निमंत्रण देती लड़की भला किसके दिल में खलबली नहीं मचा देती।


सुना है, मेनका ने विश्वामित्र तक की तपस्या भंग कर डाली थी और... केशोराज बन्दूकवाला तो हरगिज - हरगिज विश्वामित्र नहीं था।


बात शांताक्रुज एयरपोर्ट की है ।


एयरपोर्ट के बाहर ! 


कार पार्किंग में ।


बन्दूकवाला सिल्वर कलर की चमचमाती मर्सडीज पर कूल्हा टिकाए विल्स नेवीकट में कश लगा रहा था । उसके ककड़ी जैसे पतले- दुबले जिस्म पर बगुले जैसी सफेद 'शोफर' की ड्रेस थी । पैरों में जूते और सिर पर कैप सहित!


उस वक्त वह अपनी नई-नई आई फुटबॉल जैसी बन्दूक वाली के ख्यालों में खोया था कि नजर बायीं तरफ पड़ी... और वहां पड़ी तो पड़ी ही रह गई क्योंकि उधर एक लड़की खड़ी थी। सिर्फ खड़ी ही होती तब भी शायद बन्दूकवाला की नजर वहां पड़ी न रह जाती ।


वह मुस्कुरा रही थी । 


निमंत्रण देने वाले अंदाज में |


बन्दूकवाला के दिलो-दिमाग में संगीत सा बजा | बन्दूकवाली का ख्याल काफूर हो गया । ध्यान में रह गयी तो सिर्फ वह - - - जिसने अपने पतले होठों पर महरून कलर की लिपस्टिक लगा रखी थी।


वह गोरी थी! खूब गोरी! दूध-सी!


अब भी मुस्कुरा रही थी । आंख से हल्का सा इशारा भी किया ।


बन्दूकवाला सकपकाया। हालांकि वह साफ-साफ देख रहा था कि वह उसी की तरफ देख रही है। मगर विश्वास नहीं हुआ।


‘गर्दन' घुमाकर अपने पीछे देखा कोई और तो नहीं खड़ा है, मगर पीछे ही क्या, दायें-बायें, आगे-पीछे, पार्किंग में दूर-दूर तक कोई नहीं था । घूम-घामकर बन्दूकवाला की नजर पुनः उसी पर जा चिपकी । वह लगातार, निरन्तर उसी की तरफ देख रही थी । होठों पर मुस्कान और नेत्रों में चंचलता लिए ।


मदमस्त हो गया बन्दूकवाला ।


विल्स नेवीकट में कश लगाना कभी का भूल चुका था । वह भी मुस्कराया! निमंत्रण स्वीकार करने वाली मुस्कान! तभी, सिगरेट ने अंगुलियां जला दीं! तिलमिलाया वह । 'उई' की हल्की-सी चीख के साथ सिगरेट का अंतिम सिरा दूर फेंक दिया ।


वह खिलखिलाकर हंस पड़ी । पलक झपकते ही अंगुली की जलन को भूल गया बन्दूकवाला ! याद रह गयी तो सिर्फ निमंत्रण देती लड़की । उसकी खिलखिलाहट उसे खिलखिलाहट नहीं मंदिर में बज रही घंटियां - सी लगीं। सफेद और सच्चे मोतियों से दांत सूर्य रश्मियों की जद में आते ही झिलमिल उठे थे | बन्दूकवाला शुरू में थोड़ा झेंपा मगर फिर मुस्करा उठा।


उसकी तरफ बढ़ने की सोच ही रहा था कि वह खुद उसकी तरफ बढ़ी। वातावरण में 'ठक् – ठक् ठक्' की आवाज गूंजने लगी। उसके छोटे-छोटे पैरों में ऊंची एड़ी की काली सैंडिल थीं। ऐसी, जिनके फीते टांगों पर जाल - सा बनाते हुए पिंडलियों तक चले गये थे। दोनों पैरों को एक-दूसरे की सीध में रखती वह ठीक इस तरह आगे बढ़ रही थी जैसे फैशन फ्लोर पर अपने लिबास की नुमाइश कर रही हो। और लिबास... बन्दूकवाला ने पहली बार लिबास पर ध्यान दिया । घुटनों से ऊपर, काफी ऊपर तक लम्बी टांगों पर कोई लिबास नहीं था। उसके बदन पर वनपीस लिबास था । 


काला !


