अनजानी मौत का रहस्य

फोन की घंटी बजते ही मेरी नींद खुली। आँख खुलते ही सबसे पहले घड़ी पर नज़र पड़ी, तो देखा सुबह के 5 बज रहे थे।
मैंने सोचा, ‘इतनी सुबह-सुबह किसने फोन किया?’
फोन की स्क्रीन देखे बिना ही, मैंने हरा बटन दबा दिया।
“हैलो!”, उधर से आवाज़ आयी, “सीमान्त??”, आवाज़ जानी पहचानी लगी, दूसरी तरफ चाचाजी थे।
मैंने कहा, “चाचा जी, प्रणाम!”
“खुश रहो... दिल्ली आ सकते हो क्या?”
उनका इतना कहना था कि मेरी पूरी नींद कहाँ छूमंतर हो गई, पता ही नहीं चला। शरीर की सारी इंद्रियां एकाएक ये संकेत देने लगी कि कुछ न कुछ तो गड़बड़ है। फौरन दिमाग में फिल्म चलने लगी कि क्या हुआ हो सकता है? कहीं दादी... या फिर दादा... या कोई और?
दिल की बढ़ती धड़कनों को काबू करने की नाकामयाब कोशिश करते हुए मैंने पूछा, “चाचा जी! सब ठीक तो है ना?”
“सीमान्त... अगर दिल्ली आ सकते हो, तो फौरन आ जाओ। बेहद ज़रूरी है बेटा।”, इतना कहकर चाचा जी ने फोन काट दिया।
दिमाग चक्करघिन्नी की तरह घूम रहा था। मेरी तो कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि क्या हुआ?
फौरन पिता जी को फोन लगाया। काफी देर तक मोबाइल में ट्रिन-ट्रिन की घंटी सुनाई देती रही, लेकिन पिता जी ने फोन नहीं उठाया। मम्मी को फोन किया, लेकिन उन्होंने भी फोन नहीं उठाया। दिमाग में ना जाने कैसे-कैसे ख्याल आ रहे थे। फिर मैंने अपनी बड़ी बुआ के बेटे को फोन किया।
शुक्र था कि उधर से आवाज़ आयी, “हैलो... सीमान्त भइया! प्रणाम!”
“सोनू! घर में सब ठीक है ना?”
“हाँ! वैसे तो सब ठीक है!! शालिनी दीदी की तबीयत थोड़ी सी खराब है। उन्हें लेकर दिल्ली गए हैं।”
“दिल्ली गए हैं! क्या तबीयत ज्यादा खराब है?”
“न... नहीं... उनको दौरे पड़ रहे हैं, शायद दिमाग में कुछ हो गया है।”
शालिनी की तबीयत खराब है!? पहले तो कभी इस तरह उसकी तबीयत खराब तो नहीं हुई।
खैर! किसी तरह बॉस को फोन करके हालात समझाए और दिल्ली जाने वाली अगली ट्रेन पर चढ़ गया। टी.टी.ई. को कुछ पैसे देकर एक बर्थ पर आसरा मिल गया। आखिर प्रयागराज से दिल्ली की इतनी लंबी दूरी जो तय करनी थी।
◆◆◆
अगले दिन सुबह करीब नौ बजे, नई दिल्ली स्टेशन पर उतरा। ऑटो किया और सीधे घर पहुँचा। रास्ते भर दिमाग में ना जाने कैसे-कैसे ख्याल आते रहे।
घर पहुँचा तो देखा शालिनी अगले कमरे ही बैठी है, फौरन बोली, “भइया आ गए!”
शालिनी तो बिल्कुल ठीक-ठाक है, लेकिन घर में एक अजीब सा माहौल ज़रूर महसूस हुआ। नाश्ते के बाद चाचा से बात की तो सुनकर पैरों तले ज़मीन ही खिसक गई।
“कैसी बातें कर रहे हो, चाचा? शालिनी पर किसी भूत-प्रेत का साया है!? आपका दिमाग तो ठीक है? भूत वगैरह कुछ भी नहीं होता, यह सब बस वहम से ज्यादा कुछ नहीं होता। मुझे तो आश्चर्य हो रहा कि आप खुद एक डॉक्टर हैं, फिर ऐसी बहकी-बहकी और अंधविश्वास की बातें कर रहे हैं।”
“नहीं… सीमान्त! जब तक शालिनी को देखा ना था, तब तक मेरे शब्द भी यही थे। भाभी या भैया तुम्हें सारी कहानी बता देंगे।”
“क्या! माँ और पिताजी भी यहीं पर हैं?”
“हाँ! वे भी कल ही आए हैं। शालिनी के हाथ से एक लौंग लेकर, पास में ही एक फ़क़ीर के पास गए हैं। बस आते ही होंगे। तुम्हारी चाची भी उन्हीं के साथ गईं हैं।”
“चाचा जी, यह मत भूलो कि ये इक्कीसवीं सदी है। आपको इस तरह की बातें करना ज़रा सा भी शोभा नहीं देती। बाहर वाले कमरे में शालिनी बैठी तो है और वह भी एकदम फिट। मुझे तो वह किसी भी एंगल से बिल्कुल भी बीमार नज़र नहीं आ रही।”
“थोड़ी देर इंतज़ार करो सीमान्त, जब तुम आँखों से देख लोगे, तब सब आईने की तरह साफ हो जाएगा और समझ भी जाओगे।”, चाचा जी के मुँह से ऐसी बातें सुनकर मेरा दिमाग खराब हो रहा था।
मैंने कभी इन सब बातों पर यकीन नहीं किया। कोरी बकवास के सिवा और कुछ भी नहीं लगता था, लेकिन शायद मैं गलत साबित होने वाला था।
किसे पता था कि कुछ क्षण बाद मेरे जैसा विज्ञान में विश्वास करने वाला आदमी भी कुछ ही घंटों बाद ये यकीन करने वाला था कि हाँ! कोई दूसरी ऐसी भी शक्ति होती है, जिसका आज भी वजूद है।
घंटी बजी, दरवाज़ा खोला तो देखा पिता जी के साथ माँ और चाची थी। सबके चेहरों पर एक अजीब तरह का डर साफ-साफ नजर आ रहा था। सबको प्रणाम किया। आशीर्वाद में वह पुरानी वाली बात नहीं लगी। उन सभी के चेहरे के हाव-भाव देखकर ऐसा लग रहा था, मानो दुखों का बहुत बड़ा पहाड़ टूट पड़ा था। चाची के हाथों में एक शीशी थी और उसमें पानी जैसा कुछ नज़र आ रहा था। थोड़ी देर में ही चाची ने चाचा और पिता जी को, फिर मुझे बुलाया।
शालिनी दूसरे कमरे में आ गई थी। जैसे ही कमरे में घुसा, शालिनी के हाव-भाव देखकर मुझे कुछ अजीब सा लगा।
मैंने कहा, “शालिनी! क्या हुआ?
शालिनी चुपचाप बैठी रही। थोड़ी देर तक वह मुझे अजीब नज़रों से घूरती रही।
फिर चाचा की तरफ देखा, फिर खड़ी हो गई और बोली, “दादा… एटा तुमि भालो कोरेले ना… आमि बोलेछिलाम… जे, आमि ओखाने जाबोना… तुमि, आमाके बाधा दिले ना केनो?”
वह बांग्ला में अजीब सी बातें कर रही थी, जिसका हिंदी में यह मतलब था।
(दादा... ये तुमने ठीक नहीं किया... मैंने मना किया था ना... मुझे वहाँ पर नहीं जाना है... मुझे जाने से क्यों नहीं रोका?)
मुझे शालिनी को अपनी आँखों से देखकर और कानों से सुनकर भी खुद पर यकीन नहीं हो रहा था क्योंकि वह धाराप्रवाह बांग्ला बोल रही थी, जबकि उसका परिवार मैथिल था। शालिनी की आवाज़ किसी मर्द जैसी आवाज़ लग रही थी। एक घंटे पहले तो उसकी आवाज़ बिल्कुल ठीक थी। एकाएक इसे क्या हुआ?
