला खतरनाक स्वर में बोला- “उसकी गर्दन तोड़ने की तैयारी कर लें।”

“मैं यहीं रहूंगा।” जगमोहन बाहर आते ही बोला- "जब तक देवराज चौहान बाहर नहीं आता। वो खतरे में पड़ सकता है। " 

“अंम भी यो ही सोचो हो।" बांकेलाल राठौर ने कहा- “दिन भर देवराज चौहान को ढूंढो । पण वो नेई मिल्लो हो। ईब तो उसो ने ओखली में खोपड़ी दे दयो । अंम भी जगमोहन के साथ यहीं ठहरो हो ।” 

“ध्यान रखना कि देवराज चौहान को कुछ न हो।" थापर ने गम्भीर स्वर में कहा ।

“थापर साहब । म्हारे होते हुए आप फिक्र न करो। अंम अपनी जान दे दयो। सबको 'वड' दयो पण देवराज चौहान को कछो न होने दयो । बांकेलाल राठौर का हाथ मूंछ पर पहुंच गया। 

“बाप । आपुन भी इधर ही ठहरेला ।"

“मैं सोहनलाल और नगीना के साथ जा रहा हूं। मुझे फोन कर देना कि सब ठीक है।" थापर बोला ।

तभी नगीना कह उठी । .

“मैं इनके साथ यहीं रुकती - ।”

“नेई बहना।” बांकेलाल राठौर ने टोका-“ईब यां पे थारी जरूरत न हौवे । तम थापर साहब के साथ जाओ।"

“लेकिन - 1" नगीना ने कहना चाहा।

“दीदी!” रुस्तम राव ने कहा- "बांके ठीक कहेला है। इधर तुम्हारी जरूरत नेई होएला ।”

नगीना ने जगमोहन को देखा तो जगमोहन ने मुंह फेर लिया। वो समझ गई कि उसके यहां रुकने को कोई भी पसन्द नहीं करेगा। जबकि वो भी उन जैसी ही लड़ाका थी।

थापर, सोहनलाल और नगीना के साथ कार में बैठकर चला गया। तीनों ने एक-दूसरे को वहां फैली कम रोशनी में देखा । 

“हमें पोजिशन ले लेनी चाहिये। बंसीलाल के आदमी खामोश नहीं बैठेंगे।" जगमोहन ने कहा।

“आपुन भीतर जाकर देखेला बाप कि-" 

“नहीं। उन लोगों ने हमारे चेहरे पहचान लिए हैं। भीतर जाना बहुत खतरनाक हो सकता है हमारे लिये - "

"ठीको बोलो हो जगमोहन-। इधर-उधर ही अंधेरे में ठिकानो खोज लयो।”

***