जिस्म से चिपका | बाजू तक नहीं थे लिबास में केवल दो तनियों द्वारा कंधों पर अटका हुआ था। बन्दूकवाला को लगा तनियां भी न होतीं तो लिबास उसके बदन से फिसलने वाला नहीं था। असल में उसे लड़की के पुष्ट, गोल कारगिल की चोटियों से नुकीले उरोजों ने खुद पर टांग रखा था। मंत्रमुग्ध रह गया बन्दूकवाला । आंखें, लड़की के खास अंदाज में चलने की वजह से उरोजों में होने वाले कयामती कम्पन में खोकर रह गईं ।


उसके नयनों को ऐसा सुख मिल रहा था जैसे कोयल ने वर्षों बाद हरियाली देखी हो ।


वह 'उनके' कम्पन को ही देखता रहा और जाने कब वह उसके नजदीक आ खड़ी हुई । बेहद नजदीक ! ठीक सामने! अब वह दावे से कह सकता था कि वनपीस के नीचे और कुछ नहीं है। ब्रेजरी तक नहीं, क्योंकि वह 'झीने' काले कपड़े के पीछे से झांक रहे ब्राऊन कलर के एक-एक रुपये के दो सिक्कों और उनके बीच स्थित निप्पल को साफ देख रहा था | देख क्या रहा था आंखों ही आंखों में पी रहा था उन्हें । ।


चौंका तब, जब लड़की ने पूछा “क्या देख रहे हो?”


“आं ।” वह बौखलाया “क-कुछ नहीं ।”


लड़की ने अपनी चमकीली आंखें तरेरीं । मादक अंदाज में कहा “सच ! कुछ नहीं देख रहे तुम ?”


हलक में सूखा पड़ जाने के कारण बन्दूकवाला इतना ही कह सका- “स-सच !”


“कैसे मर्द हो? ऐसी चीज सामने है और तुम 'इन्हें' देख तक नहीं रहे ।”


अब बुरी तरह बौखला गया बन्दूकवाला ! मुंह से निकला “द - दरअसल मैं-मैं...


“क्या बकरी की तरह 'मे-मे' कर रहे हो? खुलकर कहो न, तुम इन्हें चूसना चाहते हो । आर. के. राजदान के ड्राइवर को मैं इतना डरपोक नहीं समझती थी । ”


“म - मेरे मालिक का नाम भी जानती हो तुम ?”


“मैं तो तेरा नाम भी जानती हूं घोंचू । बन्दूकवाला ! केशोराज बन्दूकवाला! मगर तेरी बन्दूक खाली हो गयी लगती है मुझे ।”


“क- कमाल कर रही हो तुम मेरे बारे में इतना सब ....


“छोड़ ना फालतू बातें । दूर-दूर तक कोई नहीं है यहां कोई। आ गया तो मौका हाथ से निकल जाएगा । देख !” कहने के साथ उसने अपनी छातियां तान दीं “देख इन्हें! क्या तुझे नहीं लगता ये तेरे जैसे किसी जवान पट्ठे के मजबूत हाथों से भींची जाने के लिए मचल रही हैं?”


छक्के छूट गये बन्दूकवाला के । पसीने-पसीने हो गया वह।


दिन-दहाड़े! खुलेआम! बीच चौराहे पर ऐसे नंगे शब्दों के साथ निमंत्रण !


सोच तक नहीं सकता कोई ।


बौखलाकर उसने चारों तरफ देखा ।


“अरे देख क्या रहा है, भींच न इन्हें ।” कहने के साथ लड़की ने उसका दायां हाथ पकड़कर अपने बायें उरोज पर रख ही जो दिया । बन्दूकवाला को करेंट-सा लगा। उरोज कठोर था | गुदगुदा भी । बड़े से बड़े सूरमा को चित्त कर देने वाला गोला उसके हाथ में था और... डरी सहमी नजरों से चारों तरफ देखते हुए उसने अपनी अंगुलियों पर दबाव बढ़ाया ।


गजब हो गया जैसे।


चटाक!