तभी चाचा ने कहा, “सीमान्त, ज़रा इसके हाथों को पकड़ना। भैया, आप भी ज़रा इसे सख्ती से पकड़ लें।”
मैंने पापा को मना किया, “अरे! मैंने पकड़ा तो है, आप रहने दीजिए।”
मुझे अपनी बाजुओं पर यकीन था। सोचा शालिनी जैसी दुबली पतली लड़की को तो मैं आसानी से सम्भाल लूँगा। लेकिन कुछ ही पलों बाद मुझे अपनी ताकत पर शक होने लगा। शालिनी के शरीर में पता नहीं एकाएक इतनी ताकत आ गई कि वह मेरे नियंत्रण से बाहर होने लगी।
खैर, तभी पापा ने भी शालिनी को पकड़ लिया। लेकिन हम दोनों ये महसूस कर सकते थे कि इस वक्त शालिनी की ताकत हमसे कहीं ज्यादा है।
दिमाग एक बार फिर घूम रहा था कि जिन बातों पर मुझे यकीन नहीं था, उस पर यकीन करना पड़ रहा था। लेकिन दिमाग के किसी कोने में अभी भी यही था कि ये कोई दिमागी बीमारी है, ना कि भूत-प्रेत का साया।
उस फ़क़ीर के यहाँ से लाए पानी को छिड़कने के बाद शालिनी एकदम से शांत हो गई। लेकिन चेहरे पर अभी भी वही भाव थे। चाचा कमरे में उसके पास रह गए और हम बाहर निकल गए।
पापा ने बताया कि एम्स में टाइम मिल गया है, डॉक्टर को दिखाना है।
अगले तीन दिनों तक यही होता रहा। कई सारे टेस्ट हुए लेकिन सबकी रिपोर्ट नॉर्मल। न्यूरो डिपार्टमेंट में भी दिखाया गया लेकिन वहाँ भी रिपोर्ट्स में कुछ नहीं आया।
यह तय हुआ कि अब वापस गाँव चला जाए, वहीं कुछ हो सकता है। अगले दिन हमने घर जाने वाली ट्रेन पकड़ ली।
रास्ते भर सब कुछ ठीक था। कुछ भी गड़बड़ नहीं हुई। लेकिन जैसे ही हम घर पहुंचे।, शालिनी एकाएक बेकाबू हो गई। मैंने उसे संभालने की कोशिश की लेकिन उसके एक ज़ोरदार थप्पड़ ने मुझे दिन में तारे दिखा दिए। किसी तरह चाचा ने फिर से वह पानी छिड़का, तब जाकर वह शांत हुई। किसी को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि करें तो क्या करें?
“पापा! हुआ क्या है? मेरी तो कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। मुझे तो लगता है कि शालिनी को कोई जबरदस्त मानसिक बीमारी हो गई है।”
“नहीं सीमान्त! अगर ऐसा होता तो सोचो पानी छिड़कते ही वह शांत क्यों हो जाती। तुमने अपनी आँखों से देखा, कैसे बेकाबू हो गई थी और उसकी आवाज़ भी बदल गई थी।”
“हाँ, ये तो है! लेकिन अब हम क्या करेंगे?”
“बगल के गाँव में तांत्रिक हैं, उनको बुलवाया है। देखो, क्या होता है!?
“क्या आप सच में यकीन कर रहे हैं कि शालिनी पर किसी भूत-प्रेत का साया है?”
“फिलहाल तो यकीन करना पड़ रहा है।”, पापा ने कहा।
शाम के करीब 5 बजे वह तांत्रिक आया। लेकिन जैसे ही उसने सीढ़ियों पर पहला कदम रखा, वैसे ही वह चौंककर पीछे हट गया।
“तिवारी जी! आज रहने दीजिए... मैं कल फिर आऊंगा।”, इतना कहते ही वह तेज़ कदमों से चलते हुए चला गया। किसी को भी समझ नहीं आया कि आखिर तांत्रिक ने ऐसा क्यों किया।
रात भर शालिनी ने अपनी अजीबोगरीब हरकतों से सबको परेशान कर रखा था। किसी तरह रात कटी।
सुबह के अभी छ: भी नहीं बजे थे कि बाहर से तांत्रिक की आवाज आई, “तिवारी जी।”
पापा फौरन बाहर गए, “आइए! आइए!!”
“बिटिया ने बहुत परेशान किया ना रात भर? खैर! फ़िक्र मत कीजिए! अब सब ठीक हो जाएगा।”
“लेकिन आपको कैसे पता कि उसने पहले के मुकाबले कल ज्यादा परेशान किया?”
“बस थोड़ा धैर्य रखिए, आपको सब धीरे-धीरे ज्ञात हो जाएगा।”, यह कहते ही तांत्रिक के चेहरे पर विस्मयकारी हँसी आ गई।
पापा, तांत्रिक के साथ घर के अंदर दाखिल हुए। मैं बाहर के कमरे में ही सोफे पर बैठा था। मेरी नजर तांत्रिक पर पड़ी तो मैं सहम गया।
तांत्रिक ने काले रंग का वस्त्र धारण किया हुआ था। माथे पर काला तिलक और सिर को किसी हरे रंग के कपड़े से कस कर बांध रखा था। चेहरे पर उसकी लंबी-लंबी दाढ़ी, जो कहीं से सफेद तो, कहीं से काली मिश्रित होकर, उसके व्यक्तित्व को और भी खौफ़ज़दा कर रही थी। कांधे पर हरे रंग के थैले थे, जिसे देख कर यह अनुमान लगाया जा सकता था कि वह अपनी पूरी तैयारी के साथ ही यहाँ पधारा था।
अंदर पहुँचते ही सबसे पहले उन्होंने मुझसे शालिनी के बारे में पूछा। मैंने उन्हें बताया कि वह अंदर के कमरे में है। तांत्रिक ने मुझे भी उस कमरे में जाने को कह दिया और साथ ही यह भी हिदायत दी कि जब तक कहा न जाए, तब तक अंदर ही रहूं। शालिनी का भी ध्यान भटकाए रखूं और किसी भी कीमत पर इधर न आने दूँ।
मैं संकोच वाली मुद्रा में उठा और अपना रुख शालिनी के कमरे की तरफ कर दिया।
मैंने जैसे ही शालिनी के कमरे प्रवेश किया, मैं यह देख कर चौंक गया कि शालिनी उस कमरे में कहीं भी नजर नहीं आ रही थी।
कमरे में चारों तरफ अंधेरा पसरा हुआ था। मैंने जैसे ही ट्यूबलाइट की स्विच को ऑन करके नज़रें दौड़ाई तो मेरी आँखें खुली की खुली रह गई।
शालिनी उसी कमरे में एक कोने में मुँह करके बैठी हुई है। उसने अपने लंबे बालों से अपने चेहरे को ढका हुआ है। मुझे उसका इस तरह से फर्श पर कोने में बैठे रहना अजीब लगा।
मैं उसको उस जगह से उठाने के लिए उसकी तरफ बढ़ता हूँ। मैं उसके कंधे पर हाथ रख कर उसे वहाँ से उठाने की कोशिश करता हूँ। मेरे ऐसा बार-बार करने पर कोई भी प्रतिक्रिया नहीं देती है।
मैं इस बार जोर से उसका नाम लेकर, उसके बाजू को पकड़ कर उठाने की जैसे ही कोशिश करता हूँ कि अचानक वह एक झटके से मुझे धकेल देती है। मैं 3 फुट दूर जा गिरता हूँ। मुझे ताज्जुब हुआ कि उसने मुझे बैठे-बैठे ही काफी दूर तक धकेल दिया था। मैं गिरने के बावजूद भी नजरें उसी की तरफ टिकाए बैठा था।
वह अचानक अपने बालों को चेहरे से पीछे करते हुए, झटके से उठ खड़ी होती है और अगले ही पल मेरे सामने पलक झपकते ही खड़ी हो जाती है।
मुझे एक जोरदार तमाचा रसीद करती हुई कहती है, “मुझे अंधेरा पसंद है, समझे!”
