विभा के बारे में तो खैर मैं नहीं कह सकता कि उसका दिमाग चकरघिन्नी बना या नहीं लेकिन यह सोचकर मेरा जेहन फिरकनी की मानिंद जरूर घूमने लगा था कि इसका क्या मतलब हुआ ?


मतलब कपाड़िया के घर पहुंचने पर पता लगा ।


हमारा अगला लक्ष्य स्वतः ही धनजय कपाड़िया का रेजीडेंस बन गया था। क्योंकि आगे बढ़ने का कोई भी रास्ता वहीं से निकलने की उम्मीद थी । सो, बिड़ला -हाऊस से सीधे उसी तरफ रवाना हुए। ।


मैं और शगुन विभा की लिमोजीन में थे।


गोपाल मराठा दो पुलिसियों के साथ एम्बेसडर में ।


अगर यह कहा जाए तो गलत नहीं होगा कि रास्ता मालूम न होने के कारण हम एम्बेसडर का पीछा कर रहे थे ।


दिमाग में ऐसे बहुत से सवाल थे जिनके जवाब मैं विभा से चाहता था, शगुन के दिमाग में भी जरूर रहे होंगे लेकिन दोनों में से कोई भी उससे कोई सवाल न कर सका। कारण था ----विभा का अपनी सीट की पुश्त से सिर टिकाकर आंखें बंद कर लेना ।


दो ही बातें हो सकतीं थीं। या तो वह अपने दिमाग को आराम दे रही थी या बहुत गहराई से किसी विषय पर सोच रही थी ।


दोनों ही अवस्थाओं में उसे छेड़ना मुनासिब नहीं लगा।


तीस मिनट तक वह उसी पोजीशन में रही ।


उसके बाद जिस भव्य बंगले के बाहर हमारी गाड़ियां रुकीं उसके मस्तक पर 'कपाड़िया - विला' लिखा था ।


आयरन गेट पर कई सशस्त्र गार्ड थे |


गोपाल मराठा ने उन्हें अपना परिचय देने के बाद जब धनजय कपाड़िया से मिलने की इच्छा व्यक्त की तो पता लगा कि वे घर पर नहीं हैं। मराठा ने संजय के बारे में पूछा।


वह घर में मौजूद था।


गार्ड ने इंटरकॉम के जरिए अंदर खबर की ।


उसी पर मिले निर्देशों के मुताबिक हमें फाइव स्टार होटल की लॉबी जैसे ड्राईंग-हाल में पहुंचा दिया गया ।


कुछ देर बाद संजय कपाड़िया के दर्शन हुए।


यूं लगा जैसे एम. टी. वी. का कोई एंकर सेट से उठकर सीधा हमारे सामने चला आया हो । कश्मीरी सेव जैसे रंग का वह लंबा लड़का सफेद रंग की हाफ पेंट और सुर्ख लाल रंग की टी-शर्ट पहने हुए था । टी-शर्ट पर लिखा था ---- "माई फादर इज माई ए.टी.एम. ।”


सुनहरे कलर से रंगे बाल किसी 'जैल' की मदद से खड़े थे।


एक कान में बुंदा ।


आते ही बड़े मस्त अंदाज में बोला ---- “हॉय।”


हममें से किसी ने कुछ नहीं कहा।


इस बात की परवाह किए बगैर वह फिर बोला ---- “कहिए एसी. पी. साहब, कैसे आना हुआ ? पापा तो घर पर हैं नहीं।”


“हमें तुम्हीं से मिलना था । ” गोपाल मराठा ने कहा ।


“मुझसे? मुझसे क्यों?”


“जब तुम्हारी गाड़ी होटल गुलमोहर की पार्किंग से..