एक जोदार चांटा उसके गाल पर पड़ा ।


रंग-बिरंगे तारे नाच उठे आंखों के सामने । दिमाग 'झन्ना' गया । अभी वह समझ भी नहीं पाया था कि पलक झपकते ही क्या से क्या हो गया कि उसके गालों पर ताबड़तोड़ चांटे पड़ने लगे, साथ ही वह चीख रही थी “बदतमीज... कमीने! गुण्डे ! लफंगे ! इतनी हिम्मत बढ़ गई है अब तुम लोगों की ! अकेली लड़की को देखते ही सीधा उसकी इज्जत पर हाथ डालने लगे!”


मारे बौखलाहट के बुरा हाल था बन्दूकवाला का । न मुंह से कुछ निकला, न हाथ-पैर चल सके। लड़की उसे अनाप-शनाप बकती चली जा रही थी ।


जरा सी देर में हंगामा मच गया ।


जाने कहां-कहां से लोग दौड़कर वहां पहुंच गये।


चारों तरफ से आवाजें उठ रही थीं “क्या हुआ? क्या हुआ ?”


“होता क्या?” बन्दूकवाला के बाल पकड़कर घसीटती लड़की हिंसक नागिन के से अंदाज में चीखी “तुम जैसे आम लोग कायर और बुजदिल हो गये हो, इसलिए मां-बहनों की इज्जत, इज्जत नहीं रही । ऐसे लफंगे चाहे जब, चाहे जहां, चाहे जिसे दबोचकर मनमानी पर उतर आयें मगर...


आजकल की लड़कियां ऐसे मजनुओं को सबक सिखाना अच्छी तरह जानती हैं।" कहने के साथ उसने अपने घुटने की भरपूर चोट बन्दूवाला की टांगों के जोड़ पर की।


चीख निकल गई बन्दूकवाला के हलक से !


दोनों हाथों से गुप्तांग सम्भाले वहां जा पड़ा जहां पहले से हो उसकी कैप पड़ी हुई थी । दर्द से कराहता अभी उठने की कोशिश ही कर रहा था कि चारों तरफ से शोर उठा मारो! मारो साले को । लड़की छेड़ता है । "


और भीड़ उस पर टूट पड़ी ।


कोई घूंसे मार रहा था, कोई ठोकरें। स्कर्ट पहने एक मोटी थुलथुल औरत ने तो अपने हाथ में मौजूद छतरी ही बजा दी उस पर। बन्दूकवाला कहना चाह रहा था उसने कुछ नहीं किया, जो किया लड़की के कहने पर किया । मगर भीड़ उसे कुछ कहने का मौका ही कहां दे रही थी । हलक से सिर्फ चीखें निकल रही थीं बेचारे के ।


लहूलुहान होता जा रहा था वह ।


तभी, वातावरण में सीटी बजने की आवाज गूंजी।


सीटी बजाता एक पुलिसिया दूर से दौड़कर इधर आ रहा था।


लड़की फुर्ती से घूमकर सिल्वर कलर की मर्सडीज के दूसरी तरफ पहुंची। उसी क्षण, गुण्डे-से नजर आने वाले एक लड़के ने झटके से मर्सडीज का दरवाजा खोला । बाहर निकला । आंखें लड़की की आंखों से मिलीं। आंखों ही आंखों में बातें हुई। लड़के ने मर्सडीज का दरवाजा वापस बंद किया। दोनों एक नजर पिटते हुए बन्दूकवाला पर और दूसरी नजदीक आ चुके पुलिस वाले पर डाली ।


“काम हो गया ?” लड़की ने फुसफुसाकर कहा ।


लड़के ने कहा “आर. के. राजदान अपने घर नहीं पहुंचेगा।”


“आ !” कहने के साथ लड़की उसका हाथ पकड़कर एक तरफ को लपकी। अगले पल वे पार्किंग में खड़ी गाड़ियों के झुरमुट में गुम हो चुके थे।


***


उधर आर. के. राजदान प्लेन के दरवाजे पर नजर आया, इधर दर्शक दीर्घा में खड़ा पच्चीस वर्षीय देवांश बच्चों की तरह खुशी से उछलता चीखा “भैया ! भैया !”