उसके ऐसा बोलते ही उस कमरे की ट्यूबलाइट बुझ जाती है। मैं अपने ऊपर से आपा खो बैठता हूँ और सिर पर पांव रख कर भाग खड़ा होता हूँ। मैं भागता-भागता उस कमरे में आ जाता हूँ, जहाँ से कुछ देर पहले तांत्रिक ने मुझे हिदायत देकर भेजा था।
इस कमरे में पहुँचते ही देखा कि कमरे की स्थिति पहले से काफी अलग थी। कमरे के बीचों बीच एक लाल रंग की एक लकीर खींची हुई थी। शायद सिंदूर या गुलाल का प्रयोग हुआ हो।
मेरे चाचा और चाची तांत्रिक के साथ लकीर के दूसरी तरफ थे।
तांत्रिक अपने झोले को बाजू में रख कर बैठा हुआ था, जिसके सामने सात नींबू थे, प्रत्येक नींबू में दो-दो लोहे की कील घुसेड़ी हुई थी। कील के साथ लौंग भी नींबू के अन्दर डाली हुई थी, जो कील के साथ त्रिभुजाकार आकृति बना रही थी। नींबू के नीचे कुछ रंग बिरंगे चावल के दाने थे। एक बड़ा सा नारियल को लेकर चाचा उस तांत्रिक के बगल में बैठे हुए थे।
उनके चेहरे के हाव-भाव देखकर यह साफ कहा जा सकता था कि इस प्रावधान के बीच में मेरे अचानक से आने का उनको ज़रा भी अनुमान नहीं था। वे सभी चौंक गए।
तांत्रिक ने इशारे से मुझे बुलाया और अपने बगल में बैठने को कहा। उसने अपने सामने से एक नींबू को उठा कर मेरे हाथ में देते हुए, चुप रहने का इशारा किया। जैसे ही उसने नींबू मेरे हाथ में रखा, अगले पल का दृश्य तो बड़ा ही दिल दहला देने वाला था।
शालिनी अब इस कमरे में हम लोग के सामने खड़ी थी। वह ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगी और बोली, “ओ दादा, ए चोलबे ना... आमार कोथा ना सुने, तुमि भुल कोरोछे… एखोन एर पोरिणाम भालो होबे ना।”
(ऐ दादा, ये नहीं चलेगा। तुमने गलत किया है। मेरी बात क्यों नहीं मानी? अब इसका परिणाम हितकारी नहीं होगा।)
वह अचानक फिर से बांग्ला में बोलने लगी थी, जबकि हमारे पूरे परिवार में दूर-दूर तक कोई रिश्तेदारी में नहीं था, जिसे बांग्ला आती हो या कोई बंगाली हो।
इतना कहते ही वह अब अत्यधिक ज़ोर से हँसने लगी और हमारी तरफ आगे की और बढ़ने लगी। इससे पहले की कोई कुछ समझ पाता, उसने तांत्रिक के गले को मजबूती के साथ अपने दाहिने हाथ से गिरफ्त में ले लिया। तांत्रिक का जिस्म अब हवा में डेढ़ फुट की ऊँचाई पर थी। मुझे यह देखकर विश्वास नहीं हो रहा था कि शालिनी के पास अचानक इतनी ताकत कहाँ से आ गई, जो उसने एक ही हाथ से तांत्रिक को टांग लिया।
सबसे अचरज की बात तो यह थी कि वह लेफ्टी थी, वह अपने पढ़ने लिखने से लेकर लगभग सारे काम, अपने बाएं हाथ से ही करती थी। फिर आज इसने दाहिने हाथ से कैसे बल प्रयोग किया। वाकई यह बात बहुत हैरान करने वाली थी।
तांत्रिक की यह स्थिति देखकर, मेरा कलेजा मुँह में आ गया था। माथे पर पसीने की बूंदें साफ तौर पर देखी जा सकती थी। मुझे इस तरह का अनुभव आज तक नहीं हुआ था लेकिन अब जब घटित हो रहा था, वह भी बिल्कुल मेरे आँखों के सामने इसलिए इस सच्चाई को नकारा भी नहीं जा सकता था। इस वक़्त दिल, दिमाग का साथ बिल्कुल भी नहीं दे रहा था।
तांत्रिक लाख कोशिशों के बावजूद भी अपने आपको आज़ाद नहीं करवा पा रहा था। वह हवा में सिवाय टांग हिलाने के कुछ भी नहीं कर पा रहा था। उसकी घुटी-घुटी आवाज गले से बाहर नहीं आ पा रही थी। उसकी हालत देखकर साफ अंदाजा लगाया जा सकता था कि तांत्रिक अब बस चंद क्षणों का ही मेहमान है। उसकी आँखों की पुतलियां फैल चुकी थी, ऐसा लग रहा था कि बस अब अगले पल बाहर ही आने वाली हैं।
मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि ऐसे मौके पर मैं किस तरह से मदद करूँ। तभी मैंने देखा कि कोने में वही पानी पड़ा हुआ था, जो कुछ दिन पहले ही फ़कीर ने दिया था। इससे पहले की और विलम्ब होता, मैंने पलक झपकते ही बिजली की फुर्ती लिए उस जल के डिब्बे पर झपट पड़ा और शालिनी के ऊपर छिड़क दिया। मेरा ऐसे करते ही शालिनी ने तांत्रिक को छोड़ दिया और दोनों ज़मीन पर धड़ाम से गिर पड़े।
इससे पहले की शालिनी किसी का कुछ और नुकसान पहुँचाए, मैंने चाचा और चाची की मदद से, शालिनी को कोने में पड़ी प्लास्टिक की कुर्सी पर बैठा दिया। मैं दौड़कर कमरे के भीतर गया और अगले ही पल मेरे हाथों में रस्सी थी। मैंने चाचा की मदद से उसके दोनों हाथ और उसका बाकी जिस्म कुर्सी के साथ बांध दिया। भगवान का शुक्र है कि शालिनी अभी भी बदहवास पड़ी हुई थी।
तब तक तांत्रिक भी अपने स्थान से उठ खड़े हुए और शालिनी के पास आकर खड़े हो गए। तांत्रिक ने शालिनी के माथे पर काले रंग का तिलक लगाया और उसने फटाफट नीचे रखे सातों नींबुओं को उठाया और उसके सिर पर सात बार घुमाते हुए मुँह से कुछ मंत्र बुदबुदाते हुए, एक-एक करके कमरे के चारों कोनों में नींबू को बारी-बारी से फेंक दिया।
बाकी बचे 3 नींबुओं में से एक को काटने लगा। उस नींबू को काटते ही पूरा नींबू लाल ही लाल हो गया। उससे लाल रंग का द्रव्य टपकने लगा, मानो जैसे किसी का रक्त हो। यह देखकर मेरा मन विचलित हो उठा और मेरे मन में ख्याल आने लगा कि पता नहीं अभी और क्या-क्या देखने को बाकी है।
तभी अगले ही पल तांत्रिक बाकी बचे दो नींबुओं को लेकर मेरे सामने खड़ा हो गया। उसने मुझे वह नींबू देते हुए कहा, “देखो, अगर तुम इस लड़की और इस लड़की के घर वालों का भला चाहते हो तो इन दो नींबुओं को ले जाओ और इनमें से एक को घर के बाहर मुख्य गेट के पास और दूसरे नींबू को घर के पिछवाड़े में, मिट्टी में फटाफट दफन कर आओ।”
मैंने आव देखा न ताव, मैं उन नींबुओं को तांत्रिक से लेकर, सरपट बाहर की ओर दौड़ पड़ा। तांत्रिक के बताए अनुसार काम खत्म करके, मैं कुछ ही पल में उन सभी के सामने था। शालिनी अभी भी कुर्सी से बंधी पड़ी थी और उसे अभी तक होश नहीं आया था।
सबको इकट्ठा देखने से यह साफ पता लगा रहा था कि वे कुछ ज़रूरी बाते कर रहे थे, जो शालिनी से ही संबंधित था। मैं जैसे ही अंदर पहुँचा तो उन्होंने भी मुझे अपने पास बुला लिया।
“हाँ तो तिवारी जी, आप कुछ बता रहे थे, शालिनी के स्कूल के बारे में!?”, तांत्रिक ने उत्सुकता वाले भाव से पूछा।
“देखिए, मैं यह सब पहले नहीं बताना चाहता था, लेकिन मुझे लगता है कि अब इस बात को ज्यादा वक्त तक छिपाए रहना भी सही नहीं होगा। लेकिन यह बात बिल्कुल सच है।”
यह बात करीब आज से 3 साल पहले की है, जब शालिनी अपने बोर्डिंग स्कूल में पढ़ा करती थी, जो कि एक क्रिश्चियन कॉन्वेंट स्कूल था। उसका स्कूल का नाम ‘सेंट लुईस पब्लिक स्कूल’ था, जो कि एक बहुत ही पुरानी चर्च के पास बना था। उस स्कूल का इलाका बहुत ही बड़ा था, जिसमें होस्टल, प्लेग्राउंड वगैरह सब कुछ था। उसी वर्ष उस विद्यालय के प्रांगण में एक नई बिल्डिंग बनायी जा रही थी। होस्टल के लिए जमीन की खुदाई की जा रही थी।
खुदाई के दौरान वहाँ कई सारे नर कंकाल पाए गए। उनमें से कुछ को तो वहाँ के प्रिंसिपल श्रुति शास्त्री ने उसी विद्यालय के बायो लैब में रखवा दिया और कुछ को वही दफन रहने दिया, क्योंकि वह टूटी-फूटी हालत में थे।