“फक्क यार ।” सुनते ही वह झल्ला उठा ---- “एक गाड़ी क्या उठ गई, मैं तो परेशान हो गया पुलिसवालों से । ”


“वो क्यों?” गोपाल मराठा हौले से मुस्कराया।


“अगली सुबह, मैं साला सोकर भी नहीं उठा था कि थाने से फोन आ गया कि गाड़ी मिल गई है। मैं पापा पर बिगड़ गया कि मिल गई है तो मैं क्या करूं? मुझे कच्ची नींद में क्यों उठा दिया? किसी ड्राईवर को भेज दीजिए, ले आएगा । पापा बोले---- बेटे, कंपलेंड क्योंकि तुमने लिखवाई थी और कागजात भी तुम्हारे ही नाम हैं इसलिए पुलिस गाड़ी तुम्हीं को देगी । मरता- खपता थाने पहुंचा। सिपाही से लेकर इंस्पेक्टर तक को अलग-अलग, बार-बार सारा किस्सा बताना पड़ा। उसके बाद जवाब मिला कि गाड़ी क्योंकि केस प्रापर्टी बन चुकी है इसलिए थाने से नहीं दी जा सकती। कोर्ट से रिलीज करानी पड़ेगी। मैं बहुत बिगड़ा | साली भाड़ में जाए गाड़ी। मेरी नींद खराब कर दी। मैंने तो कह दिया पापा से ---- गाड़ी मिलती हो मिले, न मिलती हो न मिले । मैं अब उसके लिए कुछ नहीं करूंगा । तब से वे ही एप्ली-वेप्लीकेशन लगाते घूम रहे हैं। मुझे नहीं पता वह मिली या नहीं मिली और नहीं मिली तो कब मिलेगी। ये सब पापा का मेटर है।”


गोपाल मराठा ने अब भी मुस्कान के साथ कहा ---- “लेकिन जिस मेटर पर हम बात करने आए हैं, वह मेटर पापा का नहीं है । "


“जल्दी बोलो, किस मेटर पर बात करने आए हो?” उसने चुटकी बजाते हुए कहा- – “मुझे जिम जाना है।”


“एक बार फिर उस रात का किस्सा बता दो ।”


“क्या यार ? बोर मत करो। तुम वो किस्सा सुनने मेरे घर तक में घुस आए? जानते भी हो मैं कौन हूं?”


“कौन हो तुम?” मराठा के चेहरे पर सुर्खी दौड़ी।


“सेठ धनजय प्रसाद का इकलौता बेटा ।”


“मुझे जानते हो?” उसके जबड़े भिंच गए थे।


“हां | जानता हूं ।” वह लापरवाही से बोला- ---" बताया -“ बताया था गार्ड ने। तभी तो अंदर बुलाया। पुलिस में ए. सी. पी. ही तो हो..


उसके आगे के शब्द हलक ही में घुटकर रह गए क्योंकि मराठा ने झपटकर अपनी चौड़ी हथेली से उसकी गर्दन पकड़ ली थी ।


***


ऐसा तब हुआ जब उसकी बद्तमीजियां मराठा की सहनशक्ति से बाहर निकल गईं। दांत पीसते हुए उसने भभकते अंदाज में कहा था----“एक लफ्ज भी और जुबान से निकाला तो जीभ खींचकर यहीं, तेरे बाप के इस कीमती कालीन पर डाल दूंगा ।”


उसकी गिरफ्त में फड़फड़ाने और मुंह से 'गूं- गूं' की आवाज निकालने से ज्यादा अब संजय कपाड़िया कुछ नहीं कर पा रहा था ।


जबकि मराठा ने एक-एक लफ्ज चबाया ---- "बहुत देर से तेरे मुंह से 'यार - वार' जैसे शब्द सुन रहा हूं । सोच रहा था ---- बच्चा है, थोड़ी देर में समझ जाएगा कि पुलिस अफसर से किस तरह बात की जाती है लेकिन तू यूं समझने वाला नहीं लग रहा ।”


उसका दम घुटने लगा था।


खुद को छोड़ देने के लिए इशारा करने लगा ।


छोड़ता हुआ मराठा बोला ---- “जो कुछ हम पूछने आए हैं, वो सब यहां नहीं बताएगा तो पुलिस के टार्चररूम में बताएगा और इस बात को अच्छी तरह भेजे में उतार ले कि अपने जिस बाप को ए. टीएम. समझता है, उसकी सारी दौलत भी मेरी इच्छा के बगैर तुझे जेल से बाहर नहीं निकाल सकेगी।"


अपनी गर्दन सहला रहे संजय कपाड़िया के चेहरे पर अब थोड़े आतंक के भाव उभरे थे मगर ऐसे भाव का एकाध लक्षण अब भी मौजूद था जैसे सोच रहा हो कि ----वक्त आने पर बताऊंगा।


“फौरन शुरु हो जा।” उसी की तरह चुटकी बजाते मराठा ने कहा- “क्या-क्या हुआ था उस रात?”