“क्या कर रहे हो ?” दिव्या ने उसे हौले से कोहनी मारी “इतनी दूर क्या आवाज पहुंचेगी और फिर... ये कांच ।”


उसका इशारा कांच की उस दीवार की तरफ था जिसके एक तरफ वे ‘राजदान एसोसियेट्स' के चुनिंदा कर्मचारियों के साथ खड़े थे।


देवांश थोड़ा सकपकाया ।


कर्मचारी उसके बच्चों की तरह खुश होने पर मुस्करा उठे थे। जैसे ही देवांश ने उनकी तरफ देखा, मुस्कान की शक्ल में फैले होंठ सीधे हो गये । देवांश पुनः खुश होता हुआ बोला “देखो! देखो भाभी! भैया हाथ हिला रहे हैं। उन्होंने हमें देख लिया है।”


कहने के साथ वह भी उछल-उछलकर जोर-जोर से हाथ हिलाने लगा | दिव्या पहले ही से हाथ हिलाती अपने पति का स्वागत कर रही थी । कर्मचारी भी वैसा ही करने लगे।


“नीला सूट! सफेद कमीज ! चित्तीदार टाई! गोरा रंग! वाह, कितने जंच रहे हैं भैया ।" देवांश कहता चला गया और फिर, दिव्या को कोहनी मारता आंखें मटकाकर बोला “जंच रहे हैं न?”


“प्लीज देवांश ।” दिव्या ने कर्मचारियों की मौजूदगी पर उसका ध्यान खींचा।


मगर देवांश को मानो किसी की परवाह नहीं थी। उधर आरके राजदान प्लेन की सीढ़ियां तय करने के बाद बस में सवार हो चुका था । इधर देवांश ने वापसी के लिए जम्प लगाते हुए कहा “आओ! अब वे लॉबी में मिलेंगे।” .


और ... शांताक्रुज एयरपोर्ट की शानदार लॉबी में ।


बाहर से आने वाले यात्रियों के परिचित, दोस्त और रिश्तेदार उनका स्वागत कर रहे थे । देवांश तो अपने भैया के स्वागत के लिए पूरी बैण्ड पार्टी ही ले आया था। उसका इशारा होते ही पार्टी ने बैण्ड बजाना शुरू कर दिया था ।


अच्छी खासी रौनक हो गयी लॉबी में ।


‘राजदान एसोसियेट्स' के चुनिंदा कर्मचारी हाथों में मालाएं लिए खड़े थे। सबसे विशाल माला देवांश के हाथों में थी ।


दिव्या के हाथों में खूबसूरत फूलों का कीमती 'बुके ।' 


राजदान के लॉबी में कदम रखते ही देवांश 'भैया ! भैया !' चीखता यूं उसकी तरफ लपका जैसे वर्षों बाद जेल से छूटी मां बेटे की तरफ लपकी हो । नजदीक पहुंचते ही माला राजदान के गले में डाली और उसके चरण स्पर्श करने के लिए झुका, मगर राजदान ने उसे बीच ही से लपककर सीने से चिपका लिया ।


कसकर बाहों में भींच लिया उसे । उतना ही कसकर देवांश ने भी राजदान को भींच रखा था । बोला “इतने दिन क्यों लगाये भैया! मैं एक- एक दिन गिन रहा था । आज बीसवां दिन है।”


“पगले! काम ही ऐसा था ।” राजदान भावुक हो उठा।


“क्या काम था ऐसा? नई इमारतों के नक्शे ही तो बनवाने थे न ।” देवांश अपना चेहरा राजदान के चेहरे के नजदीक लाता बोला “आप ऑर्डर देकर चले आते । नक्शे आते रहते कोरियर से।”


“गधा है तू! पक्का गधा।” राजदान ने प्यार से उसके गाल पर चपत मारते हुए कहा “अगर हमें ऐसे ही नक्शे चाहिए होते तो यहां, इण्डिया में ही इंजीनियर्स की क्या कमी है ? कनाडा क्यों जाते झक मारने ? वहां के इंजीनियर्स से हमने खुद सामने बैठकर पूरी कॉलोनी का नक्शा बनवाया है।


देखेगा तो ग्लैड हो जायेगी तबियत इण्डिया तो इण्डिया, विदेशों में भी अभी तक वैसी इमारतें नहीं हैं जैसी भविष्य में 'राजदान एसोसियेट्स' बनवाने वाली है।” कहते-कहते बड़ी ही अजीब उदासी काबिज होती चली गई राजदान के चेहरे पर ।