कुछ महीनों में ही वह नई होस्टल की बिल्डिंग बन के तैयार हो गई और वहाँ पर बच्चे रहने लगे। बिल्डिंग के पीछे की तरफ लोहे की सीढ़ियां बनी हुई थी, इमरजेंसी के लिए।
नई बिल्डिंग बनने के कुछ दिन बाद ही अजीब-अजीब सी घटनाएं होने लगी। बिल्डिंग में किसी के रूम में चीजें अपने आप गिरने लगती तो किसी को सोते हुए कोई साया पकड़ के हिला देता। किसी को नहीं समझ आ रहा था कि क्या हो रहा है। स्कूल की मैनेजमेंट ने भी ख़ास ध्यान नहीं दिया, ये सोच के कि बच्चे आपस में मजाक करते होंगे। लेकिन धीरे-धीरे मामला गंभीर होता गया।
एक रात पाँचवीं मंजिल पर रहने वाले एक बच्चे ने ऊपर से कूदकर ख़ुदकुशी कर ली। सब सकते में आ गए।
पुलिस ने छानबीन शुरू की तो यही नतीजा निकला की बच्ची ने खुद छलांग लगायी थी बिल्डिंग से क्योंकि पाँचवीं मंजिल पर कोई भी नहीं रहता था। सीसी टीवी फुटेज में भी पाँचवीं मंजिल पर वह छात्रा अकेले जाती हुई दिखी थी, वहाँ और कोई नहीं था।
अगले ही एक महीने में तीन और बच्चे बिल्कुल उसी तरह से बिल्डिंग से कूद गए और मर गए। इसके बाद स्कूल मैनेजमेंट के होश उड़ गए और सब ने मान लिया कि यहाँ जरूर कोई ऊपरी चक्कर है।
अगले ही दिन साथ वाली चर्च के बूढ़े फादर को बुलाया गया।
वे उस लोहे की सीढ़ी के पास आते ही समझ गए कि यहाँ कुछ गड़बड़ है। उन्होंने प्रिंसिपल को बोलकर उन सीढ़ियों को बंद करवा दिया और उसका शुद्धिकरण किया।
बूढ़े फादर ने बताया कि जहाँ वह बिल्डिंग बनी थी, वहाँ बहुत पहले एक बड़ा सा पुराना कब्रिस्तान हुआ करता था और भूतों का पूरा कबीला रहता था। बिल्डिंग बनने से वे सारे भूत बहुत नाराज हो गए थे, इसलिए वहाँ ये सब हरकतें हो रही थी। जो बच्चे बिल्डिंग से कूदे हैं, वे अपनी मर्जी से नहीं, बल्कि उनको जबरदस्ती भूतों ने धक्का दिया था बिल्डिंग से।
फादर वहाँ हर फ्राइडे को आते और होली वॉटर से उस जगह की शुद्धि करके जाते। धीरे-धीरे सारी अजीब हरकतें कम होती चली गई।
बिल्कुल बंद तो नहीं हुई थी, क्योंकि उसके बाद भी कई बच्चों ने बताया कि उनके कमरे का सामान इधर-उधर हो जाता है। लेकिन ख़ुदकुशी का कोई केस दुबारा नहीं हुआ।
मैंने इस घटना के बावजूद शालिनी को वहीं रहने दिया क्योंकि अगले साल उसके दसवीं के बोर्ड के एग्जाम थे। मैं नहीं चाहता था कि उसकी पढ़ाई में किसी तरह की दिक्कत आए।
उसके बाद शालिनी दो साल और उस स्कूल में ही पढ़ी। उसे कुछ समय तक कुछ ऐसा महसूस नहीं हुआ वहाँ। रात में जरूर उन सीढ़ियों के पास में जाने से सभी बच्चों को डर जरूर लगता था, लेकिन मेस जाने का रास्ता उधर से ही होकर गुजरता था।
अभी पिछले महीने की ही बात है, एक रात मेस में खाना खाने के बाद वह अपने कमरे की तरफ जा रही थी कि उसके कदम अपने आप ही पाँचवीं मंजिल की तरफ अनायास ही बढ़ चले। जैसे ही वह पाँचवीं मंजिल पर पहुँचने वाली थी कि उसकी रूममेट होस्टल वार्डेन के साथ वहाँ समय रहते पहुँच गई।
जब शालिनी से पूछा गया तो उसके पास कोई जवाब नहीं था कि वह वहाँ तक कैसे आ गई।
उसे बस इतना ही पता था कि वह डिनर करने के बाद अपने कमरे की तरफ जा रही थी।
सुबह जब शालिनी उठी तो देख कर सहम जाती है कि उसके कमरे का सारा सामान बिखरा पड़ा है। उसे पिछले कुछ दिनों की होस्टल की सारी घटनाएं याद आ जाती हैं कि किस तरह से इस तरीके से इस होस्टल की लड़कियां परेशान थीं। कुछ दिनों तक शालिनी और उसकी रूममेट प्रियंका चुप ही रहती है और किसी से इस घटना का जिक्र नहीं करती है। लेकिन आगे चलकर यह चुप्पी उन दोनों की सबसे बड़ी गलती की वजह बन जाएगी, किसी को नहीं पता था।
एक रात गर्ल्स होस्टल में हंगामा हो गया। होस्टल के बाहर से काफी सारे बच्चों की रोने और चीखने की आवाज आई। शालिनी ने अपनी रूममेट प्रियंका को उठाया, जो कि काफी गहरी नींद में सो रही थी। लाख कोशिश के बाद भी जब वह अपने बिस्तर से उठने को तैयार नहीं हुई, तब शालिनी मजबूरन अकेले ही बाहर निकल पड़ी।
उसने उस आवाज का पीछा किया और होस्टल के पीछे पहुँच गई, जहाँ लोहे की सीढ़ियां ऊपर की तरफ जाती थी। वहाँ पहुँचते ही उसकी आँखें यह देखकर खुली की खली रह जाती है कि वहाँ होस्टल की सारी लड़कियां और होस्टल की वार्डेन एक कोने में खड़ी थीं। एक पुलिस अधिकारी अपने कुछ कॉन्स्टेबल्स के साथ गोल घेरा बना कर खड़े थे। कुछ फोटोग्राफर तस्वीरें ले रहे थे।
जैसे ही शालिनी करीब पहुँची, तो वार्डेन ने लपक कर शालिनी को गले से लगा लिया और काफी देर तक ऐसे ही लिपटी रहीं, जैसे कि शालिनी को ही इस वक़्त सांत्वना की सबसे ज्यादा जरूरत हो।
जब होस्टल के सारे बच्चे शालिनी की तरफ दया भाव से देखने लगे तो शालिनी को शक हुआ कि ज़रूर दाल में कुछ काला है। उसने अपने वहम को दूर करने के लिए उस तरफ रुख किया, जिधर कॉन्स्टेबल्स ने घेरा बनाया हुआ था।
शालिनी ने ध्यान से देखा तो वहाँ किसी लड़की का शरीर पड़ा हुआ था और उस शरीर के चारों तरफ खून बहा हुआ था। यह स्थिति देखते ही वह समझ गई कि आज भी किसी ने होस्टल की पाँचवीं मंजिल से छलांग लगाई है।
वह यह देखने के लिए और आगे बढ़ती है कि आखिर यह लड़की है कौन? लेकिन जैसे ही उसकी नजर नीचे पड़े जिस्म के चेहरे पर पड़ती है, वह बहुत तेज चीख के साथ वहीं बेहोश हो जाती है।
जब उसे होश आता है, तब वह अपने इर्दगिर्द होस्टल की वार्डेन को और उसी होस्टल की कुछ लड़कियों को पाती है। यह देखते ही वह झटके के साथ उठ बैठती है और उसके आँसुओं की धारा फुट पड़ती है।
जब थोड़ी देर बाद नॉर्मल होती है, तब वह वार्डेन को बोलती है कि प्रियंका किधर है? उसकी वार्डेन उसे समझाती है कि बेटे, वह तो उस दुर्घटना का शिकार हो गई, जो पिछले कई महीनों से होती चली आ रही है।
इतना सुनते ही वह चीख पड़ती है और कहती है, “नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है? वह तो बिल्कुल ठीक थी। वह तो कल मेरे कमरे में ही सोई थी।”
वार्डेन उसे शांत करवाते हुए कहती है, “बेटा! वह तुम्हारे साथ ही सोई थी, लेकिन जब तुम नींद की आगोश में थी, तब वह उसी पाँचवीं मंजिल की तरफ चली गई थी, जहाँ यह दुर्घटना घटित हुई।”
शालिनी ने बताया, “आप समझने की कोशिश क्यों नहीं कर रही। मेरा यकीन करो! जब मैं कल रात को आप लोगों की चीख सुन कर बाहर आ रही थी, तब वह मेरे पास वाले बिस्तर में ही सोई थी। मैंने उसे उठाने का प्रयास भी किया लेकिन उसने बाहर जाने से मना कर दिया। इसलिए मैंने उसे अकेला छोड़ दिया और बाहर का शोरगुल सुनकर मैं अकेले ही आ गई थी।”
वार्डेन ने धीरज से शालिनी की बात सुनी और बोली, “देखो, मैं समझ सकती हूँ कि इस वक़्त तुम पर क्या गुजर रही है। वह तुम्हारी रूममेट थी, इसलिए तुम्हारी करीबी भी रही थी। मुझे लगता है इस घटना का तुम्हारे दिल और दिमाग पर गहरा असर पड़ा है, इसलिए तुम्हें इस वक़्त खुद को संभालना होगा।”