एक बार फिर कुछ कहने के लिए संजय ने मुंह खोला ही था कि दरवाजे से आवाज आई ---- “बता दो बेटे, अपने से बड़ों की से और कानून की इज्जत करना सीखो।”


सबकी नजरें एकसाथ दरवाजे की तरफ घूम गईं ।


वहां ऐसा शख्स खड़ा था जिसकी शक्ल संजय से इतनी मिलती थी कि एक ही नजर में यह पता लगता था कि वह उसका पिता है ।


बहुत ही प्रभावशाली व्यक्तित्व का मालिक था वह


उसे देखते ही एक बार फिर संजय के हौसले में उबाल-सा आया, बोला----“आप इस दो टके के पुलिस..


“संजय ।” धनजय कपाड़िया उसकी बात पूरी होने से पहले ही जोर से चीखा ---- “होश में बात करो, कमीश्नर अगर हमारे दोस्त हैं तो इसका मतलब ये नहीं है कि तुम कानून से ऊपर हो गए।"


संजय सकपकाकर चुप रह गया ।


उस क्षण मैं यह नहीं समझ पाया था कि उसने वास्तव में अपने बेटे को डांटा था या हमें यह बताया था कि कमीश्नर उसका दोस्त है


उसने बहुत ही बहरहाल, गोपाल मराठा की तरफ बढ़ते हुए शराफत से कहा था-- “इसकी तरफ से हम माफी मांगते हैं आफिसर आजकल की जनरेशन को तो तुम जानते ही हो ।”


“ मैं भी आजकल की जनरेशन का ही हूं।” गोपाल मराठा इस बात के जरा भी प्रभाव में नजर नहीं आया कि धनजय कपाड़िया कमीश्नर का दोस्त था ---- “न ही मैं वैसे कपड़े पहनना बुरा समझता हूं जैसे इसने पहन रखे हैं लेकिन इस बात में यकीन जरूर करता हूं कि जिन बच्चों को परिवार की पाठशाला संस्कारवान नहीं बना पाती उन्हें पुलिस लाकअप में संस्कार पढ़ाए जा सकते हैं।”


एक क्षण के लिए ऐसा लगा जैसे धनजय कपाड़िया को उसकी बात, खासतौर पर उसका तरीका पसंद नहीं आया परंतु अगले ही पल उसने अपनी भावनाओं को छुपाते हुए कहा ---- “संजय ने बात गलत ढंग से भले ही कही हो लेकिन गलत नहीं कही । आम आदमी पुलिस से कतराता ही इसलिए है क्योंकि पुलिस शरीफ लोगों के ही पीछे पड़ जाती है। अब इसी केस को लो ---- हमारी गाड़ी उठी । रात के दो बजे बहू-बेटे परेशान हुए। इसमें भला हमारा क्या कसूर है कि चोर ने उसकी डिक्की में लाश छुपा रखी थी! लेकिन परेशान हमें ही किया जा रहा है। अभी तक थाने बुलाकर तरह-तरह के सवाल किए जा रहे थे, अब तुम यहीं चले आए हो ।”


“हमें भी बेवजह दर-दर भटकने का शौक नहीं है ।”


“बात तो ठीक है। लेकिन अब, जब गाड़ी वापस करना आपके अख्तियार में ही नहीं रहा, उसे कोर्ट से ही रिलीज कराना पड़ेगा तो उस बारे में बात करने से फायदा ही क्या ?"