“अरे !” उस उदासी को देखकर देवांश चौंका “क्या हुआ भैया ।"


- “क कुछ नहीं । कुछ नहीं छोटे।" कहने के साथ राजदान ने उसे खींचकर न सिर्फ पुनः बांहों में भर लिया बल्कि पूरी ताकत से खुद से लिपटा लिया । रो पड़ा । वह रुलाई इस तरह फूट पड़ी जैसे रोकने की लाख चेष्टाएं विफल हो गयी हों । देवांश तड़प उठा । राजदान की बांहों से निकलने की कोशिश की उसने मगर सफल न हो सका। राजदान ने उसे ऐसे जकड़ लिया था जैसे कभी छोड़ेगा ही नहीं। उधर, राजदान को इस कदर रोता देखकर दिव्या भी चौंकी । लपककर उनके नजदीक आई “मुंह से निकला “अरे! आप रो क्यों रहे हैं?”


जवाब नहीं दिया राजदान ने। दिव्या की तरफ इस तरह देखता रह गया जैसे किसी अजनबी को देख रहा हो । आंखों से निकलने वाले आंसू आश्चर्यजनक रूप से रुक गये थे । उसकी इस हालत ने दिव्या को बुरी तरह उद्वेलित कर दिया ।


वह देवांश की पीठ की तरफ थी । देवांश को राजदान ने अभी तक खुद से चिपका रखा था। दिव्या ने उसके दोनों कंधे पकड़कर झंझोड़ते हुए कहा “बोलते क्यों नहीं आप? क्या हुआ है ?”


कहीं खोया हुआ राजदान जैसे वापस आया । मुंह से निकला “आं? अरे! इस तरह रियेक्ट क्यों कर रहे हो तुम दोनों ।” कहने के साथ उसने देवांश को मुक्त किया और ठहाका लगाता बोला “किसी की आंखों में खुशी के आंसू नहीं देखे क्या तुमने कभी ?”


“खुशी के आंसू ?” देवांश ने गौर से राजदान को देखते हुए कहा “खुशी के आंसू थे ये ?”


“ और क्या इतने दिन बाद तुम दोनों से मिलकर गम के आंसू निकलेंगे मेरी आंखों से ? तुम दोनों! जो मेरी जान हो । यूं टुकुर-टुकुर क्या देख रही हो दिव्या । लाओ! ये बुके मेरे ही लिए लाई हो न तुम ?” कहने के साथ उसने खुद बुके उसके हाथ से ले लिया। बैंड वालों ने उनकी हालत देखकर बैण्ड बजाना बंद कर दिया था । तभी राजदान उनकी तरफ लपकता हुआ बोला “बाजा बजाना बंद क्यों कर दिया तुमने ? बजाओ । आज बीस दिन बाद अपने वतन लौटा हूं मैं | खुशियां तो मनानी ही चाहिएं।”


बैण्ड वालों ने अपने-अपने साज बजाने शुरू कर दिए।


और राजदान एसोसियेट के स्टाफ ने शुरू कर दी उसके गले में मालाएं डालनी । वह हंस रहा था । ठहाके लगा रहा था। अपने एक-एक कर्मचारी के हालचाल पूछ रहा था। अपनी ही कद-काठी के एक कर्मचारी की तरफ बढ़ते हुए उसने पूछा “कैसे हो समरपाल?”


समरपाल आगे बढ़ा। उसकी चाल में थोड़ी लंगड़ाहट थी । हाथ में मौजूद माला राजदान के गले में डालता बोला - "ठीक हूं सर ! कृपा है आपकी ।"


देवांश और दिव्या की आंखें मिलीं। चारों आंखों में एक ही जैसे भाव थे। जैसे पूछ रही हों “क्या तुम्हारी समझ में कुछ आया ?” जवाब भी एक ही था “नहीं !” देवांश बड़बड़ा उठा “मैं भैया के चेहरे को खूब पहचानता हूं । वास्तविक खुशी नहीं है उनके फेस पर । खुद को बेवजह खुश दिखाने की कोशिश कर रहे हैं।”


“अरे छोटे ! दिव्या ! दूर क्यों खड़ी हो तुम ! आओ।" कहने के साथ राजदान ने अपनी बाहें फैला दीं ।