इतना कह कर वार्डेन वहाँ से चली गई। लेकिन उस दिन के बाद शालिनी के जेहन में खौफ कुछ ज्यादा ही घर कर गया था, क्योंकि अक्सर रात में उसे कमरे में किसी की मौजूदगी का एहसास होता रहता था। उसने वार्डेन को इस अजीब सी घटना के विषय में जानकारी दी लेकिन सभी ने उसे नकार दिया। सभी ने यही सोचा कि उसकी करीबी होने के कारण इसके दिमाग पर असर हुआ है। कुछ दिन तक ऐसा ही चलता रहा।
एक रात अचानक कुछ बच्चे दौड़ते-दौड़ते वार्डेन के पास जाते हैं और उसे कुछ बताते हैं, जिसे सुनते ही वार्डेन बच्चों के साथ दौड़ पड़ती है। वे सभी लोग दौड़ कर उसी होस्टल के पीछे खड़े हो जाते हैं और दूर से ही पाँचवीं मंजिल पर नजर पड़ती है, जहाँ का नजारा देखते ही सबकी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती है। बहुत ही ख़ौफ़नाक मंज़र था।
शालिनी होस्टल के पाँचवीं मंजिल के ऊपर बनी बाउंडरी के ऊपर चल रही थी। यह देखकर वहाँ उपस्थित सभी के होश गुम थे। किसी की समझ नहीं आ रहा था कि शालिनी वहाँ कैसे पहुँची और वहाँ पहुँची भी तो वह उस बाउंडरी के ऊपर क्यों टहल रही है। देखने वालों के मुँह खुले के खुले थे। शालिनी की इस हरकत ने सभी को ताज्जुब में डाल दिया था।
तभी उसी होस्टल के कुछ सीनियर बच्चे और स्टाफ, पाँचवीं मंजिल की तरफ दौड़ लगाते हैं। शालिनी के नीचे कूदने से पहले ही उन लोगों ने उसके हाथ को चतुराई से पकड़ कर खींच कर, उसे बचा लेते हैं। इस हरकत के बाद मुझे स्कूल वालों का कॉल आया और मुझे शालिनी की सारी हरकतों का विस्तारपूर्वक ब्यौरा दिया गया ।
मैं अगले ही दिन शालिनी को उसके होस्टल से लेने के लिए निकल पड़ा। यहाँ लाने के बाद मैंने उसका दाखिला, यहाँ के पास के ही विद्यालय में करवा दिया। वहाँ एडमिशन करवाने के बाद, दो महीनों तक तो वह बिल्कुल ही सामान्य ही रही लेकिन पिछले 12 दिनों से अजीब सी हरकतें करने लगी, जो कि बिल्कुल ही असामान्य लगी।
कभी रात को छत पर तो कभी अंधेरा करके अपने कमरे के कोने में दीवार की तरफ मुँह करके बैठी रहने लगी।
एक रात तो इसने हद कर दी। मैं पिछले रविवार को बाजार से मछली ले कर आया था। उस दिन एशिया कप का फाइनल मैच था, जो इंडिया और पाकिस्तान के मध्य हो रहा था। घर में सभी ने सोचा कि मैच खत्म होने के बाद ही मछली का आनंद लिया जाएगा।
अभी जब मैच की एक इनिंग खत्म हुई तभी अजीब सी दुर्गंध और कच्च-कच्च की आवाज ने सबका ध्यान इन हरकतों की तरफ खींचा। शालिनी की मम्मी उस आवाज का पीछा करते हुए रसोईघर की तरफ जाती है और तेज चीख के साथ भागी-भागी आती है।
इससे पहले की किसी के कुछ समझ में आता, मैंने शालिनी की मम्मी को आराम से सोफे पर बैठाया। मैंने उस चीख के पीछे का कारण जानना चाहा तो उसने रसोईघर की तरफ इशारा किया। मैं दौड़कर उस तरफ भागा और यह देखकर अवाक रह गया कि शालिनी रसोईघर के स्लैब पर बैठी हुई थी और जो मच्छी मैं मार्केट से लाया था ,उसे कच्चा ही कच्च-कच्च करके चबा रही थी।
यह देखकर मुझे डर से ज्यादा घिन आ गई कि कोई ऐसे राक्षस की तरह कैसे खा सकता है। मैंने उसे रोकने के लिए जैसे ही उसका हाथ पकड़ा, उसने मुझे जोर से धक्का दिया, जिसकी वजह से मैं काफी दूर गिर पड़ा। मेरे सिर पर गंभीर चोट आई थी। थोड़ी देर कराहने के बाद, मैं उठा तब तक तेरी चाची भी आ गई थी।
हम दोनों ने शालिनी को जोर से पकड़ा, लेकिन वह बार-बार किसी मर्दानी आवाज में बोल रही थी, “ऐ दादा! आमी माछी भात खाबो, ताड़ा-ताड़ी खाबो।”
हम लोग उसे सामान्य स्थिति में करने की लाख कोशिश कर रहे थे लेकिन उस पर नियंत्रण करना बड़ा ही मुश्किल हो रहा था। लगभग आधे घंटे में वह पूरी तरह से नियंत्रण में आई।
उसकी इस हरकत ने हमें पूरी तरह से यह मानने पर विवश कर दिया कि यह कोई बाहरी शक्ति है, जिसका सामना करना हमारे वश का नहीं था।
दिन प्रतिदिन इसकी अजीब तरह की हरकतें बढ़ती ही जा रही थी, जो कि किसी भी आम आदमी के लिए बर्दाश्त करने के बाहर था। हमें समझ नहीं आ रहा था कि इस समस्या से निजात कैसे पाना है।
“मैंने अपने एक दोस्त की मदद से दिल्ली में एक फ़क़ीर बाबा की सहायता ली थी, उन्होंने तब तक हमारी काफी मदद की जब तक हम लोग दिल्ली थे। लेकिन आज तो हमें इस ख़ौफ़नाक मंज़र से हमेशा के लिए मुक्ति आपको ही दिलवानी होगी ।”
अभी चाचा ने अपनी बात पूरी भी नहीं की थी कि शालिनी कुर्सी पर बंधी बंधी चीखने लगी, “ तिवारी बाबू! खूब भालो! आमाके कोतोक्खन चेयारे बेंधे राखबे? तोर सोर्वोनाश होबे, केउ बाँचबे ना।
(ऐ तिवारी बाबू! खूब बढ़िया! मुझे तुम कब तक कुर्सी में बाँधोगे! तुम्हारा सर्वनाश होने से कोई नहीं रोक सकता।)
तांत्रिक ने फटाफट पास ही पड़े धारदार चाकू से काले मुर्गे का सिर धड़ से अलग किया और मुर्गे के धड़ को शालिनी के खोपड़ी से लगभग एक फुट की ऊँचाई से टप्प... टप्प... खून टपकाने लगा, जो सीधे शालिनी के चेहरे पर पड़ रही थी।
अचानक शालिनी ने अपना मुँह खोल दिया और अपने मुँह के अंदर से जीभ को बाहर निकालने लगी। अब उस काल मुर्गे के धड़ से खून सीधे शालिनी के जीभ पर पड़ रहा था और वह उसे गट-गट कर पिये जा रही थी, मानो जैसे वर्षों से प्यासी हो। पूरा चेहरा रक्त के लाल छींटों से भयावह दिख रहा था।
थोड़ी ही देर में वह कुर्सी समेत अपनी जगह पर खड़ी हो गई और जोर जोर से चीख रही थी, “ आमाय आरो रोक्तो चाइ, एखोनो आमार तृष्णा मेटेनी।
(अभी मुझे और खून चाहिए, मेरी प्यास अभी नहीं बुझी।)
वह पहले से और भी ताकतवर और खतरनाक हो गई थी। उसको देखकर लग रहा था कि यह रस्सियां तो वह पल भर में तोड़ देगी।
वह ठहाके मार-मार के हँस रही थी और रह-रह के चीखकर अपनी प्यास बुझाने की बात कर रही थी। बड़ी ही खौफनाक दशा थी यह मेरे लिए।
तांत्रिक ने चाचा और चाची को शालिनी पर अपनी पकड़ तेज करने को कहा और अपने काले थैले से एक नर कंकाल की खोपड़ी निकाली और अपनी एक हथेली पर रखते हुए, दूसरे हाथ से एक और हड्डी निकाली, जो उसी नर कंकाल की हाथ लग रही थी। वह उस हड्डी को कंकाल खोपड़ी के ऊपर गोल-गोल घुमाते हुए कोई मंत्र उच्चारण करता जा रहा था।
वह ज्यों-ज्यों कंकाल खोपड़ी के ऊपर हरकतें करता, शालिनी अपनी जगह पर तिलमिलाने लगती और पूरी कोशिश करती कि किसी तरह वह उस रस्सी से आजाद हो जाए। वैसे तो मुझे बिल्कुल भी डर नहीं लगता, लेकिन जब इन चीजों से सामना होता है तो थोड़ा डर लग ही जाता है।
लगभग 15 से 20 मिनट तक यह खेल चलता रहा। अब तांत्रिक शालिनी के बिल्कुल सामने ही खड़ा था।
“बोल तू कौन है? क्यों इस बच्ची को परेशान कर रहा है?”, सख्त आवाज के साथ तांत्रिक ने पूछा।
आमि बोलबो ना, किछू बोलबो ना, सोर्वोनाश होबे, केऊ बाँचबे ना!”, एकदम मर्दानी आवाज में भर्राई आवाज में शालिनी बोली।
(मैं कुछ नहीं बोलूंगी, सर्वनाश होगा, कोई नहीं बचेगा!)