“कोर्ट अपना काम करती है जनाब, पुलिस अपना । आम लोगों को भी पुलिसवालों की मजबूरी समझने का प्रयास करना चाहिए।"


“आपकी क्या मजबूरी है ? "


“हम रतन मर्डर केस की इन्वेस्टीगेशन कर रहे हैं।"


“ रतन मर्डर केस की ?” इस बात पर संजय चौंका-- “उस केस की अब क्या इन्वेस्टीगेशन चल रहीं है? उसके हत्यारे तो उसी रात पकड़े गए थे। यह भी पता लग गया था कि हत्या छंगा- भूरा नाम के बदमाशों को सुपारी देकर किसी चांदनी नाम की लड़की ने इसलिए कराई थी क्योंकि उसने उससे रेप किया था ।”


“वह सारी स्टोरी झूठी थी ।”


“ज... जी?” संजय हकला गया ।


“वह स्टोरी वह थी जो कातिल पुलिस को समझाना चाहता था और जमील अंजुम नाम का इंस्पेक्टर कातिल के उस षड्यंत्र में फंस भी गया था। इसी जुर्म में अब वह लाईन की हवा खा रहा है।"


संजय का चेहरा फक्कू पड़ गया था ।


शब्द थे कि स्वतः ही मुंह से फूटते चले गए ---- में नहीं आ रहा कि आप क्या कह रहे हैं । " -“म... मेरी समझ


“वो सब तुम्हारे समझने के लिए है भी नहीं ।” एकाएक संजय से मुखातिब होती हुई विभा ने कहा ---- - “तुम्हारे समझने की इस वक्त सिर्फ एक ही बात है । यह कि उस रात की कार चोरी की वारदात को एक बार फिर दोहरा दो। ”


“अ... आप मुझसे सवाल करने वाली कौन होती हैं?”


“ये वो हैं जिन्होंने यह साबित किया कि रतन मर्डरकेस की खुली सारी स्टोरी गलत है। जमील इन्हीं की वजह से लाईन हाजिर हुआ।"


“आपका परिचय ? ” धनजय कपाड़िया ने पूछा ।


और जब गोपाल मराठा ने विभा का परिचय दिया तो धनजय के चेहरे पर उसके लिए सम्मान के भाव उभर आए जबकि संजय के चेहरे पर वैसा कोई भाव नहीं उभरा, इससे जाहिर था कि उसने विभा के बारे में कभी कुछ नहीं सुना था लेकिन... मैं ये महसूस कर रहा था कि इस खबर ने संजय का रंग उड़ा दिया था कि हम जमील अंजुम द्वारा खोली गई स्टोरी को गलत समझ रहे थे।


मराठा ने धनजय कपाड़िया को मेरा और शगुन का परिचय भी दिया। सुनने के बाद उसने कहा- “चलिए, मान लेते हैं कि आप अपने इंस्पेक्टर द्वारा खोले गए केस से संतुष्ट नहीं हैं और उस केस की रि-इन्वेस्टीगेशन कर रहे हैं फिर भी, हमारा उस मामले से इससे ज्यादा क्या मतलब है कि दुर्भाग्य से हत्यारा लाश को ठिकाने लगाने के लिए हमारी कार का इस्तेमाल कर रहा था?"


“वो सब बाद में ।” विभा ने कहा ---- “सबसे पहले हम संजय के मुंह से उस रात की घटना की डिटेल सुनना चाहते हैं । "


“बता दो बेटे, एक बार फिर बता दो क्या हुआ था ?"


“क्या बता दूं?” एकाएक वह थोड़ा सतर्क - सा नजर आने लगा था ---- “इससे ज्यादा बताने के लिए और है ही क्या कि उस रात मैं और मंजू गुलमोहर होटल गए थे । जब वहां से निकले तो पार्किंग से गाड़ी गायब पाई । जाहिर है कि हमें अवाक् रह जाना था। सो..


विभा ने टोका ---- “होटल कितने बजे पहुंचे थे ?”


“करीब ग्यारह बजे ।"


“घर से सीधे वहीं गए थे या कहीं और भी गए थे ? ”


“घर से तो हम नौ बजे निकल गए थे।” जाने क्यों उसने धनजय कपाड़िया की तरफ देखते हुए जवाब दिया ।