“बता! तुझे बताना ही होगा। तू क्यों इस बेचारी को परेशान कर रहा है। आखिर तू चाहता क्या है?”, इस बार तांत्रिक ने रौबदार होते हुए पूछा और उस पर वही जल छिड़कते हुए बोला।
अभी जो आवाज भर्राई सी आ रही थी, अब वह रुआँसी आवाज में बोली, “आमी सब सच-सच बोलबो।”
उसके इस तरह अचानक रोने की आवाज ने हमें पिघला दिया। चाचा और चाची ने उसके हाथ खोलने को कह।
लेकिन तांत्रिक ने यह कहते हुए मना कर दिया कि ऐसा करने से सारा खेल बिगड़ जाएगा और वह अपनी बेटी से भी हमेशा के लिए हाथ धो बैठेंगे।
“अब आई ना लाइन पर! बोल तू कौन है और क्यों इसे परेशान कर रही है?”, इस बार तांत्रिक ने आदेशात्मक रूप से उससे प्रश्न किए।
“धोखा! धोखा हुआ है मेरे साथ! शालिनी और श्रेया ने धोखा दिया है मुझे। अब शालिनी को अपना किया वादा निभाना ही होगा और हमारे साथ हमारी दुनिया में चलना ही होगा।”
यह कहकर शालिनी के अंदर की आत्मा ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। रोने की आवाज इतनी कर्कश थी कि कमरे में आवाजें टकराकर और भी खौफ पैदा कर रही थी।
“कैसा धोखा? भला तुम्हारे साथ कैसा धोखा हुआ है?”, इस बार तांत्रिक ने जिज्ञासुओं की भाँति पूछा।
“यह बात आज से 3 वर्ष पहले की है, जब मैं, श्रेया और शालिनी बहुत अच्छे दोस्त हुआ करते थे। हम क्लास में, लाइब्रेरी में, यहाँ तक की मेस में भी लगभग हर जगह साथ ही जाते थे। यहाँ तक कि हम तीनों के होस्टल में कमरे भी एक ही थे। साथ पढ़ना, सोना और जागना होता था। हम तीनों एक दूसरे से कुछ भी नहीं छिपाते थे। लेकिन उस रात...!”, इतना कहते ही वह फफक-फफक कर रोने लगी।
“आखिर उस रात क्या हुआ था तुम्हारे साथ? बताओ, आखिर ऐसा क्या हुआ था जिसका बदला तुम लेने को आतुर हो? यकीन मानो, मैं तुम्हारी गुत्थी सुलझाऊंगा।”, तांत्रिक ने दिलासा दिलाते हुए कहा।
◆◆◆
अमावस्या की काली रात थी। उस रोज हमारी नौवीं कक्षा का इम्तिहान खत्म हो चला था। शाम से ही हम तीनों बोर हो रहे थे। हम तीनों ने एक खेल खेलने का सोचा।
हमें उस खेल को पूरा करने के लिए कुछ छोटी-मोटी चीजें चाहिए थी, जो हमलोगों ने रात को डिनर करने जाते वक्त साथ ले आए थे।
जब हम वापिस कमरे में आए तो बिजली जा चुकी थी। रात के लगभग 12 बज रहे थे। हमलोगों ने एक कैंडल जलाया और ‘ट्रुथ एंड डेयर’ खेलने लगे।
इस खेल में सबसे पहले बारी आई शालिनी की। शालिनी ने ट्रूथ मांगा तो मैंने उससे एक सत्य पूछा कि हमारी दोस्ती कितनी पक्की है और वह अपनी दोस्ती निभाने के लिए क्या कर सकती है?
शालिनी ने जवाब दिया, “मैं तुम दोनों को अपनी सबसे अच्छी दोस्त मानती हूँ। हम साथ जीएंगे और साथ ही मरेंगे, क्योंकि मैं तुम दोनों के बिना नहीं रह सकती।”
उसके बाद इस खेल में बारी आती है श्रेया की। श्रेया ने डेयर चूज किया। शालिनी ने उसे इतनी अंधेरी रात में निर्माणाधीन गर्ल्स होस्टल के पाँचवीं मंजिल पर एक कैंडल जला कर आने को कहा।
पहले तो श्रेया थोड़ा सहमी, लेकिन इस खेल के नियम के आगे बेबस भी थी। उसे स्कूल में सबके सामने अपना मजाक नहीं बनवाना था और ना ही उसे अपने नाम के साथ डरपोक शब्द भी लगवाने थे, इसलिए वह जल्दबाजी में कैंडल लेकर उस पाँचवीं मंजिल की तरफ निकल पड़ी। हम दोनों इस घने घुप्प अंधेरे में भी बाहर जाती श्रेया पर नजरें रख रहे थे।
तभी थोड़ी देर में प्रियंका की नजर पास के मेज पर पड़ती हैं और वह बोल पड़ती है, “अरे! वह जल्दबाजी के चक्कर में तो माचिस ही ले जाना भूल गई। माचिस तो यहीं मेज पर ही पड़ी रह गई।”
अरे हाँ! तुझे क्या लगता है, उसने यह माचिस गलती से छोड़ी है? उसने जान बूझकर यह छोड़ी हैं। कौन सा उसने ऊपर जाना ही है? वो एक नंबर की डरपोक है। देखना, थोड़ी देर यहीं छिपी रहेगी और माचिस छूट जाने के बहाने से वापिस आ जाएगी।”, मेरे इतना कहते ही मैं और प्रियंका जोर-जोर से हँसने लगी।
जब हम दोनों की हँसी रुक गई, तब प्रियंका ने मेज पर रखी टॉर्च को उठाया और जिस तरफ श्रेया गई, उस तरफ जला कर हालात का जायजा लेने चाहा।
टॉर्च की रोशनी इस काली घुप्प अंधेरी रात में फीकी पड़ रही थी। मैंने श्रेया... श्रेया... कहकर उसे पुकारने की कोशिश की लेकिन मुझे कोई जवाब नहीं मिला।
उधर श्रेया लगभग जैसे-तैसे वार्डेन से नजर बचाती, हिम्मत करके होस्टल के पीछे बनी लोहे के सीढ़ी तक पहुंची। वहाँ पहुँचने पर उसे अजीब सा एहसास हुआ, जैसे कि कोई उसका सच में पीछा कर रहा है। उसने पहले तो यह सोचा कि मैं और प्रियंका उसका पीछा कर रहे कि वह कहाँ तक जाकर वापिस आएगी या कहीं जाती भी है कि नहीं।
जैसे-जैसे वह आगे बढ़ती जा रही थी, उसे एक तीक्ष्ण सी बदबू भी आने लगी, मानो जैसे किसी सड़े हुए जानवर की हो। बदबू इतनी खतरनाक थी कि लगा जैसे वह उलटी कर देगी। जैसे ही उसने वहाँ से अपने कदम वापिस मोड़ने का सोचा कि अचानक एक तेज हवा का झोंका आया और उससे टकराया।
उसके बाद जब उसको होश आया तो उसने खुद को गर्ल्स होस्टल की पाँचवीं मंजिल पर पाया। उसके एक हाथ में मोमबत्ती तो थी लेकिन दूसरे हाथ में माचिस भी थी। उसे बड़ा अचरज हुआ कि आखिर वह छत पर कैसे पहुँची? वह तो नीचे लोहे की सीढ़ी से वापिस जाने को मुड़ी थी।
अब चिंता की लकीरें साफ-साफ उसके चेहरे पर नजर आ रही थी। उसे किसी बड़ी अनहोनी का आभास हो चला था। अचानक डर के मारे उसके सूखे होंठों का साथ उसके दोनों हाथ भी कांपने लगे।
तभी उसकी नजर उसके दूसरे हाथ पर पड़ी और एकदम से सिहर सी उठी। वह दिमाग पर जोर देते हुए बुदबुदाई कि आखिर उसने यह माचिस की डिब्बी को जानबूझकर वहीं मेज पर छोड़ दिया था, वह उसके हाथ में कैसे आ गई?
उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि भला यह कैसे हो सकता है। तभी उसके दिमाग में विचार आया कि जब वह इतनी ऊपर आ ही गई है, तो क्यों न कैंडल को जला कर, वापिस जाकर अपनी बहादुरी का परिचय दे दे।
उसने माचिस की तिल्ली निकाली और कैंडल को एक बार में ही जला दिया।
जैसे ही वह मुड़कर चलने को हुई, तो उसे एहसास हुआ कि किसी ने उसका नीचे से पायजामा पकड़ लिया है, जबकि वास्तविकता इससे बिल्कुल परे थी।
तेज हवा के चलने की वजह से उसका पायजामा, वहीं निर्माणाधीन इमारत की छत पर किसी सरिया में फंसा पड़ा था। लेकिन उसकी पीछे मुड़कर देखने की हिम्मत नहीं हुई और डर उस पर इतना हावी हुआ कि वह अपना होश खो बैठी। बदहवास हो कर बेहोश हो गई और पाँचवीं मंजिल की छत से नीचे गिर पड़ी।
“उसकी आखिरी चीख के साथ वह हमेशा के लिए हम दोनों से अलविदा हो गई। हम दोनों ने उसकी चीख सुनी और हम डर के मारे वहीं कमरे में ही एक दूसरे को पकड़कर लिपटे रहे और पूरी रात खौफ के साये में ही गुजार दी।”
उसकी बात सुनकर फ़क़ीर चीख पड़ा, “तुम इतने विश्वास के साथ उसपर बीती घटना के बारे में कैसे बता रही हो? तुम तो ऐसे एक-एक बात बता रही हो, जैसे खुद उसने तुम्हें अपनी मौत के दृश्य का उल्लेख किया हो?”
शालिनी बोली, “यह मत भूलो कि मैं एक आत्मा हूँ। मैं शालिनी के जिस्म में ज़रूर हूँ लेकिन मैं शालिनी नहीं, बल्कि श्रेया हूँ। मैं प्रियंका और शालिनी से किया वादा, अपनी मौत के बाद भूल गई थी। लेकिन जब उसने भी मुझे अपने पास बुलाया तो मुझे सारी बात बताई। हम दोनों यहाँ अब बहुत खुश हैं, बस शालिनी की कमी खलती है लेकिन वह कमी भी बहुत जल्द पूरी हो जाएगी। उसे अपना वादा याद कराने की बहुत कोशिश की लेकिन वह हमारे साथ इस दुनिया में आने को बिल्कुल भी तैयार नहीं है। उसे आना ही होगा...!”
यह कहते ही शालिनी के अंदर छिपी श्रेया जोर-जोर से दहाड़े मार के हँसने लगी।
“मैं मानता हूँ कि तुम्हारे साथ बहुत गलत हुआ है, लेकिन यह भी तो गलत है कि तुम किसी को बेवजह परेशान करो। तुम किसी के साथ जबरदस्ती नहीं कर सकती हो। उसे खुदा के लिए बख्श दो।”
“हा! हा! हा! कि बोल्ले? ओकारन! आमि काउके ओकारने बिरोक्तो कोरछि ना। आमरा तिन जोनई प्रोतिश्रूति कोरेछिलाम जे... बिश्सासघात होये छे आमार साथे। शालिनी ओ श्रेया आमाके बिश्सासघातकता कोरे छे । एखोन शालिनीके तार प्रति श्रूति पूरोन कोरते होबे, एबोंग आमादेर सोंगे आमादेर सोंसारे जेते होबे।”
(क्या कहा? बेवजह! मैं किसी को बेवजह परेशान नहीं कर रही। हम तीनों ने वादा किया था कि जीयेंगे तो साथ और मरेंगे तो साथ। लेकिन अब ये अपने वादे से मुकर नहीं सकती, इसे आना ही होगा हमारे साथ।)
यह कहते ही वह अपने आपको उस रस्सी के बंधन से मुक्त करवाने के लिए, जी तोड़ कोशिश करने लगी। देखते ही देखते वह रस्सी को तोड़ कर हमलोगों के सामने खड़ी थी।
“बहुत हुआ तेरा मच-मच, तांत्रिक के बच्चे! अब मजा चखने को तैयार हो जा।”
यह कहते ही उसने अपने दोनों हाथों से तांत्रिक को दबोचा और किसी बॉल की भांति उसको उठाकर दीवार की तरफ फेंक दिया। हम लोग वहाँ बुत बने देखते रह गए। किसी की हिम्मत नहीं हो रही थी कि शालिनी को रोकें।
अब वह धीरे-धीरे हमलोगों की तरफ ही बढ़ रही थी, कि तभी अचानक तांत्रिक ने अपनी शक्ति को बटोरते हुए, उसके पाँव को पकड़ लिया ताकि वह आगे हमारी ओर न बढ़ सके।
तांत्रिक का यह प्रयास सफल रहा और वह उसका ध्यान भटकाने में कामयाब रहा। शालिनी अब तांत्रिक की तरफ मुड़ी और उसने फिर से तांत्रिक को पलक झपकते ही ऊपर उठा लिया।
इससे पहले की बहुत देर हो जाए, मैं तपाक से अपनी जगह से उठा और तांत्रिक को पीछे से जाकर पकड़ लिया। मेरी पकड़ बहुत ही मजबूत होगी, ऐसा सोचना बेकार था क्योंकि अगले ही पल अब हम दोनों हवा में झूल रहे थे।
शालिनी ने अपने दोनों हाथों से हम दोनों को टांग लिया था।
मेरी आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा था। मुझे मेरा अंत निकट दिखने लगा था।
उसने तेज झटके के साथ हमें हवा में फेंक दिया और हम दोनों दीवार पर जा टकराए। हम जैसे ही फर्श पर गिरे, उसकी हँसने की आवाज फिर से एक बार कमरे में गूंज उठी।
उसकी इस हँसी से कमरे में मौजूद सभी की हालत खराब होने लगी।
तभी अचानक हवा तेज हुई, खिड़की खुल गई और तेज हवा के झोंके के साथ खुल-बन्द होने लगी। बिजली ने भी अपना खेल दिखाना शुरू कर दिया, वह भी खिड़की का साथ देने लगी, बार-बार वह भी आने जाने लगी। अब लाइट बिल्कुल ही बन्द हो गई और चारों तरफ घना अंधेरा हो गया।
हम सब ने डर के मारे एक दूसरे का हाथ कस कर पकड़ लिया। मेरी चाची ने डर के मारे हनुमान चालीसा का पाठ शुरू कर दिया। उनकी इस मंत्रोच्चारण का प्रयोग करना हमें अच्छा लगा और हम सभी ने उनका साथ दिया। लगभग 5 मिनट बाद लाइट आई तो हमें थोड़ी राहत का एहसास हुआ, जैसे किसी डूबते को तिनके का सहारा होता है।
मैंने इधर-उधर नजर दौड़ाई तो शालिनी कहीं भी नजर नहीं आ रही थी। यह देखकर हमलोगों ने राहत की सांस ली, लेकिन हमें कुछ ज्यादा ही सूना-सूना माहौल लगा। हमें लगा कि अचानक से इतनी शांति कैसे हो गई।
हमने पीछे मुड़कर देखा तो चौंक गए। शालिनी उसी कमरे में एक कोने में हमारी तरफ मुँह करके बैठी थी। जैसे ही हमलोगों की नजर उस तरफ पड़ी, वह तेज-तेज दहाड़े मार-मार के रोने लगी।
उसका इस कदर रोना, चाची को बर्दाश्त नहीं हुआ और वह उसकी तरफ बढ़ चलीं। उसने अपना चेहरा अपने लंबे-लंबे बालों से ढक रखा था। चाची ने उसके बालों में प्यार से हाथ फेरा ही था कि वह चाची से लिपट कर रोने लगी।
साथ ही साथ बोलने लगी, “माँ! मुझे बचा लो माँ! मैं मरना नहीं चाहती। मुझे अभी ज़िन्दगी में बहुत कुछ करना है माँ!”
चाची के इतना सुनते ही उनकी आँसुओं ने भी शालिनी का साथ दे दिया। अभी मुश्किल से 5 मिनट भी नहीं हुए थे कि अचानक चाची की आवाज चीख में बदलने लगी।
वे दर्द से कराह रहीं थी और शालिनी हँसते हुए अपनी बाजुओं की पकड़ चाची पर मजबूर करती जा रही थी। यह पीड़ा उनके बर्दाश्त से बाहर होता देख, मैं और चाचा, चाची की तरफ लपक पड़े।
हम दोनों ने शालिनी के दोनों हाथों को पकड़ कर, उसकी पकड़ ढीली करवाई। तब तक तांत्रिक भी हमारी मदद करने आ पहुँचा था।
चाची अब शालिनी से मुक्त हो चुकी थी और वह अब हमारे गिरफ्त में थी। उसको पकड़ कर हमलोगों ने बिस्तर पर बांध दिया। अब वह बर्दाश्त के बाहर हो चुकी थी, इसलिए ऐसा करना लाज़िमी था।
तभी मुख्य दरवाजे पर खट-खट की दस्तक हुई।
चाचा बोले, “अब इस वक़्त कौन हो सकता है!?”
मन मारकर वे दरवाजे की तरफ बढ़े और धीरे से दरवाजे के एक ही पाले को खोलते हैं। दरवाजे खोलते ही उन्होंने राहत की सांस ली।
“बहुत वक़्त लगा दिया भइया आपने। इसे संभालना बहुत ही मुश्किल हो रहा है। आप ज़रा से भी देर कर देते तो...!”
चाचा ने पापा को देखते ही सारी मन की भड़ास निकाल दी और राहत की सांस लेते हुए, उनके हाथ से सामान के थैले को अपने कब्जे में कर लिया। पापा के साथ दो लोग और थे, जो तांत्रिक के जैसे ही हूबहू कपड़े पहने हुए थे। वे भी पापा के साथ कमरे के अन्दर दाखिल हो गए।
उन्हें अंदर आता देख तांत्रिक की बाँछें खिल गई और बोला, “आओ चेलों! किधर रह गए थे? आज तुम लोगों ने अपने गुरु की जान लेने की ठान ली थी क्या?”
“नहीं गुरुजी! ये गंगाजल लेने गया तो बहुत वक़्त लगा दिया इसने। नहीं तो मैं तो बाकी सारे सामान के साथ आने को बिल्कुल तैयार ही खड़ा था।”, एक चेले ने दूसरे चेले पर आरोप लगाते हुए कहा था।
“छोड़ो ये सब! ध्यान से सुनो, तुमलोग जल्दी सारा सामान निकाल कर हवन कुंड को प्रज्वलित करो, तब तक मैं इसका ध्यान भटकाने की कोशिश में लगा रहता हूँ।”
गुरु की आज्ञा सुनते ही दोनों चेले फटाफट दूसरे कमरे में झोला लेकर भागे।
पलक झपकते ही हवनकुंड को सजाने के बाद प्रज्वलित कर दिया और गुरु के कान में कुछ फुसफुसाया।
“हाँ, पता है मुझे सब, अपने गुरु को मत सिखाओ! मैं करता हूँ कुछ उपाय।”, यह कहते ही तांत्रिक नसीहत देने वाले को तीखी आवाज में झाड़ देता है।
उसकी इस हरकत से पापा को संकोच होता है कि ऐसी क्या बात है, जो कान में कहनी पड़ी।
“क्या हुआ तांत्रिक जी? कोई परेशानी वाली बात तो नहीं है न?”, पापा ने अपने आँखों के भौंह उठाते हुए पूछा।
“नहीं! घबराने वाली बात नहीं है, लेकिन...!”, इतना कहते तांत्रिक रुक गया और उसने अपने एक चेले की तरफ इशारा किया।
उसके बाद तांत्रिक के चेले ने पापा के कान में कुछ कहा, जिसे सुनने के बाद पापा चीख पड़े, “क्या बेवकूफों जैसी बात कर रहे हो? भला ऐसा कैसे कर सकता है कोई? नहीं... नहीं, अपनी ही लहू कोई कैसे? मुझे तो सोच कर ही कंपकंपी छूट रही है।”
“क्या हुआ भइया? ऐसा क्या कह दिया इन्होंने, जो आपको अजीब लग रहा है?”, इस बार चाचाजी ने उत्सुकतावश पूछा।
“अरे! ये लोग कह रहे कि अग्निकुंड में किसी अपने की लहू की कुछ बूंदें आहुति में देनी होगी, तभी यह तंत्र-मंत्र की साधना पूरी मानी जायेगी।”, पापा ने एकदम उत्तेजित होकर एक सांस में कह दिया।
“सबसे पहले यह समझना जरूरी है कि यह सब शालिनी के साथ क्या हो रहा है? क्या आपलोगों ने कभी गौर किया कि शालिनी के जिस्म में उनकी दोस्त श्रेया और प्रियंका की जगह, एक और आत्मा भी कभी-कभी प्रवेश करती रहती है, जो बांग्ला में बात करती है।”
“अब इसका जिस्म आम इंसानों की तरह नहीं रह गया है। यह आत्माओं के प्रवेश होने के लिए सबसे मन पसंद घर बन चुका है। मेरा यकीन कीजिए, मैंने जो आपको उपाय बताए हैं, उसके सिवाय हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है।”
तांत्रिक ने सभी को समझाते हुए यह बात कही।
उसने यह कुछ अलग हट कर बात कही थी, जो अभी तक किसी के दिमाग में आयी ही नहीं थी।
“अरे सही बात! यह तो हमलोगों में से किसी ने सोचा भी नहीं था अभी तक।”, चाची ने तपाक से कहा।
तांत्रिक, “इस उपाय को करने से शालिनी के जिस्म में श्रेया और प्रियंका दुबारा नहीं आएगी, इसकी मैं गारंटी देता हूँ। लेकिन बंगाली आत्मा बहुत ही ज्यादा रुष्ट है, क्योंकि वह आज भी काफी सालों से भटक रही है।”
“जहाँ शालिनी के स्कूल का नया गर्ल्स होस्टल बना है, वहाँ वर्षों पहले बांग्लादेश के रिफ़्यूजी रहते थे। उन्हें वहाँ रहते हुए काफी साल हो गए थे और उस जगह को अपनी जगह मान बैठे थे। काफी बातचीत के बाद भी वे उस जगह को छोड़ने के लिए राजी नहीं हुए, तब मजबूरन उस जगह के मालिक ने रातों-रात सबको मरवा दिया। बीस से ज़्यादा परिवार वहाँ रहा करते थे। असमय मौत होने की वजह से उनकी आत्मा आज भी इंतकाम की आग में भटक रही है। जब से उस जगह पर दुबारा खुदाई हो कर, नई बिल्डिंग के लिए काम जारी हुआ है, तब से काम से लेकर हर चीज़ में अड़चनें पैदा कर रही हैं और लोगों की जाने भी ले रही हैं।”
“इसका कोई न कोई तो उपाय होगा तांत्रिक जी।”, मेरे चाचा ने इस समस्या से निजात पाने हेतु प्रश्न किए।
“हम्म! यदि उस होस्टल के आसपास ही कोई मंदिर या चर्च बना कर, उस जगह की शुद्धिकरण कर दिया जाए तो ऐसी समस्या कभी भविष्य में नहीं होंगी।”, यह कहकर तांत्रिक मुस्कुरा दिया।
“ठीक है, हम तैयार हैं! आप जैसा कहेंगे, हम बिल्कुल वैसा ही करेंगे।”
इतना सुनते ही तांत्रिक बोला, “आइये, हमें अब ज्यादा देर नहीं करनी चाहिए। जल्द ही इस कार्य को अंजाम देना चाहिए।”
यह कहकर तांत्रिक हवनकुंड के पास पहुँच गया और इसके दोनों तरफ चाचा और चाची भी बैठ गए।
जिस धारदार चाकू की मदद से काले मुर्गे की बलि दी थी, वह निकालकर बोला, “आइये! वक़्त आ गया है, आपके अपने कर्तव्य पालन करने का और हमेशा से इस समस्या से निजात पाने का।”
यह कहते ही उसने उस चाकू से बारी-बारी से उन दोनों की तर्जनी उंगली पर तिरछी वार किया। टप्प...टप्प... करके लहू की बूंदें फुट पड़ी और तांत्रिक उन दोनों की हथेलियों को थामकर, लहू की बूंदें हवनकुंड में डालने लगा। उसके दोनों चेले तेज स्वर में मंत्रोच्चारण कर रहे थे।
थोड़ी देर में तांत्रिक अपने स्थान से उठा लेकिन अभी भी चाचा और चाची के हाथों को उसने थाम कर रखा हुआ था। वह उन हाथों को ले जाकर शालिनी के पास जाकर छोड़ देता है और वह भी कुछ मंत्र बुदबुदाता है।
मंत्र खत्म करते ही वह शालिनी के मुँह को खोलता है और बारी-बारी से उन दोनों के खून के कुछ बूंदें, शालिनी के मुँह में टपकाता है। उसके ऐसा करते ही उसके दोनों चेले, दो पान के पत्ते, पिसी हुई हल्दी और एक जनेऊ की तरह दिखने वाला रंगीन धागा लेकर वहाँ पहुँच जाते हैं।
तांत्रिक फिर से चाचा का हाथ थामता है और उस पर हल्दी का लेप लगाकर एक पान के पत्ते को रखते हुए शालिनी की हथेली से चिपका देता है। अब तांत्रिक बाबा हल्दी का लेप शालिनी की हथेली के पीछे लगाकर और पान के पत्ते लगाकर चाची के हाथ को वहाँ रख देता है।
रंगीन धागे से गोल-गोल चारों तरफ हथेलियों को बांध देता है। यह करने के बाद वह शालिनी के मस्तक पर अपनी हथेली रखकर, मंत्र उच्चारण में लग जाता है कि तभी थोड़ी ही देर में शालिनी के जिस्म में हलचल होती है। मैं यह देखते ही सहम जाता हूँ कि न जाने अब क्या होगा?
तभी शालिनी अपने स्थान से उठ कर बैठ जाती है और अलग सा मुँह बनाती हुई, चाची से गले लग कर फुट-फुट कर रो पड़ती हैं।
तांत्रिक उस धागे को खोलकर उन तीनों को आज़ाद करवाता है और सभी समस्या हल होने का दिलासा देकर, अपने चेलों के साथ चला जाता है।
कुछ दिनों बाद उसके पुराने स्कूल में एक बढ़िया सा चर्च बना दिया जाता है और गर्ल्स होस्टल का विधिपूर्वक शुद्धिकरण करवाया जाता है। चर्च बनने के बाद से कोई भी ऐसी अनहोनी घटनाएं नहीं होती है।
शालिनी उस स्कूल में दुबारा नहीं जाती और वह अपनी बाकी की बची हुई पढ़ाई, पास वाले स्कूल से ही पूरी करती है।
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